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Parameshwar Stotra (परमेश्वरस्तोत्रम्)
परमेश्वरस्तोत्रम्
जगदीड सुश्नीदा भवेदा विभो
'परमेझा परात्पर पूत पितः ।
श्रणत पतित हतबुद्धिबलं
जनतारण तारय तापितकम् ॥ १ ॥
गुणहीनसुदीनमलीनमतिं
त्वयि पातरि दातरि चापरतिम् ।
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं । जन॥ २ ॥
मम जीवनमीनमिमं पतित
मरुघोरभुवीह सुवी हमहो ।
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयन । जन॥ ३ ॥
भववारण कारण कर्मततौ
भवसिन्धुजले शिव मयझमतः ।
करुणाज्ञ समर्प्प तरि त्वरितं। जन॥ ४ ॥
अतिनाइय ज नुर्मम पुण्यरुचे
दुरितौघभरै: परिपूर्णभुवः ।
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं || जन ॥ ५ ॥
भवकारक नारकहारक हे
भवतारक पातकदारक हे ।
हर चक्र किड्टूरकर्मचये । जन ॥ ६ ॥
तुषितश्िरमस्मि सुधां हित मे-
उच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर ।
अतिमोहवदेन विनष्टकृते । जन ॥ ७ ॥
ज्रणमामि नमामि नमामि भव
भवजन्मकृतिप्रणिघूदनकम ।
गुणहीनमनन्तमिते सारण । जन ॥ ८
अर्थ:-
पनी सेवाकी सामग्रीके रूपमें स्वीकार कीजिये ॥ ७७ ॥| है प्रभो ! मेरे एकमात्र
आप ही रक्षक हैं, आप ही मुझपर दया करनेवाले हैं; अतः पापोंको मेरी ओर
प्रवृत्त न कीजिये और प्रवृत्त हुए पा्षोंका निवारण कीजिये ॥ ८ ॥ हे देव ! है
दीनदुःखहारी भगवन् ! मेरा न करने योग्य कार्योका करना और करने योग्योंको
न करना आप क्षमा करें ॥ ९ ॥ श्रीमन् ! आपने स्वयं ही मेरी पाँचों इन्द्रियोंको
'नियन्तित करके मेरी रक्षाका भार अपने ऊपर ले लिया; अतः अब मैं निर्भर
हो गया ॥ १० ॥।
है जगदीज्ञा ! हे सुमतियोंके स्वामी ! हे विश्वेश ! हे सर्वव्यापिन् ! हे
परमेश्वर ! है प्रकृति आदिसे अतीत ! है परमपावन ' है पितः ! हे जीवोंका
ड निस्तार करनेवाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बलसे हीन संसारसन्तप्त
दासका उद्धार कीजिये॥ १॥ जो सर्वथा गुणहीन, -अत्यन्त दीन और
मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आपसे पराड्मुख है, हे जीवॉंका
निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त उस तामस-राजसवृत्तिवाले दासका आप
उद्धार कीजिये ॥ २ ॥ हे जीवोंका निस्तार करनेवाले ! इस भयानक मरुभूमिमें
'पड़कर नितान्त निश्चेष्ठ हुए मेंर इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीनका अपने
'करुणावारिधिकी चज्नल तस्ड्रोॉंका जल लाकर उद्धार कीजिये ॥ ३ ॥ अतः हे
दुःखितका उद्धार कीजिये ॥ ५॥ है जगत्कर्ता ! हे नास्कीय यन्त्रणाओंका
अपहरण करनेवाले ! हे संसारकां उद्धार करनेवाले ! हे पापराशिकों विदीर्ण
करनेवाले ! हे झाडटर ! इस दासकी कर्मरादिका हरण कीजिये और हे जीवॉंका
निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त जनका उद्धार कीजिये ॥ ६॥ हे
अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदास्चूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त
'तृषित हूँ, मुझे ज्ञारूप अमृतका पान कराइये। मैं अत्यन्त मोहके वशीभूत
होकर नष्ट हो रहा हूँ । हे जीवोंका उद्धार करनेवाले ! मुझ संसारसन्तप्तको पार
'लगाइये ॥ ७॥ संसारमें जन्मप्राप्तिकि कारणभूत कर्मोका नाश करनेवाले
आपको मैं बारंबार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ। हे जीवॉका उद्धार
करनेवाले ! आप निर्गुण और अनन्तकी झारणकों प्राप्त हुए इस संसारसन्तप्त
जनका उद्धार कीजिये ॥ ८ ॥