Stotra Collection

    Maa Kali Stotra (कालीस्तव)

    कालीस्तव कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं बीजन्ते मातरेतत्रिपुरहरवधु त्रिःकृतं ये जपन्ति ।। तेषां गद्यानि च मुखकुहरा दुल्लसन्त्येव वाचः स्वच्छन्द ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्व्वसिर्द्धि गतानाम् ।। टीका-हे जननी ! हे सुन्दरी ! तुम्हारे शरीर की कान्ति श्यामवर्ण मेघ की भाँति मनोहर है । जो तुम्हारे एकाक्षरी बीज को तिगुना करके जपते हैं, वह शिव की अणिमादि अष्टासिद्धि को प्राप्त करते हैं, और उनके मुख से गद्य पद्यमयी वाणी निकलती है । ईशानः सेन्दुवामश्रवणपरिगंतं बीजमन्यन्महेशि द्वन्द्वंते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमेकं कदाचित् । जित्वा वाचामधीशं धनदमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षी वृन्दं चन्द्रार्द्धचूडे प्रभवति स महाघोरबाणावतंसे ।। टीका-हे महेश्वरी ! तुम्हारी चूडा में अर्द्धचन्द्र शोभायमान है और दोनों कानों में दो महाभयंकर बाण अलंकार स्वरूप से विराजमान हैं। विषय मत्त पुरुष भी तुम्हारे "हैं" इस बीज को दूना करके पवित्त, अथवा अपवित्र काल में एक बार जप करने से भी विद्या और धनद्वारा सुरगुरु और कुबेर के परास्त करने में समर्थ हो जाता है। वह अपने सौन्दर्य से सुन्दरी स्त्रियों को भी मोहित कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं है। ईशौ वैश्वानरस्थ: शशधरविलसद्वामनेत्रेण युक्तोबीजं तेद्न्द्रमन्यद्विगनलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति द्वेष्टारं घ्नन्ति ले च व्रिभुवनसपि ते वश्यभावं नयन्ति सृक्कद्वन्द्वास्त्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति ॥ टीका-हे मुक्तकेशी ! तुम विश्वसंहर्त्ता काल के संग विहार करती हो, तुम्हारा नाम 'कालिका' है। तुम वामा होकर दक्षिणदिक् स्थित महादेव को पराजय करती हुई स्वयं निर्वाण प्रदान करती हो. इसलिए 'दक्षिणा' नाम से प्रसिद्ध हुई हो. तुमने प्रणवरूपी शिव को अपने माहात्म्य से तिरस्कार किया है। तुम्हारे दोनों होंठों से रक्त की धारा क्षरित होने के कारण तुम्हारा मुखमण्डल परम शोभायमान है जो तुम्हारे ह्री ह्रीं "इन दोनों बीजों का जप करते हैं, वे शत्रुओं को पराजित कर विभुवन को वशीभूत कर सकते हैं और जो इस मन्त्र को जपते हैं वह शव कूल को अपने वश में कर विभुवन में विचरण कर सकते हैं ऊर्द्ध वामे कृपाणं करतलकमले छिन्नमुण्डं तथाधः सव्ये चाभीर्वरञ्चत्रिजगदघहरेदक्षिणे कालिकेति । जप्त्वैतन्नामवर्णं तव मनुविभवं भावयन्त्येतदम्ब तेषामष्टौकरस्थाः प्रकटितवदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य ।। टीका-हे जगन्मातः ! तुम तीनों लोकों के पातकियों का पाप हरती हो। तुम्हारे दांतों की पंक्ति महाभयंकर है, तुमने ऊपर के बायें हाथ में खङ्ग नीचे के बायें हस्त में छिन्नमुण्ड ऊपर के दाहिने हाथ में अभय और नीचे के दाहिने हाथ में वर धारण किये हो। जो तुम्हारे पत्रक विभवस्वरूप "दक्षिणकालिके" यह मंत्र जपते हैं, तुम्हारे स्वरूप की चिन्ता करते हैं, आणिमादि अष्ट सिद्धि उनको प्राप्त होती है। वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुरति ललितं तनयं कूर्च्छयुग्मं लज्जाद्वन्द्वञ्च पश्चात्स्मितमुखि तदधष्टद्वयं योजयित्वा । मातयें ये जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्ते स्वरूपं ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदृलदृशः कामरूपा भवन्ति ।। टीका-हे स्मरहर की महिले ! तुम्हारा मुखमण्डल मृदु-मधुर हास्य से सुशोभित है, जो मनुष्य तुम्हारे स्वरूप की भावना करके तुम्हारा नवाक्षर मंत्र (क्रीक्रीकी हूँहूँ ह्रीह्री स्वाहा) जप करते हैं, वह कामदेव के समान मनोहर सौन्दर्य को प्राप्त होते हैं, उनके नेत्र कमल कौ लीला पद्मदल के समान लम्बी और रमणीय होती है। प्रत्येक वा वयंवा द्वयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं त्वन्नाम्ना योजयित्वा सकलमपि सदा भाववन्तो जप- न्ति् । तेषां नेवारविन्दे विहरति कमला वक्रशुभ्राशुबिम्बे वाग्देवी दिव्यमुण्डस्त्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढये ।। टीका-हे जमन्मातः ! तुम्हारे उपदेश में ही यह विभुवन अपने कार्य में नियुक्त होता है, इसी कारण तुम 'देवी' नाम से प्रसिद्ध हो । तुम्हारा कण्ठ मुण्डमाला धारण से परम सुशोभित है, तुम्हारा ग्न म्थल पुष्ट ऊबे स्तनमण्डल से विराजित है। हे महेश्वरी ! जो तुम्हारा ध्यान करते हुए "दक्षिणेकालिके" इस नाम के पहले और अन्त में पूर्वकथित अतिमुह्य एकाक्षर मंत्र, अथवा यह विगुणित्त तीन अक्षर मंत्र वा "ईशो वैश्वानरस्थं" इत्यादि श्लोक कथित द्वयक्षर मंत्र, या "वर्गाद्या" इत्यादि श्लोक में कहें नवाक्षर मंत्र, अथवा गुह्या बाइम अक्षर मंत्र मिलाकर जप करते हैं, उनके कमल नयनों में कमल। तथा वाग्देवी मुखचन्द्र में विलास करती है। गतासूनां बाहुप्रकरकृतकञ्चीपरिलस ------ न्नितम्बां दिग्वस्त्रां विभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम् श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत------- प्रसक्तां त्वां ध्यायञ्जजननि जडचेता अपि कविः ।। टीका हे जननि ! विलोक की सृष्टिकर्ती विलोचना और दिगम्बरी हो, तुम्हारा नितंब देश बाहुनिमित कान्ची से अलंकृत है। तुम श्मशान में स्थितशिवरूपी महादेव की हृदय शय्या पर महाकाल के सग क्रीडा में रत हो। विषयमंत्त मूर्ख व्यक्ति भी तुम्हारा इस प्रकार ध्यान करने से अलौकिक कवित्वशक्ति को प्राप्त करता है। शिवाभिर्धाराभिः शवनिवसमुण्डास्थिनिकरैः परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् ।। प्रविष्टां सन्तुष्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः ।। विपरीत बिहार में सन्तुष्ट और नवयुवती हो, जिस स्थान में भयंकर शिवा गण भ्रमण करती हैं। तुम उसी मृतक मुंडों की अस्थियों से आच्छादित श्मशान में नृत्य करती हो, तुम्हारी इस प्रकार चिता करने से पराभव को प्राप्त नहीं होना पडता है। वदामस्ते कि वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो न धाता नापीशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम् ।। तथापि त्वज्ञक्तिर्मुखरयति चास्माकमसिते तदेतत्क्षन्तव्यं न खलु शिशुरोषः समुचितः ।। टीका हे जननि । जब महाषेव, बह्मा और नारायण भी तुम्हारे परमतत्व नहीं जानते, तब मूढमति हम तुम्हारा तत्व किस प्रकार से वर्णन करें हम जो इस विषय में प्रवृत्त हुए है, तुम्हारे प्रति भजन विषय में हमारे मन की उत्सुकता ही उसका कारण है, अन धिकार विषय में हमारे उद्यम करता देखकर तुमको क्रोध उत्पन्न हो सकता है, किन्तु मूर्ख संतान जानकर उसको क्षमा करो। समन्तादापीनस्तनजघनधुग्यौवनवती रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तवममुम् ।। विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः ।। टीका-हे शिवे प्रिये जो पुरुष नग्न और मुक्तकेश होकर पुष्ट ऊँचे स्तन वाली युवती नारी के सहित क्रीडासुख अनुभवपूर्वक रात्रि मे तुम्हारी बिन्ता करते हुए तुम्हारे मंत्र का जप करते हैं, वह कवित्व की शक्तियुक्त होकर बहुत समय तक पृथिवी में रहते हैं और सम्पूर्ण अभीष्ट उनके समीप होता है ।। समः मुस्थीभूतो जपति विपरीतो यदि सदा विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम् ।। तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः कराम्भोजे वश्याः स्मरहरवधू सिद्धि निवहाः ।। टीका-हे हरवल्लभे । तुम महाकाल के संग बिहार सुख का अनुभव करती हो, विपरीत रति में आसक्त हुई जो स्थिर होकर मन से तुम्हारा ध्यान करता है सर्वशास्त्र में पारदर्शी हो जाता है सिद्धिसमूह हस्त गत होती है। प्रसूते संसारं जननि जगती पालयति च समस्तं नित्यादि प्रलयसमये संहरति च ॥ अतस्त्वां धातापि विभुवनपतिः श्रीपतिरपि महेशोऽपि प्रायः सकलमपि कि स्तौमि भवतीम् ।। टीका-हे जग माता । तुम से ही जगत के समस्त पदार्थ की उत्पत्ति हुई है. अतः तुम्ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हो। तुम्हीं सम्पूर्ण जगत को पालती हो, तुम्हीं नारायण हो, महाप्रलय काल के समय यह जगत् तुमसे ही लब होता है इससे तुम्ही माहेश्वरी हो. किन्तु स्पष्ट समझा जाता है कि तुम्हारे पति होने के कारण ही महेश्वर प्रनयकाल में लय को प्राप्त नहीं होते ।। अनेके सेवन्ते भवदधिकगीर्वाणनिवहान् वि मूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ।। हरिहरविरिश्वादिविबुधैः समाराध्यामाद्यां प्रसक्तोऽस्मि स्वैरं रतिरसमहानत्वनिरताम् ।। डीका है जगदम्बे तुम निरन्तर बिहार के आनन्द में निमग्न रहती हो. तुम्ही सबकी आदिस्वरूपिणी हो, अनेक मूड़बुद्धि व्यक्ति अन्यान्य देवताओं की आराधना करते है किन्तु वे अवश्य ही तुम्हारे उम अनिर्वचनीय परमतत्व का विषय कुछ नहीं जानते, उनके उपास्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि देवता लोग भी सदा तुम्हारी उपासना में निरत बने रहते हैं। धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् ।। स्तुतिः का ते मातस्तव करुणया मामगतिकं प्रसन्ना त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ।। टीका-हे जननी क्षिति, जल, तेज, वायु और प्राकाश यह पंच भूत. भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं. तुम्ही भगवान् महेश्वर की हृदय ञ्जिनी हो, तुम्हीं इस विभुवन का मंगलविधान करती हो, हे जननि ! इस अवस्था में तुम्हारी क्या स्तुति करूँ ? क्योंकि किसी विलक्षण गुण का आरोप न करके वर्णन करने को स्तुति कहते हैं। तुममें कौन गुण नहीं है, जो उसका आरोप करके तुम्हारा स्तवन करूँ ? तुम स्वयं जगन्मयी हो, अतः तुम्हारे संबन्ध में जो वर्णन हो, वह सब तुम्हारे स्वरूपवर्णन पर है, हे कृपामयि! तुम अपनी दया को प्रकट करके इस निराश्रय सेवक के प्रति संतुष्ट होओ, तो फिर इस सेवक को संसार भूमि में फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा । श्मशानस्थस्स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः सहस्त्रन्त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम् ।। जपंस्त्वत्प्रत्येकममुमपि तव ध्याननिरतो महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ।। टीका-हे महाकालिके । जो मनुष्य श्मशान भूमि में वस्वहीन और बाल खोलकर यथाविधि आसन पर बैठकर स्थिर मन से तुम्हारे स्वरूप का ध्यान करते करते तुम्हारे मंत्र को जपता है और अपने निकले वीर्यसयुक्त सहस्त्र आक के फूलों को एक एक करके तुम्हारे उद्देश्य से अर्पण करता है. वह सम्पूर्ण धरती का अधीश्वर होता है। गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्य्य हि चिकुरं समूलं मध्याह्न वितरित चितायां कुजदिने ।। समुच्चार्थ्य प्रेम्णा जपमनु सकृत कालि सततं गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ।। टीका-हे देवी ! जो मंगलवार के दिन मध्याह्नकाल के समय कधी द्वारा श्रृंगार किये गृहिणी के समूल केशश लेकर पूर्व कथित तुम्हारे जिस किसी एक मंत्र का जप करता हुआ भक्ति सहित चिताग्नि में अर्पण करता है, वह धरा का अधीश्वर होकार निरन्तर हाथी पर चढ़ कर विचरण करता है और व्यास कवि कुल की प्रधानता को प्राप्त करता है। सुपुष्पैराकीर्ण कुसुमधनुषो मन्दिर महो पुरो ध्यायन् ध्यायन् यदि जपति भक्तस्स्तवममुम् ।। स गन्धर्व्वश्रेणीपतिरिव कवित्वामृत नदी- नदीनः पर्य्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ।। टीका-हे जगन्माता ! साधक यदि स्वयं फूलों से रंजित काम गृह को अभिमुख करके मंवार्थ के सहित तुम्हारा ध्यान करते हुए पूर्व कथित किसी एक मंत्र का जप करे, तो वह कवित्व रूपी नदी के संबन्ध में समुद्रस्वरूप होता है, और महेन्द्र की समानता प्राप्त करता है। वह शरीरांत के समय तुम्हारे चरण कमलों में लीन होकर जो स्वरूप मुक्ति को प्राप्त हैं, इसमें कोई विचिवता नहीं है। विपञ्जारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् ।। महासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात्स्मरहरः ।। टीका-हे जगन्माता ! तुम्हारे मुख मण्डल पर मृदुहास्य बिराजमान है, तुम सदा शिव के संग विहार सुख का अनुभव करती हो. जो साधक रात्रि में अपना विहार सुख अनुभव करता हुआ शव हृदयरूप आमन पर पांच दशकोण युक्त तुम्हारे यंत्र में तुम्हारी पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करता है, वह शीघ्र ही शिवत्व लाभ करता है। सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते परश्वौष्ट्रं मैषं नरमहिषयोश्छागमपि वा ।। बलित्ते पूजायामपि वितरतां मर्त्यवसलां सतां सिद्धिः सर्व्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ।। टीका-हे जननी पृथ्बी वासी साधकगण यदि तुम्हारी पूजा में बिल्ली का मांस, ऊँट का मांस, नराँस, महिषमास अथवा छाग माँस को रोम युक्त और अस्थियों के सहित अर्पण करें, तो उनके चरणकमल में आश्चर्यजनक विषय सिद्ध होते हैं। बशा लक्षं मन्वं प्रजपति हविष्याशनरतो दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिपुणः ।। परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं जनो लक्षं स स्यात्स्मरहर समानः क्षितितले ।। टीका हे जगन्माताः ! जो इन्द्रियों को अपने वश में रखकर हृविष्य भोजन पूर्वक प्रातःकाल से दिन के दूसरे पहर तक तुम्हारे दोनों चरणों में चित्त लगाकर जप करते हैं और पशुभावानुसार एक लक्ष्य जपरूप पुरश्वरण करते हैं, अथवा जो साधक राविकाल में नग्न और बिहार परायण होकर वीर साधनानुसार एकलख जपरूप पुरेश्वरण करते हैं, यह दोनों प्रकार के साधक पृथ्वी तल में स्मरहर शिव की भाँति सुशोभित होते हैं। इदं स्तोत्रं मातस्तवमनुसमुद्धारणजपः स्वरूपाख्य पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् ।। निशार्द्ध वा जास्समयमधि वा यस्तु पठति प्रलापे तस्यापि प्रसरति कावित्वामृतरसः ।। टीका-हे जननी ! मेरे किये इस स्तव में तुम्हारे मंत्र का उद्धार और तुम्हारे स्वरूप का वर्णन हुआ है, तुम्हारे चरणकमल की पूजाविधि का भी इसमें उल्लेख किया है। जो साधक निशाद्विप्रहर काल में अथवा पूजाकाल में इस स्तव का पाठ करता है, उसकी निरर्थक वाणी भी प्रबन्ध रूप में परिणत होकर कवित्व रूप सुधारस प्रवाहित करती है। कुरंगाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः ॥ रिपुः कारागारं कलयति च तत्केलिकलया चिरं जीवन्मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनुः ॥ टीका-मृग नयनी (मृग के समान नेत्रोंवाली) स्त्रियाँ इस स्तब पढ़नेवाले साधक को प्रियतम जानकर उसकी अनुगामिनी होती है। कुबेर के समान राजा भी उसके वश में रहते है और उस साधक के शत्रु गण कारागार में बन्द होते है। वह साधक जन्म जन्म में जगदम्बा का भक्त होता है। और सर्वकाल महा आनन्द से बिहार करके शरीरान्त में मोक्ष प्राप्त करता है।

    Maa Tara Stotra (तारा-स्तोत्र )

    तारा-स्तोत्र (तारास्तव) तारा च तारिणी देवी नागमुण्डविभूषिता ॥ ललज्जिह्वा नीलवर्णा ब्रह्मरूपघरा तथा ॥ नागाञ्चितकटी देवी नीलाम्बरधरा परा । नामाष्टक मिदं स्तोत्रं य: पठेत्‌ शृणुयादपि । तस्य सर्व्वार्थिसिद्धि: स्यात्‌ सत्यं सत्यं महेश्वरि ॥ टीका-(१) तारा, (२) तारिणी, (३) नागमुण्डों से विभूषित, (४) चलायमान जिह्वा, (५) नील वर्ण वाली, (६) ब्रह्मरूप धारिणी, (७) नागों से अंचित कटी और (८) वीं निलाम्बरा, यह अष्टनामात्मक ताराष्टक स्तोत्र का पाठ अथवा श्रवण करने से सवार्थिसिद्धि होती है । भैरव जी कहते है-हे महेश्वरी यह बिल्कुल सत्य है ।

    Parameshwar Stotra (परमेश्वरस्तोत्रम्‌)

    परमेश्वरस्तोत्रम्‌ जगदीड सुश्नीदा भवेदा विभो 'परमेझा परात्पर पूत पितः । श्रणत पतित हतबुद्धिबलं जनतारण तारय तापितकम्‌ ॥ १ ॥ गुणहीनसुदीनमलीनमतिं त्वयि पातरि दातरि चापरतिम्‌ । तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं । जन॥ २ ॥ मम जीवनमीनमिमं पतित मरुघोरभुवीह सुवी हमहो । करुणाब्धिचलोर्मिजलानयन । जन॥ ३ ॥ भववारण कारण कर्मततौ भवसिन्धुजले शिव मयझमतः । करुणाज्ञ समर्प्प तरि त्वरितं। जन॥ ४ ॥ अतिनाइय ज नुर्मम पुण्यरुचे दुरितौघभरै: परिपूर्णभुवः । सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं || जन ॥ ५ ॥ भवकारक नारकहारक हे भवतारक पातकदारक हे । हर चक्र किड्टूरकर्मचये । जन ॥ ६ ॥ तुषितश्िरमस्मि सुधां हित मे- उच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर । अतिमोहवदेन विनष्टकृते । जन ॥ ७ ॥ ज्रणमामि नमामि नमामि भव भवजन्मकृतिप्रणिघूदनकम । गुणहीनमनन्तमिते सारण । जन ॥ ८ अर्थ:- पनी सेवाकी सामग्रीके रूपमें स्वीकार कीजिये ॥ ७७ ॥| है प्रभो ! मेरे एकमात्र आप ही रक्षक हैं, आप ही मुझपर दया करनेवाले हैं; अतः पापोंको मेरी ओर प्रवृत्त न कीजिये और प्रवृत्त हुए पा्षोंका निवारण कीजिये ॥ ८ ॥ हे देव ! है दीनदुःखहारी भगवन्‌ ! मेरा न करने योग्य कार्योका करना और करने योग्योंको न करना आप क्षमा करें ॥ ९ ॥ श्रीमन्‌ ! आपने स्वयं ही मेरी पाँचों इन्द्रियोंको 'नियन्तित करके मेरी रक्षाका भार अपने ऊपर ले लिया; अतः अब मैं निर्भर हो गया ॥ १० ॥। है जगदीज्ञा ! हे सुमतियोंके स्वामी ! हे विश्वेश ! हे सर्वव्यापिन्‌ ! हे परमेश्वर ! है प्रकृति आदिसे अतीत ! है परमपावन ' है पितः ! हे जीवोंका ड निस्तार करनेवाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बलसे हीन संसारसन्तप्त दासका उद्धार कीजिये॥ १॥ जो सर्वथा गुणहीन, -अत्यन्त दीन और मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आपसे पराड्मुख है, हे जीवॉंका निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त उस तामस-राजसवृत्तिवाले दासका आप उद्धार कीजिये ॥ २ ॥ हे जीवोंका निस्तार करनेवाले ! इस भयानक मरुभूमिमें 'पड़कर नितान्त निश्चेष्ठ हुए मेंर इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीनका अपने 'करुणावारिधिकी चज्नल तस्ड्रोॉंका जल लाकर उद्धार कीजिये ॥ ३ ॥ अतः हे दुःखितका उद्धार कीजिये ॥ ५॥ है जगत्कर्ता ! हे नास्कीय यन्त्रणाओंका अपहरण करनेवाले ! हे संसारकां उद्धार करनेवाले ! हे पापराशिकों विदीर्ण करनेवाले ! हे झाडटर ! इस दासकी कर्मरादिका हरण कीजिये और हे जीवॉंका निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त जनका उद्धार कीजिये ॥ ६॥ हे अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदास्चूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त 'तृषित हूँ, मुझे ज्ञारूप अमृतका पान कराइये। मैं अत्यन्त मोहके वशीभूत होकर नष्ट हो रहा हूँ । हे जीवोंका उद्धार करनेवाले ! मुझ संसारसन्तप्तको पार 'लगाइये ॥ ७॥ संसारमें जन्मप्राप्तिकि कारणभूत कर्मोका नाश करनेवाले आपको मैं बारंबार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ। हे जीवॉका उद्धार करनेवाले ! आप निर्गुण और अनन्तकी झारणकों प्राप्त हुए इस संसारसन्तप्त जनका उद्धार कीजिये ॥ ८ ॥

    Shri Vishnu 28 Naam Stotra (श्रीविष्णोरष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्)

    श्रीविष्णोरष्टाविंशतिनामस्तोत्रम् अर्जुन उवाच किं नु नाम सहस्त्राणि जपते च पुनः पुनः । यानि नामानि दिव्यानि तानि चाचक्ष्व केशव ॥ १ ॥ मत्स्यं कूर्म वराहं च वामनं च जनार्दनम् । गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं माधवं मधुसूदनम् ॥ २ ॥ पद्मनाभं सहस्राक्षं वनमालिं हलायुधम् । गोवर्धनं हृषीकेशं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम् ॥ ३ ॥ विश्वरूपं वासुदेवं रामं नारायणं हरिम् । दामोदरं श्रीधरं च वेदाङ्गं गरुडध्वजम् ॥ ४ ॥ अनन्तं कृष्णगोपालं जपतो नास्ति पातकम् । गवां कोटिप्रदानस्य अश्वमेधशतस्य च ॥ ५ ॥ कन्यादानसहस्त्राणां फलं प्राप्नोति मानवः । अमायां वा पौर्णमास्यामेकादश्यां तथैव च ॥ ६ ॥ सन्ध्याकाले स्मरेन्नित्यं प्रातःकाले तथैव च । मध्याह्ने च जपन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ७ ॥ इति श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रीविष्णोरष्टाविंशतिनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shiv Manas Puja Stotra (शिवमानसपूजा)

    शिवमानसपूजा रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम् । जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥ १ ॥ सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् । शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥ २ ॥ छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं वीणाभेरिमृदङ्ग‌काहलकला गीतं च नृत्यं तथा । साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३ ॥ आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः । सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ ४ ॥ करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् । विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ ५ ॥ इति श्रीमच्छङराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा समाप्ता ।।

    Shri Shivaparadha Shamapana Stotra

    श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम् आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः । यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ।१। बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति । नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो ०।२। प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषण्णः। शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं । क्षन्तव्यो० ।३। वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढिहीनं च दीनम् । मिथ्यामोहाभिलाषैर्भमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं । क्षन्तव्यो०।४। नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे। नास्था धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं । क्षन्तव्यो०।५। स्त्रात्वा प्रत्यूषकाले स्त्रपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं पूजार्थ वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि । नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं । क्षन्तव्यो० ।६। दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः । धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः । क्षन्तव्यो०।७। ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः । नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमै रुद्रजाप्यैर्न वेदैः । क्षन्तव्यो० ।८। स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये । लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० ।९। नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् । उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि । क्षन्तव्यो० । १० । चन्द्रोद्धासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे सर्वैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे । दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ ११ ॥ किं वानेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् । ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ १२ ॥ आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः । लक्ष्मीस्तोयतरङ्ग‌भङ्गचषला विद्युच्चलं जीवितं तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ १३ ॥ करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् । विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ १४ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shiv Shtakam Stotra (शिवाष्टकम्)

    शिवाष्टकम् तस्मै नमः परमकारणकारणाय दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय । नागेन्द्रहारकृतकुण्डल भूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ॥ १ ॥ श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय । कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय लोकत्रयार्तिहरणाय नमः शिवाय ॥ २ ॥ पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय । भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय नीलाब्जकण्ठसदृशाय नमः शिवाय ॥ ३ ॥ लम्बत्सपिङ्गलजटामुकुटोत्कटाय दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय । व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय त्रैलोक्यनाथनमिताय नमः शिवाय ॥ ४ ॥ दक्षप्रजापतिमहामखनाशनाय क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय । ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगकरोटिनिकृन्तनाय योगाय योगनमिताय नमः शिवाय ॥ ५ ॥ संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय रक्षः पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय । सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय शार्दूलचर्मवसनाय नमः शिवाय ॥ ६ ॥ भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय । गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय गोक्षीरधारधवलाय नमः शिवाय ॥ ७ ॥ आदित्यसोमवरुणानिलसेविताय यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय । ऋक्सामवेदमुनिभिः स्तुतिसंयुताय गोपाय गोपनमिताय नमः शिवाय II८॥ शिवाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥ ९ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Shiv Tandava Stotra (शिवताण्डवस्तोत्रम्)

    शिवताण्डवस्तोत्रम् जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् । डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥१॥ जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि । धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥ धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर- स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे । कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥ जटाभुजङ्ग‌पिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा- कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे । मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥ सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर- प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरा‌ङ्घ्रिपीठभूः । भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥५॥ ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभानिपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् । सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः ॥६॥ करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके । धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥ नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः । निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगधुरन्धरः ॥८॥ प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् । स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥९॥ अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरीरसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् । स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥ जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् । धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥ दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः । तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥ कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् । विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥ इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् । हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥१४॥ पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे । तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१५॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shri Rudrashtakam Stotra (श्रीरुद्राष्टकम्)

    श्रीरुद्राष्टकम् नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं । निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥ १ ॥ निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं । करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥ २ ॥ तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं । स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥ ३ ॥ चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं । मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४ ॥ प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं । त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ।॥ ५ ॥ कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी । चिदानंद संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६ ॥ न यावद् उमानाथ पादारविन्दं भजंतीह लोके परे वा नराणाम् । न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥ ७ ॥ न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं । जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥ ८ ॥ रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥ ९ ॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Devyaparadha Shamaapana Stotra (देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्)

    देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ १ ॥ विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ २ ॥ पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः । मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ३ ॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ४ ॥ परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि । इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ ५ ॥ श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥ ६ ॥ चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः । कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥ ७ ॥ न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥ ८ ॥ नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः । श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥ ९ ॥ आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः । क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।। १० ।। जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥ ११ ॥ मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ॥ १२ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् ।

    Shri Bhagavati Stotra (श्रीभगवतीस्तोत्रम्)

    श्रीभगवतीस्तोत्रम् जय भगवति देवि नमो वरदे, जय पापविनाशिनि बहुफलदे । जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे, प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे ॥ १ ॥ जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे, जय पावकभूषितवक्त्रवरे । जय भैरवदेहनिलीनपरे, जय अन्धकदैत्यविशोषकरे ।। २ ।। जय महिषविमर्दिनि शूलकरे, जय लोकसमस्तकपापहरे । जय देवि पितामहविष्णुनते, जय भास्करशक्रशिरोऽवनते ॥ ३ ॥ जय षण्मुखसायुधईशनुते, जय सागरगामिनि शम्भुनुते । जय दुःखदरिद्रविनाशकरे, जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे ।। ४ ।। जय देवि समस्तशरीरधरे, जय नाकविशिनि दुःखहरे । जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे, जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे ॥ ५ ॥ एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं यः पठेन्नियतः शुचिः । गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा ॥ ६ ॥ इति व्यासकृतं श्रीभगवतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Maha Lakshmyashtakam Strotra (महालक्ष्म्यष्टकम्)

    महालक्ष्म्यष्टकम् इन्द्र उवाच नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते । शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥ नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि । सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥ सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि । सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥ सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि । मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥ आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि । योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ५ ॥ स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे । महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥ पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि । परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥ श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते । जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥ महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः । सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥ ९ ॥ एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम् । द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ॥ १० ॥ त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम् । महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥ ११ ॥ इतीन्द्रकृतं महालक्ष्म्यष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Shri Saraswati Stotra (श्रीसरस्वतीस्तोत्रम्)

    श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना । या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ १ ॥ आशासु राशीभवदङ्गवल्लीभासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम् । मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासनसुन्दरि त्वाम् ॥ २ ॥ शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे । सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥ ३ ॥ सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृदेवताम् । देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ।। ४ ।। पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती । प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥ ५ ॥ शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जगद्व्यापिनीं जाड्यान्धकारापहाम् । हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥ ६ ॥ वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले भक्तार्तिनाशिनि विरञ्चिहरीशवन्द्ये । कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥ ७ ॥ श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे श्वेताम्बरावृतमनोहरमनुगात्रे । उद्यन्मनोज्ञसितपङ्कजमञ्जुलास्ये विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥ ८ ॥ मातस्त्वदीयपदपङ्कजभक्तियुक्ता ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय । ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण भूवह्निवायुगगनाम्बुविनिर्मितेन ॥ ९ ॥ मोह्यन्धकारभरिते हृदये मदीये मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे । स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभिः शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥ १० ॥ ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः । न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे न स्युः कथञ्चिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥ ११ ॥ लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिगौरी तुष्टिः प्रभा धृतिः । एताभिः पाहि तनुभिरष्टाभिर्मा सरस्वति ॥ १२ ॥ सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः । वेदवेदान्तवेदाङ्ग‌विद्यास्थानेभ्य एव च ॥ १३ ॥ सरस्वत्ति महाभागे विद्ये कमललोचने । विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥ यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥ १५ ॥ इति श्रीसरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Devyaaratrikam Stotra (देव्याआरात्रिकम्)

    देव्या आरात्रिकम् प्रवरातीरनिवासिनि निगमप्रतिपाद्ये पारावारविहारिणि नारायणि हृद्ये । प्रपञ्चसारे जगदाधारे श्रीविद्ये प्रपन्नपालननिरते मुनिवृन्दाराध्ये॥१॥ जय देवि जय देवि जय मोहनरूपे मामिह जननि समुद्धर पतितं भवकूपे ।। ध्रुवपदम् ॥ दिव्यसुधाकरवदने कुन्दोज्ज्वलरदने पदनखनिर्जितमदने मधुकैटभकदने । विकसितपङ्कजनयने पन्नगपतिशयने खगपतिवहने गहने सङ्कटवनदहने ॥ जय देवि० ॥ २ ॥ मञ्जीराङ्कितचरणे मणिमुक्ताभरणे कञ्चकिवस्त्रावरणे वक्त्राम्बुजधरणे। शक्रामयभयहरणे भूसुरसुखकरणे करुणां कुरु मे शरणे गजनक्रोद्धरणे ॥ जय देवि० ॥ ३ ॥ छित्त्वा राहुग्रीवां पासि त्वं विबुधान् ददासि मृत्युमनिष्टं पीयूषं विबुधान् । विहरसि दानवऋद्धान् समरे संसिद्धान् मध्वमुनीश्वरवरदे पालय संसिद्धान् ।। जय देवि० ॥ ४ ॥ इति देव्या आरात्रिकं समाप्तम् ।

    Shri Narayana Ashtakam stotra (श्रीनारायणाष्टकम्)

    श्रीनारायणाष्टकम् वात्सल्यादभयप्रदानसमयादार्तार्तिनिर्वापणादौदार्यादघशोषणादगणितश्रेयः पदप्रापणात् । सेव्यः श्रीपतिरेक एव जगतामेतेऽभवन्साक्षिणः प्रह्लादश्च विभीषणश्च करिराट् पाञ्चाल्यहल्या ध्रुवः ॥ १ ॥ प्रह्लादास्ति यदीश्वरो वद हरिः सर्वत्र मे दर्शय स्तम्भे चैवमिति ब्रुवन्तमसुरं तत्राविरासीद्धरिः । वक्षस्तस्य विदारयन्निजनखैर्वात्सल्यमापादय- न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः ॥ २ ॥ श्रीरामात्र विभीषणोऽयमनघो रक्षोभयादागतः सुग्रीवानय पालयैनमधुना पौलस्त्यमेवागतम् । इत्युक्त्वाभयमस्य सर्वविदितं यो राघवो दत्तवानार्त० ।। ३ ।। नक्रग्रस्तपदं समुद्धतकरं ब्रह्मादयो भो सुराः पाल्यन्तामिति दीनवाक्यकरिणं देवेष्वशक्तेषु यः । मा भैषीरिति यस्य नक्रहनने चक्रायुधः श्रीधर । आर्त० ॥ ४ ॥ भो कृष्णाच्युत भो कृपालय हरे भो पाण्डवानां सखे क्वासि क्वासि सुयोधनादपहृतां भो रक्ष मामातुराम् । इत्युक्तोऽक्षयवस्त्रसंभृततनुं योऽपालयद्रौपदीमार्त० ॥ ५ ॥ यत्पादाब्जनखोदकं त्रिजगतां पाौघविध्वसन यन्नामामृतपूरकं च पिबतां संसारसन्तारकम् । पाषाणोऽपि यद‌ङ्घ्रिपद्मरजसा शापान्मुनेर्मोचित । आर्त० ॥ ६ ॥ पित्रा भ्रातरमुत्तमासनगतं चौत्तानपादिध्रुवो दृष्ट्वा तत्सममारुरुक्षुरधृतो मात्रावमानं गतः । यं गत्वा शरणं यदाप तपसा हेमाद्रिसिंहासनमार्त० ॥ ७ ॥ आर्ता विषण्णाः शिथिलाश्च भीता घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः । सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्ति ॥ ८ ॥ इति श्रीकूरेशस्वामिविरचितं श्रीनारायणाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Sri Lakshmi Narasimha Stotra (श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रम्)

    श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रम् श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगीन्द्रभोगमणिरञ्जितपुण्यमूर्ते । योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपोत लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ॥ १ ॥ ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटिसङ्घट्टिता‌ङ्ङ्घिकमलामलकान्तिकान्त । लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस । लक्ष्मी० ॥ २ ॥ संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्रभीकरमृगप्रवरार्दितस्य । आर्तस्य मत्सरनिदाघनिपीडितस्य लक्ष्मी० ॥ ३ ॥ संसारकूपमतिघोरमगाधमूलं सम्प्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य । दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य । लक्ष्मी० ॥ ४ ॥ संसारसागरविशालकरालकालनक्रग्रहग्रसननिग्रहविग्रहस्य । व्यग्रस्य रागरसनोर्मिनिपीडितस्य । लक्ष्मी० ॥ ५ ॥ संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्मशाखाशतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् । आरुह्य दुःखफलितं पततो दयालो । लक्ष्मी० ॥ ६ ॥ संसारसर्पघनवक्त्रभयोग्रतीव्रदंष्ट्राकरालविषदग्धविनष्टमूर्तेः । नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरे । लक्ष्मी० ॥ ७ ॥ संसारदावदहनातुरभीकरोरुज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य । त्वत्पादपद्मसरसीशरणागतस्य । लक्ष्मी० ॥ ८ ॥ संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वेन्द्रियार्तवडिशार्थझषोपमस्य । प्रोत्खण्डितप्रचुरतालुकमस्तकस्य । लक्ष्मी० ॥ ९ ॥ संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघातनिष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश । प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य । लक्ष्मी० ॥ १० ॥ अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चोरैः प्रभो बलिभिरिन्द्रियनामधेयैः । मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य । लक्ष्मी० ॥ ११ ॥ लक्ष्मीपते कमलनाभ सुरेश विष्णो वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष । ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम् ॥ १२ ॥ यन्माययोर्जितवपुः प्रचुरप्रवाहमग्नार्थमत्र निवहोरुकरावलम्बम् । लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन स्तोत्रं कृतं सुखकरं भुवि शङ्करेण ॥ १३ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Prahladakrita Narasimha Stotra (प्रह्लादकृतनृसिंहस्तोत्रम्)

    प्रह्लादकृतनृसिंहस्तोत्रम् प्रह्राद उवाच ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः । नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ॥ १ ॥ मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः । नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥ २ ॥ विप्रा‌द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्रुपचं वरिष्ठम् । मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ- प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥ ३॥ नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते । यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ॥ ४ ॥ तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य सर्वात्मना महि गृणामि यथामनीषम् । नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥ ५ ॥ सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः । क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ॥ ६ ॥ तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या । लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ॥ ७ ॥ नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य- न्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्। आन्त्रस्त्रजः क्षतजकेसरशङ्कुकर्णान्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ॥८॥ त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र- संसारचक्रकदनागसतां प्रणीतः । बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घिमूलं प्रीतोऽपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ॥ ९ ॥ यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्मशोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः । दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥ १० ॥ सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः । अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन् गुणविप्रमुक्तो दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ॥ ११ ॥ बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः । तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्ट- स्तावद्विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ॥ १२ ॥ यस्मिन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्मा- द्यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा । भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ॥ १३ ॥ माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः । छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥ १४ ॥ स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः । चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ॥ १५॥ दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानामायुः श्रियो विभव इच्छति याञ्जनोऽयम् । येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रूविस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ॥ १६ ॥ तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो ज्ञ आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमा विरिञ्चात् । नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ।। १७ ।। कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः । निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान् कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः ॥ १८ ॥ क्वाहं रजः प्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिञ्जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा । न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ॥ १९ ॥ नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याज्जन्तोर्यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि । संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ॥ २० ॥ एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात् । कृत्वाऽऽत्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ॥ २१ ॥ मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम् । खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सुस्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ॥ २२ ॥ एकस्त्वमेव जगदेतदमुष्य यत्त्वमाद्यन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च । सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ॥ २३ ॥ त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था । यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च तद्वै तदेव वसुकालवदष्टितर्वोः ॥ २४ ॥ न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः । योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्र- स्तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्गे ॥ २५ ॥ तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम् । अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधेर्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ॥ २६ ॥ तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमानस्त्वां बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य । नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम् ॥ २७ ॥ स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आस्थितोऽब्जं कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः । त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ॥ २८ ॥ एवं सहस्रवदना‌ङ्ङ्घिशिरःकरोरुनासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम् । मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ॥ २९ ॥ तस्मै भवान् हयशिरस्तनुवं च बिभ्रद् वेदद्गुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ । हत्वाऽऽनयच्छ्रुतिगणांस्तु रजस्तमश्च सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥ ३० ॥ इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् । धर्म महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥ ३१ ॥ नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् । कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्त तस्मिन् कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ॥ ३२ ॥ जिद्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् । घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बह्वयः सपल्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ ३३ ॥ एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्यामन्योन्यजन्ममरणाशन भीतभीतम् । पश्यञ्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ॥ ३४ ॥ को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन् प्रयास उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः । मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ॥ ३५ ॥ नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्यास्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः । शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थमायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥ ३६ ॥ प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः । नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ३७ ॥ यन्मैथुनादि गृहमेधिसुखं हि तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् । तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःख भाजः । कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥ ३८ ॥ मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्मव्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्गाः । प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥ ३९ ॥ रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे बीजाङ्कराविव न चान्यदरूपकस्य । युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ॥ ४० ॥ त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च । सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन् नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥ ४१ ॥ नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः । आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वामेवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ।। ४२ ।। तत् तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् । संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ॥ ४३ ॥ नारद उवाच एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः । प्रह्रादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ।। ४४ ।। श्रीभगवानुवाच प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम । वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ॥ ४५ ॥ मामप्रीणत आयुष्मन् दर्शनं दुर्लभं हि मे। दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ॥ ४६ ॥ प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः । श्रेयस्कामा महाभागाः सर्वासामाशिषां पतिम् ॥ ४७ ॥ एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः । एकान्तित्वाद् भगवति नैच्छत् तानसुरोत्तमः ॥ ४८ ॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे सप्तमस्कन्धे नवमेऽध्याये प्रह्लादकृत- नृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shri Sita Rama Ashtakam (श्रीसीतारामाष्टकम्)

