Chalisa Collection

    Shri Ram Chalisa (श्री राम चालीसा)

    II श्री राम चालीसा II श्री रघुवीर भक्त हितकारी, सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी। निशि दिन ध्यान धेरै जो कोई, ता सम भक्त और नहिं होई। ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं। जय जय जय रघुनाथ कृपाला, सदा करो सन्तन प्रतिपाला। दूत तुम्हार वीर हनुमाना, जासु प्रभाव तिहूँ पुर जाना। तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, रावण मारि सुरन प्रतिपाला। तुम अनाथ के नाथ गोसाईं, दीनन के हो सदा सहाई। ब्रह्मादिक तव पार न पावैं, सदा ईश तुम्हरो यश गावैं। चारिउ वेद भरत हैं साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी। गुण गावत शारद मन माहीं, सुरपति ताको धार न पाहीं। नाम तुम्हार लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहिं होई। राम नाम है अपरम्पारा, चारिउ वेदन जाहि पुकारा। गणपति नाम तुम्हारो लीन्हौ, तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हौ। शेष रटत नित नाम तुम्हारा, महि को भार शीश पर धारा। फूल समान रहत सो भारा, पाव न कोउ तुम्हारो पारा। भरत नाम तुम्हरो उर धारो, तासों कबहु न रण में हारो। नाम शत्रुहन हदय प्रकाशा, सुमिरत होत शत्रु कर नाशा। लषन तुम्हारे आज्ञाकारी, सदा करत सन्तन रखवारी। ताते रण जीते नहिं कोई, युद्ध जुरे यमहूं किन होई। महालक्ष्मी धर अवतारा, सब विधि करत पाप को छारा। सीता नाम पुनीता गायो, भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो। घट सों प्रकट भई सो आई, जाको देखत चन्द्र लजाई । सो तुमरे नित पाँव पलोटत, नवों निद्धि चरणन में लोटत। सिद्धि अठारह मंगलकारी, सो तुम पर जावै बलिहारी। औरहु जो अनेक प्रभुताई, सो सीतापति तुमहिं बनाई। इच्छा ते कोटिन संसारा, रचत न लागत पल की वारा। जो तुम्हरे चरणन चित लावै, ताकी मुक्ति अवसि हो जावै। जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा, निर्गुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा । सत्य सत्य सत्य ब्रत स्वामी, सत्य सनातन अन्तर्यामी । सत्य भजन तुम्हरो जो गावै, सो निश्चय चारों फल पावै। सत्य शपथ गौरिपति कीन्हीं, तुमने भक्तिहिं सब सिद्धि दीन्हीं। सुनहु राम तुम तात हमारे, तुमहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे। तुमहिं देव कुल देव हमारे, तुम गुरुदेव प्राण के प्यारे। जो कुछ हो सो तुम ही राजा, जय जय जय प्रभु राखो लाजा। राम आत्मा पोषण हारे, जय जय जय दशरथ दुलारे। ज्ञान हदय दो ज्ञान स्वरूपा, नमो नमो जय जगपति भूपा। धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा, नाम तुम्हार हरत संतापा । सत्य शुद्ध देवन मुख गाया, बजी दुन्दुभी शंरत्र बजाया। सत्य सत्य तुम सत्य सनातन, तुम ही हो हमारे तन मन धन। याको पाठ करे जो कोई, ज्ञान प्रकट ताके उर होई। आवागमन मिटै तिहि केरा, सत्य वचन माने शिव मेरा। और आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावे सोई। तीनहूं काल ध्यान जो ल्यावैं, तुलसी दल अरु फूल चढ़ावैं । साग पत्र सो भोग लगावैं, सो नर सकल सिद्धता पावैं। अन्त समय रघुवर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई। श्री हरिदास कहै अरु गावै, सो बैकुण्ठ धाम को जावै । II दोहा II सात दिवस जो नेम कर, पाठ करे चित लाय I हरिदास हरि कृपा से, अवसि भक्ति को पाय II राम चालीसा जो पढ़े, , राम चरण चित लाय I जो इच्छा मन में करै, सकल सिद्ध हो जाय II

    Shri Ganesh Chalisa (श्री गणेश चालीसा)

    II श्री गणेश चालीसा II ॥ दोहा ॥ जय गणपति सदगुण सदन, करि वर बदन कृपाल। विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय जय गणपति गणराजू, मंगल भरण करण शुभ काजू । जय गजबदन सदन सुखदाता, विश्वविनायक बुद्धि विधाता । वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन, तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन। राजत मणि मुक्तन उर माला, स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला। पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं, मोदक भोग सुगन्धित फूलं। सुन्दर पीताम्बर तन साजित, चरण पादुका मुनि मन राजित। धनि शिव सुवन षडानन भ्राता, गौरी ललन विश्व विख्याता। ऋद्धि सिद्धि तव चंवर सुधारे, मृषक वाहन सोहत द्वारे। कहाँ जन्म शुभ कथा तुम्हारी, अति शुचि पावन मंगलकारी। एक समय गिरिराज कुमारी, पुत्र हेतु तप कीन्हों भारी। भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा, तब पहुँच्यो तुम धरि द्विज रूपा। अतिथि जानि के गौरी सुखारी, बहु विधि सेवा करी तुम्हारी। अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा, मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा। मिलहिं पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला, बिना गर्भ धारण यहि काला। गणनायक गुण ज्ञान निधाना, पूजित प्रथम रूप भगवाना। अस केहि अन्तर्धान रूप है, पलना पर बालक स्वरूप है। बनि शिशु रुदन जबर्हि तुम ठाना, लखि मुख सुख नहिं गौरी समाना। सकल मगन सुख मंगल गावहिं, नभ ते सुरन सुमन वर्षावहि । शम्भु उमा बहु दान लुटावहिं, सुर मुनिजन सुत देखन आवहि । लखि अति आनन्द मंगल साजा, देखन भी आए शनि राजा । निज अवगुण गनि शनि मन माहीं, बालक देखन चाहत नाहीं । गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो, उत्सव मोर न शनि तुहि भायो । कहन लगे शनि मन सकुचाई, का करिहों शिशु मोहि दिखाई । नहि विश्वास उमा उर भयऊ, शनि सों बालक देखन काऊ । पड़तहिं शनि दुगकोण प्रकाशा, बालक सिर उड़ि गयो अकाशा । गिरिजा गिरी विकल है धरणी, सो दुख दशा गयो नहिं वरणी । हाहाकार मच्यो कैलाशा, शनि कीन्हों लखि सुत का नाशा । तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाये, काटि चक्र सो गजशिर लाये । बालक के धड़ ऊपर धारयो, प्राण मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो । नाम 'गणेश' शम्भु तब कीन्हें, प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हें । बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा, पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा । चले षडानन, भरमि भुलाई, रचे बैठि तुम बुद्धि उपाई । चरण मातु पितु के धर लीन्हें, तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें । धनि गणेश कहि शिव हिय हष्यों, नभ ते सुरन सुमन बहु वष्यों । तुम्हारी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस मुख सके न गाई । मैं मति हीन मलीन दुखारी, करहुँ कौन विधि विनय तुम्हारी । भजत 'राम सुन्दर' प्रभुदासा, जग प्रयाग ककरा दुर्वासा । अब प्रभु दया दीन पर कीजे, अपनी भक्ति शक्ति कुछ दीजे। ॥ दोहा ॥ श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै धर ध्यान । नित नव मंगल गृह बसै, लहै जगत सनमान ॥ सम्बन्ध अपना सहस्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश । पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥

    Shiv Chalisa (शिव चालीसा)

    II श्री शिव चालीसा II ॥ दोहा ॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥ ॥ चौपाई ॥ जय गिरजापति दीनदयाला, सदा करत सन्तन प्रतिपाला । भाल चन्द्रमा सोहत नीके, कानन कुण्डल नागफनी के । अंग गौर शिर गंग बहाये, मुण्डमाल तन छार लगाये । वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे, छवि को देख नाग मुनि मोहे । मैना मातु कि हवे दुलारी, वाम अंग सोहत छवि न्यारी । कर त्रिशूल सोहत छवि भारी, करत सदा शत्रुन क्षयकारी । नन्दि गणेश सोहैं तहें कैसे, सागर मध्य कमल हैं जैसे । कार्तिक श्याम और गणराऊ, या छवि को कहि जात न काऊ । देवन जबहीं जाय पुकारा, तबहीं दुःख प्रभु आप निवारा । किया उपद्रव तारक भारी, देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी । तुरत पडानन आप पठायउ, लव निमेष महँ मारि गिरायऊ । आप जलंधर असुर संहारा, सुयश तुम्हार विदित संसारा । त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई, सबहिं कृपा कर लीन बचाई। किया तपर्हि भागीरथ भारी, पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी। दानिन महँ तुम सम कोई नाहिं, सेवक अस्तुति करत सदाहीं। वेद नाम महिमा तव गाई, अकथ अनादि भेद नहिं पाई। प्रगटी उदधि मंथन में ज्वाला, जरे सुरासुर भये विहाला। कीन्हीं दया तहें करी सहाई, नीलकण्ठ तब नाम कहाई। पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा, जीत के लंक विभीषण दीन्हा। सहस कमल में हो रहे धारी, कीन्ह परीक्षा तबर्हि पुरारी। एक कमल प्रभु राखे जोई, कमल नयन पूजन चहें सोई। कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर, भए प्रसन्न दिए इच्छित वर। जै जै जै अनन्त अविनासी, करत कृपा सबकी घटवासी। दुष्ट सकल नित मोहि सतावै, भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै। त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो, यहि अवसर मोहि आन उबारो। लै त्रिशूल शत्रुन को मारो, संकट से मोहि आन उबारो। मातु पिता भ्राता सब कोई, संकट में पूछत नहीं कोई। स्वामी एक है आस तुम्हारी, आय हरहु मम संकट भारी। धन निर्धन को देत सदाहीं, जो कोई जाँचे वो फल पाहीं। अस्तुति केहि विधि करों तिहारी, क्षमहु नाथ अब चूक हमारी। शंकर हो संकट के नाशन, मंगल कारण विघ्न विनाशन। योगि यति मुनि ध्यान लगावें, नारद शारद शीश नवावैं। नमो नमो जय नमो शिवाये, सुर ब्रह्मादिक पार न पाए। जो यह पाठ करे मन लाई, तापर होत हैं शम्भु सहाई। ऋनिया जो कोई हो अधिकारी, पाठ करे सो पावन हारी। पुत्रहीन इच्छा कर कोई, निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई। पंडित त्रयोदशी को लावे, ध्यान पूर्वक होम करावे। त्रयोदशी व्रत करे हमेशा, तन नहिं ताके रहे कलेशा। धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे, शंकर सम्मुख पाठ सुनावे। जन्म जन्म के पाप नसावे. अन्त वास शिवपुर में पावे। कहै अयोध्या आस तुम्हारी, जानि सकल दुःख हरहु हमारी। ॥ दोहा ॥ नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीस। तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥ मगसर छठि हेमन्त ऋतु, संवत् चौंसठ जान। अस्तुति चालीसा शिवहि,पूर्ण कीन कल्याण॥

    Shri Hanuman Chalisa (श्री हनुमान चालीसा)

    II श्री हनुमान चालीसा II ॥ दोहा ॥ श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि। बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥ बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार ॥ ॥ चौपाई ॥ जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर। राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा। महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी। कंचन वरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा। हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै, काँधे मूँज जनेऊ साजै। शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन। विद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर। प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया। सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, विकट रूप धरि लंक जरावा। भीम रूप धरि असुर सँहारे, रामचंद्र के काज सँवारे। लाय संजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये। रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई। सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं। सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा। जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते। तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा। तुम्हरो मंत्र विभीषन माना, लंकेश्वर भए सब जग जाना। युग सहस्र योजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू। प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं। दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते। राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे। सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना। आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै। भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै। नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा। संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावै। सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा। और मनोरथ जो कोई लावै, सोई अमित जीवन फल पावै। चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा। साधु संत के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे। अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, अस वर दीन जानकी माता। राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै। अंत काल रघुवरपुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई। और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेइ सर्व सुख करई। संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। जो शत बार पाठ कर जोई, छूटहि बंदि महा सुख होई। जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा। तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मह डेरा। ॥ दोहा ॥ पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

    Sankatmochan Hanuman (संकटमोचन हनुमान)

    संकटमोचन हनुमानाष्टक बाल समय रवि भक्षि लियो, तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो। ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो । देवन आनि करी विनती तब, छाँडि दियो रवि कष्ट निवारो। को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ को. १ बालि की त्रास कपीस बसै, गिरिजात महाप्रभु पंथ निहारो। चौंकि महामुनि शाप दियो, तब चाहिये कौन विचार विचारो। कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो ॥ को. २ अंगद के संग लेन गए सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो। जीवत ना बचिहीँ हम सों जु, बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो। हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया सुधि प्राण उबारो॥ को. ३ सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना। आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै। भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै। नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा। संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावै। सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा। और मनोरथ जो कोई लावै, सोई अमित जीवन फल पावै। चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा। साधु संत के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे। अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, अस वर दीन जानकी माता। राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै। अंत काल रघुवरपुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई। और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेइ सर्व सुख करई। संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। जो शत बार पाठ कर जोई, छूटहि बंदि महा सुख होई। जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा। तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मह डेरा। ॥ दोहा ॥ पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

    Bajrang Baan (बजरंग बाण)

    बजरंग बाण ॥ दोहा ॥ निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करें सनमान। तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ॥ जय हनुमान सन्त हितकारी, सुन लीजै प्रभु अरज हमारी। जन के काज विलम्ब न कीजे, आतुर दौरि महासुख दीजे। जैसे कूदि सिन्धु महि पारा, सुरसा बदन पैठि विस्तारा। आगे जाई लंकिनी रोका, मारेहु लात गई सुर लोका। जाय विभीषण को सुख दीन्हा, सीता निरखि परमपद लीन्हा। बाग उजारि सिंधु मुँह बोरा, अति आतुर यम कातर तोरा। अक्षय कुमार को मार संहारा, लूम लपेट लंक को जारा। लाह समान लंक जरि गई, जय जय ध्वनि सुरपुर में भई। अब विलम्ब केहि कारन स्वामी, कृपा करहु उर अन्तर्यामी। जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता, आतुर होय दुःख हरहु निपाता। जय गिरधर जय जय सुखसागर, सुर समूह समरथ भटनागर। श्री हनु हनु हनु हनुमंत हठीले, बैरिहिं मारु वज्र को कीले। गदा वज्र लै बैरिहिं मारो, महाराज प्रभु दास उबारो। ओंकार हुँकार प्रभु धावो, बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो। ओं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमान कपीशा, ओं हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीशा। सत्य होहु हरि शपथ पाय के, रामदूत धरु मारु धाय के। जय जय जय हनुमन्त अगाधा, दुःख पावत जन केहि अपराधा। पूजा जप तप नेम अचारा, नहिं जानत हौं दास तुम्हारा। वन उपवन मग, गिरी गृह माँही, तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं। पाँय परौ कर जोरि मनावौं, यहि अवसर अब केहि गोहरावौं। जय अन्जनि कुमार बलवन्ता, शंकर सुवन वीर हनुमन्ता। बदन कराल काल कुल घालक, राम सहाय सदा प्रतिपालक । भूत प्रेत पिशाच निशाचर, अग्नि बैताल काल मारी मर। इन्हें मारु तोहि शपथ राम की, राखु नाथ मर्यादा नाम की। जनक सुता हरिदास कहावो, ताकी शपथ विलम्ब न लावो। जय जय जय धुनि होत अकाशा, सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा। चरण शरण कर जोरि मनावौं, यहि अवसर अब केहि गोहरावौं। उठु उठु चलू तोहि राम दुहाई, पाँय परौं कर जोरि मनाई। ओंचं चंचंचं चपल चलंता, ओं हनु हुन हुन हनु हनुमन्ता। ओं हं हं हाँक देत कपि चंचल, ओं सं सं सहमि पराने खल दल। अपने जन को तुरत उबारो, यह बजरङ्ग बाण जेहि मारे, ताहि कहो फिर कौन उबारे। हनुमत रक्षा करें प्राण की। यह बजरङ्ग बाण जो जापै, ताते भूत प्रेत सब काँपै। धूप देय अरु जपैं हमेशा, ताके तन नहिं रहै कलेशा। ॥ दोहा ॥ प्रेम प्रतीतहि कपि भजै, सदा धेरै उर ध्यान। तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ॥

    Shri Krishnan Chalisa (श्री कृष्णन चालीसा)

    श्री कृष्ण चालीसा ॥ दोहा ॥ बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम॥ पूर्ण इन्द्र अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज। जय मनमोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज॥ ॥ चौपाई ॥ जय यदुनन्दन जय जगवन्दन, जय वसुदेव देवकी नन्दन। जय यशुदा सुत नन्द दुलारे, जय प्रभु भक्तन के दृग तारे। जय नटनागर नाग नथड्या, कृष्ण कन्हैया धेनु चरड्या। पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो, आओ दीनन कष्ट निवारो। बंशी मधुर अधर धरि टेरी, होवे पूर्ण विनय यह मेरी। आओ हरि पुनि माखन चाखो, आज लाज भारत की राखो। गोल कपोल चिबुक अरुणारे, मृदु मुस्कान मोहिनी डारे। रंजित राजिव नयन विशाला, मोर मुकुट बैजन्ती माला। कुण्डल श्रवण पीतपट आछे, कटि किंकणी काछन काछे। नील जलज सुन्दर तनु सोहै, छवि लखि सुर नर मुनि मन मोहै। मस्तक तिलक अलक घुँघराले, आओ कृष्ण बांसुरी वाले। करि पय पान, पूतनहिं तारयो, अका बका कागा सुर मारयो। मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला, भये शीतल, लखितहिं नन्दलाला। सुरपति जब ब्रज चढ्यो रिसाई, मूसर धार वारि वर्षाई। लगत-लगत ब्रज चहन बहायो, गोवर्धन नखधारि बचायो। लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई, मुख मुँह चौदह भुवन दिखाई। दुष्ट कंस अति उधम मचायो, कोटि कमल जब फूल मँगायो। नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें, चरणचिन्ह दे निर्भय कीन्हैं। करि गोपिन संग रास विलासा, सबकी पूरण करि अभिलाषा। केतिक महा असुर संहारियो, कंसहि केस पकड़ि दै मारयो। मात-पिता की बन्दि छुड़ाई, उग्रसेन कहँ राज दिलाई। महि से मृतक छहों सुत लायो, मातु देवकी शोक मिटायो। भौमासुर मुर दैत्य संहारी, लाये षट दस सहस कुमारी। दें भीमहिं तृणचीर संहारा, जरासिंधु राक्षस कहँ मारा। असुर बकासुर आदिक मारयो, भक्तन के तब कष्ट निवारियो। दीन सुदामा के दुःख टारयो, तंदुल तीन मूठि मुख डारयो। प्रेम के साग विदुर घर माँगे, दुर्योधन के मेवा त्यागे। लखी प्रेमकी महिमा भारी, ऐसे श्याम दीन हितकारी। मारथ के पारथ रथ हांके, लिए चक्र कर नहिं बल थांके। निज गीता के ज्ञान सुनाये, भक्तन हृदय सुधा वर्षाये। मीरा थी ऐसी मतवाली, विष पी गई बजा कर ताली। राणा भेजा साँप पिटारी, शालिग्राम बने बनवारी। निज माया तुम विधिहिं दिखायो, उरते संशय सकल मिटायो। तव शत निन्दा करि तत्काला, जीवन मुक्त भयो शिशुपाला। जबहिं द्रोपदी टेर लगाई, दीनानाथ लाज अब जाई। तुरतहि वसन बने नन्दलाला, बड़े चीर भये अरि मुँह काला। अस अनाथ के नाथ कन्हैया, डूबत भँवर बचावत नइया। सुन्दरदास आस उर धारी, दयादृष्टि कीजै बनवारी। नाथ सकल मम कुमति निवारो, क्षमहुबेगि अपराध हमारो। खोलो पट अब दर्शन दीजै, बोलो कृष्ण कन्हैया की जय। ॥ दोहा ॥ यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करे उर धारि। अष्ट सिद्धि नवनिद्धि फल, लहै पदारथ चरि॥

    Shri Vishnu Chalisa (श्री विष्णु चालीसा)

