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Secrets of Mantras

Unlocking the Secrets of Mantras: Creation, Usage, and Benefits Explained

संपूर्ण ब्रह्मांड में केवल एक ही मन है, लेकिन यह मन हम में से प्रत्येक में व्यक्तिगत रूप में दिखाई देता है। तो, आपका मन और मेरा मन दो मन नहीं हैं, हमारे मन सिर्फ उसी सार्वभौमिक मन की अलग-अलग अभिव्यक्तियों के रूप में दिखाई देते हैं। सच्चाई यह है कि व्यक्तिगत मन समरूप, सार्वभौमिक मन का हिस्सा है। इसलिए, व्यक्तिगत मन को सार्वभौमिक मन के साथ जोड़ा जा सकता है यदि हम जानते हैं कि इसे कैसे जोड़ना है। हमें इसे एक नियम के रूप में याद रखना चाहिए, क्योंकि यह आध्यात्मिक जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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Guru Mantra

Mantra: Harness the spiritual essence of divine sounds and sacred chants

दीक्षा के बिंदु तक, आप किसी भी सामान्य मंत्र का अभ्यास कर सकते हैं, लेकिन एक बार जब आपको किसी मंत्र में दीक्षित किया जाता है, तो यह आपका व्यक्तिगत मंत्र बन जाता है। मंत्र को लिखा जा सकता है, जोर से जपा जा सकता है, फुसफुसाकर कहा जा सकता है, या मानसिक रूप से दोहराया जा सकता है। जब गुरु द्वारा मंत्र दिया जाता है, तो इसे आपके आत्मा द्वारा पंजीकृत किया जाता है। इसे मंत्र दीक्षा कहा जाता है। यह एक बीज है जो आपके साधना या आध्यात्मिक अभ्यास के साथ बढ़ता है। मंत्र हमेशा गुरु से प्राप्त करना चाहिए। यह गुरु और शिष्य के बीच का पहला संपर्क या दीक्षा का रूप है। एक शिष्य को गुरु के साथ स्थायी संबंध बनाना होता है, जो मंत्र के माध्यम से होता है। न तो मंत्र और न ही गुरु को बदलना चाहिए। गुरु के द्वारा मंत्र की शक्तियों को पारित करने से पहले, उन्हें महसूस होना चाहिए कि शिष्य इसे प्राप्त करने के लिए पर्याप्त मजबूत और तैयार है। कई गुरु अपने शिष्यों को कुछ चुंबकीय शक्तियाँ संचारित कर सकते हैं, लेकिन अगर शिष्य तैयार नहीं होता है, तो यह उसकी मानसिक और तंत्रिका संतुलन को बिगाड़ सकता है। दीक्षा कुछ ऐसा है जैसे व्यक्ति के मानसिक वातावरण में एक विद्युत झटका प्रवेश कर रहा हो। जैसे कारतूस को बंदूक के हथौड़े द्वारा मारा जाना चाहिए ताकि वह आग लगा सके, वैसे ही मंत्र को गुरु के हथौड़े द्वारा मारा जाना चाहिए ताकि चेतना विस्फोटित हो सके। गुरु और शिष्य के बीच का संबंध मंत्र पर आधारित होता है। मंत्र की सहायता से, गुरु संस्कारों को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। जब शिष्य अपने गुरु से मंत्र स्वीकार करता है, तो वह गुरु के साथ संबंध स्थापित कर रहा होता है, और वह एक बहुत शक्तिशाली ध्वनि प्राप्त कर रहा होता है। एक व्यक्तिगत मंत्र जीवन में सबसे मूल्यवान चीजों में से एक होता है। किसी गुरु से मंत्र प्राप्त करना पुस्तक से मंत्र जानने, मंत्र के बारे में जानकारी प्राप्त करने या मंत्र खोजने से बहुत अलग होता है। जब गुरु आपके कानों में "ओम नमः शिवाय" कहते हैं, तो वह ऊर्जा भेज रहे होते हैं। गुरु का भाषण ऊर्जा है। ध्वनि ऊर्जा है। यह एक धारा है, यह एक तरंग है, यह एक आवृत्ति है। इसमें इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन होते हैं। जब गुरु आपके कानों में "ओम नमः शिवाय" कहते हैं, तो यह पुस्तक से प्राप्त ज्ञान से पूरी तरह से अलग होता है। तो यह महत्वपूर्ण है। "उस्को कहते हैं, कानफूंकना," जिसका अर्थ है "कानों में फूंकना।" हमारे प्राचीन भारतीय अभिव्यक्ति में, "यार, कानफूंक लो!" और कान (कान) दाहिना नहीं होता, यह बायाँ होता है। जब गुरु मंत्र फुसफुसाते हैं, तो इसे उपंशु कहा जाता है। इसी तरह मंत्र शिष्य को दिया जाता है। और उस मंत्र को दोहराया जाना चाहिए। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि हर आध्यात्मिक साधक को एक मंत्र प्राप्त करना चाहिए। मंत्र एक शक्तिशाली बल है जो मन की बीमारियों को ठीक करता है और मन की पूरी संरचना को पुनर्स्थापित करता है। जो लोग ऊँचाई तक जाना चाहते हैं, गहराई तक जाना चाहते हैं, उन्हें एक मंत्र की आवश्यकता होती है।

