Shatak Collection

    Shri Bhatrhari Shatak (श्री भतृहरि) कृत वैराग्य शतक

    श्री भतृहरि कृत वैराग्य शतक मंगलाचरण चूडोत्तंसितचन्द्रचारुकलिकाचश्जञच्छिखाभास्वरो लीलादग्धविलोलकामशलभः श्रेयोदशाग्रे स्फुरन्‌ । अन्तःस्फूर्जदपारमोहतिमिरप्राग्भारमुच्चाटयन्‌ः चेतःसद्मनि योगिनां विजयते ज्ञानप्रदीपो हरः॥१॥ जिनकी जटाओं में चञ्चल और उज्वल चन्द्रकला शोभित है और जिन्होंने कामदेव रूपी पतंगे को लीलापूर्वक ही भस्म कर दिया, ऐसे कल्याण करने वालों में उग्रगण्य तथा भक्तों के अन्तःकरण के मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले तथा ज्ञान का प्रकाश करने वाले भगवान शंकर योगियों के हृदय में निवास करते हैं। ॥१॥ बोद्धार मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः । अबोधीपहताश्चान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम्‌ ॥२॥ विद्वान्‌ अपनी विद्या के मात्सर्य से ग्रस्त हैं, ऐश्वर्य शाली पुरुष गर्व से द्रूषित हैं और अन्य व्यक्ति ज्ञान में डूबे हुए हैं, अतएव ज्ञानियों की श्रेष्ठ उक्तियाँ उनके मन में ही रही आने से समझ में नहीं आतीं ॥२॥ न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः । महद्धिः पुण्यौघेश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम्‌ ॥३॥ संसार में जो चरित्र दिखाई देते हँ वे कल्याणकारी नहीं हैं। पुण्य कर्मो का फल जो स्वर्गादि हैं, वे भी मुझे भयरूप प्रतीत होते हैं। महान्‌ पुण्यो के द्रारा चिरकाल से संचित विषय भी अन्त में विषयोजनों के लिए दुःखरूप ही सिद्ध होते हैं ॥३॥ उत्खातं निधिशङ्कया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्रेन संतोषिताः । मन्ताराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णे सकामा भव ।।४।। हे तृष्णे! अब तो मेरा पीछा छोड। देख, तेरे जाल में पड़ कर मैंने धन की खोज में पृथिवी खोद डाली, रसायन-सिद्धि की इच्छा से पर्वत की बहुत-सी धातुएं भस्म कर डाली, रत्नों की कामना से नदियों के पति समुद्र को भी पार किया ओर मन्त्रँ की सिद्धि के उदेश्य से मन लगाकर अनेक रात्रियाँ श्मशान में बिताई तो भी एक कानी कौड़ी हाथ न लग सकी। ॥४॥ भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किञ्चित्फलम्‌ त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला । १क्तं मानविवर्जितं परगृहेष्वाशङ्कया काकवत्‌ तृष्णे जृम्भसि पापकर्मपिशुने नाद्यापि सन्तुष्यसि ॥५॥ मैंने अब तक बहुत-से देशों और विषम दुर्गो में भ्रमण किया तो भी कुछ फल न मिला। अपनी जाति ओर कुल के अभिमान को छोड़कर जो दूसरों की सेवा की वह भी व्यर्थ ही गई, अपने मान की चिन्ता न करते हुए पराये घर में काक के समान भोजन किया, तो भी हे पापकर्म में निरत दुर्मति रूप तृष्णे | तू सन्तुष्ट नहीं हो सकी। ॥५॥ खलालापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरैः निगृह्यान्त्बष्पिं हसितमपि शून्येन मनसा । कृतो वित्तस्तग्भप्रतिहतधियामञ्जलिरपि त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्तयसि माम्‌ ॥६॥ दुष्टौ की आराधना करते हुए मैने उनकी कट्‌ उक्तियों को सहन किया अश्रुओं को भीतर ही रोककर मैंने शून्य मन से हंसी का भाव रखा और मन को मार उनके समक्ष हाथ जोड़ खड़ा रहा तो फिर अब तू मुझे और क्या-क्या नाच नचाने की इच्छा करती है ? ॥६॥ आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालोऽपि न ज्ञायते । दृष्ट्रा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्‌ ॥७॥ सूर्य के उदय-अस्त से आयु नित्यप्रति क्षीण हो रही है, जगत्‌-व्यापार में प्रवृत्त अधिक कार्य भार के कारण जाता हुआ समय प्रतीत नहीं होता तथा जन्म, वृद्धावस्था ओर मरण का त्रास भी भयभीत नहीं करता। इस प्रकार यह जगत्‌ मोहमयी, प्रमादमदिरा के पान द्वारा उन्मत्त हो रहा है। ॥७॥्र दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्ट जीर्णाम्बरा क्रोशद्धिः क्षुधितेर्न रैन विधुरा दृश्येत चेद्‌ गेहिनी। याचाभंगभयेन गद्रदलसल्चुल्यद्विलीनाक्षर कोदेहीति वदेत्स्वदग्धजटठरस्यार्थं मनस्वी जनः ॥८॥ भोजन के लिए रोते हुए दीन मुख वाले शिशुओं द्वारा खेचे-खसोटे गए वस्तं वाली दुखिया गृहिणी न देखी जाती तो एसा धीर पुरुष कौन है जो अपनी उदरपूर्ति के लिए याचना के व्यर्थ होने की आशंका से रुधे कण्ठ से 'मुझे कुछ दो' ऐसा कहने के लिए तैयार हो सके। ॥८॥ निवृत्ता भोगेच्छा पुरुषबहुमानोऽपि गलितः समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः । शनैर्यष्ट्युल्धानं घनतिमिररुद्धे च नयने अहो मूढः कायस्तदपि मरणापायचकितः ॥६॥ भोग की इच्छा निवृत्त होगई, पुरुषत्व का अभिमान विगलित हो चुका, समान आयु वाले लोग स्वर्ग में चले गए, स्वयं भी लकड़ी के सहारे धीरे- धीरे चलने लगे और दृष्टि क्षीण हो गई, तब भी मरण की बात सुनकर भयभीत होना आश्चर्य की ही बात है। ॥९॥ हिंसाशून्यमयत्रलभ्यमशन धात्रा मरुत्कल्पितं व्यालानां पशवस्तृणाङ्कुरशुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः । संसारार्णवलङ्गनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां तामन्वेषयतां प्रयान्ति सततं सर्वे समाप्तिं गुणाः ॥१०॥ विधाता ने हिंसा-रहित एवं स्वयं प्राप्त वायु का भोजन सर्यो के लिए कल्पित किया, पशुओं के लिए तृणं के अंकुरों का भोजन और भूमि पर शयन निश्चित किया। परन्तु संसार-सागर को पार करने में समर्थ पुरुषों की ऐसी वृत्ति निश्चित की, जिसकी खोज में सम्पूर्ण गुणों के समाप्त होने पर भी उसकी प्राप्ति नहीं होती ॥१०॥ न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये स्वर्गद्रारकवाटपाटनपट्र्धर्मोऽपि नोपार्जितः । नारी पीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्रेऽपि नालिङ्गितं मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम्‌ ॥११॥ मैंने संसार-बन्धन के क्षेदनार्थं परमेश्वर के चरणों का विधिवत्‌ ध्यान नहीं किया, न स्वर्गद्वारं के कपाट खोलने के लिए धर्मरूपी कुंजी को ही प्राप्त किया ओर न नारी के पीनपयोधरों और सधन जघनोँ का आलिंगन ही किया, इस प्रकार मैं माता के यौवन रूपी वन के छेदनार्थ कुठार रूप में ही उत्पन्न हुआ हूँ। ॥११॥ भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः | कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥१२॥ हमने विषयों को नहीं भीगा, वरन्‌ विषयों ने ही हमें भोग लिया। हमने तपस्या नहीं की, वरन्‌ तपस्या ने ही हमें तप्त कर दिया। हमसे काल व्यतीत न हुआ वरन्‌ हम ही व्यतीत हो गए। तृष्णा जीर्ण न हुई, वरन हम ही जीर्ण होगए। ॥१२॥ क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शम्भीः पदं तत्तत्कर्म कृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥१३॥ हमने सहन तो किया, परन्तु क्षमा से, गृहोचित सुखी को त्याग तो दिया, परन्तु असन्तोष से, शीत, उष्ण और वायु के दुःसह कष्ट भी सहे, परन्तु तप का कष्ट सहन नहीं किया और जो ध्यान किया वह भी धन का, शम्भु के्पू चरणों का नही। इस प्रकार मैंने मुनियों द्वारा किये जाने वाले कर्म तो किये, परन्तु उनका फल मुनियों के कर्म जैसा नहीं मिला। ॥१३॥ वलिभिमुखक्रान्तं पलिते रङ्कितं शिरः। गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥१४॥ झुरियों से मुख भर गया, सिर के केश श्वेत होगए, शरीर शिथिलता को प्राप्त हो गया, तो भी तृष्णा घटने की अपेक्षा तरुण ही होती जा रही है। ॥१४ ॥ येनैवाम्वरखण्डेन संबीतो निशि चन्द्रमा। तेनैव च दिवा भानुरहो दोर्गत्यमेतयो: ॥१५॥ आकाशखण्ड रूपी जिस वस्त्र को ओढ़ कर चन्द्रमा रात्रि में ओर सूर्य दिन में अपने शरीर को ढकता है, जब इन्हीं प्रकाशमानं की ऐसी दुर्गति है, तब हमारे दीन होने में आश्चर्य की कोई बात नहीं हे। ॥१५॥ अवश्यं यातारश्चिरतरपुषित्वापि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यसस्वयममून्‌ । व्रजन्तः स्वातच्यादतुलपरितापाय मनसः स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥१६॥ चिरकाल तक भीगे हुए विषय भी जब किसी दिन अवश्य छोड़ने होते हैं, तब यही उचित है कि उन्हें स्वयं ही त्याग दे। क्योकि विषयों द्वारा छोड़े जाने पर अधिक सन्ताप होता है। जबकि स्वेच्छा से छोड देने पर अत्यन्त सुख की प्राप्ति होी है। ॥१६॥ विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा परिष्वंगे तुङ्ग प्रसरतितरां सा परिणतिः। जजीर्णेश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपण स्तृषापात्र यस्यां "वति मरुतामप्यधिपतिः ॥१७॥ विवेक की उत्पत्ति से शान्ति का उदय होने पर तृष्णा शान्त हो सकती है, जबकि उसे अपने साथ लगाये रहने से बढ़ती ही जाती है। वृद्धावस्था में होने वाले विषयासक्ति को इन्द्र भी नहीं रोक पाता, वरन्‌ वह स्वयं भी तृष्णा का पात्र हो जाता हे। ॥१७॥ भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम्‌ । तस्तं विशीर्णशतखण्डमयी च कन्था हा हा तथापि विषया न परित्यजन्ति ॥१८॥ भिक्षा का रूखा-सूखा एक बार भोजन, पृथिवी पर शयन अपना शरीर मात्र ही परिवार और सैकड़ों टुकड़ों के जोड से बनी हुई गुदड़ी मात्र वस्त, हा, हा ! ऐसी अवस्था में पड़ा हुआ मनुष्य भी विषयों का परित्याग नहीं करता। ॥१८॥ स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्युपमितौ मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम्‌ । स्रवन्मूत्रक्लीन्नं करिवरशिरस्पर्धि जघनं मुहुर्निन्द्यं रूपं कविजनविशेषैर्गुरु कृतम् ॥१९॥ माँस की ग्रन्थि रुपी स्तनों को स्वर्ण कलश की, खखार और थूक के पात्र मुख को चन्द्रमा की और बहते हुए मूत्र से भीगी हुई जंघाओं को हाथी की सूंड की उपमा देकर कवियों ने स्त्रियों के निन्दनीय रूप का कैसा बढ़ा- चढ़ा कर बखान किया है। ॥१९॥ अजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद् बडिशयुतमश्नातु पिशितम्। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्न मुञ्चमः कामानहह ! गहनो मोह महिमा ॥२०॥ अग्नि के माहात्म्य से अनभिज्ञ पतंग दीपक की लौ में स्वयं को भस्म कर डालता और मछली भी फन्दे को न जानकर वंशी में लगे मांस को खाने के लिए लपकती है। इस प्रकार हम अपनी कामनाओं की विपत्ति के जटिल जाल को जंजाल युक्त जानते हुए भी उन्हें नहीं छोड़ना चाहते। अहो, मोह की महिमा कैसी गहन है ? ॥२०॥ फलमलमशनाय स्वादु पानाय तोयं क्षितिरपि शयनार्थं वाससे वल्कलं च । नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणां अविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ॥२१॥ जब हमें आहार के लिए फल, पान के लिए सुस्वादु जल, शयन के लिए भूमि, पहनने के लिए वृक्षों की छाल यथेष्ट है, तब हम धनरूपी मधु के पान से भ्रान्त इन्द्रियों वाले दुर्जनों द्वारा किये जाने वाले तिरस्कार को क्यों सहन करें ? ॥२१॥ विपुलहृदयैरीशैरेतज्जगज्जनितं पुरा विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा । इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ॥२२॥ कोई ऐसे विपुल हृदय और धन्य पुरुष हुए, जिन्होंने इस लोक को बनाया, कोई ऐसे दानी हुए, जिन्होंने इस संसार को तुच्छ मान कर तृण के समान दान कर दिया, कोई ऐसे धीर पुरुष हैं जो चौदह भुवनों का पालन करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें कतिपय ग्रामों के प्राप्त होने पर ही गर्व रूपी ज्वर चढ़ आता है। ॥२२॥ त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः । इत्थं मानधनातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु पराङ्‌मुखोऽसि वयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः ॥२३॥ यदि तुम्हें राजा होने का गर्व है तो हमें भी गुरुसेवा से उपलब्ध ज्ञान का कम अभिमान नहीं है। यदि तुम ऐश्वर्य से प्रसिद्ध हो तो हमारा यश भी कवियों न दशों दिशाओं में फैला रखा है। इस प्रकार हे राजन् ! तुममें- हममें कोई अन्तर न होने पर भी हमसे मुख फेरते हो तो हम भी तुम से निस्पृह ही रहते हैं। ॥२३॥ अभुक्तायां यस्यां क्षणमपि न जातं नृपशतः भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभृताम् । तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम् ॥२४॥ सैकड़ों ही राजागण जिसे अपनी समझ कर संसार से चले गए, परन्तु यह किसी के द्वारा भी भोगी नहीं गई! ऐसी पृथिवी को पाकर गर्व करना क्या उचित है ? इसके अंश के भी अंश को प्राप्त करके अपने को पृथिवीपति मानना आश्चर्य का ही विषय है, क्योंकि जहाँ खेद करना चाहिए, वहाँ मूर्ख पुरुष आनन्द ही समझा करते हैं। ॥२४॥ मृत्पिण्डो जलरेखया वलयितः सर्वोऽप्ययं नन्वणुः स्वांशीकृत्य तमेव संगरशतै राज्ञां गणा भुञ्जते । ते दद्युर्ददतोऽथवा किमपरं क्षुद्रा दरिद्रा भृशं धिग्धिक्तान्पुरुषाधमान्धनकणान्वाञ्छन्ति तेभ्योऽपि ये ॥२५॥ यह पृथिवी जल की रेखा से घिरा एक छोटा-सा मृत्तिका पिण्ड हैं, जिसके कुछ-कुछ अंशों पर अनेक राजागण युद्ध करके स्वामित्व स्थापित करते हुए राज्य करते हैं। ऐसे क्षुद्र एवं दरिद्र राजाओं को दानी कह कर दान प्राप्त करने की आशा वाला धनाकांक्षी अधम पुरुषों को धिक्कार है। ॥२५॥ न बिटा न नटा न गायका न परद्रोहनिबद्धबुद्धय । नृपसद्मनिनामकेवयंकुचभारोन्नमितान योषितः ॥२६॥ न हम विट (लम्पट) हैं, न नट हैं, न गायक हैं, न हम में परद्रोह की ही बुद्धि है और न हम कुचभार नम्रा कामिनी ही हैं, फिर तुम्हारी राजसभा से हमारा क्या प्रयोजन है ? ॥२६॥ पुरा विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् । इदानीं सम्प्रेक्ष्य क्षितितल भुजः शास्त्राविमुखा नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति ॥२७॥ पूर्व काल में तो विद्वता क्लेश नष्ट करने के लिए होती थी, फिर कुछ कालोपरान्त विषयी पुरुषों की विषय-सुख सिद्धि की हेतु हो गई और अब तो वह शास्त्र विमुख राजाओं के कारण अधोगति को प्राप्त होती गई। ॥