    श्री विष्णु चालीसा ॥ दोहा ॥ विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय। कीरत कुछ वर्णन करूँ दीजै ज्ञान बताय॥ ॥ चौपाई ॥ नमो विष्णु भगवान् खरारी, कष्ट नशावन अखिल बिहारी। प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी, त्रिभुवन फैल रही उजियारी। सुन्दर रूप मनोहर सूरत, सरल स्वभाव मोहनी मूरत। तन पर पीताम्बर अति सोहत, बैजन्ती माला मन मोहत। शंख चक्र कर गदा बिराजे, देखत दैत्य असुर दल भाजे। सत्य धर्म मद लोभ न गाजे, काम क्रोध मद लोभ न छाजे। सन्तभक्त सज्जन मनरंजन, दनुज असुर दुष्टन दल गंजन। सुख उपजाय कष्ट सब भंजन, दोष मिटाय करत जन सज्जन। पाप काट भव सिन्धु उतारण, कष्ट नाशकर भक्त उबारण। करत अनेक रूप प्रभु धारण, केवल आप भक्ति के कारण। धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा, तब तुम रूप राम का धारा। भार उतार असुर दल मारा, रावण आदिक को संहारा। आप वाराह रूप बनाया, हिरण्याक्ष को मार गिराया। धर मतस्य तन सिन्धु बनाया, चौदह रतनन को निकलाया। अमिलख असुरन द्वन्द मचाया, रूप मोहनी आप दिखाया। देवन को अमृत पान कराया, असुरन को छबि से बहलाया। कूर्म रूप धर सिंन्धु मझाया, मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया। शंकर का तुम फन्द छुड़ाया, वेदन को जब असुर डुबाया, भस्मासुर को रूप दिखाया। कर प्रबन्ध उन्हें ढूँढवाया। मोहित बनकर खलहि नचाया, उसही कर से भस्म कराया। असुर जलंधर अति बलदाई, शंकर से उन कीन्ह लड़ाई। हार पार शिव सकल बनाई, कीन सती से छल खल जाई। सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी, बतलाई सब विपत कहानी। तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी, वृन्दा की सब सुरति भुलानी। देखत तीन दनुज शैतानी, वृन्दा आय तुम्हें लपटानी। हो स्पर्श धर्म क्षति मानी, हना असुर उर शिव शैतानी। तुमने धुरू प्रहलाद उबारे, हिरणाकुश आदिक खल मारे। गणिका और अजामिल तारे, बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे। हरहु सकल संताप हमारे, कृपा करहु हरि सिरजन हारे। देखहुँ मैं नित दरश तुम्हारे, दीन बन्धु भक्तन हितकारे। चहत आपका सेवक दर्शन, करहु दया अपनी मधुसूदन। जानूं नहीं योग्य जप पूजन, होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन। शीलदया सन्तोष सुलक्षण, विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण। करहुँ आपका किस विधि पूजन, कुमति विलोक होत दुख भीषण। करहुँ प्रणाम कौन विधिसुमिरण, कौन भांति मैं करहु समर्पण। सुर मुनि करत सदा सिवकाई, हर्षित रहत परम गति पाई। दीन दुखिन पर सदा सहाई, निज जन जान लेव अपनाई। पाप दोष संताप नशाओ, भव बन्धन से मुक्त कराओ। सुत सम्पति दे सुख उपजाओ, निज चरनन का दास बनाओ। निगम सदा ये विनय सुनावै, पढ़े सुनै सो जन सुख पावै।

    Shri Gopal Chalisa (श्री गोपाल चालीसा)

    श्री गोपाल चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री राधापद कमल रज, सिर धरि यमुना कूल। वरणो चालीसा सरस, सकल सुमंगल मूल॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी, दुष्ट दलन लीला अवतारी। जो कोई तुम्हरी लीला गावै,बिन श्रम सकल पदारथ पावै। श्री वसुदेव देवकी माता, प्रकट भये संग हलधर भ्राता। मथुरा सों प्रभु गोकुल आये, नन्द भवन में बजत बधाये। जो विष देन पूतना आई, सो मुक्ति दै धाम पठाई। तृणावर्त राक्षस संहार्यों, पग बढ़ाय सकटासुर मार्यो। खेल खेल में माटी खाई, मुख में सब जग दियो दिखाई। गोपिन घर घर माखन खायो,जसुमति बाल केलि सुख पायो। ऊखल सों निज अंग बँधाई,यमलार्जुन जड़ योनि छुड़ाई। बका असुर की चोंच विदारी,विकट अघासुर दियो सँहारी। ब्रह्मा बालक वत्स चुराये,मोहन को मोहन हित आये। बाल वत्स सब बने मुरारी, ब्रह्मा विनय करी तब भारी। काली नाग नाथि भगवाना,दावानल को कीन्हों पाना। सखन संग खेलत सुख पायो,श्रीदामा निज कन्ध चढ़ायो। चीर हरन करि सीख सिखाई,नख पर गिरवर लियो उठाई। दरा यज्ञ पत्निन को दीन्हों,राधा प्रेम सुधा सुख लीन्हों। नन्दहिं वरुण लोक सों लाये,ग्वालन को निज लोक दिखाये। शरद चन्द्र लखि वेणु बजाई,अति सुख दीन्हों रास रचाई। अजगर सों पितु चरण छुड़ायो,शंखचूड़ को मूड़ गिरायो। हने अरिष्टा सुर अरु केशी,व्योमासुर मार्यो छल वेषी। व्याकुल ब्रज तजि मथुरा आये,मारि कंस यदुवंश बसाये। मात पिता की बन्दि छुड़ाई,सान्दीपनि गृह विद्या पाई। पुनि पठयौ ब्रज ऊधौ ज्ञानी,प्रेम देखि सुधि सकल भुलानी। कीन्हीं कुबरी सुन्दर नारी, हरि लाये रुक्मिणि सुकुमारी। भौमासुर हनि भक्त छुड़ाये, सुरन जीति सुरतरु महि लाये। दन्तवक्र शिशुपाल संहारे, खग मृग नृग अरु बधिक उधारे। दीन सुदामा धनपति कीन्हों, पारथ रथ सारथि यश लीन्हों। गीता ज्ञान सिखावन हारे, अर्जुन मोह मिटावन हारे। केला भक्त बिदुर घर पायो, युद्ध महाभारत रचवायो। द्रुपद सुता को चीर बढ़ायो, गर्भ परीक्षित जरत बचायो। कच्छ मच्छ वाराह अहीशा, बावन कल्की बुद्धि मुनीशा। द्वै नृसिंह प्रहलाद उबार्यो, राम रूप धरि रावण मार्यो। जय मधु कैटभ दैत्य हनैया, अम्बरीष प्रिय चक्र धरैया। ब्याध अजामिल दीन्हें तारी, शबरी अरु गणिका सी नारी। गरुड़ासन गज फन्द निकन्दन, देहु दरश ध्रुव नयनानन्दन। देहु शुद्ध सन्तन कर सङ्गा, बाढ़े प्रेम भक्ति रस रङ्गा। देहु दिव्य वृन्दावन बासा, छूटै मृग तृष्णा जग आशा। तुम्हरो ध्यान धरत शिव नारद, शुक सनकादिक ब्रह्म विशारद। जय जय राधारमण कृपाला, हरण सकल संकट भ्रम जाला। बिनसैं बिघन रोग दुःख भारी, जो सुमरैं जगपति गिरधारी। जो सत बार पढ़े चालीसा, देहि सकल बाँछित फल शीशा। ॥ छन्द ॥ गोपाल चालीसा पढ़े नित, नेम सों चित्त लावई। सो दिव्य तन धरि अन्त महँ, गोलोक धाम सिधावई॥ संसार सुख सम्पत्ति सकल, जो भक्तजन सन महँ चहैं। 'जयरामदेव' सदैव सो, गुरुदेव दाया सों लहैं॥

    Shri Brahma Chalisa (श्री ब्रह्मा चालीसा)

    श्री ब्रह्मा चालीसा ॥ दोहा ॥ जय ब्रह्मा जय स्वयम्भू, चतुरानन सुखमूल। करहु कृपा निज दास पै, रहहु सदा अनुकूल ॥ तुम सृजक ब्रह्माण्ड के, अज विधि घाता नाम। विश्वविधाता कीजिये, जन पै कृपा ललाम ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय कमलासान जगमूला, रहहु सदा जनपै अनुकूला। रूप चतुर्भुज परम सुहावन, तुम्हें अहैं चतुर्दिक आनन। रक्तवर्ण तव सुभग शरीरा, मस्तक जटाजूट गंभीरा। ताके ऊपर मुकुट बिराजै, दाढ़ी श्वेत महाछवि छाजै। श्वेतवस्त्र धारे तुम सुन्दर, है यज्ञोपवीत अति मनहर। कानन कुण्डल सुभग बिराजहिं, गल मोतिन की माला राजहिं। चारिहु वेद तुम्हीं प्रगटाये, दिव्य ज्ञान त्रिभुवनहिं सिखाये। ब्रह्मलोक शुभ धाम तुम्हारा, अखिल भुवन महँ यश बिस्तारा। अर्द्धांगिनि तव है सावित्री, अपर नाम हिये गायत्री। सरस्वती तब सुता मनोहर, वीणा वादिनि सब विधि मुन्दर। कमलासन पर रहे बिराजे, तुम हरिभक्ति साज सब साजे। क्षीर सिन्धु सोवत सुरभूपा, नाभि कमल भो प्रगट अनूपा। तेहि पर तुम आसीन कृपाला, सदा करहु सन्तन प्रतिपाला। एक बार की कथा प्रचारी, तुम कहँ मोह भयेउ मन भारी। कमलासन लखि कीन्ह बिचारा, और न कोउ अहै संसारा। तब तुम कमलनाल गहि लीन्हा, अन्त बिलोकन कर प्रण कीन्हा। कोटिक वर्ष गये यहि भांती, भ्रमत भ्रमत बीते दिन राती। पै तुम ताकर अन्त न पाये, है निराश अतिशय दुःखियाये। पुनि बिचार मन महँ यह कीन्हा, महापद्म यह अति प्राचीना। याको जन्म भयो को कारन, तबहीं मोहि करयो यह धारन। अखिल भुवन महँ कहँ कोइ नाहीं, सब कछु अहै निहित मो माहीं। यह निश्चय करि गरब बढ़ायो, निज कहँ ब्रह्म मानि सुखपाये। गगन गिरा तब भई गंभीरा, ब्रह्मा वचन सुनहु धरि धीरा। सकल सृष्टि कर स्वामी जोई, ब्रह्म अनादि अलख है सोई। निज इच्छा उन सब निरमाये, ब्रह्मा विष्णु महेश बनाये। सृष्टि लागि प्रगटे त्रयदेवा, सब जग इनकी करिहै सेवा। महापद्म जो तुम्हरो आसन, ता पै अहै विष्णु को शासन। विष्णु नाभितें प्रगट्यो आई, तुम कहँ सत्य दीन्ह समुझाई। भैटहु जाइ विष्णु हितमानी, यह कहि बन्द भई नभवानी। ताहि श्रवण कहि अचरज माना, पुनि चतुरानन कीन्ह पयाना। कमल नाल धरि नीचे आवा, तहां विष्णु के दर्शन पावा। शयन करत देखे सुरभूपा, श्यामवर्ण तनु परम अनूपा। सोहत चतुर्भुजा अतिसुन्दर, क्रीटमुकट राजत मस्तक पर। गल बैजन्ती माल बिराजै, कोटि सूर्य की शोभा लाजै। शंख चक्र अरु गदा मनोहर, पद्म सहित आयुध सब सुन्दर। पायँ पलोटति रमा निरन्तर, शेष नाग शय्या अति मनहर। दिव्यरूप लखि कीन्ह प्रणामू, हर्षित भे श्रीपति सुख धामू । बहु विधि विनय कीन्ह चतुरानन, तब लक्ष्मी पति कहेउ मुदित मन। ब्रह्मा दूरि करहु अभिमाना, ब्रह्मरूप हम दोउ समाना। तीजे श्री शिवशङ्कर आहीं, ब्रह्मरूप सब त्रिभुवन मांहीं। तुम सों होइ सृष्टि विस्तारा, हम पालन करिहैं संसारा । शिव संहार करहिं सब केरा, हम तीनहुं कहँ काज धनेरा। अगुणरूप श्री ब्रह्म बखानहु, निराकार तिनकहँ तुम जानहु। हम साकार रूप त्रयदेवा, करिहैं सदा ब्रह्म की सेवा। यह सुनि ब्रह्मा परम सिहाये, परब्रह्म के यश अति गाये। सो सब विदित वेद के नामा, मुक्ति रूप सो परम ललामा। यहि विधि प्रभु भो जनम तुम्हारा, पुनि तुम प्रगट कीन्ह संसारा। नाम पितामह सुन्दर पायेउ, जड़ चेतन सब कहँ निरमायेउ। लीन्ह अनेक बार अवतारा, सुन्दर सुयश जगत विस्तारा। देवदनुज सब तुम कहँ ध्यावहिं, मनवांछित तुम सन सब पावहिं। जो कोउ ध्यान धेरै नर नारी, ताकी आस पुजावहु सारी। पुष्कर तीर्थ परम सुखदाई, तहँ तुम बसहु सदा सुरराई। कुण्ड नहाइ करहि जो पूजन, ता कर दूर होड़ सब दूषण।

    Shri Shani Chalisha (1) (श्री शनि चालीसा )

    श्री शनि चालीसा (१) ॥ दोहा ॥ श्री शनिश्चर देवजी, सुनहु श्रवण मम् टेर। कोटि विघ्ननाशक प्रभो, करो न मम् हित बेर॥ ॥ सोरठा ॥ तव स्तुति हे नाथ, जोरि जुगल कर करत हौं। करिये मोहि सनाथ, विघ्नहरन हे रवि सुव्रन॥ ॥ चौपाई ॥ शनिदेव मैं सुमिरौं तोही, विद्या बुद्धि ज्ञान दो मोही। तुम्हरो नाम अनेक बखानौं, क्षुद्रबुद्धि मैं जो कुछ जानौं। अन्तक, कोण, रौद्रय मगाऊँ, कृष्ण बभ्रु शनि सबहिं सुनाऊँ। पिंगल मन्दसौरि सुख दाता, हित अनहित सब जग के ज्ञाता। नित जपै जो नाम तुम्हारा, करहु व्याधि दुःख से निस्तारा। राशि विषमवस असुरन सुरनर, पन्नग शेष सहित विद्याधर। राजा रंक रहहिं जो नीको, पशु पक्षी वनचर सबही को। कानन किला शिविर सेनाकर, नाश करत सब ग्राम्य नगर भर। डालत विघ्न सबहि के सुख में, व्याकुल होहिं पड़े सब दुःख में। नाथ विनय तुमसे यह मेरी, करिये मोपर दया घनेरी। मम हित विषम राशि महँवासा, करिय न नाथ यही मम आसा। जो गुड़ उड़द दे बार शनीचर, तिल जव लोह अन्न धन बस्तर। दान दिये से होंय सुखारी, सोइ शनि सुन यह विनय हमारी। नाथ दया तुम मोपर कीजै, कोटिक विघ्न क्षणिक महँ छीजै। वंदत नाथ जुगल कर जोरी, सुनहु दया कर विनती मोरी। कबहुँक तीरथ राज प्रयागा, सरयू तोर सहित अनुरागा। कबहुँ सरस्वती शुद्ध नार महँ, या कहुँ गिरी खोह कंदर महँ। ध्यान धरत हैं जो जोगी जनि, ताहि ध्यान महँ सूक्ष्म होहि शनि। है अगम्य क्या करूँ बड़ाई, करत प्रणाम चरण शिर नाई। जो विदेश से बार शनीचर, मुड़कर आवेगा निज घर पर। रहैं सुखी शनि देव दुहाई, रक्षा रवि सुत रखें बनाई। जो विदेश जावैं शनिवारा, गृह आवैं नहिं सहै दुखारा। संकट देय शनीचर ताही, जेते दुखी होई मन माही। सोई रवि नन्दन कर जोरी, वन्दन करत मूढ़ मति थोरी। ब्रह्मा जगत बनावन हारा, विष्णु सबहिं नित देत अहारा। हैं त्रिशूलधारी त्रिपुरारी, विभू देव मूरति एक वारी। इकहोड़ धारण करत शनि नित, वंदत सोई शनि को दमनचित। जो नर पाठ करै मन चित से, सो नर छूटै व्यथा अमित से। हौं सुपुत्र धन सन्तति बाढ़े, कलि काल कर जोड़े ठाढ़े। पशु कुटुम्ब बांधन आदि से, भरो भवन रहिहैं नित सबसे। नाना भांति भोग सुख सारा, अन्त समय तजकर संसारा। पावै मुक्ति अमर पद भाई, जो नित शनि सम ध्यान लगाई। पढ़ें प्रात जो नाम शनि दस, रहें शनीश्चर नित उसके बस। पीड़ा शनि की कबहुँ न होई, नित उठ ध्यान धेरै जो कोई। जो यह पाठ करें चालीसा, होय सुख साखी जगदीशा। चालिस दिन नित पढ़े सबेरे, पातक नाशै शनी घनेरे। रवि नन्दन की अस प्रभुताई, जगत मोहतम नाशै भाई। याको पाठ करै जो कोई, सुख सम्पति की कमी न होई। निशिदिन ध्यान धेरै मनमाहीं, आधिव्याधि ढिंग आवै नाहीं। ॥ दोहा ॥ पाठ शनीश्चर देव को, कीहौं 'विमल' तैयार। करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥ जो स्तुति दशरथ जी कियो, सम्मुख शनि निहार। सरस सुभाषा में वही, ललिता लिखें सुधार॥

    Shri Shani Chalisa (2) (श्री शनि चालीसा)

    श्री शनि चालीसा (२) ॥ दोहा ॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुःख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥ जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज। करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥ ॥ चौपाई ॥ जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला। चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छवि छाजै। परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला। कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिये माल मुक्तन मणि दमकै। कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करें अरिहिं संहारा। पिंगल, कृष्णो, छाया, नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुःखभंजन। सौरीमन्द, शनी, दशनामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा। जापर प्रभु प्रसन्न हवें जाहीं, रंकहुँ राव करें क्षण माहीं। पर्वतहू तृण होइ निहारत, तृणहू को पर्वत करि डारत। राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो। बनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई। लषणहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा। रावण की गति-मति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई। दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका। नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै हारा। हार नौलखा लाग्यो चोरी, हाथ पैर डरवायो तोरी। भारी दशा निकृष्ट दिखायो, तेलहिं घर कोल्हू चलवायो। विनय राग दीपक महँ कीन्हयों, तब प्रसन्न प्रभु है सुख दीन्हयों। हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी, आपहुं भरे डोम घर पानी। तैसे नल पर दशा सिरानी, भूजी-मीन कूद गई पानी। श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई, पारवती को सती कराई। तनिक विलोकत ही करि रीसा, नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा। पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी, बची द्रोपदी होति उघारी। कौरव के भी गति मति मारयो, युद्ध महाभारत करि डारयो। रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला, लेकर कूदि परयो पाताला। शेष देव-लखि विनती लाई, रवि को मुख ते दियो छुड़ाई। वाहन प्रभु के सात सुजाना, जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना। जम्बुक सिंह आदि नख धारी, सो फल ज्योतिष कहत पुकारी। गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं, हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं। गर्दभ हानि करै बहु काजा, सिंह सिद्धकर राज समाजा। जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डॉरै, मृग दे कष्ट प्राण संहारै। जब आवहिं प्रभु स्वान सवार, चोरी आदि होय डर भारी। तैसहि चारि चरण यह नामा, स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा। लौह चरण पर जब प्रभु आवैं, धन जन सम्पत्ति नष्ट करावें। समता ताम्र रजत शुभकारी, स्वर्ण सर्व सर्वसुख मंगल भारी। जो यह शनि चरित्र नित गावै, कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै। अद्भुत नाथ दिखावैं लीला, करें शत्रु के नशि बलि ढीला। जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई, विधिवत शनि ग्रह शांति कराई। पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान दै बहु सुख पावत। कहत राम सुन्दर प्रभु दासा, शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा। ॥ दोहा ॥ पाठ शनीश्चर देव को, कीहों 'भक्त' तैयार। करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥

    Shri Bhairav Chalisa (श्रीभैरव चालीसा)