    श्रीसीतारामाष्टकम् ब्रह्ममहेन्द्रसुरेन्द्रमरुद्गणरुद्रमुनीन्द्रगणैरतिरम्यं क्षीरसरित्पतितीरमुपेत्य नुतं हि सतामवितारमुदारम् । भूमिभरप्रशमार्थमथ प्रथितप्रकटीकृतचिद्धनमूर्ति त्वां भजतो रघुनन्दन देहि दयाघन मे स्वपदाम्बुजदास्यम् ॥१॥ पद्मदलायतलोचन हे रघुवंशविभूषण देव दयालो निर्मलनीरदनीलतनोऽखिललोकहृदम्बुजभासक भानो । कोमलगात्र पवित्रपदाब्जरजःकणपावितगौतमकान्त । त्वां० ॥ २ ॥ पूर्ण परात्पर पालय मामतिदीनमनाथमनन्तसुखाब्धे प्रावृडदभ्रतडित्सुमनोहरपीतवराम्बर राम नमस्ते । कामविभञ्जन कान्ततरानन काञ्चनभूषण रत्नकिरीट । त्वां० ॥ ३ ॥ दिव्यशरच्छशिकान्तिहरोज्ज्वलमौक्तिकमालविशालसुमौले कोटिरविप्रभ चारुचरित्रपवित्र विचित्रधनुः शरपाणे । चण्डमहाभुजदण्डविखण्डितराक्षसराजमहागजदण्डं । त्वां० ॥ ४ ॥ दोषविहिंस्त्रभुजङ्गसहस्त्रसुरोषमहानलकीलकलापे जन्मजरामरणोर्मिमये मदमन्मथनक्रविचक्रभवाब्धौ । दुःखनिधौ च चिरं पतितं कृपयाद्य समुद्धर राम ततो मां । त्वां० ॥ ५ ॥ संसृतिघोरमदोत्कटकुञ्जरतृट्क्षुदनीरदपिण्डिततुण्डं दण्डकरोन्मथितं च रजस्तम उन्मदमोहपदोज्झितमार्तम् । दीनमनन्यगतिं कृपणं शरणागतमाशु विमोचय मूढं । त्वां० ॥ ६ ॥ जन्मशतार्जितपापसमन्वितहृत्कमले पतिते पशुकल्पे हे रघुवीर महारणधीर दयां कुरु मय्यतिमन्दमनीषे । त्वं जननी भगिनी च पिता मम तावदसि त्ववितापि कृपालो । त्वां० ॥ ७ ॥ त्वां तु दयालुमकिञ्चनवत्सलमुत्पलहारमपारमुदारं राम विहाय कमन्यमनामयमीश जनं शरणं ननु यायाम् । त्वत्पदपद्ममतः श्रितमेव मुदा खलु देव सदाव ससीत । त्वां० ॥ ८ ॥ यः करुणामृतसिन्धुरनाथजनोत्तमबन्धुरजोत्तमकारी भक्तभयोर्मिभवाब्धितरिः सरयूतटिनीतटचारुविहारी । तस्य रघुप्रवरस्य निरन्तरमष्टकमेतदनिष्टहरं वै यस्तु पठेदमरः स नरो लभतेऽच्युतरामपदाम्बुजदास्यम् ॥९॥ इति श्रीमन्मधुसूदनाश्रमशिष्याच्युतयतिविरचितं श्रीसीतारामाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Govindashtakam (गोविन्दाष्टकम्)

    गोविन्दाष्टकम् चिदानन्दाकारं श्रुतिसरससारं समरसं निराधाराधारं भवजलधिपारं परगुणम् । रमाग्रीवाहारं व्रजवनविहारं हरनुतं सदा तं गोविन्दं परमसुखकन्दं भजत रे ॥ १ ॥ महाम्भोधिस्थानं स्थिरचरनिदानं दिविजपं सुधाधारापानं विहगपतियानं यमरतम् । मनोज्ञं सुज्ञानं मुनिजननिधानं ध्रुवपदं । सदा० ॥ २ ॥ धिया धीरैर्येयं श्रवणपुटपेयं यतिवरैर्महावाक्यैज्ञेयं त्रिभुवनविधेयं विधिपरम् । मनोमानामेयं सपदि हृदि नेयं नवतनुं । सदा० ॥ ३ ॥ महामायाजालं विमलवनमालं मलहरं सुभालं गोपालं निहतशिशुपालं शशिमुखम् । कलातीतं कालं गतिहतमरालं मुररिपुं । सदा० ॥ ४ ॥ नभोबिम्बस्फीतं निगमगणगीतं समगति सुरौधैः सम्प्रीतं दितिजविपरीतं पुरिशयम् । गिरां मार्गातीतं स्वदितनवनीतं नयकरं । सदा० ॥ ५ ॥ परेशं पद्मशं शिवकमलजेशं शिवकरं द्विजेशं देवेशं तनुकुटिलकेशं कलिहरम् । खगेशं नागेशं निखिलभुवनेशं नगधरं । सदा० ॥ ६ ॥ रमाकान्तं कान्तं भवभयभयान्तं भवसुखं दुराशान्तं शान्तं निखिलहृदि भान्तं भुवनपम् । विवादान्तं दान्तं दनुजनिचयान्तं सुचरितं । सदा० ॥ ७ ॥ जगज्ज्येष्ठं श्रेष्ठं सुरपतिकनिष्ठं क्रतुपतिं बलिष्ठं भूयिष्ठं त्रिभुवनवरिष्ठं वरवहम् । स्वनिष्ठं धर्मिष्ठं गुरुगुणगरिष्ठं गुरुवरं । सदा० ॥ ८ ॥ गदापाणेरेतदुरितदलनं दुःखशमनं विशुद्धात्मा स्तोत्रं पठति मनुजो यस्तु सततम् । स भुक्त्वा भोगौघं चिरमिह ततोऽपास्तवृजिनः परं विष्णोः स्थानं व्रजति खलु वैकुण्ठभुवनम् ॥ ९ ॥ इति श्रीपरमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं गोविन्दाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Shri Govindashtakam (श्रीगोविन्दाष्टकम्)

    श्रीगोविन्दाष्टकम् सत्यं ज्ञानमनन्तं नित्यमनाकाशं परमाकाशं गोष्ठप्राङ्गणरिङ्गणलोलमनायासं परमायासम् । मायाकल्पितनानाकारमनाकारं भुवनाकारं क्ष्माया नाथमनाथं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ १ ॥ मृत्स्नामत्सीहेति यशोदाताडनशैशवसंत्रासं व्यादितवक्त्रालोकितलोकालोकचतुर्दशलोकालिम् । लोकत्रयपुरमूलस्तम्भं लोकालोकमनालोकं लोकेशं परमेशं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ २ ॥ त्रैविष्टपरिपुवीरघ्नं क्षितिभारघ्नं भवरोगघ्नं कैवल्यं नवनीताहारमनाहारं भुवनाहारम् । वैमल्यस्फुटचेतोवृत्तिविशेषाभासमनाभासं शैवं केवलशान्तं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ३ ॥ गोपालं भूलीलाविग्रहगोपालं कुलगोपालं गोपीखेलनगोवर्धनधृतिलीलालालितगोपालम् । गोभिर्निगदितगोविन्दस्फुटनामानं बहुनामानं गोपीगोचरदूरं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ४ ॥ गोपीमण्डलगोष्ठीभेदं भेदावस्थमभेदाभं शश्वद्गोखुरनिर्धूतोद्धतधूली धूसरसौभाग्यम् । श्रद्धाभक्तिगृहीतानन्दमचिन्त्यं चिन्तितसद्भावं चिन्तामणिमहिमानं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ५ ॥ स्नानव्याकुलयोषिद्वस्त्रमुपादायागमुपारूढं व्यादित्सन्तीरथ दिग्वस्त्रा ह्युपदातुमुपाकर्षन्तम् । निर्धूतद्वयशोकविमोहं बुद्धं बुद्धेरन्तःस्थं सत्तामात्रशरीरं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ६ ॥ कान्तं कारणकारणमादिमनादि कालमनाभासं कालिन्दीगतकालियशिरसि मुहुर्नृत्यन्तं नृत्यन्तम् । कालं कालकलातीतं कलिताशेषं कलिदोषघ्नं कालत्रयगतिहेतुं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ७ ॥ वृन्दावनभुवि वृन्दारकगणवृन्दाराध्यं वन्देऽहं कुन्दाभामलमन्दस्मेरसुधानन्दं सुहृदानन्दम् । वन्द्याशेषमहामुनिमानसवन्द्यानन्दपदद्वन्द्वं वन्द्याशेषगुणाब्धिं प्रणमत गोविन्दं परमानन्दम् ॥ ८ ॥ गोविन्दाष्टकमेतदधीते गोविन्दार्पितचेता यो गोविन्दाच्युत माधवविष्णो गोकुलनायक कृष्णेति । गोविन्दा‌ङ्घ्रिसरोजध्यानसुधाजलधौतसमस्ताघो गोविन्दं परमानन्दामृतमन्तःस्थं स समभ्येति ॥ ९ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीगोविन्दाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Krishnashtakam (कृष्णाष्टकम्)

    कृष्णाष्टकम् श्रियाश्लिष्टो विष्णुः स्थिरचरवपुर्वेदविषयो धियां साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयनः । गदी शङ्खी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचिः शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः ॥ १ ॥ यतः सर्व जातं वियदनिलमुख्यं जगदिदं स्थितौ निःशेषं योऽवति निजसुखांशेन मधुहा । लये सर्वं स्वस्मिन् हरति कलया यस्तु स विभुः । शरण्यो० ॥ २ ॥ असूनायम्यादौ यमनियममुख्यैः सुकरणै- र्निरुध्येदं चित्तं हृदि विमलमानीय सकलम् । यमीड्यं पश्यन्ति प्रवरमतयो मायिनमसौ । शरण्यो० ॥ ३ ॥ पृथिव्यां तिष्ठन् यो यमयति महीं वेद न धरा यमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशममलम् । नियन्तारं ध्येयं मुनिसुरनृणां मोक्षदमसौ । शरण्यो० ॥ ४ ॥ महेन्द्रादिर्देवो जयति दितिजान्यस्य बलतो न कस्य स्वातन्त्र्यं क्वचिदपि कृतौ यत्कृतिमृते । कवित्वादेर्गर्वं परिहरति योऽसौ विजयिनः । शरण्यो० ॥ ५ ॥ विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखां विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं याति जनता । विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभुः । शरण्यो० ॥ ६ ॥ नरातङ्कोत्तङ्कः शरणशरणो भ्रान्तिहरणो घनश्यामः कामो व्रजशिशुवयस्योऽर्जुनसखः । स्वयम्भूर्भूतानां जनक उचिताचारसुखदः । शरण्यो० ॥ ७ ॥ यदा धर्मग्लानिर्भवति जगतां क्षोभकरणी तदा लोकस्वामी प्रकटितवपुः सेतुधृगजः । सतां धाता स्वच्छो निगमगणगीतो व्रजपतिः । शरण्यो० ॥ ८ ॥ इति हरिरखिलात्माराधितः शङ्करेण श्रुतिविशदगुणोऽसौ मातृमोक्षार्थमाद्यः । यतिवरनिकटे श्रीयुक्त आविर्बभूव स्वगुणवृत उदारः शङ्खचक्राब्जहस्तः ।॥ ९ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं कृष्णाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Shri Krishna Ashtakam Stotra (श्रीकृष्णाष्टकम्)

    श्रीकृष्णाष्टकम् भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैव नन्दनन्दनम् । सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं अनङ्गरङ्गसागरं नमामि कृष्णनागरम् ॥ १ ॥ मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् । करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्णवारणम् ॥ २ ॥ कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं व्रजाङ्गनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् । यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ॥ ३ ॥ सदैव पादपङ्कजं मदीयमानसे निजं दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् । समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ॥ ४ ॥ भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् । दृगन्तकान्तभङ्गिनं सदासदालसङ्गिनं दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् ॥ ५ ॥ गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनम् । नवीनगोपनागरं नवीनकेलिलम्पटं नमामि मेघसुन्दरं तडित्प्रभालसत्पटम् ॥ ६ ॥ समस्तगोपनन्दनं हृदम्बुजैकमोदनं नमामि कुञ्जमध्यगं प्रसन्नभानुशोभनम् । निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं रसालवेणुगायकं नमामि कुञ्जनायकम् ॥ ७ ॥ विदग्धगोपिकामनोमनोज्ञतल्पशायिनं नमामि कुञ्जकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम् । किशोरकान्ति रञ्जितं दृगञ्जनं सुशोभितं गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् ॥ ८ ॥ यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् । प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान् भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान् ॥ ९ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीकृष्णाष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Shri Krishna Sharanam mam (श्रीकृष्णः शरणं मम)

    श्रीकृष्णः शरणं मम श्रीकृष्ण एव शरणं मम श्रीकृष्ण एव शरणम् ॥ (ध्रुवपदम्) गुणमय्येषा न यत्र माया न च जनुरपि मरणम् । यद्यतयः पश्यन्ति समाधौ परममुदाभरणम् ॥ १ ॥ यद्धेतोर्निवहन्ति बुधा ये जगति सदाचरणम् । सर्वापद्भ्यो विहितं महतां येन समुद्धरणम् ॥ २ ॥ भगवति यत्सन्मतिमुद्वहतां हृदयतमोहरणम् । हरिपरमा यद्भजन्ति सततं निषेव्य गुरुचरणम् ॥३॥ असुरकुलक्षतये कृतममरैर्यस्य सदादरणम् । भुवनतरुं धत्ते यन्निखिलं विविधविषयपर्णम् ॥ ४ ॥ अवाप्य यद्भूयोऽच्युतभक्ता न यान्ति संसरणम् । कृष्णलालजीद्विजस्य भूयात्तदघहरस्मरणम् ॥ ५ ॥ इति श्रीकृष्णलालजीद्विजविरचितं 'श्रीकृष्णः शरणं मम' नामक स्तोत्रं समाप्तम् ।

    Chatushloki Stotra (चतुःश्लोकी)

    चतुःश्लोकी सदा सर्वात्मभावेन भजनीयो व्रजेश्वरः । करिष्यति स एवास्मदैहिकं पारलौकिकम् ॥ १ ॥ अन्याश्रयो न कर्तव्यः सर्वथा बाधकस्तु सः । स्वकीये स्वात्मभावश्च कर्तव्यः सर्वथा सदा ॥ २ ॥ सदा सर्वात्मना कृष्णः सेव्यः कालादिदोषनुत् । तद्भक्तेषु च निर्दोषभावेन स्थेयमादरात् ॥ ३ ॥ भगवत्येव सततं स्थापनीयं मनः स्वयम् । कालोऽयं कठिनोऽपि श्रीकृष्णभक्तान्न बाधते ॥ ४ ॥ इति श्रीविट्ठलेश्वरोक्ता (द्वितीया) चतुःश्लोकी समाप्ता ।

    Guru Stotra (गुरु स्तोत्रम्‌)

    गुरु स्तोत्रम्‌ (Guru Strotra) गुरुजबहा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै .श्रीगुरवे नमः ॥

    Shri Ganapati Stotra (श्रीगणपतिस्तोत्रम्)

    श्रीगणपतिस्तोत्रम् (Shri Ganapati Stotra) जेतुं यस्त्रिपुरं हरेण हरिणा व्याजाद्बलिं बनता स्रष्टुं वारिभवोद्भवेन भुवनं शेषेण धर्तुं धराम् । पार्वत्या महिषासुरप्रमथने सिद्धाधिपैः सिद्धये ध्यातः पञ्चशरेण विश्वजितये पायात्स नागाननः ॥ १ ॥ विघ्नध्वान्तनिवारणैकतरणिर्विघ्नाटवीहव्यवाड् विघ्नव्यालकुलाभिमानगरुडो विघ्नेभपञ्चाननः । विघ्नोत्तुङ्ग‌गिरिप्रभेदनपविर्विघ्नाम्बुधैर्वाडवो विघ्नाघौघघनप्रचण्डपवनो विघ्नेश्वरः पातु नः ॥ २ ॥ खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम् । दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरं वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ॥ ३ ॥ गजाननाय महसे प्रत्यूहतिमिरच्छिदे । अपारकरुणापूरतरङ्गितदृशे नमः ।। ४ ।। अगजाननपद्मार्कं गजाननमहर्निशम् । अनेकदन्तं भक्तानामेकदन्तमुपास्महे ॥ ५ ॥ श्वेताङ्गं श्वेतवस्त्रं सितकुसुमगणैः पूजितं श्वेतगन्धैः क्षीराब्धौ रत्नदीपैः सुरनरतिलकं रत्नसिंहासनस्थम् । दोर्भिः पाशाङ्कुशाब्जाभयवरमनसं चन्द्रमौलिं त्रिनेत्रं ध्यायेच्छान्त्यर्थमीशं गणपतिममलं श्रीसमेतं प्रसन्नम् ॥ ६ ॥ आवाहये तं गणराजदेवं रक्तोत्पलाभासमशेषवन्द्यम् । विघ्नान्तकं विघ्नहरं गणेशं भजामि रौद्रं सहितं च सिद्ध्या ॥ ७ ॥ यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति परं प्रधानं पुरुषं तथान्ये । विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय ।। ८ ।। विघ्नेश वीर्याणि विचित्रकाणि वन्दीजनैर्मागधकैः स्मृतानि । श्रुत्वा समुत्तिष्ठ गजानन त्वं ब्राह्मे जगन्मङ्गलकं कुरुष्व ॥ ९ ॥ गणेश हेरम्ब गजाननेति महोदर स्वानुभवप्रकाशिन् । वरिष्ठ सिद्धिप्रिय बुद्धिनाथ वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ १० ॥ अनेकविघ्नान्तक वक्रतुण्ड स्वसंज्ञवासिंश्च चतुर्भुजेति । कवीश देवान्तकनाशकारिन् वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ ११ ॥ अनन्तचिद्रूपमयं गणेशं ह्यभेदभेदादिविहीनमाद्यम् । हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२ ॥ विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम् । सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १३ ॥ यदीयवीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्वम् । नागात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १४ ॥ सर्वान्तरे संस्थितमेकगूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति। अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १५ ॥ यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन नौति । अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १६ ॥ देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः । विघ्नान् हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः ॥ १७ ॥ एकदन्तं महाकायं लम्बोदरगजाननम् । विघ्ननाशकरं देवं हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥ १८ ॥ यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर ॥ १९ ॥ इति श्रीगणपतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Suryashtakam Stotra (सूर्याष्टकम्)

    सूर्याष्टकम् (Suryashtakam) आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर । दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥ सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम् । श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्य प्रणमाम्यहम् ॥ २ ॥ लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहम् । महापापहरं देवं तं सूर्य प्रणमाम्यहम् ॥ ३ ॥ त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ४ ॥ बृंहितं तेजः पुत्रं च वायुमाकाशमेव च । प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ५ ॥ बन्धूकपुष्पसङ्काशं हारकुण्डलभूषितम् । एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ६ ॥ तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेजः प्रदीपनम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।। ७ ।। तं सूर्य जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ ८ ॥ इति श्रीशिवप्रोक्तं सूर्याष्टकं सम्पूर्णम् ।

    Hanuman Stotra (श्रीहनुमत्स्तोत्रम्)

    श्रीहनुमत्स्तोत्रम् (Hanuman Strotra) लाङ्‌गूलमृष्टवियदम्बुधिमध्यमार्गमुत्प्लुत्य यान्तममरेन्द्रमुदो निदानम् । आस्फालितस्वक भुजस्फुटिताद्रिकाण्डं द्रा‌मैथिलीनयननन्दनमद्य वन्दे ॥१॥ मध्येनिशाचरमहाभयदुर्विषह्यं घोराद्भुतव्रतमियं यददश्चचार । पत्ये तदस्य बहुधापरिणामदूतं सीतापुरस्कृततनुं हनुमन्तमीडे ॥२॥ यः पादपङ्कजयुगं रघुनाथपल्या नैराश्यरूषितविरक्तमपि स्वरागैः । प्रागेव रागि विदधे बहु वन्दमानो वन्देऽञ्जनाजनुषमेष विशेषतुष्ट्यै ॥३॥ ताञ्जानकीविरहवेदन हेतुभूतान् द्रागाकलय्य सदशोकवनीयवृक्षान् । लङ्कालकानिव घनानुदपाट्यद्यस्तं हेमसुन्दरकपिं प्रणमामि पुष्ट्यै ॥४॥ घोषप्रतिध्वनितशैलगुहासहस्त्रसम्भ्रान्तनादितवलन्मृगनाथयूथम् । अक्षक्षय क्षणविलक्षितराक्षसेन्द्रमिन्द्रं कपीन्द्रपृतनावलयस्य वन्दे ॥५॥ हेलाविलङ्घितमहार्णवमप्यमन्दं घूर्ण गदाविहतिविक्षतराक्षसेषु । स्वम्मोदवारिधिमपारमिवेक्षमाणं वन्देऽहमक्षयकुमारकमारकेशम् ॥६॥ जम्भारिजित्प्रसभलम्भितपाशबन्धं ब्रह्मानुरोधमिव तत्क्षणमुद्वहन्तम् । रौद्रावतारमपि रावणदीर्घदृष्टिसङ्कोचकारणमुदारहरि भजामि ॥७॥ दर्पोन्नमन्निशिचरेश्वरमूर्धचञ्चत्कोटीरचुम्बि निजविम्बमुदीक्ष्य हृष्टम् । पश्यन्तमात्मभुजयन्त्रणपिष्यमाणतत्कायशोणितनिपातमपेक्षि वक्षः ॥८॥ अक्षप्रभृत्यमरविक्रमवीरनाश- क्रोधादिव द्रुतमुदञ्चितचन्द्रहासाम् । निद्रापिताभ्रघनगर्जनघोरघोषैः संस्तम्भयन्तमभिनौमि दशास्यमूर्तिम् ॥९॥ आशंस्यमानविजयं रघुनाथधाम शंसन्तमात्मकृतभूरिपराक्रमेण । दौत्ये समागमसमन्वयमादिशन्तं वन्दे हरेः क्षितिभृतः पृतनाप्रधानम् ॥१०॥ यस्यौचितीं समुपदिष्टवतोऽधिपुच्छं दम्भान्धितां धियमपेक्ष्य विवर्धमानः । नक्तञ्चराधिपतिरोषहिरण्यरेता लङ्कां दिधक्षुरपतत्तमहं वृणोमि ॥ ११ ॥ क्रन्दन्निशाचरकुलां ज्वलनावलीढैः साक्षाद्गृहैरिव बहिः परिदेवमानाम् । स्तब्धस्वपुच्छतटलग्नकृपीटयोनिदन्दह्यमाननगरीं परिगाहमानाम् ॥ १२ ॥ मूर्तेर्गृहासुभिरिव द्युपुरं व्रजद्भि- व्योंम्प्नि क्षणं परिगतं पतगैर्ध्वलद्भिः । पीताम्बरं दधतमुच्छ्रितदीप्ति पुच्छं सेनां वहद्विहगराजमिवाहमीडे ॥ १३ ॥ स्तम्भीभवत्स्वगुरुवालधिलग्नवह्नि- ज्वालोल्ललद्ध्वजपटामिव देवतुष्ट्यै । वन्दे यथोपरि पुरो दिवि दर्शयन्त- मद्यैव रामविजयाजिकवैजयन्तीम् ॥१४॥ रक्षश्चयैकचितकक्षकपूश्चितौ यः सीताशुचो निजविलोकनतो मृतायाः । दाहं व्यधादिव तदन्त्यविधेयभूतं लाङ्‌गूलदत्तदहनेन मुदे स नोऽस्तु ॥१५॥ आशुद्धये रघुपतिप्रणयैकसाक्ष्ये वैदेहराजदुहितुः सरिदीश्वराय । न्यासं ददानमिव पावकमापतन्त- मब्धौ प्रभञ्जनतनूजनुषं भजामि ॥१६॥ रक्षस्स्वतृप्तिरुडशान्तिविशेषशोण- मक्षक्षयक्षणविधानुमितात्मदाक्ष्यम् । भास्वत्प्रभातरविभानुभरावभासं लङ्काभयङ्करममुं भगवन्तमीडे ।।१७।। तीर्वोदधिं जनकजार्पितमाप्य चूडा- रत्नं रिपोरपि पुरं परमस्य दग्ध्वा। श्रीरामहर्षगलदश्वभिषिच्यमानं तं ब्रह्मचारिवरवानरमाश्रयेऽहम् ॥१८॥ यः प्राणवायुजनितो गिरिशस्य शान्तः शिष्योऽपि गौतमगुरुर्मुनिशङ्करात्मा। हृद्यो हरस्य हरिवद्धरितां गतोऽपि धीधैर्यशास्त्रविभवेऽतुलमाश्रये तम्॥१९॥ स्कन्धेऽधिवाह्य जगदुत्तरगीतिरीत्या यः पार्वतीश्वरमतोषयदाशुतोषम् । तस्मादवाप च वरानपरानवाप्यान् तं वानरं परमवैष्णवमीशमीडे ॥ २० ॥ उमापतेः कविपतेः स्तुतिर्बाल्यविजृम्भिता । हनूमतस्तुष्टयेऽस्तु वीरविंशतिकाभिधा ॥ इति श्रीकविपत्युपनामकोमापतिशर्मद्विवेदिविरचितं वीरविंशतिकाख्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shri Vishnu Stotra (श्रीविष्णोः)

    श्रीविष्णोः (Shri Vishnu) प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिशान्त्यै नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् । ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ॥ १ ॥ प्रातर्नमामि मनसा वचसा च मूर्धा पादारविन्दयुगलं परमस्य पुंसः । नारायणस्य नरकार्णवतारणस्य पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य ॥२॥ प्रातर्भजामि भजतामभयङ्करं तं प्राक्सर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै । यो ग्राहवक्त्रपतिता‌ङ्ङ्घिगजेन्द्रघोर- शोकप्रणाशनकरो धृतशङ्खचक्रः ॥ ३ ॥ ॥ इति श्रीविष्णोः प्रातःस्मरणम् ॥

    Shri Devi Stotra (श्रीदेव्याः)

    श्रीदेव्याः (Shri Devi) चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम् । चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये ॥ १ ॥ कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम् । लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये ॥ २ ॥ ॥ इति श्रीदेव्याः प्रातःस्मरणम् ॥

    Shri Bhagavad Gita Stotra (श्रीभगवद्भक्तानाम्)

    श्रीभगवद्भक्तानाम् प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक- व्यासाम्बरीषशुकशौनक भीष्मदाल्भ्यान् । रुक्माङ्गदार्जुनवसिष्ठविभीषणादीन् पुण्यानिमान् परमभागवतान् स्मरामि ॥ १ ॥ (पाण्डवगीतायाः) वाल्मीकिः सनकः सनन्दनतरुर्व्यासो वसिष्ठो भृगु- र्जाबालिर्जमदग्निकच्छजनको गर्गोऽङ्गिरा गौतमः । मान्धाता ऋतुपर्णवैन्यसगरा धन्यो दिलीपो नलः पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥ २ ॥ (मङ्गलाष्टकात्) ॥ इति प्रातः स्मरणम् ॥

    Saptashloki Gita Stota (सप्तश्लोकी गीता)

    सप्तश्लोकी गीता (Saptashloki Gita) ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ १ ॥ स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥ २ ॥ सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। ३ ।। कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥ ४ ॥ ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ५ ॥ सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ६ ॥ मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ ७ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सप्तश्लोकी गीता सम्पूर्णा ।

    Shri Mritunjay Stotra (श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम्)

    श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रम् (Shri Mritunjay Strotra) रत्नसानुशरासनं रजताद्रिशृङ्गनिकेतनं शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम् । क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ १ ॥ पञ्चपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् । भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २ ॥ मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिता‌ङ्ङ्घिसरोरुहम् । देवसिद्धतरङ्गिणीकरसिक्तशीतजटाधरं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ३ ॥ कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् । अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ४ ॥ यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम् । क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ५ ॥ भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् । भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ६ ॥ भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम् । भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ७ ॥ विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं संहरन्तमथ प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् । क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ ८ ॥ रुद्रं पशुपतिं स्थाणं नीलकण्ठमुमापतिम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ ९ ॥ कालकण्ठं कलामूर्ति कालाग्निं कालनाशनम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ १० ॥ नीलकण्ठं विरूपाक्षं निर्मलं निरुपद्रवम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ १२ ॥ वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ ११ ॥ देवदेवं जगन्नाथं देवेशमृषभध्वजम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।। १३ ।। अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधरं हरम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ १४ ।। आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपदकारणम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।। १५ ।। स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।। १६ ।। ॥ इति श्रीपद्मपुराणान्तर्गत उत्तरखण्डे श्रीमृत्युञ्जयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Radhapadal Stotram (श्री राधापटल स्तोत्रम्)

    || श्री राधापटल स्तोत्रम् || (Shri Radhapadal Stotram) ईश्वर उवाच ॥ प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य हृन्मन्त्रं च ततः पठेत् । रमार्णेन युतो राधाकान्तः प्रोच्यस्ततः परम् ॥ १॥ शरणं पदमुच्चार्य ममेति पदमुच्चरेत् । मनुरेष तु श्रीराधाकृष्णयोः परमाद्भुतः ॥ २॥ जपमात्रेण जीवानां दृष्टादृष्टफलप्रदः । अस्मात्परतरो मन्त्रो नास्ति नास्ति वरानने ॥ ३॥ यस्मिञ्जप्ते तयोरेव स्वीयबुद्धिस्तु साधके । जायते कृतकृत्योसौ तथा भवति शाम्भवि ॥ ४॥ ध्रुवमुच्चार्य हृन्मन्त्रं वदेदथ रमार्णकम् । पावकं शेषसंयुक्तं धनेशं विद्ययान्वितम् ॥ ५॥ कामगं विष्णुशय्याढ्यं नभोरे चकया युतम् । कुबेरं केशवासक्तं बालाक्षीं कण्ठसङ्गताम् ॥ ६॥ चक्रिणं कामरूपाङ्कं जनकोत्तममेव च । वातारूढं समुच्चार्य षडाननमथानिलम् ॥ ७॥ बालेन्दुनाधिष्ठयन्तु लोहितं वातगं तथा । ह्लादिनीन्तु समुच्चार्य जपेदेनं महामनुम् ॥ ८॥ देवजाप्यं स्वेष्टदत्तं हैतीयजनगोचरम् । श्रीराधाकृष्णयोरेव हवात्संयोगदं परम् ॥ ९॥ नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे । राधाधरसुधापानमत्ताय च नमो नमः ॥ १०॥ मालामन्त्रं प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय । एकविंशाक्षरोह्येष दृष्टा दृष्टफलप्रदः ॥ ११॥ अस्थिसञ्ज्ञश्च रुधिरारूढस्तु सुमुखाङ्कुरः । रोचिष्मान्मुखवृत्तस्थो धनेशः शेषसंयुतः ॥ १२॥ वारिदः केशवारूढो लम्पटश्च पिनाकिना । युतः श्रीकण्ठसरूढो भरद्वाजो निवृत्तियुक् ॥ १३॥ चक्रोयुक्तश्चक्रोधिन्या वामदृक्सङ्गतस्तथा । सदाशिवो निवृत्तस्थो भुजङ्गेशी च सूक्ष्मगा ॥ १४॥ वज्रमुष्टिश्चन्द्रसंस्थो वृषघ्नो मात्रिकादिगः । पूर्वार्द्धमेतन्निर्णीतं परार्द्धं प्रोच्यतेधुना ॥ १५॥ हृदा रोचिष्मताशाकं नृसिंहास्त्रोरसि स्थितः । खड्गीशो देवमातृस्थोनुस्वारेण विभाषितः ॥ १६॥ दाता शेषासनस्थश्च वारुणो वातसङ्गतः । नरःश्रीकण्ठसंसक्तः समुच्चार्यो मनीषणा ॥ १७॥ शङ्कुकर्णः पावकेन सङ्गतो मायया पुनः । सुरेशः केशवारूढो शौरी श्रीकण्ठसङ्गतः ॥ १८॥ चञ्चलो व्योमरूपस्थो ह्लादिनीरुचिरेण च । केशवाङ्कगता चैव परार्द्धोयमुदाहृतः ॥ १९॥ इति श्रीराधापटलं समाप्तिमगात् ॥

    Shiva Panchakshari Stotram (शिव पंचाक्षरि स्तोत्रम्)

    शिव पंचाक्षरि स्तोत्रम् (Shiva Panchakshari Stotram) ॐ नमः शिवाय शिवाय नमः ॐ ॐ नमः शिवाय शिवाय नमः ॐ नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय । नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मै "न" काराय नमः शिवाय ॥ 1 ॥ मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय । मंदार मुख्य बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै "म" काराय नमः शिवाय ॥ 2 ॥ शिवाय गौरी वदनाब्ज बृंद सूर्याय दक्षाध्वर नाशकाय । श्री नीलकंठाय वृषभध्वजाय तस्मै "शि" काराय नमः शिवाय ॥ 3 ॥ वशिष्ठ कुंभोद्भव गौतमार्य मुनींद्र देवार्चित शेखराय । चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै "व" काराय नमः शिवाय ॥ 4 ॥ यज्ञ स्वरूपाय जटाधराय पिनाक हस्ताय सनातनाय । दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै "य" काराय नमः शिवाय ॥ 5 ॥ पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिव सन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

    Shivparadha Kshamapana Stotram (शिवापराध क्षमापण स्तोत्रम्)

    शिवापराध क्षमापण स्तोत्रम् (Shivparadha Kshamapana Stotram) आदौ कर्मप्रसंगात्कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः । यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 1॥ बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेंद्रियेभ्यो भवगुणजनिताः जंतवो मां तुदंति । नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 2॥ प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पंचभिर्मर्मसंधौ दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादुसौख्ये निषण्णः । शैवीचिंताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 3॥ वार्धक्ये चेंद्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढहीनं च दीनम् । मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 4॥ स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहृतं गांगतोयं पूजार्थं वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खंडबिल्वीदलानि । नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गंधधूपैः त्वदर्थं क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 5॥ दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिंगं नो लिप्तं चंदनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः । धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 6॥ नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गानुसारे । वर् ब्रह्ममार्गे सुसारे ज्ञातो धर्मो विचारैः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 7॥ ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमंत्रैः । नो तप्तं गांगातीरे व्रतजपनियमैः रुद्रजाप्यैर्न वेदैः क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 8॥ नग्नो निःसंगशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहांधकारो नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् । उन्मन्याऽवस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 9॥ स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुंभके (कुंडले) सूक्ष्ममार्गे शांते स्वांते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपेऽपराख्ये । लिंगज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 10॥ हृद्यं वेदांतवेद्यं हृदयसरसिजे दीप्तमुद्यत्प्रकाशं सत्यं शांतस्वरूपं सकलमुनिमनःपद्मषंडैकवेद्यम् । जाग्रत्स्वप्ने सुषुप्तौ त्रिगुणविरहितं शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शंभो ॥ 11॥ चंद्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गंगाधरे शंकरे सर्पैर्भूषितकंठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे । युगले दंतित्वक्कृतसुंदरांबरधरे त्रैलोक्यसारे हरे मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमचलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ 12॥ किं वाऽनेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् । ज्ञात्वैतत्क्षणभंगुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज मन श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ 13॥ पौरोहित्यं रजनिचरितं ग्रामणीत्वं नियोगो माठापत्यं ह्यनृतवचनं साक्षिवादः परान्नम् । ब्रह्मद्वेषः खलजनरतिः प्राणिनां निर्दयत्वं मा भूदेवं मम पशुपते जन्मजन्मांतरेषु ॥ 14॥ आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायांति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः । लक्ष्मीस्तोयतरंगभंगचपला विद्युच्चलं जीवितं तस्मात्त्वां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ 15॥ तस्मान्मां वंदे देवमुमापतिं सुरगुरुं वंदे जगत्कारणं वंदे पन्नगभूषणं मृगधरं वंदे पशूनां पतिम् । वंदे सूर्यशशांकवह्निनयनं वंदे मुकुंदप्रियं वंदे भक्तजनाश्रयं च वरदं वंदे शिवं शंकरम् ॥16॥ गात्रं भस्मसितं सितं च हसितं हस्ते कपालं सितं वर् स्मितं च खट्वांगं च सितं सितश्च वृषभः कर्णे सिते कुंडले । गंगा फेनसिता जटा पशुपतेश्चंद्रः सितो मूर्धनि सोऽयं सर्वसितो ददातु विभवं पापक्षयं सर्वदा ॥ 17॥ करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् । विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्ष्मस्व शिव शिव करुणाब्धे श्रीमहादेव शंभो ॥ 18॥ ॥ इति श्रीमद् शंकराचार्यकृत शिवापराधक्षमापणस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Uma Maheshwar Stotram (उमा महेश्वर स्तोत्रम्)

    उमा महेश्वर स्तोत्रम् (Uma Maheshwar Stotram) नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम् । नगेंद्रकन्यावृषकेतनाभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 1 ॥ नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम् । नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 2 ॥ नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां विरिंचिविष्ण्विंद्रसुपूजिताभ्याम् । विभूतिपाटीरविलेपनाभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 3 ॥ नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम् । जंभारिमुख्यैरभिवंदिताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 4 ॥ नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्यां पंचाक्षरीपंजररंजिताभ्याम् । प्रपंचसृष्टिस्थितिसंहृताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 5 ॥ नमः शिवाभ्यामतिसुंदराभ्यां अत्यंतमासक्तहृदंबुजाभ्याम् । अशेषलोकैकहितंकराभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 6 ॥ नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां कंकालकल्याणवपुर्धराभ्याम् । कैलासशैलस्थितदेवताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 7 ॥ नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्यां अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम् । अकुंठिताभ्यां स्मृतिसंभृताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 8 ॥ नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां रवींदुवैश्वानरलोचनाभ्याम् । राकाशशांकाभमुखांबुजाभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 9 ॥ नमः शिवाभ्यां जटिलंधराभ्यां जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम् । जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 10 ॥ नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्यां बिल्वच्छदामल्लिकदामभृद्भ्याम् । शोभावतीशांतवतीश्वराभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 11 ॥ नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्यां जगत्रयीरक्षणबद्धहृद्भ्याम् । समस्तदेवासुरपूजिताभ्यां नमो नमः शंकरपार्वतीभ्याम् ॥ 12 ॥ स्तोत्रं त्रिसंध्यं शिवपार्वतीभ्यां भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः । स सर्वसौभाग्यफलानि भुंक्ते शतायुरांते शिवलोकमेति ॥ 13 ॥

    Dwadash Jyotirlinga Stotram (द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम्)

    द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम् (Dwadash Jyotirlinga Stotram) लघु स्तोत्रम् सौराष्ट्रे सोमनाधंच श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालं ॐकारेत्वमामलेश्वरम् ॥ पर्ल्यां वैद्यनाधंच ढाकिन्यां भीम शंकरम् । सेतुबंधेतु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥ वारणाश्यांतु विश्वेशं त्रयंबकं गौतमीतटे । हिमालयेतु केदारं घृष्णेशंतु विशालके ॥ एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः । सप्त जन्म कृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥ संपूर्ण स्तोत्रम् सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चंद्रकलावतंसम् । भक्तप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये ॥ 1 ॥ श्रीशैलशृंगे विविधप्रसंगे शेषाद्रिशृंगेऽपि सदा वसंतम् । तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेनं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ॥ 2 ॥ अवंतिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् । अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम् ॥ 3 ॥ कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय । सदैव मांधातृपुरे वसंतं ॐकारमीशं शिवमेकमीडे ॥ 4 ॥ पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसं तं गिरिजासमेतम् । सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ॥ 5 ॥ यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च । सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि ॥ 6 ॥ श्रीताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः । श्रीरामचंद्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि ॥ 7 ॥ याम्ये सदंगे नगरेऽतिरम्ये विभूषितांगं विविधैश्च भोगैः । सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ॥ 8 ॥ सानंदमानंदवने वसंतं आनंदकंदं हतपापबृंदम् । वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ॥ 9 ॥ सह्याद्रिशीर्षे विमले वसंतं गोदावरितीरपवित्रदेशे । यद्दर्शनात् पातकं पाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यंबकमीशमीडे ॥ 10 ॥ महाद्रिपार्श्वे च तटे रमंतं संपूज्यमानं सततं मुनींद्रैः । सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे ॥ 11 ॥ इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसंतं च जगद्वरेण्यम् । वंदे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये ॥ 12 ॥ ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण । स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ॥

    Shiva Mahima Stotram (शिव महिम्ना स्तोत्रम्)

    शिव महिम्ना स्तोत्रम् (Shiva Mahimna Stotram) अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् ॥ महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः । अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥ 1 ॥ अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥ 2 ॥ मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः तव ब्रह्मन्​ किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ॥ 3 ॥ तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु । अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं विहंतुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥ 4 ॥ किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च । अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ॥ 5 ॥ अजन्मानो लोकाः किमवयववंतोऽपि जगतां अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ 6 ॥ त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ 7 ॥ महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तंत्रोपकरणम् । सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥ 8 ॥ ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये । समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवन्​ जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥ 9 ॥ तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कंधवपुषः । ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥ 10 ॥ अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकंडू-परवशान् । शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणांभोरुह-बलेः स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥ 11 ॥ अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः । अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥ 12 ॥ यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः । न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥ 13 ॥ अकांड-ब्रह्मांड-क्षयचकित-देवासुरकृपा विधेयस्याऽऽसीद्​ यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः । स कल्माषः कंठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भंग- व्यसनिनः ॥ 14 ॥ असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तंते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः । स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥ 15 ॥ मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम् । मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥ 16 ॥ वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते । जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥ 17 ॥ रथः क्षोणी यंता शतधृतिरगेंद्रो धनुरथो रथांगे चंद्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति । दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडंबर-विधिः विधेयैः क्रीडंत्यो न खलु परतंत्राः प्रभुधियः ॥ 18 ॥ हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः यदेकोने तस्मिन्​ निजमुदहरन्नेत्रकमलम् । गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥ 19 ॥ क्रतौ सुप्ते जाग्रत्​ त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते । अतस्त्वां संप्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ॥ 20 ॥ क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः । क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः ध्रुवं कर्तुः श्रद्धा-विधुरमभिचाराय हि मखाः ॥ 21 ॥ प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्​ भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा । धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसंतं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥ 22 ॥ स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि । यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥ 23 ॥ श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः । अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ 24 ॥ मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः । यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये दधत्यंतस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ॥ 25 ॥ त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च । परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ॥ 26 ॥ त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति । तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुंधानमणुभिः समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥ 27 ॥ भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् । अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ॥ 28 ॥ नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः । नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ॥ 29 ॥ बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः । जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥ 30 ॥ कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः । इति चकितममंदीकृत्य मां भक्तिराधाद् वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥ 31 ॥ असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिंधु-पात्रे सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥ 32 ॥ असुर-सुर-मुनींद्रैरर्चितस्येंदु-मौलेः ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य । सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदंताभिधानः रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥ 33 ॥ अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः । स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ॥ 34 ॥ महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः । अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥ 35 ॥ दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः । महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हंति षोडशीम् ॥ 36 ॥ कुसुमदशन-नामा सर्व-गंधर्व-राजः शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः । स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ॥ 37 ॥ सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः । व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः स्तवनमिदममोघं पुष्पदंतप्रणीतम् ॥ 38 ॥ श्री पुष्पदंत-मुख-पंकज-निर्गतेन स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण । कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥ 43 ॥ आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्व-भाषितम् । अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ॥ 39 ॥ तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥ 41 ॥ एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः । सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ॥ 42 ॥ इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः । अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥ 40 ॥ ॥ इति श्री पुष्पदंत विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ॥