२७॥ स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये । नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ॥२८॥ पहले कभी ऐसे पुरुष भी हुए, जिनके शुभ्र कपाल को शिवजी ने अपने अलंकार रूप में मस्तक पर धारण किया था, परन्तु अब तो अपनी प्राण- रक्षा मात्र करके ही मनुष्य अत्यन्त अभिमानी हो गए है। ॥२८॥ अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदर्थं शूरस्त्वं वादिदर्पव्युपशमनविधावक्षयं पाटवं नः । सेवन्ते त्वां धनाढ्या मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम नितरामेव राजन्ननास्था ॥२९॥ हे राजन् ! यदि तुम धनों के ईश्वर हो तो हम भी वाणी के ईश्वर हैं। तुम युद्ध करने में शूर हो तो हम वादियों का दर्पज्वर नष्ट करने में चतुर है। तुम्हें धनाढय पुरुष सेवन करते हैं तो मति का मल दूर करने के लिए शास्त्र सुनने के इच्छुक मनुष्य हमें सेवन करते हैं। ऐसी समता होने पर भी तुम्हारी श्रद्धा हम पर नहीं है तो हमारी आस्था भी तुममें नहीं रही, इसलिए हम जाते हैं। ॥२९॥ माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने । युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जनुकन्यापयः- पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्ज निवासः क्वचित् ॥३०॥ सम्मान के नष्ट होने, धन का क्षय होने, अतिथियों के विमुख लौटने, बांधवों के नष्ट होने, परिजनों के चले जाने और शनैः शनै यौवन के नष्ट होने पर बुद्धिमानों को उचित है कि वे गंगा के जलकणों से पवित्र हुई हिमालय की किसी गुफा में निवास करें। ॥३०॥ परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम् । प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते ॥३१॥ हे चित्त ! तू प्रतिदिन पराये चित्त को अनेक प्रकार से प्रसन्न करने के लिए क्लेश रूपी पक में क्यों फँसता है ? जब तू स्वयं में ही प्रसन्न होकर चिन्तामणि के गुणों को ग्रहण करेगा, तब क्या तेरे इच्छित की पूर्ती नहीं होगी। ॥३१॥ भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् । शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥३२॥ भोगी को रोगभय, कुलीन को च्युति भय, धनिक को राज भय, मानी को दैन्यभय, बली (अथवा सेना) को शत्रुभय, रूप को जराभय, शास्त्र को वादभय, गुण को खलभय और काया को यमभय होता है। इस प्रकार मनुष्यों को लोक में सभी वस्तु भय से व्याप्त हैं, केवल शिवजी के चरण ही निर्भय पद हैं। ॥३२॥ अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्। यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिः संज्ञमनसां कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि ॥३३॥ कमलिनी पत्र पर स्थित जल कण के समान तुरन्त नष्ट होने वाले प्राणों के लिए कर्त्तव्य-अकर्तव्य का किंचित् भी विचार न करके हमने क्या नहीं किया? धनमद में मत्त धनाढ्यों के आगे अपनी प्रशंसा स्वयं करने के पाप से भी नहीं चूके। ॥३३॥ सा रम्या नगरी महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत् पार्श्वे तस्य च सा विदग्धपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः । उद्धृत्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपथं कालाय तस्मै नमः ॥३४॥ वह सुरम्य नगरी, वह महान् नृपति, वह अधीनस्थ राजाओं का चक्र, उसके पाश्र्व में स्थित विद्वज्जन, अत्यन्त सुन्दरी कामिनियाँ, राजपुत्रों का समूह, चतुर बन्दीजन और सभी आदर्श कथाएँ काल के कारण नाम मात्र के लिए रह गई, उस काल को नमस्कार है। ॥३४॥ वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिचिता एव खलु ते समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः । इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना गतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः ॥३५॥ हमको जन्म देने वाले माता-पिता को गये हुए बहुत काल व्यतीत हो गया, हमारे सहपाठियों का भी नाम शेष रह गया है। और हम भी नदी तट पर बालू में उत्पन्न वृक्ष के समान दिनों दिन मृत्यु के निकट पहुँचते जा रहे हैं। ॥३५॥ यत्रानेकः क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र नैकोऽपि चान्ते । इत्थं नेयौ रजनिदिवसौ लोलयन्द्वाविवाक्षौ कालः कल्यो भुवनफलके क्रीडति प्राणिशारैः ॥३६॥ जिस किसी घर में अनेक थे, वहाँ एक रह गया और इस प्रकार दिवस- रात्रि रूपी दो पासों को फेंकने वाला काल पुरुष काली के साथ प्राण रूपी पासा लेकर संसार रूपी चौसर का खेल खेलता है। ॥३६॥ तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम् । पिबामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरसान् न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने ॥३७॥ हम नहीं जानते कि हमें क्षणभंगुर जीवन में क्या करना चाहिए ? तपस्या में रत रहते हुए गङ्गातट पर निवास अथवा गुणों के कारण उदार हुई अपनी पत्नी को सविनय परिचय? या शास्त्रों का श्रवण करें अथवा काव्यरूपी सुधारस का पान? ॥ ३७ ॥ गङ्गातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य । किं तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशङ्काः कण्डूयन्ते जरठहरिणाः स्वाङ्गमङ्गे मदीये ॥३८॥ क्या वे मेरे सुदिन होंगे जब मैं गंगा के तीर पर हिमगिरि शिला पर पद्मासन लगाकर ब्रह्मध्यान करता हुआ योगनिद्रा में मग्न होजाऊँगा और तब वृद्ध हरिण भी निःशंक होकर अपने शरीर की खुजलाहट दूर करने के लिए उसे मेरे शरीर से रगड़ा करेंगे। ॥३८॥ स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने सुखासीनाः शान्तध्वनिषु रजनीषु युसरितः । भवाभोगोद्विग्नाः शिव शिव शिवेत्युच्चवचसः कदा यास्यामोऽन्तर्गतबहुलबाष्पाकुलदशाम् ॥३९॥ ज्योत्स्नाभरी सुनसान रात्रि में गंगा के रेतीले तट पर सुख से बैठा हुआ मैं भव के भोगों से उद्विग्न रहता है। शिव शिव का जप करता हुआ अपने नेत्रों को अश्वपुर्ण करने में कब सफल होऊंगा ? ॥३९॥ महादेवो देव: सरिदपि च सैषा सुरसरिद्‌ गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः । सुहृद्वा कालोऽय ब्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता ॥४०॥ शिव ही मेरे इष्टदेव हैं, नदियों में गंगा ही नदी है, पर्वत की गुहा ही मेरा घर, दिशाएँ वस्त्र, काल ही मित्र और अदैन्य मेरा व्रत है अधिक क्या कहूँ वटवृक्ष ही मेरे लिए दपिता स्वरूप है ॥४०॥ आशानामनदीमनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला रागग्राहवती वितर्कविहगा धर्यद्रमध्वसिनी । मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तङ्गचिन्तातटी तस्याःपारगता विशुद्धमनसो नन्दन्तियोगीश्वराः ॥४१॥ आशा नाम की नदी में मनोरथ रूपी जल और तृष्णा रूपी तरंग है, राग ही उसमें ग्राह हैं और वितर्क अर्थात् अनुकूल प्रतिकूल पदार्थों के निर्णय की विचारधारा रूपी पक्षी वृक्ष पर बैठे हैं और वह धारा धैय रूपी वृक्ष को गिराती हैं। मोह रूपी गहन भंवर और चिन्ता नट हैं। शुद्ध मन वाले योगीश्वर हो ऐसी नदी से पार होने में समर्थ हैं। ॥४१॥ आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्‌नै वास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्मागतो वा । योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढरूढाभिभान- क्षीबस्यान्तःकरणकरिणः संयमालानलीलां ॥४२॥ हे तात ! संसार की प्रवृत्ति के आरम्भ काल से मैंने त्रिलोकी में खोज करली, परन्तु ऐसा कोई भी देखने-सुनने में नहीं आया जो विषय रूपी हथिनी के अति गूढ़ अभिमान से उन्मत्त हुए अन्तःकरण रूपी हाथी को संयम रूपी बन्धन में बाँध सके। ॥४२॥ विद्यानाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितं शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न संपादिता । आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपिनालिंगिताः कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया काकैरिव प्रेर्यते ॥४२॥ हमने कलंक-रहित विद्या नहीं पढ़ी, धन भी नहीं कमाया, माता पिता की सेवा भी नहीं की और चंचलनयना युवति का आलिंगन स्वप्न में भी नहीं किया। हमने तो केवल पराये अन्न के लोभ में ही अपना जीवन कौए के समान व्यतीत कर दिया । ॥४३॥ वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः स्मरन्तः संसारे विगुणापरिणामां विधिगतिम् । वय पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणा स्त्रियामा नेष्यामो हरचरणचिन्तैकशरणाः ॥ ४४ ॥ अपना सर्वस्व वितरण कर, करुणापूर्ण हृदय से संसार की विषम परिणाम वाली दैवगति का स्मरण करते हुए पवित्र वन में भगवान शिव की चरण शरण लेते हुए शरद् की चाँदनी रात्रि को कब बितायेंगे ? ॥४४॥ वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः सम इव परितोषो निविशेषो विशेषः। स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः ॥४५॥ राजन् ! हम वृक्ष की छाल के वल्कल वस्त्र से ही सन्तुष्ट हैं और तुम श्रेष्ठ वस्त्रों में सन्तुष्ट रहते हो। इस प्रकार हमारे तुम्हारे सन्तोष में अन्तर न होने से विशेष भेद भी नहीं है। परन्तु जिसकी तृष्णा विशाल है वही पुरुष दरिद्र होता है, क्योंकि मन असन्तुष्ट हो तो कौन धनवान और कौन दरिद्र है ? ॥४५॥ यदैतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं सहार्येः संवासः श्रुतमुपशमैकवतफलम्। मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृश नजाने कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः ॥४६॥ स्वच्छन्द विहार, दीनता-रहित भोजन, सत्पुरुषों का संग, मन को शान्ति देने वाले एवं उपशम व्रत रूपी फल वाले शास्त्रों का श्रवण, सांसारिक भावों में मन की प्रवृत्ति की मन्दता आदि का चिरकाल तक विचार-विमर्श करने पर भी समझ में नहीं आया कि यह किस तपस्या का फल है। ॥४६॥ पाणिः पात्रं पवित्र भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्नं विस्तीर्णवस्त्रमाशादशकमचपलंतल्पमस्वल्पमुर्वी । येषांनिःसङ्गताङ्गीकरणपरिणतस्वात्मसंतोषिणस्ते धन्याः न्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराकर्म निर्मूलयन्ति ॥४७॥ हाथ ही पवित्र पात्र, भ्रमण करने पर प्राप्त भिक्षा ही अक्षय अन्न, विस्तीर्ण दिशाएँ वस्त्र, वृहद् पृथिवी शय्या, संसर्गों से शून्य अन्तःकरण की वृत्ति और अपने आत्मा में ही सन्तुष्टता तथा दीनता के भावों का त्याग, ऐसे जिनपुरुषों ने अपने कर्मों को समूल नष्ट कर लिया, वे धन्य हैं। ॥४७॥ दुराराध्याश्वामी तुरगचलचिताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः । जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यञ्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः ॥४८॥ अश्व की गति के समान चलायमान चित्त वाले राजाओं की आराधना कठिन है। परन्तु हमारी इच्छाओं की स्थूलता के कारण उच्चपद प्राप्ति की लालसा रही आती है। वृद्धावस्था देह का और मृत्यु जीवन का हरण करती है। अतः हे सखे ! जगत् में विवेकी पुरुष के लिए तप के अतिरिक्त कोई अन्य श्रेयस्कर मार्ग नहीं है। ॥४८॥ भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला आयुर्वायुविघट्टिता भ्रपटलीलानाम्बुवभंगुरम् । लीला यौवनलालसास्तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धि विदध्वं बुधाः ॥४९॥ संसार के भोग चंचला विद्युत् के समान अस्थिर हैं, आयु भी वायु के द्वारा विघटित किये गए जलवर्षक मेघों के समान क्षणभंगुर है, यौवन की लालसा भी स्थिर नहीं है। अतः हे बुधजन ! धैर्य से प्राप्त एकाग्रता द्वारा सुलभ समाधि सिद्धि का प्रयत्न करो। ॥४९॥ पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपार्लिकपार्लि ह्यादाय न्यायगर्भ द्विजहुतहतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठम् । द्वारं द्वारं प्रविष्टो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो मानी प्राणैः स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषु दीनः ॥५०॥ क्षुधाकुल होकर जो अपनी उदर-कन्दरा को भरने के लिए श्वेत वस्त्रों से ढके ठीकरे को लेकर किसी पवित्र ग्राम या वन में जाकर सतत किये जाने वाले यज्ञों के धुएं से काले पड़े हुए किवाड़ों वाले द्वार-द्वार पर भिक्षा- याचना करें परन्तु समान कुल वालों के द्वार पर दीन होकर भिक्षा न माँगे, वह धन्य है ॥५०॥ चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवाशूद्रोऽथकिं तापसः किवातत्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वराकोऽपिकिम् । इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरै सम्भाष्यमाणा जनैर्नक्रद्धाः पथिनैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः ॥५१॥ क्या यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? शूद्र है अथवा तपस्वी? अथवा तत्वज्ञान में कुशल कोई योगीश्वर है? इस भाँति अनेक प्रकार के संशय से युक्त तर्क-वितर्क करते हुए मनुष्यों द्वारा छेड़ छाड़ करने पर भी योगी न तो क़द्ध होता है और न हर्षित ही, वरन् सदैव सावधान चित्त रहता है। ॥५१॥ विरमत बुधा योषिसङ्गात्सुखात्क्षणबन्धुरात् कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञावधूजनसङ्गमम् । न खलु नरके हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलं शरणमथ वा श्रोणीबिम्बं रणन्मणिमेखलम् ॥५२॥ हे बुधजन ! क्षणभंगुर सुख वाले स्त्री-संग से चित्त को हटा कर, करुणा से मैत्री और प्रज्ञा रूपी वधुओं से समागम करो। क्योंकि अन्त में नरक को प्राप्त होने पर हारों से अलंकृत सघन वक्षस्थल या शब्दायमान मणि- मेखला से समन्वित कटि सहायक नहीं हो सकती ॥५२॥ मातर्लक्ष्मिभजस्वकच्चिदपर मत्कांक्षिणामस्मभू- भोंगेषु स्पृहयालवो नहि वयं का निःस्पृहाणीमसि । सद्यः स्यूतपलाशपत्नपुटिकापात्रे पवित्रीकृतै मिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्ति समीहामहे ॥५३॥ हे लक्ष्मी माता ! अब तू मेरी आशा छोड़ कर अन्य किसी का भजन कर, क्योंकि विषयों के भोग में मेरी किंचित् भी रुचि नहीं रही। अब तो मैं निस्पृही रह कर पलाश के हरित पत्रों के दोने में रखे भिक्षा से प्राप्त सत्तू के द्वारा ही जीवन यापन करूंगा। ॥५३॥ यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः । कि जातमधुना मित्र यूयं यूय वयं वयम् ॥५४॥ हे मित्र ! पहले हम समझते थे कि तुम हो वह हम हैं और हम हैं वह तुम हो अर्थात् हम-तुम दोनों एक ही हैं। परन्तु अब क्या हुआ कि तुम तुम ही हो गए और हम हम ही रह गए। ॥५४॥ रम्यं हर्म्यतलं न कि वसयते श्रव्यं न गेयादिकं किं वा प्राण समासमागमसुखं नैवाधिक प्रीयते । कि भ्रान्तपतत्पतङ्गपवनव्यालोलदीपांकुर- च्छायाचञ्चलमाकलय्यसकलं सन्तो वनान्तं गताः ॥५५॥ क्या सन्त जनों के रहने के लिए रम्य राजभवन न थे ? क्या श्रव्य संगीत और गीतादि न थे ? क्या प्राणप्रिया नारियों का समागम सुख उन्हें प्रिय न था ? परन्तु वे इस जगत् को वायु से हिलती हुई दीपक की लौ की छाया के समान चंचल समझ कर निर्जन वन में चले गए। ॥५५॥ किंकन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगतानिर्झरावागिरिभ्यः प्रध्वस्तावातरुभ्यः सरसफलभृतोवल्कसिन्येश्चशाखाः वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रसभमागतप्रश्रयाणां खलानां दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयपवनवशानतित भ्रू लतानि ॥५६॥ क्या कन्दराओं से कन्दमूलादि और पर्वतीय झरने नष्ट हो गए या सरस फल और वल्कल से युक्त वृक्ष की शाखाएँ क्षीण होगई ? जिनके कारण याचकों को अविनीत दुष्टों के मुख देखने पड़ते हैं। ॥५६॥ गङ्गातरङ्गकणशीकरशीतलानि विद्याधराध्युषितचारुशिलातलानि । स्थानानिकिं हिमवतः प्रलयं गतानि यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः ॥५७॥ गंगाजी की तरंगों से ठंडे हुए जलकणों से शीतल और बैठे हुए विद्याधरों वाले शिलातल युक्त हिमालय के स्थान क्या लुप्त हो गए हैं, जो अपमान सहन करते हुए मनुष्य दूसरों के दिये अन्न में रुचि रखा करते हैं। ॥५७॥ यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निहिहतः समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरमकरग्राहनिलयाः। धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता शरीरे का वार्ता करिकलभकर्णाग्रचपले ॥५८॥ जब श्रीसम्पन्न सुमेरु पर्वत प्रलय काल की अग्नि से दग्ध होकर गिर जाता है, बड़े-बड़े मकर और ग्राहों का आश्रय स्थान समुद्र शुष्क हो जाता है तथा पर्वतों से धारित धरती लीन हो जाती है, तब हाथी के कर्णाग्र के समान चपल इस शरीर का ही क्या कहना ? ॥५८॥ एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः कदा शम्भो भविष्यामि कर्म निर्मूलनक्षमः ॥५९॥ हे शम्भो ! मैं एकाकी, निस्पृह, शान्त, करपात्री, दिगम्बर और कर्मफल को नि मूल करने में समर्थ कब होऊंगा? ॥५९॥ प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । सम्मानिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ॥६०॥ सभी कामनाओं के देने वाली लक्ष्मी के प्राप्त होने से क्या होता है? शत्रुओं को पददलित करने या प्रेमियों को धनादि से सम्मानित होने अथवा कल्प पर्यन्त जीवित रहने से भी क्या लाभ है ? ॥६०॥ जीर्णा कन्था ततः किं, सित ममलपटं पट्टसूत्रं ततः किं मेकाभार्याततः किंबहुयकरिभिः काटिसंख्यास्ततः किं । भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्तेततः किं व्यक्तज्योतिर्नवान्तर्मयितभवभयं वैभवं वा ततः किं ॥ ६१॥ कन्था के जीर्ण होने से क्या ? श्वेत रेशमी वस्त्र के धारण से, स्त्री के एक होने से, करोड़ों हाथी-घोड़ों वाले ऐश्वर्य से या मध्याह्न में श्रेष्ठ भोजन अथवा सायंकाल में निकृष्ट भोजन प्राप्त होने से भी क्या ? अर्थात् यदि भवभय नाशक ब्रह्मतेज धारण न किया तो उन सबके उत्कृष्ट होने से ही क्या लाभ है ? ॥६१॥ भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः। संसर्गदोषरहिता वि जना वनान्ता वैराग्यमस्ति किमतः परमर्थनीयम् ॥६२॥ शिव की भक्ति, हृदय में मरण और जन्म के भय, बन्धुओं के स्नेह, काम- विकार तथा संसर्ग दोष से रहित निर्जन वन में निवास हो तो इससे अधिक परम अर्थ और वैराग्य ही कौन-सा है ? ॥६२॥ तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि । तद् ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः । यस्यानुङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति ॥६३॥ इसलिए अनन्त, अजर, परम ज्योति स्वरूप ब्रह्म का चिन्तन करो, उससे भिन्न चिन्तन से क्या लाभ है? क्योंकि कृपणों के अधीन रहने वाले भुवनों का आधिपत्य, भोग आदि सब उस ब्रह्म के ही ओश्रित हैं ॥६३॥ पातालमाविशसि यासिनभोविलंध्य दिग्ममण्डलं भ्रमसि मान सचापलेन । भ्रान्त्यापिजातुविमलं कथमात्मनानं तद् ब्रह्म न स्मरसि निवृतिमेषि येन ॥६४॥ अरे मन ! तू अपनी चंचलता के कारण कभी पाताल में जाता है तो कभी आकाश का उल्लंघन करता है, और कभी सब दिशाओं में घूमता है। परन्तु कभी भूल कर भी उस विमल आत्मा रूप ब्रह्म का चिन्तन नहीं करता जिससे सब दुःखों की निवृत्ति हो सके। ॥६४॥ रात्रिः सैव पुनःस एव दिवसो मत्वाऽबुधाजन्तवो धावन्त्युद्यमिनस्तथै व निभृतप्रारब्धततत्क्रियाः । व्यापारैः पुनरुक्तभुत विषयैरेवंविधेनाऽमुना संसारेण कदथिताः कथमहो मोहान्न लज्जामहे ॥६५॥ वही रात्रि और वही दिवस होते हैं, यह सभी प्राणी जानते हैं, फिर भी प्रारब्ध कर्मों को पूर्ण करने के लिए उन्हीं व्यापारों को पुनः करते हैं। इस प्रकार के संसार से हम निन्दा के पात्र होकर भी अज्ञानवश लज्जित नहीं होते ॥६५॥ मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः । स्फुरदीपश्चन्द्रो विरतिवनितासङ्गमुदितः सुख शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिनृप इव ॥ ६६॥ जिसकी रम्य शैय्या भूमि, विपुल तकिया भुजा, आकाश वितान, अनुकूल वायु पंखा, चन्द्रमा ही प्रकाशमान दीपक और विरक्ति रूपी स्त्री का संग है, वही मुनि ऐश्वर्यवान् राजा के समान सुख-शान्ति पूर्वक शयन करता है ॥६६॥ त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने तल्लाब्ध्वाशनवस्त्रमानघटने भोगे रति मा कृथाः। भोगः कोऽगि स एक एव परमो नित्योदितोजृम्भते यत्स्वादाद्विरसाभवन्तिविषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः ॥६७॥ रे मन ! जिस ब्रह्म के महाशासन के समक्ष त्रैलोक्य का आधिपत्य भी रसहीन प्रतीत होता है, उसकी प्राप्ति में ही लग, भोजन, वसन, मान रूपी भोग से प्रीति न लगा। उसके समान अन्य भोग कौन-सा है जो निन्य प्रकाशित है तथा जिसके स्वाद के आगे त्रैलोक्य के राज्यादि भी रसहीन सिद्ध होते हैं। ॥