    श्री भैरव चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री भैरव संकट हरन, मंगल करन कृपालु। करहु दया निज दास पे, निशिदिन दीनदयालु॥ ॥ चौपाई ॥ जय डमरूधर नयन विशाला, श्याम वर्ण, वपु महा कराला। जय त्रिशूलधर जय डमरूधर, काशी कोतवाल, संकटहर। जय गिरिजासुत परमकृपाला, संकटहरण, हरहु भ्रमजाला। जयति बटुक भैरव भयहारी, जयति काल भैरव बलधारी। अष्टरूप तुम्हरे सब गायें, सफल एक ते एक सिवाये। शिवस्वरूप शिव के अनुगामी, गणाधीश तुम सबके स्वामी। जटाजूट पर मुकुट सुहावै। भालचन्द्र अति शोभा पावै। कटि करधनी घुँघुरू बाजैं, दर्शन करत सकल भय भाजैं। कर त्रिशूल डमरू अति सुन्दर, मोरपंख को चंवर मनोहर। खप्पर खड्ग लिए बलवाना, रूप चतुर्भुज नाथ बखाना। वाहन श्वान सदा सुखरासी, तुम अनन्त प्रभु तुम अविनासी। जय जय जय भैरव भय भंजन, जय कृपालु भक्तन मनरंजन। नयन विशाल लाल अति भारी, रक्तवर्ण तुम अहहु पुरारी। बंबं बं बोलत दिनराती, शिव कहँ भजहु असुर आराती। एकरूप तुम शम्भु कहाये, दूजे भैरव रूप बनाये। सेवक तुमहिं तुमहिं प्रभु स्वामी, सब जग के तुम अन्तर्यामी। रक्तवर्ण वपु अहहि तुम्हारा, श्यामवर्ण कहुँ होइ प्रचारा। श्वेतवर्ण पुनि कहा बखानी, तीनि वर्ण तुम्हरे गुणखानी। तीनि नयन प्रभु परम सुहावहिं, सुरनर मुनि सब ध्यान लगावहिं। व्याघ्र चर्मधर तुम जग स्वामी, प्रेतनाथ तुम पूर्ण अकामी। चक्रनाथ नकुलेश प्रचण्डा, निमिष दिगम्बर कीरति चण्डा। क्रोधवत्स भूतेश कालधर, चक्रतुण्ड दशबाहु व्यालधर। अहहिं कोटि प्रभु नाम तुम्हारे, जपत सदा मेटत दुःख भारे। चौंसठ योगिनी नाचहिं संगा, क्रोधवान तुम अति रणरंगा। भूतनाथ तुम परम पुनीता, तुम भविष्य तुम अहहु अतीता। वर्तमान तुम्हरो शुचि रूपा, कालमयी तुम परम अनूपा। ऐलादी को संकट टार्यो, साद भक्त को कारज सार्यो। कालीपुत्र कहावहु नाथा, तब चरणन नावहुं नित माथा। श्रीक्रोधेश कृपा विस्तारहु, दीन जानि मोहि पार उतारहु। भवसागर बूढ़त दिनराती, होहु कृपालु दुष्ट आराती। सेवक जानि कृपा प्रभु कीजै, मोहिं भगति अपनी अब दीजै। करहुँ सदा भैरव की सेवा, तुम समान दूजो को देवा। अश्वनाथ तुम परम मनोहर, दुष्टन कहँ प्रभु अहछु भयंकर। तुम्हरो दास जहाँ जो होई, ताकहँ संकट परे न कोई। हरहु नाथ तुम जन की पीरा, तुम समान प्रभु को बलवीरा। सब अपराध क्षमा करि दीजै, दीन जानि आपुन मोहिं कीजै। जो यह पाठ करे चालीसा, तापै कृपा करहु जगदीशा। ॥ दोहा ॥ जय भैरव जय भूतपति जय जय जय सुखकन्द। करहु कृपा नित दास पे, देहु सदा आनन्द।

    Shri Batuk Chalisa (श्री बटुक चालीसा)

    श्री बटुक भैरव चालीसा ॥ दोहा ॥ विश्वनाथ को सुमिर मन, धर गणेश का ध्यान। भैरव चालीसा रचूं, कृपा करहु भगवान॥ बटुकनाथ भैरव भजं, श्री काली के लाल। छीतरमल पर कर कृपा, काशी के कुतवाल॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय श्रीकाली के लाला, रहो दास पर सदा दयाला। भैरव भीषण भीम कपाली, क्रोधवन्त लोचन में लाली। कर त्रिशूल है कठिन कराला, गल में प्रभु मुण्डन की माला। कृष्ण रूप तन वर्ण विशाला, पीकर मद रहता मतवाला। रुद्र बटुक भक्तन के संगी, प्रेत नाथ भूतेश भुजंगी। त्रैल तेश है नाम तुम्हारा, चक्र तुण्ड अमरेश पियारा। शेखरचंद्र कपाल बिराजे, स्वान सवारी पै प्रभु गाजे। शिव नकुलेश चण्ड हो स्वामी, बैजनाथ प्रभु नमो नमामी। अश्वनाथ क्रोधेश बखाने, भैरों काल जगत ने जाने। गायत्री कहैं निमिष दिगम्बर, जगन्नाथ उन्नत आडम्बर। क्षेत्रपाल दसपाण कहाये, मंजुल उमानन्द कहलाये। चक्रनाथ भक्तन हितकारी, कहें त्र्यम्बक सब नर नारी। संहारक सुनन्द तव नामा, करहु भक्त के पूरण कामा। नाथ पिशाचन के हो प्यारे, संकट मेटहु सकल हमारे। कृत्यायू सुन्दर आनन्दा, भक्त जनन के काटहु फन्दा। कारण लम्ब आप भय भंजन, नमोनाथ जय जनमन रंजन। हो तुम देव त्रिलोचन नाथा, भक्त चरण में नावत माथा। त्वं अशतांग रुद्र के लाला, महाकाल कालों के काला। ताप विमोचन अरि दल नासा, भाल चन्द्रमा करहि प्रकाशा। श्वेत काल अरु लाल शरीरा, मस्तक मुकुट शीश पर चीरा। काली के लाला बलधारी, कहाँ तक शोभा कहूँ तुम्हारी। शंकर के अवतार कृपाला, रहो चकाचक पी मद प्याला। काशी के कुतवाल कहाओ, बटुक नाथ चेटक दिखलाओ। रवि के दिन जन भोग लगावें, धूप दीप नैवेद्य चढ़ावें। दरशन करके भक्त सिहावें, दारुड़ा की धार पिलावें। मठ में सुन्दर लटकत झावा, सिद्ध कार्य कर भैरों बाबा। नाथ आपका यश नहीं थोड़ा, करमें सुभग सुशोभित कोड़ा। कटि घूँघरा सुरीले बाजत, कंचनमय सिंहासन राजत। नर नारी सब तुमको ध्यावहिं, मनवांछित इच्छाफल पावहिं। भोपा हैं आपके पुजारी, करें आरती सेवा भारी। भैरव भात आपका गाऊँ, बार बार पद शीश नवाऊँ। आपहि वारे छीजन धाये, ऐलादी ने रूदन मचाये। बहन त्यागि भाई कहाँ जावे, तो बिन को मोहि भात पिन्हावे। रोये बटुक नाथ करुणा कर, गये हिवारे मैं तुम जाकर। दुखित भई ऐलादी बाला, तब हर का सिंहासन हाला। समय ब्याह का जिस दिन आया, प्रभु ने तुमको तुरत पठाया। विष्णु कही मत विलम्ब लगाओ, तीन दिवस को भैरव जाओ। दल पठान संग लेकर धाया, ऐलादी को भात पिन्हाया। पूरन आस बहन की कीनी, सुर्ख चुन्दरी सिर धर दीनी। भात भरा लौटे गुण ग्रामी, नमो नमामी अन्तर्यामी। ॥ दोहा ॥ जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार। कृपा दास पर कीजिए, शंकर के अवतार॥ जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार। उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बढ़ें अपार॥

    Shri Navagrah Chalisa (श्री नवग्रह चालीसा)

    श्री नवग्रह चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री गणपति गुरुपद कमल, प्रेम सहित सिरनाय। नवग्रह चालीसा कहत, शारद होत सहाय॥ जय जय रवि शशि सोम बुध, जय गुरु भृगु शनि राज। जयति राहु अरु केतु ग्रह, करहु अनुग्रह आज॥ ॥ चौपाई ॥ श्री सूर्य स्तुति प्रथमहि रवि कहँ नावों माथा, करहु कृपा जनि जानि अनाथा। हे आदित्य दिवाकर भानू, मैं मति मन्द महा अज्ञानू। अब निज जन कहँ हरहु कलेषा, दिनकर द्वादश रूप दिनेशा। नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर, अर्क मित्र अघ मोघ क्षमाकर॥ श्री चन्द्र स्तुति शशि मयंक रजनीपति स्वामी, चन्द्र कलानिधि नमो नमामि। राकापति हिमांशु राकेशा, प्रणवत जन तन हरहु कलेशा। सोम इन्दु विधु शान्ति सुधाकर, शीत रश्मि औषधि निशाकर। तुम्हीं शोभित सुन्दर भाल महेशा, शरण शरण जन हरहु कलेशा॥ श्री मंगल स्तुति जय जय जय मंगल सुखदाता, लोहित भौमादिक विख्याता। अंगारक कुज रुज ऋणहारी, करहु दया यही विनय हमारी। हे महिसुत छितिसुत सुखराशी, लोहितांग जय जन अघनाशी। अगम अमंगल अब हर लीजै, सकल मनोरथ पूरण कीजै॥ श्री बुध स्तुति जय शशि नन्दन बुध महाराजा, करहु सकल जन कहँ शुभ काजा। दीजै बुद्धिबल सुमति सुजाना, कठिन कष्ट हरि करि कल्याना। हे तारासुत रोहिणी नन्दन, चन्द्रसुवन दुख द्वन्द्व निकन्दन। पूजहु आस दास कहुँ स्वामी, प्रणत पाल प्रभु नमो नमामी॥ श्री बृहस्पति स्तुति जयति जयति जय श्री गुरूदेवा, करों सदा तुम्हरी प्रभु सेवा। देवाचार्य तुम देव गुरु ज्ञानी, इन्द्र पुरोहित विद्यादानी। वाचस्पति बागीश उदारा, जीव बृहस्पति नाम तुम्हारा। विद्या सिन्धु अंगिरा नामा, करहु सकल विधि पूरण कामा॥ श्री शुक्र स्तुति शुक्र देव पद तल जल जाता, दास निरन्तर ध्यान लगाता। हे उशना भार्गव भृगु नन्दन, दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन। भृगुकुल भूषण दूषण हारी, हरहु नेष्ट ग्रह करहु सुखारी। तुहि द्विजवर जोशी सिरताजा, नर शरीर के तुमहीं राजा॥ श्री शनि स्तुति जय श्री शनिदेव रवि नन्दन, जय कृष्णो सौरी जगवन्दन। पिंगल मन्द रौद्र यम नामा, वप्र आदि कोणस्थ ललामा। वक्र दृष्टि पिप्पल तन साजा, क्षण महँ करत रंक क्षण राजा। ललत स्वर्ण पद करत निहाला, हरहु विपत्ति छाया के लाला॥ श्री राहु स्तुति जय जय राहु गगन प्रविसइया, तुमही चन्द्र आदित्य ग्रसइया। रवि शशि अरि स्वर्भानु धारा, शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा। सैहिंकेय तुम निशाचर राजा, अर्धकाय जग राखहु लाजा। यदि ग्रह समय पाय कहिं आवहु, सदा शान्ति और सुख उपजावहु॥ श्री केतु स्तुति जय श्री केतु कठिन दुखहारी, करहु सुजन हित मंगलकारी। ध्वजयुत रुण्ड रूप विकराला, घोर रौद्रतन अघमन काला। शिखी तारिका ग्रह बलवाना, महा प्रताप न तेज ठिकाना। वाहन मीन महा शुभकारी, दीजै शान्ति दया उर धारी॥ नवग्रह शांति फल तीरथराज प्रयाग सुपासा, बसै राम के सुन्दर दासा। ककरा ग्रामहिं पुरे-तिवारी, दुर्वासाश्रम जन दुख हारी। नव-ग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु, जन तन कष्ट उतारण सेतू। जो नित पाठ करै चित लावै, सब सुख भोगि परम पद पावै॥ II दोहा II धन्य नवग्रह देव प्रभु, महिमा अगम अपार। चित नव मंगल मोद गृह, जगत जनन सुखद्वार॥ यह चालीसा नवोग्रह विरचित सुन्दरदास। पढ़त प्रेम युत बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास॥

    Shri Vishwakarma Chalisha (श्री विश्वकर्मा चालीसा)

    श्री विश्वकर्मा चालीसा ॥ दोहा ॥ विनय करौं कर जोड़कर मन वचन कर्म संभारि। मोर मनोरथ पूर्ण कर विश्वकर्मा दुष्टारि॥ ॥ चौपाई ॥ विश्वकर्मा तव नाम अनूपा, पावन सुखद मनन अनरूपा। सुन्दर सुयश भुवन दशचारी, नित प्रति गावत गुण नरनारी। शारद शेष महेश भवानी, कवि कोविद गुण ग्राहक ज्ञानी। आगम निगम पुराण महाना, गुणातीत गुणवन्त सयाना। जग महँ जे परमारथ वादी, धर्म धुरन्धर शुभ सनकादि। नित नित गुण यश गावत तेरे, धन्य-धन्य विश्वकर्मा मेरे। आदि सृष्टि महँ तू अविनाशी, मोक्ष धाम तजि आयो सुपासी। जग महँ प्रथम लीक शुभ जाकी, भुवन चारि दश कीर्ति कला की। ब्रह्मचारी आदित्य भयो जब, वेद पारंगत ऋषि भयो तब। दर्शन शास्त्र अरु विज्ञ पुराना, कीर्ति कला इतिहास सुजाना। तुम आदि विश्वकर्मा कहलायो, चौदह विद्या भू पर फैलायो। लोह काष्ठ अरु ताम्र सुवर्णा, शिला शिल्प जो पंचक वर्णा। दे शिक्षा दुख दारिद्र नाश्यो, सुख समृद्धि जगमहँ परकाश्यो। सनकादिक ऋषि शिष्य तुम्हारे, ब्रह्मादिक जै मुनीश पुकारे। जगत गुरु इस हेतु भये तुम, तम-अज्ञान-समूह हने तुम। दिव्य अलौकिक गुण जाके वर, विघ्न विनाशन भय टारन कर। सृष्टि करन हित नाम तुम्हारा, ब्रह्मा विश्वकर्मा भय धारा। विष्णु अलौकिक जगरक्षक सम, शिवकल्याणदायक अति अनुपम। नमो नमो विश्वकर्मा देवा, सेवत सुलभ मनोरथ देवा। देव दनुज किन्नर गन्धर्वा, प्रणवत युगल चरण पर सर्वा। अविचल भक्ति हृदय बस जाके, चार पदारथ करतल जाके। सेवत तोहि भुवन दश चारी, पावन चरण भवोभव कारी। विश्वकर्मा देवन कर देवा, सेवत सुलभ अलौकिक मेवा। लौकिक कीर्ति कला भण्डारा, दाता त्रिभुवन यश विस्तारा। भुवन पुत्र विश्वकर्मा तनुधरि, वेद अथर्वण तत्व मनन करि। अथर्ववेद अरु शिल्प शास्त्र का, धनुर्वेद सब कृत्य आपका। जब जब विपति बड़ी देवन पर, कष्ट हन्यो प्रभु कला सेवन कर। विष्णु चक्र अरु ब्रह्म कमण्डल, रुद्र शूल सब रच्यो भूमण्डल। इन्द्र धनुष अरु धनुष पिनाका, पुष्पक यान अलौकिक चाका। वायुयान मय उड़न खटोले, विद्युत कला तंत्र सब खोले। सूर्य चन्द्र नवग्रह दिग्पाला, लोक लोकान्तर व्योम पताला। अग्नि वायु क्षिति जल अकाशा, आविष्कार सकल परकाशा। मनु मय त्वष्टा शिल्पी महाना, देवागम मुनि पंथ सुजाना। लोक काष्ठ, शिल ताम्र सुकर्मा, स्वर्णकार मय पंचक धर्मा। शिव दधीचि हरिश्चन्द्र भुआरा, कृत युग शिक्षा पालेऊ सारा। परशुराम, नल, नील, सुचेता, रावण, राम शिष्य सब त्रेता। द्वापर द्रोणाचार्य हुलासा, विश्वकर्मा कुल कीन्ह प्रकाशा। मयकृत शिल्प युधिष्ठिर पायेऊ, विश्वकर्मा चरणन चित ध्यायेऊ। नाना विधि तिलस्मी करि लेखा, विक्रम पुतली दृश्य अलेखा। वर्णातीत अकथ गुण सारा, नमो नमो भय टारन हारा। ॥ दोहा ॥ दिव्य ज्योति दिव्यांश प्रभु, दिव्य ज्ञान प्रकाश। दिव्य दृष्टि तिहुँ कालमहँ विश्वकर्मा प्रभास॥ विनय करो करि जोरि, युग पावन सुयश तुम्हार। धारि हिय भावत रहे होय कृपा उद्‌गार॥ ॥ छन्द ॥ जे नर सप्रेम विराग श्रद्धा सहित पढ़िहहि सुनि है। विश्वास करि चालीसा चौपाई मनन करि गुनि है।

    Shri Surya Chalisa (श्री सूर्य चालीसा)

    जय सविता जय जयति दिवाकर,सहस्त्रांशु ! सप्ताश्व तिमिरहर। भानु ! पतंग ! मरीची ! भास्कर !सविता ! हंस सुनूर विभाकर। विवस्वान ! आदित्य ! विकर्तन, मार्तण्ड हरिरूप विरोचन। अम्बरमणि ! खग ! रवि कहलाते, वेद हिरण्यगर्भ कह गाते। सहस्त्रांशुप्रद्योतन, कहि कहि, मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि। अरुण सदृश सारथी मनोहर, हाँकत हय साता चढ़ि रथ पर। मंडल की महिमा अति न्यारी, तेज रूप केरी बलिहारी। उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते ! देखि पुरंदर लज्जित होते। मित्र १. मरीचि २. भानु ३. अरुण भास्कर ४. ५. सूर्य ६. अर्क ७. खग ८. कलिकर पूषा ९. रवि । १०. आदित्य ११. नाम लै, हिरण्यगर्भाय नमः १२. कहिकै। द्वादस नाम प्रेम सों गावैं, मस्तक बारह बार नवावै। चार पदारथ सो जन पावै, दुःख दारिद्र अघ पुञ्ज नसावै। नमस्कार को चमत्कार यह, विधि हरिहर कौ कृपासार यह। सेवै भानु तुमहिं मन लाई, अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई। बारह नाम उच्चारन करते, सहस जनम के पातक टरते। उपाख्यान जो करते तवजन, रिपु सों जमलहते सोतेहि छन। छन सुत जुत परिवार बढतु है, प्रबलमोह को फँद कटतु है। अर्क शीश को रक्षा करते, रवि ललाट पर नित्य बिहरते। सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत, कर्ण देस पर दिनकर छाजत। भानु नासिका वास करहु नित, भास्कर करत सदा मुख कौ हित। ओंठ रहें पर्जन्य हमारे, रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे। कंठ सुवर्ण रेत की शोभा, तिग्मतेजसः कांधे लोभा। पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर, त्वष्टा-वरुण रहम सुउष्णकर। युगल हाथ पर रक्षा कारन, भानुमान उरसर्म सुउदरचन। बसत नाभि आदित्य मनोहर, कटि मंह हँस, रहत मन मुदभर। जंघा गोपति, सविता बासा, गुप्त दिवाकर करत हुलासा। विवस्वान पद की रखवारी, बाहर बसते नित तम हारी। सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै, रक्षा कवच विचित्र विचारे। अस जोजन अपने मन माहीं, भय जग बीज करहुँ तेहि नाहीं। दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुँ न व्यापै, जोजन याको मनमहं जापै। अंधकार जग का जो हरता, नव प्रकाश से आनन्द भरता। ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही, कोटि बार मैं प्रनवौं ताही। मन्द सदृश सुतजग में जाके, धर्मराज सम अद्भुत बाँके। धन्य-२ तुम दिनमनि देवा, किया करत सुरमुनि नर सेवा। भक्ति भावयुत पूर्ण नियमसों, दूर हटतसो भवके भ्रमसों। परम धन्य सो नर तनधारी, हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी। अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन, मध वेदांगनाम रवि उदयन। भानु उदय वैसाख गिनावै, ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै। यम भादों आश्विन हिमरेता, कातिक होत दिवाकर नेता। अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं, पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं। ॥ दोहा ॥ धन्य नवग्रह देव प्रभु, महिमा अगम अपार। चित नव मंगल मोद गृह, जगत जनन सुखद्वार ॥ यह चालीसा नवोग्रह विरचित सुन्दरदास । पढ़त प्रेम युत बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास ॥

    Shri Ravidas Chalisa (श्री रविदास चालीसा)