    Daridrya Dahan Shiva Stotram (दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्रम्)

    दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्रम् (Daridrya Dahan Shiva Stotram) विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कर्णामृताय शशिशेखर धारणाय । कर्पूरकांति धवलाय जटाधराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 1 ॥ गौरीप्रियाय रजनीश कलाधराय कालांतकाय भुजगाधिप कंकणाय । गंगाधराय गजराज विमर्धनाय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 2 ॥ भक्तप्रियाय भवरोग भयापहाय उग्राय दुःख भवसागर तारणाय । ज्योतिर्मयाय गुणनाम सुनृत्यकाय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 3 ॥ चर्मांबराय शवभस्म विलेपनाय फालेक्षणाय मणिकुंडल मंडिताय । मंजीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 4 ॥ पंचाननाय फणिराज विभूषणाय हेमांकुशाय भुवनत्रय मंडिताय आनंद भूमि वरदाय तमोपयाय । दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 5 ॥ भानुप्रियाय भवसागर तारणाय कालांतकाय कमलासन पूजिताय । नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 6 ॥ रामप्रियाय रघुनाथ वरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णव तारणाय । पुण्याय पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 7 ॥ मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीताप्रियाय वृषभेश्वर वाहनाय । मातंगचर्म वसनाय महेश्वराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ 8 ॥ वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोग निवारणम् । सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादि वर्धनम् । त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्ग मवाप्नुयात् ॥ 9 ॥ ॥ इति श्री वसिष्ठ विरचितं दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Shiva Bhujanga Prayat Stotram (शिव भुजंग प्रयात स्तोत्रम्)

    शिव भुजंग प्रयात स्तोत्रम् (Shiva Bhujanga Prayat Stotram) कृपासागरायाशुकाव्यप्रदाय प्रणम्राखिलाभीष्टसंदायकाय । यतींद्रैरुपास्यांघ्रिपाथोरुहाय प्रबोधप्रदात्रे नमः शंकराय ॥1॥ चिदानंदरूपाय चिन्मुद्रिकोद्य- त्करायेशपर्यायरूपाय तुभ्यम् । मुदा गीयमानाय वेदोत्तमांगैः श्रितानंददात्रे नमः शंकराय ॥2॥ जटाजूटमध्ये पुरा या सुराणां धुनी साद्य कर्मंदिरूपस्य शंभोः गले मल्लिकामालिकाव्याजतस्ते विभातीति मन्ये गुरो किं तथैव ॥3॥ नखेंदुप्रभाधूतनम्रालिहार्दा- ंधकारव्रजायाब्जमंदस्मिताय । महामोहपाथोनिधेर्बाडबाय प्रशांताय कुर्मो नमः शंकराय ॥4॥ प्रणम्रांतरंगाब्जबोधप्रदात्रे दिवारात्रमव्याहतोस्राय कामम् । क्षपेशाय चित्राय लक्ष्म क्षयाभ्यां विहीनाय कुर्मो नमः शंकराय ॥5॥ प्रणम्रास्यपाथोजमोदप्रदात्रे सदांतस्तमस्तोमसंहारकर्त्रे । रजन्या मपीद्धप्रकाशाय कुर्मो ह्यपूर्वाय पूष्णे नमः शंकराय ॥6॥ नतानां हृदब्जानि फुल्लानि शीघ्रं करोम्याशु योगप्रदानेन नूनम् । प्रबोधाय चेत्थं सरोजानि धत्से प्रफुल्लानि किं भो गुरो ब्रूहि मह्यम् ॥7॥ प्रभाधूतचंद्रायुतायाखिलेष्ट- प्रदायानतानां समूहाय शीघ्रम्। प्रतीपाय नम्रौघदुःखाघपंक्ते- र्मुदा सर्वदा स्यान्नमः शंकराय ॥8॥ विनिष्कासितानीश तत्त्वावबोधा - न्नतानां मनोभ्यो ह्यनन्याश्रयाणि । रजांसि प्रपन्नानि पादांबुजातं गुरो रक्तवस्त्रापदेशाद्बिभर्षि ॥9॥ मतेर्वेदशीर्षाध्वसंप्रापकाया- नतानां जनानां कृपार्द्रैः कटाक्षैः । ततेः पापबृंदस्य शीघ्रं निहंत्रे स्मितास्याय कुर्मो नमः शंकराय ॥10॥ सुपर्वोक्तिगंधेन हीनाय तूर्णं पुरा तोटकायाखिलज्ञानदात्रे। प्रवालीयगर्वापहारस्य कर्त्रे पदाब्जम्रदिम्ना नमः शंकराय ॥11॥ भवांभोधिमग्नान्जनांदुःखयुक्तान् जवादुद्दिधीर्षुर्भवानित्यहोऽहम् । विदित्वा हि ते कीर्तिमन्यादृशांभो सुखं निर्विशंकः स्वपिम्यस्तयत्नः ॥12॥ ॥इति श्रीशंकराचार्य भुजंगप्रयातस्तोत्रम्॥

    Shri Kashivishwanatha Stotram (श्रीकाशीविश्वनाथस्तोत्रम्)

    श्रीकाशीविश्वनाथस्तोत्रम् (Shri Kashivishwanatha Stotram) कंठे यस्य लसत्करालगरलं गंगाजलं मस्तके वामांगे गिरिराजराजतनया जाया भवानी सती । नंदिस्कंदगणाधिराजसहिता श्रीविश्वनाथप्रभुः काशीमंदिरसंस्थितोऽखिलगुरुर्देयात्सदा मंगलम् ॥ 1॥ यो देवैरसुरैर्मुनींद्रतनयैर्गंधर्वयक्षोरगै- र्नागैर्भूतलवासिभिर्द्विजवरैः संसेवितः सिद्धये । या गंगोत्तरवाहिनी परिसरे तीर्थेरसंख्यैर्वृता सा काशी त्रिपुरारिराजनगरी देयात्सदा मंगलम् ॥ 2॥ तीर्थानां प्रवरा मनोरथकरी संसारपारापरा- नंदा नंदिगणेश्वरैरुपहिता देवैरशेषैः स्तुता । या शंभोर्मणिकुंडलैककणिका विष्णोस्तपोदीर्घिका सेयं श्रीमणिकर्णिका भगवती देयात्सदा मंगलम् ॥ 3॥ एषा धर्मपताकिनी तटरुहासेवावसन्नाकिनी पश्यन्पातकिनी भगीरथतपःसाफल्यदेवाकिनी । प्रेमारूढपताकिनी गिरिसुता सा केकरास्वाकिनी काश्यामुत्तरवाहिनी सुरनदी देयात्सदा मंगलम् ॥ 4॥ विघ्नावासनिवासकारणमहागंडस्थलालंबितः सिंदूरारुणपुंजचंद्रकिरणप्रच्छादिनागच्छविः । श्रीविश्वेश्वरवल्लभो गिरिजया सानंदकानंदितः स्मेरास्यस्तव ढुंढिराजमुदितो देयात्सदा मंगलम् ॥। 5॥ । केदारः कलशेश्वरः पशुपतिर्धर्मेश्वरो मध्यमो ज्येष्ठेशो पशुपश्च कंदुकशिवो विघ्नेश्वरो जंबुकः । चंद्रेशो ह्यमृतेश्वरो भृगुशिवः श्रीवृद्धकालेश्वरो मध्येशो मणिकर्णिकेश्वरशिवो देयात्सदा मंगलम् ॥ 6॥ गोकर्णस्त्वथ भारभूतनुदनुः श्रीचित्रगुप्तेश्वरो यक्षेशस्तिलपर्णसंगमशिवो शैलेश्वरः कश्यपः । नागेशोऽग्निशिवो निधीश्वरशिवोऽगस्तीश्वरस्तारक- ज्ञानेशोऽपि पितामहेश्वरशिवो देयात्सदा मंगलम् ॥ 7॥ ब्रह्मांडं सकलं मनोषितरसै रत्नैः पयोभिर्हरं खेलैः पूरयते कुटुंबनिलयान् शंभोर्विलासप्रदा । नानादिव्यलताविभूषितवपुः काशीपुराधीश्वरी श्रीविश्वेश्वरसुंदरी भगवती देयात्सदा मंगलम् ॥ 8॥ या देवी महिषासुरप्रमथनी या चंडमुंडापहा या शुंभासुररक्तबीजदमनी शक्रादिभिः संस्तुता । या शूलासिधनुःशराभयकरा दुर्गादिसंदक्षिणा- माश्रित्याश्रितविघ्नशंसमयतु देयात्सदा मंगलम् ॥ 9॥ आद्या श्रीर्विकटा ततस्तु विरजा श्रीमंगला पार्वती विख्याता कमला विशालनयना ज्येष्ठा विशिष्टानना । कामाक्षी च हरिप्रिया भगवती श्रीघंटघंटादिका मौर्या षष्टिसहस्रमातृसहिता देयात्सदा मंगलम् ॥ 10॥ आदौ पंचनदं प्रयागमपरं केदारकुंडं कुरु- क्षेत्रं मानसकं सरोऽमृतजलं शावस्य तीर्थं परम् । मत्स्योदर्यथ दंडखांडसलिलं मंदाकिनी जंबुकं घंटाकर्णसमुद्रकूपसहितो देयात्सदा मंगलम् ॥ 11॥ रेवाकुंडजलं सरस्वतिजलं दुर्वासकुंडं ततो लक्ष्मीतीर्थलवांकुशस्य सलिलं कंदर्पकुंडं तथा । दुर्गाकुंडमसीजलं हनुमतः कुंडप्रतापोर्जितः प्रज्ञानप्रमुखानि वः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 12॥ आद्यः कूपवरस्तु कालदमनः श्रीवृद्धकूपोऽपरो विख्यातस्तु पराशरस्तु विदितः कूपः सरो मानसः । जैगीषव्यमुनेः शशांकनृपतेः कूपस्तु धर्मोद्भवः ख्यातः सप्तसमुद्रकूपसहितो देयात्सदा मंगलम् ॥ 13॥ लक्ष्यीनायकबिंदुमाधवहरिर्लक्ष्मीनृसिंहस्ततो गोविंदस्त्वथ गोपिकाप्रियतमः श्रीनारदः केशवः । गंगाकेशववामनाख्यतदनु श्वेतो हरिः केशवः प्रह्लादादिसमस्तकेशवगणो देयात्सदा मंगलम् ॥ 14॥ लोलार्को विमलार्कमायुखरविः संवर्तसंज्ञो रवि- र्विख्यातो द्रुपदुःखखोल्कमरुणः प्रोक्तोत्तरार्को रविः । गंगार्कस्त्वथ वृद्धवृद्धिविबुधा काशीपुरीसंस्थिताः सूर्या द्वादशसंज्ञकाः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 15॥ आद्यो ढुंढिविनायको गणपतिश्चिंतामणिः सिद्धिदः सेनाविघ्नपतिस्तु वक्त्रवदनः श्रीपाशपाणिः प्रभुः । आशापक्षविनायकाप्रषकरो मोदादिकः षड्गुणो लोलार्कादिविनायकाः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 16॥। हेरंबो नलकूबरो गणपतिः श्रीभीमचंडीगणो विख्यातो मणिकर्णिकागणपतिः श्रीसिद्धिदो विघ्नपः । मुंडश्चंडमुखश्च कष्टहरणः श्रीदंडहस्तो गणः श्रीदुर्गाख्यगणाधिपः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 17॥ आद्यो भैरवभीषणस्तदपरः श्रीकालराजः क्रमा- च्छ्रीसंहारकभैरवस्त्वथ रुरुश्चोन्मत्तको भैरवः । क्रोधश्चंडकपालभैरववरः श्रीभूतनाथादयो ह्यष्टौ भैरवमूर्तयः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 18॥ आधातोऽंबिकया सह त्रिनयनः सार्धं गणैर्नंदितां काशीमाशु विशन् हरः प्रथमतो वार्षध्वजेऽवस्थितः । आयाता दश धेनवः सुकपिला दिव्यैः पयोभिर्हरं ख्यातं तद्वृषभध्वजेन कपिलं देयात्सदा मंगलम् ॥ 19॥ आनंदाख्यवनं हि चंपकवनं श्रीनैमिषं खांडवं पुण्यं चैत्ररथं त्वशाकविपिनं रंभावनं पावनम् । दुर्गारण्यमथोऽपि कैरववनं वृंदावनं पावनं विख्यातानि वनानि वः प्रतिदिनं देयात्सदा मंगलम् ॥ 20॥ अलिकुलदलनीलः कालदंष्ट्राकरालः सजलजलदनीलो व्यालयज्ञोपवीतः । अभयवरदहस्तो डामरोद्दामनादः सकलदुरितभक्षो मंगलं वो ददातु ॥ 21॥ अर्धांगे विकटा गिरींद्रतनया गौरी सती सुंदरी सर्वांगे विलसद्विभूतिधवलो कालो विशालेक्षणः । वीरेशः सहनंदिभृंगिसहितः श्रीविश्वनाथः प्रभुः काशीमंदिरसंस्थितोऽखिलगुरुर्देयात्सदा मंगलम् ॥ 22॥ यः प्रातः प्रयतः प्रसन्नमनसा प्रेमप्रमोदाकुलः ख्यातं तत्र विशिष्टपादभुवनेशेंद्रादिभिर्यत्स्तुतम् । प्रातः प्राङ्मुखमासनोत्तमगतो ब्रूयाच्छृणोत्यादरात् काशीवासमुखान्यवाप्य सततं प्रीते शिवे धूर्जटि ॥ 23॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं काशीविश्वनाथस्तोत्रम् ॥

    Nataraja Stotram (by Patanjali) (नटराज स्तोत्रं (पतंजलि कृतम्))

    नटराज स्तोत्रं (पतंजलि कृतम्) (Nataraja Stotram (by Patanjali)) अथ चरणशृंगरहित श्री नटराज स्तोत्रं सदंचित-मुदंचित निकुंचित पदं झलझलं-चलित मंजु कटकम् । पतंजलि दृगंजन-मनंजन-मचंचलपदं जनन भंजन करम् । कदंबरुचिमंबरवसं परममंबुद कदंब कविडंबक गलम् चिदंबुधि मणिं बुध हृदंबुज रविं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 1 ॥ हरं त्रिपुर भंजन-मनंतकृतकंकण-मखंडदय-मंतरहितं विरिंचिसुरसंहतिपुरंधर विचिंतितपदं तरुणचंद्रमकुटम् । परं पद विखंडितयमं भसित मंडिततनुं मदनवंचन परं चिरंतनममुं प्रणवसंचितनिधिं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 2 ॥ अवंतमखिलं जगदभंग गुणतुंगममतं धृतविधुं सुरसरित्- तरंग निकुरुंब धृति लंपट जटं शमनदंभसुहरं भवहरम् । शिवं दशदिगंतर विजृंभितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं हरं शशिधनंजयपतंगनयनं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 3 ॥ अनंतनवरत्नविलसत्कटककिंकिणिझलं झलझलं झलरवं मुकुंदविधि हस्तगतमद्दल लयध्वनिधिमिद्धिमित नर्तन पदम् । शकुंतरथ बर्हिरथ नंदिमुख भृंगिरिटिसंघनिकटं भयहरम् सनंद सनक प्रमुख वंदित पदं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 4 ॥ अनंतमहसं त्रिदशवंद्य चरणं मुनि हृदंतर वसंतममलम् कबंध वियदिंद्ववनि गंधवह वह्निमख बंधुरविमंजु वपुषम् । अनंतविभवं त्रिजगदंतर मणिं त्रिनयनं त्रिपुर खंडन परम् सनंद मुनि वंदित पदं सकरुणं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 5 ॥ अचिंत्यमलिवृंद रुचि बंधुरगलं कुरित कुंद निकुरुंब धवलम् मुकुंद सुर वृंद बल हंतृ कृत वंदन लसंतमहिकुंडल धरम् । अकंपमनुकंपित रतिं सुजन मंगलनिधिं गजहरं पशुपतिम् धनंजय नुतं प्रणत रंजनपरं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 6 ॥ परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दंतिमुख षण्मुखममुं मृडं कनक पिंगल जटं सनक पंकज रविं सुमनसं हिमरुचिम् । असंघमनसं जलधि जन्मगरलं कवलयंत मतुलं गुणनिधिम् सनंद वरदं शमितमिंदु वदनं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 7 ॥ अजं क्षितिरथं भुजगपुंगवगुणं कनक शृंगि धनुषं करलसत् कुरंग पृथु टंक परशुं रुचिर कुंकुम रुचिं डमरुकं च दधतम् । मुकुंद विशिखं नमदवंध्य फलदं निगम वृंद तुरगं निरुपमं स चंडिकममुं झटिति संहृतपुरं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 8 ॥ अनंगपरिपंथिनमजं क्षिति धुरंधरमलं करुणयंतमखिलं ज्वलंतमनलं दधतमंतकरिपुं सततमिंद्र सुरवंदितपदम् । उदंचदरविंदकुल बंधुशत बिंबरुचि संहति सुगंधि वपुषं पतंजलि नुतं प्रणव पंजर शुकं पर चिदंबर नटं हृदि भज ॥ 9 ॥ इति स्तवममुं भुजगपुंगव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः सदः प्रभुपद द्वितयदर्शनपदं सुललितं चरण शृंग रहितम् । सरः प्रभव संभव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शंकरपदं स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदम् ॥ 10 ॥ इति श्री पतंजलिमुनि प्रणीतं चरणशृंगरहित नटराज स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Shri Rama Raksha Stotram (श्री राम रक्षा स्तोत्रम्)

    श्री राम रक्षा स्तोत्रम् (Shri Rama Raksha Stotram) ॐ अस्य श्री रामरक्षा स्तोत्रमंत्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्री सीताराम चंद्रोदेवता अनुष्टुप् छंदः सीता शक्तिः श्रीमद् हनुमान् कीलकम् श्रीरामचंद्र प्रीत्यर्थे रामरक्षा स्तोत्रजपे विनियोगः ॥ ध्यानम् ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशर धनुषं बद्ध पद्मासनस्थं पीतं वासोवसानं नवकमल दलस्पर्थि नेत्रं प्रसन्नम् । वामांकारूढ सीतामुख कमलमिलल्लोचनं नीरदाभं नानालंकार दीप्तं दधतमुरु जटामंडलं रामचंद्रम् ॥ स्तोत्रम् चरितं रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम् । एकैकमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम् ॥ 1 ॥ ध्यात्वा नीलोत्पल श्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकी लक्ष्मणोपेतं जटामुकुट मंडितम् ॥ 2 ॥ सासितूण धनुर्बाण पाणिं नक्तं चरांतकम् । स्वलीलया जगत्त्रातु माविर्भूतमजं विभुम् ॥ 3 ॥ रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् । शिरो मे राघवः पातु फालं (भालं) दशरथात्मजः ॥ 4 ॥ कौसल्येयो दृशौपातु विश्वामित्रप्रियः शृती । घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ॥ 5 ॥ जिह्वां विद्यानिधिः पातु कंठं भरतवंदितः । स्कंधौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥ 6 ॥ करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् । मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जांबवदाश्रयः ॥ 7 ॥ सुग्रीवेशः कटिं पातु सक्थिनी हनुमत्-प्रभुः । ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुल विनाशकृत् ॥ 8 ॥ जानुनी सेतुकृत्-पातु जंघे दशमुखांतकः । पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः ॥ 9 ॥ एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥ 10 ॥ पाताल-भूतल-व्योम-चारिण-श्चद्म-चारिणः । न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥ 11 ॥ रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् । नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विंदति ॥ 12 ॥ जगज्जैत्रैक मंत्रेण रामनाम्नाभि रक्षितम् । यः कंठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥ 13 ॥ वज्रपंजर नामेदं यो रामकवचं स्मरेत् । अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥ 14 ॥ आदिष्टवान्-यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः । तथा लिखितवान्-प्रातः प्रबुद्धौ बुधकौशिकः ॥ 15 ॥ आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिराम-स्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥ 16 ॥ तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुंडरीक विशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनांबरौ ॥ 17 ॥ फलमूलाशिनौ दांतौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ 18 ॥ शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् । रक्षःकुल निहंतारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ 19 ॥ आत्त सज्य धनुषा विषुस्पृशा वक्षयाशुग निषंग संगिनौ । रक्षणाय मम रामलक्षणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ 20 ॥ सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । गच्छन् मनोरथान्नश्च (मनोरथोऽस्माकं) रामः पातु स लक्ष्मणः ॥ 21 ॥ रामो दाशरथि श्शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्सः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ॥ 22 ॥ वेदांतवेद्यो यज्ञेशः पुराण पुरुषोत्तमः । जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेय पराक्रमः ॥ 23 ॥ इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः ॥ 24 ॥ रामं दूर्वादल श्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । स्तुवंति नाभि-र्दिव्यै-र्नते संसारिणो नराः ॥ 25 ॥ रामं लक्ष्मण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । राजेंद्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शांतमूर्तिम् वंदे लोकाभिरामं रघुकुल तिलकं राघवं रावणारिम् ॥ 26 ॥ रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ 27 ॥ श्रीराम राम रघुनंदन राम राम श्रीराम राम भरताग्रज राम राम । श्रीराम राम रणकर्कश राम राम श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥ 28 ॥ श्रीराम चंद्र चरणौ मनसा स्मरामि श्रीराम चंद्र चरणौ वचसा गृह्णामि । श्रीराम चंद्र चरणौ शिरसा नमामि श्रीराम चंद्र चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 29 ॥ माता रामो मत्-पिता रामचंद्रः स्वामी रामो मत्-सखा रामचंद्रः । सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ 30 ॥ दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च (तु) जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघुनंदनम् ॥ 31 ॥ लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्रं शरण्यं प्रपद्ये ॥ 32 ॥ मनोजवं मारुत तुल्य वेगं जितेंद्रियं बुद्धिमतां वरिष्टम् । वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ 33 ॥ कूजंतं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्यकविता शाखां वंदे वाल्मीकि कोकिलम् ॥ 34 ॥ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयोभूयो नमाम्यहम् ॥ 35 ॥ भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् । तर्जनं यमदूतानां राम रामेति गर्जनम् ॥ 36 ॥ रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ 37 ॥ श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ 38 ॥ इति श्रीबुधकौशिकमुनि विरचितं श्रीराम रक्षास्तोत्रं संपूर्णम् । श्रीराम जयराम जयजयराम ।

    Shri Venkateshwara Stotram (श्री वेंकटेश्वर स्तोत्रम्)

    श्री वेंकटेश्वर स्तोत्रम् (Shri Venkateshwara Stotram) कमलाकुच चूचुक कुंकमतो नियतारुणि तातुल नीलतनो । कमलायत लोचन लोकपते विजयीभव वेंकट शैलपते ॥ सचतुर्मुख षण्मुख पंचमुख प्रमुखा खिलदैवत मौलिमणे । शरणागत वत्सल सारनिधे परिपालय मां वृष शैलपते ॥ अतिवेलतया तव दुर्विषहै रनु वेलकृतै रपराधशतैः । भरितं त्वरितं वृष शैलपते परया कृपया परिपाहि हरे ॥ अधि वेंकट शैल मुदारमते- र्जनताभि मताधिक दानरतात् । परदेवतया गदितानिगमैः कमलादयितान्न परंकलये ॥ कल वेणुर वावश गोपवधू शत कोटि वृतात्स्मर कोटि समात् । प्रति पल्लविकाभि मतात्-सुखदात् वसुदेव सुतान्न परंकलये ॥ अभिराम गुणाकर दाशरधे जगदेक धनुर्थर धीरमते । रघुनायक राम रमेश विभो वरदो भव देव दया जलधे ॥ अवनी तनया कमनीय करं रजनीकर चारु मुखांबुरुहम् । रजनीचर राजत मोमि हिरं महनीय महं रघुराममये ॥ सुमुखं सुहृदं सुलभं सुखदं स्वनुजं च सुकायम मोघशरम् । अपहाय रघूद्वय मन्यमहं न कथंचन कंचन जातुभजे ॥ विना वेंकटेशं न नाथो न नाथः सदा वेंकटेशं स्मरामि स्मरामि । हरे वेंकटेश प्रसीद प्रसीद प्रियं वेंकटॆश प्रयच्छ प्रयच्छ ॥ अहं दूरदस्ते पदां भोजयुग्म प्रणामेच्छया गत्य सेवां करोमि । सकृत्सेवया नित्य सेवाफलं त्वं प्रयच्छ पयच्छ प्रभो वेंकटेश ॥ अज्ञानिना मया दोषा न शेषान्विहितान् हरे । क्षमस्व त्वं क्षमस्व त्वं शेषशैल शिखामणे ॥

    Shri Rama Panch Ratna Stotram (श्री राम पंच रत्न स्तोत्रम्)

    श्री राम पंच रत्न स्तोत्रम् (Shri Rama Panch Ratna Stotram) कंजातपत्रायत लोचनाय कर्णावतंसोज्ज्वल कुंडलाय कारुण्यपात्राय सुवंशजाय नमोस्तु रामायसलक्ष्मणाय ॥ 1 ॥ विद्युन्निभांभोद सुविग्रहाय विद्याधरैस्संस्तुत सद्गुणाय वीरावतारय विरोधिहर्त्रे नमोस्तु रामायसलक्ष्मणाय ॥ 2 ॥ संसक्त दिव्यायुध कार्मुकाय समुद्र गर्वापहरायुधाय सुग्रीवमित्राय सुरारिहंत्रे नमोस्तु रामायसलक्ष्मणाय ॥ 3 ॥ पीतांबरालंकृत मध्यकाय पितामहेंद्रामर वंदिताय पित्रे स्वभक्तस्य जनस्य मात्रे नमोस्तु रामायसलक्ष्मणाय ॥ 4 ॥ नमो नमस्ते खिल पूजिताय नमो नमस्तेंदुनिभाननाय नमो नमस्ते रघुवंशजाय नमोस्तु रामायसलक्ष्मणाय ॥ 5 ॥ इमानि पंचरत्नानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः सर्वपाप विनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम् ॥ इति श्रीशंकराचार्य विरचित श्रीरामपंचरत्नं संपूर्णं

    Sri Vishnu Shata Naam Stotram (Vishnu Purana) (श्री विष्णु शत नाम स्तोत्रम् (विष्णु पुराण))

    श्री विष्णु शत नाम स्तोत्रम् (विष्णु पुराण) (Sri Vishnu Shata Naam Stotram (Vishnu Purana)) ॥ श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनामस्तोत्रम् ॥ वासुदेवं हृषीकेशं वामनं जलशायिनम् । जनार्दनं हरिं कृष्णं श्रीवक्षं गरुडध्वजम् ॥ 1 ॥ वाराहं पुंडरीकाक्षं नृसिंहं नरकांतकम् । अव्यक्तं शाश्वतं विष्णुमनंतमजमव्ययम् ॥ 2 ॥ नारायणं गदाध्यक्षं गोविंदं कीर्तिभाजनम् । गोवर्धनोद्धरं देवं भूधरं भुवनेश्वरम् ॥ 3 ॥ वेत्तारं यज्ञपुरुषं यज्ञेशं यज्ञवाहनम् । चक्रपाणिं गदापाणिं शंखपाणिं नरोत्तमम् ॥ 4 ॥ वैकुंठं दुष्टदमनं भूगर्भं पीतवाससम् । त्रिविक्रमं त्रिकालज्ञं त्रिमूर्तिं नंदकेश्वरम् ॥ 5 ॥ रामं रामं हयग्रीवं भीमं रऽउद्रं भवोद्भवम् । श्रीपतिं श्रीधरं श्रीशं मंगलं मंगलायुधम् ॥ 6 ॥ दामोदरं दमोपेतं केशवं केशिसूदनम् । वरेण्यं वरदं विष्णुमानंदं वासुदेवजम् ॥ 7 ॥ हिरण्यरेतसं दीप्तं पुराणं पुरुषोत्तमम् । सकलं निष्कलं शुद्धं निर्गुणं गुणशाश्वतम् ॥ 8 ॥ हिरण्यतनुसंकाशं सूर्यायुतसमप्रभम् । मेघश्यामं चतुर्बाहुं कुशलं कमलेक्षणम् ॥ 9 ॥ ज्योतीरूपमरूपं च स्वरूपं रूपसंस्थितम् । सर्वज्ञं सर्वरूपस्थं सर्वेशं सर्वतोमुखम् ॥ 10 ॥ ज्ञानं कूटस्थमचलं ज्ञ्हानदं परमं प्रभुम् । योगीशं योगनिष्णातं योगिसंयोगरूपिणम् ॥ 11 ॥ ईश्वरं सर्वभूतानां वंदे भूतमयं प्रभुम् । इति नामशतं दिव्यं वैष्णवं खलु पापहम् ॥ 12 ॥ व्यासेन कथितं पूर्वं सर्वपापप्रणाशनम् । यः पठेत् प्रातरुत्थाय स भवेद् वैष्णवो नरः ॥ 13 ॥ सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुसायुज्यमाप्नुयात् । चांद्रायणसहस्राणि कन्यादानशतानि च ॥ 14 ॥ गवां लक्षसहस्राणि मुक्तिभागी भवेन्नरः । अश्वमेधायुतं पुण्यं फलं प्राप्नोति मानवः ॥ 15 ॥ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनास्तोत्रम् ॥

    Lakshmi Nrishimha Karavalamba Stotram (लक्ष्मी नृसिंह करावलंब स्तोत्रम्)

    लक्ष्मी नृसिंह करावलंब स्तोत्रम् (Lakshmi Nrishimha Karavalamba Stotram) श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे भोगींद्रभोगमणिराजित पुण्यमूर्ते । योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपोत लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 1 ॥ ब्रह्मेंद्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटि संघट्टितांघ्रिकमलामलकांतिकांत । लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 2 ॥ संसारदावदहनाकरभीकरोरु-ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य । त्वत्पादपद्मसरसीरुहमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 3 ॥ संसारजालपतिततस्य जगन्निवास सर्वेंद्रियार्थ बडिशाग्र झषोपमस्य । प्रोत्कंपित प्रचुरतालुक मस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 4 ॥ संसारकूमपतिघोरमगाधमूलं संप्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य । दीनस्य देव कृपया पदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 5 ॥ संसारभीकरकरींद्रकराभिघात निष्पीड्यमानवपुषः सकलार्तिनाश । प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 6 ॥ संसारसर्पविषदिग्धमहोग्रतीव्र दंष्ट्राग्रकोटिपरिदष्टविनष्टमूर्तेः । नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरे लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 7 ॥ संसारवृक्षबीजमनंतकर्म-शाखायुतं करणपत्रमनंगपुष्पम् । आरुह्य दुःखफलितः चकितः दयालो लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 8 ॥ संसारसागरविशालकरालकाल नक्रग्रहग्रसितनिग्रहविग्रहस्य । व्यग्रस्य रागनिचयोर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 9 ॥ संसारसागरनिमज्जनमुह्यमानं दीनं विलोकय विभो करुणानिधे माम् । प्रह्लादखेदपरिहारपरावतार लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 10 ॥ संसारघोरगहने चरतो मुरारे मारोग्रभीकरमृगप्रचुरार्दितस्य । आर्तस्य मत्सरनिदाघसुदुःखितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 11 ॥ बद्ध्वा गले यमभटा बहु तर्जयंत कर्षंति यत्र भवपाशशतैर्युतं माम् । एकाकिनं परवशं चकितं दयालो लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 12 ॥ लक्ष्मीपते कमलनाभ सुरेश विष्णो यज्ञेश यज्ञ मधुसूदन विश्वरूप । ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 13 ॥ एकेन चक्रमपरेण करेण शंख-मन्येन सिंधुतनयामवलंब्य तिष्ठन् । वामेतरेण वरदाभयपद्मचिह्नं लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 14 ॥ अंधस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य चोरैर्महाबलिभिरिंद्रियनामधेयैः । मोहांधकारकुहरे विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 15 ॥ प्रह्लादनारदपराशरपुंडरीक-व्यासादिभागवतपुंगवहृन्निवास । भक्तानुरक्तपरिपालनपारिजात लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलंबम् ॥ 16 ॥ लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन स्तोत्रं कृतं शुभकरं भुवि शंकरेण । ये तत्पठंति मनुजा हरिभक्तियुक्ता-स्ते यांति तत्पदसरोजमखंडरूपम् ॥ 17 ॥

    Shri Vishnu Ashtottara Satanam Stotram (श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्)

    श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् (Shri Vishnu Ashtottara Satanam Stotram) अष्टोत्तरशतं नाम्नां विष्णोरतुलतेजसः । यस्य श्रवणमात्रेण नरो नारायणो भवेत् ॥ 1 ॥ विष्णुर्जिष्णुर्वषट्कारो देवदेवो वृषाकपिः । [वृषापतिः] दामोदरो दीनबंधुरादिदेवोऽदितेस्तुतः ॥ 2 ॥ पुंडरीकः परानंदः परमात्मा परात्परः । परशुधारी विश्वात्मा कृष्णः कलिमलापहा ॥ 3 ॥ कौस्तुभोद्भासितोरस्को नरो नारायणो हरिः । हरो हरप्रियः स्वामी वैकुंठो विश्वतोमुखः ॥ 4 ॥ हृषीकेशोऽप्रमेयात्मा वराहो धरणीधरः । वामनो वेदवक्ता च वासुदेवः सनातनः ॥ 5 ॥ रामो विरामो विरजो रावणारी रमापतिः । वैकुंठवासी वसुमान् धनदो धरणीधरः ॥ 6 ॥ धर्मेशो धरणीनाथो ध्येयो धर्मभृतांवरः । सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ 7 ॥ सर्वगः सर्ववित्सर्वः शरण्यः साधुवल्लभः । [सर्वदः] कौसल्यानंदनः श्रीमान् राक्षसःकुलनाशकः ॥ 8 ॥ जगत्कर्ता जगद्धर्ता जगज्जेता जनार्तिहा । जानकीवल्लभो देवो जयरूपो जलेश्वरः ॥ 9 ॥ क्षीराब्धिवासी क्षीराब्धितनयावल्लभस्तथा । शेषशायी पन्नगारिवाहनो विष्टरश्रवः ॥ 10 ॥ माधवो मथुरानाथो मुकुंदो मोहनाशनः । दैत्यारिः पुंडरीकाक्षो ह्यच्युतो मधुसूदनः ॥ 11 ॥ सोमसूर्याग्निनयनो नृसिंहो भक्तवत्सलः । नित्यो निरामयश्शुद्धो वरदेवो जगत्प्रभुः ॥ 12 ॥ [नरदेवो] हयग्रीवो जितरिपुरुपेंद्रो रुक्मिणीपतिः । सर्वदेवमयः श्रीशः सर्वाधारः सनातनः ॥ 13 ॥ सौम्यः सौम्यप्रदः स्रष्टा विष्वक्सेनो जनार्दनः । यशोदातनयो योगी योगशास्त्रपरायणः ॥ 14 ॥ रुद्रात्मको रुद्रमूर्तिः राघवो मधुसूधनः । [रुद्रसूदनः] इति ते कथितं दिव्यं नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥ 15 ॥ सर्वपापहरं पुण्यं दिव्योरतुलतेजसः । दुःखदारिद्र्यदौर्भाग्यनाशनं सुखवर्धनम् ॥ 16 ॥ सर्वसंपत्करं सौम्यं महापातकनाशनम् । प्रातरुत्थाय विपेंद्र पठेदेकाग्रमानसः ॥ 17 ॥ तस्य नश्यंति विपदां राशयः सिद्धिमाप्नुयात् ॥ 18 ॥ इति श्री विष्णोः अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् ॥

    Shri Krishna Ashtottara Sata Nama Stotram (श्रीकृष्णाष्टोत्तरशत नामस्तोत्रं)

    श्रीकृष्णाष्टोत्तरशत नामस्तोत्रं (Sri Krishna Ashtottara Sata Nama Stotram) श्रीगोपालकृष्णाय नमः ॥ श्रीशेष उवाच ॥ ॐ अस्य श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य। श्रीशेष ऋषिः ॥ अनुष्टुप् छंदः ॥ श्रीकृष्णोदेवता ॥ श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामजपे विनियोगः ॥ ॐ श्रीकृष्णः कमलानाथो वासुदेवः सनातनः । वसुदेवात्मजः पुण्यो लीलामानुषविग्रहः ॥ 1 ॥ श्रीवत्सकौस्तुभधरो यशोदावत्सलो हरिः । चतुर्भुजात्तचक्रासिगदा शंखाद्युदायुधः ॥ 2 ॥ देवकीनंदनः श्रीशो नंदगोपप्रियात्मजः । यमुनावेगसंहारी बलभद्रप्रियानुजः ॥ 3 ॥ पूतनाजीवितहरः शकटासुरभंजनः । नंदव्रजजनानंदी सच्चिदानंदविग्रहः ॥ 4 ॥ नवनीतविलिप्तांगो नवनीतनटोऽनघः । नवनीतनवाहारो मुचुकुंदप्रसादकः ॥ 5 ॥ षोडशस्त्री सहस्रेश स्रिभंगि मधुराकृतिः । शुकवागमृताब्धींदुर्गोविंदो गोविदांपतिः ॥ 6 ॥ वत्सवाटचरोऽनंतो धेनुकासुरभंजनः । तृणीकृततृणावर्तो यमलार्जुनभंजनः ॥ 7 ॥ उत्तानतालभेत्ता च तमालश्यामलाकृतिः । गोपगोपीश्वरो योगी सूर्यकोटिसमप्रभः ॥ 8 ॥ इलापतिः परंज्योतिर्यादवेंद्रो यदूद्वहः । वनमाली पीतवासाः पारिजातापहारकः ॥ 9 ॥ गोवर्धनाचलोद्धर्ता गोपालः सर्वपालकः । अजो निरंजनः कामजनकः कंजलोचनः ॥ 10 ॥ मधुहा मथुरानाथो द्वारकानायको बली । वृंदावनांतसंचारी तुलसीदामभूषणः ॥ 11 ॥ श्यमंतकमणेर्हर्ता नरनारायणात्मकः । कुब्जाकृष्णांबरधरो मायी परमपूरुषः ॥ 12 ॥ मुष्टिकासुरचाणूरमहायुद्धविशारदः । संसारवैरी कंसारिर्मुरारिर्नरकांतकः ॥ 13 ॥ अनादिब्रह्मचारी च कृष्णाव्यसनकर्षकः । शिशुपालशिरश्छेत्ता दुर्योधनकुलांतकः ॥ 14 ॥ विदुराक्रूरवरदो विश्वरूपप्रदर्शकः । सत्यवाक् सत्यसंकल्पः सत्यभामारतो जयी ॥ 15 ॥ सुभद्रापूर्वजो विष्णुर्भीष्ममुक्तिप्रदायकः । जगद्गुरुर्जगन्नाथो वेणुनादविशारदः ॥ 16 ॥ वृषभासुरविध्वंसी बाणासुरबलांतकः । युधिष्ठिरप्रतिष्ठाता बर्हिबर्हावतंसकः ॥ 17 ॥ पार्थसारथिरव्यक्तो गीतामृतमहोदधिः । कालीयफणिमाणिक्यरंजितश्रीपदांबुजः ॥ 18 ॥ दामोदरो यज्ञभोक्ता दानवेंद्रविनाशकः । नारायणः परंब्रह्म पन्नगाशनवाहनः ॥ 19 ॥ जलक्रीडासमासक्त गोपीवस्त्रापहारकः । पुण्यश्लोकस्तीर्थपादो वेदवेद्यो दयानिधिः ॥ 20 ॥ सर्वतीर्थात्मकः सर्वग्रहरुपी परात्परः । एवं श्रीकृष्णदेवस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥ 21 ॥ कृष्णनामामृतं नाम परमानंदकारकम् । अत्युपद्रवदोषघ्नं परमायुष्यवर्धनम् ॥ 22 ॥ ॥ इति श्रीनारदपंचरात्रे ज्ञानामृतसारे चतुर्थरात्रे उमामहेश्वरसंवादे धरणीशेषसंवादे श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Shri Ram Aapaduddharak Stotram (श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम्)