६७॥ किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैछ शास्त्रैर्महाविस्तरैः स्वर्गग्रामकुटीनिवास फलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः। मुक्त्वैकं भवबन्धदुःखरचना विध्वंसकालानल त्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तय ॥६८॥ वेद, स्मृति, पुराण और शास्त्रों के अत्यन्त विस्तार में जाने का क्या प्रयोजन ? स्वांग रूपी कुटी में निवास रूपी फल के देने वाले यज्ञादि कर्मो से क्या लाभ ? भव-बन्धन रूपी दुःख के निवारणार्थ उत्पन्न कालानल के समान आत्मानन्द रूप पद प्रवेश के अतिरिक्त अन्य सभी वृत्तियाँ व्यापार रूप हैं। ॥६८॥ आयुः कल्लोललोलकतिपयदिवसस्थायिनीयौवन श्री रथः संकल्पकल्पाघनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूराः ।। कण्ठाश्लोपोद्गढं तदपिचनचिरंयत्प्रियाभिः प्रणीतं ब्रह्मण्यायुक्तचिता भवत भवभयाम्भोधिपारंतरीतुम् ॥६९॥ आयु जल की तरंगों के समान चंचल, यौवन की शोभा कुछ दिनों तक सीमित, धन संकल्प-कल्पना के समान अस्थिर, वासना वर्षाऋतु के विद्युत-विलास के समान चपल और प्रियाओं का कण्ठ मिलन युक्त आलिंगन रूपी सुख भी अस्थायी है। अतः भवभय रूपी सागर से पार जाने के लिए ब्रह्म में आसक्त होना श्रेयस्कर है। ॥६९॥ ब्रह्माण्डं मण्डलीमात्र न लोभाय मनस्विनः । शफरीस्फूरितेनाव्धेः क्षव्धता न तु जायते ॥७०॥ बिम्ब फल के समान यह ब्रह्माण्ड मनस्वियों का मन लुभाने में उतना ही असमर्थ है, जितनी समुद्र को क्षुब्ध करने में मछलियों की उछल-कूद व्यर्थ रहती है। ॥७०॥ यदासी दज्ञानं स्मरतिमिरसंस्कार जनितं तदा दृष्टं नारीमयमिदमशेष जगदपि । इदानीमस्माकपटुतरविवेकाञ्जनजुषां समीभुता दृष्टिस्त्रिभुवनभपि ब्रह्म तनुते ॥७१॥ यौवनावस्था में कामदेव रूपी तिमिर (नेत्र रोग) के कारण विवेक न रहने से सम्पूर्ण जगत् स्त्रीमय जान पड़ता था, परन्तु अब उस तिमिर रोग को दूर करने में सशक्त विवेक रूपी अंजन से हमारी दृष्टि त्रिभुवन को ही ब्रह्मरूप में देखती है। ॥७१॥ रम्याश्चन्दमरीचयस्तृणवती रम्यावनान्तस्थली तम्यं साधुसमागमोद्भवसुखं काव्येषु रम्याः कथाः । ि कोपोपाहित वाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुख सर्वं रम्य मनित्यतामुपगते चित्त न किञ्चत्पुनः ॥७२॥ चन्द्रमा की रम्य किरणें, हरित तृणों से सुरम्य हुई वनस्थली, सत्संग से उत्पन्न रम्य सुख एव कव्यों की रमणीक कथाएँऔर प्रणयकोष से उत्पन्न अश्रुओं से रम्य हुआ प्रिया का मुख, यह सब रम्य होते हुए भी संसार की अनित्यता का ज्ञान होने पर वित्त पुनः उन में नहीं रमता। ॥७२॥ भिक्षाशी जनमध्यसङ्गरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा दानादानविरक्तमार्ग निरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः रथ्याकीर्ण विशीर्णजीर्णवसनः सम्प्राप्तकन्याधरो निर्यानो निरह कृतिः शमसुखभोगेकवद्धस्पृहः ॥७३॥ भिक्षा से जीवन यात्रा चलाने वाले, लोगों के संग से विमुख, इच्छानुसार चेष्टा में सदा स्थित, दान-अदान से विरक्त, मार्ग में फेंके गये जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को पहनने वाले, कन्था का ही आसन बनाकर बैठने वाले, मान और अहंकार से रहित एवं शान्तिसुख के भोग में चित्त लगाने वाले विरले ही होते हैं। ॥७३॥ मातर्मेदिनि तात मारूत सखतेजः सुबन्धोजल भ्रातव्योम निबद्धएषभवतामन्त्यः प्रणामाज्ञ्जलिः। युष्मत्सङ्ग वशोपजातसुकृतोद्रक स्फुरन्निर्मल ृ ज्ञानापास्तसमस्त मोह महिमालीवेपरब्रह्मणि ।।७४।। हे मेदिनी माता ! हे वायु पिता, हे तेज मित्र, हे जल सुबन्धो ! हे आकाश भ्रातृ ! मैं कर जोड़ कर प्रणाम करता हूँ। आपके संग से उत्पन्न पुण्य के आधिक्य से प्रकाशित ज्ञान द्वारा मोह महिमा का नाश करता पर ब्रह्म में लीन हो रहा हूँ। ॥७४॥ यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृह यावच्चदूरे जरा यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः। आत्मश्रेयसि तावदेवविदुषाकार्यः प्रयत्नोमहान् प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखनन प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥७५॥ जब तक काया स्वस्थ है और वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों के करने में सशक्त हैं तथा जब तक आयु नष्ट नहीं होती, तब तक विद्वान् पुरुष को अपने श्रेय के लिए प्रयत्न शील रहे। घर जलने पर कुँआ खोदने से क्या लाभ ? ॥७५॥ नाभ्यस्ताभुविवादिवृन्ददमनीविद्याविनीतोचिता खड्गाग्रे : करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः। कान्ताकोमलपल्लवाधरसः पीतो न चन्द्रोदये तारुण्यं गतमेव निष्फल महो शून्यालयदीपवत् ॥७६॥ मैंने न तो विरोधियों के मुख को दमन करने वाली विद्या का अध्ययन किया, न तलवार की नोंक से हाथी की पीठ को विदीर्ण करके अपना यश ही स्वर्ग तक फैलाया और न चन्द्रोदय काल में कान्ता के कोमल अधरों का ही पान किया। इस प्रकार मेरा तो तारुण्य भी शून्य गृह में जलते हुए दीप के समान निष्फल ही गया। ॥७६॥ ज्ञानं सतां मानमदादिनाशन केषाञ्चिदेतन्मदमानकारणम् स्थानंविविक्तंयमिनांविमुक्तये कामातुराणामपि कामकारणम् ॥७७॥ ज्ञान से सज्जनों का मान मदादि नष्ट होते और दुर्जन के मान-मदादि की वृद्धि होती है। जैसे एकान्त स्थान योगी की मुक्ति में साधन होता है, वैसे ही वह कामातुरों के काम की वृद्धि में भी कारण होता है। ॥७७॥ जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं जरा यौवनं हन्ताङ्ग षु गुणाश्चवन्ध्यफलतांयातागुणज्ञ बिना। कि युक्तं सहसाभ्युपैतिबलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी हाज्ञातं मदनांतकांघ्रियुगलमुक्त्वास्तिनान्यागतिः ॥७८॥ मनोरथ हृदय में ही जीर्ण हो गए, यौवन जरावस्था के रूप में बदल गया, गुणज्ञों के बिना अगों के गुण भी बन्ध्या के समान व्यर्थ हो गए और अब बलवान काल के रूप में क्षमा न करने वाला कृतान्त चला आ रहा है, इसलिए अब तो मदनांतक शिव के चरणों के अतिरिक्त कोई अन्य गति नहीं है। ॥७८॥ स्नात्वागाङ्गः:पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वाविभोत्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्यङ्‌मूले। आत्मारामः फलाशीगुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्माररे दुःखान्मोक्ष्येकदाहुँतव चरणरतो ध्यान मागैकनिष्ठः ॥७९॥ हे कामदेव के शत्रु! गंगा में स्नान करके पवित्र पुष्प-फल से आपका पूजन कर गिरि गुहा में बैठा हुआ मैं ध्यान-योग्य आप में स्वयं को लीन करके केवल फलाहार से जीवन-यापन करता हूँ। हे विभो! मैं गुरु के बताये ध्यान-मार्ग का अनुसरण करता आपके चरण-रत रह कर दुःखों से कब मुक्त हो सकूगा? ॥७९॥ शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्र तरूणां त्वचः सारङ्गाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलः कोमलैः । येषां नैर्झरमम्बुपानमुचितं रत्यै च विद्यङ्गना मन्यन्तेपरमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवाञ्जलिः ॥