    श्री रविदास चालीसा ॥ दोहा ॥ बन्दौं वीणा पाणि को, देहु आय मोहिं ज्ञान। पाय बुद्धि रविदास को, करौं चरित्र बखान॥ मातु की महिमा अमित है, लिखि न सकत है दास। ताते आयों शरण में, पुरवहु जन की आस॥ ॥ चौपाई ॥ जै होवै रविदास तुम्हारी, कृपा करहु हरिजन हितकारी। राहू भक्त तुम्हारे ताता, कर्मा नाम तुम्हारी माता। काशी ढिंग माडुर स्थाना, वर्ण अछूत करत गुजराना। द्वादश वर्ष उम्र जब आई, तुम्हरे मन हरि भक्ति समाई। रामानन्द के शिष्य कहाये, पाय ज्ञान निज नाम बढ़ाये। शास्त्र तर्क काशी में कीन्हों, ज्ञानिन को उपदेश है दीन्हों। गंग मातु के भक्त अपारा, कौड़ी दीन्ह उनहिं उपहारा। पंडित जन ताको लै जाई, गंग मातु को दीन्ह चढ़ाई। हाथ पसारि लीन्ह चौगानी, भक्त की महिमा अमित बखानी। चकित भये पंडित काशी के, देखि चरित भव भय नाशी के। रत्न जटित कंगन तब दीन्हाँ, रविदास अधिकारी कीन्हाँ। पंडित दीजौ भक्त को मेरे, आदि जन्म के जो हैं चेरे। पहुँचे पंडित ढिग रविदासा, दै कंगन पुरइ अभिलाषा। तब रविदास कही यह बाता, दूसर कंगन लावहु ताता। पंडित जन तब कसम उठाई, दूसर दीन्ह न गंगा माई। तब रविदास ने वचन उचारे, पंडित जन सब भये सुखारे। जो सर्वदा रहै मन चंगा, तौ घर बसति मातु है गंगा। हाथ कठौती में तब डारा, दूसर कंगन एक निकारा। चित संकोचित पंडित कीन्हें, अपने अपने मारग लीन्हें। तब से प्रचलित एक प्रसंगा, मन चंगा तो कठौती में गंगा। एक बार फिरि पर्यो झमेला, मिलि पंडितजन कीन्हों खेला। सालिग राम गंग उतरावै, सोई प्रबल भक्त कहलावै। सब जन गये गंग के तीरा, मूरति तैरावन बिच नीरा। डूब गईं सबकी मझधारा, सबके मन भयो दुःख अपारा। पत्थर मूर्ति रही उतराई, सुर नर मिलि जयकार मचाई। रह्यो नाम रविदास तुम्हारा, मच्यो नगर महँ हाहाकारा। चीरि देह तुम दुग्ध बहायो, जन्म जनेऊ आप दिखाओ। देखि चकित भये सब नर नारी, विद्वानन सुधि बिसरी सारी। ज्ञान तर्क कबिरा संग कीन्हों, चकित उनहुँ का तुम करि दीन्हों। गुरु गोरखहिं दीन्ह उपदेशा, उन मान्यो तकि संत विशेषा। सदना पीर तर्क बहु कीन्हाँ, तुम ताको उपदेश है दीन्हाँ। मन महँ हार्यो सदन कसाई, जो दिल्ली में खबरि सुनाई। मुस्लिम धर्म की सुनि कुबड़ाई, लोधि सिकन्दर गयो गुस्साई। अपने गृह तब तुमहिं बुलावा, मुस्लिम होन हेतु समुझावा। मानी नहिं तुम उसकी बानी, बंदीगृह काटी है रानी। कृष्ण दरश पाये रविदासा, सफल भईं तुम्हरी सब आशा। ताले टूटि खुल्यो है कारा, माम सिकन्दर के तुम मारा। काशी पुर तुम कहँ पहुँचाई, दै प्रभुता अरुमान बड़ाई। मीरा योगावति गुरु कीन्हों, जिनको क्षत्रिय वंश प्रवीनो। तिनको दै उपदेश अपारा, कीन्हों भव से तुम निस्तारा। ॥ दोहा ॥ ऐसे ही रविदास ने, कीन्हें चरित अपार। कोई कवि गावै कितै, तहूं न पावै पार॥ नियम सहित हरिजन अगर, ध्यान धेरै चालीसा। ताकी रक्षा करेंगे, जगतपति जगदीशा॥

    Shri Gorakh Chalisa (श्री गोरख चालीसा)

    श्री गोरख चालीसा ॥ दोहा ॥ गणपति गिरजा पुत्र को सुमिरू बारम्बार । हाथ जोड़ विनती करूँ शारद नाम आधार ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय गोरख नाथ अविनासी, कृपा करो गुरु देव प्रकाशी। जय जय जय गोरख गुण ज्ञानी, इच्छा रूप योगी वरदानी। अलख निरंजन तुम्हरो नामा, सदा करो भक्तन हित कामा। नाम तुम्हारा जो कोई गावे, जन्म जन्म के दुःख मिट जावे। जो कोई गोरख नाम सुनावे, भूत पिशाच निकट नहीं आवे। ज्ञान तुम्हारा योग से पावे, रूप तुम्हारा लख्या न जावे। निराकार तुम हो निर्वाणी, महिमा तुम्हारी वेद न जानी। घट घट के तुम अन्तर्यामी, सिद्ध चौरासी करे प्रणामी। भस्म अङ्ग गल नाद विराजे, जटा शीश अति सुन्दर साजे। तुम बिन देव और नहीं दूजा, देव मुनि जन करते पूजा। चिदानन्द सन्तन हितकारी, मंगल करण अमंगल हारी। पूर्ण ब्रह्म सकल घट वासी, गोरख नाथ सकल प्रकाशी। गोरख गोरख जो कोई ध्यावे, ब्रह्म रूप के दर्शन पावे। शंकर रूप धर डमरू बाजे, कानन कुण्डल सुन्दर साजे। नित्यानन्द है नाम तुम्हारा, असुर मार भक्तन रखवारा। अति विशाल है रूप तुम्हारा, सुर नर मुनि जन पावें न पारा। दीन बन्धु दीनन हितकारी, हरो पाप हर शरण तुम्हारी। योग युक्ति में हो प्रकाशा, सदा करो सन्तन तन वासा। प्रातःकाल ले नाम तुम्हारा, सिद्धि बढ़े अरु योग प्रचारा। चल चल चल गोरख विकराला, दुश्मन मार करो बेहाला। जय जय जय गोरख अविनाशी, अपने जन की हरो चौरासी। अचल अगम है गोरख योगी, सिद्धि देवो हरो रस भोगी। काटो मार्ग यम को तुम आई, तुम बिन मेरा कौन सहाई। अजर अमर है तुम्हरी देहा, सनकादिक सब जोरहिं नेहा। कोटिन रवि सम तेज तुम्हारा, है प्रसिद्ध जगत उजियारा। योगी लखे तुम्हारी माया, पार ब्रह्म से ध्यान लगाया। ध्यान तुम्हारा जो कोई लावे, अष्टसिद्धि नव निधि घर पावे। शिव गोरख है नाम तुम्हारा, पापी दुष्ट अधम को तारा। अगम अगोचर निर्भय नाथा, सदा रहो सन्तन के साथा। शंकर रूप अवतार तुम्हारा, गोपीचन्द, भरथरी को तारा। सुन लीजो प्रभु अरज हमारी, कृपासिन्धु योगी ब्रह्मचारी। पूर्ण आस दास की कीजे, सेवक जान ज्ञान को दीजे। पतित पावन अधम अधारा, तिनके हेतु तुम लेत अवतारा। अलख निरंजन नाम तुम्हारा, अगम पन्थ जिन योग प्रचारा। जय जय जय गोरख भगवाना, सदा करो भक्तन कल्याना। जय जय जय गोरख अविनासी, सेवा करें सिद्ध चौरासी। जो ये पढ़हि गोरख चालीसा, होय सिद्ध साक्षी जगदीशा। हाथ जोड़कर ध्यान लगावे, और श्रद्धा से भेंट चढ़ावे। बारह पाठ पढ़े नित जोई, मनोकामना पूर्ण होई। ॥ दोहा ॥ सुने सुनावे प्रेम वश, पूजे अपने हाथ। मन इच्छा सब कामना, पूरे गोरखनाथ ॥ अगर अगोचर नाथ तुम, पारब्रह्म अवतार। कानन कुण्डल सिर जटा, अंग विभूति अपार ॥ सिद्ध पुरुष योगेश्वरो, दो मुझको उपदेश। हर समय सेवा करूं, सुबह शाम आदेश ॥

    Shri Jahaveer Chalisa (श्री जाहरवीर चालीसा)

    श्री जाहरवीर चालीसा ॥ दोहा ॥ सुवन केहरी जेवर सुत महाबली रनधीर। बन्दौं सुत रानी बाछला विपत निवारण वीर ॥ जय जय जय चौहान वन्स गूगा वीर अनूप। अनंगपाल को जीतकर आप बने सुर भूप ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय जय जाहर रणधीरा, पर दुख भंजन बागड़ वीरा। गुरु गोरख का हे वरदानी, जाहरवीर जोधा लासानी। गौरवरण मुख महा विसाला, माथे मुकट घुंघराले बाला। कांधे धनुष गले तुलसी माला, कमर कृपान रक्षा को डाला। जन्में गूगावीर जग जाना, ईसवी सन हजार दरमियाना। बल सागर गुण निधि कुमारा, दुखी जनों का बना सहारा। बागड़ पति बाछला नन्दन, जेवर सुत हरि भक्त निकन्दन। जेवर राव का पुत्र कहाये, माता पिता के नाम बढ़ाये। पूरन हुई कामना सारी, जिसने विनती करी तुम्हारी। सन्त उबारे असुर संहारे, भक्त जनों के काज संवारे। गूगावीर की अजब कहानी, जिसको ब्याही श्रीयल रानी। बाछल रानी जेवर राना, भंगिन ने जब बोली मारी, महादुखी थे बिन सन्ताना। जीवन हो गया उनको भारी। सूखा बाग पड़ा नौलक्खा, देख-देख जग का मन दुक्खा। कुछ दिन पीछे साधू आये, चेला चेली संग में लाये। जेवर राव ने कुआ बनवाया, उद्घाटन जब करना चाहा। खारी नीर कुए से निकला, राजा रानी का मन पिघला। रानी तब ज्योतिषी बुलवाया, कौन पाप मैं पुत्र न पाया। कोई उपाय हमको बतलाओ, उन कहा गोरख गुरु मनाओ। गुरु गोरख जो खुश हो जाई, सन्तान पाना मुश्किल नाई। बाछल रानी गोरख गुन गावे, नेम धर्म को न बिसरावे। करे तपस्या दिन और राती, एक वक्त खाय रूखी चपाती। कार्तिक माघ में करे स्नाना, व्रत इकादसी नहीं भुलाना। पूरनमासी व्रत नहीं छोड़े, दान पुण्य से मुख नहीं मोड़े। चेलों के संग गोरख आये, नौलखे में तम्बू तनवाये। मीठा नीर कुए का कीना, सूखा बाग हरा कर दीना। मेवा फल सब साधु खाए, अपने गुरु के गुन को गाये। औघड़ भिक्षा मांगने आए, बाछल रानी ने दुख सुनाये। औघड़ जान लियो मन माहीं, तप बल से कुछ मुश्किल नाहीं। रानी होवे मनसा पूरी, गुरु शरण है बहुत जरूरी। बारह बरस जपा गुरु नामा, तब गोरख ने मन में जाना। पुत्र देन की हामी भर ली, पूरनमासी निश्चय कर ली। काछल कपटिन गजब गुजारा, धोखा गुरु संग किया करारा। बाछल बनकर पुत्र पाया, बहन का दरद जरा नहीं आया। औघड़ गुरु को भेद बताया, तब बाछल ने गूगल पाया। कर परसादी दिया गूगल दाना, अब तुम पुत्र जनो मरदाना। लीली घोड़ी और पण्डतानी, लूना दासी ने भी जानी। रानी गूगल बाट के खाई, सब बांझों को मिली दवाई। नरसिंह पंडित लीला घोड़ा, भज्जु कुतवाल जना रणधीरा। रूप विकट धर सब ही डरावे, जाहरवीर के मन को भावे। भादों कृष्ण जब नौमी आई, जेवरराव के बजी बधाई। विवाह हुआ गूगा भये राना, संगलदीप में बने मेहमाना। रानी श्रीयल संग परे फेरे, जाहर राज बागड़ का करे। अरजन सरजन काछल जने, गूगा वीर से रहे वे तने। दिल्ली गए लड़ने के काजा, अनंग पाल चढ़े महाराजा। उसने घेरी बागड़ सारी, जाहरवीर न हिम्मत हारी। अरजन सरजन जान से मारे, अनंगपाल ने शस्त्र डारे। चरण पकड़कर पिण्ड छुड़ाया, सिंह भवन माड़ी बनवाया। उसीमें गूगावीर समाये, गोरख टीला धूनी रमाये । पुण्य वान सेवक वहाँ आये, तन मन धन से सेवा लाए। मन्सा पूरी उनकी होई, गूगावीर को सुमरे जोई। चालीस दिन पढ़े जाहर चालीसा, सारे कष्ट हरे जगदीसा। दूध पूत उन्हें दे विधाता, कृपा करे गुरु गोरखनाथ।

    Shri Parshuram Chalisa (श्रीपरशुराम चालीसा)

    श्री परशुराम चालीसा II दोहा II श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि। सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि ॥ बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार। बरणों परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार ॥ II चौपाई II जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर। भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा। जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया। मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहारा। प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा, तिथि प्रदोष ब्यापि सुखधामा। तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हा, रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा। निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े। तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा। धरा राम शिशु पावन नामा, नाम जपत जग लह विश्रामा। भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मुंज जनेउ मनहर। मंजु मेखला कटि मृगछाला, रूद्र माला बर वक्ष बिशाला। पीत बसन सुन्दर तनु सोहें, कंध तुणीर धनुष मन मोहें। वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता, क्रोध रूप तुम जग विख्याता। दायें हाथ श्रीपरशु उठावा, बेद संहिता बायें सुहावा। विद्यावान गुण ज्ञान अपारा, शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा। भुवन चारिदस अरू नवखंडा, चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा। एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा। दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दंत गणपति भयो नामा। कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला, सहस्त्रबाहु दुर्जन विकराला। सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं, रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं। मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई। तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी। ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा। लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता। पितु-बध मातु-रूदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा। कर गहि तीक्षण परशु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला। क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा। इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी, छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी। जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव धनु भंग कीन्ह रघुराई। गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तब समूल नाश ताहि ठाना। कर जोरि तब राम रघुराई, बिनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई। भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता। शस्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा। चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई। दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई। अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावइ नित माथा। चारों वर्ण एक सम जाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना। ललहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी। जो यह पढ़े श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा। पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामी, बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी। II दोहा II परशुराम को चारू चरित, मेटत सकल अज्ञान। शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान ॥ II श्लोक II भृगुदेव कुलं भानं, सहसबाहुर्मर्दनम्। रेणुका नयना नंदं, परशुंवन्दे विप्रधनम्॥

    Shri Khatu Shyam Chalisa (श्री खाटू श्याम चालीसा)

    श्री श्याम (खाटू) चालीसा II दोहा II श्री गुरु चरण ध्यान धर, सुमिरि सच्चिदानन्द। श्याम चालीसा भणत हूँ, रच चौपाई छंद॥ II चौपाई II श्याम श्याम भजि बारम्बारा, सहज ही हो भवसागर पारा। इन सम देव न दूजा कोई, दीन दयालु न दाता होई। भीमसुपुत्र अहिलवती जाया, कहीं भीम का पौत्र कहाया। यह सब कथा सही कल्पान्तर, तनिक न मानों इसमें अन्तर। बर्बरीक विष्णु अवतारा, वसुदेव देवकी प्यारे। भक्तन हेतु मनुज तनु धारा, यशुमति मैया नन्द दुलारे। मधुसूदन गोपाल मुरारी, बृजकिशोर योवर्धन धारी। सियाराम श्री हरि गोविन्दा, दीनपाल श्री बाल मुकन्दा। दामोदर रणछोड़ बिहारी, नाथ द्वारिकाधीश खरारी। नरहरि रुप प्रहलाद प्यारा, खम्भ फारि हिरनाकुश मारा। राधा वल्लभ रुक्मिणी कंता, गोपी वल्लभ कंस हनंता। मनमोहन चित्तचोर कहाये, माखन चोरि चोरि कर खाये। मुरलीधर यदुपति घनश्याम, कृष्ण पतितपावन अभिरामा। मायापति लक्ष्मीपति ईसा, पुरुषोत्तम केशव जगदीश। विश्वपति त्रिभुवन उजियारा, दीन बन्धु भक्तन रखवारा। प्रभु का भेद कोई न पाया, शेष महेश थके मुनिराया। नारद शारद ऋषि योगिन्दर, श्याम श्याम सब रटत निरन्तर। करि कोविद करि सके न गिनन्ता, नाम अपार अथाह अनन्ता। हर सृष्टि हर युग में भाई, ले अवतार भक्त सुखदाई। हृदय माँहि करि देखु विचारा, श्याम भजे तो हो निस्तारा। कीर पढ़ावत गणिका तारी, भीलनी की भक्ति बलिहारी। सती अहिल्या गौतम नारी, भई श्राप वश शिला दुखारी। श्याम चरण रज नित लाई, पहुँची पतिलोक में जाई। अजामिल अरू सदन कसाई, नाम प्रताप परम गति पाई। जाके श्याम नाम अधारा, सुख लहहि दुःख दूर हो सारा। श्याम सुलोचन है अति सुन्दर, मोर मुकुट सिर तन पीताम्बर। गल वैजयन्तिमाल सुहाई, छवि अनूप भक्तन मन भाई। श्याम श्याम सुमिरहु दिनराती, शाम दुपहरि अरू परभाती। श्याम सारथी जिसके रथ के, रोड़े दूर होय उस पथ के। श्याम भक्त न कहीं पर हारा, भीर परि तब श्याम पुकारा। रसना श्याम नाम रस पी ले, जी ले श्याम नाम के हाले। संसारी सुख भोग मिलेगा, अन्त श्याम सुख योग मिलेगा। श्याम प्रभु हैं तन के काले, मन के गोरे भोले भाले। श्याम संत भक्तन हितकारी, रोग दोष अघ नाशै भारी। प्रेम सहित जे नाम पुकारा, भक्त लगत श्याम को प्यारा। खाटू में है मथुरा वासी, पार ब्रह्म पूरण अविनासी। सुधा तान भरि मुरली बजाई, चहुं दिशि नाना जहाँ सुनि पाई। वृद्ध बाल जेते नारी नर, मुग्ध भये सुनि वंशी के स्वर। दौड़ दौड़ पहुँचे सब जाई, खाटू में जहां श्याम कन्हाई। जिसने श्याम स्वरूप निहारा, भव भय से पाया छुटकारा। II दोहा II श्याय सलोने साँवरे, बर्बरीक तनु धार। इच्छा पूर्ण भक्त की, करो न लाओ बार ॥

    Shri Ramdev Chalisa (श्री रामदेव चालीसा)

    श्री रामदेव चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री गुरु पद नमन करि, गिरा गनेश मनाय। कथं रामदेव विमल यश, सुने पाप विनशाय ॥ द्वार केश ने आय कर, लिया मनुज अवतार। अजमल गेह बधावणा, जग में जय जयकार ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय रामदेव सुर राया, अजमल पुत्र अनोखी माया। विष्णु रूप सुर नर के स्वामी, परम प्रतापी अन्तर्यामी। ले अवतार अवनि पर आये, तंवर वंश अवतंश कहाये। संत जनों के कारज सारे, दानव दैत्य दुष्ट संहारे। परच्या प्रथम पिता को दीन्हा, दूध परीण्डा मांही कीन्हा। कुमकुम पद पोली दर्शाये, ज्योंही प्रभु पलने प्रगटाये। परचा दूजा जननी पाया, दूध उफणता चरा उठाया। परचा तीजा पुरजन पाया, चिथड़ों का घोड़ा ही साया। परच्या चौथा भैरव मारा, भक्त जनों का कष्ट निवारा। पंचम परच्या रतना पाया, पुंगल जा प्रभु फंद छुड़ाया। परच्या छठा विजयसिंह पाया, जला नगर शरणागत आया। परच्या सप्तम् सुगना पाया, मुवा पुत्र हंसता भग आया। परच्या अष्टम् बौहित पाया, जा परदेश द्रव्य बहु लाया। भंवर डूबती नाव उबारी, प्रगत टेर पहुँचे अवतारी। नवमां परच्या वीरम पाया, बनियां आ जब हाल सुनाया। दसवां परच्या पा बिनजारा, मिश्री बनी नमक सब खारा। परच्या ग्यारह किरपा थारी, नमक हुआ मिश्री फिर सारी। परच्या द्वादश ठोकर मारी, निकलंग नाडी सिरजी प्यारी। परच्या तेरहवां पीर परी पधारया, ल्याय कटोरा कारज सारा। चौदहवां परच्या जाभो पाया, निजसर जल खारा करवाया। परच्या पन्द्रह फिर बतलाया, राम सरोवर प्रभु खुदवाया। परच्या सोलह हरबू पाया, दर्श पाय अतिशय हरषाया। परच्या सत्रह हर जी पाया, दूध थणा बकरया के आया। सुखी नाडी पानी कीन्हों, आत्म ज्ञान हरजी ने दीन्हों। परच्या अठारहवां हाकिम पाया, सूते को धरती लुढ़काया। परच्या उन्नीसवां दल जी पाया, पुत्र पाय मन में हरषाया। परच्या बीसवां पाया सेठाणी, आये प्रभु सुन गदगद वाणी। तुरंत सेठ सरजीवण कीन्हा, भक्त उजागर अभय वर दीन्हा। परच्या इक्कीसवां चोर जो पाया, हो अन्धा करनी फल पाया। परच्या बाईसवां मिर्जी चीहां, सातो तवा बेध प्रभु दीन्हां । परच्या तेईसवां बादशाह पाया, फेर भक्त को नहीं सताया। परच्या चौबीसवां बख्शी पाया, मुवा पुत्र पल में उठ धाया। जब-जब जिसने सुमरण कीन्हां, तब-तब आ तुम दर्शन दीन्हां। भक्त टेर सुन आतुर धाते, चढ़ लीले पर जल्दी आते। जो जन प्रभु की लीला गावें, मनवांछित कारज फल पावें। यह चालीसा सुने सुनावे, ताके कष्ट सकल कट जावे। जय जय जय प्रभु लीला धारी, तेरी महिमा अपरम्पारी। मैं मूरख क्या गुण तब गाऊँ, कहाँ बुद्धि शारद सी लाऊँ। नहीं बुद्धि बल घट लव लेशा, मती अनुसार रची चालीसा। दास सभी शरण में तेरी, रखियो प्रभु लज्जा मेरी।