    श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम् (Shri Ram Aapaduddharak Stotram) आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ नमः कोदंडहस्ताय संधीकृतशराय च । दंडिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 1 ॥ आपन्नजनरक्षैकदीक्षायामिततेजसे । नमोऽस्तु विष्णवे तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ 2 ॥ पदांभोजरजस्स्पर्शपवित्रमुनियोषिते । नमोऽस्तु सीतापतये रामायापन्निवारिणे ॥ 3 ॥ दानवेंद्रमहामत्तगजपंचास्यरूपिणे । नमोऽस्तु रघुनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ 4 ॥ महिजाकुचसंलग्नकुंकुमारुणवक्षसे । नमः कल्याणरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 5 ॥ पद्मसंभव भूतेश मुनिसंस्तुतकीर्तये । नमो मार्तांडवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 6 ॥ हरत्यार्तिं च लोकानां यो वा मधुनिषूदनः । नमोऽस्तु हरये तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ 7 ॥ तापकारणसंसारगजसिंहस्वरूपिणे । नमो वेदांतवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 8 ॥ रंगत्तरंगजलधिगर्वहृच्छरधारिणे । नमः प्रतापरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 9 ॥ दारोपहितचंद्रावतंसध्यातस्वमूर्तये । नमः सत्यस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 10 ॥ तारानायकसंकाशवदनाय महौजसे । नमोऽस्तु ताटकाहंत्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 11 ॥ रम्यसानुलसच्चित्रकूटाश्रमविहारिणे । नमः सौमित्रिसेव्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 12 ॥ सर्वदेवहितासक्त दशाननविनाशिने । नमोऽस्तु दुःखध्वंसाय रामायापन्निवारिणे ॥ 13 ॥ रत्नसानुनिवासैक वंद्यपादांबुजाय च । नमस्त्रैलोक्यनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ 14 ॥ संसारबंधमोक्षैकहेतुधामप्रकाशिने । नमः कलुषसंहर्त्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 15 ॥ पवनाशुग संक्षिप्त मारीचादि सुरारये । नमो मखपरित्रात्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 16 ॥ दांभिकेतरभक्तौघमहदानंददायिने । नमः कमलनेत्राय रामायापन्निवारिणे ॥ 17 ॥ लोकत्रयोद्वेगकर कुंभकर्णशिरश्छिदे । नमो नीरददेहाय रामायापन्निवारिणे ॥ 18 ॥ काकासुरैकनयनहरल्लीलास्त्रधारिणे । नमो भक्तैकवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 19 ॥ भिक्षुरूपसमाक्रांत बलिसर्वैकसंपदे । नमो वामनरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 20 ॥ राजीवनेत्रसुस्पंद रुचिरांगसुरोचिषे । नमः कैवल्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 21 ॥ मंदमारुतसंवीत मंदारद्रुमवासिने । नमः पल्लवपादाय रामायापन्निवारिणे ॥ 22 ॥ श्रीकंठचापदलनधुरीणबलबाहवे । नमः सीतानुषक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 23 ॥ राजराजसुहृद्योषार्चित मंगलमूर्तये । नम इक्ष्वाकुवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 24 ॥ मंजुलादर्शविप्रेक्षणोत्सुकैकविलासिने । नमः पालितभक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 25 ॥ भूरिभूधर कोदंडमूर्ति ध्येयस्वरूपिणे । नमोऽस्तु तेजोनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 26 ॥ योगींद्रहृत्सरोजातमधुपाय महात्मने । नमो राजाधिराजाय रामायापन्निवारिणे ॥ 27 ॥ भूवराहस्वरूपाय नमो भूरिप्रदायिने । नमो हिरण्यगर्भाय रामायापन्निवारिणे ॥ 28 ॥ योषांजलिविनिर्मुक्त लाजांचितवपुष्मते । नमः सौंदर्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 29 ॥ नखकोटिविनिर्भिन्नदैत्याधिपतिवक्षसे । नमो नृसिंहरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 30 ॥ मायामानुषदेहाय वेदोद्धरणहेतवे । नमोऽस्तु मत्स्यरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 31 ॥ मितिशून्य महादिव्यमहिम्ने मानितात्मने । नमो ब्रह्मस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 32 ॥ अहंकारेतरजन स्वांतसौधविहारिणे । नमोऽस्तु चित्स्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 33 ॥ सीतालक्ष्मणसंशोभिपार्श्वाय परमात्मने । नमः पट्टाभिषिक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 34 ॥ अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ । आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ॥ 35 ॥ सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । तिष्ठन्ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ 36 ॥ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ फलश्रुति इमं स्तवं भगवतः पठेद्यः प्रीतमानसः । प्रभाते वा प्रदोषे वा रामस्य परमात्मनः ॥ 1 ॥ स तु तीर्त्वा भवांबोधिमापदस्सकलानपि । रामसायुज्यमाप्नोति देवदेवप्रसादतः ॥ 2 ॥ कारागृहादिबाधासु संप्राप्ते बहुसंकटे । आपन्निवारकस्तोत्रं पठेद्यस्तु यथाविधिः ॥ 3 ॥ संयोज्यानुष्टुभं मंत्रमनुश्लोकं स्मरन्विभुम् । सप्ताहात्सर्वबाधाभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ 4 ॥ द्वात्रिंशद्वारजपतः प्रत्यहं तु दृढव्रतः । वैशाखे भानुमालोक्य प्रत्यहं शतसंख्यया ॥ 5 ॥ धनवान् धनदप्रख्यस्स भवेन्नात्र संशयः । बहुनात्र किमुक्तेन यं यं कामयते नरः ॥ 6 ॥ तं तं काममवाप्नोति स्तोत्रेणानेन मानवः । यंत्रपूजाविधानेन जपहोमादितर्पणैः ॥ 7 ॥ यस्तु कुर्वीत सहसा सर्वान्कामानवाप्नुयात् । इह लोके सुखी भूत्वा परे मुक्तो भविष्यति ॥ 8 ॥

    Shri Rama Bhujanga Prayat Stotram (श्री राम भुजंग प्रयात स्तोत्रम्)

    श्री राम भुजंग प्रयात स्तोत्रम् (Shri Rama Bhujanga Prayat Stotram) विशुद्धं परं सच्चिदानंदरूपं गुणाधारमाधारहीनं वरेण्यम् । महांतं विभांतं गुहांतं गुणांतं सुखांतं स्वयं धाम रामं प्रपद्ये ॥ 1 ॥ शिवं नित्यमेकं विभुं तारकाख्यं सुखाकारमाकारशून्यं सुमान्यम् । महेशं कलेशं सुरेशं परेशं नरेशं निरीशं महीशं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ यदावर्णयत्कर्णमूलेऽंतकाले शिवो राम रामेति रामेति काश्याम् । तदेकं परं तारकब्रह्मरूपं भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 3 ॥ महारत्नपीठे शुभे कल्पमूले सुखासीनमादित्यकोटिप्रकाशम् । सदा जानकीलक्ष्मणोपेतमेकं सदा रामचंद्रं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 4 ॥ क्वणद्रत्नमंजीरपादारविंदं लसन्मेखलाचारुपीतांबराढ्यम् । महारत्नहारोल्लसत्कौस्तुभांगं नदच्चंचरीमंजरीलोलमालम् ॥ 5 ॥ लसच्चंद्रिकास्मेरशोणाधराभं समुद्यत्पतंगेंदुकोटिप्रकाशम् । नमद्ब्रह्मरुद्रादिकोटीररत्न स्फुरत्कांतिनीराजनाराधितांघ्रिम् ॥ 6 ॥ पुरः प्रांजलीनांजनेयादिभक्तान् स्वचिन्मुद्रया भद्रया बोधयंतम् । भजेऽहं भजेऽहं सदा रामचंद्रं त्वदन्यं न मन्ये न मन्ये न मन्ये ॥ 7 ॥ यदा मत्समीपं कृतांतः समेत्य प्रचंडप्रकोपैर्भटैर्भीषयेन्माम् । तदाविष्करोषि त्वदीयं स्वरूपं सदापत्प्रणाशं सकोदंडबाणम् ॥ 8 ॥ निजे मानसे मंदिरे सन्निधेहि प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र । ससौमित्रिणा कैकयीनंदनेन स्वशक्त्यानुभक्त्या च संसेव्यमान ॥ 9 ॥ स्वभक्ताग्रगण्यैः कपीशैर्महीशै- -रनीकैरनेकैश्च राम प्रसीद । नमस्ते नमोऽस्त्वीश राम प्रसीद प्रशाधि प्रशाधि प्रकाशं प्रभो माम् ॥ 10 ॥ त्वमेवासि दैवं परं मे यदेकं सुचैतन्यमेतत्त्वदन्यं न मन्ये । यतोऽभूदमेयं वियद्वायुतेजो जलोर्व्यादिकार्यं चरं चाचरं च ॥ 11 ॥ नमः सच्चिदानंदरूपाय तस्मै नमो देवदेवाय रामाय तुभ्यम् । नमो जानकीजीवितेशाय तुभ्यं नमः पुंडरीकायताक्षाय तुभ्यम् ॥ 12 ॥ नमो भक्तियुक्तानुरक्ताय तुभ्यं नमः पुण्यपुंजैकलभ्याय तुभ्यम् । नमो वेदवेद्याय चाद्याय पुंसे नमः सुंदरायेंदिरावल्लभाय ॥ 13 ॥ नमो विश्वकर्त्रे नमो विश्वहर्त्रे नमो विश्वभोक्त्रे नमो विश्वमात्रे । नमो विश्वनेत्रे नमो विश्वजेत्रे नमो विश्वपित्रे नमो विश्वमात्रे ॥ 14 ॥ नमस्ते नमस्ते समस्तप्रपंच- -प्रभोगप्रयोगप्रमाणप्रवीण । मदीयं मनस्त्वत्पदद्वंद्वसेवां विधातुं प्रवृत्तं सुचैतन्यसिद्ध्यै ॥ 15 ॥ शिलापि त्वदंघ्रिक्षमासंगिरेणु प्रसादाद्धि चैतन्यमाधत्त राम । नरस्त्वत्पदद्वंद्वसेवाविधाना- -त्सुचैतन्यमेतीति किं चित्रमत्र ॥ 16 ॥ पवित्रं चरित्रं विचित्रं त्वदीयं नरा ये स्मरंत्यन्वहं रामचंद्र । भवंतं भवांतं भरंतं भजंतो लभंते कृतांतं न पश्यंत्यतोऽंते ॥ 17 ॥ स पुण्यः स गण्यः शरण्यो ममायं नरो वेद यो देवचूडामणिं त्वाम् । सदाकारमेकं चिदानंदरूपं मनोवागगम्यं परं धाम राम ॥ 18 ॥ प्रचंडप्रतापप्रभावाभिभूत- -प्रभूतारिवीर प्रभो रामचंद्र । बलं ते कथं वर्ण्यतेऽतीव बाल्ये यतोऽखंडि चंडीशकोदंडदंडम् ॥ 19 ॥ दशग्रीवमुग्रं सपुत्रं समित्रं सरिद्दुर्गमध्यस्थरक्षोगणेशम् । भवंतं विना राम वीरो नरो वा सुरो वाऽमरो वा जयेत्कस्त्रिलोक्याम् ॥ 20 ॥ सदा राम रामेति रामामृतं ते सदाराममानंदनिष्यंदकंदम् । पिबंतं नमंतं सुदंतं हसंतं हनूमंतमंतर्भजे तं नितांतम् ॥ 21 ॥ सदा राम रामेति रामामृतं ते सदाराममानंदनिष्यंदकंदम् । पिबन्नन्वहं नन्वहं नैव मृत्यो- -र्बिभेमि प्रसादादसादात्तवैव ॥ 22 ॥ असीतासमेतैरकोदंडभूषै- -रसौमित्रिवंद्यैरचंडप्रतापैः । अलंकेशकालैरसुग्रीवमित्रै- -ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः ॥ 23 ॥ अवीरासनस्थैरचिन्मुद्रिकाढ्यै- -रभक्तांजनेयादितत्त्वप्रकाशैः । अमंदारमूलैरमंदारमालै- -ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः ॥ 24 ॥ असिंधुप्रकोपैरवंद्यप्रतापै- -रबंधुप्रयाणैरमंदस्मिताढ्यैः । अदंडप्रवासैरखंडप्रबोधै- -ररामाभिधेयैरलं दैवतैर्नः ॥ 25 ॥ हरे राम सीतापते रावणारे खरारे मुरारेऽसुरारे परेति । लपंतं नयंतं सदाकालमेवं समालोकयालोकयाशेषबंधो ॥ 26 ॥ नमस्ते सुमित्रासुपुत्राभिवंद्य नमस्ते सदा कैकयीनंदनेड्य । नमस्ते सदा वानराधीशवंद्य नमस्ते नमस्ते सदा रामचंद्र ॥ 27 ॥ प्रसीद प्रसीद प्रचंडप्रताप प्रसीद प्रसीद प्रचंडारिकाल । प्रसीद प्रसीद प्रपन्नानुकंपिन् प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचंद्र ॥ 28 ॥ भुजंगप्रयातं परं वेदसारं मुदा रामचंद्रस्य भक्त्या च नित्यम् । पठन्संततं चिंतयन्स्वांतरंगे स एव स्वयं रामचंद्रः स धन्यः ॥ 29 ॥ इति श्रीमच्छंकराचार्य कृतं श्री राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम् ।

    Shri Panchayudha Stotram (श्री पंचायुध स्तोत्रम्)

    श्री पंचायुध स्तोत्रम् (Shri Panchayudha Stotram) स्फुरत्सहस्रारशिखातितीव्रं सुदर्शनं भास्करकोटितुल्यम् । सुरद्विषां प्राणविनाशि विष्णोः चक्रं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 1 ॥ विष्णोर्मुखोत्थानिलपूरितस्य यस्य ध्वनिर्दानवदर्पहंता । तं पांचजन्यं शशिकोटिशुभ्रं शंखं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ हिरण्मयीं मेरुसमानसारां कौमोदकीं दैत्यकुलैकहंत्रीम् । वैकुंठवामाग्रकराग्रमृष्टां गदां सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 3 ॥ यज्ज्यानिनादश्रवणात्सुराणां चेतांसि निर्मुक्तभयानि सद्यः । भवंति दैत्याशनिबाणवर्षैः शार्ङ्गं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 4 ॥ रक्षोऽसुराणां कठिनोग्रकंठ- -च्छेदक्षरत्‍क्षोणित दिग्धसारम् । तं नंदकं नाम हरेः प्रदीप्तं खड्गं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 5 ॥ इमं हरेः पंचमहायुधानां स्तवं पठेद्योऽनुदिनं प्रभाते । समस्त दुःखानि भयानि सद्यः पापानि नश्यंति सुखानि संति ॥ 6 ॥ वने रणे शत्रु जलाग्निमध्ये यदृच्छयापत्सु महाभयेषु । पठेत्विदं स्तोत्रमनाकुलात्मा सुखीभवेत्तत्कृत सर्वरक्षः ॥ 7 ॥ यच्चक्रशंखं गदखड्गशारंगिणं पीतांबरं कौस्तुभवत्सलांछितम् । श्रियासमेतोज्ज्वलशोभितांगं विष्णुं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ जले रक्षतु वाराहः स्थले रक्षतु वामनः । अटव्यां नारसिंहश्च सर्वतः पातु केशवः ॥ इति पंचायुध स्तोत्रम् ॥

    Dashaavatara Stotram (दशावतार स्तोत्रम्)

    दशावतार स्तोत्रम् (वेदांताचार्य कृतम्) (Dashaavatara Stotram) देवो नश्शुभमातनोतु दशधा निर्वर्तयन्भूमिकां रंगे धामनि लब्धनिर्भररसैरध्यक्षितो भावुकैः । यद्भावेषु पृथग्विधेष्वनुगुणान्भावान्स्वयं बिभ्रती यद्धर्मैरिह धर्मिणी विहरते नानाकृतिर्नायिका ॥ 1 ॥ निर्मग्नश्रुतिजालमार्गणदशादत्तक्षणैर्वीक्षणै- रंतस्तन्वदिवारविंदगहनान्यौदन्वतीनामपाम् । निष्प्रत्यूहतरंगरिंखणमिथः प्रत्यूढपाथश्छटा- डोलारोहसदोहलं भगवतो मात्स्यं वपुः पातु नः ॥ 2 ॥ अव्यासुर्भुवनत्रयीमनिभृतं कंडूयनैरद्रिणा निद्राणस्य परस्य कूर्मवपुषो निश्वासवातोर्मयः । यद्विक्षेपणसंस्कृतोदधिपयः प्रेंखोलपर्यंकिका- नित्यारोहणनिर्वृतो विहरते देवस्सहैव श्रिया ॥ 3 ॥ गोपायेदनिशं जगंति कुहनापोत्री पवित्रीकृत- ब्रह्मांडप्रलयोर्मिघोषगुरुभिर्घोणारवैर्घुर्घुरैः । यद्दंष्ट्रांकुरकोटिगाढघटनानिष्कंपनित्यस्थिति- र्ब्रह्मस्तंबमसौदसौ भगवतीमुस्तेवविश्वंभरा ॥ 4 ॥ प्रत्यादिष्टपुरातनप्रहरणग्रामःक्षणं पाणिजै- रव्यात्त्रीणि जगंत्यकुंठमहिमा वैकुंठकंठीरवः । यत्प्रादुर्भवनादवंध्यजठरायादृच्छिकाद्वेधसां- या काचित्सहसा महासुरगृहस्थूणापितामह्यभृत् ॥ 5 ॥ व्रीडाविद्धवदान्यदानवयशोनासीरधाटीभट- स्त्रैयक्षं मकुटं पुनन्नवतु नस्त्रैविक्रमो विक्रमः । यत्प्रस्तावसमुच्छ्रितध्वजपटीवृत्तांतसिद्धांतिभि- स्स्रोतोभिस्सुरसिंधुरष्टसुदिशासौधेषु दोधूयते ॥ 6 ॥ क्रोधाग्निं जमदग्निपीडनभवं संतर्पयिष्यन् क्रमा- दक्षत्रामिह संततक्ष य इमां त्रिस्सप्तकृत्वः क्षितिम् । दत्वा कर्मणि दक्षिणां क्वचन तामास्कंद्य सिंधुं वस- न्नब्रह्मण्यमपाकरोतु भगवानाब्रह्मकीटं मुनिः ॥ 7 ॥ पारावारपयोविशोषणकलापारीणकालानल- ज्वालाजालविहारहारिविशिखव्यापारघोरक्रमः । सर्वावस्थसकृत्प्रपन्नजनतासंरक्षणैकव्रती धर्मो विग्रहवानधर्मविरतिं धन्वी सतन्वीतु नः ॥ 8 ॥ फक्कत्कौरवपट्टणप्रभृतयः प्रास्तप्रलंबादय- स्तालांकास्यतथाविधा विहृतयस्तन्वंतु भद्राणि नः । क्षीरं शर्करयेव याभिरपृथग्भूताः प्रभूतैर्गुणै- राकौमारकमस्वदंतजगते कृष्णस्य ताः केलयः ॥ 9 ॥ नाथायैव नमः पदं भवतु नश्चित्रैश्चरित्रक्रमै- र्भूयोभिर्भुवनान्यमूनिकुहनागोपाय गोपायते । कालिंदीरसिकायकालियफणिस्फारस्फटावाटिका- रंगोत्संगविशंकचंक्रमधुरापर्याय चर्यायते ॥ 10 ॥ भाविन्या दशयाभवन्निह भवध्वंसाय नः कल्पतां कल्की विष्णुयशस्सुतः कलिकथाकालुष्यकूलंकषः । निश्शेषक्षतकंटके क्षितितले धाराजलौघैर्ध्रुवं धर्मं कार्तयुगं प्ररोहयति यन्निस्त्रिंशधाराधरः ॥ 11 ॥ इच्छामीन विहारकच्छप महापोत्रिन् यदृच्छाहरे रक्षावामन रोषराम करुणाकाकुत्स्थ हेलाहलिन् । क्रीडावल्लव कल्किवाहन दशाकल्किन्निति प्रत्यहं जल्पंतः पुरुषाः पुनंतु भुवनं पुण्यौघपण्यापणाः ॥ विद्योदन्वति वेंकटेश्वरकवौ जातं जगन्मंगलं देवेशस्यदशावतारविषयं स्तोत्रं विवक्षेत यः । वक्त्रे तस्य सरस्वती बहुमुखी भक्तिः परा मानसे शुद्धिः कापि तनौ दिशासु दशसु ख्यातिश्शुभा जृंभते ॥ इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतंत्रस्वतंत्रस्य श्रीमद्वेंकटनाथस्य वेदांताचार्यस्य कृतिषु दशावतारस्तोत्रम् ।

    Sudarshan Ashtottara Sata Naam Stotram (सुदर्शन अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम्)

    सुदर्शन अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम् (Sudarshan Ashtottara Sata Naam Stotram) सुदर्शनश्चक्रराजः तेजोव्यूहो महाद्युतिः । सहस्रबाहु-र्दीप्तांगः अरुणाक्षः प्रतापवान् ॥ 1॥ अनेकादित्यसंकाशः प्रोद्यज्ज्वालाभिरंजितः । सौदामिनी-सहस्राभः मणिकुंडल-शोभितः ॥ 2॥ पंचभूतमनोरूपो षट्कोणांतर-संस्थितः । हरांतः करणोद्भूत-रोषभीषण-विग्रहः ॥ 3॥ हरिपाणिलसत्पद्मविहारारमनोहरः । श्राकाररूपस्सर्वज्ञः सर्वलोकार्चितप्रभुः ॥ 4॥ चतुर्दशसहस्रारः चतुर्वेदमयो-ऽनलः । भक्तचांद्रमसज्योतिः भवरोग-विनाशकः ॥ 5॥ रेफात्मको मकारश्च रक्षोसृग्रूषितांगकः । सर्वदैत्यग्रीवनाल-विभेदन-महागजः ॥ 6॥ भीमदंष्ट्रोज्ज्वलाकारो भीमकर्मा विलोचनः । नीलवर्त्मा नित्यसुखो निर्मलश्री-र्निरंजनः ॥ 7॥ रक्तमाल्यांबरधरो रक्तचंदनरूषितः । रजोगुणाकृतिश्शूरो रक्षःकुल-यमोपमः ॥ 8॥ नित्यक्षेमकरः प्राज्ञः पाषंडजनखंडनः । नारायणाज्ञानुवर्ती नैगमांतःप्रकाशकः ॥ 9॥ बलिनंदनदोर्दंड-खंडनो विजयाकृतिः । मित्रभावी सर्वमयो तमोविध्वंसकस्तथा ॥ 10॥ रजस्सत्त्वतमोद्वर्ती त्रिगुणात्मा त्रिलोकधृत् । हरिमायागुणोपेतो-ऽव्ययो-ऽक्षस्वरूपभाक् ॥ 11॥ परमात्मा परंज्योतिः पंचकृत्य-परायणः । ज्ञानशक्ति-बलैश्वर्य-वीर्य-तेजः-प्रभामयः ॥ 12॥ सदसत्परमः पूर्णो वाङ्मयो वरदोऽच्युतः । जीवो गुरुर्हंसरूपः पंचाशत्पीठरूपकः ॥ 13॥ मातृकामंडलाध्यक्षो मधुध्वंसी मनोमयः । बुद्धिरूपश्चित्तसाक्षी सारो हंसाक्षरद्वयः ॥ 14॥ मंत्र-यंत्र-प्रभावज्ञो मंत्र-यंत्र-मयो विभुः । स्रष्टा क्रियास्पद-श्शुद्धः आधारश्चक्र-रूपकः ॥ 15॥ निरायुधो ह्यसंरंभः सर्वायुध-समन्वितः । ओम्काररूपी पूर्णात्मा आंकारस्साध्य-बंधनः ॥ 16॥ ऐंकारो वाक्प्रदो वग्मी श्रींकारैश्वर्यवर्धनः । क्लींकारमोहनाकारो हुंफट्क्षोभणाकृतिः ॥ 17॥ इंद्रार्चित-मनोवेगो धरणीभार-नाशकः । वीराराध्यो विश्वरूपः वैष्णवो विष्णुरूपकः ॥ 18॥ सत्यव्रतः सत्यधरः सत्यधर्मानुषंगकः' नारायणकृपाव्यूह-तेजश्चक्र-स्सुदर्शनः ॥ 19॥ ॥ श्री सुदर्शनाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं संपूर्णम्॥

    Shri Hari Stotram (श्री हरि स्तोत्रम्)

    श्री हरि स्तोत्रम् (जगज्जालपालम्) (Shri Hari Stotram) जगज्जालपालं कनत्कंठमालं शरच्चंद्रफालं महादैत्यकालम् । नभोनीलकायं दुरावारमायं सुपद्मासहायं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 1 ॥ सदांभोधिवासं गलत्पुष्पहासं जगत्सन्निवासं शतादित्यभासम् । गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 2 ॥ रमाकंठहारं श्रुतिव्रातसारं जलांतर्विहारं धराभारहारम् । चिदानंदरूपं मनोज्ञस्वरूपं धृतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 3 ॥ जराजन्महीनं परानंदपीनं समाधानलीनं सदैवानवीनम् । जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 4 ॥ कृताम्नायगानं खगाधीशयानं विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानम् । स्वभक्तानुकूलं जगद्वृक्षमूलं निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 5 ॥ समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं जगद्बिंबलेशं हृदाकाशवेशम् । सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं सुवैकुंठगेहं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 6 ॥ सुरालीबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठम् । सदा युद्धधीरं महावीरवीरं भवांभोधितीरं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 7 ॥ रमावामभागं तलालग्ननागं कृताधीनयागं गतारागरागम् । मुनींद्रैस्सुगीतं सुरैस्संपरीतं गुणौघैरतीतं भजेऽहं भजेऽहम् ॥ 8 ॥ फलश्रुति । इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं पठेदष्टकं कंठहारं मुरारेः । स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं जराजन्मशोकं पुनर्विंदते नो ॥ 9 ॥ इति श्री परमहंसस्वामि ब्रह्मानंदविरचितं श्रीहरिस्तोत्रम् ॥

    Maha Vishnu Stotram (महा विष्णु स्तोत्रम्)

    महा विष्णु स्तोत्रम् - गरुडगमन तव (Maha Vishnu Stotram) गरुडगमन तव चरणकमलमिह मनसि लसतु मम नित्यम् मनसि लसतु मम नित्यम् । मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ध्रु.॥ जलजनयन विधिनमुचिहरणमुख विबुधविनुत-पदपद्म मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 1॥ भुजगशयन भव मदनजनक मम जननमरण-भयहारिन् मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 2॥ शंखचक्रधर दुष्टदैत्यहर सर्वलोक-शरण मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 3॥ अगणित-गुणगण अशरणशरणद विदलित-सुररिपुजाल मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 4॥ भक्तवर्यमिह भूरिकरुणया पाहि भारतीतीर्थम् मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 5॥ इति जगद्गुरु शृंगेरी पीठाधिपति भारतीतीर्थस्वामिना विरचितं महाविष्णुस्तोत्रं संपूर्णम् ।

    Vasudeva Stotram (Mahabharata) (वासुदेव स्तोत्रम् (महाभारतम्))

    वासुदेव स्तोत्रम् (महाभारतम्) (Vasudeva Stotram (Mahabharata)) (श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि पंचषष्टितमोऽध्याये श्लो: 47) विश्वावसुर्विश्वमूर्तिर्विश्वेशो विष्वक्सेनो विश्वकर्मा वशी च । विश्वेश्वरो वासुदेवोऽसि तस्मा- -द्योगात्मानं दैवतं त्वामुपैमि ॥ 47 ॥ जय विश्व महादेव जय लोकहितेरत । जय योगीश्वर विभो जय योगपरावर ॥ 48 ॥ पद्मगर्भ विशालाक्ष जय लोकेश्वरेश्वर । भूतभव्यभवन्नाथ जय सौम्यात्मजात्मज ॥ 49 ॥ असंख्येयगुणाधार जय सर्वपरायण । नारायण सुदुष्पार जय शार्ङ्गधनुर्धर ॥ 50 ॥ जय सर्वगुणोपेत विश्वमूर्ते निरामय । विश्वेश्वर महाबाहो जय लोकार्थतत्पर ॥ 51 ॥ महोरगवराहाद्य हरिकेश विभो जय । हरिवास दिशामीश विश्वावासामिताव्यय ॥ 52 ॥ व्यक्ताव्यक्तामितस्थान नियतेंद्रिय सत्क्रिय । असंख्येयात्मभावज्ञ जय गंभीरकामद ॥ 53 ॥ अनंतविदित ब्रह्मन् नित्यभूतविभावन । कृतकार्य कृतप्रज्ञ धर्मज्ञ विजयावह ॥ 54 ॥ गुह्यात्मन् सर्वयोगात्मन् स्फुट संभूत संभव । भूताद्य लोकतत्त्वेश जय भूतविभावन ॥ 55 ॥ आत्मयोने महाभाग कल्पसंक्षेपतत्पर । उद्भावनमनोभाव जय ब्रह्मजनप्रिय ॥ 56 ॥ निसर्गसर्गनिरत कामेश परमेश्वर । अमृतोद्भव सद्भाव मुक्तात्मन् विजयप्रद ॥ 57 ॥ प्रजापतिपते देव पद्मनाभ महाबल । आत्मभूत महाभूत सत्वात्मन् जय सर्वदा ॥ 58 ॥ पादौ तव धरा देवी दिशो बाहु दिवं शिरः । मूर्तिस्तेऽहं सुराः कायश्चंद्रादित्यौ च चक्षुषी ॥ 59 ॥ बलं तपश्च सत्यं च कर्म धर्मात्मजं तव । तेजोऽग्निः पवनः श्वास आपस्ते स्वेदसंभवाः ॥ 60 ॥ अश्विनौ श्रवणौ नित्यं देवी जिह्वा सरस्वती । वेदाः संस्कारनिष्ठा हि त्वयीदं जगदाश्रितम् ॥ 61 ॥ न संख्या न परीमाणं न तेजो न पराक्रमम् । न बलं योगयोगीश जानीमस्ते न संभवम् ॥ 62 ॥ त्वद्भक्तिनिरता देव नियमैस्त्वां समाश्रिताः । अर्चयामः सदा विष्णो परमेशं महेश्वरम् ॥ 63 ॥ ऋषयो देवगंधर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः । पिशाचा मानुषाश्चैव मृगपक्षिसरीसृपाः ॥ 64 ॥ एवमादि मया सृष्टं पृथिव्यां त्वत्प्रसादजम् । पद्मनाभ विशालाक्ष कृष्ण दुःखप्रणाशन ॥ 65 ॥ त्वं गतिः सर्वभूतानां त्वं नेता त्वं जगद्गुरुः । त्वत्प्रसादेन देवेश सुखिनो विबुधाः सदा ॥ 66 ॥ पृथिवी निर्भया देव त्वत्प्रसादात्सदाऽभवत् । तस्माद्भव विशालाक्ष यदुवंशविवर्धनः ॥ 67 ॥ धर्मसंस्थापनार्थाय दैत्यानां च वधाय च । जगतो धारणार्थाय विज्ञाप्यं कुरु मे प्रभो ॥ 68 ॥ यत्तत्परमकं गुह्यं त्वत्प्रसादादिदं विभो । वासुदेव तदेतत्ते मयोद्गीतं यथातथम् ॥ 69 ॥ सृष्ट्वा संकर्षणं देवं स्वयमात्मानमात्मना । कृष्ण त्वमात्मनो साक्षी प्रद्युम्नं चात्मसंभवम् ॥ 70 ॥ प्रद्युम्नादनिरुद्धं त्वं यं विदुर्विष्णुमव्ययम् । अनिरुद्धोऽसृजन्मां वै ब्रह्माणं लोकधारिणम् ॥ 71 ॥ वासुदेवमयः सोऽहं त्वयैवास्मि विनिर्मितः । [तस्माद्याचामि लोकेश चतुरात्मानमात्मना।] विभज्य भागशोऽऽत्मानं व्रज मानुषतां विभो ॥ 72 ॥ तत्रासुरवधं कृत्वा सर्वलोकसुखाय वै । धर्मं प्राप्य यशः प्राप्य योगं प्राप्स्यसि तत्त्वतः ॥ 73 ॥ त्वां हि ब्रह्मर्षयो लोके देवाश्चामितविक्रम । तैस्तैर्हि नामभिर्युक्ता गायंति परमात्मकम् ॥ 74 ॥ स्थिताश्च सर्वे त्वयि भूतसंघाः कृत्वाश्रयं त्वां वरदं सुबाहो । अनादिमध्यांतमपारयोगं लोकस्य सेतुं प्रवदंति विप्राः ॥ 75 ॥ इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि पंचषष्टितमोऽध्याये वासुदेव स्तोत्रम् ।

    Shri Bhuvaraha Stotram (श्री भूवराह स्तोत्रम्)

    श्री भूवराह स्तोत्रम् (Shri Bhuvaraha Stotram) ऋषय ऊचु । जितं जितं तेऽजित यज्ञभावना त्रयीं तनूं स्वां परिधुन्वते नमः । यद्रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ 1 ॥ रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् । छंदांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम- स्स्वाज्यं दृशि त्वंघ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ 2 ॥ स्रुक्तुंड आसीत्स्रुव ईश नासयो- रिडोदरे चमसाः कर्णरंध्रे । प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते यच्चर्वणंते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ 3 ॥ दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं त्वं प्रायणीयो दयनीय दंष्ट्रः । जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ 4 ॥ सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः संस्थाविभेदास्तव देव धातवः । सत्राणि सर्वाणि शरीरसंधि- स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबंधनः ॥ 5 ॥ नमो नमस्तेऽखिलयंत्रदेवता द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने । वैराग्य भक्त्यात्मजयाऽनुभावित ज्ञानाय विद्यागुरवे नमॊ नमः ॥ 6 ॥ दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता विराजते भूधर भूस्सभूधरा । यथा वनान्निस्सरतो दता धृता मतंगजेंद्रस्य स पत्रपद्मिनी ॥ 7 ॥ त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं भूमंडले नाथ तदा धृतेन ते । चकास्ति शृंगोढघनेन भूयसा कुलाचलेंद्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ 8 ॥ संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता । विधेम चास्यै नमसा सह त्वया यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ 9 ॥ कः श्रद्धधीतान्यतमस्तव प्रभो रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् । न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये यो माययेदं ससृजेऽति विस्मयम् ॥ 10 ॥ विधुन्वता वेदमयं निजं वपु- र्जनस्तपः सत्यनिवासिनो वयम् । सटाशिखोद्धूत शिवांबुबिंदुभि- र्विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ 11 ॥ स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते यः कर्मणां पारमपारकर्मणः । यद्योगमाया गुण योग मोहितं विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥ 12 ॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे तृतीयस्कंधे श्री वराह प्रादुर्भावोनाम त्रयोदशोध्यायः ।

    Shri Mahishasura Mardini Stotram (Ayigiri Nandini) (श्री महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम् (अयिगिरि नंदिनि))

    श्री महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम् (अयिगिरि नंदिनि) (Shri Mahishasura Mardini Stotram (Ayigiri Nandini)) अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदिनुते गिरिवरविंध्यशिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते । भगवति हे शितिकंठकुटुंबिनि भूरिकुटुंबिनि भूरिकृते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 1 ॥ सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि कल्मषमोषिणि घोररते । [किल्बिष-, घोष-] दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिंधुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 2 ॥ अयि जगदंब मदंब कदंबवनप्रियवासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुंगहिमालय शृंगनिजालय मध्यगते । मधुमधुरे मधुकैटभगंजिनि कैटभभंजिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 3 ॥ अयि शतखंड विखंडितरुंड वितुंडितशुंड गजाधिपते रिपुगजगंड विदारणचंड पराक्रमशुंड मृगाधिपते । निजभुजदंड निपातितखंड विपातितमुंड भटाधिपते [-चंड] जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 4 ॥ अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते चतुरविचारधुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते । दुरितदुरीह दुराशय दुर्मति दानवदूत कृतांतमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 5 ॥ अयि शरणागत वैरिवधूवर वीरवराभयदायकरे त्रिभुवन मस्तक शूलविरोधि शिरोधिकृतामल शूलकरे । दुमिदुमितामर दुंदुभिनाद महो मुखरीकृत तिग्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 6 ॥ अयि निजहुंकृतिमात्र निराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते । शिव शिव शुंभ निशुंभ महाहव तर्पित भूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 7 ॥ धनुरनुसंग रणक्षणसंग परिस्फुरदंग नटत्कटके कनक पिशंग पृषत्कनिषंगरसद्भट शृंग हतावटुके । कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटद्बहुरंग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 8 ॥ सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते । धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 9 ॥ जय जय जप्य जये जय शब्दपरस्तुति तत्पर विश्वनुते भण भण भिंजिमि भिंकृतनूपुर सिंजितमोहित भूतपते । [झ-, झिं-] नटितनटार्ध नटीनटनायक नाटितनाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 10 ॥ अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते । सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 11 ॥ सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लक मल्लरते विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक भिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते । सितकृत फुल्लसमुल्लसितारुण तल्लज पल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 12 ॥ अविरलगंडगलन्मदमेदुर मत्तमतंगज राजपते त्रिभुवनभूषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते । अयि सुदतीजन लालसमानस मोहनमन्मथ राजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 13 ॥ कमलदलामल कोमलकांति कलाकलितामल भाललते सकलविलास कलानिलय क्रमकेलिचलत्कलहंसकुले । अलिकुल संकुल कुवलय मंडल मौलिमिलद्भकुलालि कुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 14 ॥ करमुरलीरव वीजित कूजित लज्जितकोकिल मंजुमते मिलित पुलिंद मनोहर गुंजित रंजितशैल निकुंजगते । निजगुणभूत महाशबरीगण सद्गुणसंभृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 15 ॥ कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चंद्ररुचे प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चंद्ररुचे । जितकनकाचल मौलिपदोर्जित निर्भरकुंजर कुंभकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 16 ॥ विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृत सुरतारक संगरतारक संगरतारक सूनुसुते । सुरथसमाधि समानसमाधि समाधि समाधि सुजातरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 17 ॥ पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् । तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 18 ॥ कनकलसत्कल सिंधुजलैरनुसिंचिनुते गुणरंगभुवं भजति स किं न शचीकुचकुंभ तटीपरिरंभ सुखानुभवम् । तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवं जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 19 ॥ तव विमलेंदुकुलं वदनेंदुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूत पुरींदुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते । मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 20 ॥ अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुभितासिरते । यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपाकुरु ते [मे] जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ 21 ॥ इति श्री महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् ॥

    Eighteen Shaktipeeth Stotram (अष्टादश शक्तिपीठ स्तोत्रम्)

    अष्टादश शक्तिपीठ स्तोत्रम् (Eighteen Shaktipeeth Stotram) लंकायां शांकरीदेवी कामाक्षी कांचिकापुरे । प्रद्युम्ने शृंखलादेवी चामुंडी क्रौंचपट्टणे ॥ 1 ॥ अलंपुरे जोगुलांबा श्रीशैले भ्रमरांबिका । कॊल्हापुरे महालक्ष्मी मुहुर्ये एकवीरा ॥ 2 ॥ उज्जयिन्यां महाकाली पीठिकायां पुरुहूतिका । ओढ्यायां गिरिजादेवी माणिक्या दक्षवाटिके ॥ 3 ॥ हरिक्षेत्रे कामरूपी प्रयागे माधवेश्वरी । ज्वालायां वैष्णवीदेवी गया मांगल्यगौरिका ॥ 4 ॥ वारणाश्यां विशालाक्षी काश्मीरेतु सरस्वती । अष्टादश सुपीठानि योगिनामपि दुर्लभम् ॥ 5 ॥ सायंकाले पठेन्नित्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । सर्वरोगहरं दिव्यं सर्वसंपत्करं शुभम् ॥ 6 ॥

    Devi Mahatmyam Argla Stotram (देवी माहात्म्यं अर्गला स्तोत्रम्)

    देवी माहात्म्यं अर्गला स्तोत्रम् (Devi Mahatmyam Argla Stotram) अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मंत्रस्य विष्णुः ऋषिः। अनुष्टुप्छंदः। श्री महालक्षीर्देवता। मंत्रोदिता देव्योबीजं। नवार्णो मंत्र शक्तिः। श्री सप्तशती मंत्रस्तत्वं श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशती पठां गत्वेन जपे विनियोगः॥ ध्यानं ॐ बंधूक कुसुमाभासां पंचमुंडाधिवासिनीं। स्फुरच्चंद्रकलारत्न मुकुटां मुंडमालिनीं॥ त्रिनेत्रां रक्त वसनां पीनोन्नत घटस्तनीं। पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात्॥ दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानितां। अथवा या चंडी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी या धूम्रेक्षन चंडमुंडमथनी या रक्त बीजाशनी। शक्तिः शुंभनिशुंभदैत्यदलनी या सिद्धि दात्री परा सा देवी नव कोटि मूर्ति सहिता मां पातु विश्वेश्वरी॥ ॐ नमश्चंडिकायै मार्कंडेय उवाच ॐ जयत्वं देवि चामुंडे जय भूतापहारिणि। जय सर्व गते देवि काल रात्रि नमोऽस्तुते॥1॥ मधुकैठभविद्रावि विधात्रु वरदे नमः ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ॥2॥ दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥3॥ महिषासुर निर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥ धूम्रनेत्र वधे देवि धर्म कामार्थ दायिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥ रक्त बीज वधे देवि चंड मुंड विनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥ निशुंभशुंभ निर्नाशि त्रैलोक्य शुभदे नमः रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥ वंदि तांघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्य दायिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥ अचिंत्य रूप चरिते सर्व शत्रु विनाशिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥ नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10॥ स्तुवद्भ्योभक्तिपूर्वं त्वां चंडिके व्याधि नाशिनि रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥ चंडिके सततं युद्धे जयंती पापनाशिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥ देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवी परं सुखं। रूपं धेहि जयं देहि यशो धेहि द्विषो जहि॥13॥ विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियं। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥ विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥ सुरासुरशिरो रत्न निघृष्टचरणेऽंबिके। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥ विध्यावंतं यशस्वंतं लक्ष्मीवंतंच मां कुरु। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥ देवि प्रचंड दोर्दंड दैत्य दर्प निषूदिनि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥ प्रचंड दैत्यदर्पघ्ने चंडिके प्रणतायमे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥ चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥ कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदांबिके। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥ हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥ इंद्राणी पतिसद्भाव पूजिते परमेश्वरि। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥23॥ देवि भक्तजनोद्दाम दत्तानंदोदयेऽंबिके। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥24॥ भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीं। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥25॥ तारिणीं दुर्ग संसार सागर स्याचलोद्बवे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥26॥ इदंस्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः। सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभं ॥27॥ ॥ इति श्री अर्गला स्तोत्रं समाप्तम् ॥

    Devi Mahatmyam Kilak Stotram (देवी माहात्म्यं कीलक स्तोत्रम्)

    देवी माहात्म्यं कीलक स्तोत्रम् (Devi Mahatmyam Kilak Stotram) अस्य श्री कीलक स्तोत्र महा मंत्रस्य । शिव ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । महासरस्वती देवता । मंत्रोदित देव्यो बीजम् । नवार्णो मंत्रशक्ति।श्री सप्त शती मंत्र स्तत्वं स्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठांगत्वएन जपे विनियोगः । ॐ नमश्चंडिकायै मार्कंडेय उवाच ॐ विशुद्ध ज्ञानदेहाय त्रिवेदी दिव्यचक्षुषे । श्रेयः प्राप्ति निमित्ताय नमः सोमार्थ धारिणे ॥1॥ सर्वमेत द्विजानीयान्मंत्राणापि कीलकम् । सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्य तत्परः ॥2॥ सिद्ध्यंतुच्चाटनादीनि कर्माणि सकलान्यपि । एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रवृंदेन भक्तितः ॥3॥ न मंत्रो नौषधं तस्य न किंचि दपि विध्यते । विना जाप्यं न सिद्ध्येत्तु सर्व मुच्चाटनादिकम् ॥4॥ समग्राण्यपि सेत्स्यंति लोकशज्ञ्का मिमां हरः । कृत्वा निमंत्रयामास सर्व मेव मिदं शुभम् ॥5॥ स्तोत्रंवै चंडिकायास्तु तच्च गुह्यं चकार सः । समाप्नोति सपुण्येन तां यथावन्निमंत्रणां ॥6॥ सोपिऽक्षेम मवाप्नोति सर्व मेव न संशयः । कृष्णायां वा चतुर्दश्यां अष्टम्यां वा समाहितः॥6॥ ददाति प्रतिगृह्णाति नान्य थैषा प्रसीदति । इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्। ॥8॥ यो निष्कीलां विधायैनां चंडीं जपति नित्य शः । स सिद्धः स गणः सोऽथ गंधर्वो जायते ध्रुवम् ॥9॥ न चैवा पाटवं तस्य भयं क्वापि न जायते । नाप मृत्यु वशं याति मृतेच मोक्षमाप्नुयात्॥10॥ ज्ञात्वाप्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति । ततो ज्ञात्वैव संपूर्नं इदं प्रारभ्यते बुधैः ॥11॥ सौभाग्यादिच यत्किंचिद् दृश्यते ललनाजने । तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदं शुभं ॥12॥ शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे संपत्तिरुच्चकैः। भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेवतत् ॥13॥ ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यमेवचः । शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सान किं जनै ॥14॥ चण्दिकां हृदयेनापि यः स्मरेत् सततं नरः । हृद्यं काममवाप्नोति हृदि देवी सदा वसेत् ॥15॥ अग्रतोऽमुं महादेव कृतं कीलकवारणम् । निष्कीलंच तथा कृत्वा पठितव्यं समाहितैः ॥16॥ ॥ इति श्री भगवती कीलक स्तोत्रं समाप्तम् ॥