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Mantras & its Power

The Power of Mantras: Uncover the transformative energy of sacred Hindu chants.

कई प्रकार के मंत्र होते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं बीज मंत्र। जब योगियों ने उच्चतम चेतना के स्तर तक पहुंचा, जब उन्होंने भौतिक चेतना, खगोलीय अस्तित्व को पार कर लिया, और जब उन्होंने अचेतन की बाधाओं को तोड़ दिया, तब ये बीज मंत्र उनके सामने प्रकट हुए। बीज मंत्र बहुत ही शक्तिशाली ध्वनियाँ होती हैं, जिनका महत्वपूर्ण और त्वरित प्रभाव होता है। ये मंत्र एकलाक्षरी ध्वनि से बने होते हैं। लाखों बीज मंत्र हैं, लेकिन हम केवल कुछ ही जानते हैं, जैसे कि ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं आदि। प्रत्येक बीज मंत्र का अपना तत्व होता है और प्रत्येक तत्व शरीर में एक चक्र या केंद्र से जुड़ा होता है। ओम् ईथर तत्व से संबंधित है, जो सबसे सूक्ष्म तत्व है। ईथर का स्थान आज्ञा चक्र है। इसलिए, ओम् आज्ञा चक्र का मंत्र है और इसे सभी बीज मंत्रों का पिता माना जाता है। जो भी परम सत्य के गंभीर साधक हैं, वे ओम् मंत्र का उपयोग करते हैं। प्रत्येक चक्र का एक संबंधित बीज मंत्र होता है। बीज मंत्र लं पृथ्वी तत्व से संबंधित है, जिसका स्थान मूलाधार चक्र है। वं जल तत्व से संबंधित है, जिसका स्थान स्वाधिष्ठान चक्र है। रं अग्नि तत्व से संबंधित है, जिसका स्थान मणिपुर चक्र है। यं वायु तत्व से संबंधित है, जिसका स्थान अनाहत चक्र है। हं ईथर तत्व से संबंधित है, जिसका स्थान विशुद्धि चक्र है। बीज मंत्र अत्यधिक शक्तिशाली होते हैं। जिन साधकों ने अपने संस्कारों को ठीक नहीं किया है, उन्हें बीज मंत्र का अभ्यास नहीं करना चाहिए, उन्हें कुछ और अभ्यास करना चाहिए। जब आप बीज मंत्र का उपयोग करते हैं, तो प्राण की जागरूकता अनियंत्रित हो जाती है। यही कारण है कि इतने सारे लोग बीज मंत्र का अभ्यास करने के दूसरे दिन के भीतर अनुभव प्राप्त करते हैं।

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The Gods of Hinduism

The Gods of Hinduism:Explore the diverse and powerful deities of Hindu mythology.