    Shri Pithar Chalisa (श्री पितर चालीसा)

    श्री पितर चालीसा ॥ दोहा ॥ हे पितरेश्वर आपको दे दियो आशीर्वाद, चरणाशीश नवा दियो रखदो सिर पर हाथ। सबसे पहले गणपत पाछे घर का देव मनावा जी, हे पितरेश्वर दया राखियो करियो मन की चाया जी ॥ ॥ चौपाई ॥ पितरेश्वर करो मार्ग उजागर, चरण रज की मुक्ति सागर। परम उपकार पित्तरेश्वर कीन्हा, मनुष्य योणि में जन्म दीन्हा। मातृ-पितृ देव मनजो भावे, सोई अमित जीवन फल पावे। जै-जै-जै पित्तर जी साईं, पितृ ऋण बिन मुक्ति नाहिं। चारों ओर प्रताप तुम्हारा, संकट में तेरा ही सहारा। नारायण आधार सृष्टि का, पित्तरजी अंश उसी दृष्टि का। प्रथम पूजन प्रभु आज्ञा सुनाते, भाग्य द्वार आप ही खुलवाते। झंझुनू ने दरबार है साजे, सब देवो संग आप विराजे। प्रसन्न होय मनवांछित फल दीन्हा, कुपित होय बुद्धि हर लीन्हा। पित्तर महिमा सबसे न्यारी, जिसका गुणगावे नर नारी। तीन मण्ड में आप बिराजे, बसु रुद्र आदित्य में साजे। नाथ सकल संपदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी। छप्पन भोग नहीं हैं भाते, शुद्ध जल से ही तृप्त हो जाते। तुम्हारे भजन परम हितकारी, छोटे बड़े सभी अधिकारी। भानु उदय संग आप पुजावै, पांच अँजुलि जल रिझावे। ध्वज पताका मण्ड पे है साजे, अखण्ड ज्योति में आप विराजे। सदियों पुरानी ज्योति तुम्हारी, धन्य हुई जन्म भूमि हमारी। शहीद हमारे यहाँ पुजाते, मातृ भक्ति संदेश सुनाते। जगत पित्तरो सिद्धान्त हमारा, धर्म जाति का नहीं है नारा। हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब पूजे पित्तर भाई। हिन्दु वंश वृक्ष है हमारा, जान से ज्यादा हमको प्यारा। गंगा ये मरूप्रदेश की, पितृ तर्पण अनिवार्य परिवेश की। बन्धु छोड़ना इनके चरणाँ, इन्हीं की कृपा से मिले प्रभु शरणा। चौदस को जागरण करवाते, अमावस को हम धोक लगाते। जात जडूला सभी मनाते, नान्दीमुख श्राद्ध सभी करवाते। धन्य जन्म भूमि का वो फूल है, जिसे पितृ मण्डल की मिली धूल है। श्री पित्तर जी भक्त हितकारी, सुन लीजे प्रभु अरज हमारी। निशदिन ध्यान धरे जो कोई, ता सम भक्त और नहीं कोई। तुम अनाथ के नाथ सहाई, दीनन के हो तुम सदा सहाई। चारिक वेद प्रभु के साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी। नाम तुम्हारो लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहीं कोई। जो तुम्हारे नित पाँव पलोटत, नवों सिद्धि चरणा में लोटत। सिद्धि तुम्हारी सब मंगलकारी, जो तुम पे जावे बलिहारी। जो तुम्हारे चरणा चित्त लावे, ताकी मुक्ति अवसी हो जावे। सत्य भजन तुम्हारो जो गावे, सो निश्चय चारों फल पावे। तुमहिं देव कुलदेव हमारे, तुम्हीं गुरुदेव प्राण से प्यारे। सत्य आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावें सोई। तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस्र मुख सके न गाई। मैं अतिदीन मलीन दुखारी, करहु कौन विधि विनय तुम्हारी। अब पित्तर जी दया दीन पर कीजै, अपनी भक्ति, शक्ति कछु दीजै। ॥ दोहा ॥ पित्तरों को स्थान दो, तीरथ और स्वयं ग्राम। श्रद्धा सुमन चढ़ें वहां, पूरण हो सब काम ॥ झुंझुनू धाम विराजे हैं, पित्तर हमारे महान। दर्शन से जीवन सफल हो, पूजे सकल जहान ॥ जीवन सफल जो चाहिए, चले झुंझुनू धाम। पित्तर चरण की धूल ले, हो जीवन सफल महान ॥

    Shri Baba Ganga Chalisa (श्री बाबा गंगा चालीसा)

    श्री बाबा गंगाराम चालीसा ॥ दोहा ॥ अलख निरंजन आप हैं, निरगुण सगुण हमेश। नाना विधि अवतार धर, हरते जगत कलेश ॥ बाबा गंगारामजी, हुए विष्णु अवतार। चमत्कार लख आपका, गूंज उठी जयकार ॥ ॥ चौपाई ॥ गंगाराम देव हितकारी, वैश्य वंश प्रकटे अवतारी। पूर्वजन्म फल अमित रहेऊ, धन्य-धन्य पितु मातु भयेउ। उत्तम कुल उत्तम सतसंगा, पावन नाम राम अरू गंगा। बाबा नाम परम हितकारी, सत सत वर्ष सुमंगलकारी। बीतहिं जन्म देह सुध नाहीं, तपत तपत पुनि भयेऊ गुसाईं। जो जन बाबा में चित लावा, तेहिं परताप अमर पद पावा। नगर झुंझनूं धाम तिहारो, शरणागत के संकट टारो। धरम हेतु सब सुख बिसराये, दीन हीन लखि हृदय लगाये। एहि विधि चालीस वर्ष बिताये, अन्त देह तजि देव कहाये। देवलोक भई कंचन काया, तब जनहित संदेश पठाया। निज कुल जन को स्वप्न दिखावा, भावी करम जतन बतलावा। आपन सुत को दर्शन दीन्हों, धरम हेतु सब कारज कीन्हों। नभ वाणी जब हुई निशा में, प्रकट भई छवि पूर्व दिशा में। ब्रह्मा विष्णु शिव सहित गणेशा, जिमि जनहित प्रकटेउ सब ईशा। चमत्कार एहि भांति दिखाया, अन्तरध्यान भई सब माया। सत्य वचन सुनि करहिं विचारा, मन महँ गंगाराम पुकारा। जो जन करई मनौती मन में, बाबा पीर हरहिं पल छन में। ज्यों निज रूप दिखावहिं सांचा, त्यों त्यों भक्तवृन्द तेहिं जांचा। उच्च मनोरथ शुचि आचारी, राम नाम के अटल पुजारी। जो नित गंगाराम पुकारे, बाबा दुख से ताहिं उबारे। बाबा में जिन्ह चित्त लगावा, ते नर लोक सकल सुख पावा। परहित बसहिं जाहिं मन मांही, बाबा बसहिं ताहिं तन मांही। धरहिं ध्यान रावरो मन में, सुखसंतोष लहै न मन में। धर्म वृक्ष जेही तन मन सींचा, पार ब्रह्म तेहि निज में खींचा। गंगाराम नाम जो गावे, लहि बैकुंठ परम पद पावे। बाबा पीर हरहिं सब भांति, जो सुमरे निश्छल दिन राती। दीन बन्धु दीनन हितकारी, हरौ पाप हम शरण तिहारी। पंचदेव तुम पूर्ण प्रकाशा, सदा करो संतन मुँह बासा। तारण तरण गंग का पानी, गंगाराम उभय सुनिशानी। कृपासिंधु तुम हो सुखसागर, सफल मनोरथ करहु कृपाकर। झुंझनूं नगर बड़ा बड़ भागी, जहँ जन्में बाबा अनुरागी। पूरन ब्रह्म सकल घटवासी, गंगाराम अमर अविनाशी। ब्रह्म रूप देव अति भोला, कानन कुण्डल मुकुट अमोला। नित्यानन्द तेज सुख रासी, हरहु निशातन करहु प्रकासी। गंगा दशहरा लागहिं मेला, नगर झुंझनूं मुँह शुभ बेला। जो नर कीर्तन करहिं तुम्हारा, छवि निरखि मन हरष अपारा। प्रातःकाल ले नाम तुम्हारा, चौरासी का हो निस्तारा। पंचदेव मन्दिर विख्याता, दरशन हित भगतन का तांता। जय श्री गंगाराम नाम की, भवतारण तरि परम धाम की। 'महावीर' धर ध्यान पुनीता, विरचेउ गंगाराम सुगीता। ॥ दोहा ॥ सुने सुनावे प्रेम से, कीर्तन भजन सुनाम। मन इच्छा सब कामना, पूरई गंगाराम ॥

    Shri Durga Chalisa (श्री दुर्गा चालीसा)

    श्री दुर्गा चालीसा ॥ दोहा ॥ नमो नमो दुर्गे सुख करनी, नमो नमो अम्बे दुःख हरनी। निरंकार है ज्योति तुम्हारी, तिहूं लोक फैली उजियारी। शशि ललाट मुख महा विशाला, नेत्र लाल भृकुटी विकराला । रूप मातु को अधिक सुहावे, दरश करत जन अति सुख पावे। तुम संसार शक्ति लय कीना, पालन हेतु अन्न धन दीना। अन्नपूरना हुई जग पाला, तुम ही आदि सुन्दरी बाला। प्रलयकाल सब नाशन हारी, तुम गौरी शिव शंकर प्यारी। शिव योगी तुम्हरे गुण गावें, ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें। रूप सरस्वती को तुम धारा, दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा। धरा रूप नरसिंह को अम्बा, परगट भई फाड़ कर खम्बा। रक्षा करि प्रहलाद बचायो, हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो। लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं, श्री नारायण अंग समाहीं। क्षीरसिन्धु में करत विलासा, दया सिंधु दीजै मन आसा। हिंगलाज में तुम्हीं भवानी, महिमा अमित न जात बखानी। मातंगी धूमावती माता, भुवनेश्वरी बगला सुख दाता। श्री भैरव तारा जग तारिणी, छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी। केहरि वाहन सोह भवानी, लांगुर वीर चलत अगवानी। कर में खप्पर खड़ग विराजे, जाको देख काल डर भाजे। सोहे अस्त्र और त्रिशूला, जाते उठत शत्रु हिय शूला। नाग कोटि में तुम्हीं विराजत, तिहूं लोक में डंका बाजत। शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे, रक्तबीज शंखन संहारे।

    Shri Vindheshwari Chalisa (श्री विंधेश्वरी चालीसा)

    श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा ॥ दोहा ॥ नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब। सन्त जनों के काज में करती नहीं विलम्ब ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय जय विन्ध्याचल रानी, आदि शक्ति जग विदित भवानी। सिंहवाहिनी जय जगमाता, जय जय जय त्रिभुवन सुखदाता। कष्ट निवारिणी जय जग देवी, जय जय सन्त असुर सुर सेवी। महिमा अमित अपार तुम्हारी, शेष सहस मुख वर्णत हारी। दीनन के दुख हरत भवानी, नहिं देख्यो तुम सम कोउ दानी। सब कर मनसा पुरवत माता, महिमा अमित जगत विख्याता। जो जन ध्यान तुम्हारो लावै, सो तुरतहिं वांछित फल पावै। तू ही वैष्णवी तू ही रुद्रानी, तू ही शारदा अरु ब्रह्माणी। रमा राधिका श्यामा काली, तू ही मातु सन्तन प्रतिपाली। उमा माधवी चण्डी ज्वाला, बेगि मोहि पर होहु दयाला। तू ही हिंगलाज महारानी, तू ही शीतला अरु विज्ञानी। दुर्गा दुर्ग विनाशिनी माता, तू ही लक्ष्मी जग सुख दाता। तू ही जाह्नवी अरु उत्राणी, हेमावती अम्ब निरवाणी। अष्ट भुजी वाराहिनी देवा, करत विष्णु शिव जाकर सेवा। चौसट्टी देवी कल्यानी, गौरी मंगला सब गुण खानी। पाटन मुम्बा दन्त कुमारी, भद्रकालि सुन विनय हमारी। वज्र धारिणी शोक नाशिनी, आयु रक्षिणी विन्ध्यवासिनी। जया और विजया बैताली, मात संकटी अरु विकराली। नाम अनन्त तुम्हार भवानी, बरनै किमि मानुष अज्ञानी। जापर कृपा मात तव होई, तो वह करै चहै मन जोई। कृपा करहु मोपर महारानी, सिद्ध करिए अब यह मम बानी। जो नर धेरै मात कर ध्याना, ताकर सदा होय कल्याना। विपति ताहि सपनेहु नहिं आवै, जो देवी का जाप करावै। जो नर कहं ऋण होय अपारा, सो नर पाठ करे शतबारा। निश्चय ऋण मोचन होई जाई, जो नर पाठ करे मन माई। अस्तुति जो नर पढ़ें पढ़ावै, या जग में सो अति सुख पावै। जाको व्याधि सतावे भाई, जाप करत सब दूर पराई। जो नर अति बन्दी महँ होई, बार हजार पाठ कर सोई। निश्चय बन्दी ते छुटि जाई, सत्य वचन मम मानहु भाई। जापर जो कछु संकट होई, निश्चय देविहिं सुमिरे सोई। जा कहँ पुत्र होय नहिं भाई, सो नर या विधि करे उपाई। पाँच वर्ष सो पाठ करावे, नौरातन में विप्र जिमावे। निश्चय होहिं प्रसन्न भवानी, पुत्र देहिं ताकहँ गुणखानी। ध्वजा नारियल आन चढ़ावे, विधि समेत पूजन करवावे। नित्य प्रति पाठ करे मन लाई, प्रेम सहित नहिं आन उपाई। यह श्री विन्ध्याचल चालीसा, रंक पढ़त होवे अवनीसा। यह जनि अचरज मानहुँ भाई, कृपा दृष्टि जापर हुई जाई। जय जय जय जग मातु भवानी, कृपा करहु मोहिं पर जन जानी।

    Shri Laxmi Chalisa (श्री लक्ष्मी चालीसा)

    श्री लक्ष्मी चालीसा ॥ दोहा ॥ मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु मेरी आस ॥ ॥ सोरठा ॥ यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करूँ। सबविधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका ॥ ॥ चौपाई ॥ सिन्धु सुता मैं सुमिरों तोही, ज्ञान बुद्धि विद्या दे मोही। तुम समान नहीं कोई उपकारी, सब विधि पुरवहु आस हमारी। जय जय जय जननी जगदम्बा, सबकी तुम ही हो अवलम्बा । तुम हो सब घट घट के वासी, विनती यही हमारी खासी। जग जननी जय सिन्धुकुमारी, दीनन की तुम हो हितकारी। बिनवों नित्य तुमहिं महारानी, कृपा करो जग जननि भवानी। केहि विधि स्तुति करौं तिहारी, सुधि लीजै अपराध बिसारी। कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी, जग जननी विनती सुन मोरी। ज्ञान बुद्धि सब सुख का दाता, संकट हरो हमारी माता। क्षीर सिन्धु जब विष्णु मथायो, चौदह रत्न सिन्धु में पायो। चौदह रत्न में तुम सुखरासी, सेवा कियो प्रभु बन दासी। जो जो जन्म प्रभु जहां लीना, रूप बदल तहँ सेवा कीन्हा। स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा, लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा। तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं, सेवा कियो हृदय पुलकाहीं। अपनायो तोहि अन्तर्यामी, विश्व विदित त्रिभुवन के स्वामी। तुम सम प्रबल शक्ति नहिं आनि, कहँ लौं महिमा कहाँ बखानी। मन क्रम वचन करै सेवकाई, मन इच्छित वांछित फल पाई। और हाल मैं कहीँ बुझाई, जो यह पाठ करै मन लाई। ताको कोई कष्ट न होई, मन इच्छित पावै फल सोई। त्राहि त्राहि जय दुख निवारिणी, ताप भव बंधन हारिणी। जो यह पढ़े और पढ़ावे, ध्यान लगाकर सुनै सुनावै। ताको कोई न रोग सतावे, पुत्र आदि धन सम्पति पावै। पुत्रहीन अरु संपतिहीना, अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना। विप्र बोलाय के पाठ करावै, शंका दिल में कभी न लावै। पाठ करावै दिन चालीसा, तापर कृपा करें गौरीसा। सुख सम्पति बहुत सो पावै, कमी नहीं काहु की आवै। बारह मास करै सो पूजा, तेहि सम धन्य और नहिं दूजा। प्रतिदिन पाठ करै मनमाहीं, उन सम कोई जग में कहुँ नाहीं। बहु विधि क्या मैं करौं बड़ाई, लेय परीक्षा ध्यान लगाई। करि विश्वास करै व्रत नेमा, होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा। जय जय जय लक्ष्मी भवानी, सब में व्यापित हो गुणखानी। तुम्हारो तेज प्रबल जग माहीं, तुम समकोउ दयालु कहुँ नाहिं। मोहि अनाथ की सुध अब लीजै, संकट काटि भक्ति मोहि दीजै। भूल चूक करि क्षमा हमारी, दर्शन दीजै दशा निहारी। केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई, ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई। बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी, तुमहि अछत दुख सहते भारी। नहिं मोहि ज्ञान बुद्धि है मन में, सब जानत हो अपने मन में। रूप चतुर्भुज करके धारण, कष्ट मोर अब करहु निवारण। ॥ दोहा ॥ त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो बेगि सब त्रास । जयति जयति जय लक्ष्मी, करो दुश्मन का नाश ॥ रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। मातु लक्ष्मी दास पै, करहु दया की कोर ॥

    Shri Mahalaxmi Chalisa (श्री महालक्ष्मी चालीसा)

    श्री महालक्ष्मी चालीसा ॥ दोहा ॥ जय जय श्री महालक्ष्मी करूँ मात तव ध्यान। सिद्ध काज मम कीजिए निज शिशु सेवक जान ॥ ॥ चौपाई ॥ नमो महा लक्ष्मी जय माता, तेरो नाम जगत विख्याता। आदि शक्ति हो मात भवानी, पूजत सब नर मुनि ज्ञानी। जगत पालिनी सब सुख करनी, निज जनहित भण्डारन भरनी। श्वेत कमल दल पर तव आसन, मात सुशोभित है प‌द्मासन। श्वेताम्बर अरु श्वेता भूषन, श्वेतहि श्वेत सुसज्जित पुष्पन । शीश छत्र अति रूप विशाला, गल सौहे मुक्तन की माला। सुन्दर सोहे कुंचित केशा, विमल नयन अरू अनुपम भेषा। कमलनाल समभुज तवचारी, सुरनर मुनिजनहित सुखकारी। अद्भुत छटा मात तवबानी, सकलविश्व कीन्हो सुखखानी। शांतिस्वभाव मृदुलतव भवानी, सकल विश्वकी हो सुखखानी। महालक्ष्मी धन्य हो माई, पंच तत्व में सृष्टि रचाई। जीव चराचर तुम उपजाए, पशु पक्षी नर नारि बनाए। क्षितितल अगणित वृक्ष जमाए, अमितरंग फल फूल सुहाए। छवि बिलोक सुरमुनि नरनारी, करे सदा तव जय-जय कारी। सुरपति औ नरपत सब ध्यावैं, तेरे सम्मुख शीश नवावें। चारहु वेदन तव यश गाया, महिमा अगम पार नहिं पाया। जापर करहु मातु तुम दाया, सोई जग में धन्य कहाया। पल में राजााहि रंक बनाओ, रंक राव कर बिलम न लाओ। जिन घर करहु माततुम बासा, उनका यश हो विश्व प्रकाशा। जो ध्यावै सो बहु सुख पावै, विमुख रहै हो दुख उठावै। महालक्ष्मी जन सुख दाई, ध्याऊं तुमको शीश नवाई। निजजन जानिमोहिं अपनाओ, सुखसम्पति दे दुख नसाओ। ॐ श्री-श्री जयसुखकी खानी, रिद्धिसिद्ध देउ मात जनजानी। ॐह्रीं ॐ ह्रीं सब ब्याधिहटाओ, जनउन बिमल दृष्टिदर्शाओ। ॐक्लीं-ॐ क्लीं शत्रुन क्षयकीजै, जनहित मात अभय वरदीजै। ॐ जयजयति जयजननी, सकल काज भक्तन के सरनी। ॐ नमो नमो भवनिधि तारनी, तरणि भंवर से पार उतारनी। सुनहु मात यह विनय हमारी, पुरवहु आशन करहु अबारी। ऋणी दुखी जो तुमको ध्यावै, सो प्राणी सुख सम्पत्ति पावै। रोग ग्रसित जो ध्यावै कोई, ताकी निर्मल काया होई। विष्णु प्रिया जय-जय महारानी, महिमा अमित न जाय बखानी। पुत्रहीन जो ध्यान लगावै, पाये सुत अतिहि हुलसावै। त्राहि त्राहि शरणागत तेरी, करहु मात अब नेक न देरी। आवहु मात विलम्ब न कीजै, हृदय निवास भक्त बर दीजै। जानूँ जप तप का नहिं भेवा, पार करौ भवनिध बन खेवा। बिनवों बार-बार कर जोरी, पूरण आशा करहु अब मेरी। जानि दास मम संकट टारौ, सकल व्याधि से मोहिं उबारौ। जो तव सुरति रहै लव लाई, सो जग पावै सुयश बड़ाई। छायो यश तेरा संसारा, पावत शेष शम्भु नहिं पारा। गोविंद निशदिन शरण तिहारी, करहु पूरण अभिलाष हमारी। ॥ दोहा ॥ महालक्ष्मी चालीसा पढ़े सुनै चित लाय। ताहि पदारथ मिलै अब कहै वेद अस गाय।