    Devi Mahatmyam Aparadh Kshamaapana Stotram (देवी माहात्म्यं अपराध क्षमापणा स्तोत्रम्)

    देवी माहात्म्यं अपराध क्षमापणा स्तोत्रम् (Devi Mahatmyam Aparadh Kshamaapana Stotram) अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोच्चरेत्। यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥1॥ सापराधोऽस्मि शरणां प्राप्तस्त्वां जगदंबिके। इदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥2॥ अज्ञानाद्विस्मृतेभ्रांत्या यन्न्यूनमधिकं कृतं। तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरी ॥3॥ कामेश्वरी जगन्माताः सच्चिदानंदविग्रहे। गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरी ॥4॥ सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत्। अतोऽहं विश्वरूपां त्वां नमामि परमेश्वरीं ॥5॥ पूर्णं भवतु तत् सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वरी यदत्र पाठे जगदंबिके मया विसर्गबिंद्वक्षरहीनमीरितम्। ॥6॥ तदस्तु संपूर्णतं प्रसादतः संकल्पसिद्धिश्च सदैव जायतां॥7॥ भक्त्याभक्त्यानुपूर्वं प्रसभकृतिवशात् व्यक्तमव्यक्तमंब ॥8॥ तत् सर्वं सांगमास्तां भगवति त्वत्प्रसादात् प्रसीद ॥9॥ प्रसादं कुरु मे देवि दुर्गेदेवि नमोऽस्तुते ॥10॥ ॥इति अपराध क्षमापण स्तोत्रं समाप्तं॥

    Shri Devi Khadgamala Stotram (श्री देवी खड्गमाला स्तोत्रम्)

    श्री देवी खड्गमाला स्तोत्रम् (Shri Devi Khadgamala Stotram) श्री देवी प्रार्थन ह्रींकारासनगर्भितानलशिखां सौः क्लीं कलां बिभ्रतीं सौवर्णांबरधारिणीं वरसुधाधौतां त्रिनेत्रोज्ज्वलाम् । वंदे पुस्तकपाशमंकुशधरां स्रग्भूषितामुज्ज्वलां त्वां गौरीं त्रिपुरां परात्परकलां श्रीचक्रसंचारिणीम् ॥ अस्य श्री शुद्धशक्तिमालामहामंत्रस्य, उपस्थेंद्रियाधिष्ठायी वरुणादित्य ऋषयः देवी गायत्री छंदः सात्विक ककारभट्टारकपीठस्थित कामेश्वरांकनिलया महाकामेश्वरी श्री ललिता भट्टारिका देवता, ऐं बीजं क्लीं शक्तिः सौः कीलकं मम खड्गसिद्ध्यर्थे सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः मूलमंत्रेण षडंगन्यासं कुर्यात् । ध्यानम् तादृशं खड्गमाप्नोति येन हस्तस्थितेनवै । अष्टादश महाद्वीप सम्राट् भोत्का भविष्यति ॥ आरक्ताभां त्रिणेत्रामरुणिमवसनां रत्नताटंकरम्यां हस्तांभोजैस्सपाशांकुश मदन धनुस्सायकैर्विस्फुरंतीम् । आपीनोत्तुंग वक्षोरुह विलुठत्तार हारोज्ज्वलांगीं ध्यायेदंभोरुहस्था-मरुणिमवसना-मीश्वरीमीश्वराणाम् ॥ लमित्यादिपंच पूजां कुर्यात्, यथाशक्ति मूलमंत्रं जपेत् । लं - पृथिवीतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै गंधं परिकल्पयामि - नमः हं - आकाशतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै पुष्पं परिकल्पयामि - नमः यं - वायुतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै धूपं परिकल्पयामि - नमः रं - तेजस्तत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै दीपं परिकल्पयामि - नमः वं - अमृततत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै अमृतनैवेद्यं परिकल्पयामि - नमः सं - सर्वतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुंदरी पराभट्टारिकायै तांबूलादिसर्वोपचारान् परिकल्पयामि - नमः श्री देवी संबोधनं (1) ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ॐ नमस्त्रिपुरसुंदरी, न्यासांगदेवताः (6) हृदयदेवी, शिरोदेवी, शिखादेवी, कवचदेवी, नेत्रदेवी, अस्त्रदेवी, तिथिनित्यादेवताः (16) कामेश्वरी, भगमालिनी, नित्यक्लिन्ने, भेरुंडे, वह्निवासिनी, महावज्रेश्वरी, शिवदूती, त्वरिते, कुलसुंदरी, नित्ये, नीलपताके, विजये, सर्वमंगले, ज्वालामालिनी, चित्रे, महानित्ये, दिव्यौघगुरवः (7) परमेश्वर, परमेश्वरी, मित्रेशमयी, षष्ठीशमयी, चर्यानाथमयी, लोपामुद्रमयी, अगस्त्यमयी, सिद्धौघगुरवः (4) कालतापशमयी, धर्माचार्यमयी, मुक्तकेशीश्वरमयी, दीपकलानाथमयी, मानवौघगुरवः (8) विष्णुदेवमयी, प्रभाकरदेवमयी, तेजोदेवमयी, मनोजदेवमयि, कल्याणदेवमयी, वासुदेवमयी, रत्नदेवमयी, श्रीरामानंदमयी, श्रीचक्र प्रथमावरणदेवताः अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, गरिमासिद्धे, महिमासिद्धे, ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे, इच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारि, वैष्णवी, वाराही, माहेंद्री, चामुंडे, महालक्ष्मी, सर्वसंक्षोभिणी, सर्वविद्राविणी, सर्वाकर्षिणी, सर्ववशंकरी, सर्वोन्मादिनी, सर्वमहांकुशे, सर्वखेचरी, सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखंडे, त्रैलोक्यमोहन चक्रस्वामिनी, प्रकटयोगिनी, श्रीचक्र द्वितीयावरणदेवताः कामाकर्षिणी, बुद्ध्याकर्षिणी, अहंकाराकर्षिणी, शब्दाकर्षिणी, स्पर्शाकर्षिणी, रूपाकर्षिणी, रसाकर्षिणी, गंधाकर्षिणी, चित्ताकर्षिणी, धैर्याकर्षिणी, स्मृत्याकर्षिणी, नामाकर्षिणी, बीजाकर्षिणी, आत्माकर्षिणी, अमृताकर्षिणी, शरीराकर्षिणी, सर्वाशापरिपूरक चक्रस्वामिनी, गुप्तयोगिनी, श्रीचक्र तृतीयावरणदेवताः अनंगकुसुमे, अनंगमेखले, अनंगमदने, अनंगमदनातुरे, अनंगरेखे, अनंगवेगिनी, अनंगांकुशे, अनंगमालिनी, सर्वसंक्षोभणचक्रस्वामिनी, गुप्ततरयोगिनी, श्रीचक्र चतुर्थावरणदेवताः सर्वसंक्षोभिणी, सर्वविद्राविनी, सर्वाकर्षिणी, सर्वह्लादिनी, सर्वसम्मोहिनी, सर्वस्तंभिनी, सर्वजृंभिणी, सर्ववशंकरी, सर्वरंजनी, सर्वोन्मादिनी, सर्वार्थसाधिके, सर्वसंपत्तिपूरिणी, सर्वमंत्रमयी, सर्वद्वंद्वक्षयंकरी, सर्वसौभाग्यदायक चक्रस्वामिनी, संप्रदाययोगिनी, श्रीचक्र पंचमावरणदेवताः सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वसंपत्प्रदे, सर्वप्रियंकरी, सर्वमंगलकारिणी, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचनी, सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणी, सर्वांगसुंदरी, सर्वसौभाग्यदायिनी, सर्वार्थसाधक चक्रस्वामिनी, कुलोत्तीर्णयोगिनी, श्रीचक्र षष्टावरणदेवताः सर्वज्ञे, सर्वशक्ते, सर्वैश्वर्यप्रदायिनी, सर्वज्ञानमयी, सर्वव्याधिविनाशिनी, सर्वाधारस्वरूपे, सर्वपापहरे, सर्वानंदमयी, सर्वरक्षास्वरूपिणी, सर्वेप्सितफलप्रदे, सर्वरक्षाकरचक्रस्वामिनी, निगर्भयोगिनी, श्रीचक्र सप्तमावरणदेवताः वशिनी, कामेश्वरी, मोदिनी, विमले, अरुणे, जयिनी, सर्वेश्वरी, कौलिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनी, रहस्ययोगिनी, श्रीचक्र अष्टमावरणदेवताः बाणिनी, चापिनी, पाशिनी, अंकुशिनी, महाकामेश्वरी, महावज्रेश्वरी, महाभगमालिनी, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनी, अतिरहस्ययोगिनी, श्रीचक्र नवमावरणदेवताः श्री श्री महाभट्टारिके, सर्वानंदमयचक्रस्वामिनी, परापररहस्ययोगिनी, नवचक्रेश्वरी नामानि त्रिपुरे, त्रिपुरेशी, त्रिपुरसुंदरी, त्रिपुरवासिनी, त्रिपुराश्रीः, त्रिपुरमालिनी, त्रिपुरसिद्धे, त्रिपुरांबा, महात्रिपुरसुंदरी, श्रीदेवी विशेषणानि - नमस्कारनवाक्षरीच महामहेश्वरी, महामहाराज्ञी, महामहाशक्ते, महामहागुप्ते, महामहाज्ञप्ते, महामहानंदे, महामहास्कंधे, महामहाशये, महामहा श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञी, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमः । फलश्रुतिः एषा विद्या महासिद्धिदायिनी स्मृतिमात्रतः । अग्निवातमहाक्षोभे राजाराष्ट्रस्यविप्लवे ॥ लुंठने तस्करभये संग्रामे सलिलप्लवे । समुद्रयानविक्षोभे भूतप्रेतादिके भये ॥ अपस्मारज्वरव्याधिमृत्युक्षामादिजेभये । शाकिनी पूतनायक्षरक्षःकूष्मांडजे भये ॥ मित्रभेदे ग्रहभये व्यसनेष्वाभिचारिके । अन्येष्वपि च दोषेषु मालामंत्रं स्मरेन्नरः ॥ तादृशं खड्गमाप्नोति येन हस्तस्थितेनवै । अष्टादशमहाद्वीपसम्राड्भोक्ताभविष्यति ॥ सर्वोपद्रवनिर्मुक्तस्साक्षाच्छिवमयोभवेत् । आपत्काले नित्यपूजां विस्तारात्कर्तुमारभेत् ॥ एकवारं जपध्यानं सर्वपूजाफलं लभेत् । नवावरणदेवीनां ललिताया महौजनः ॥ एकत्र गणनारूपो वेदवेदांगगोचरः । सर्वागमरहस्यार्थः स्मरणात्पापनाशिनी ॥ ललितायामहेशान्या माला विद्या महीयसी । नरवश्यं नरेंद्राणां वश्यं नारीवशंकरम् ॥ अणिमादिगुणैश्वर्यं रंजनं पापभंजनम् । तत्तदावरणस्थायि देवताबृंदमंत्रकम् ॥ मालामंत्रं परं गुह्यं परं धाम प्रकीर्तितम् । शक्तिमाला पंचधास्याच्छिवमाला च तादृशी ॥ तस्माद्गोप्यतराद्गोप्यं रहस्यं भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ॥ इति श्री वामकेश्वरतंत्रे उमामहेश्वरसंवादे देवीखड्गमालास्तोत्ररत्नं समाप्तम् ॥

    Sarvadev Krut Shri Lakshmi Stotram (सर्वदेव कृत श्री लक्ष्मी स्तोत्रम्)

    सर्वदेव कृत श्री लक्ष्मी स्तोत्रम् (Sarvadev Krut Shri Lakshmi Stotram) क्षमस्व भगवत्यंब क्षमा शीले परात्परे। शुद्ध सत्व स्वरूपेच कोपादि परि वर्जिते॥ उपमे सर्व साध्वीनां देवीनां देव पूजिते। त्वया विना जगत्सर्वं मृत तुल्यंच निष्फलम्। सर्व संपत्स्वरूपात्वं सर्वेषां सर्व रूपिणी। रासेश्वर्यधि देवीत्वं त्वत्कलाः सर्वयोषितः॥ कैलासे पार्वती त्वंच क्षीरोधे सिंधु कन्यका। स्वर्गेच स्वर्ग लक्ष्मी स्त्वं मर्त्य लक्ष्मीश्च भूतले॥ वैकुंठेच महालक्ष्मीः देवदेवी सरस्वती। गंगाच तुलसीत्वंच सावित्री ब्रह्म लोकतः॥ कृष्ण प्राणाधि देवीत्वं गोलोके राधिका स्वयम्। रासे रासेश्वरी त्वंच बृंदा बृंदावने वने॥ कृष्ण प्रिया त्वं भांडीरे चंद्रा चंदन कानने। विरजा चंपक वने शत शृंगेच सुंदरी। पद्मावती पद्म वने मालती मालती वने। कुंद दंती कुंदवने सुशीला केतकी वने॥ कदंब माला त्वं देवी कदंब कानने2पिच। राजलक्ष्मीः राज गेहे गृहलक्ष्मी र्गृहे गृहे॥ इत्युक्त्वा देवतास्सर्वाः मुनयो मनवस्तथा। रूरूदुर्न म्रवदनाः शुष्क कंठोष्ठ तालुकाः॥ इति लक्ष्मी स्तवं पुण्यं सर्वदेवैः कृतं शुभम्। यः पठेत्प्रातरुत्थाय सवैसर्वं लभेद्ध्रुवम्॥ अभार्यो लभते भार्यां विनीतां सुसुतां सतीम्। सुशीलां सुंदरीं रम्यामति सुप्रियवादिनीम्॥ पुत्र पौत्र वतीं शुद्धां कुलजां कोमलां वराम्। अपुत्रो लभते पुत्रं वैष्णवं चिरजीविनम्॥ परमैश्वर्य युक्तंच विद्यावंतं यशस्विनम्। भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं भ्रष्ट श्रीर्लभेते श्रियम्॥ हत बंधुर्लभेद्बंधुं धन भ्रष्टो धनं लभेत्॥ कीर्ति हीनो लभेत्कीर्तिं प्रतिष्ठांच लभेद्ध्रुवम्॥ सर्व मंगलदं स्तोत्रं शोक संताप नाशनम्। हर्षानंदकरं शाश्वद्धर्म मोक्ष सुहृत्पदम्॥ ॥ इति सर्व देव कृत लक्ष्मी स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Nava Durga Stotram (नव दुर्गा स्तोत्रम्)

    नव दुर्गा स्तोत्रम् (Nava Durga Stotram) गणेशः हरिद्राभंचतुर्वादु हारिद्रवसनंविभुम् । पाशांकुशधरं दैवंमोदकंदंतमेव च ॥ देवी शैलपुत्री वंदे वांछितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखरां। वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम् ॥ देवी ब्रह्मचारिणी दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमंडलू । देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥ देवी चंद्रघंटेति पिंडजप्रवरारूढा चंदकोपास्त्रकैर्युता । प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघंटेति विश्रुता ॥ देवी कूष्मांडा सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च । दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्मांडा शुभदास्तु मे ॥ देवीस्कंदमाता सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया । शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी ॥ देवीकात्यायणी चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना । कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानवघातिनी ॥ देवीकालरात्रि एकवेणी जपाकर्णपूर नग्ना खरास्थिता । लंबोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ॥ वामपादोल्लसल्लोहलताकंटकभूषणा । वर्धनमूर्ध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी ॥ देवीमहागौरी श्वेते वृषे समारूढा श्वेतांबरधरा शुचिः । महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ॥ देवीसिद्धिदात्रि सिद्धगंधर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि । सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ॥

    Mukunda Mala Stotram (मुकुंदमाला स्तोत्रम्)

    मुकुंदमाला स्तोत्रम् (Mukunda Mala Stotram) घुष्यते यस्य नगरे रंगयात्रा दिने दिने । तमहं शिरसा वंदे राजानं कुलशेखरम् ॥ श्रीवल्लभेति वरदेति दयापरेति भक्तप्रियेति भवलुंठनकोविदेति । नाथेति नागशयनेति जगन्निवासे- -त्यालापनं प्रतिपदं कुरु मे मुकुंद ॥ 1 ॥ जयतु जयतु देवो देवकीनंदनोऽयं जयतु जयतु कृष्णो वृष्णिवंशप्रदीपः । जयतु जयतु मेघश्यामलः कोमलांगो जयतु जयतु पृथ्वीभारनाशो मुकुंदः ॥ 2 ॥ मुकुंद मूर्ध्ना प्रणिपत्य याचे भवंतमेकांतमियंतमर्थम् । अविस्मृतिस्त्वच्चरणारविंदे भवे भवे मेऽस्तु भवत्प्रसादात् ॥ 3 ॥ नाहं वंदे तव चरणयोर्द्वंद्वमद्वंद्वहेतोः कुंभीपाकं गुरुमपि हरे नारकं नापनेतुम् । रम्यारामामृदुतनुलता नंदने नापि रंतुं भावे भावे हृदयभवने भावयेयं भवंतम् ॥ 4 ॥ नास्था धर्मे न वसुनिचये नैव कामोपभोगे यद्यद्भव्यं भवतु भगवन् पूर्वकर्मानुरूपम् । एतत्प्रार्थ्यं मम बहुमतं जन्मजन्मांतरेऽपि त्वत्पादांभोरुहयुगगता निश्चला भक्तिरस्तु ॥ 5 ॥ दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकांतक प्रकामम् । अवधीरित शारदारविंदौ चरणौ ते मरणेऽपि चिंतयामि ॥ 6 ॥ कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांत- -मद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥ 7 ॥ चिंतयामि हरिमेव संततं मंदमंद हसिताननांबुजं नंदगोपतनयं परात्परं नारदादिमुनिबृंदवंदितम् ॥ 8 ॥ करचरणसरोजे कांतिमन्नेत्रमीने श्रममुषि भुजवीचिव्याकुलेऽगाधमार्गे । हरिसरसि विगाह्यापीय तेजोजलौघं भवमरुपरिखिन्नः खेदमद्य त्यजामि ॥ 9 ॥ सरसिजनयने सशंखचक्रे मुरभिदि मा विरम स्वचित्त रंतुम् । सुखतरमपरं न जातु जाने हरिचरणस्मरणामृतेन तुल्यम् ॥ 10 ॥ मा भीर्मंदमनो विचिंत्य बहुधा यामीश्चिरं यातनाः नामी नः प्रभवंति पापरिपवः स्वामी ननु श्रीधरः । आलस्यं व्यपनीय भक्तिसुलभं ध्यायस्व नारायणं लोकस्य व्यसनापनोदनकरो दासस्य किं न क्षमः ॥ 11 ॥ भवजलधिगतानां द्वंद्ववाताहतानां सुतदुहितृकलत्रत्राणभारार्दितानाम् । विषमविषयतोये मज्जतामप्लवानां भवतु शरणमेको विष्णुपोतो नराणाम् ॥ 12 ॥ भवजलधिमगाधं दुस्तरं निस्तरेयं कथमहमिति चेतो मा स्म गाः कातरत्वम् । सरसिजदृशि देवे तावकी भक्तिरेका नरकभिदि निषण्णा तारयिष्यत्यवश्यम् ॥ 13 ॥ तृष्णातोये मदनपवनोद्धूत मोहोर्मिमाले दारावर्ते तनयसहजग्राहसंघाकुले च । संसाराख्ये महति जलधौ मज्जतां नस्त्रिधामन् पादांभोजे वरद भवतो भक्तिनावं प्रयच्छ ॥ 14 ॥ माद्राक्षं क्षीणपुण्यान् क्षणमपि भवतो भक्तिहीनान्पदाब्जे माश्रौषं श्राव्यबंधं तव चरितमपास्यान्यदाख्यानजातम् । मास्मार्षं माधव त्वामपि भुवनपते चेतसापह्नुवाना- -न्माभूवं त्वत्सपर्याव्यतिकररहितो जन्मजन्मांतरेऽपि ॥ 15 ॥ जिह्वे कीर्तय केशवं मुररिपुं चेतो भज श्रीधरं पाणिद्वंद्व समर्चयाच्युतकथाः श्रोत्रद्वय त्वं शृणु । कृष्णं लोकय लोचनद्वय हरेर्गच्छांघ्रियुग्मालयं जिघ्र घ्राण मुकुंदपादतुलसीं मूर्धन्नमाधोक्षजम् ॥ 16 ॥ हे लोकाः शृणुत प्रसूतिमरणव्याधेश्चिकित्सामिमां योगज्ञाः समुदाहरंति मुनयो यां याज्ञवल्क्यादयः । अंतर्ज्योतिरमेयमेकममृतं कृष्णाख्यमापीयतां तत्पीतं परमौषधं वितनुते निर्वाणमात्यंतिकम् ॥ 17 । हे मर्त्याः परमं हितं शृणुत वो वक्ष्यामि संक्षेपतः संसारार्णवमापदूर्मिबहुलं सम्यक्प्रविश्य स्थिताः । नानाज्ञानमपास्य चेतसि नमो नारायणायेत्यमुं मंत्रं सप्रणवं प्रणामसहितं प्रावर्तयध्वं मुहुः ॥ 18 ॥ पृथ्वीरेणुरणुः पयांसि कणिकाः फल्गुः स्फुलिंगोऽलघु- -स्तेजो निःश्वसनं मरुत्तनुतरं रंध्रं सुसूक्ष्मं नभः । क्षुद्रा रुद्रपितामहप्रभृतयः कीटाः समस्ताः सुराः दृष्टे यत्र स तावको विजयते भूमावधूतावधिः ॥ 19 ॥ बद्धेनांजलिना नतेन शिरसा गात्रैः सरोमोद्गमैः कंठेन स्वरगद्गदेन नयनेनोद्गीर्णबाष्पांबुना । नित्यं त्वच्चरणारविंदयुगल ध्यानामृतास्वादिना- -मस्माकं सरसीरुहाक्ष सततं संपद्यतां जीवितम् ॥ 20 ॥ हे गोपालक हे कृपाजलनिधे हे सिंधुकन्यापते हे कंसांतक हे गजेंद्रकरुणापारीण हे माधव । हे रामानुज हे जगत्त्रयगुरो हे पुंडरीकाक्ष मां हे गोपीजननाथ पालय परं जानामि न त्वां विना ॥ 21 ॥ भक्तापायभुजंगगारुडमणिस्त्रैलोक्यरक्षामणिः गोपीलोचनचातकांबुदमणिः सौंदर्यमुद्रामणिः । यः कांतामणि रुक्मिणी घनकुचद्वंद्वैकभूषामणिः श्रेयो देवशिखामणिर्दिशतु नो गोपालचूडामणिः ॥ 22 ॥ शत्रुच्छेदैकमंत्रं सकलमुपनिषद्वाक्यसंपूज्यमंत्रं संसारोत्तारमंत्रं समुपचिततमः संघनिर्याणमंत्रम् । सर्वैश्वर्यैकमंत्रं व्यसनभुजगसंदष्टसंत्राणमंत्रं जिह्वे श्रीकृष्णमंत्रं जप जप सततं जन्मसाफल्यमंत्रम् ॥ 23 ॥ व्यामोह प्रशमौषधं मुनिमनोवृत्ति प्रवृत्त्यौषधं दैत्येंद्रार्तिकरौषधं त्रिभुवनी संजीवनैकौषधम् । भक्तात्यंतहितौषधं भवभयप्रध्वंसनैकौषधं श्रेयःप्राप्तिकरौषधं पिब मनः श्रीकृष्णदिव्यौषधम् ॥ 24 ॥ आम्नायाभ्यसनान्यरण्यरुदितं वेदव्रतान्यन्वहं मेदश्छेदफलानि पूर्तविधयः सर्वे हुतं भस्मनि । तीर्थानामवगाहनानि च गजस्नानं विना यत्पद- -द्वंद्वांभोरुहसंस्मृतिर्विजयते देवः स नारायणः ॥ 25 ॥ श्रीमन्नाम प्रोच्य नारायणाख्यं के न प्रापुर्वांछितं पापिनोऽपि । हा नः पूर्वं वाक्प्रवृत्ता न तस्मिन् तेन प्राप्तं गर्भवासादिदुःखम् ॥ 26 ॥ मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे मत्प्रार्थनीय मदनुग्रह एष एव । त्वद्भृत्यभृत्य परिचारक भृत्यभृत्य भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ ॥ 27 ॥ नाथे नः पुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि सुरे नारायणे तिष्ठति । यं कंचित्पुरुषाधमं कतिपयग्रामेशमल्पार्थदं सेवायै मृगयामहे नरमहो मूका वराका वयम् ॥ 28 ॥ मदन परिहर स्थितिं मदीये मनसि मुकुंदपदारविंदधाम्नि । हरनयनकृशानुना कृशोऽसि स्मरसि न चक्रपराक्रमं मुरारेः ॥ 29 ॥ तत्त्वं ब्रुवाणानि परं परस्मा- -न्मधु क्षरंतीव सतां फलानि । प्रावर्तय प्रांजलिरस्मि जिह्वे नामानि नारायण गोचराणि ॥ 30 ॥ इदं शरीरं परिणामपेशलं पतत्यवश्यं श्लथसंधिजर्जरम् । किमौषधैः क्लिश्यसि मूढ दुर्मते निरामयं कृष्णरसायनं पिब ॥ 31 ॥ दारा वाराकरवरसुता ते तनूजो विरिंचिः स्तोता वेदस्तव सुरगणो भृत्यवर्गः प्रसादः । मुक्तिर्माया जगदविकलं तावकी देवकी ते माता मित्रं बलरिपुसुतस्त्वय्यतोऽन्यन्न जाने ॥ 32 ॥ कृष्णो रक्षतु नो जगत्त्रयगुरुः कृष्णं नमस्याम्यहं कृष्णेनामरशत्रवो विनिहताः कृष्णाय तस्मै नमः । कृष्णादेव समुत्थितं जगदिदं कृष्णस्य दासोऽस्म्यहं कृष्णे तिष्ठति सर्वमेतदखिलं हे कृष्ण रक्षस्व माम् ॥ 33 ॥ तत्त्वं प्रसीद भगवन् कुरु मय्यनाथे विष्णो कृपां परमकारुणिकः किल त्वम् । संसारसागरनिमग्नमनंतदीन- -मुद्धर्तुमर्हसि हरे पुरुषोत्तमोऽसि ॥ 34 ॥ नमामि नारायणपादपंकजं करोमि नारायणपूजनं सदा । वदामि नारायणनाम निर्मलं स्मरामि नारायणतत्त्वमव्ययम् ॥ 35 ॥ श्रीनाथ नारायण वासुदेव श्रीकृष्ण भक्तप्रिय चक्रपाणे । श्रीपद्मनाभाच्युत कैटभारे श्रीराम पद्माक्ष हरे मुरारे ॥ 36 ॥ अनंत वैकुंठ मुकुंद कृष्ण गोविंद दामोदर माधवेति । वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चि- -दहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ॥ 37 ॥ ध्यायंति ये विष्णुमनंतमव्ययं हृत्पद्ममध्ये सततं व्यवस्थितम् । समाहितानां सतताभयप्रदं ते यांति सिद्धिं परमां च वैष्णवीम् ॥ 38 ॥ क्षीरसागरतरंगशीकरा- -ऽऽसारतारकितचारुमूर्तये । भोगिभोगशयनीयशायिने माधवाय मधुविद्विषे नमः ॥ 39 ॥ यस्य प्रियौ श्रुतिधरौ कविलोकवीरौ मित्रे द्विजन्मवरपद्मशरावभूताम् । तेनांबुजाक्षचरणांबुजषट्पदेन राज्ञा कृता कृतिरियं कुलशेखरेण ॥ 40 ॥ इति कुलशेखर प्रणीतं मुकुंदमाला ।

    Govinda Damodara Stotram (गोविंद दामोदर स्तोत्रम्)

    गोविंद दामोदर स्तोत्रम् (Govinda Damodara Stotram) अग्रे कुरूणामथ पांडवानां दुःशासनेनाहृतवस्त्रकेशा । कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 1॥ श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकंपिन् भगवन् मुरारे । त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 2॥ विक्रेतुकामा किल गोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्तिः । दध्यादिकं मोहवशादवोचद् गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 3॥ उलूखले संभृततंडुलांश्च संघट्टयंत्यो मुसलैः प्रमुग्धाः । गायंति गोप्यो जनितानुरागा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 4॥ काचित्करांभोजपुटे निषण्णं क्रीडाशुकं किंशुकरक्ततुंडम् । अध्यापयामास सरोरुहाक्षी गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 5॥ गृहे गृहे गोपवधूसमूहः प्रतिक्षणं पिंजरसारिकाणाम् । स्खलद्गिरां वाचयितुं प्रवृत्तो गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 6॥ पर्य्यंकिकाभाजमलं कुमारं प्रस्वापयंत्योऽखिलगोपकन्याः । जगुः प्रबंधं स्वरतालबंधं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 7॥ रामानुजं वीक्षणकेलिलोलं गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम् । आबालकं बालकमाजुहाव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 8॥ विचित्रवर्णाभरणाभिरामे- ऽभिधेहि वक्त्रांबुजराजहंसि । सदा मदीये रसनेऽग्ररंगे गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 9॥ अंकाधिरूढं शिशुगोपगूढं स्तनं धयंतं कमलैककांतम् । संबोधयामास मुदा यशोदा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 10॥ क्रीडंतमंतर्व्रजमात्मजं स्वं समं वयस्यैः पशुपालबालैः । प्रेम्णा यशोदा प्रजुहाव कृष्णं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 11॥ यशोदया गाढमुलूखलेन गोकंठपाशेन निबध्यमानः । रुरोद मंदं नवनीतभोजी गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 12॥ निजांगणे कंकणकेलिलोलं गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम् । आमर्दयत्पाणितलेन नेत्रे गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 13॥ गृहे गृहे गोपवधूकदंबाः सर्वे मिलित्वा समवाययोगे । पुण्यानि नामानि पठंति नित्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 14॥ मंदारमूले वदनाभिरामं बिंबाधरे पूरितवेणुनादम् । गोगोपगोपीजनमध्यसंस्थं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 15॥ उत्थाय गोप्योऽपररात्रभागे स्मृत्वा यशोदासुतबालकेलिम् । गायंति प्रोच्चैर्दधि मंथयंत्यो गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 16॥ जग्धोऽथ दत्तो नवनीतपिंडो गृहे यशोदा विचिकित्सयंती । उवाच सत्यं वद हे मुरारे गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 17॥ अभ्यर्च्य गेहं युवतिः प्रवृद्ध- प्रेमप्रवाहा दधि निर्ममंथ । गायंति गोप्योऽथ सखीसमेता गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 18॥ क्वचित् प्रभाते दधिपूर्णपात्रे निक्षिप्य मंथं युवती मुकुंदम् । आलोक्य गानं विविधं करोति गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 19॥ क्रीडापरं भोजनमज्जनार्थं हितैषिणी स्त्री तनुजं यशोदा । आजूहवत् प्रेमपरिप्लुताक्षी गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 20॥ सुखं शयानं निलये च विष्णुं देवर्षिमुख्या मुनयः प्रपन्नाः । तेनाच्युते तन्मयतां व्रजंति गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 21॥ विहाय निद्रामरुणोदये च विधाय कृत्यानि च विप्रमुख्याः । वेदावसाने प्रपठंति नित्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 22॥ वृंदावने गोपगणाश्च गोप्यो विलोक्य गोविंदवियोगखिन्नाम् । राधां जगुः साश्रुविलोचनाभ्यां गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 23॥ प्रभातसंचारगता नु गावस्- तद्रक्षणार्थं तनयं यशोदा । प्राबोधयत् पाणितलेन मंदं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 24॥ प्रवालशोभा इव दीर्घकेशा वातांबुपर्णाशनपूतदेहाः । मूले तरूणां मुनयः पठंति गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 25॥ एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः । विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 26॥ गोपी कदाचिन्मणिपंजरस्थं शुकं वचो वाचयितुं प्रवृत्ता । आनंदकंद व्रजचंद्र कृष्ण गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 27॥ गोवत्सबालैः शिशुकाकपक्षं बध्नंतमंभोजदलायताक्षम् । उवाच माता चिबुकं गृहीत्वा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 28॥ प्रभातकाले वरवल्लवौघा गोरक्षणार्थं धृतवेत्रदंडाः । आकारयामासुरनंतमाद्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 29॥ जलाशये कालियमर्दनाय यदा कदंबादपतन्मुरारिः । गोपांगनाश्चुक्रुशुरेत्य गोपा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 30॥ अक्रूरमासाद्य यदा मुकुंदश्- चापोत्सवार्थं मथुरां प्रविष्टः । तदा स पौरैर्जयसीत्यभाषि गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 31॥ कंसस्य दूतेन यदैव नीतौ वृंदावनांताद् वसुदेवसूनू । (सूनौ) रुरोद गोपी भवनस्य मध्ये गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 32॥ सरोवरे कालियनागबद्धं शिशुं यशोदातनयं निशम्य । चक्रुर्लुठंत्यः पथि गोपबाला गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 33॥ अक्रूरयाने यदुवंशनाथं संगच्छमानं मथुरां निरीक्ष्य । ऊचुर्वियोगत् किल गोपबाला गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 34॥ चक्रंद गोपी नलिनीवनांते कृष्णेन हीना कुसुमे शयाना । प्रफुल्लनीलोत्पललोचनाभ्यां गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 35॥ मातापितृभ्यां परिवार्यमाणा गेहं प्रविष्टा विललाप गोपी । आगत्य मां पालय विश्वनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 36॥ वृंदावनस्थं हरिमाशु बुद्ध्वा गोपी गता कापि वनं निशायाम् । तत्राप्यदृष्ट्वाऽतिभयादवोचद् गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 37॥ सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णोः प्रवदंति मर्त्याः । ते निश्चितं तन्मयतां व्रजंति गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 38॥ सा नीरजाक्षीमवलोक्य राधां रुरोद गोविंदवियोगखिन्नाम् । सखी प्रफुल्लोत्पललोचनाभ्यां गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 39॥ जिह्वे रसज्ञे मधुरप्रिया त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि । आवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 40॥ आत्यंतिकव्याधिहरं जनानां चिकित्सकं वेदविदो वदंति । संसारतापत्रयनाशबीजं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 41॥ ताताज्ञया गच्छति रामचंद्रे सलक्ष्मणेऽरण्यचये ससीते । चक्रंद रामस्य निजा जनित्री गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 42॥ एकाकिनी दंडककाननांतात् सा नीयमाना दशकंधरेण । सीता तदाक्रंददनन्यनाथा गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 43॥ रामाद्वियुक्ता जनकात्मजा सा विचिंतयंती हृदि रामरूपम् । रुरोद सीता रघुनाथ पाहि गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 44॥ प्रसीद विष्णो रघुवंशनाथ सुरासुराणां सुखदुःखहेतो । रुरोद सीता तु समुद्रमध्ये गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 45॥ अंतर्जले ग्राहगृहीतपादो विसृष्टविक्लिष्टसमस्तबंधुः । तदा गजेंद्रो नितरां जगाद गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 46॥ हंसध्वजः शंखयुतो ददर्श पुत्रं कटाहे प्रतपंतमेनम् । पुण्यानि नामानि हरेर्जपंतं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 47॥ दुर्वाससो वाक्यमुपेत्य कृष्णा सा चाब्रवीत् काननवासिनीशम् । अंतः प्रविष्टं मनसा जुहाव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 48॥ ध्येयः सदा योगिभिरप्रमेयः चिंताहरश्चिंतितपारिजातः । कस्तूरिकाकल्पितनीलवर्णो गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 49॥ संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहांधपूर्णे विषयाभितप्ते । करावलंबं मम देहि विष्णो गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 50॥ भजस्व मंत्रं भवबंधमुक्त्यै जिह्वे रसज्ञे सुलभं मनोज्ञम् । द्वैपायनाद्यैर्मुनिभिः प्रजप्तं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 51॥ त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दंडधरे कृतांते । वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 52॥ गोपाल वंशीधर रूपसिंधो लोकेश नारायण दीनबंधो । उच्चस्वरैस्त्वं वद सर्वदैव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 53॥ जिह्वे सदैवं भज सुंदराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि । समस्तभक्तार्तिविनाशनानि गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 54॥ गोविंद गोविंद हरे मुरारे गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण । गोविंद गोविंद रथांगपाणे गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 55॥ सुखावसाने त्विदमेव सारं दुःखावसाने त्विदमेव गेयम् । देहावसाने त्विदमेव जाप्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 56॥ दुर्वारवाक्यं परिगृह्य कृष्णा मृगीव भीता तु कथं कथंचित् । सभां प्रविष्टा मनसा जुहाव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 57॥ श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धन नाथ विष्णो । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 58॥ श्रीनाथ विश्वेश्वर विश्वमूर्ते श्रीदेवकीनंदन दैत्यशत्रो । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 59॥ गोपीपते कंसरिपो मुकुंद लक्ष्मीपते केशव वासुदेव । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 60॥ गोपीजनाह्लादकर व्रजेश गोचारणारण्यकृतप्रवेश । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 61॥ प्राणेश विश्वंभर कैटभारे वैकुंठ नारायण चक्रपाणे । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 62॥ हरे मुरारे मधुसूदनाद्य श्रीराम सीतावर रावणारे । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 63॥ श्रीयादवेंद्राद्रिधरांबुजाक्ष गोगोपगोपीसुखदानदक्ष । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 64॥ धराभरोत्तारणगोपवेष विहारलीलाकृतबंधुशेष । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 65॥ बकीबकाघासुरधेनुकारे केशीतृणावर्तविघातदक्ष । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 66॥ श्रीजानकीजीवन रामचंद्र निशाचरारे भरताग्रजेश । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 67॥ नारायणानंत हरे नृसिंह प्रह्लादबाधाहर हे कृपालो । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 68॥ लीलामनुष्याकृतिरामरूप प्रतापदासीकृतसर्वभूप । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 69॥ श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 70॥ वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चिद्- अहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ 71॥ इति श्रीबिल्वमंगलाचार्यविरचितं श्रीगोविंददामोदरस्तोत्रं संपूर्णम् ।

    Santana Gopala Stotram (संतान गोपाल स्तोत्रम्)