हिंदू धर्म के देवताओं ने उन बाहरी विश्वासों के अनुयायियों के मन में सफलतापूर्वक पर्याप्त भ्रम पैदा कर दिया है जो उनके संपर्क में आए हैं। उन्होंने हिंदुओं के बीच भी और अधिक सफलतापूर्वक पर्याप्त संघर्ष पैदा कर दिया है! यह अज्ञानता ही है जो भ्रम का कारण बनती है और संघर्ष उत्पन्न करती है। इसलिए, इस अज्ञानता को पहचानना और इसे दूर करना स्वतः ही भ्रम को साफ़ करने और संघर्षों को हल करने का मार्ग प्रशस्त करेगा। एक नास्तिक की कहानी है जिसने अपने जीवनभर जोर-शोर से यह प्रचार किया कि न तो ईश्वर है और न ही आत्मा। जीवन के अंतिम क्षण में उसने इस प्रकार प्रार्थना की: "हे ईश्वर, यदि कोई ईश्वर है, मेरी आत्मा को बचाओ, यदि कोई है!" यह कहानी मज़ेदार लग सकती है, लेकिन फिर भी, यह गहराई से मनुष्य की ईश्वर के प्रति मनोवैज्ञानिक आवश्यकता को प्रकट करती है। ईश्वर में विश्वास ने सहस्राब्दियों से मानवता को स्थिर रखा है। देवताओं और देवियों में आस्था और उनकी आराधना ने लाखों साधारण हिंदुओं के जीवन में एक व्यावहारिक आवश्यकता को पूरा किया है। यह सुझाव देना कि हिंदू एक ईश्वर, सर्वोच्च ईश्वर, की कल्पना नहीं कर सकते थे या नहीं की, सरल है। उपनिषदों, भगवद गीता और ब्रह्म सूत्रों में हिंदू धर्म में दार्शनिक सोच उत्तम ऊंचाइयों तक पहुंची है। हालांकि, इन महान ग्रंथों और उनके अनुयायियों ने सामान्य मानव मन की सीमाओं और उसकी भावनात्मक आवश्यकताओं को पहचाना। इसीलिए उन्होंने समझदारी से विभिन्न प्रकार की उपासनाओं (ध्यान और उपासना के तरीके) का प्रावधान किया ताकि विभिन्न भक्तों की पसंद और आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके।

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Guide to Every Shaktipeeth in India

Learn about all the Shaktipeeths in India.