    Shri Saraswati Chalisa (श्री सरस्वती चालीसा)

    श्री सरस्वती चालीसा ॥ दोहा ॥ जनक जननि पदम दुरज, निज मस्तक पर धारि । बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि ॥ पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु । रामसागर के पाप को, मातु तुही अब हन्तु ॥ ॥ चौपाई ॥ जय श्रीसकल बुद्धि बलरासी, जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी। जय जय जय वीणाकर धारी, करती सदा सुहंस सवारी॥ रूप चर्तुभुजधारी माता, सकल विश्व अन्दर विख्याता। जग में पाप बुद्धि जब होती, तबही धर्म की फीकी ज्योति॥ तबहि मातु का निज अवतारा, पाप हीन करती महि तारा। बाल्मीकि जी थे हत्यारा, तब प्रसाद जानै संसारा॥ रामचरित जो रचे बनाई, आदि कवि पदवी को पाई। कालिदास जो भये विख्याता, तेरी कृपा दृष्टि से माता॥ तुलसी सूर आदि विद्वाना, भये और जो ज्ञानी नाना। तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा, केवल कृपा आपकी अम्बा॥ करहु कृपा सोई मातु भवानी, दुखित दीन निज दासहि जानी। पुत्र करई अपराध बहूता, तेहि न धरइ चित सुन्दर माता॥ राखु लाज जननि अब मेरी, विनय करु भाँति बहुतेरी। मैं अनाथ तेरी अवलंबा, कृपा करऊ जय जय जगदंबा॥ मधु कैटभ जो अति बलवाना, बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना। समर हजार पांच में घोरा, फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥ मातु सहाय कीन्ह तेहि काला, बुद्धि विपरीत भई खलहाला। तेहि ते मृत्यु भई खल केरी, पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥ चंड मुण्ड जो थे विख्याता, छण महु संहारेउ तेहिमाता। रक्तबीज से समरथ पापी, सुरमुनि हृदय धरा सब काँपी॥ काटेउ सिर जिम कदली खम्बा, बार बार बिनऊं जगदंबा। जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा, छण में वधे ताहि तू अम्बा॥ भरत-मातु बुद्धि फेरेऊ जाई, रामचन्द्र बनवास कराई। एहिविधि रावन वध तू कीन्हा, सुर नर मुनि सबको सुख दीन्हा॥ को समरथ तव यश गुन गाना, निगम अनादि अनंत बखाना। विष्णु रुद्र अज सकहिन मारी, जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥ रक्त दन्तिका और शताक्षी, नाम अपार है दानव भक्षी। दुर्गम काज धरा पर कीन्हा, दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥ दुर्ग आदि हरनी तू माता, कृपा करहु जब जब सुखदाता। नृप कोपित को मारन चाहै, कानन में घेरे मृग नाहै॥ सागर मध्य पोत के भंजे, अति तूफान नहिं कोऊ संगे। भूत प्रेत बाधा या दुःख में, हो दरिद्र अथवा संकट में॥ नाम जपे मंगल सब होई, संशय इसमें करइ न कोई। पुत्रहीन जो आतुर भाई, सबै छाँडि पूजें एहि माई॥ करै पाठ नित यह चालीसा, होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा। धूपादिक नवैद्य चढ़ावै, संकट रहित अवश्य हो जावै॥ भक्ति मातु की करें हमेशा, निकट न आवै ताहि कलेशा। बंदी पाठ करें सत बारा, बंदी पाश दूर हो सारा॥ रामसागर बाधि हेतु भवानी, कीजै कृपा दास निज जानी। ॥ दोहा ॥ मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप। डूबन से रक्षा करहु, परूँ न मैं भव कूप॥ बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु। राम सागर अधम को, आश्रय तू ही ददातु॥

    Shri Gayatri Chalisa (श्री गायत्री चालीसा)

    श्री गायत्री चालीसा ॥ दोहा ॥ ह्रीं, श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचंड। शांति क्रांति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखंड॥ जगत जननि, मंगल करनि, गायत्री सुख धाम। प्रणवों सावित्री, स्वधा स्वाहा पूरन काम॥ ॥ चौपाई ॥ भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी, गायत्री नित कलिमल दहनी। अक्षर चौबीस परम पुनीता, इसमें बसे शास्त्र, श्रुति, गीता। शाश्वत सतोगुणी सतरूपा, सत्य सनातन सुधा अनूपा। हंसारूढ़ श्वेताम्बर धारी, स्वर्ण कांति शुचि गगन बिहारी। पुस्तक, पुष्प, कमण्डलु, माला, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला। ध्यान धरत पुलकित हिय होई, सुख उपजत दुःख-दुरमति खोई। कामधेनु तुम सुर तरु छाया, निराकार की अद्भुत माया। तुम्हारी शरण गहै जो कोई, तरै सकल संकट सों सोई। सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, दिपै तुम्हारी ज्योति निराली। तुम्हारी महिमा पार न पावैं, जो शारद शतमुख गुण गावैं। चार वेद की मातु पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता। महामन्त्र जितने जग माहीं, कोऊ गायत्री सम नाहीं। सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै, आलस पाप अविद्या नासै। सृष्टि बीज जग जननि भवानी, कालरात्रि वरदा कल्याणी। ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते, तुम सों पावें सुरता तेते। तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे, जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे। महिमा अपरम्पार तुम्हारी, जय जय जय त्रिपदा भयहारी। पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना, तुम सम अधिक न जग में आना। तुमहिं जान कछु रहै न शेषा, तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेशा। जानत तुमहिं तुमहिं द्वैजाई, पारस परसि कुधातु सुहाई। तुम्हारी शक्ति दिपै सब ठाई, माता तुम सब ठौर समाई। ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे, सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे। सकल सृष्टि की प्राण विधाता, पालक, पोषक, नाशक, त्राता। मातेश्वरी दया व्रतधारी, मम सन तरें पातकी भारी। जा पर कृपा तुम्हारी होई, तापर कृपा करे सब कोई। मन्द बुद्धि ते बुद्धि बल पावै, रोगी रोग रहित है जावें। दारिद मिटे, कटे सब पीरा, नाशै दुःख हरै भव भीरा। गृह क्लेश चित चिन्ता भारी, नासै गायत्री भय हारी। सन्तति हीन सुसन्तति पावें, सुख सम्पति युत मोद मनावें। भूत पिशाच सबै भय खावें, यम के दूत निकट नहिं आवें। जो सधवा सुमिरे चित लाई, अछत सुहाग सदा सुखदाई। घर वर सुखप्रद लहँ कुमारी, विधवा रहें सत्यव्रत धारी। जयति जयति जगदंब भवानी, तुम सम और दयालु न दानी। जो सद्‌गुरु सों दीक्षा पावें, सो साधन को सफल बनावें। सुमिरन करें सुरुचि बड़ भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी। अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता, सब समर्थ गायत्री माता। ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी, योगी, आरत, अर्थी, चिन्तत, भोगी। जो जो शरण तुम्हारी आवै, सो सो मन वांछित फल पावै। बल, बुद्धि, विद्या, शील स्वभाऊ, धन, वैभव, यश, तेज, उछाऊ। सकल बढ़ें उपजें सुख नाना, जो यह पाठ करै धरि ध्याना। ॥ दोहा ॥ यह चालीसा भक्ति युत, पाठ करें जो कोय। तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥

    Shri Mahakali Chalisa (श्री महाकाली चालीसा)

    श्री महाकाली चालीसा ॥ दोहा ॥ जय जय सीताराम के मध्यवासिनी अम्ब। देहु दर्श जगदम्ब अब, करो न मातु विलम्ब।। जय तारा जय कालिका जय दश विद्या वृन्द। काली चालीसा रचत एक सिद्धि कवि हिन्द॥ प्रातः काल उठ जो पढ़े, दुपहरिया चा शाम। दुःख दारिद्रता दूर हों सिद्धि होय सब काम॥ ॥ चौपाई ॥ जय काली कंकाल मालिनी, जय मंगला महा कपालिनी। रक्तबीज बधकारिणि माता, सदा भक्त जननकी सुखदाता। शिरो मालिका भूषित अंगे, जय काली जय महा मतंगे। हर हृदयारविन्द सुविलासिनि, जय जगदम्बा सकल दुःख नाशिनि। ह्रीं काली श्रीं महाकराली, की कल्याणी दक्षिणाकाली। जय कलावती जय विद्यावती, जय तारा सुन्दरी भहामति। देहु सुबुद्धि हरहु सब संकट, होहु भक्त के आगे परगट। जय ॐ कारे जय हुंकारे, महा शक्ति जय अपरम्पारे। कमला कलियुग दर्प विनाशिनी, सदा भक्त जन के भयनाशिनी। अब जगदम्ब म देर लगाबहु, दुख दरिद्रता मोर हटावहु। जयति कराल कालिका माता, कालानल समान द्युतिगाता। जयशंकरी सुरेशि सनात्तनि, कोटि सिद्धि कवि मातु पुरात्तनि। कपर्दिनी कलि कल्प बिमोचनि, जय विकसित नव नलिनबिलोचनि। आनन्द करणि आनन्द निधाना, देहुमातु मोहि निर्मल ज्ञाना। करुणामृत सागर कृपामयी, होहु दुष्ट जनपर अब निर्दयी। सकल जीव तोहि परम पिचारा, सकल विश्व तोरे आधारा। प्रलय काल में नर्तन कारिणि, जय जननी सब जगकी पालनि। महोदरी महेश्वरी माया, हिमगिरि सुता विश्व की छाया। स्वछन्द रद मारद धुनि माही, गर्जत तुम्ही और कोउ नाही। स्फुरति मणिगणाकार प्रताने, तारागण तू ब्योंम विताने। श्री धारे सन्तम हितकारिणी, अग्नि पाणि अति दुष्ट विदारिणि। धूघ्र विलोचनि प्राण विमोचनि, शुम्भ निशुम्भ मथनि वरलोचनि। सहस भुजी सरोरुह मालिनी, चामुण्डे मरघट की वासिनी। खप्पर मध्य सुशोणित साजी, मारेड माँ महिषासुर पाजी। अम्ब अम्बिका चण्ड चण्डिका, सब एके तुम आदि कालिका। अजा एकरूपा बहुरूपा, अकथ चरित्र तव शक्ति अनूपा। कादम्बरी पानरत श्यामा, जय मातंगी काम के धामा। कमलासन वासिनी कमलायनि, जय श्यामा जय जय श्यामायनि। मातंगी जय जयति प्रकृति हे, जयति भक्ति उर कुमति सुमति है। कोटिब्रह्य शिव विष्णु कामदा, जयति अहिंसा धर्म जन्मदा। जल थल नभमण्डल में व्यापिनी, सौदामिनि मध्य अलापिनि। झननन तच्छु मरिरिन नादिनि, जय सरस्वती वीणा वादिनी। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे, कलित कण्ठ शोभित नरमुण्डा। जय ब्रह्माण्ड सिद्धि कवि माता, कामाख्या और काली माता। हिंगलाज विन्ध्याचल वासिनि, अद्रुहासिनी अरु अघन नाशिनी। कितनी स्तुति करू अखण्डे, तू ब्रह्माण्डे शक्तिजितचण्डे। करातु कृपा सथपे जगदम्बा, रहहिं निशंक तोर अवलम्बा। बतुर्भुजी काली तुम श्यामा, रूप तुम्हार महा अभिरामा। खड्ग और खप्पर कर सौहत, सुर नर मुनि सबको मन मोहत। तुम्हरी कृपा पावे जो कोई, रोग शोक नहि ताकह होई। जो यह पाठ करे चालीसा, तापर कृपा करहि गौरीशा। ॥ दोहा ॥ जय कपालिनी जय शिवा, जय जय जय जगदम्ब। सदा भक्तजन केरि दुःख हरहु मातु अवलम्ब॥

    Shri Kali Chalisa (श्री काली चालीसा)

    श्री काली चालीसा ॥ दोहा ॥ जय काली जगदम्ब जय, हरनि ओघ अघ पुंज। बास करहु निज दास के, निशदिन हृदय-निकुंज ॥ जयति कपाली कालिका, कंकाली सुख दानि। कृपा करहु वरदायिनी, निज सेवक अनुमानि ॥ ॥ चौपाई ॥ जय, जय, जय काली कंकाली, जय कपालिनी, जयति कराली। शंकर प्रिया, अपर्णा, अम्बा, जय कपर्दिनी, जय जगदम्बा। आर्या, हला, अम्बिका, माया, कात्यायनी उमा जगजाया। गिरिजा गौरी दुर्गा चण्डी, दाक्षाणायिनी शाम्भवी प्रचंडी। पार्वती मंगला भवानी, विश्वकारिणी सत्ती मृडानी। सर्वमंगला शैल नन्दिनी, हेमवती तुम जगत वन्दिनी। ब्रह्मचारिणी कालरात्रि जय, महारात्रि जय मोहरात्रि जय। तुम त्रिमूर्ति रोहिणी कालिका, कूष्माण्डा कार्तिकी चण्डिका। तारा भुवनेश्वरी अनन्या, तुम्हीं छिन्नमस्ता शुचिधन्या। धूमावती घोडशी माता, बगला मातंगी विख्याता। तुम भैरवी मातु तुम कमला, रक्तदन्तिका कीरति अमला। शाकम्भरी कौशिकी भीमा, महातमा अग जग की सीमा। चन्द्रघण्टिका तुम सावित्री, ब्रह्मवादिनी मां गायत्री। रूद्राणी तुम कृष्ण पिंगला, अग्रिज्वाल तुम सर्वमंगला। मेधस्वना तपस्विनि योगिनी, सहस्वाक्षि तुम अगजग भोगिनी। जलोदरी सरस्वती डाकिनी, त्रिदशेश्वरी अजेय लाकिनी। पुष्टि तुष्टि धृति स्मृति शिव दूती, कामाक्षी लज्जा आहूती। महोदरी कामाक्षि हारिणी, विनायकी श्रुति महा शाकिनी। अजा कर्ममोही बह्माणी, धात्री वाराही शर्वाणी। स्कन्द मातु तुम सिंह वाहिनी, मातु सुभद्रा रहहु दाहिनी। नाम रूप गुण अमित तुम्हारे, शेष शारदा बरणत हारे। तनु छवि श्यामवर्ण तव माता, नाम कालिका जग विख्याता। अष्टादश तय भुजा मनोहर, तिनमहें अस्त्र विराजत सुन्दर। शंख चक्र अरू गदा सुहावन, परिध भुशण्डी घण्टा पाचन। शूल बज्र धनुबाण उठाये, निशिचर कुल सब मारि गिराये। वीरबद्र अरु गजराज गाहि, मातु काली के ध्यान लगाहि। सबहीं यह चली ताको माथा, शिर छत्र कर धारी सदा। यम भय रहित नर अचल धामा, मातु काली निर्विघ्न धामा। ॥ दोहा ॥ जय काली जगदम्ब जय, हरनि ओघ अघ पुंज। बास करहु निज दास के, निशदिन हृदय-निकुंज॥

    Shri Radha Chalisa (श्री राधा चालीसा)

    श्री राधा चालीसा ॥ दोहा ॥ श्रीराधासर्वेश्वरी, रसिकेश्वर घनश्याम। करहुँ निरंतर बास मैं, श्रीवृन्दावन धाम॥ ॥ चौपाई ॥ जय वृषभान कुँवरि श्री श्यामा, कीरति नंदिनि शोभा धामा। नित्य बिहारिनि श्याम अधारा, अमित मोद मंगल दातारा॥ रास विलासिनि रस विस्तारिनी, सहचरि सुभग यूथ मन भावनि। नित्य किशोरी राधा गोरी, श्याम प्राणधन अति जिय भोरी॥ करुणा सागर हिय उमंगिनि, ललितादिक सखियन की संगिनी। दिन कर कन्या कूल बिहारिनि, कृष्ण प्राण प्रिय हिय हुलसावनि॥ नित्य श्याम तुमरौ गुण गावें, राधा राधा कहि हरषावें। मुरली में नित नाम उचारे, तुव कारण प्रिया वृषभानु दुलारी॥ नवल किशोरी अति छवि धामा, द्युति लघु लगै कोटि रति कामा। गौरांगी शशि निंदक बढ़ना, सुभग चपल अनियारे नयना॥ जावक युग युग पंकज चरना, नूपुर धुनि प्रीतम मन हरना। संतत सहचरि सेवा करहीं, महा मोद मंगल मन भरहीं॥ रसिकन जीवन प्राण अधारा, राधा नाम सकल सुख सारा। अगम अगोचर नित्य स्वरूपा, ध्यान धरत निशदिन ब्रज भूपा॥ उपजेउ जासु अंश गुण खानी, कोटिन उमा रमा ब्रह्मानी। नित्यधाम गोलोक विहारिनी, जन रक्षक दुख दोष नसावनि॥ शिव अज मुनि सनकादिक नारद, पार न पायें शेष अरु शारद॥ राधा शुभ गुण रूप उजारी, निरखि प्रसन्न होत बनवारी॥ ब्रज जीवन धन राधा रानी, महिमा अमित न जाय बखानी। प्रीतम संग देई गलबाँही, बिहरत नित्य वृन्दाबन माँही॥ राधा कृष्ण कृष्ण कहैं राधा, एक रूप दोउ प्रीति अगाधा। श्री राधा मोहन मन हरनी, जन सुख दायक प्रफुलित बदनी॥ कोटिक रूप धरें नंद नन्दा, दर्श करन हित गोकुल चन्दा। रास केलि करि तुम्हें रिझावें, मान करौ जब अति दुख पावें॥ प्रफुलित होत दर्श जब पावें, विविध भाँति नित विनय सुनावें। वृन्दारण्य बिहारिनि श्यामा, नाम लेत पूरण सब कामा॥ कोटिन यज्ञ तपस्या करहू, विविध नेम व्रत हिय में धरहू। तऊ न श्याम भक्तहिं अपनावें, जब लगि राधा नाम न गावे॥ वृन्दाविपिन स्वामिनी राधा, लीला बपु तब अमित अगाधा। स्वयं कृष्ण पावैं नहिं पारा, और तुम्हें को जानन हारा॥ श्री राधा रस प्रीति अभेदा, सारद गान करत नित वेदा। राधा त्यागि कृष्ण को भेजिहैं, ते सपनेहु जग जलधि न तरिहैं॥ कीरति कुँवरि लाड़िली राधा, सुमिरत सकल मिटहिं भव बाधा। नाम अमंगल मूल नसावन, त्रिविध ताप हर हरि मन भावन॥ राधा नाम लेइ जो कोई, सहजहि दामोदर बस होई। राधा नाम परम सुखदाई, भजतहिं कृपा करहिं यदुराई॥ यशुमति नन्दन पीछे फिरिहैं, जो कोउ राधा नाम सुमिरिहैं। रास विहारिन श्यामा प्यारी, करहु कृपा बरसाने वारी॥ वृन्दावन है शरण तिहारौ, जय जय जय वृषभानु दुलारी॥

    Shri Shitla Chalisa (श्री शीतला चालीसा)