    संतान गोपाल स्तोत्रम् (Santana Gopala Stotram) श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनंदनं हरिम् । सुतसंप्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम् ॥ 1 ॥ नमाम्यहं वासुदेवं सुतसंप्राप्तये हरिम् । यशोदांकगतं बालं गोपालं नंदनंदनम् ॥ 2 ॥ अस्माकं पुत्रलाभाय गोविंदं मुनिवंदितम् । नमाम्यहं वासुदेवं देवकीनंदनं सदा ॥ 3 ॥ गोपालं डिंभकं वंदे कमलापतिमच्युतम् । पुत्रसंप्राप्तये कृष्णं नमामि यदुपुंगवम् ॥ 4 ॥ पुत्रकामेष्टिफलदं कंजाक्षं कमलापतिम् । देवकीनंदनं वंदे सुतसंप्राप्तये मम ॥ 5 ॥ पद्मापते पद्मनेत्र पद्मनाभ जनार्दन । देहि मे तनयं श्रीश वासुदेव जगत्पते ॥ 6 ॥ यशोदांकगतं बालं गोविंदं मुनिवंदितम् । अस्माकं पुत्र लाभाय नमामि श्रीशमच्युतम् ॥ 7 ॥ श्रीपते देवदेवेश दीनार्तिर्हरणाच्युत । गोविंद मे सुतं देहि नमामि त्वां जनार्दन ॥ 8 ॥ भक्तकामद गोविंद भक्तरक्ष शुभप्रद । देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥ 9 ॥ रुक्मिणीनाथ सर्वेश देहि मे तनयं सदा । भक्तमंदार पद्माक्ष त्वामहं शरणं गतः ॥ 10 ॥ देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 11 ॥ वासुदेव जगद्वंद्य श्रीपते पुरुषोत्तम । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 12 ॥ कंजाक्ष कमलानाथ परकारुणिकोत्तम । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 13 ॥ लक्ष्मीपते पद्मनाभ मुकुंद मुनिवंदित । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 14 ॥ कार्यकारणरूपाय वासुदेवाय ते सदा । नमामि पुत्रलाभार्थं सुखदाय बुधाय ते ॥ 15 ॥ राजीवनेत्र श्रीराम रावणारे हरे कवे । तुभ्यं नमामि देवेश तनयं देहि मे हरे ॥ 16 ॥ अस्माकं पुत्रलाभाय भजामि त्वां जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव रमापते ॥ 17 ॥ श्रीमानिनीमानचोर गोपीवस्त्रापहारक । देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥ 18 ॥ अस्माकं पुत्रसंप्राप्तिं कुरुष्व यदुनंदन । रमापते वासुदेव मुकुंद मुनिवंदित ॥ 19 ॥ वासुदेव सुतं देहि तनयं देहि माधव । पुत्रं मे देहि श्रीकृष्ण वत्सं देहि महाप्रभो ॥ 20 ॥ डिंभकं देहि श्रीकृष्ण आत्मजं देहि राघव । भक्तमंदार मे देहि तनयं नंदनंदन ॥ 21 ॥ नंदनं देहि मे कृष्ण वासुदेव जगत्पते । कमलानाथ गोविंद मुकुंद मुनिवंदित ॥ 22 ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । सुतं देहि श्रियं देहि श्रियं पुत्रं प्रदेहि मे ॥ 23 ॥ यशोदास्तन्यपानज्ञं पिबंतं यदुनंदनम् । वंदेऽहं पुत्रलाभार्थं कपिलाक्षं हरिं सदा ॥ 24 ॥ नंदनंदन देवेश नंदनं देहि मे प्रभो । रमापते वासुदेव श्रियं पुत्रं जगत्पते ॥ 25 ॥ पुत्रं श्रियं श्रियं पुत्रं पुत्रं मे देहि माधव । अस्माकं दीनवाक्यस्य अवधारय श्रीपते ॥ 26 ॥ गोपाल डिंभ गोविंद वासुदेव रमापते । अस्माकं डिंभकं देहि श्रियं देहि जगत्पते ॥ 27 ॥ मद्वांछितफलं देहि देवकीनंदनाच्युत । मम पुत्रार्थितं धन्यं कुरुष्व यदुनंदन ॥ 28 ॥ याचेऽहं त्वां श्रियं पुत्रं देहि मे पुत्रसंपदम् । भक्तचिंतामणे राम कल्पवृक्ष महाप्रभो ॥ 29 ॥ आत्मजं नंदनं पुत्रं कुमारं डिंभकं सुतम् । अर्भकं तनयं देहि सदा मे रघुनंदन ॥ 30 ॥ वंदे संतानगोपालं माधवं भक्तकामदम् । अस्माकं पुत्रसंप्राप्त्यै सदा गोविंदमच्युतम् ॥ 31 ॥ ॐकारयुक्तं गोपालं श्रीयुक्तं यदुनंदनम् । क्लींयुक्तं देवकीपुत्रं नमामि यदुनायकम् ॥ 32 ॥ वासुदेव मुकुंदेश गोविंद माधवाच्युत । देहि मे तनयं कृष्ण रमानाथ महाप्रभो ॥ 33 ॥ राजीवनेत्र गोविंद कपिलाक्ष हरे प्रभो । समस्तकाम्यवरद देहि मे तनयं सदा ॥ 34 ॥ अब्जपद्मनिभ पद्मवृंदरूप जगत्पते । देहि मे वरसत्पुत्रं रमानायक माधव ॥ 35 ॥ (रूपनायक) नंदपाल धरापाल गोविंद यदुनंदन । देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥ 36 ॥ दासमंदार गोविंद मुकुंद माधवाच्युत । गोपाल पुंडरीकाक्ष देहि मे तनयं श्रियम् ॥ 37 ॥ यदुनायक पद्मेश नंदगोपवधूसुत । देहि मे तनयं कृष्ण श्रीधर प्राणनायक ॥ 38 ॥ अस्माकं वांछितं देहि देहि पुत्रं रमापते । भगवन् कृष्ण सर्वेश वासुदेव जगत्पते ॥ 39 ॥ रमाहृदयसंभार सत्यभामामनःप्रिय । देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥ 40 ॥ चंद्रसूर्याक्ष गोविंद पुंडरीकाक्ष माधव । अस्माकं भाग्यसत्पुत्रं देहि देव जगत्पते ॥ 41 ॥ कारुण्यरूप पद्माक्ष पद्मनाभसमर्चित । देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनंदनंदन ॥ 42 ॥ देवकीसुत श्रीनाथ वासुदेव जगत्पते । समस्तकामफलद देहि मे तनयं सदा ॥ 43 ॥ भक्तमंदार गंभीर शंकराच्युत माधव । देहि मे तनयं गोपबालवत्सल श्रीपते ॥ 44 ॥ श्रीपते वासुदेवेश देवकीप्रियनंदन । भक्तमंदार मे देहि तनयं जगतां प्रभो ॥ 45 ॥ जगन्नाथ रमानाथ भूमिनाथ दयानिधे । वासुदेवेश सर्वेश देहि मे तनयं प्रभो ॥ 46 ॥ श्रीनाथ कमलपत्राक्ष वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 47 ॥ दासमंदार गोविंद भक्तचिंतामणे प्रभो । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 48 ॥ गोविंद पुंडरीकाक्ष रमानाथ महाप्रभो । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 49 ॥ श्रीनाथ कमलपत्राक्ष गोविंद मधुसूदन । मत्पुत्रफलसिद्ध्यर्थं भजामि त्वां जनार्दन ॥ 50 ॥ स्तन्यं पिबंतं जननीमुखांबुजं विलोक्य मंदस्मितमुज्ज्वलांगम् । स्पृशंतमन्यस्तनमंगुलीभिः वंदे यशोदांकगतं मुकुंदम् ॥ 51 ॥ याचेऽहं पुत्रसंतानं भवंतं पद्मलोचन । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 52 ॥ अस्माकं पुत्रसंपत्तेश्चिंतयामि जगत्पते । शीघ्रं मे देहि दातव्यं भवता मुनिवंदित ॥ 53 ॥ वासुदेव जगन्नाथ श्रीपते पुरुषोत्तम । कुरु मां पुत्रदत्तं च कृष्ण देवेंद्रपूजित ॥ 54 ॥ कुरु मां पुत्रदत्तं च यशोदाप्रियनंदन । मह्यं च पुत्रसंतानं दातव्यं भवता हरे ॥ 55 ॥ वासुदेव जगन्नाथ गोविंद देवकीसुत । देहि मे तनयं राम कौसल्याप्रियनंदन ॥ 56 ॥ पद्मपत्राक्ष गोविंद विष्णो वामन माधव । देहि मे तनयं सीताप्राणनायक राघव ॥ 57 ॥ कंजाक्ष कृष्ण देवेंद्रमंडित मुनिवंदित । लक्ष्मणाग्रज श्रीराम देहि मे तनयं सदा ॥ 58 ॥ देहि मे तनयं राम दशरथप्रियनंदन । सीतानायक कंजाक्ष मुचुकुंदवरप्रद ॥ 59 ॥ विभीषणस्य या लंका प्रदत्ता भवता पुरा । अस्माकं तत्प्रकारेण तनयं देहि माधव ॥ 60 ॥ भवदीयपदांभोजे चिंतयामि निरंतरम् । देहि मे तनयं सीताप्राणवल्लभ राघव ॥ 61 ॥ राम मत्काम्यवरद पुत्रोत्पत्तिफलप्रद । देहि मे तनयं श्रीश कमलासनवंदित ॥ 62 ॥ राम राघव सीतेश लक्ष्मणानुज देहि मे । भाग्यवत्पुत्रसंतानं दशरथात्मज श्रीपते ॥ 63 ॥ देवकीगर्भसंजात यशोदाप्रियनंदन । देहि मे तनयं राम कृष्ण गोपाल माधव ॥ 64 ॥ कृष्ण माधव गोविंद वामनाच्युत शंकर । देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥ 65 ॥ गोपबाल महाधन्य गोविंदाच्युत माधव । देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥ 66 ॥ दिशतु दिशतु पुत्रं देवकीनंदनोऽयं दिशतु दिशतु शीघ्रं भाग्यवत्पुत्रलाभम् । दिशतु दिशतु श्रीशो राघवो रामचंद्रो दिशतु दिशतु पुत्रं वंशविस्तारहेतोः ॥ 67 ॥ दीयतां वासुदेवेन तनयोमत्प्रियः सुतः । कुमारो नंदनः सीतानायकेन सदा मम ॥ 68 ॥ राम राघव गोविंद देवकीसुत माधव । देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥ 69 ॥ वंशविस्तारकं पुत्रं देहि मे मधुसूदन । सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 70 ॥ ममाभीष्टसुतं देहि कंसारे माधवाच्युत । सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 71 ॥ चंद्रार्ककल्पपर्यंतं तनयं देहि माधव । सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 72 ॥ विद्यावंतं बुद्धिमंतं श्रीमंतं तनयं सदा । देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनंदन प्रभो ॥ 73 ॥ नमामि त्वां पद्मनेत्र सुतलाभाय कामदम् । मुकुंदं पुंडरीकाक्षं गोविंदं मधुसूदनम् ॥ 74 ॥ भगवन् कृष्ण गोविंद सर्वकामफलप्रद । देहि मे तनयं स्वामिन् त्वामहं शरणं गतः ॥ 75 ॥ स्वामिन् त्वं भगवन् राम कृष्ण माधव कामद । देहि मे तनयं नित्यं त्वामहं शरणं गतः ॥ 76 ॥ तनयं देहि गोविंद कंजाक्ष कमलापते । सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 77 ॥ पद्मापते पद्मनेत्र प्रद्युम्नजनक प्रभो । सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 78 ॥ शंखचक्रगदाखड्गशार्ङ्गपाणे रमापते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 79 ॥ नारायण रमानाथ राजीवपत्रलोचन । सुतं मे देहि देवेश पद्मपद्मानुवंदित ॥ 80 ॥ राम माधव गोविंद देवकीवरनंदन । रुक्मिणीनाथ सर्वेश नारदादिसुरार्चित ॥ 81 ॥ देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥ 82 ॥ मुनिवंदित गोविंद रुक्मिणीवल्लभ प्रभो । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 83 ॥ गोपिकार्जितपंकेजमरंदासक्तमानस । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 84 ॥ रमाहृदयपंकेजलोल माधव कामद । ममाभीष्टसुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥ 85 ॥ वासुदेव रमानाथ दासानां मंगलप्रद । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 86 ॥ कल्याणप्रद गोविंद मुरारे मुनिवंदित । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 87 ॥ पुत्रप्रद मुकुंदेश रुक्मिणीवल्लभ प्रभो । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 88 ॥ पुंडरीकाक्ष गोविंद वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 89 ॥ दयानिधे वासुदेव मुकुंद मुनिवंदित । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 90 ॥ पुत्रसंपत्प्रदातारं गोविंदं देवपूजितम् । वंदामहे सदा कृष्णं पुत्रलाभप्रदायिनम् ॥ 91 ॥ कारुण्यनिधये गोपीवल्लभाय मुरारये । नमस्ते पुत्रलाभार्थं देहि मे तनयं विभो ॥ 92 ॥ नमस्तस्मै रमेशाय रुक्मिणीवल्लभाय ते । देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥ 93 ॥ नमस्ते वासुदेवाय नित्यश्रीकामुकाय च । पुत्रदाय च सर्पेंद्रशायिने रंगशायिने ॥ 94 ॥ रंगशायिन् रमानाथ मंगलप्रद माधव । देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥ 95 ॥ दासस्य मे सुतं देहि दीनमंदार राघव । सुतं देहि सुतं देहि पुत्रं देहि रमापते ॥ 96 ॥ यशोदातनयाभीष्टपुत्रदानरतः सदा । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 97 ॥ मदिष्टदेव गोविंद वासुदेव जनार्दन । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥ 98 ॥ नीतिमान् धनवान् पुत्रो विद्यावांश्च प्रजापते । भगवंस्त्वत्कृपायाश्च वासुदेवेंद्रपूजित ॥ 99 ॥ यः पठेत् पुत्रशतकं सोऽपि सत्पुत्रवान् भवेत् । श्रीवासुदेवकथितं स्तोत्ररत्नं सुखाय च ॥ 100 ॥ जपकाले पठेन्नित्यं पुत्रलाभं धनं श्रियम् । ऐश्वर्यं राजसम्मानं सद्यो याति न संशयः ॥ 101 ॥

    Sri Radha Kripa Kataksha Stotram (श्री राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्रम्)

    श्री राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्रम् (Sri Radha Kripa Kataksha Stotram) मुनींद्र–वृंद–वंदिते त्रिलोक–शोक–हारिणि प्रसन्न-वक्त्र-पण्कजे निकुंज-भू-विलासिनि व्रजेंद्र–भानु–नंदिनि व्रजेंद्र–सूनु–संगते कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥1॥ अशोक–वृक्ष–वल्लरी वितान–मंडप–स्थिते प्रवालबाल–पल्लव प्रभारुणांघ्रि–कोमले । वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसंपदालये कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥2॥ अनंग-रण्ग मंगल-प्रसंग-भंगुर-भ्रुवां सविभ्रमं ससंभ्रमं दृगंत–बाणपातनैः । निरंतरं वशीकृतप्रतीतनंदनंदने कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥3॥ तडित्–सुवर्ण–चंपक –प्रदीप्त–गौर–विग्रहे मुख–प्रभा–परास्त–कोटि–शारदेंदुमंडले । विचित्र-चित्र संचरच्चकोर-शाव-लोचने कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥4॥ मदोन्मदाति–यौवने प्रमोद–मान–मंडिते प्रियानुराग–रंजिते कला–विलास – पंडिते । अनन्यधन्य–कुंजराज्य–कामकेलि–कोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥5॥ अशेष–हावभाव–धीरहीरहार–भूषिते प्रभूतशातकुंभ–कुंभकुंभि–कुंभसुस्तनि । प्रशस्तमंद–हास्यचूर्ण पूर्णसौख्य –सागरे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥6॥ मृणाल-वाल-वल्लरी तरंग-रंग-दोर्लते लताग्र–लास्य–लोल–नील–लोचनावलोकने । ललल्लुलन्मिलन्मनोज्ञ–मुग्ध–मोहिनाश्रिते कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥7॥ सुवर्णमलिकांचित –त्रिरेख–कंबु–कंठगे त्रिसूत्र–मंगली-गुण–त्रिरत्न-दीप्ति–दीधिते । सलोल–नीलकुंतल–प्रसून–गुच्छ–गुंफिते कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥8॥ नितंब–बिंब–लंबमान–पुष्पमेखलागुणे प्रशस्तरत्न-किंकिणी-कलाप-मध्य मंजुले । करींद्र–शुंडदंडिका–वरोहसौभगोरुके कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥9॥ अनेक–मंत्रनाद–मंजु नूपुरारव–स्खलत् समाज–राजहंस–वंश–निक्वणाति–गौरवे । विलोलहेम–वल्लरी–विडंबिचारु–चंक्रमे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥10॥ अनंत–कोटि–विष्णुलोक–नम्र–पद्मजार्चिते हिमाद्रिजा–पुलोमजा–विरिंचजा-वरप्रदे । अपार–सिद्धि–ऋद्धि–दिग्ध–सत्पदांगुली-नखे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष–भाजनम् ॥11॥ मखेश्वरि क्रियेश्वरि स्वधेश्वरि सुरेश्वरि त्रिवेद–भारतीश्वरि प्रमाण–शासनेश्वरि । रमेश्वरि क्षमेश्वरि प्रमोद–काननेश्वरि व्रजेश्वरि व्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते ॥12॥ इती ममद्भुतं-स्तवं निशम्य भानुनंदिनी करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष-भाजनम् । भवेत्तदैव संचित त्रिरूप–कर्म नाशनं लभेत्तदा व्रजेंद्र–सूनु–मंडल–प्रवेशनम् ॥13॥ राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः । एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥14॥ यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः । राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा ॥15॥ ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कंठदघ्नके । राधाकुंडजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम् ॥16॥ तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत् । ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम् ॥17॥ तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् । येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुंदरम् ॥18॥ नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः । अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥19॥ ॥ इति श्रीमदूर्ध्वाम्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Ganesha Mahima Stotram (गणेश महिम्ना स्तोत्रम्)

    गणेश महिम्ना स्तोत्रम् (Ganesha Mahima Stotram) अनिर्वाच्यं रूपं स्तवन निकरो यत्र गलितः तथा वक्ष्ये स्तोत्रं प्रथम पुरुषस्यात्र महतः । यतो जातं विश्वस्थितिमपि सदा यत्र विलयः सकीदृग्गीर्वाणः सुनिगम नुतः श्रीगणपतिः ॥ 1 ॥ गकारो हेरंबः सगुण इति पुं निर्गुणमयो द्विधाप्येकोजातः प्रकृति पुरुषो ब्रह्म हि गणः । स चेशश्चोत्पत्ति स्थिति लय करोयं प्रमथको यतोभूतं भव्यं भवति पतिरीशो गणपतिः ॥ 2 ॥ गकारः कंठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो णकारः कंठाधो जठर सदृशाकार इति च । अधोभावः कट्यां चरण इति हीशोस्य च तमः विभातीत्थं नाम त्रिभुवन समं भू र्भुव स्सुवः ॥ 3 ॥ गणाध्यक्षो ज्येष्ठः कपिल अपरो मंगलनिधिः दयालुर्हेरंबो वरद इति चिंतामणि रजः । वरानीशो ढुंढिर्गजवदन नामा शिवसुतो मयूरेशो गौरीतनय इति नामानि पठति ॥ 4 ॥ महेशोयं विष्णुः स कवि रविरिंदुः कमलजः क्षिति स्तोयं वह्निः श्वसन इति खं त्वद्रिरुदधिः । कुजस्तारः शुक्रो पुरुरुडु बुधोगुच्च धनदो यमः पाशी काव्यः शनिरखिल रूपो गणपतिः ॥5 ॥ मुखं वह्निः पादौ हरिरसि विधात प्रजननं रविर्नेत्रे चंद्रो हृदय मपि कामोस्य मदन । करौ शुक्रः कट्यामवनिरुदरं भाति दशनं गणेशस्यासन् वै क्रतुमय वपु श्चैव सकलम् ॥ 6 ॥ सिते भाद्रे मासे प्रतिशरदि मध्याह्न समये मृदो मूर्तिं कृत्वा गणपतितिथौ ढुंढि सदृशीम् । समर्चत्युत्साहः प्रभवति महान् सर्वसदने विलोक्यानंदस्तां प्रभवति नृणां विस्मय इति ॥7 ॥ गणेशदेवस्य माहात्म्यमेतद्यः श्रावयेद्वापि पठेच्च तस्य । क्लेशा लयं यांति लभेच्च शीघ्रं श्रीपुत्त्र विद्यार्थि गृहं च मुक्तिम् ॥ 8 ॥ ॥ इति श्री गणेश महिम्न स्तोत्रम् ॥

    Ganesha Dwadashanama Stotram (गणेश द्वादशनाम स्तोत्रम्)

    गणेश द्वादशनाम स्तोत्रम् (Ganesha Dwadashanama Stotram) शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशांतयेः ॥ 1 ॥ अभीप्सितार्थ सिध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥ 2 ॥ गणानामधिपश्चंडो गजवक्त्रस्त्रिलोचनः । प्रसन्नो भव मे नित्यं वरदातर्विनायक ॥ 3 ॥ सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णकः । लंबोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥ 4 ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो फालचंद्रो गजाननः । द्वादशैतानि नामानि गणेशस्य तु यः पठेत् ॥ 5 ॥ विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी विपुलं धनम् । इष्टकामं तु कामार्थी धर्मार्थी मोक्षमक्षयम् ॥ 6 ॥ विध्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥ 7 ॥ ॥ इति मुद्गलपुराणोक्तं श्रीगणेशद्वादशनामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Navaratna Malika Stotram (नवरत्न मालिका स्तोत्रम्)

    नवरत्न मालिका स्तोत्रम् (Navaratna Malika Stotram) हारनूपुरकिरीटकुंडलविभूषितावयवशोभिनीं कारणेशवरमौलिकोटिपरिकल्प्यमानपदपीठिकाम् । कालकालफणिपाशबाणधनुरंकुशामरुणमेखलां फालभूतिलकलोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 1 ॥ गंधसारघनसारचारुनवनागवल्लिरसवासिनीं सांध्यरागमधुराधराभरणसुंदराननशुचिस्मिताम् । मंधरायतविलोचनाममलबालचंद्रकृतशेखरीं इंदिरारमणसोदरीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 2 ॥ स्मेरचारुमुखमंडलां विमलगंडलंबिमणिमंडलां हारदामपरिशोभमानकुचभारभीरुतनुमध्यमाम् । वीरगर्वहरनूपुरां विविधकारणेशवरपीठिकां मारवैरिसहचारिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 3 ॥ भूरिभारधरकुंडलींद्रमणिबद्धभूवलयपीठिकां वारिराशिमणिमेखलावलयवह्निमंडलशरीरिणीम् । वारिसारवहकुंडलां गगनशेखरीं च परमात्मिकां चारुचंद्रविलोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 4 ॥ कुंडलत्रिविधकोणमंडलविहारषड्दलसमुल्लस- त्पुंडरीकमुखभेदिनीं च प्रचंडभानुभासमुज्ज्वलाम् । मंडलेंदुपरिवाहितामृततरंगिणीमरुणरूपिणीं मंडलांतमणिदीपिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 5 ॥ वारणाननमयूरवाहमुखदाहवारणपयोधरां चारणादिसुरसुंदरीचिकुरशेकरीकृतपदांबुजाम् । कारणाधिपतिपंचकप्रकृतिकारणप्रथममातृकां वारणांतमुखपारणां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 6 ॥ पद्मकांतिपदपाणिपल्लवपयोधराननसरोरुहां पद्मरागमणिमेखलावलयनीविशोभितनितंबिनीम् । पद्मसंभवसदाशिवांतमयपंचरत्नपदपीठिकां पद्मिनीं प्रणवरूपिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 7 ॥ आगमप्रणवपीठिकाममलवर्णमंगलशरीरिणीं आगमावयवशोभिनीमखिलवेदसारकृतशेखरीम् । मूलमंत्रमुखमंडलां मुदितनादबिंदुनवयौवनां मातृकां त्रिपुरसुंदरीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 8 ॥ कालिकातिमिरकुंतलांतघनभृंगमंगलविराजिनीं चूलिकाशिखरमालिकावलयमल्लिकासुरभिसौरभाम् । वालिकामधुरगंडमंडलमनोहराननसरोरुहां कालिकामखिलनायिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ 9 ॥ नित्यमेव नियमेन जल्पतां – भुक्तिमुक्तिफलदामभीष्टदाम् । शंकरेण रचितां सदा जपेन्नामरत्ननवरत्नमालिकाम् ॥ 10 ॥

    Siddha Kunjika Stotram (सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम्)

    सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम् (Siddha Kunjika Stotram) ॐ अस्य श्रीकुंजिकास्तोत्रमंत्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । शिव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् । येन मंत्रप्रभावेण चंडीजापः शुभो भवेत् ॥ 1 ॥ न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् । न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥ 2 ॥ कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् । अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ 3 ॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति । मारणं मोहनं वश्यं स्तंभनोच्चाटनादिकम् । पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥ 4 ॥ अथ मंत्रः । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे । ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ 5 ॥ इति मंत्रः । नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि । नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥ 6 ॥ नमस्ते शुंभहंत्र्यै च निशुंभासुरघातिनि । जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ॥ 7 ॥ ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका । क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥ 8 ॥ चामुंडा चंडघाती च यैकारी वरदायिनी । विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि ॥ 9 ॥ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी । क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥ 10 ॥ हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जंभनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥ 11 ॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षम् । धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ 12 ॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा । सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे ॥ 13 ॥ कुंजिकायै नमो नमः । इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे । अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ 14 ॥ यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् । न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥ 15 ॥ इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

    Shri Durga Aapaduddharak Stotram (श्री दुर्गा आपदुद्धारक स्तोत्रम्)

    श्री दुर्गा आपदुद्धारक स्तोत्रम् (Shri Durga Aapaduddharak Stotram) नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकंपे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे । नमस्ते जगद्वंद्यपादारविंदे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 1 ॥ नमस्ते जगच्चिंत्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे । नमस्ते नमस्ते सदानंदरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 2 ॥ अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जंतोः । त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 3 ॥ अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्ये- ऽनले सागरे प्रांतरे राजगेहे । त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 4 ॥ अपारे महादुस्तरेऽत्यंतघोरे विपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम् । त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतु- र्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 5 ॥ नमश्चंडिके चंडदुर्दंडलीला- समुत्खंडिता खंडिताऽशेषशत्रोः । त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 6 ॥ त्वमेका सदाराधिता सत्यवादि- न्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा । इडा पिंगला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 7 ॥ नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सदासर्वसिद्धिप्रदातृस्वरूपे । विभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ 8 ॥ शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानां नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानाम् । त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ॥ 9 ॥ इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम् । त्रिसंध्यमेकसंध्यं वा पठनाद्घोरसंकटात् ॥ 10 ॥ मुच्यते नात्र संदेहो भुवि स्वर्गे रसातले । सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान्सदा ॥ 11 ॥ स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम् । पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले । स्तवराजमिदं देवि संक्षेपात्कथितं मया ॥ 12 इति श्री सिद्धेश्वरीतंत्रे परमशिवोक्त श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम् ।

    Shri Durga Stotram by Arjuna (अर्जुन कृत श्री दुर्गा स्तोत्रम्)

    अर्जुन कृत श्री दुर्गा स्तोत्रम् (Shri Durga Stotram by Arjuna) अर्जुन उवाच । नमस्ते सिद्धसेनानि आर्ये मंदरवासिनि । कुमारि कालि कापालि कपिले कृष्णपिंगले ॥ 1 ॥ भद्रकालि नमस्तुभ्यं महाकालि नमोऽस्तु ते । चंडि चंडे नमस्तुभ्यं तारिणि वरवर्णिनि ॥ 2 ॥ कात्यायनि महाभागे करालि विजये जये । शिखिपिंछध्वजधरे नानाभरणभूषिते ॥ 3 ॥ अट्टशूलप्रहरणे खड्गखेटकधारिणि । गोपेंद्रस्यानुजे ज्येष्ठे नंदगोपकुलोद्भवे ॥ 4 ॥ महिषासृक्प्रिये नित्यं कौशिकि पीतवासिनि । अट्टहासे कोकमुखे नमस्तेऽस्तु रणप्रिये ॥ 5 ॥ उमे शाकंभरि श्वेते कृष्णे कैटभनाशिनि । हिरण्याक्षि विरूपाक्षि सुधूम्राक्षि नमोऽस्तु ते ॥ 6 ॥ वेदश्रुतिमहापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसि । जंबूकटकचैत्येषु नित्यं सन्निहितालये ॥ 7 ॥ त्वं ब्रह्मविद्या विद्यानां महानिद्रा च देहिनाम् । स्कंदमातर्भगवति दुर्गे कांतारवासिनि ॥ 8 ॥ स्वाहाकारः स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती । सावित्री वेदमाता च तथा वेदांत उच्यते ॥ 9 ॥ स्तुतासि त्वं महादेवि विशुद्धेनांतरात्मना । जयो भवतु मे नित्यं त्वत्प्रसादाद्रणाजिरे ॥ 10 ॥ कांतारभयदुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च । नित्यं वससि पाताले युद्धे जयसि दानवान् ॥ 11 ॥ त्वं जंभनी मोहिनी च माया ह्रीः श्रीस्तथैव च । संध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ॥ 12 ॥ तुष्टिः पुष्टिर्धृतिर्दीप्तिश्चंद्रादित्यविवर्धिनी । भूतिर्भूतिमतां संख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ॥ 13 ॥ इति श्रीमन्महाभारते भीष्मपर्वणि त्रयोविंशोऽध्याये अर्जुन कृत श्री दुर्गा स्तोत्रम्।

    Devyaparadh Kshamaapan Stotram (देव्यपराध क्षमापण स्तोत्रम्)

    देव्यपराध क्षमापण स्तोत्रम् (Devyaparadh Kshamaapan Stotram) न मंत्रं नो यंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ 1 ॥ विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । तदेतत् क्षंतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 2 ॥ पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः संति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः । मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 3 ॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ 4 ॥ परित्यक्ता देवान्विविधविधिसेवाकुलतया मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि । इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता निरालंबो लंबोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ 5 ॥ श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥ 6 ॥ चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कंठे भुजगपतिहारी पशुपतिः । कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानी त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटी फलमिदम् ॥ 7 ॥ न मोक्षस्याकांक्षा न च विभववांछापि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥ 8 ॥ नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रूक्षचिंतनपरैर्न कृतं वचोभिः । श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमंब परं तवैव ॥ 9 ॥ आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवे शिवे । नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ताः जननीं स्मरंति ॥ 10 ॥ जगदंब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराधपरंपरावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥ 11 ॥ मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि । एवं ज्ञात्वा महादेवी यथा योग्यं तथा कुरु ॥ 12 ॥ इति श्रीमच्छंकराचार्य विरचितं देव्यपराधक्षमापण स्तोत्रम् ।

    Shri Shashti Devi Stotram (श्री षष्ठी देवी स्तोत्रम्)

    श्री षष्ठी देवी स्तोत्रम् (Shri Shashti Devi Stotram) ध्यानम् श्रीमन्मातरमंबिकां विधिमनोजातां सदाभीष्टदां स्कंदेष्टां च जगत्प्रसूं विजयदां सत्पुत्र सौभाग्यदाम् । सद्रत्नाभरणान्वितां सकरुणां शुभ्रां शुभां सुप्रभां षष्ठांशां प्रकृतेः परं भगवतीं श्रीदेवसेनां भजे ॥ 1 ॥ षष्ठांशां प्रकृतेः शुद्धां सुप्रतिष्ठां च सुव्रतां सुपुत्रदां च शुभदां दयारूपां जगत्प्रसूम् । श्वेतचंपकवर्णाभां रक्तभूषणभूषितां पवित्ररूपां परमं देवसेना परां भजे ॥ 2 ॥ स्तोत्रम् नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शांत्यै नमो नमः । शुभायै देवसेनायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 1 ॥ वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः । सुखदायै मोक्षदायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 2 ॥ सृष्ट्यै षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः । मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 3 ॥ सारायै शारदायै च परादेव्यै नमो नमः । बालाधिष्टातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 4 ॥ कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम् । प्रत्यक्षायै सर्वभक्तानां षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 5 ॥ पूज्यायै स्कंदकांतायै सर्वेषां सर्वकर्मसु । देवरक्षणकारिण्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 6 ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वंदितायै नृणां सदा । हिंसाक्रोधवर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 7 ॥ धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि । मानं देहि जयं देहि द्विषो जहि महेश्वरि ॥ 8 ॥ धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेवी नमो नमः । देहि भूमिं प्रजां देहि विद्यां देहि सुपूजिते । कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ 9 ॥ फलशृति इति देवीं च संस्तुत्य लभेत्पुत्रं प्रियव्रतम् । यशश्विनं च राजेंद्रं षष्ठीदेवि प्रसादतः ॥ 10 ॥ षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मान् यः शृणोति तु वत्सरम् । अपुत्रो लभते पुत्रं वरं सुचिर जीवनम् ॥ 11 ॥ वर्षमेकं च या भक्त्या संस्तुत्येदं शृणोति च । सर्वपापाद्विनिर्मुक्ता महावंध्या प्रसूयते ॥ 12 ॥ वीरं पुत्रं च गुणिनं विद्यावंतं यशस्विनम् । सुचिरायुष्यवंतं च सूते देवि प्रसादतः ॥ 13 ॥ काकवंध्या च या नारी मृतवत्सा च या भवेत् । वर्षं शृत्वा लभेत्पुत्रं षष्ठीदेवि प्रसादतः ॥ 14 ॥ रोगयुक्ते च बाले च पितामाता शृणोति चेत् । मासेन मुच्यते रोगान् षष्ठीदेवि प्रसादतः ॥ 15 ॥ जय देवि जगन्मातः जगदानंदकारिणि । प्रसीद मम कल्याणि नमस्ते षष्ठीदेवते ॥ 16 ॥ इति श्री षष्ठीदेवि स्तोत्रम् ।

    Devi Aparajita Stotram (देवी अपराजिता स्तोत्रम्)

    देवी अपराजिता स्तोत्रम् (Devi Aparajita Stotram) नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥ 1 ॥ रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः । ज्योत्स्नायै चेंदुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥ 2 ॥ कल्याण्यै प्रणता वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः । नैरृत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥ 3 ॥ दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै । ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥ 4 ॥ अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः । नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥ 5 ॥ या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 6 ॥ या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 7 ॥ या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 8 ॥ या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 9 ॥ या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 10 ॥ या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 11 ॥ या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 12 ॥ या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 13 ॥ या देवी सर्वभूतेषु क्षांतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 14 ॥ या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 15 ॥ या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 16 ॥ या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 17 ॥ या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 18 ॥ या देवी सर्वभूतेषु कांतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 19 ॥ या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 20 ॥ या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 21 ॥ या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 22 ॥ या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 23 ॥ या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 24 ॥ या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 25 ॥ या देवी सर्वभूतेषु भ्रांतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 26 ॥ इंद्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या । भूतेषु सततं तस्यै व्याप्त्यै देव्यै नमो नमः ॥ 27 ॥ चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 28 ॥

    Aparadha Kshamapana Stotram (अपराध क्षमापण स्तोत्रम्)

    अपराध क्षमापण स्तोत्रम् (Aparadha Kshamapana Stotram) अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥ 1 ॥ आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥ 2 ॥ मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ॥ 3 ॥ अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोच्चरेत् । यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥ 4 ॥ सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदंबिके । इदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ 5 ॥ अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रांत्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् । विपरीतं च तत्सर्वं क्षमस्व परमेश्वरि ॥ 6 ॥ कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे । गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥ 7 ॥ यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥ 8 ॥ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥ 9 ॥ सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत् । अतोऽहं विश्वरूपां त्वां नमामि परमेश्वरीम् ॥ 10 ॥ इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम् ॥

    Padmavati Stotram (पद्मावती स्तोत्रं)

    पद्मावती स्तोत्रं (Padmavati Stotram) विष्णुपत्नि जगन्मातः विष्णुवक्षस्थलस्थिते । पद्मासने पद्महस्ते पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 1 ॥ वेंकटेशप्रिये पूज्ये क्षीराब्दितनये शुभे । पद्मेरमे लोकमातः पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 2 ॥ कल्याणी कमले कांते कल्याणपुरनायिके । कारुण्यकल्पलतिके पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 3 ॥ सहस्रदलपद्मस्थे कोटिचंद्रनिभानने । पद्मपत्रविशालाक्षी पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 4 ॥ सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वमंगलदायिनी । सर्वसम्मानिते देवी पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 5 ॥ सर्वहृद्दहरावासे सर्वपापभयापहे । अष्टैश्वर्यप्रदे लक्ष्मी पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 6 ॥ देहि मे मोक्षसाम्राज्यं देहि त्वत्पाददर्शनम् । अष्टैश्वर्यं च मे देहि पद्मावति नमोऽस्तु ते ॥ 7 ॥ नक्रश्रवणनक्षत्रे कृतोद्वाहमहोत्सवे । कृपया पाहि नः पद्मे त्वद्भक्तिभरितान् रमे ॥ 8 ॥ इंदिरे हेमवर्णाभे त्वां वंदे परमात्मिकाम् । भवसागरमग्नं मां रक्ष रक्ष महेश्वरी ॥ 9 ॥ कल्याणपुरवासिन्यै नारायण्यै श्रियै नमः । शृतिस्तुतिप्रगीतायै देवदेव्यै च मंगलम् ॥ 10 ॥

    Shri Manasa Devi Stotram (श्री मनसा देवी स्तोत्रम्)

    श्री मनसा देवी स्तोत्रम् (महेंद्र कृतम्) (Shri Manasa Devi Stotram) देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि साध्वीनां प्रवरां पराम् । परात्परां च परमां न हि स्तोतुं क्षमोऽधुना ॥ 1 ॥ स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाख्यानतः परम् । न क्षमः प्रकृतिं वक्तुं गुणानां तव सुव्रते ॥ 2 ॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं कोपहिंसाविवर्जिता । न च शप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च त्वया यतः ॥ 3 ॥ त्वं मया पूजिता साध्वी जननी च यथाऽदितिः । दयारूपा च भगिनी क्षमारूपा यथा प्रसूः ॥ 4 ॥ त्वया मे रक्षिताः प्राणा पुत्रदाराः सुरेश्वरि । अहं करोमि त्वां पूज्यां मम प्रीतिश्च वर्धते ॥ 5 ॥ नित्यं यद्यपि पूज्या त्वं भवेऽत्र जगदंबिके । तथापि तव पूजां वै वर्धयामि पुनः पुनः ॥ 6 ॥ ये त्वामाषाढसंक्रांत्यां पूजयिष्यंति भक्तितः । पंचम्यां मनसाख्यायां मासांते वा दिने दिने ॥ 7 ॥ पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धंते च धनानि च । यशस्विनः कीर्तिमंतो विद्यावंतो गुणान्विताः ॥ 8 ॥ ये त्वां न पूजयिष्यंति निंदंत्यज्ञानतो जनाः । लक्ष्मीहीना भविष्यंति तेषां नागभयं सदा ॥ 9 ॥ त्वं स्वर्गलक्ष्मीः स्वर्गे च वैकुंठे कमलाकला । नारायणांशो भगवान् जरत्कारुर्मुनीश्वरः ॥ 10 ॥ तपसा तेजसा त्वां च मनसा ससृजे पिता । अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिधा ॥ 11 ॥ मनसा देवि तु शक्ता चात्मना सिद्धयोगिनी । तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वंदिता भवे ॥ 12 ॥ यां भक्त्या मनसा देवाः पूजयंत्यनिशं भृशम् । तेन त्वां मनसादेवीं प्रवदंति पुराविदः ॥ 13 ॥ सत्त्वरूपा च देवी त्वं शश्वत्सत्त्वनिषेवया । यो हि यद्भावयेन्नित्यं शतं प्राप्नोति तत्समम् ॥ 14 ॥ इदं स्तोत्रं पुण्यबीजं तां संपूज्य च यः पठेत् । तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ 15 ॥ विषं भवेत्सुधातुल्यं सिद्धस्तोत्रं यदा पठेत् । पंचलक्षजपेनैव सिद्धस्तोत्रो भवेन्नरः । सर्पशायी भवेत्सोऽपि निश्चितं सर्पवाहनः ॥ 16 ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखंडे षट्चत्वारिंशोऽध्याये महेंद्र कृत श्री मनसादेवी स्तोत्रम् ॥ आस्तीकमुनि मंत्रः सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष । जनमेजयस्य यज्ञांते आस्तीकवचनं स्मर ॥

    Shri Mahakali Stotram (श्री महाकाली स्तोत्रं)

    श्री महाकाली स्तोत्रं (Shri Mahakali Stotram) ध्यानम् शवारूढां महाभीमां घोरदंष्ट्रां वरप्रदां हास्ययुक्तां त्रिणेत्रांच कपाल कर्त्रिका कराम् । मुक्तकेशीं ललज्जिह्वां पिबंतीं रुधिरं मुहुः चतुर्बाहुयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत् ॥ शवारूढां महाभीमां घोरदंष्ट्रां हसन्मुखीं चतुर्भुजां खड्गमुंडवराभयकरां शिवाम् । मुंडमालाधरां देवीं ललज्जिह्वां दिगंबरां एवं संचिंतयेत्कालीं श्मशनालयवासिनीम् ॥ स्तोत्रम् विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् । निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभाम् ॥ 1 ॥ त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका । सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ॥ 2 ॥ अर्थमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः । त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥ 3 ॥ त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतद्सृज्यते जगत् । त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यंते च सर्वदा ॥ 4 ॥ विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने । तथा संहृतिरूपांते जगतोऽस्य जगन्मये ॥ 5 ॥ महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः । महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ॥ 6 ॥ प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी । कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ॥ 7 ॥ त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा । लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शांतिः क्षांतिरेव च ॥ 8 ॥ खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा । शंखिनी चापिनी बाणभुशुंडीपरिघायुधा ॥ 9 ॥ सौम्या सौम्यतराशेषा सौम्येभ्यस्त्वतिसुंदरी । परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥ 10 ॥ यच्च किंचित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके । तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा ॥ 11 ॥ यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् । सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ 12 ॥ विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च । कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ॥ 13 ॥ सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता । मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥ 14 ॥ प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु । बोधश्च क्रियतामस्य हंतुमेतौ महासुरौ ॥ 15 ॥ इति श्री महाकाली स्तोत्रम् ।

    Ganesha Bhujanga Stotram (गणेश भुजंगम् स्तोत्रम्)

    गणेश भुजंगम् स्तोत्रम् (Ganesha Bhujanga Stotram) रणत्क्षुद्रघंटानिनादाभिरामं चलत्तांडवोद्दंडवत्पद्मतालम् । लसत्तुंदिलांगोपरिव्यालहारं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 1 ॥ ध्वनिध्वंसवीणालयोल्लासिवक्त्रं स्फुरच्छुंडदंडोल्लसद्बीजपूरम् । गलद्दर्पसौगंध्यलोलालिमालं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 2 ॥ प्रकाशज्जपारक्तरत्नप्रसून- प्रवालप्रभातारुणज्योतिरेकम् । प्रलंबोदरं वक्रतुंडैकदंतं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 3 ॥ विचित्रस्फुरद्रत्नमालाकिरीटं किरीटोल्लसच्चंद्ररेखाविभूषम् । विभूषैकभूषं भवध्वंसहेतुं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 4 ॥ उदंचद्भुजावल्लरीदृश्यमूलो- च्चलद्भ्रूलताविभ्रमभ्राजदक्षम् । मरुत्सुंदरीचामरैः सेव्यमानं गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 5 ॥ स्फुरन्निष्ठुरालोलपिंगाक्षितारं कृपाकोमलोदारलीलावतारम् । कलाबिंदुगं गीयते योगिवर्यै- र्गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ 6 ॥ यमेकाक्षरं निर्मलं निर्विकल्पं गुणातीतमानंदमाकारशून्यम् । परं पारमोंकारमाम्नायगर्भं वदंति प्रगल्भं पुराणं तमीडे ॥ 7 ॥ चिदानंदसांद्राय शांताय तुभ्यं नमो विश्वकर्त्रे च हर्त्रे च तुभ्यम् । नमोऽनंतलीलाय कैवल्यभासे नमो विश्वबीज प्रसीदेशसूनो ॥ 8 ॥ इमं सुस्तवं प्रातरुत्थाय भक्त्या पठेद्यस्तु मर्त्यो लभेत्सर्वकामान् । गणेशप्रसादेन सिद्ध्यंति वाचो गणेशे विभौ दुर्लभं किं प्रसन्ने ॥ 9 ॥

    Sankata Nashana Ganesha Stotram (संकट नाशन गणेश स्तोत्रम्)

    संकट नाशन गणेश स्तोत्रम् (Sankata Nashana Ganesha Stotram) नारद उवाच । प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् । भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुष्कामार्थसिद्धये ॥ 1 ॥ प्रथमं वक्रतुंडं च एकदंतं द्वितीयकम् । तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥ 2 ॥ लंबोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च । सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ॥ 3 ॥ नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम् । एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ 4 ॥ द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ 5 ॥ विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् । पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥ 6 ॥ जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् । संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ 7 ॥ अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् । तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ 8 ॥ इति श्रीनारदपुराणे संकष्टनाशनं नाम गणेश स्तोत्रम् ।

    Siddhi Vinayaka Stotram (सिद्धि विनायक स्तोत्रम्)