दक्षप्रजापतिकी सुपुत्री श्रीसतीजीके दिव्य अज्लेंके गिरनेसे जिन ५१ शक्तिपीठोंके आविर्भावकी जो कथा देवीपुराण आदि ग्रन्थोंमें मिलती है, उनमेंसे वाराणसीमें प्रादुर्भूत शक्तिपीठका नाम श्रीविशालाक्षी शक्तिपीठ है। तन्‍्त्रचूडामणिमें प्राप्त उपाख्यानमें कहा गया है कि भगवान्‌ विष्णुके सुदर्शन चक्रसे कटकर श्रीसतीजीके विभिन्न अज्भ जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ एक-एक शक्ति एवं एक-एक भैरव विराजमान हो गये। इसी आख्यानमें यह भी कहा गया है कि काशीमें भगवतीसतीकी कर्ण-मणि गिरी थी, जिससे यहाँ भी एक शक्तिपीठका आविर्भाव हुआ। इस शक्तिपीठपर श्रीविशालाक्षीजी विराजमान हुईं। मत्स्यपुराणमें वर्णन आया है कि पिता दक्षप्रजापतिसे अपमानित होकर जब देवी सतीने अपने शरीरसे प्रकट हुए तेजसे स्वयंको जलाना प्रारम्भ किया तो उस समय दक्षप्रजापतिने क्षमा माँगते हुए उनकी प्रार्थना करते हुए कहा--' देवि ! आप इस जगत्‌की जननी तथा जगत्‌को सौभाग्य प्रदान करनेवाली हैं, आप मुझपर अनुग्रह करनेकी कामनासे ही मेरी पुत्री होकर अवतीर्णं हुई दँ । धर्मज्ञे! यद्यपि इस चराचर जगतूमें आपकी ही सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, फिर भी मुझे किन-किन स्थानोमें जाकर आपका दर्शन करना चाहिये, बतानेकी कृपा करे ।' इसपर देवीने कहा-- दक्ष! यद्यपि भूतलपर समस्त प्राणियोंमें सब ओर मेरा ही दर्शन करना चाहिये; क्योकि सभी पदार्थमिं मेरी ही सत्ता विद्यमान है । फिर भी जिन-जिन स्थानें मेरी विशेष सत्ता व्याप्त है, उन-उन स्थानोंका मैं वर्णन कर रही हूँ। इतना कहनेके बाद देवीने अपने १०८ शक्तिपीठोंके नामोंका परिगणन किया, जिसमें सर्वप्रथम वाराणसीमें स्थित भगवती विशालाक्षीका ही नामोल्लेख हुआ है, यथा-- वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिङ्कधारिणी। प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गन्धमादने॥ अन्तमें देवीने यहाँके माहात्म्यको बताते हुए कहा कि जो यहाँ तीर्थमें स्नानकर मेरा दर्शन करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर कल्पपर्यन्तं शिवलोकमें निवास करता हे । भगवती विशालाक्षीजीको महिमा अपार है । देवीभागवतमें तो काशीमें एकमात्र विशालाक्षीपीठ होनेका ही उल्लेख प्राप्त होता है। देवीके सिद्ध स्थानोमें भी काशीपुरीके अन्तर्गत मात्र विशालाक्षीका ही वर्णन मिलता है-- ‘वाराणस्यां विशालाक्षी गौरीमुखनिवासिनी ।' ‘अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये।' (देवीभागवत ७।३०।५५; ३८। २७) स्कन्दपुराणान्तर्गत काशीखण्डमें श्रीविशालाक्षीजीको नौ गौरियोंमेंसे पाँचवीं गौरीके रूपमे दर्शाया गया है तथा इनका विशेष महत्त्व बतलाया गया है। यहाँ भगवती विशालाक्षीके भवनकों भगवान्‌ विश्वनाथका विश्रामस्थल कहा गया है। काशीपति भगवान्‌ विश्वनाथ भगवती श्रीविशालाक्षीके मन्दिरमें उनके समीप विश्राम करते हैं तथा इस असार संसारके अथाह कष्टोंको झेलनेसे खिन्न हुए मनुष्योंको सांसारिक कष्टोंसे विश्रान्ति देते हैं-- विशालाक्ष्या महासौधे मम विश्रामभूमिका। तत्र॒ संसृतिखिन्नानां विश्रामं श्राणयाम्यहम्‌॥ काशीखण्डमें श्रीविशालाक्षीजीके दर्शन- पूजन-हेतु विशेष निर्देश दिये गये हैँ । भगवतीकी अभ्यर्चना-हेतु सर्वप्रथम काशीके विशालगङ्खा नामक तीर्थमें स्नान करनेका आदेश दिया गया है-- "स्नात्वा विालगङ्कायां विशालाक्षीं ततो त्रजेत्‌।' भगवती श्रीविशालाक्षीकी पूजामें धूप, दीप, सुगन्धित माला, मनोहर उपहार, मणियों एवं मोतियोके आभरण, चामर, नवीन वस्त्र इत्यादि अर्पित करनेको कहा गया है । विशालाक्षी शक्तिपीठमें अर्पित किया गया स्वल्प भी अनन्तगुना होकर प्राप्त होता है । यहाँ दिया गया दान, जपा हुआ नाम, किया गया देवी-स्तवन एवं हवन मोक्षदायी होता है । विशालाक्षीजीकौ अर्चनासे रूप और सम्पत्ति दोनों प्राप्त होते हैं-- वाराणस्यां विशालाक्षी पूजनीया प्रयल्रतः। धूपैर्दीपै: शुभर्माल्यैरुपहा रैर्मनोहरैः ॥ मणिमुक्ताद्यलड्लारैरविचित्रोल्लोचचामरै: । शुभरनुपभुक्तेश्च दुकूलैर्गन्धवासितैः ॥ मोक्षलक्ष्मीसमृद्धयर्थ यत्रकुत्रनिवासिभिः। अत्यल्पमपि यदत्तं विशालाय नरोत्तमैः॥ तदानन्त्याय जायेत मुने लोकद्वयेऽपि हि। विशालाक्षीमहापीठे दत्तं जप्तं हुतं स्तुतम्‌॥ मोक्षस्तस्य परीपाको नात्र कार्या विचारणा। विशालाक्षीसमर्चातो रूपसम्पत्तियुक्पति: ॥ (स्क०पु०, का०ख० ७०। १०--१४) त्रिस्थलीसेतुमें काशीपुराधीश्वरी भगवती अन्नपूर्णा, भवानी एवं विशालाक्षीकी त्रिमूर्तिका एेक्य दर्शाया गया है-- शिवे सदानन्दमये द्यधीश्चरि श्रीपार्वति ज्ञानघनेऽम्बिके शिवे। मातर्विशालाक्षि भवानि सुन्दरि त्वामन्नपूणं शरणं प्रपद्ये ॥ अन्नपूर्णोपनिषद्में विशालाक्षीको अन्नपूर्णा कहा गया है-- ‘अन्नपूर्णा विशालाक्षी स्मयमानमुखाम्बुजा ॥' काशीमें दक्षिण दिग्यात्रा क्रममें ११ वें क्रमपर श्रीविशालाक्षीजीके* दर्शनका निर्देश है तथा प्रतिवर्ष भाद्रपदकृष्ण तृतीयाको माता विशालाक्षीकी वार्षिक यात्राकौ परम्परा रही है । यहाँ वासन्तिक नवरात्रमें नवगौरी- दर्शनक्रममें ५वें दिन पञ्चमी तिथिको विशालाक्षीजीके दर्शनका विधान है। नवरात्रमें एवं प्रत्येक मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको सभी नौ गौरियोंकी यात्रा करने एवं वहाँके तीर्थोमें स्नान करनेका जो नियम काशीखण्ड (अध्याय १००)-में दिया गया है, उसके अनुसार भी प्रतिमास शुक्ल तृतीयाको श्रीविशालाक्षीजीका दर्शन किया जाता है। तन्त्रसारमें उनके ध्यानस्वरूपको बताते हुए कहा गया है कि भगवती विशालाक्षी साधकोंके समस्त शत्रुओंका विनाश कर डालती हैं तथा उन्हें उनका अभीष्ट प्रदान करती है । जगजननी विशालाक्षीदेवी सभी प्रकारके सौभाग्योंकी जननी हैं। जो भक्त इनकी शरणमें आते हैं, उनका सच्चा भाग्योदय हो जाता है। भगवतीकी असीम कृपा एवं दयालुतासे उनके भक्तजन देवताओंमें भी ईर्ष्या जगानेवाली अतुलनीय सम्पत्तिको अत्यन्त सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं। विशालाक्षीदेवी गौरवर्णकी हैं तथा उनके दिव्य श्रीविग्रहसे तपाये हुए सुवर्णके समान कान्ति निरन्तर निकलती रहती है। भगवती अत्यन्त सुन्दरी और रूपवती हैं तथा वे सर्वदा षोडशवर्षीया दिखलायी देती हैं। जटाओंके मुकुटसे मण्डित तथा नाना प्रकारके सौभाग्याभरणोंसे अलंकृत भगवती रक्तवस्त्र धारण करती हैं और मुण्डोंकी माला पहने रहती हैं। दो भुजाओंवाली अम्बिका अपने एक हाथमें खड्ग तथा दूसरेमें खप्पर धारण किये रहती हैं-- ध्यायेहेवीं विशालाक्षीं तप्तजाम्बूनदप्रभाम्‌। द्विभुजामम्बिकां चण्डीं खद्गखर्परधारिणीम्‌॥ नानालङ्कारसुभगां रक्ताम्बरधरा शुभाम्‌। सदा षोडशवर्षीयां प्रसन्नास्यां त्रिलोचनाम्‌॥ मुण्डमालावतीं रम्यां पीनोन्नतपयोधराम्‌। शिवोपरि महादेवीं जटामुकुटमण्डिताम्‌॥ शत्रुक्षयकरीं देवीं साधकाभीष्टदायिकाम्‌ । सर्वसौभाग्यजननीं महासम्पत्प्रदां स्मरेत्‌ ॥