    श्री शीतला चालीसा ॥ दोहा ॥ जय-जय माता शीतला, तुमहिं धेरै जो ध्यान। होय विमल शीतल हृदय, विकसै बुद्धि बलज्ञान ॥ ॥ चौपाई ॥ जय-जय-जय शीतला भवानी, जय जग जननि सकल गुणखानी। गृह-गृह शक्ति तुम्हारी राजित, पूरण शरदचंद्र समसाजित। विस्फोटक से जलत शरीरा, शीतल करत हरत सब पीरा। मातु शीतला तव शुभनामा, सबके गाढ़े आवहिं कामा। शोकहरी शंकरी भवानी, बाल-प्राणरक्षी सुख दानी। शुचि मार्जनी कलश करराजै, मस्तक तेज सूर्य समराजै। चौसठ योगिन संग में गावैं, वीणा ताल मृदंग बजावैं। नृत्य नाथ भैरो दिखरावैं, सहज शेष शिव पार न पावैं। धन्य-धन्य धात्री महारानी, सुरनर मुनि तब सुयश बखानी। ज्वाला रूप महा बलकारी, दैत्य एक विस्फोटक भारी। घर-घर प्रविशत कोई न रक्षत, रोग रूप धरि बालक भक्षत। हाहाकार मच्यो जगभारी, सक्यो न जब संकट टारी। तब मैया धरि अद्भुत रूपा, करमें लिये मार्जनी सूपा। विस्फोटकहिं पकड़ि कर लीन्ह्यो, मुसल प्रहार बहुविधि कीन्ह्यो। बहुत प्रकार वह विनती कीन्हा, मैया नहीं भल मैं कछु चीन्हा। अबनहिं मातु, काहुगृह जइहौं, जहँ अपवित्र सकल दुःख हरिहैं। भभकत तन, शीतल है जइहें, विस्फोटक भयघोर नसड़हैं। श्री शीतलहिं भजे कल्याना, वचन सत्य भाषे भगवाना। विस्फोटक भय जिहि गृह भाई, भजै देवि कहँ यही उपाई। कलश शीतला का सजवावै, द्विज से विधिवत पाठ करावै। तुम्हीं शीतला, जग की माता, तुम्हीं पिता जग की सुखदाता। तुम्हीं जगद्धात्री सुखसेवी, नमो नमामि शीतले देवी। नमो सुक्खकरणी दुःखहरणी, नमो नमो जगतारणि तरणी। नमो नमो त्रलोक्य वन्दिनी, दुखदारिद्रादिक निकन्दनी। श्री शीतला, शेढ़ला, महला, रुणलीह्यणनी मातु मंदला। हो तुम दिगम्बर तनुधारी, शोभित पंचनाम असवारी। रासभ, खर बैशाख सुनन्दन, गर्दभ दुर्वाकंद निकन्दन। सुमिरत संग शीतला माई, जाहि सकल दुख दूर पराई। गलका, गलगन्डादि जुहोई, ताकर मंत्र न औषधि कोई। एक मातु जी का आराधन, और नहिं कोई है साधन । निश्चय मातु शरण जो आवै, निर्भय मन इच्छित फल पावै। कोढ़ी, निर्मल काया धारै, अन्धा, दृग-निज दृष्टि निहारै। वन्ध्या नारि पुत्र को पावै, जन्म दरिद्र धनी होई जावै। मातु शीतला के गुण गावत, लखा मूक को छन्द बनावत । यामे कोई करै जनि शंका, जग में मैया का ही डंका। भनत 'रामसुन्दर' प्रभुदासा, तट प्रयाग से पूरब पासा। पुरी तिवारी मोर मोर निवासा, ककरा गंगा तट दुर्वासा । अब विलम्ब मैं तोहि पुकारत, मातु कृपा कौ बाट निहारत। पड़ा क्षर तव आस लगाई, रक्षा करहु शीतला माई।

    Shri Tulsi Chalisa (श्री तुलसी चालीसा)

    श्री तुलसी चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री तुलसी महारानी, करूँ विनय सिरनाय। जो मम हो संकट विकट, दीजै मात नशाय ॥ ॥ चौपाई ॥ नमो नमो तुलसी महारानी, महिमा अमित न जाय बखानी। दियो विष्णु तुमको सनमाना, जग में छायो सुयश महाना। विष्णुप्रिया जय जयतिभवानि, तिहूं लोक की हो सुखखानी। भगवत पूजा कर जो कोई, बिना तुम्हारे सफल न होई। जिन घर तब नहिं होय निवासा, उस पर करहिं विष्णु नहि बासा। करे सदा जो तव नित सुमिरन, तेहिके काज होय सब पूरन। कातिक मास महात्म तुम्हारा, ताको जानत सब संसारा। तव पूजन जो करें कुंवारी, पावै सुन्दर वर सुकुमारी। कर जो पूजा नितप्रति नारी, सुख सम्पत्ति से होय सुखारी। वृद्धा नारी करै जो पूजन, मिले भक्ति होवै पुलकित मन। श्रद्धा से पूजें जो कोई, भवनिधि से तर जावै सोई। कथा भागवत यज्ञ करावै, तुम बिन नहीं सफलता पावै। छायो तब प्रताप जगभारी, ध्यावत तुमहिं सकल चितधारी। तुम्हीं मात यंत्रन तंत्रन में, सकल काज सिधि होवै क्षण में। औषधि रूप आप हो माता, सब जग में तव यश विख्याता। देव रिषी मुनि औ तपधारी, करत सदा तव जय जयकारी। वेद पुरानन तव यश गाया, महिमा अगम पार नहिं पाया। नमो नमो जै जै सुखकारनि, नमो नमो जै दुखनिवारनि। नमो नमो सुखसम्पति देनी, नमो नमो अघ काटन छेनी। नमो नमो भक्तन दुःख हरनी, नमो नमो दुष्टन मद छेनी। नमो नमो भव पार उतारनि, नमो नमो परलोक सुधारनि। नमो नमो निज भक्त उबारनि, नमो नमो जनकाज संवारनि। नमो नमो जय कुमति नशावनि, नमो नमो सब सुख उपजावनि। जयति जयति जय तुलसीमाई, ध्याऊँ तुमको शीश नवाई। निजजन जानि मोहि अपनाओ, बिगड़े कारज आप बनाओ। करूँ विनय मैं मात तुम्हारी, पूरण आशा करहु हमारी। शरण चरण कर जोरि मनाऊँ, निशदिन तेरे ही गुण गाऊँ। करहु मात यह अब मोपर दाया, निर्मल होय सकल ममकाया। मांगू मात यह बर दीजै, सकल मनोरथ पूर्ण कीजै। जानू नहिं कुछ नेम अचारा, छमहु मात अपराध हमारा। बारह मास करें जो पूजा, ता सम जग में और न दूजा। प्रथमहि गंगाजल मंगवावे, फिर सुन्दर स्नान करावे। चन्दन अक्षत पुष्प चढ़ावे, धूप दीप नैवेद्य लगावे। करे आचमन गंगा जल से, ध्यान करे हृदय निर्मल से। पाठ करे फिर चालीसा की, अस्तुति करे मात तुलसा की। यह विधि पूजा करे हमेशा, ताके तन नहिं रहे क्लेशा। करै मास कार्तिक का साधन, सोवे नित पवित्र सिध हुई जाहीं। है यह कथा महा सुखदाई, पढ़े सुने सो भव तर जाई। ॥ दोहा ॥ यह श्री तुलसी चालीसा पाठ करे जो कोय। गोविन्द सो फल पावही जो मन इच्छा होय ॥

    Shri Vaishno Devi Chalisa (श्री वैष्णो देवी चालीसा)

    श्री वैष्णो देवी चालीसा ॥ दोहा ॥ गरुड़ वाहिनी वैष्णवी त्रिकूटा पर्वत धाम। काली, लक्ष्मी, सरस्वती शक्ति तुम्हें प्रणाम ॥ ॥ चौपाई ॥ नमोः नमोः वैष्णो वरदानी, कलि काल में शुभ कल्याणी। मणि पर्वत पर ज्योति तुम्हारी, पिंडी रूप में हो अवतारी। देवी देवता अंश दियो है, रत्नाकर घर जन्म लियो है। करी तपस्या राम को पाऊँ, त्रेता की शक्ति कहलाऊँ। कहा राम मणि पर्वत जाओ, कलियुग की देवी कहलाओ। विष्णु रूप से कल्की बनकर, लूंगा शक्ति रूप बदलकर। तब तक त्रिकुटा घाटी जाओ, गुफा अंधेरी जाकर पाओ। काली-लक्ष्मी-सरस्वती माँ, करेंगी शोषण-पार्वती माँ। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर द्वारे, हनुमत, भैरों प्रहरी प्यारे। रिद्धि, सिद्धि चंवर डुलावें, कलियुग-वासी पूजन आवें। पान सुपारी ध्वजा नारियल, चरणामृत चरणों का निर्मल। दिया फलित वर माँ मुस्काई, करन तपस्या पर्वत आई। कलि कालकी भड़की ज्वाला, इक दिन अपना रूप निकाला। कन्या बन नगरोटा आई, योगी भैरों दिया दिखाई। रूप देख सुन्दर ललचाया, पीछे-पीछे भागा आया। कन्याओं के साथ मिली माँ, कौल कंदौली तभी चली माँ। देवा माई दर्शन दीना, पवन रूप हो गई प्रवीणा। नवरात्रों में लीला रचाई, भक्त श्रीधर के घर आई। योगिन को भण्डारा दीना, सबने रुचिकर भोजन कीना। मांस, मदिरा भैरों मांगी, रूप पवन कर इच्छा त्यागी। बाण मारकर गंगा निकाली, पर्वत भागी हो मतवाली। चरण रखे आ एक शिला जब, चरण पादुका नाम पड़ा तब। पीछे भैरों था बलकारी, छोटी गुफा में जाय पधारी। नौ माह तक किया निवासा, चली फोड़कर किया प्रकाशा। आद्या शक्ति-ब्रह्म कुमारी, कहलाई माँ आद कुंवारी। गुफा द्वार पहुंची मुस्काई, लांगुर बीर ने आज्ञा पाई। भागा-भागा भैरों आया, रक्षा हित निज शस्त्र चलाया। पड़ा शीश जा पर्वत ऊपर, किया क्षमा जा दिया उसे वर। अपने संग में पुजवाऊंगी, भैरों घाटी बनवाऊंगी। पहले मेरा दर्शन होगा, पीछे तेरा सुमरन होगा। बैठ गई माँ पिण्डी होकर, चरणों में बहता जल झर-झर। चौंसठ योगिनी-भैरों बरवन, सप्तऋषि आ करते सुमरन। घंटा ध्वनि पर्वत पर बाजे, गुफा निराली सुन्दर लागे। भक्त श्रीधर पूजन कीना, भक्ति सेवा का वर लीना। सेवक ध्यानं तुमको ध्याया, ध्वजा व चोला आन चढ़ाया। सिंह सदा दर पहरा देता, पंजा शेर का दुःख हर लेता। जम्बू द्वीप महाराज मनाया, सर सोने का छत्र चढ़ाया। हीरे की मूरत संग प्यारी, जगे अखंड इक जोत तुम्हारी। आश्विन चैत्र नवराते आऊँ, पिण्डी रानी दर्शन पाऊ। सेवक 'शर्मा' शरण तिहारी, हरो वैष्णो विपत हमारी। ॥ दोहा ॥ कलियुग में महिमा तेरी, है माँ अपरम्पार। धर्म की हानि हो रही, प्रगट हो अवतार।

    Shri Annapurna Chalisa ( श्री अन्नपूर्णा चालीसा )

    श्री अन्नपूर्णा चालीसा II दोहा II विश्वेश्वर-पदपदम की रज-निज शीश-लगाय। अन्नपूर्णे ! तव सुयश बरनौं कवि-मतिलाय॥ ॥ चौपाई ॥ नित्य अनंद करिणी माता, वर-अरु अभय भाव प्रख्याता। जय ! सौंदर्य सिंधु जग जननी, अखिल पाप हर भव-भय हरनी॥ श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि, संतन तुव पद सेवत ऋषिमुनि। काशी पुराधीश्वरी माता, माहेश्वरी सकल जग-त्राता॥ बृषभारूढ़ नाम रुद्राणी, विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी॥ पदिदेवता सुतीत शिरोमनि, पदवी प्राप्त कीह्न गिरि-नंदिनी। पति-विछोह दुख सहि नहि पावा, योग अग्नि तब बदन जरावा॥ देह तजत शिव-चरण सनेहू, राखेहु जाते हिमगिरी-गेहू। प्रकटी गिरिजा नाम धरायो, अति आनंद भवन मुँह छायो॥ नारद ने तब तोहिं भरमायहु, ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु। ब्रह्मा-वरुण-कुबेर-गनाये, देवराज आदिक कहि गाय॥ सब देवन को सुजस बखानी, मतिपलटन की मन मुँह ठानी। अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या, कीह्नी सिद्ध हिमाचल कन्या॥ निज कौ तव नारद घबराये, तब प्रण-पूरण मंत्र पढ़ाये। करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ, संत-बचन तुम सत्य परेखेहु॥ गगनगिरा सुनि टरी न टारे, ब्रह्मा, तब तुव पास पधारे। कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा, देहुँ आज तुव मति अनुरूपा॥ तुम तप कीह्न अलौकिक भारी, कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी। अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों, है सौगंध नहीं छल तोसों॥ करत वेद विद ब्रह्मा जानहु, वचन मोर यह सांचो मानहु॥ तजि संकोच कहहु निज इच्छा, देहीं मैं मन मानी भिक्षा॥ सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी, मुखसों कछु मुसुकायि भवानी॥ बोली तुम का कहहु विधाता, तुम तो जगके स्त्रष्टाधाता॥ मम कामना गुप्त नहिं तोंसों, कहवावा चाहहु का मोसों॥ इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा, शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा॥ सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय, कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये॥ तब गिरिजा शंकर तव भयऊ, फल कामना संशय गयऊ॥ चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा, तब आनन महँ करत निवासा॥ माला पुस्तक अंकुश सोहै, करमँह अपर पाश मन मोहे॥ अन्नपूर्णे! सदपूर्णे, अज-अनवद्य अनंत अपूर्णे॥ कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ, भव-विभूति आनंद भरी माँ॥ कमल बिलोचन विलसित बाले, देवि कालिके ! चण्डि कराले॥ तुम कैलास मांहि है गिरिजा, विलसी आनंदसाथ सिंधुजा॥ स्वर्ग-महालछमी कहलायी, मर्त्य-लोक लछमी पदपायी॥ विलसी सब मुँह सर्व सरूपा, सेवत तोहिं अमर पुर-भूपा॥ जो ढ़हहिं यह तुव चालीसा, फल पड़हहिं शुभ साखी ईसा॥ प्रात समय जो जन मन लायो, पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अधिकायो॥ स्त्री-कलत्र पनि मित्र-पुत्र युत, परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत॥ राज विमुखको राज दिवावै, जस तेरो जन-सुजस बढ़ावै॥ पाठ महा मुद मंगल दाता, भक्त मनो वांछित निधिपाता॥ II दोहा II जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावहिंगे माथ। तिनके कारज सिद्ध सब साखी काशी नाथ॥

    Shri Santoshi Maa Chalisa ( श्री संतोषी माँ चालीसा)

    श्री संतोषी माँ चालीसा ॥ दोहा ॥ श्री गणपति पद नाय सिर, धरि हिय शारदा ध्यान। सन्तोषी मां की करूँ, कीरति सकल बखान। ॥ चौपाई ॥ जय संतोषी मां जग जननी, गणपति देव तुम्हारे ताता। माता-पिता की रहौ दुलारी, खल मति दुष्ट दैत्य दल हननी। रिद्धि सिद्धि कहलावहं माता, कीरति केहि विधि कहूं तुम्हारी। क्रीट मुकुट सिर अनुपम भारी, कानन कुण्डल को छवि न्यारी। सोहत अंग छटा छवि प्यारी, सुन्दर चीर सुनहरी धारी। आप चतुर्भुज सुघड़ विशाला, धारण करहु गले वन माला। निकट है गौ अमित दुलारी, करहु मयूर आप असवारी। जानत सबही आप प्रभुताई, सुर नर मुनि सब करहिं बड़ाई। तुम्हरे दरश करत क्षण माई, दुख दरिद्र सब जाय नसाई। वेद पुराण रहे यश गाई, करहु भक्त की आप सहाई। ब्रह्मा ढिंग सरस्वती कहाई, लक्ष्मी रूप विष्णु ढिंग आई। शिव ढिंग गिरजा रूप बिराजी, महिमा तीनों लोक में गाजी। शक्ति रूप प्रगटी जन जानी, रुद्र रूप भई मात भवानी। दुष्टदलन हित प्रगटी काली, जगमग ज्योति प्रचंड निराली। चण्ड मुण्ड महिषासुर मारे, शुम्भ निशुम्भ असुर हनि डारे। महिमा वेद पुरानन बरनी, निज भक्तन के संकट हरनी। रूप शारदा हंस मोहिनी, निरंकार साकार दाहिनी। प्रगटाई चहुंदिश निज माया, कण कण में है तेज समाया। पृथ्वी सूर्य चन्द्र अरू तारे, तव इंगित क्रम बद्ध हैं सारे। पालन पोषण तुमहीं करता, क्षण भंगुर में प्राण हरता। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें, शेष महेश सदा मन लावे। मनोकामना पूरण करनी, पाप काटनी भव भय तरनी। चित्त लगाय तुम्हें जो ध्याता, सो नर सुख सम्पत्ति है पाता। बन्ध्या नारि तुमहिं जो ध्यावें, पुत्र पुष्प लता सम वह पावैं। पति वियोगी अति व्याकुलनारी, तुम वियोग अति व्याकुलयारी। कन्या जो कोई तुमको ध्यावै, अपना मन वांछित वर पावै। शीलवान गुणवान हो मैया, अपने जन की नाव खिवैया। विधि पूर्वक व्रत जो कोई करहीं, ताहि अमित सुख सम्पति भरहीं। गुड़ और चना भोग तोहि भावै, सेवा करै सो आनन्द पावै। श्रद्धा युक्त ध्यान जो धरहीं, सो नर निश्चय भव सों तरहीं। उद्यापन जो करहि तुम्हारा, ताको सहज करहु निस्तारा। नारि सुहागिन व्रत जो करती, सुख सम्पत्ति सों गोदी भरती। जो सुमिरत जैसी मन भावा, सो नर वैसो ही फल पावा। सात शुक्र जो व्रत मन धारे, ताके पूर्ण मनोरथ सारे। सेवा करहि भक्ति युत जोई, ताको दूर दरिद्र दुख होई। जो जन शरण माता तेरी आवै, ताके क्षण में काज बनावै। जय जय जय अम्बे कल्यानी, कृपा करौ मोरी महारानी। जो कोई पढ़े मात चालीसा, तापे करहिं कृपा जगदीशा। नित प्रति पाठ करै इक बारा, सो नर रहै तुम्हारा प्यारा। नाम लेत ब्याधा सब भागे, रोग दोष कबहूँ नहीं लागे। ॥ दोहा ॥ सन्तोषी माँ के सदा बन्दहुँ पग निश वास। पूर्ण मनोरथ हों सकल मात हरी भव त्रास।

    Shri Parvati Chalisa (श्री पार्वती चालीसा)

    श्री पार्वती चालीसा ॥ दोहा ॥ जय गिरी तनये दक्षजे शंभु प्रिये गुणखानि। गणपति जननी पार्वती अम्बे ! शक्ति ! भवानि ॥ ॥ चौपाई ॥ ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे। षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो। तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हित सजाता। अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे। ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर। कनक बसन कंचुकी सजाए, कटि मेखला दिव्य लहराए। कंठ मदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा। बालारुण अनन्त छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी। नाना रत्न जटित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन। इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित। गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिन जय जय। त्रिभुवन सकल कुटुम्ब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी। हैं महेश प्राणेश ! तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे। उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब। बूढ़ा बैल सवारी जिनकी, महिमा का गावे कोउ तिनकी। सदा श्मशान बिहारी शंकर, आभूषण है भुजंग भयंकर। कण्ठ हलाहल को छबि छायी, नीलकण्ठ की पदवी पायी। देव मगन के हित अस कीन्हों, विष लै आपु तिनहि अमि दीन्हों। ताकी तुम पत्नी छवि धारिणि, दूरित विदारिणि मंगल कारिणि। देखि परम सौन्दर्य तिहारो, त्रिभुवन चकित बनावन हारो। भय भीता सो माता गंगा, लज्जा मय है सलिल तरंगा। सौत समान शम्भु पहआयी, विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी। तेहिकों कमल बदन मुरझायो, लखि सत्वर शिव शीश चढ़ायो। नित्यानन्द करी बरदायिनी, अभय भक्त कर नित अनपायिनि। अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनि, माहेश्वरी हिमालय नन्दिनि। काशी पुरी सदा मन भायी, सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी। भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री, कृपा प्रमोद सनेह विधात्री। रिपुक्षय कारिणि जय जय अम्बे, वाचा सिद्ध करि अवलम्बे। गौरी उमा शंकरी काली, अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली। सब जन की ईश्वरी भगवती, पतिप्राणा परमेश्वरी सती। तुमने कठिन तपस्या कीनी, नारद सों जब शिक्षा लीनी। अन्न न नीर न वायु अहारा, अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा। पत्र घास को खाद्य न भायउ, उमा नाम तब तुमने पायउ। तप बिलोकि रिषि सात पधारे, लगे डिगावन डिगी न हारे। तब तव जय जय जय उच्चारेउ, सप्तरिषी निज गेह सिधारेउ। सुर विधि विष्णु पास तब आए, वर देने के वचन सुनाए। मांगे उमा वर पति तुम तिनसों, चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों। एवमस्तु कहि ते दोऊ गए, सुफल मनोरथ तुमने लए। करि विवाह शिव सों हे भामा, पुनः कहाई हर की बामा। जो पढ़िहै जन यह चालीसा, धन जन सुख देइहै तेहि ईसा। ॥ दोहा ॥ कूट चंद्रिका सुभग शिर जयति जयति सुख खानि। पार्वती निज भक्त हित रहहु सदा वरदानि ॥

    Shri Baglamukhi Chalisa (श्री बगलामुखी चालीसा)