    सिद्धि विनायक स्तोत्रम् (Siddhi Vinayaka Stotram) विघ्नेश विघ्नचयखंडननामधेय श्रीशंकरात्मज सुराधिपवंद्यपाद । दुर्गामहाव्रतफलाखिलमंगलात्मन् विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 1 ॥ सत्पद्मरागमणिवर्णशरीरकांतिः श्रीसिद्धिबुद्धिपरिचर्चितकुंकुमश्रीः । वक्षःस्थले वलयितातिमनोज्ञशुंडो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 2 ॥ पाशांकुशाब्जपरशूंश्च दधच्चतुर्भि- -र्दोर्भिश्च शोणकुसुमस्रगुमांगजातः । सिंदूरशोभितललाटविधुप्रकाशो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 3 ॥ कार्येषु विघ्नचयभीतविरिंचमुख्यैः संपूजितः सुरवरैरपि मोदकाद्यैः । सर्वेषु च प्रथममेव सुरेषु पूज्यो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 4 ॥ शीघ्रांचनस्खलनतुंगरवोर्ध्वकंठ- -स्थूलेंदुरुद्रगणहासितदेवसंघः । शूर्पश्रुतिश्च पृथुवर्तुलतुंगतुंदो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 5 ॥ यज्ञोपवीतपदलंभितनागराज मासादिपुण्यददृशीकृतृक्षराजः । भक्ताभयप्रद दयालय विघ्नराज विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 6 ॥ सद्रत्नसारततिराजितसत्किरीटः कौसुंभचारुवसनद्वय ऊर्जितश्रीः । सर्वत्रमंगलकरस्मरणप्रतापो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 7 ॥ देवांतकाद्यसुरभीतसुरार्तिहर्ता विज्ञानबोधनवरेण तमोऽपहर्ता । आनंदितत्रिभुवनेश कुमारबंधो विघ्नं ममापहर सिद्धिविनायक त्वम् ॥ 8 ॥ इति श्रीमुद्गलपुराणे श्रीसिद्धिविनायक स्तोत्रं संपूर्णम् ।

    Ganesha Vajra Panjara Stotram (गणेश वज्र पंजर स्तोत्रम्)

    गणेश वज्र पंजर स्तोत्रम् (Ganesha Vajra Panjara Stotram) ध्यानम् । त्रिनेत्रं गजास्यं चतुर्बाहुधारं परश्वादिशस्त्रैर्युतं भालचंद्रम् । नराकारदेहं सदा योगशांतं गणेशं भजे सर्ववंद्यं परेशम् ॥ 1 ॥ बिंदुरूपो वक्रतुंडो रक्षतु मे हृदि स्थितः । देहांश्चतुर्विधांस्तत्त्वांस्तत्त्वाधारः सनातनः ॥ 2 ॥ देहमोहयुतं ह्येकदंतः सोऽहं स्वरूपधृक् । देहिनं मां विशेषेण रक्षतु भ्रमनाशकः ॥ 3 ॥ महोदरस्तथा देवो नानाबोधान् प्रतापवान् । सदा रक्षतु मे बोधानंदसंस्थो ह्यहर्निशम् ॥ 4 ॥ सांख्यान् रक्षतु सांख्येशो गजाननः सुसिद्धिदः । असत्येषु स्थितं मां स लंबोदरश्च रक्षतु ॥ 5 ॥ सत्सु स्थितं सुमोहेन विकटो मां परात्परः । रक्षतु भक्तवात्सल्यात् सदैकामृतधारकः ॥ 6 ॥ आनंदेषु स्थितं नित्यं मां रक्षतु समात्मकः । विघ्नराजो महाविघ्नैर्नानाखेलकरः प्रभुः ॥ 7 ॥ अव्यक्तेषु स्थितं नित्यं धूम्रवर्णः स्वरूपधृक् । मां रक्षतु सुखाकारः सहजः सर्वपूजितः ॥ 8 ॥ स्वसंवेद्येषु संस्थं मां गणेशः स्वस्वरूपधृक् । रक्षतु योगभावेन संस्थितो भवनायकः ॥ 9 ॥ अयोगेषु स्थितं नित्यं मां रक्षतु गणेश्वरः । निवृत्तिरूपधृक् साक्षादसमाधिसुखे रतः ॥ 10 ॥ योगशांतिधरो मां तु रक्षतु योगसंस्थितम् । गणाधीशः प्रसन्नात्मा सिद्धिबुद्धिसमन्वितः ॥ 11 ॥ पुरो मां गजकर्णश्च रक्षतु विघ्नहारकः । वाह्न्यां याम्यां च नैरृत्यां चिंतामणिर्वरप्रदः ॥ 12 ॥ रक्षतु पश्चिमे ढुंढिर्हेरंबो वायुदिक् स्थितम् । विनायकश्चोत्तरे तु प्रमोदश्चेशदिक् स्थितम् ॥ 13 ॥ ऊर्ध्वं सिद्धिपतिः पातु बुद्धीशोऽधः स्थितं सदा । सर्वांगेषु मयूरेशः पातु मां भक्तिलालसः ॥ 14 ॥ यत्र तत्र स्थितं मां तु सदा रक्षतु योगपः । पुरशुपाशसंयुक्तो वरदाभयधारकः ॥ 15 ॥ इदं गणपतेः प्रोक्तं वज्रपंजरकं परम् । धारयस्व महादेव विजयी त्वं भविष्यसि ॥ 16 ॥ य इदं पंजरं धृत्वा यत्र कुत्र स्थितो भवेत् । न तस्य जायते क्वापि भयं नानास्वभावजम् ॥ 17 ॥ यः पठेत् पंजरं नित्यं स ईप्सितमवाप्नुयात् । वज्रसारतनुर्भूत्वा चरेत्सर्वत्र मानवः ॥ 18 ॥ त्रिकालं यः पठेन्नित्यं स गणेश इवापरः । निर्विघ्नः सर्वकार्येषु ब्रह्मभूतो भवेन्नरः ॥ 19 ॥ यः शृणोति गणेशस्य पंजरं वज्रसंज्ञकम् । आरोग्यादिसमायुक्तो भवते गणपप्रियः ॥ 20 ॥ धनं धान्यं पशून् विद्यामायुष्यं पुत्रपौत्रकम् । सर्वसंपत्समायुक्तमैश्वर्यं पठनाल्लभेत् ॥ 21 ॥ न भयं तस्य वज्रात्तु चक्राच्छूलाद्भवेत् कदा । शंकरादेर्महादेव पठनादस्य नित्यशः ॥ 22 ॥ यं यं चिंतयते मर्त्यस्तं तं प्राप्नोति शाश्वतम् । पठनादस्य विघ्नेश पंजरस्य निरंतरम् ॥ 23 ॥ लक्षावृत्तिभिरेवं स सिद्धपंजरको भवेत् । स्तंभयेदपि सूर्यं तु ब्रह्मांडं वशमानयेत् ॥ 24 ॥ एवमुक्त्वा गणेशानोऽंतर्दधे मुनिसत्तम । शिवो देवादिभिर्युक्तो हर्षितः संबभूव ह ॥ 25 ॥ इति श्रीमन्मुद्गले महापुराणे धूम्रवर्णचरिते वज्रपंजरकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।

    Dhundhiraja Bhujanga Prayata Stotram (धुंढिराज भुजंग प्रयात स्तोत्रम्)

    धुंढिराज भुजंग प्रयात स्तोत्रम् (Dhundhiraja Bhujanga Prayata Stotram) उमांगोद्भवं दंतिवक्त्रं गणेशं भुजाकंकणैः शोभिनं धूम्रकेतुम् । गले हारमुक्तावलीशोभितं तं नमो ज्ञानरूपं गणेशं नमस्ते ॥ 1 ॥ गणेशं वदेत्तं स्मरेत् सर्वकार्ये स्मरन् सन्मुखं ज्ञानदं सर्वसिद्धिम् । मनश्चिंतितं कार्यमेवेषु सिद्ध्ये- -न्नमो बुद्धिकांतं गणेशं नमस्ते ॥ 2 ॥ महासुंदरं वक्त्रचिह्नं विराटं चतुर्धाभुजं चैकदंतैकवर्णम् । इदं देवरूपं गणं सिद्धिनाथं नमो भालचंद्रं गणेशं नमस्ते ॥ 3 ॥ ससिंदूरसत्कुंकुमैस्तुल्यवर्णः स्तुतैर्मोदकैः प्रीयते विघ्नराजः । महासंकटच्छेदकं धूम्रकेतुं नमो गौरिपुत्रं गणेशं नमस्ते ॥ 4 ॥ यथा पातकच्छेदकं विष्णुनाम तथा ध्यायतां शंकरं पापनाशः । यथा पूजिते षण्मुखे शोकनाशो नमो विघ्ननाशं गणेशं नमस्ते ॥ 5 ॥ सदा सर्वदा ध्यायतामेकदंतं सुसिंदूरकं पूजितं रक्तपुष्पैः । सदा चर्चितं चंदनैः कुंकुमाक्तं नमो ज्ञानरूपं गणेशं नमस्ते ॥ 6 ॥ नमो गौरिकागर्भजापत्य तुभ्यं नमो ज्ञानरूपिन्नमः सिद्धिकांत । नमो ध्येयपूज्याय हे बुद्धिनाथ सुरास्त्वां भजंते गणेशं नमस्ते ॥ 7 ॥ भुजंगप्रयातं पठेद्यस्तु भक्त्या प्रभाते जपेन्नित्यमेकाग्रचित्तः । क्षयं यांति विघ्ना दिशः शोभयंतं नमो ज्ञानरूपं गणेशं नमस्ते ॥ 8 ॥ इति श्रीढुंढिराज भुजंग प्रयात स्तोत्रम् ।

    Indrakshi Stotram (इंद्राक्षी स्तोत्रम्)

    इंद्राक्षी स्तोत्रम् (Indrakshi Stotram) नारद उवाच । इंद्राक्षीस्तोत्रमाख्याहि नारायण गुणार्णव । पार्वत्यै शिवसंप्रोक्तं परं कौतूहलं हि मे ॥ नारायण उवाच । इंद्राक्षी स्तोत्र मंत्रस्य माहात्म्यं केन वोच्यते । इंद्रेणादौ कृतं स्तोत्रं सर्वापद्विनिवारणम् ॥ तदेवाहं ब्रवीम्यद्य पृच्छतस्तव नारद । अस्य श्री इंद्राक्षीस्तोत्रमहामंत्रस्य, शचीपुरंदर ऋषिः, अनुष्टुप्छंदः, इंद्राक्षी दुर्गा देवता, लक्ष्मीर्बीजं, भुवनेश्वरी शक्तिः, भवानी कीलकं, मम इंद्राक्षी प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । करन्यासः इंद्राक्ष्यै अंगुष्ठाभ्यां नमः । महालक्ष्म्यै तर्जनीभ्यां नमः । महेश्वर्यै मध्यमाभ्यां नमः । अंबुजाक्ष्यै अनामिकाभ्यां नमः । कात्यायन्यै कनिष्ठिकाभ्यां नमः । कौमार्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । अंगन्यासः इंद्राक्ष्यै हृदयाय नमः । महालक्ष्म्यै शिरसे स्वाहा । महेश्वर्यै शिखायै वषट् । अंबुजाक्ष्यै कवचाय हुम् । कात्यायन्यै नेत्रत्रयाय वौषट् । कौमार्यै अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बंधः ॥ ध्यानम् नेत्राणां दशभिश्शतैः परिवृतामत्युग्रचर्मांबराम् । हेमाभां महतीं विलंबितशिखामामुक्तकेशान्विताम् ॥ घंटामंडितपादपद्मयुगलां नागेंद्रकुंभस्तनीम् । इंद्राक्षीं परिचिंतयामि मनसा कल्पोक्तसिद्धिप्रदाम् ॥ 1 ॥ इंद्राक्षीं द्विभुजां देवीं पीतवस्त्रद्वयान्विताम् । वामहस्ते वज्रधरां दक्षिणेन वरप्रदाम् ॥ इंद्राक्षीं सहयुवतीं नानालंकारभूषिताम् । प्रसन्नवदनांभोजामप्सरोगणसेविताम् ॥ 2 ॥ द्विभुजां सौम्यवदानां पाशांकुशधरां पराम् । त्रैलोक्यमोहिनीं देवीं इंद्राक्षी नाम कीर्तिताम् ॥ 3 ॥ पीतांबरां वज्रधरैकहस्तां नानाविधालंकरणां प्रसन्नाम् । त्वामप्सरस्सेवितपादपद्मां इंद्राक्षीं वंदे शिवधर्मपत्नीम् ॥ 4 ॥ पंचपूजा लं पृथिव्यात्मिकायै गंधं समर्पयामि । हं आकाशात्मिकायै पुष्पैः पूजयामि । यं वाय्वात्मिकायै धूपमाघ्रापयामि । रं अग्न्यात्मिकायै दीपं दर्शयामि । वं अमृतात्मिकायै अमृतं महानैवेद्यं निवेदयामि । सं सर्वात्मिकायै सर्वोपचारपूजां समर्पयामि ॥ दिग्देवता रक्ष इंद्र उवाच । इंद्राक्षी पूर्वतः पातु पात्वाग्नेय्यां तथेश्वरी । कौमारी दक्षिणे पातु नैरृत्यां पातु पार्वती ॥ 1 ॥ वाराही पश्चिमे पातु वायव्ये नारसिंह्यपि । उदीच्यां कालरात्री मां ऐशान्यां सर्वशक्तयः ॥ 2 ॥ भैरव्योर्ध्वं सदा पातु पात्वधो वैष्णवी तथा । एवं दशदिशो रक्षेत्सर्वदा भुवनेश्वरी ॥ 3 ॥ ॐ ह्रीं श्रीं इंद्राक्ष्यै नमः । स्तोत्रं इंद्राक्षी नाम सा देवी देवतैस्समुदाहृता । गौरी शाकंभरी देवी दुर्गानाम्नीति विश्रुता ॥ 1 ॥ नित्यानंदी निराहारी निष्कलायै नमोऽस्तु ते । कात्यायनी महादेवी चंद्रघंटा महातपाः ॥ 2 ॥ सावित्री सा च गायत्री ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी । नारायणी भद्रकाली रुद्राणी कृष्णपिंगला ॥ 3 ॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्री तपस्विनी । मेघस्वना सहस्राक्षी विकटांगी (विकारांगी) जडोदरी ॥ 4 ॥ महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला । अजिता भद्रदाऽनंता रोगहंत्री शिवप्रिया ॥ 5 ॥ शिवदूती कराली च प्रत्यक्षपरमेश्वरी । इंद्राणी इंद्ररूपा च इंद्रशक्तिःपरायणी ॥ 6 ॥ सदा सम्मोहिनी देवी सुंदरी भुवनेश्वरी । एकाक्षरी परा ब्राह्मी स्थूलसूक्ष्मप्रवर्धनी ॥ 7 ॥ रक्षाकरी रक्तदंता रक्तमाल्यांबरा परा । महिषासुरसंहर्त्री चामुंडा सप्तमातृका ॥ 8 ॥ वाराही नारसिंही च भीमा भैरववादिनी । श्रुतिस्स्मृतिर्धृतिर्मेधा विद्यालक्ष्मीस्सरस्वती ॥ 9 ॥ अनंता विजयाऽपर्णा मानसोक्तापराजिता । भवानी पार्वती दुर्गा हैमवत्यंबिका शिवा ॥ 10 ॥ शिवा भवानी रुद्राणी शंकरार्धशरीरिणी । ऐरावतगजारूढा वज्रहस्ता वरप्रदा ॥ 11 ॥ धूर्जटी विकटी घोरी ह्यष्टांगी नरभोजिनी । भ्रामरी कांचि कामाक्षी क्वणन्माणिक्यनूपुरा ॥ 12 ॥ ह्रींकारी रौद्रभेताली ह्रुंकार्यमृतपाणिनी । त्रिपाद्भस्मप्रहरणा त्रिशिरा रक्तलोचना ॥ 13 ॥ नित्या सकलकल्याणी सर्वैश्वर्यप्रदायिनी । दाक्षायणी पद्महस्ता भारती सर्वमंगला ॥ 14 ॥ कल्याणी जननी दुर्गा सर्वदुःखविनाशिनी । इंद्राक्षी सर्वभूतेशी सर्वरूपा मनोन्मनी ॥ 15 ॥ महिषमस्तकनृत्यविनोदन- स्फुटरणन्मणिनूपुरपादुका । जननरक्षणमोक्षविधायिनी जयतु शुंभनिशुंभनिषूदिनी ॥ 16 ॥ शिवा च शिवरूपा च शिवशक्तिपरायणी । मृत्युंजयी महामायी सर्वरोगनिवारिणी ॥ 17 ॥ ऐंद्रीदेवी सदाकालं शांतिमाशुकरोतु मे । ईश्वरार्धांगनिलया इंदुबिंबनिभानना ॥ 18 ॥ सर्वोरोगप्रशमनी सर्वमृत्युनिवारिणी । अपवर्गप्रदा रम्या आयुरारोग्यदायिनी ॥ 19 ॥ इंद्रादिदेवसंस्तुत्या इहामुत्रफलप्रदा । इच्छाशक्तिस्वरूपा च इभवक्त्राद्विजन्मभूः ॥ 20 ॥ भस्मायुधाय विद्महे रक्तनेत्राय धीमहि तन्नो ज्वरहरः प्रचोदयात् ॥ 21 ॥ मंत्रः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं क्लूं इंद्राक्ष्यै नमः ॥ 22 ॥ ॐ नमो भगवती इंद्राक्षी सर्वजनसम्मोहिनी कालरात्री नारसिंही सर्वशत्रुसंहारिणी अनले अभये अजिते अपराजिते महासिंहवाहिनी महिषासुरमर्दिनी हन हन मर्दय मर्दय मारय मारय शोषय शोषय दाहय दाहय महाग्रहान् संहर संहर यक्षग्रह राक्षसग्रह स्कंदग्रह विनायकग्रह बालग्रह कुमारग्रह चोरग्रह भूतग्रह प्रेतग्रह पिशाचग्रह कूष्मांडग्रहादीन् मर्दय मर्दय निग्रह निग्रह धूमभूतान्संत्रावय संत्रावय भूतज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर उष्णज्वर पित्तज्वर वातज्वर श्लेष्मज्वर कफज्वर आलापज्वर सन्निपातज्वर माहेंद्रज्वर कृत्रिमज्वर कृत्यादिज्वर एकाहिकज्वर द्वयाहिकज्वर त्रयाहिकज्वर चातुर्थिकज्वर पंचाहिकज्वर पक्षज्वर मासज्वर षण्मासज्वर संवत्सरज्वर ज्वरालापज्वर सर्वज्वर सर्वांगज्वरान् नाशय नाशय हर हर हन हन दह दह पच पच ताडय ताडय आकर्षय आकर्षय विद्वेषय विद्वेषय स्तंभय स्तंभय मोहय मोहय उच्चाटय उच्चाटय हुं फट् स्वाहा ॥ 23 ॥ ॐ ह्रीं ॐ नमो भगवती त्रैलोक्यलक्ष्मी सर्वजनवशंकरी सर्वदुष्टग्रहस्तंभिनी कंकाली कामरूपिणी कालरूपिणी घोररूपिणी परमंत्रपरयंत्र प्रभेदिनी प्रतिभटविध्वंसिनी परबलतुरगविमर्दिनी शत्रुकरच्छेदिनी शत्रुमांसभक्षिणी सकलदुष्टज्वरनिवारिणी भूत प्रेत पिशाच ब्रह्मराक्षस यक्ष यमदूत शाकिनी डाकिनी कामिनी स्तंभिनी मोहिनी वशंकरी कुक्षिरोग शिरोरोग नेत्ररोग क्षयापस्मार कुष्ठादि महारोगनिवारिणी मम सर्वरोगं नाशय नाशय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हुं फट् स्वाहा ॥ 24 ॥ ॐ नमो भगवती माहेश्वरी महाचिंतामणी दुर्गे सकलसिद्धेश्वरी सकलजनमनोहारिणी कालकालरात्री महाघोररूपे प्रतिहतविश्वरूपिणी मधुसूदनी महाविष्णुस्वरूपिणी शिरश्शूल कटिशूल अंगशूल पार्श्वशूल नेत्रशूल कर्णशूल पक्षशूल पांडुरोग कामारादीन् संहर संहर नाशय नाशय वैष्णवी ब्रह्मास्त्रेण विष्णुचक्रेण रुद्रशूलेन यमदंडेन वरुणपाशेन वासववज्रेण सर्वानरीं भंजय भंजय राजयक्ष्म क्षयरोग तापज्वरनिवारिणी मम सर्वज्वरं नाशय नाशय य र ल व श ष स ह सर्वग्रहान् तापय तापय संहर संहर छेदय छेदय उच्चाटय उच्चाटय ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहा ॥ 25 ॥ उत्तरन्यासः करन्यासः इंद्राक्ष्यै अंगुष्ठाभ्यां नमः । महालक्ष्म्यै तर्जनीभ्यां नमः । महेश्वर्यै मध्यमाभ्यां नमः । अंबुजाक्ष्यै अनामिकाभ्यां नमः । कात्यायन्यै कनिष्ठिकाभ्यां नमः । कौमार्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । अंगन्यासः इंद्राक्ष्यै हृदयाय नमः । महालक्ष्म्यै शिरसे स्वाहा । महेश्वर्यै शिखायै वषट् । अंबुजाक्ष्यै कवचाय हुम् । कात्यायन्यै नेत्रत्रयाय वौषट् । कौमार्यै अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्विमोकः ॥ समर्पणं गुह्यादि गुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवी त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरान् ॥ 26 फलश्रुतिः नारायण उवाच । एतैर्नामशतैर्दिव्यैः स्तुता शक्रेण धीमता । आयुरारोग्यमैश्वर्यं अपमृत्युभयापहम् ॥ 27 ॥ क्षयापस्मारकुष्ठादि तापज्वरनिवारणम् । चोरव्याघ्रभयं तत्र शीतज्वरनिवारणम् ॥ 28 ॥ माहेश्वरमहामारी सर्वज्वरनिवारणम् । शीतपैत्तकवातादि सर्वरोगनिवारणम् ॥ 29 ॥ सन्निज्वरनिवारणं सर्वज्वरनिवारणम् । सर्वरोगनिवारणं सर्वमंगलवर्धनम् ॥ 30 ॥ शतमावर्तयेद्यस्तु मुच्यते व्याधिबंधनात् । आवर्तयन्सहस्रात्तु लभते वांछितं फलम् ॥ 31 ॥ एतत् स्तोत्रं महापुण्यं जपेदायुष्यवर्धनम् । विनाशाय च रोगाणामपमृत्युहराय च ॥ 32 ॥ द्विजैर्नित्यमिदं जप्यं भाग्यारोग्याभीप्सुभिः । नाभिमात्रजलेस्थित्वा सहस्रपरिसंख्यया ॥ 33 ॥ जपेत्स्तोत्रमिमं मंत्रं वाचां सिद्धिर्भवेत्ततः । अनेनविधिना भक्त्या मंत्रसिद्धिश्च जायते ॥ 34 ॥ संतुष्टा च भवेद्देवी प्रत्यक्षा संप्रजायते । सायं शतं पठेन्नित्यं षण्मासात्सिद्धिरुच्यते ॥ 35 ॥ चोरव्याधिभयस्थाने मनसाह्यनुचिंतयन् । संवत्सरमुपाश्रित्य सर्वकामार्थसिद्धये ॥ 36 ॥ राजानं वश्यमाप्नोति षण्मासान्नात्र संशयः । अष्टदोर्भिस्समायुक्ते नानायुद्धविशारदे ॥ 37 ॥ भूतप्रेतपिशाचेभ्यो रोगारातिमुखैरपि । नागेभ्यः विषयंत्रेभ्यः आभिचारैर्महेश्वरी ॥ 38 ॥ रक्ष मां रक्ष मां नित्यं प्रत्यहं पूजिता मया । सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यंबके देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥ 39 ॥ वरं प्रदाद्महेंद्राय देवराज्यं च शाश्वतम् । इंद्रस्तोत्रमिदं पुण्यं महदैश्वर्यकारणम् ॥ 40 ॥ इति इंद्राक्षी स्तोत्रम् ।

    Dakshina Murthy Stotram (दक्षिणा मूर्ति स्तोत्रम्)

    दक्षिणा मूर्ति स्तोत्रम् (Dakshina Murthy Stotram) शान्तिपाठः ॐ यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ ध्यानम् ॐ मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं वर्षिष्ठान्ते वसदृषिगणैरावृतं ब्रह्मनिष्ठैः । आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानन्दमूर्तिं स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥ 1 ॥ वटविटपिसमीपेभूमिभागे निषण्णं सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् । त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥ 2 ॥ चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः ॥ 3 ॥ निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् । गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 4 ॥ ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये । निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 5 ॥ चिद्घनाय महेशाय वटमूलनिवासिने । सच्चिदानन्दरूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 6 ॥ ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने । व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ 7 ॥ अङ्गुष्ठतर्जनी योगमुद्रा व्याजेनयोगिनाम् । शृत्यर्थं ब्रह्मजीवैक्यं दर्शयन्योगता शिवः ॥ 8 ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ स्तोत्रम् विश्वं दर्पण-दृश्यमान-नगरी तुल्यं निजान्तर्गतं पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया । यस्साक्षात्कुरुते प्रभोधसमये स्वात्मानमे वाद्वयं तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 1 ॥ बीजस्यान्तरि-वाङ्कुरो जगदितं प्राङ्निर्विकल्पं पुनः मायाकल्पित देशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् । मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 2 ॥ यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते साक्षात्तत्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् । यस्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुरनावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 3 ॥ नानाच्छिद्र घटोदर स्थित महादीप प्रभाभास्वरं ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण द्वारा बहिः स्पन्दते । जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत् तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 4 ॥ देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः स्त्री बालान्ध जडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ताभृशं वादिनः । मायाशक्ति विलासकल्पित महाव्यामोह संहारिणे तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 5 ॥ राहुग्रस्त दिवाकरेन्दु सदृशो माया समाच्छादनात् सन्मात्रः करणोप संहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् । प्रागस्वाप्समिति प्रभोदसमये यः प्रत्यभिज्ञायते तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 6 ॥ बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि व्यावृत्ता स्वनु वर्तमान महमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा । स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 7 ॥ विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः शिष्यचार्यतया तथैव पितृ पुत्राद्यात्मना भेदतः । स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो माया परिभ्रामितः तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 8 ॥ भूरम्भांस्यनलोऽनिलोम्बर महर्नाथो हिमांशुः पुमान् इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् । नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 9 ॥ सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे तेनास्व श्रवणात्तदर्थ मननाद्ध्यानाच्च सङ्कीर्तनात् । सर्वात्मत्व महाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्य-मव्याहतम् ॥ 10 ॥ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं दक्षिणामूर्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

    Shiv Shadakshari Stotram (शिव षडक्षरी स्तोत्रम्)

    शिव षडक्षरी स्तोत्रम् (Shiv Shadakshari Stotram) ॥ॐ ॐ॥ ओङ्कारबिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं तस्मादोङ्काराय नमोनमः ॥ 1 ॥ ॥ॐ नं॥ नमन्ति मुनयः सर्वे नमन्त्यप्सरसां गणाः । नराणामादिदेवाय नकाराय नमोनमः ॥ 2 ॥ ॥ॐ मं॥ महातत्वं महादेव प्रियं ज्ञानप्रदं परम् । महापापहरं तस्मान्मकाराय नमोनमः ॥ 3 ॥ ॥ॐ शिं॥ शिवं शान्तं शिवाकारं शिवानुग्रहकारणम् । महापापहरं तस्माच्छिकाराय नमोनमः ॥ 4 ॥ ॥ॐ वां॥ वाहनं वृषभोयस्य वासुकिः कण्ठभूषणम् । वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमोनमः ॥ 5 ॥ ॥ॐ यं॥ यकारे संस्थितो देवो यकारं परमं शुभम् । यं नित्यं परमानन्दं यकाराय नमोनमः ॥ 6 ॥ षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिव सन्निधौ । तस्य मृत्युभयं नास्ति ह्यपमृत्युभयं कुतः ॥ शिवशिवेति शिवेति शिवेति वा भवभवेति भवेति भवेति वा । हरहरेति हरेति हरेति वा भुजमनश्शिवमेव निरन्तरम् ॥ इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीमच्छङ्करभगवत्पादपूज्यकृत शिवषडक्षरीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Mahamrityunjaya Stotram (महामृत्युञ्जयस्तोत्रम्)

    महामृत्युञ्जयस्तोत्रम् (रुद्रं पशुपतिम्) (Mahamrityunjaya Stotram) श्रीगणेशाय नमः । ॐ अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयस्तोत्रमन्त्रस्य श्री मार्कण्डेय ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीमृत्युञ्जयो देवता, गौरी शक्तिः, मम सर्वारिष्टसमस्तमृत्युशान्त्यर्थं सकलैश्वर्यप्राप्त्यर्थं जपे विनोयोगः । ध्यानम् चन्द्रार्काग्निविलोचनं स्मितमुखं पद्मद्वयान्तस्थितं मुद्रापाशमृगाक्षसत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम् । कोटीन्दुप्रगलत्सुधाप्लुततमुं हारादिभूषोज्ज्वलं कान्तं विश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावयेत् ॥ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 1॥ नीलकण्ठं कालमूर्त्तिं कालज्ञं कालनाशनम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 2॥ नीलकण्ठं विरूपाक्षं निर्मलं निलयप्रदम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 3॥ वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 4॥ देवदेवं जगन्नाथं देवेशं वृषभध्वजम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 5॥ त्र्यक्षं चतुर्भुजं शान्तं जटामकुटधारिणम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 6॥ भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं नागाभरणभूषितम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 7॥ अनन्तमव्ययं शान्तं अक्षमालाधरं हरम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 8॥ आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपददायिनम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 9॥ अर्द्धनारीश्वरं देवं पार्वतीप्राणनायकम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 10॥ प्रलयस्थितिकर्त्तारमादिकर्त्तारमीश्वरम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 11॥ व्योमकेशं विरूपाक्षं चन्द्रार्द्धकृतशेखरम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 12॥ गङ्गाधरं शशिधरं शङ्करं शूलपाणिनम् । (पाठभेदः) गङ्गाधरं महादेवं सर्वाभरणभूषितम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 13॥ अनाथः परमानन्तं कैवल्यपदगामिनि । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 14॥ स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 15॥ कल्पायुर्द्देहि मे पुण्यं यावदायुररोगताम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 16॥ शिवेशानां महादेवं वामदेवं सदाशिवम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 17॥ उत्पत्तिस्थितिसंहारकर्तारमीश्वरं गुरुम् । नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥ 18॥ फलश्रुति मार्कण्डेयकृतं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ । तस्य मृत्युभयं नास्ति नाग्निचौरभयं क्वचित् ॥ 19॥ शतावर्त्तं प्रकर्तव्यं सङ्कटे कष्टनाशनम् । शुचिर्भूत्वा पथेत्स्तोत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ 20॥ मृत्युञ्जय महादेव त्राहि मां शरणागतम् । जन्ममृत्युजरारोगैः पीडितं कर्मबन्धनैः ॥ 21॥ तावकस्त्वद्गतः प्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड । इति विज्ञाप्य देवेशं त्र्यम्बकाख्यमनुं जपेत् ॥ 23॥ नमः शिवाय साम्बाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय योगिनां पतये नमः ॥ 24॥ शताङ्गायुर्मन्त्रः । ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रैं ह्रः हन हन दह दह पच पच गृहाण गृहाण मारय मारय मर्दय मर्दय महामहाभैरव भैरवरूपेण धुनय धुनय कम्पय कम्पय विघ्नय विघ्नय विश्वेश्वर क्षोभय क्षोभय कटुकटु मोहय मोहय हुं फट् स्वाहा इति मन्त्रमात्रेण समाभीष्टो भवति ॥ ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे मार्कण्डेयकृत महामृत्युञ्जयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Ramashtottara Shat Naam Stotram (श्री रामाष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम्)

    श्री रामाष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम् (Shri Ramashtottara Shat Naam Stotram) ॥ श्री राम अष्टोत्तर शतनामस्तोत्रम् ॥ श्रीरामो रामभद्रश्च रामचन्द्रश्च शाश्वतः । राजीवलोचनः श्रीमान् राजेन्द्रो रघुपुङ्गवः ॥ 1 ॥ जानकीवल्लभो जैत्रो जितामित्रो जनार्दनः । विश्वामित्रप्रियो दान्तः शरणत्राणतत्परः ॥ 2 ॥ वालिप्रमथनो वाग्मी सत्यवाक् सत्यविक्रमः । सत्यव्रतो व्रतधरः सदा हनुमदाश्रित: ॥ 3 ॥ कऽउसल्येयः खरध्वंसी विराधवधपण्डितः । विभीषणपरित्राता हरकोदण्डखण्डनः ॥ 4 ॥ सप्ततालप्रभेत्ता च दशग्रीवशिरोहरः । जामदग्व्यमहादर्पदलनस्ताटकान्तकः ॥ 5 ॥ वेदान्तसारो वेदात्मा भवरोगस्य भेषजम् । दूषणत्रिशिरोहन्ता त्रिमूर्तिस्त्रिगुणात्मकः ॥ 6 ॥ त्रिविक्रमस्त्रिलोकात्मा पुण्यचारित्रकीर्तनः । त्रिलोकरक्षको धन्वी दण्डकारण्यकर्षणः ॥ 7 ॥ अहल्याशापशमनः पितृभक्तो वरप्रदः । जितेन्द्रियो जितक्रोधो जितावद्यो जगद्गुरुः ॥ 8 ॥ ऋक्षवानरसङ्घाती चित्रकूटसमाश्रयः । जयन्तत्राणवरदः सुमित्रापुत्रसेवितः ॥ 9 ॥ सर्वदेवाधिदेवश्चमृतवानरजीवनः । मायामारीचहन्ता च महादेवो महाभुजः ॥ 10 ॥ सर्वदेवस्तुतः सऽउम्यो ब्रह्मण्यो मुनिसंस्तुतः । महायोगी महोदारः सुग्रीवेप्सितराज्यदः ॥ 11 ॥ सर्वपुण्याधिकफलः स्मृतसर्वाघनाशनः । आदिपुरुषः परमपुरुषो महापुरुष एव च ॥ 12 ॥ पुण्योदयो दयासारः पुराणपुरुषोत्तमः । स्मितवक्त्रो मिताभाषी पूर्वभाषी च राघवः ॥ 13 ॥ अनन्तगुणगम्भीरो धीरोदात्तगुणोत्तमः । मायामानुषचारित्रो महादेवादिपूजितः ॥ 14 ॥ सेतुकृज्जितवाराशिः सर्वतीर्थमयो हरिः । श्यामाङ्गः सुन्दरः शूरः पीतवासा धनुर्धरः ॥ 15 ॥ सर्वयज्ञाधिपो यज्वा जरामरणवर्जितः । विभीषणप्रतिष्ठाता सर्वापगुणवर्जितः ॥ 16 ॥ परमात्मा परं ब्रह्म सच्चिदानन्दविग्रहः । परञ्ज्योतिः परन्धाम पराकाशः परात्परः । परेशः पारगः पारः सर्वदेवात्मकः परः ॥ 17 ॥ श्रीरामाष्टोत्तरशतं भवतापनिवारकम् । सम्पत्करं त्रिसन्ध्यासु पठतां भक्तिपूर्वकम् ॥ 18 ॥ रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाःपतये नमः ॥ 19 ॥ ॥ इति श्रीस्कन्दपुऱाणे श्रीराम अष्टोत्तर शतनामस्तोत्रम् ॥

    Shri Vishnu Shat Nam Stotram (Vishnu Purana) (श्री विष्णु शत नाम स्तोत्रम्)

    श्री विष्णु शत नाम स्तोत्रम् (विष्णु पुराण) (Shri Vishnu Shat Nam Stotram (Vishnu Purana)) ॥ श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनामस्तोत्रम् ॥ वासुदेवं हृषीकेशं वामनं जलशायिनम् । जनार्दनं हरिं कृष्णं श्रीवक्षं गरुडध्वजम् ॥ 1 ॥ वाराहं पुण्डरीकाक्षं नृसिंहं नरकान्तकम् । अव्यक्तं शाश्वतं विष्णुमनन्तमजमव्ययम् ॥ 2 ॥ नारायणं गदाध्यक्षं गोविन्दं कीर्तिभाजनम् । गोवर्धनोद्धरं देवं भूधरं भुवनेश्वरम् ॥ 3 ॥ वेत्तारं यज्ञपुरुषं यज्ञेशं यज्ञवाहनम् । चक्रपाणिं गदापाणिं शङ्खपाणिं नरोत्तमम् ॥ 4 ॥ वैकुण्ठं दुष्टदमनं भूगर्भं पीतवाससम् । त्रिविक्रमं त्रिकालज्ञं त्रिमूर्तिं नन्दकेश्वरम् ॥ 5 ॥ रामं रामं हयग्रीवं भीमं रऽउद्रं भवोद्भवम् । श्रीपतिं श्रीधरं श्रीशं मङ्गलं मङ्गलायुधम् ॥ 6 ॥ दामोदरं दमोपेतं केशवं केशिसूदनम् । वरेण्यं वरदं विष्णुमानन्दं वासुदेवजम् ॥ 7 ॥ हिरण्यरेतसं दीप्तं पुराणं पुरुषोत्तमम् । सकलं निष्कलं शुद्धं निर्गुणं गुणशाश्वतम् ॥ 8 ॥ हिरण्यतनुसङ्काशं सूर्यायुतसमप्रभम् । मेघश्यामं चतुर्बाहुं कुशलं कमलेक्षणम् ॥ 9 ॥ ज्योतीरूपमरूपं च स्वरूपं रूपसंस्थितम् । सर्वज्ञं सर्वरूपस्थं सर्वेशं सर्वतोमुखम् ॥ 10 ॥ ज्ञानं कूटस्थमचलं ज्ञ्हानदं परमं प्रभुम् । योगीशं योगनिष्णातं योगिसंयोगरूपिणम् ॥ 11 ॥ ईश्वरं सर्वभूतानां वन्दे भूतमयं प्रभुम् । इति नामशतं दिव्यं वैष्णवं खलु पापहम् ॥ 12 ॥ व्यासेन कथितं पूर्वं सर्वपापप्रणाशनम् । यः पठेत् प्रातरुत्थाय स भवेद् वैष्णवो नरः ॥ 13 ॥ सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुसायुज्यमाप्नुयात् । चान्द्रायणसहस्राणि कन्यादानशतानि च ॥ 14 ॥ गवां लक्षसहस्राणि मुक्तिभागी भवेन्नरः । अश्वमेधायुतं पुण्यं फलं प्राप्नोति मानवः ॥ 15 ॥ ॥ इति श्रीविष्णुपुराणे श्री विष्णु अष्टोत्तर शतनास्तोत्रम् ॥

    Shri Panchayudha Stotram (श्री पञ्चायुध स्तोत्रम्)

    श्री पञ्चायुध स्तोत्रम् (Shri Panchayudha Stotram) स्फुरत्सहस्रारशिखातितीव्रं सुदर्शनं भास्करकोटितुल्यम् । सुरद्विषां प्राणविनाशि विष्णोः चक्रं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 1 ॥ विष्णोर्मुखोत्थानिलपूरितस्य यस्य ध्वनिर्दानवदर्पहन्ता । तं पाञ्चजन्यं शशिकोटिशुभ्रं शङ्खं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ हिरण्मयीं मेरुसमानसारां कौमोदकीं दैत्यकुलैकहन्त्रीम् । वैकुण्ठवामाग्रकराग्रमृष्टां गदां सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 3 ॥ यज्ज्यानिनादश्रवणात्सुराणां चेतांसि निर्मुक्तभयानि सद्यः । भवन्ति दैत्याशनिबाणवर्षैः शार्ङ्गं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 4 ॥ रक्षोऽसुराणां कठिनोग्रकण्ठ- -च्छेदक्षरत्‍क्षोणित दिग्धसारम् । तं नन्दकं नाम हरेः प्रदीप्तं खड्गं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ 5 ॥ इमं हरेः पञ्चमहायुधानां स्तवं पठेद्योऽनुदिनं प्रभाते । समस्त दुःखानि भयानि सद्यः पापानि नश्यन्ति सुखानि सन्ति ॥ 6 ॥ वने रणे शत्रु जलाग्निमध्ये यदृच्छयापत्सु महाभयेषु । पठेत्विदं स्तोत्रमनाकुलात्मा सुखीभवेत्तत्कृत सर्वरक्षः ॥ 7 ॥ यच्चक्रशङ्खं गदखड्गशार्ङ्गिणं पीताम्बरं कौस्तुभवत्सलाञ्छितम् । श्रियासमेतोज्ज्वलशोभिताङ्गं विष्णुं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ॥ जले रक्षतु वाराहः स्थले रक्षतु वामनः । अटव्यां नारसिंहश्च सर्वतः पातु केशवः ॥ इति पञ्चायुध स्तोत्रम् ॥

    Dashavatara Stotram (दशावतार स्तोत्रम्)