    श्री बगलामुखी चालीसा ॥ दोहा ॥ सिर नवाइ बगलामुखी, लिखूँ चालीसा आज। कृपा करहु मोपर सदा, पूरन हो मम काज ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जय जय श्री बगला माता, आदिशक्ति सब जग की त्राता। बगला सम तब आनन माता, एहि ते भयउ नाम विख्याता। शशि ललाट कुण्डल छवि न्यारी, अस्तुति करहिं देव नर-नारी। पीतवसन तन पर तव राजै, हाथहिं मुद्गर गदा विराजै। तीन नयन गल चम्पक माला, अमित तेज प्रकटत है भाला। रत्न-जटित सिंहासन सोहै, शोभा निरखि सकल जन मोहै। आसन पीतवर्ण महरानी, भक्तन की तुम हो वरदानी। पीताभूषण पीतर्हि चन्दन, सुर नर नाग करत सब वन्दन। एहि विधि ध्यान हृदय में राखै, वेद पुराण सन्त अस भाखै। अब पूजा विधि करौं प्रकाशा, जाके किये होत दुख-नाशा। प्रथमहिं पीत ध्वजा फहरावै, पीतवसन देवी पहिरावै। कुंकुम अक्षत मोदक बेसन, अबिर गुलाल सुपारी चन्दन। माल्य हरिद्रा अरु फल पाना, सबहिं चढ़ड़ धेरै उर ध्याना। धूप दीप कर्पूर की बाती, प्रेम-सहित तब करै आरती। अस्तुति करै हाथ दोउ जोरे, पुरवहु मातु मनोरथ मोरे। मातु भगति तब सब सुख खानी, करहु कृपा मोपर जनजानी। त्रिविध ताप सब दुःख नशावहु, तिमिर मिटाकर ज्ञान बढ़ावहु। बार-बार मैं बिनवउँ तोहीं, अविरल भगति ज्ञान दो मोहीं। पूजनान्त में हवन करावै, सो नर मनवांछित फल पावै। सर्षप होम करै जो कोई, ताके वश सचराचर होई। तिल तण्डुल संग क्षीर मिरावै, भक्ति प्रेम से हवन करावै। दुःख दरिद्र व्यापै नहिं सोई, निश्चय सुख-संपति सब होई। फूल अशोक हवन जो करई, ताके गृह सुख-सम्पति भरई। फल सेमर का होम करीजै, निश्चय वाको रिपु सब छीजै। गुग्गुल घृत होमै जो कोई, तेहि के वश में राजा होई। गग्गुल तिल सँग होम करावै, ताको सकल बन्ध कट जावै। बीजाक्षर का पाठ जो करहीं, बीजमन्त्र तुम्हरो उच्चरहीं। एक मास निशि जो कर जापा, तेहि कर मिटत सकल सन्तापा। घर की शुद्ध भूमि जहँ होई, साधक जाप करै तहँ सोई। सोइ इच्छित फल निश्चय पावै, यामे नहिं कछु संशय लावै। अथवा तीर नदी के जाई, साधक जाप करै मन लाई। दस सहस्र जप करै जो कोई, सकल काज तेहि कर सिधि होई। जाप करै जो लक्षहिं बारा, ताकर होय सुयश विस्तारा। जो तव नाम जपै मन लाई, अल्पकाल महँ रिपुहिं नसाई। सप्तरात्रि जो जापहिं नामा, वाको पूरन हो सब कामा। नव दिन जाप करे जो कोई, व्याधि रहित ताकर तन होई। ध्यान करै जो बन्ध्या नारी, पावै पुत्रादिक फल चारी। प्रातः सायं अरु मध्याना, धरे ध्यान होवै कल्याना। कहँ लगि महिमा कहाँ तिहारी, नाम सदा शुभ मंगलकारी। पाठ करै जो नित्य चालीसा, तेहि पर कृपा करहिं गौरीशा। ॥ दोहा ॥ सन्तशरण को तनय हूँ, कुलपति मिश्र सुनाम। हरिद्वार मण्डल बसूँ, धाम हरिपुर ग्राम ॥ उन्नीस सौ पिचानबे सन् की, श्रावण शुक्ला मास। चालीसा रचना कियौं, तव चरणन को दास ॥

    Shri Ganga Chalisa (श्री गंगा चालीसा)

    श्री गंगा चालीसा ॥ दोहा ॥ जय जय जय जग पावनी जयति देवसरि गंग । जय शिव जटा निवासिनी अनुपम तुंग तरंग ॥ ॥ चौपाई ॥ जय जग जननि हरण अघ खानी, आनन्द करनि गंग महारानी। जय भागीरथि सुरसरि माता, कलिमल मूल दलनि विख्याता। जय जय जय हनु सुता अघ हननी, भीषम की माता जग जननी। धवल कमल दल मम तनु साजे, लखि शत शरद चन्द्र छवि लाजे। वाहन मकर विमल शुचि सोहै, अमिय कलश कर लखि मन मोहै। जड़ित रत्न कंचन आभूषण, हिय मणि हार, हरणितम दूषण। जग पावनि त्रय ताप नसावनि, तरल तरंग तंग मन भावनि। जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, तिहुँ ते प्रथम गंग अस्नाना। ब्रह्म कमण्डल वासिनि देवी, श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवी। साठि सहत्र सगर सुत तारयो, गंगा सागर तीरथ धारयो। अगम तरंग उठ्यो मन भावन, लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन । तीरथ राज प्रयाग अक्षैवट, धरयौ मातु पुनि काशी करवट । धनि धनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, तारणि अमित पितृ पद पीढ़ी। भागीरथ तप कियो अपारा, दियो ब्रह्म तब सुरसरि धारा। जब जग जननी चल्यो हहराई, शंभु जटा महँ रह्यो समाई। वर्ष पर्यन्त गंग महारानी, रहीं शंभु के जटा भुलानी। मुनि भागीरथ शंभुहिं ध्यायो, तब इक बून्द जटा से पायो। ताते मातु भई त्रय धारा, मृत्यु लोक, नभ अरु पातारा। गई पाताल प्रभावति नामा, मन्दाकिनी गई गगन ललामा। मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनि, कलिमल हरणि अगम जग पावनि। धनि मझ्या तव महिमा भारी, धर्म धुरि कलि कलुष कुठारी। मातु प्रभावति धनि मन्दाकिनी, धनि सुरसरित सकल भयनासिनी। पान करत निर्मल गंगा जल, पावत मन इच्छित अनन्त फल। पूरब जन्म पुण्य जब जागत, तबहिं ध्यान गंगा महं लागत। जई पगु सुरसरि हेतु उठावहि, तइ जगि अश्वमेध फल पावहि। महा पतित जिन काहु न तारे, तिन तारे इक नाम तिहारे । शत योजनहू से जो ध्यावहिं, निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं। नाम भजत अगणित अघ नाशै, विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै। जिमि धन मूल धर्म अरु दाना, धर्म मूल गंगाजल पाना। तव गुण गुणन करत दुख भाजत, गृह गृह सम्पति सुमति विराजत । गंगहि नेम सहित नित ध्यावत, दुर्जनहूँ सज्जन पद पावत। बुद्धिहीन विद्या बल पावै, रोगी रोग मुक्त है जावे। गंगा गंगा जो नर कहहीं, भूखे नंगे कबहुँ न रहहीं। निकसत ही मुख गंगा माई, श्रवण दाबि यम चलहिं पराई। महाँ अधिन अधमन कहँ तारें, भए नर्क के बन्द किवारे। जो नर जपै गंग शत नामा, सकल सिद्ध पूरण है कामा। सब सुख भोग परम पद पावहिं, आवागमन रहित है जावहिं। धनि मइया सुरसरि सुखदैनी, धनि धनि तीर्थ राज त्रिवेणी। ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा, सुन्दरदास गंगा कर दासा। जो यह पढ़े गंगा चालीसा, मिलै भक्ति अविरल वागीसा। ॥ दोहा ॥ नित नव सुख सम्पति लहैं, धेरै, गंग का ध्यान। अन्त समय सुरपुर बसै, सादर बैठि विमानः ॥ सम्वत् भुज नभ दिशि, राम जन्म दिन चैत्र। पूरण चालीसा कियो, हरि भक्तन हित नैत्र ।

    Shri Narmada Chalisa (श्री नर्मदा चालीसा)

    श्री नर्मदा चालीसा ॥ दोहा ॥ देवि पूजिता नर्मदा, महिमा बड़ी अपार। चालीसा वर्णन करत, कवि अरु भक्त उदार ॥ इनकी सेवा से सदा, मिटते पाप महान। तट पर कर जप दान नर, पाते हैं नित ज्ञान ॥ ॥ चौपाई ॥ जय-जय-जय नर्मदा भवानी, तुम्हरी महिमा सब जग जानी। अमरकण्ठ से निकलीं माता, सर्व सिद्धि नव निधि की दाता। कन्या रूप सकल गुण खानी, जब प्रकटीं नर्मदा भवानी। सप्तमी सूर्य मकर रविवारा, अश्वनि माघ मास अवतारा। वाहन मकर आपको साजैं, कमल पुष्प पर आप विराजें। ब्रह्मा हरि हर तुमको ध्यावें, तब ही मनवांछित फल पावें। दर्शन करत पाप कटि जाते, कोटि भक्त गण नित्य नहाते। जो नर तुमको नित ही ध्यावै, वह नर रुद्र लोक को जावें। मगरमच्छ तुम में सुख पावैं, अन्तिम समय परमपद पावैं। मस्तक मुकुट सदा ही साजैं, पांव पैंजनी नित ही राजें। कल-कल ध्वनि करती हो माता, पाप ताप हरती हो माता। पूरब से पश्चिम की ओरा, बहतीं माता नाचत मोरा। शौनक ऋषि तुम्हरौ गुण गावें, सूत आदि तुम्हरौ यश गावैं। शिव गणेश भी तेरे गुण गावैं, सकल देव गण तुमको ध्यावें। कोटि तीर्थ नर्मदा किनारे, ये सब कहलाते दुःख हारे। मनोकामना पूरण करती, सर्व दुःख माँ नित ही हरतीं। कनखल में गंगा की महिमा, कुरूक्षेत्र में सरसुति महिमा। पर नर्मदा ग्राम जंगल में, नित रहती माता मंगल में। एक बार करके असनाना, तरत पीढ़ी है नर नाना। मेकल कन्या तुम ही रेवा, तुम्हरी भजन करें नित देवा। जटा शंकरी नाम तुम्हारा, तुमने कोटि जनों को तारा। समोद्भवा नर्मदा तुम हो, पाप मोचनी रेवा तुम हो। तुम महिमा कहि नहिं जाई, करत न बनती मातु बड़ाई। जल प्रताप तुममें अति माता, जो रमणीय तथा सुख दाता। चाल सर्पिणी सम है तुम्हारी, महिमा अति अपार है तुम्हारी। तुम में पड़ी अस्थि भी भारी, छुवत पाषाण होत वर वारी। यमुना में जो मनुज नहाता, सात दिनों में वह फल पाता। सरसुति तीन दिनों में देतीं, गंगा तुरत बाद ही देतीं। पर रेवा का दर्शन करके, मानव फल पाता मन भर के। तुम्हरी महिमा है अति भारी, जिसको गाते हैं नर-नारी। जो नर तुम में नित्य नहाता, रुद्र लोक में पूजा जाता। जड़ी बूटियां तट पर राजें, मोहक दृश्य सदा ही साजें। वायु सुगन्धित चलती तीरा, जो हरती नर तन की पीरा। घाट-घाट की महिमा भारी, कवि भी गा नहिं सकते सारी। नहिं जानूँ मैं तुम्हरी पूजा, और सहारा नहीं मम दूजा। हो प्रसन्न ऊपर मम माता, तुम ही मातु मोक्ष की दाता। जो मानव यह नित है पढ़ता, उसका मान सदा ही बढ़ता। जो शत बार इसे है गाता, वह विद्या धन दौलत पाता। अगणित बार पढ़े जो कोई, पूरण मनोकामना होई। सबके उर में बसत नर्मदा, यहां वहां सर्वत्र नर्मदा। ॥ दोहा ॥ भक्ति भाव उर आनि के, जो करता है जाप। माता जी की कृपा से, दूर होत सन्ताप ॥

    Shri Shardha Chalisa (श्री शारधा चालीसा)

    श्री शारदा चालीसा II दोहा II मूर्ति स्वयंभू शारदा, मैहर आन विराज। माला, पुस्तक, धारिणी, वीणा कर में साज। II चौपाई II जय जय जय शारदा महारानी, आदि शक्ति तुम जग कल्याणी। रूप चतुर्भुज तुम्हरो माता, तीन लोक महं तुम विख्याता। दो सहस्त्र बर्षहि अनुमाना, प्रगट भई शारद जग जाना। मैहर नगर विश्व विख्याता, जहां बैठी शारद जग माता। त्रिकूट पर्वत शारदा वासा, मैहर नगरी परम प्रकाशा। शरद इन्दु सम बदन तुम्हारो, रूप चतुर्भुज अतिशय प्यारो। कोटि सूर्य सम तन द्युति पावन, राज हंस तुम्हारो शचि वाहन। कानन कुण्डल लोल सुहावहि, उरमणि भाल अनूप दिखावहिं। वीणा पुस्तक अभय धारिणी, जगत्मातु तुम जग विहारिणी। ब्रह्म सुता अखंड अनूपा, शारद गुण गावत सुरभूपा। हरिहर करहिं शारदा बन्दन, बरुण कुबेर करहिं अभिनन्दन। शारद रूप चण्डी अवतारा, चण्ड-मुण्ड असुरन संहारा। महिषा सुर बध कीन्हि भवानी, दुर्गा बन शारद कल्याणी। धरा रूप शारद भई चण्डी, रक्त बीज काटा रण मुण्डी। तुलसी सूर्य आदि विद्वाना, शारद सुयश सदैव बखाना। कालिदास भए अति विख्याता, तुम्हारी दया शारदा माता। वाल्मीक नारद मुनि देवा, पुनि-पुनि करहिं शारदा सेवा। चरण-शरण देवहु जग माया, सब जग व्यापर्हि शारद माया। अणु-परमाणु शारदा वासा, परम शक्तिमय परम प्रकाशा। हे शारद तुम ब्रह्म स्वरूपा, शिव विरंचि पूजहिं नर भूपा। जय जग बन्दनि विश्व स्वरूपा, निर्गुण सगुण शारदहिं रूपा। सुमिरहु शारद नाम अखंडा, व्यापड़ नहिं कलिकाल प्रचण्डा। सूर्य चन्द्र नभ मण्डल तारे, शारद कृपा चमकते सारे। उद्धव स्थिति प्रलय कारिणी, बन्दउ शारद जगत तारिणी। दुःख दरिद्र सब जाहिं नसाई, तुम्हारी कृपा शारदा माई। परम पुनीति जगत अधारा, मातु शारदा ज्ञान तुम्हारा। विद्या बुद्धि मिलहिं सुखदानी, जय जय जय शारदा भवानी। शारदे पूजन जो जन करहीं, निश्चय ते भव सागर तरहीं। शारद कृपा मिलहिं शुचि ज्ञाना, होई सकल विधि अति कल्याणा। जग के विषय महा दुःख दाई, भजहुँ शारदा अति सुख पाई। परम प्रकाश शारदा तोरा, दिव्य किरण देवहुँ मम ओरा। परमानन्द मगन मन होई, मातु शारदा सुमिरई जोई। चित्त शान्त होवहिं जप ध्याना, भजहुँ शारदा होवर्हि ज्ञाना। रचना रचित शारदा केरी, पाठ करहिं भव छटई फेरी। सत्-सत् नमन पढ़ीहे धरिध्याना, शारद मातु करहिं कल्याणा। शारद महिमा को जग जाना, नेति नेति कह वेद बखाना। सत्-सत् नमन शारदा तोरा, कृपा दृष्टि कीजै मम ओरा। जो जन सेवा करहिं तुम्हारी, तिन कहँ कतहुँ नाहि दुःखभारी। जो यह पाठ करै चालीसा, मातु शारदा देहुँ आशीषा। II दोहा II बन्दउँ शारद चरण रज, भक्ति ज्ञान मोहि देहुँ। सकल अविद्या दूर कर, सदा बसहु उरगेहुँ। जय-जय माई शारदा, मैहर तेरौ धाम। शरण मातु मोहिं लीजिए, तोहि भजहुँ निष्काम॥

    Shri Shakambhari Chalisa (श्री शाकम्भरी चालीसा)

    श्री शाकम्भरी चालीसा ॥ दोहा ॥ बन्दउ माँ शाकम्भरी चरणगुरू का धरकर ध्यान। शाकम्भरी माँ चालीसा का करे प्रख्यान॥ आनन्दमयी जगद‌म्बिका अनन्त रूप भण्डार। माँ शाकम्भरी की कृपा बनी रहे हर बार॥ ॥ चौपाई ॥ शाकम्भरी माँ अति सुखकारी, पूर्ण ब्रह्म सदा दुःख हारी। कारण करण जगत की दाता, आनन्द चेतन विश्व विधाता। अमर जोत है मात तुम्हारी, तुम ही सदा भगतन हितकारी। महिमा अमित अथाह अर्पणा, ब्रह्म हरि हर मात अर्पणा। ज्ञान राशि हो दीन दयाली, शरणागत घर भरती खुशहाली। नारायणी तुम ब्रह्म प्रकाशी, जल-थल-नभ हो अविनाशी। कमल कान्तिमय शान्ति अनपा, जोतमन मर्यादा जोत स्वरुपा। जब-जब भक्तों नें है ध्याई, जोत अपनी प्रकट हो आई। प्यारी बहन के संग विराजे, मात शताक्षि संग ही साजे। भीम भयंकर रूप कराली, तीसरी बहन की जोत निराली। चौथी बहिन भ्रामरी तेरी, अद्भुत चंचल चित्त चितेरी। सम्मुख भैरव वीर खड़ा है, दानव दल से खूब लड़ा है। शिव शंकर प्रभु भोले भण्डारी, सदा शाकम्भरी माँ का चेरा। हाथ ध्वजा हनुमान विराजे, युद्ध भूमि में माँ संग साजे। काल रात्रि धारे कराली, बहिन मात की अति विकराली। दश विद्या नव दुर्गा आदि, ध्याते तुम्हें परमार्थ वादि। अष्ट सिद्धि गणपति जी दाता, बाल रूप शरणागत माता। माँ भण्डारे के रखवारी, प्रथम पूजने के अधिकारी। जग की एक भ्रमण की कारण, शिव शक्ति हो दुष्ट विदारण। भूरा देव लौकड़ा दूजा, जिसकी होती पहली पूजा। बली बजरंगी तेरा चेरा, चले संग यश गाता तेरा। पाँच कोस की खोल तुम्हारी, तेरी लीला अति विस्तारी। रक्त दन्तिका तुम्हीं बनी हो, रक्त पान कर असुर हनी हो। रक्त बीज का नाश किया था, छिन्न मस्तिका रूप लिया था। सिद्ध योगिनी सहस्या राजे, सात कुण्ड में आप विराजे। रूप मराल का तुमने धारा, भोजन दे दे जन जन तारा। शोक पात से मुनि जन तारे, शोक पात जन दुःख निवारे। भद्र काली कम्पलेश्वर आई, कान्त शिवा भगतन सुखदाई। भोग भण्डारा हलवा पूरी, ध्वजा नारियल तिलक सिंदुरी। लाल चुनरी लगती प्यारी, ये ही भेंट ले दुख निवारी। अंधे को तुम नयन दिखाती, कोढ़ी काया सफल बनाती। बाँझन के घर बाल खिलाती, निर्धन को धन खूब दिलाती। सुख दे दे भगत को तारे, साधु सज्जन काज संवारे। भूमण्डल से जोत प्रकाशी, शाकम्भरी माँ दुःख की नाशी। मधुर मधुर मुस्कान तुम्हारी, जन्म जन्म पहचान हमारी। चरण कमल तेरे बलिहारी, जै जै जै जग जननी तुम्हारी। कान्ता चालीसा अति सुखकारी, संकट दुःख दुविधा सब टारी। जो कोई जन चालीसा गावे, मात कृपा अति सुख पावे। जो कोई जन चालीसा गावे, मात कृपा अति सुख पावे। कान्ता प्रसाद जगाधरी वासी, भाव शाकम्भरी तत्व प्रकाशी। बार बार कहें कर जोरी, विनती सुन शाकम्भरी मोरी। मैं सेवक हूँ दास तुम्हारा, जननी करना भव निस्तारा। यह सौ बार पाठ करे कोई, मातु कृपा अधिकारी सोई। संकट कष्ट को मात निवारे, शोक मोह शत्रु न संहारे। निर्धन धन सुख सम्पत्ति पावे, श्रद्धा भक्ति से चालीसा गावे। नौ रात्रों तक दीप जगावे, सपरिवार मगन हो गावे। प्रेम से पाठ करे मन लाई, कान्त शाकम्भरी अति सुखदाई। ॥ दोहा ॥ दुर्गा सुर संहारणि, करणि जग के काज। शाकम्भरी जननि शिवे रखना मेरी लाज॥ युग युग तक व्रत तेरा, वो ही तेरा लाड़ला, लाज॥ युग युग तक व्रत तेरा, करे भक्त उद्धार। वो ही तेरा लाड़ला,आवे तेरे द्वार॥