    दशावतार स्तोत्रम् (वेदान्ताचार्य कृतम्) (Dashavatara Stotram) देवो नश्शुभमातनोतु दशधा निर्वर्तयन्भूमिकां रङ्गे धामनि लब्धनिर्भररसैरध्यक्षितो भावुकैः । यद्भावेषु पृथग्विधेष्वनुगुणान्भावान्स्वयं बिभ्रती यद्धर्मैरिह धर्मिणी विहरते नानाकृतिर्नायिका ॥ 1 ॥ निर्मग्नश्रुतिजालमार्गणदशादत्तक्षणैर्वीक्षणै- रन्तस्तन्वदिवारविन्दगहनान्यौदन्वतीनामपाम् । निष्प्रत्यूहतरङ्गरिङ्खणमिथः प्रत्यूढपाथश्छटा- डोलारोहसदोहलं भगवतो मात्स्यं वपुः पातु नः ॥ 2 ॥ अव्यासुर्भुवनत्रयीमनिभृतं कण्डूयनैरद्रिणा निद्राणस्य परस्य कूर्मवपुषो निश्वासवातोर्मयः । यद्विक्षेपणसंस्कृतोदधिपयः प्रेङ्खोलपर्यङ्किका- नित्यारोहणनिर्वृतो विहरते देवस्सहैव श्रिया ॥ 3 ॥ गोपायेदनिशं जगन्ति कुहनापोत्री पवित्रीकृत- ब्रह्माण्डप्रलयोर्मिघोषगुरुभिर्घोणारवैर्घुर्घुरैः । यद्दंष्ट्राङ्कुरकोटिगाढघटनानिष्कम्पनित्यस्थिति- र्ब्रह्मस्तम्बमसौदसौ भगवतीमुस्तेवविश्वम्भरा ॥ 4 ॥ प्रत्यादिष्टपुरातनप्रहरणग्रामःक्षणं पाणिजै- रव्यात्त्रीणि जगन्त्यकुण्ठमहिमा वैकुण्ठकण्ठीरवः । यत्प्रादुर्भवनादवन्ध्यजठरायादृच्छिकाद्वेधसां- या काचित्सहसा महासुरगृहस्थूणापितामह्यभृत् ॥ 5 ॥ व्रीडाविद्धवदान्यदानवयशोनासीरधाटीभट- स्त्रैयक्षं मकुटं पुनन्नवतु नस्त्रैविक्रमो विक्रमः । यत्प्रस्तावसमुच्छ्रितध्वजपटीवृत्तान्तसिद्धान्तिभि- स्स्रोतोभिस्सुरसिन्धुरष्टसुदिशासौधेषु दोधूयते ॥ 6 ॥ क्रोधाग्निं जमदग्निपीडनभवं सन्तर्पयिष्यन् क्रमा- दक्षत्रामिह सन्ततक्ष य इमां त्रिस्सप्तकृत्वः क्षितिम् । दत्वा कर्मणि दक्षिणां क्वचन तामास्कन्द्य सिन्धुं वस- न्नब्रह्मण्यमपाकरोतु भगवानाब्रह्मकीटं मुनिः ॥ 7 ॥ पारावारपयोविशोषणकलापारीणकालानल- ज्वालाजालविहारहारिविशिखव्यापारघोरक्रमः । सर्वावस्थसकृत्प्रपन्नजनतासंरक्षणैकव्रती धर्मो विग्रहवानधर्मविरतिं धन्वी सतन्वीतु नः ॥ 8 ॥ फक्कत्कौरवपट्टणप्रभृतयः प्रास्तप्रलम्बादय- स्तालाङ्कास्यतथाविधा विहृतयस्तन्वन्तु भद्राणि नः । क्षीरं शर्करयेव याभिरपृथग्भूताः प्रभूतैर्गुणै- राकौमारकमस्वदन्तजगते कृष्णस्य ताः केलयः ॥ 9 ॥ नाथायैव नमः पदं भवतु नश्चित्रैश्चरित्रक्रमै- र्भूयोभिर्भुवनान्यमूनिकुहनागोपाय गोपायते । कालिन्दीरसिकायकालियफणिस्फारस्फटावाटिका- रङ्गोत्सङ्गविशङ्कचङ्क्रमधुरापर्याय चर्यायते ॥ 10 ॥ भाविन्या दशयाभवन्निह भवध्वंसाय नः कल्पतां कल्की विष्णुयशस्सुतः कलिकथाकालुष्यकूलङ्कषः । निश्शेषक्षतकण्टके क्षितितले धाराजलौघैर्ध्रुवं धर्मं कार्तयुगं प्ररोहयति यन्निस्त्रिंशधाराधरः ॥ 11 ॥ इच्छामीन विहारकच्छप महापोत्रिन् यदृच्छाहरे रक्षावामन रोषराम करुणाकाकुत्स्थ हेलाहलिन् । क्रीडावल्लव कल्किवाहन दशाकल्किन्निति प्रत्यहं जल्पन्तः पुरुषाः पुनन्तु भुवनं पुण्यौघपण्यापणाः ॥ विद्योदन्वति वेङ्कटेश्वरकवौ जातं जगन्मङ्गलं देवेशस्यदशावतारविषयं स्तोत्रं विवक्षेत यः । वक्त्रे तस्य सरस्वती बहुमुखी भक्तिः परा मानसे शुद्धिः कापि तनौ दिशासु दशसु ख्यातिश्शुभा जृम्भते ॥ इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु दशावतारस्तोत्रम् ।

    Sudarshan Ashtottara Shat Naam Stotram (सुदर्शन अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम्)

    सुदर्शन अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम् (Sudarshan Ashtottara Shat Naam Stotram) सुदर्शनश्चक्रराजः तेजोव्यूहो महाद्युतिः । सहस्रबाहु-र्दीप्ताङ्गः अरुणाक्षः प्रतापवान् ॥ 1॥ अनेकादित्यसङ्काशः प्रोद्यज्ज्वालाभिरञ्जितः । सौदामिनी-सहस्राभः मणिकुण्डल-शोभितः ॥ 2॥ पञ्चभूतमनोरूपो षट्कोणान्तर-संस्थितः । हरान्तः करणोद्भूत-रोषभीषण-विग्रहः ॥ 3॥ हरिपाणिलसत्पद्मविहारारमनोहरः । श्राकाररूपस्सर्वज्ञः सर्वलोकार्चितप्रभुः ॥ 4॥ चतुर्दशसहस्रारः चतुर्वेदमयो-ऽनलः । भक्तचान्द्रमसज्योतिः भवरोग-विनाशकः ॥ 5॥ रेफात्मको मकारश्च रक्षोसृग्रूषिताङ्गकः । सर्वदैत्यग्रीवनाल-विभेदन-महागजः ॥ 6॥ भीमदंष्ट्रोज्ज्वलाकारो भीमकर्मा विलोचनः । नीलवर्त्मा नित्यसुखो निर्मलश्री-र्निरञ्जनः ॥ 7॥ रक्तमाल्याम्बरधरो रक्तचन्दनरूषितः । रजोगुणाकृतिश्शूरो रक्षःकुल-यमोपमः ॥ 8॥ नित्यक्षेमकरः प्राज्ञः पाषण्डजनखण्डनः । नारायणाज्ञानुवर्ती नैगमान्तःप्रकाशकः ॥ 9॥ बलिनन्दनदोर्दण्ड-खण्डनो विजयाकृतिः । मित्रभावी सर्वमयो तमोविध्वंसकस्तथा ॥ 10॥ रजस्सत्त्वतमोद्वर्ती त्रिगुणात्मा त्रिलोकधृत् । हरिमायागुणोपेतो-ऽव्ययो-ऽक्षस्वरूपभाक् ॥ 11॥ परमात्मा परञ्ज्योतिः पञ्चकृत्य-परायणः । ज्ञानशक्ति-बलैश्वर्य-वीर्य-तेजः-प्रभामयः ॥ 12॥ सदसत्परमः पूर्णो वाङ्मयो वरदोऽच्युतः । जीवो गुरुर्हंसरूपः पञ्चाशत्पीठरूपकः ॥ 13॥ मातृकामण्डलाध्यक्षो मधुध्वंसी मनोमयः । बुद्धिरूपश्चित्तसाक्षी सारो हंसाक्षरद्वयः ॥ 14॥ मन्त्र-यन्त्र-प्रभावज्ञो मन्त्र-यन्त्र-मयो विभुः । स्रष्टा क्रियास्पद-श्शुद्धः आधारश्चक्र-रूपकः ॥ 15॥ निरायुधो ह्यसंरम्भः सर्वायुध-समन्वितः । ओम्काररूपी पूर्णात्मा आङ्कारस्साध्य-बन्धनः ॥ 16॥ ऐङ्कारो वाक्प्रदो वग्मी श्रीङ्कारैश्वर्यवर्धनः । क्लीङ्कारमोहनाकारो हुम्फट्क्षोभणाकृतिः ॥ 17॥ इन्द्रार्चित-मनोवेगो धरणीभार-नाशकः । वीराराध्यो विश्वरूपः वैष्णवो विष्णुरूपकः ॥ 18॥ सत्यव्रतः सत्यधरः सत्यधर्मानुषङ्गकः' नारायणकृपाव्यूह-तेजश्चक्र-स्सुदर्शनः ॥ 19॥ ॥ श्री सुदर्शनाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

    Maha Vishnu Stotram - Garudgaman Tav (महा विष्णु स्तोत्रम् - गरुडगमन तव)

    महा विष्णु स्तोत्रम् - गरुडगमन तव (Maha Vishnu Stotram - Garudgaman Tav) गरुडगमन तव चरणकमलमिह मनसि लसतु मम नित्यम् मनसि लसतु मम नित्यम् । मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ ध्रु.॥ जलजनयन विधिनमुचिहरणमुख विबुधविनुत-पदपद्म मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 1॥ भुजगशयन भव मदनजनक मम जननमरण-भयहारिन् मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 2॥ शङ्खचक्रधर दुष्टदैत्यहर सर्वलोक-शरण मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 3॥ अगणित-गुणगण अशरणशरणद विदलित-सुररिपुजाल मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 4॥ भक्तवर्यमिह भूरिकरुणया पाहि भारतीतीर्थम् मम तापमपाकुरु देव, मम पापमपाकुरु देव ॥ 5॥ इति जगद्गुरु शृङ्गेरी पीठाधिपति भारतीतीर्थस्वामिना विरचितं महाविष्णुस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Kanakdhara Stotram (कनकधारा स्तोत्रम्)

    कनकधारा स्तोत्रम् (Kanakdhara Stotram) वन्दे वन्दारु मन्दारमिन्दिरानन्दकन्दलम् । अमन्दानन्दसन्दोह बन्धुरं सिन्धुराननम् ॥ अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् । अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ॥ 1 ॥ मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि । माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥ 2 ॥ आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दम्- आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥ 3 ॥ बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥ 4 ॥ कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेः धाराधरे स्फुरति या तटिदङ्गनेव । मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥ 5 ॥ प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावात् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन । मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥ 6 ॥ विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि । ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्थं इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ 7 ॥ इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते । दृष्टिः प्रहृष्ट कमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥ 8 ॥ दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा- मस्मिन्न किञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे । दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ 9 ॥ गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति । सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥ 10 ॥ श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै । शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ 11 ॥ नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै । नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥ 12 ॥ नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै । नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥ 13 ॥ नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसिस्थितायै । नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥ 14 ॥ नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै । नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ 15 ॥ सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि । त्वद्वन्दनानि दुरितोद्धरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्ये ॥ 16 ॥ यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः । सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ 17 ॥ सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥ 18 ॥ दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारुजलप्लुताङ्गीम् । प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥ 19 ॥ कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः । अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥ 20 ॥ स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥ 21 ॥ सुवर्णधारास्तोत्रं यच्छङ्कराचार्य निर्मितम् । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत् ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Shri Saraswati Ashtottara Sata Naam Stotram (श्री सरस्वती अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम्)

    श्री सरस्वती अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम् (Shri Saraswati Ashtottara Sata Naam Stotram) सरस्वती महाभद्रा महामाया वरप्रदा । श्रीप्रदा पद्मनिलया पद्माक्षी पद्मवक्त्रिका ॥ 1 ॥ शिवानुजा पुस्तकहस्ता ज्ञानमुद्रा रमा च वै । कामरूपा महाविद्या महापातकनाशिनी ॥ 2 ॥ महाश्रया मालिनी च महाभोगा महाभुजा । महाभागा महोत्साहा दिव्याङ्गा सुरवन्दिता ॥ 3 ॥ महाकाली महापाशा महाकारा महाङ्कुशा । सीता च विमला विश्वा विद्युन्माला च वैष्णवी ॥ 4 ॥ चन्द्रिका चन्द्रलेखाविभूषिता च महाफला । सावित्री सुरसादेवी दिव्यालङ्कारभूषिता ॥ 5 ॥ वाग्देवी वसुधा तीव्रा महाभद्रा च भोगदा । गोविन्दा भारती भामा गोमती जटिला तथा ॥ 6 ॥ विन्ध्यवासा चण्डिका च सुभद्रा सुरपूजिता । विनिद्रा वैष्णवी ब्राह्मी ब्रह्मज्ञानैकसाधना ॥ 7 ॥ सौदामिनी सुधामूर्ति स्सुवीणा च सुवासिनी । विद्यारूपा ब्रह्मजाया विशाला पद्मलोचना ॥ 8 ॥ शुम्भासुरप्रमथिनी दूम्रलोचनमर्दना । सर्वात्मिका त्रयीमूर्ति श्शुभदा शास्त्ररूपिणी ॥ 9 ॥ सर्वदेवस्तुता सौम्या सुरासुरनमस्कृता । रक्तबीजनिहन्त्री च चामुण्डा मुण्डकाम्बिका ॥ 10 । कालरात्रिः प्रहरणा कलाधारा निरञ्जना । वरारोहा च वाग्देवी वाराही वारिजासना ॥ 11 ॥ चित्राम्बरा चित्रगन्धा चित्रमाल्यविभूषिता । कान्ता कामप्रदा वन्द्या रूपसौभाग्यदायिनी ॥ 12 ॥ श्वेतासना रक्तमध्या द्विभुजा सुरपूजिता । निरञ्जना नीलजङ्घा चतुर्वर्गफलप्रदा ॥ 13 ॥ चतुराननसाम्राज्ञी ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका । हंसानना महाविद्या मन्त्रविद्या सरस्वती ॥ 14 ॥ महासरस्वती तन्त्रविद्या ज्ञानैकतत्परा । इति श्री सरस्वत्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

    Hanuman (Anjaneya) Ashtottara Shatanaama Stotram (हनुमान् (आञ्जनेय) अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्)

    हनुमान् (आञ्जनेय) अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् [Hanuman (Anjaneya) Ashtottara Shatanaama Stotram] आञ्जनेयो महावीरो हनुमान्मारुतात्मजः । तत्वज्ञानप्रदः सीतादेवीमुद्राप्रदायकः ॥ 1 ॥ अशोकवनिकाच्छेत्ता सर्वमायाविभञ्जनः । सर्वबन्धविमोक्ता च रक्षोविध्वंसकारकः ॥ 2 ॥ परविद्यापरीहारः परशौर्यविनाशनः । परमन्त्रनिराकर्ता परयन्त्रप्रभेदकः ॥ 3 ॥ सर्वग्रहविनाशी च भीमसेनसहायकृत् । सर्वदुःखहरः सर्वलोकचारी मनोजवः ॥ 4 ॥ पारिजातद्रुमूलस्थः सर्वमन्त्रस्वरूपवान् । सर्वतन्त्रस्वरूपी च सर्वयन्त्रात्मकस्तथा ॥ 5 ॥ कपीश्वरो महाकायः सर्वरोगहरः प्रभुः । बलसिद्धिकरः सर्वविद्यासम्पत्प्रदायकः ॥ 6 ॥ कपिसेनानायकश्च भविष्यच्चतुराननः । कुमारब्रह्मचारी च रत्नकुण्डलदीप्तिमान् ॥ 7 ॥ सञ्चलद्वालसन्नद्धलम्बमानशिखोज्ज्वलः । गन्धर्वविद्यातत्त्वज्ञो महाबलपराक्रमः ॥ 8 ॥ कारागृहविमोक्ता च शृङ्खलाबन्धमोचकः । सागरोत्तारकः प्राज्ञो रामदूतः प्रतापवान् ॥ 9 ॥ वानरः केसरिसुतः सीताशोकनिवारकः । अञ्जनागर्भसम्भूतो बालार्कसदृशाननः ॥ 10 ॥ विभीषणप्रियकरो दशग्रीवकुलान्तकः । लक्ष्मणप्राणदाता च वज्रकायो महाद्युतिः ॥ 11 ॥ चिरञ्जीवी रामभक्तो दैत्यकार्यविघातकः । अक्षहन्ता काञ्चनाभः पञ्चवक्त्रो महातपाः ॥ 12 ॥ लङ्किणीभञ्जनः श्रीमान् सिंहिकाप्राणभञ्जनः । गन्धमादनशैलस्थो लङ्कापुरविदाहकः ॥ 13 ॥ सुग्रीवसचिवो धीरः शूरो दैत्यकुलान्तकः । सुरार्चितो महातेजा रामचूडामणिप्रदः ॥ 14 ॥ कामरूपी पिङ्गलाक्षो वार्धिमैनाकपूजितः । कबलीकृतमार्ताण्डमण्डलो विजितेन्दिर्यः ॥ 15 ॥ रामसुग्रीवसन्धाता महिरावणमर्दनः । स्फटिकाभो वागधीशो नवव्याकृतिपण्डितः ॥ 16 ॥ चतुर्बाहुर्दीनबन्धुर्महात्मा भक्तवत्सलः । सञ्जीवननगाहर्ता शुचिर्वाग्मी दृढव्रतः ॥ 17 ॥ कालनेमिप्रमथनो हरिमर्कटमर्कटः । दान्तः शान्तः प्रसन्नात्मा शतकण्ठमदापहृत् ॥ 18 ॥ योगी रामकथालोलः सीतान्वेषणपण्डितः । वज्रदंष्ट्रो वज्रनखो रुद्रवीर्यसमुद्भवः ॥ 19 ॥ इन्द्रजित्प्रहितामोघब्रह्मास्त्रविनिवारकः । पार्थध्वजाग्रसंवासी शरपञ्जरभेदकः ॥ 20 ॥ दशबाहुर्लोर्कपूज्यो जाम्बवत्प्रीतिवर्धनः । सीतासमेतश्रीरामपादसेवाधुरन्धरः ॥ 21 ॥ इत्येवं श्रीहनुमतो नाम्नामष्टोत्तरं शतम् । यः पठेच्छृणुयान्नित्यं सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ 22 ॥

    Aapaduddharak Hanumatstotram (आपदुद्धारक हनुमत्स्तोत्रम्)

    आपदुद्धारक हनुमत्स्तोत्रम् (Aapaduddharak Hanumatstotram) ॐ अस्य श्री आपदुद्धारक हनुमत् स्तोत्र महामन्त्र कवचस्य, विभीषण ऋषिः, हनुमान् देवता, सर्वापदुद्धारक श्रीहनुमत्प्रसादेन मम सर्वापन्निवृत्त्यर्थे, सर्वकार्यानुकूल्य सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानम् । वामे करे वैरिभिदं वहन्तं शैलं परे शृङ्खलहारिटङ्कम् । दधानमच्छच्छवियज्ञसूत्रं भजे ज्वलत्कुण्डलमाञ्जनेयम् ॥ 1 ॥ संवीतकौपीन मुदञ्चिताङ्गुलिं समुज्ज्वलन्मौञ्जिमथोपवीतिनम् । सकुण्डलं लम्बिशिखासमावृतं तमाञ्जनेयं शरणं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ आपन्नाखिललोकार्तिहारिणे श्रीहनूमते । अकस्मादागतोत्पात नाशनाय नमो नमः ॥ 3 ॥ सीतावियुक्तश्रीरामशोकदुःखभयापह । तापत्रितयसंहारिन् आञ्जनेय नमोऽस्तु ते ॥ 4 ॥ आधिव्याधि महामारी ग्रहपीडापहारिणे । प्राणापहर्त्रेदैत्यानां रामप्राणात्मने नमः ॥ 5 ॥ संसारसागरावर्त कर्तव्यभ्रान्तचेतसाम् । शरणागतमर्त्यानां शरण्याय नमोऽस्तु ते ॥ 6 ॥ वज्रदेहाय कालाग्निरुद्रायाऽमिततेजसे । ब्रह्मास्त्रस्तम्भनायास्मै नमः श्रीरुद्रमूर्तये ॥ 7 ॥ रामेष्टं करुणापूर्णं हनूमन्तं भयापहम् । शत्रुनाशकरं भीमं सर्वाभीष्टप्रदायकम् ॥ 8 ॥ कारागृहे प्रयाणे वा सङ्ग्रामे शत्रुसङ्कटे । जले स्थले तथाऽऽकाशे वाहनेषु चतुष्पथे ॥ 9 ॥ गजसिंह महाव्याघ्र चोर भीषण कानने । ये स्मरन्ति हनूमन्तं तेषां नास्ति विपत् क्वचित् ॥ 10 ॥ सर्ववानरमुख्यानां प्राणभूतात्मने नमः । शरण्याय वरेण्याय वायुपुत्राय ते नमः ॥ 11 ॥ प्रदोषे वा प्रभाते वा ये स्मरन्त्यञ्जनासुतम् । अर्थसिद्धिं जयं कीर्तिं प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ 12 ॥ जप्त्वा स्तोत्रमिदं मन्त्रं प्रतिवारं पठेन्नरः । राजस्थाने सभास्थाने प्राप्ते वादे लभेज्जयम् ॥ 13 ॥ विभीषणकृतं स्तोत्रं यः पठेत् प्रयतो नरः । सर्वापद्भ्यो विमुच्येत नाऽत्र कार्या विचारणा ॥ 14 ॥ मन्त्रः । मर्कटेश महोत्साह सर्वशोकनिवारक । शत्रून् संहर मां रक्ष श्रियं दापय भो हरे ॥ 15 इति विभीषणकृतं सर्वापदुद्धारक श्रीहनुमत् स्तोत्रम् ॥

    Anjaneya Bhujanga Prayat Stotram (आञ्जनेय भुजङ्ग प्रयात स्तोत्रम्)

    आञ्जनेय भुजङ्ग प्रयात स्तोत्रम् (Anjaneya Bhujanga Prayat Stotram) प्रसन्नाङ्गरागं प्रभाकाञ्चनाङ्गं जगद्भीतशौर्यं तुषाराद्रिधैर्यम् । तृणीभूतहेतिं रणोद्यद्विभूतिं भजे वायुपुत्रं पवित्राप्तमित्रम् ॥ 1 ॥ भजे पावनं भावना नित्यवासं भजे बालभानु प्रभा चारुभासम् । भजे चन्द्रिका कुन्द मन्दार हासं भजे सन्ततं रामभूपाल दासम् ॥ 2 ॥ भजे लक्ष्मणप्राणरक्षातिदक्षं भजे तोषितानेक गीर्वाणपक्षम् । भजे घोर सङ्ग्राम सीमाहताक्षं भजे रामनामाति सम्प्राप्तरक्षम् ॥ 3 ॥ कृताभीलनाधक्षितक्षिप्तपादं घनक्रान्त भृङ्गं कटिस्थोरु जङ्घम् । वियद्व्याप्तकेशं भुजाश्लेषिताश्मं जयश्री समेतं भजे रामदूतम् ॥ 4 ॥ चलद्वालघातं भ्रमच्चक्रवालं कठोराट्टहासं प्रभिन्नाब्जजाण्डम् । महासिंहनादा द्विशीर्णत्रिलोकं भजे चाञ्जनेयं प्रभुं वज्रकायम् ॥ 5 ॥ रणे भीषणे मेघनादे सनादे सरोषे समारोपणामित्र मुख्ये । खगानां घनानां सुराणां च मार्गे नटन्तं समन्तं हनूमन्तमीडे ॥ 6 ॥ घनद्रत्न जम्भारि दम्भोलि भारं घनद्दन्त निर्धूत कालोग्रदन्तम् । पदाघात भीताब्धि भूतादिवासं रणक्षोणिदक्षं भजे पिङ्गलाक्षम् ॥ 7 ॥ महाग्राहपीडां महोत्पातपीडां महारोगपीडां महातीव्रपीडाम् । हरत्यस्तु ते पादपद्मानुरक्तो नमस्ते कपिश्रेष्ठ रामप्रियाय ॥ 8 ॥ जराभारतो भूरि पीडां शरीरे निराधारणारूढ गाढ प्रतापी । भवत्पादभक्तिं भवद्भक्तिरक्तिं कुरु श्रीहनूमत्प्रभो मे दयालो ॥ 9 ॥ महायोगिनो ब्रह्मरुद्रादयो वा न जानन्ति तत्त्वं निजं राघवस्य । कथं ज्ञायते मादृशे नित्यमेव प्रसीद प्रभो वानरेन्द्रो नमस्ते ॥ 10 ॥ नमस्ते महासत्त्ववाहाय तुभ्यं नमस्ते महावज्रदेहाय तुभ्यम् । नमस्ते परीभूत सूर्याय तुभ्यं नमस्ते कृतामर्त्य कार्याय तुभ्यम् ॥ 11 ॥ नमस्ते सदा ब्रह्मचर्याय तुभ्यं नमस्ते सदा वायुपुत्राय तुभ्यम् । नमस्ते सदा पिङ्गलाक्षाय तुभ्यं नमस्ते सदा रामभक्ताय तुभ्यम् ॥ 12 ॥ हनूमद्भुजङ्गप्रयातं प्रभाते प्रदोषेऽपि वा चार्धरात्रेऽपि मर्त्यः । पठन्नश्नतोऽपि प्रमुक्तोघजालो सदा सर्वदा रामभक्तिं प्रयाति ॥ 13 ॥ इति श्रीमदाञ्जनेय भुजङ्गप्रयात स्तोत्रम् ।

    Shri Hanuman Badbanal Stotram (श्री हनुमान् बडबानल स्तोत्रम्)

    श्री हनुमान् बडबानल स्तोत्रम् (Shri Hanuman Badbanal Stotram) ॐ अस्य श्री हनुमद्बडबानल स्तोत्र महामन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्री बडबानल हनुमान् देवता, मम समस्त रोग प्रशमनार्थं आयुरारोग्य ऐश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं समस्त पापक्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र प्रीत्यर्थं हनुमद्बडबानल स्तोत्र जपं करिष्ये । ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते प्रकट पराक्रम सकल दिङ्मण्डल यशोवितान धवलीकृत जगत्त्रितय वज्रदेह, रुद्रावतार, लङ्कापुरी दहन, उमा अनलमन्त्र उदधिबन्धन, दशशिरः कृतान्तक, सीताश्वासन, वायुपुत्र, अञ्जनीगर्भसम्भूत, श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर, कपिसैन्यप्राकार सुग्रीव साहाय्यकरण, पर्वतोत्पाटन, कुमार ब्रह्मचारिन्, गम्भीरनाद सर्वपापग्रहवारण, सर्वज्वरोच्चाटन, डाकिनी विध्वंसन, ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीराय, सर्वदुःखनिवारणाय, सर्वग्रहमण्डल सर्वभूतमण्डल सर्वपिशाचमण्डलोच्चाटन भूतज्वर एकाहिकज्वर द्व्याहिकज्वर त्र्याहिकज्वर चातुर्थिकज्वर सन्तापज्वर विषमज्वर तापज्वर माहेश्वर वैष्णव ज्वरान् छिन्दि छिन्दि, यक्ष राक्षस भूतप्रेतपिशाचान् उच्चाटय उच्चाटय, ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां औं सौं एहि एहि, ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते श्रवणचक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनी विषम दुष्टानां सर्वविषं हर हर आकाश भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय सकलमायां भेदय भेदय, ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते सर्वग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकलबन्धन मोक्षणं कुरु कुरु शिरःशूल गुल्मशूल सर्वशूलान्निर्मूलय निर्मूलय नाग पाश अनन्त वासुकि तक्षक कर्कोटक कालीयान् यक्ष कुल जलगत बिलगत रात्रिञ्चर दिवाचर सर्वान्निर्विषं कुरु कुरु स्वाहा, राजभय चोरभय परयन्त्र परमन्त्र परतन्त्र परविद्या छेदय छेदय स्वमन्त्र स्वयन्त्र स्वविद्यः प्रकटय प्रकटय सर्वारिष्टान्नाशय नाशय सर्वशत्रून्नाशय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा । इति श्री विभीषणकृत हनुमद्बडबानल स्तोत्रम् ।

    Anjaneya Dwadash Naam Stotram (आञ्जनेय द्वादश नाम स्तोत्रम्)

    आञ्जनेय द्वादश नाम स्तोत्रम् (Anjaneya Dwadash Naam Stotram) हनुमानञ्जनासूनुः वायुपुत्रो महाबलः । रामेष्टः फल्गुणसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥ 1 ॥ उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशकः । लक्ष्मण प्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ 2 ॥ द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः । स्वापकाले पठेन्नित्यं यात्राकाले विशेषतः । तस्यमृत्यु भयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ 3 ॥

    Shri Anjaneya Navaratna Mala Stotram (श्री आञ्जनेय नवरत्न माला स्तोत्रम्)

    श्री आञ्जनेय नवरत्न माला स्तोत्रम् (Shri Anjaneya Navaratna Mala Stotram) माणिक्यं – ततो रावणनीतायाः सीतायाः शत्रुकर्शनः । इयेष पदमन्वेष्टुं चारणाचरिते पथि ॥ 1 ॥ मुत्यं – यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव । स्मृतिर्मतिर्धृतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ॥ 2 ॥ प्रवालं – अनिर्वेदः श्रियो मूलं अनिर्वेदः परं सुखम् । अनिर्वेदो हि सततं सर्वार्थेषु प्रवर्तकः ॥ 3 ॥ मरकतं – नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै । नमोऽस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यः नमोऽस्तु चन्द्रार्कमरुद्गणेभ्यः ॥ 4 ॥ पुष्यरागं – प्रियान्न सम्भवेद्दुःखं अप्रियादधिकं भयम् । ताभ्यां हि ये वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम् ॥ 5 ॥ हीरकं – रामः कमलपत्राक्षः सर्वसत्त्वमनोहरः । रूपदाक्षिण्यसम्पन्नः प्रसूतो जनकात्मजे ॥ 6 ॥ इन्द्रनीलं – जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः । दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । हनुमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥ 7 ॥ गोमेधिकं – यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः । यदि वास्त्येकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः ॥ 8 ॥ वैडूर्यं – निवृत्तवनवासं तं त्वया सार्धमरिन्दमम् । अभिषिक्तमयोध्यायां क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम् ॥ 9 ॥ इति श्री आञ्जनेय नवरत्नमाला स्तोत्रम् ।

    Shri Surya Panjar Stotram (श्री सूर्य पञ्जर स्तोत्रम्)

    श्री सूर्य पञ्जर स्तोत्रम् (Shri Surya Panjar Stotram) ॐ उदयगिरिमुपेतं भास्करं पद्महस्तं सकलभुवननेत्रं रत्नरज्जूपमेयम् । तिमिरकरिमृगेन्द्रं बोधकं पद्मिनीनां सुरवरमभिवन्द्यं सुन्दरं विश्वदीपम् ॥ 1 ॥ ॐ शिखायां भास्कराय नमः । ललाटे सूर्याय नमः । भ्रूमध्ये भानवे नमः । कर्णयोः दिवाकराय नमः । नासिकायां भानवे नमः । नेत्रयोः सवित्रे नमः । मुखे भास्कराय नमः । ओष्ठयोः पर्जन्याय नमः । पादयोः प्रभाकराय नमः ॥ 2 ॥ ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः । ॐ हंसां हंसीं हंसूं हंसैं हंसौं हंसः ॥ 3 ॥ ॐ सत्यतेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ स्थितिरूपककारणाय पूर्वादिग्भागे मां रक्षतु ॥ 4 ॥ ॐ ब्रह्मतेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ तारकब्रह्मरूपाय परयन्त्र-परतन्त्र-परमन्त्र-सर्वोपद्रवनाशनार्थं दक्षिणदिग्भागे मां रक्षतु ॥ 5 ॥ ॐ विष्णुतेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ प्रचण्डमार्ताण्ड उग्रतेजोरूपिणे मुकुरवर्णाय तेजोवर्णाय मम सर्वराजस्त्रीपुरुष-वशीकरणार्थं पश्चिमदिग्भागे मां रक्षतु ॥ 6 ॥ ॐ रुद्रतेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ भवाय रुद्ररूपिणे उत्तरदिग्भागे सर्वमृत्योपशमनार्थं मां रक्षतु ॥ 7 ॥ ॐ अग्नितेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ तिमिरतेजसे सर्वरोगनिवारणाय ऊर्ध्वदिग्भागे मां रक्षतु ॥ 8 ॥ ॐ सर्वतेजोज्ज्वलज्वालामालिने मणिकुम्भाय हुं फट् स्वाहा । ॐ नमस्कारप्रियाय श्रीसूर्यनारायणाय अधोदिग्भागे सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थं मां रक्षतु ॥ 9 ॥ मार्ताण्डाय नमः भानवे नमः हंसाय नमः सूर्याय नमः दिवाकराय नमः तपनाय नमः भास्कराय नमः मां रक्षतु ॥ 10 ॥ मित्र-रवि-सूर्य-भानु-खगपूष-हिरण्यगर्भ- मरीच्यादित्य-सवित्रर्क-भास्करेभ्यो नमः शिरस्थाने मां रक्षतु ॥ 11 ॥ सूर्यादि नवग्रहेभ्यो नमः ललाटस्थाने मां रक्षतु ॥ 12 ॥ धराय नमः धृवाय नमः सोमाय नमः अथर्वाय नमः अनिलाय नमः अनलाय नमः प्रत्यूषाय नमः प्रतापाय नमः मूर्ध्निस्थाने मां रक्षतु ॥ 13 ॥ वीरभद्राय नमः गिरीशाय नमः शम्भवे नमः अजैकपदे नमः अहिर्बुध्ने नमः पिनाकिने नमः भुवनाधीश्वराय नमः दिशान्तपतये नमः पशुपतये नमः स्थाणवे नमः भवाय नमः ललाटस्थाने मां रक्षतु ॥ 14 ॥ धात्रे नमः अंशुमते नमः पूष्णे नमः पर्जन्याय नमः विष्णवे नमः नेत्रस्थाने मां रक्षतु ॥ 15 ॥ अरुणाय नमः सूर्याय नमः इन्द्राय नमः रवये नमः सुवर्णरेतसे नमः यमाय नमः दिवाकराय नमः कर्णस्थाने मां रक्षतु ॥ 16 ॥ असिताङ्गभैरवाय नमः रुरुभैरवाय नमः चण्डभैरवाय नमः क्रोधभैरवाय नमः उन्मत्तभैरवाय नमः भीषणभैरवाय नमः कालभैरवाय नमः संहारभैरवाय नमः मुखस्थाने मां रक्षतु ॥ 17 ॥ ब्राह्म्यै नमः महेश्वर्यै नमः कौमार्यै नमः वैष्णव्यै नमः वराह्यै नमः इन्द्राण्यै नमः चामुण्डायै नमः कण्ठस्थाने मां रक्षतु ॥ 18 ॥ इन्द्राय नमः अग्नये नमः यमाय नमः निर्‍ऋतये नमः वरुणाय नमः वायवे नमः कुबेराय नमः ईशानाय नमः बाहुस्थाने मां रक्षतु ॥ 19 ॥ मेषादिद्वादशराशिभ्यो नमः हृदयस्थाने मां रक्षतु ॥ 20 ॥ वज्रायुधाय नमः शक्त्यायुधाय नमः दण्डायुधाय नमः खड्गायुधाय नमः पाशायुधाय नमः अङ्कुशायुधाय नमः गदायुधाय नमः त्रिशूलायुधाय नमः पद्मायुधाय नमः चक्रायुधाय नमः कटिस्थाने मां रक्षतु ॥ 21 ॥ मित्राय नमः दक्षिणहस्ते मां रक्षतु । रवये नमः वामहस्ते मां रक्षतु । सूर्याय नमः हृदये मां रक्षतु । भानवे नमः मूर्ध्निस्थाने मां रक्षतु । खगाय नमः दक्षिणपादे मां रक्षतु । पूष्णे नमः वामपादे मां रक्षतु । हिरण्यगर्भाय नमः नाभिस्थाने मां रक्षतु । मरीचये नमः कण्ठस्थाने मां रक्षतु । आदित्याय नमः दक्षिणचक्षूषि मां रक्षतु । सवित्रे नमः वामचक्षुषि मां रक्षतु । भास्कराय नमः हस्ते मां रक्षतु । अर्काय नमः कवचे मां रक्षतु ॥ 22 ॐ भास्कराय विद्महे महाद्युतिकराय धीमहि । तन्नो आदित्यः प्रचोदयात् ॥ 23 ॥ इति श्री सूर्य पञ्जर स्तोत्रम् ॥

    Surya Ashtottara Shat Naam Stotram (सूर्य अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम्)

    सूर्य अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्रम् (Surya Ashtottara Shat Naam Stotram) अरुणाय शरण्याय करुणारससिन्धवे । असमानबलायाऽऽर्तरक्षकाय नमो नमः ॥ 1 ॥ आदित्यायाऽऽदिभूताय अखिलागमवेदिने । अच्युतायाऽखिलज्ञाय अनन्ताय नमो नमः ॥ 2 ॥ इनाय विश्वरूपाय इज्यायैन्द्राय भानवे । इन्दिरामन्दिराप्ताय वन्दनीयाय ते नमः ॥ 3 ॥ ईशाय सुप्रसन्नाय सुशीलाय सुवर्चसे । वसुप्रदाय वसवे वासुदेवाय ते नमः ॥ 4 ॥ उज्ज्वलायोग्ररूपाय ऊर्ध्वगाय विवस्वते । उद्यत्किरणजालाय हृषीकेशाय ते नमः ॥ 5 ॥ ऊर्जस्वलाय वीराय निर्जराय जयाय च । ऊरुद्वयाभावरूपयुक्तसारथये नमः ॥ 6 ॥ ऋषिवन्द्याय रुग्घन्त्रे ऋक्षचक्रचराय च । ऋजुस्वभावचित्ताय नित्यस्तुत्याय ते नमः ॥ 7 ॥ ॠकारमातृकावर्णरूपायोज्ज्वलतेजसे । ॠक्षाधिनाथमित्राय पुष्कराक्षाय ते नमः ॥ 8 ॥ लुप्तदन्ताय शान्ताय कान्तिदाय घनाय च । कनत्कनकभूषाय खद्योताय नमो नमः ॥ 9 ॥ लूनिताखिलदैत्याय सत्यानन्दस्वरूपिणे । अपवर्गप्रदायाऽऽर्तशरण्याय नमो नमः ॥ 10 ॥ एकाकिने भगवते सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे । गुणात्मने घृणिभृते बृहते ब्रह्मणे नमः ॥ 11 ॥ ऐश्वर्यदाय शर्वाय हरिदश्वाय शौरये । दशदिक्सम्प्रकाशाय भक्तवश्याय ते नमः ॥ 12 ॥ ओजस्कराय जयिने जगदानन्दहेतवे । जन्ममृत्युजराव्याधिवर्जिताय नमो नमः ॥ 13 ॥ औन्नत्यपदसञ्चाररथस्थायात्मरूपिणे । कमनीयकरायाऽब्जवल्लभाय नमो नमः ॥ 14 ॥ अन्तर्बहिःप्रकाशाय अचिन्त्यायाऽऽत्मरूपिणे । अच्युताय सुरेशाय परस्मै ज्योतिषे नमः ॥ 15 ॥ अहस्कराय रवये हरये परमात्मने । तरुणाय वरेण्याय ग्रहाणां पतये नमः ॥ 16 ॥ ॐ नमो भास्करायाऽऽदिमध्यान्तरहिताय च । सौख्यप्रदाय सकलजगतां पतये नमः ॥ 17 ॥ नमः सूर्याय कवये नमो नारायणाय च । नमो नमः परेशाय तेजोरूपाय ते नमः ॥ 18 ॥ ॐ श्रीं हिरण्यगर्भाय ॐ ह्रीं सम्पत्कराय च । ॐ ऐं इष्टार्थदायाऽनुप्रसन्नाय नमो नमः ॥ 19 ॥ श्रीमते श्रेयसे भक्तकोटिसौख्यप्रदायिने । निखिलागमवेद्याय नित्यानन्दाय ते नमः ॥ 20 ॥ इति श्री सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् ।

    Gayatryashtotrashata Namastotram (गायत्र्यष्टोत्तरशत नामस्तोत्रम्)

    गायत्र्यष्टोत्तरशत नामस्तोत्रम् (Gayatryashtotrashata Namastotram) तरुणादित्यसङ्काशा सहस्रनयनोज्ज्वला । विचित्रमाल्याभरणा तुहिनाचलवासिनी ॥ 1 ॥ वरदाभयहस्ताब्जा रेवातीरनिवासिनी । प्रणित्ययविशेषज्ञा यन्त्राकृतविराजित ॥ 2 ॥ भद्रपादप्रिया चैव गोविन्दपथगामिनी । देवर्षिगणसंस्तुत्या वनमालाविभूषिता ॥ 3 ॥ स्यन्दनोत्तमसंस्था च धीरजीमूतनिस्वना । मत्तमातङ्गगमना हिरण्यकमलासना ॥ 4 ॥ दीनजनोद्धारनिरता योगिनी योगधारिणी । नटनाट्यैकनिरता प्रणवाद्यक्षरात्मिका ॥ 5 ॥ चोरचारक्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेदकारिणी । यादवेन्द्रकुलोद्भूता तुरीयपथगामिनी ॥ 6 ॥ गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना । गेयगानप्रिया गौरी गोविन्दपदपूजिता ॥ 7 ॥ गन्धर्वनगरागारा गौरवर्णा गणेश्वरी । गदाश्रया गुणवती गह्वरी गणपूजिता ॥ 8 ॥ गुणत्रयसमायुक्ता गुणत्रयविवर्जिता । गुहावासा गुणाधारा गुह्या गन्धर्वरूपिणी ॥ 9 ॥ गार्ग्यप्रिया गुरुपदा गुहलिङ्गाङ्गधारिणी । सावित्री सूर्यतनया सुषुम्नानाडिभेदिनी ॥ 10 ॥ सुप्रकाशा सुखासीना सुमति-स्सुरपूजिता । सुषुप्त्यवस्था सुदती सुन्दरी सागराम्बरा ॥ 11 ॥ सुधांशुबिम्बवदना सुस्तनी सुविलोचना । सीता सत्त्वाश्रया सन्ध्या सुफला सुविधायिनी ॥ 12 ॥ सुभ्रू-स्सुवासा सुश्रोणी संसारार्णवतारिणी । सामगानप्रिया साध्वी सर्वाभरणभूषिता ॥ 13 ॥ वैष्णवी विमलाकारा महेन्द्री मन्त्ररूपिणी । महलक्ष्मी-र्महासिद्धि-र्महामाया महेश्वरी ॥ 14 ॥ मोहिनी मदनाकारा मधुसूदनचोदिता । मीनाक्षी मधुरावासा नगेन्द्रतनया उमा ॥ 15 ॥ त्रिविक्रमपदाक्रान्ता त्रिस्वरा त्रिविलोचना । सूर्यमण्डलमध्यस्था चन्द्रमण्डलसंस्थिता ॥ 16 ॥ वह्निमण्डलमध्यस्था वायुमण्डलसंस्थिता । व्योममण्डलमध्यस्था चक्रिणी चक्ररूपिणी ॥ 17 ॥ कालचक्रवितानस्था चन्द्रमण्डलदर्पणा । ज्योत्स्नातपासुलिप्ताङ्गी महामारुतवीजिता ॥ 18 ॥ सर्वमन्त्राश्रया धेनुः पापघ्नी परमेश्वरी । नमस्तेऽस्तु महालक्ष्मी-र्महासम्पत्तिदायिनि ॥ 19 ॥ नमस्ते करुणामूर्ते नमस्ते भक्तवत्सले । गायत्र्याः प्रजपेद्यस्तु नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥ 20 ॥ तस्य पुण्यफलं वक्तुं ब्रह्मणापि न शक्यते । इति श्रीगायत्र्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

    Govinda Damodar Stotram (गोविन्द दामोदर स्तोत्रम्)

    गोविन्द दामोदर स्तोत्रम् (Govinda Damodar Stotram) गोविन्द दामोदर स्तोत्रम् (लघु) करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् । वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥ श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 1 विक्रेतुकामाखिलगोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्तिः । दध्यादिकं मोहवशादवोचत् गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 2 गृहे गृहे गोपवधूकदम्बाः सर्वे मिलित्वा समवाप्य योगम् । पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 3 सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः । ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 4 जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि । समस्त भक्तार्तिविनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 5 सुखावसाने इदमेव सारं दुःखावसाने इदमेव ज्ञेयम् । देहावसाने इदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 6 जिह्वे रसज्ञे मधुरप्रिये त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि । अवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 7 त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दण्डधरे कृतान्ते । वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 8 श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धननाथ विष्णो । जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 9