८०॥ जिन्होंने शैल शिला को शय्या और गिरि गुफा को घर बना लिया, जो वृक्ष की छाल के वस्त्र धारण करते और कोमल फलों से क्षुधापूर्ति करते हैं। झरनों का जल जिनका प्यास निवृत्ति का साधन है तथा जिनका मन विद्यारूपी स्त्री में रमा है और जिन्होंने परायी सेवा के लिए कभी अपना करबद्ध नहीं किया, मैं उनको परमेश्वर ही मानता हूँ। ॥८०॥ उद्यानेषु विचित्रभोजनविधिस्तीव्रा ततीव्र तपः कौपीनावरणं सुवस्त्रमभितो भिक्षाटन मण्डनम् । आसन्न मरणं च मगलसमं यस्या समुत्पद्यते तां काशी परिहृत्य हन्त विबुधैरन्यत्र कि स्थोयते ॥८१॥ जिसमें उद्यानों में विविध भाँति के व्यंजन बना कर भोजन करना ही तीव्र तितीव्र तपस्या, कौपीन धारण करना श्रेष्ठ वस्त्र, भिक्षाटन ही अलंकार तथा मरण पर्यन्त रहना मंगल के समान है, उस काशी को छोड़ कर विद्वान् अन्यत्र क्यों रहते हैं? ॥८१॥ नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथों यदि स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु यषां वचः । चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितु निदर्वारिक निर्दयोक्त्यपुरुष निःसीमशर्मप्रदम् ॥८२॥ जिनके द्वार-रक्षक भिक्षा माँगने वालों से कहते हैं कि स्वामी इस समय एकान्त स्थान में निद्रामग्न हुए सो रहे हैं, यह समय मिलने का है भी नहीं, इसलिए जाग कर यहाँ आने पर तुम्हें बैठे देखकर क्रोधित हो जाँयगे । परन्तु रे मन ! ऐसे मदोन्मत स्वामियों के लिए अपने जीवन को निष्फल न करके देवताओं के भी ईश्वर की शरण लो। वहाँ न तो कोई रोकता है, न कठोर वचन कहता है, वरन् वह पद तो असीम सुख देता है। ॥८२॥ प्रियसख विपदण्डव्रातप्रतापपरम्परा परिचयचले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः । मृदमिव बलापिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद् भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ॥८३॥ हे प्रिय सखे ! यह दृष्ट विधाता चतुर कुम्हार के समान विपत्ति रूपी दण्ड- समूहों के प्रभाव की परम्परा से अत्यन्त चपल चिन्तारूपी चक्र पर मेरे मन को मृत्तिका-पिण्ड के समान घुमाता रहता है। हम नहीं जानते कि अब वह क्या करने वाला है ॥८४॥ महेश्वरे ता जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि। तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे ॥८४॥ यद्यपि जगदीश्वर शिव और जगदात्मा जनार्दन में कोई भेद नहीं है, तो भी जिनके भाल पर तरुण चन्द्रमा विराजता है, उन्हीं में मेरी भक्ति है। ॥८४॥ रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटङ्कारवै रे रे कोकिल कोमलैः कलरवैः किं त्वं वृथा जल्पसि । मुग्धे स्निग्धविदग्धक्षेपमधुरेलोलै कटालैरलं चेतश्चम्बितचन्द्रचूडचरणध्यानामृते वर्तते ॥८५॥ रे कन्दर्प ! तू धनुष की टंकार कर के अपने हाथ को क्यों व्यर्थ कष्ट दे रहा है ? रे कोकिल ! क्यों व्यर्थ ही अपने कोमल कलरव के रूप में बड़बड़ाता है ? हे मुग्धे ! अपने स्निग्ध, विदग्ध एवं चंचल कटाक्षों को मुझ पर न फेक, क्योंकि अब मेरा चित्त भगवान् चन्द्रचूड के चरणध्यान रूपी अमृत में विद्यमान है। ॥८५॥ कौपीनं शतखण्ड जर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशां नैश्चिन्त्यं सुखसाध्यभेक्ष्य मश नं निद्राश्मशाने वने। मित्रा मित्रसमानतातिविमला चिन्ताऽथ शून्यालये ध्वस्ताशेषमदप्रमाद मुदितोयोगी सुख तिष्ठति ॥८६॥ जिनकी कौपीन अत्यन्त जर्जर होकर टूक-टूक हो गई, कन्था की भी ऐसी ही दशा है यथा भोजनार्थ सुखपूर्वक भिक्षान्न प्राप्त होने के कारण निश्चिन्तता भी है और जो श्मशान में या वन में निद्रा लेते हैं। जो मित्र- अमित्र को समान भाव से देखते, एकान्त स्थान में समाधि लगाते हैं और मद मोहादि सभी दोषों से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे योगी सुख से रहते हैं। ॥८६॥ भोगाभगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भव- स्तत्कस्येहकृतं परिभ्रमत रे लोकाः कृत चेष्ठितेः । आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां कामोच्छेत्तृहरे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ॥८७॥ अरे मनुष्यों! इस संसार में अनेक प्रकार के क्षणभंगुर सुखों को देने वाले जो भोग हैं, उन्हें जन्म-मरण के कारण जान कर भी तुम यहाँ किस कारण घूमते हो? ऐसे क्षणिक भोग के लिए प्रयत्न व्यर्थ है। सैकड़ों प्रकार के आशा-पाशों को तोड़ने और स्वच्छ चित्त होकर कामोच्छेदक शिव में चित्त को लगाओ ॥८७॥ धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतांज्योतिः परं ध्यायता- मानन्दाश्रु जलंपिबन्ति शकुनानिःशङ्गडे शयाः । अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट- क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परं क्षीयते ॥८८॥ वे धन्य हैं जो गिरि गुफाओं में रह कर परम ज्योति का ध्यान करते हैं और जिनके अंक में बैठे हुए परीक्षण उन्ही के आनंदजनित अश्रुओं का पान करते हैं। परन्तु हमारी आयु तो केवल मनोरथ के भवन मे बनी बावड़ी के तट पर स्थित क्रीड़ोद्यान मे लीला करते ही क्षीण होती जा रही है ॥८८॥ आक्रान्तं मरणेन जन्म जरसा विद्युच्चलं यौवनं संतोषो केनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमंः । लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैनृपा दुर्जनै- रस्थैर्येण विभुतयोऽयुपता ग्रस्तं न कि केनवा ॥८९॥ जन्म को मृत्यु ने, विद्यतु के समान चपल युवावस्था को वृद्धावस्था ने, सन्तोष को धन की आकांक्षा ने, सुख-शान्ति को सुन्दरियों के विलासों ने, गुणों को दुष्ट पुरुषों ने, वन को सर्पों ने, राजा को दुर्जनों ने तथा भोग- सामग्री को अस्थिरता ने आक्रान्त किया हुआ है। इस प्रकार इस जगत् में किसने किस को आक्रान्त नहीं कर रखा है। ॥८९॥ आधिध्याधिशतैजेनस्य विविधैरारोग्यमुन्मूल्यते लक्ष्मीर्यत्र पतन्ति तत्र विवृतद्वारा इव व्यापदः । जातं जातमवश्यमाशु विवशं मृत्युः करोत्यात्मसा- तत्किंनाम निरंकुशेन विधिनायन्निमितंसुस्थितम् ॥९०॥ सैकड़ों प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियों ने आरोग्य का उन्मूलन कर दिया है। जहाँ द्रव्य की प्रचुरता रहती है, वहाँ विपत्ति द्वार को तोड़ कर जाती है। जो उत्पन्न होता है, उसे मृत्यु अपने वश में अवश्य ही कर लेती है, तब ऐसी कौन सी वस्तु है, जो विधाता ने स्थिर रहने वाली बनाई हो। ॥९०॥ आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्थं गतं तस्यार्द्धस्य परस्य चाद्धमपरं बालत्व वृद्धत्वयोः । शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्तीयते जीवेवारितरगचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ॥९१॥ मनुष्यों की पूर्णायु सौ वर्ष की है, उसमें से आधी तो रात्रि में सोकर ही व्यतीत हो गई, चौथाई बालकपन और वृद्धत्व में चली गई और शेष चौथाई व्याधि, वियोग-दुख एव धनवानों की सेवा आदि में व्यतीत हुई, फिर अब जल की तरगों के समान अत्यन्त चंचल इस जीवन में प्राणियों को सुख की प्राप्ति कहाँ हो सकती है? ॥९१॥ ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहोदुष्करं यन्मुं चत्युपभोग कांचनभनान्येकान्तती निस्पृहाः। न प्राप्तानिपुरानसम्प्रति न च प्राप्तौढप्रत्ययो वांछामात्रपरिग्रहाण्यंपिपरंत्यक्तुं न शक्तावयम् ॥९२॥ ब्रह्मज्ञान के विवेक में निर्मल बुद्धि वाले पुरुष अत्यन्त दुष्कर कायों को करते हैं। वे उपभोग, भूषण, वस्त्र, ताम्बूल, शय्या, धन आदि सम्पूर्ण भोग सामग्री का त्याग कर देते तथा निस्पृह रहते हैं। परन्तु हमको तो यह कुछ भी न पहले मिला, न अब और न आगे मिलने का ही विश्वास है और जो इच्छा मात्र से प्राप्त हैं, उनको त्यागने में भी हम तो समर्थ नहीं होते ॥९२॥ फलमलमशनाय स्वादुपानाय तोयं क्षितिरपि शयनार्थं वाससे वल्कलञ्च । नवधन मधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा भविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ॥९३॥ जब भोजन के लिए मीठे फल, पीने के लिए सुस्वादु जल, शयन के लिए पृथिवी और पहनने के लिए वल्कल वस्त्र उपलब्ध हैं, तब हम धनमद में उन्मत्त, भ्रान्त इन्द्रियों वाले दुर्जनों के अवनय युक्त व्यवहार को क्यों सहन करें ? ॥९३॥ कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भवासे कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोगः। नारीणामप्यवज्ञाविलसितनियतं वृद्धभावोऽप्यसाधुः संसारेरेमनुष्यावदतयदिसुखंस्वल्पमप्यस्तिकिञ्चित् ॥९४॥ गर्भवास में अपने देह को संकुचित रखते हुए अपवित्र मल मूत्रादि के मध्य रहने को विवश होना पड़ता है, युवावस्था में प्रिया के वियोग रूपी दुःख की प्राप्ति होती है और न वृद्धावस्था में तिरस्कृत हुआ मनुष्य सिर झुकाकर चिन्ता में पड़ा रहता है। ऐसा होने से अरे लोगो ! यह बताओ कि क्या इस संसार में कहीं किचित् भी सुख है। ॥९४॥ अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः । सदा सन्तुष्टमनसः सर्वा. सुखमया दिशः ॥९५॥ अकिंचन, दान्त, शान्त तथा शत्रु-मित्र के प्रति समान विचार वाले सदा सन्तुष्ट पुरुष के लिए यह सभी दिशाएँ आनन्ददायक होती हैं ॥९५॥ चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् । चलाचले च संसारे धर्म एकोहि निश्चलः ॥९६॥ लक्ष्मी चंचला है, प्राण चंचल हैं तथा जीवन और यौवन यह दोनों भी चंचल हैं। इस प्रकार चल और अचल संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल रहता है। ॥९६॥ भिक्षा कामदुधा धेनुः कन्था शीतनिर्वारिणी। अचलातु शिवे भक्तिविभवैः किम्प्रयोजनम् ॥९७॥ जब भिक्षा ही कामधेनु, कन्था ही शीत का निवारण करने वाली और शिवजी से ही अचल भक्ति हो तो फिर वैभव का ही क्या प्रयोजन है। ॥९७॥ कदा संसार जालान्तर्बद्धं त्रिगुणरज्जुभिः । आत्मानं मोचयिष्यामि शिवभक्तिशलाकया ॥९८॥ संसार जाल के भीतर त्रिगुणात्मिका रस्सी से बंधी हुई आत्मा को शिव भक्ति रूप शलाका के द्वारा छुड़ाने में कब समर्थ होऊंगा? ॥९८॥ चला विभूतिः क्षणभंगि यौवनं कृतान्तदन्तान्तरर्वात जीवितम् । तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितम् ॥९९॥ ऐश्वर्य चंचल और यौवन क्षणभंगुर है, मनुष्य का जीवन काल के दाँतों के मध्य पड़ा है, तो भी मनुष्य परलोक की प्राप्ति के साधन की अवज्ञा करता जाता है। अहो ! मनुष्यों की यह चेष्टा केसी विस्मयकारिणी है ? ॥९९॥ पृथिवी दह्यते यत्न मेरुश्चापि विशोर्यते । शुष्यत्यम्भोनिधिजलं शरीरे तत्र का कथा ॥१००॥| जब पृथिवी जलकर भस्म हो जाती है, सुमेरु भी खण्ड-खण्ड हो जाता है और समुद्र भी शुष्क हो जाता है, तब शरीर का तो कहना ही क्या है ? ॥१००॥ ॐ वैराग्य शतक समाप्त ॐ?

    Shri Bhatrhari Niti shatak (श्री भतृहरि कृत नीति शतक)

    श्री भतृहरि कृत नीति शतक मंगलाचरण दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्र मूर्तये । स्वानुभूत्येकसाराय नमः शान्ताय तेजसे ॥१॥ सभी दिशाओं और भूत भविष्य, वर्तमानादि कालों में अनवच्छिन्न, अनन्त, चैतन्यमात्र मूर्ती वाले, अपने अनुभव से जानने योग्य, शान्त स्वरूप एवं तेजोमय परमात्मा को नमस्कार है। ॥१॥ यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः । अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥२॥ मैं सदा जिसका चितन करता रहता हूँ, वह मुझसे विरक्त होकर अन्य पुरुष की कामना करती है, और वह अन्य पुरुष किसी अन्य स्त्री की कामना करता है तथा वह अन्य स्त्री मुझसे प्रीति करती है। अतएव मेरी स्त्री को, उस अन्य पुरुष को मुझे चाहने वाली उस अन्य स्त्री को, मुझे और उस कामदेव को भी धिक्कार है। ॥२॥ अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदूर्वीदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥३॥ अज्ञानी पुरुष को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है, ज्ञानी पुरुष का प्रसन्न करना उससे भी सुखसाध्य है। परन्तु जो न ज्ञानी है, न अज्ञानी, उसे ब्रह्मा भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता ॥३॥ प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरेवक्त्रदंष्ट्रांतरात् समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूमिमालाकुलम् । भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥४॥ मगर के दाढ़ों में दबी हुई मणि चाहे निकाली जा सके, चाहे उन्नत लहरों से उलझते हुए गहन समुद्र को तैर कर पार किया जा सके और चाहे कुद्ध हुए सर्प को पकड़ कर सिर पर धारण किया जा सके, परन्तु मूर्ख पुरुष के किसी वस्तु पर जमे हुए मन को वहाँ से हटाना अत्यंत कठिन है ॥४॥ लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् पिवेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासादितः । कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविष्टमूर्ख जनचित्तमाराधयेत् ॥५॥ यत्न करने पर चाहे बालू से तेल निकाल लिया जाय, चाहे प्यासा मनुष्य मृगतृष्णा के जल से अपनी प्यास को बुझा ले और चाहे ढूढने पर खरगोश का सींग भी मिल जाय, परन्तु किसी वस्तु पर टिके हुए सूख मनुष्य के मन को उस वस्तु से हटाना असंभव है। ॥५॥ व्यालं बालमृणाजतन्तुभिरसौ रोद्ध समुज्जृम्भते छेत्तुं वज्रमणिञ्छिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते । माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितु क्षाराम्बुधेरीहते नेतु वाञ्छतियः खलांपथिसतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ॥६॥ जो पुरुष अपने सुधामय वचनों के उपदेश से दुष्टों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करना चाहता है, वह मानों कमल की बाल मृणाल से हाथी को बाँधना, सरसों की पुष्प-पंखुड़ी से हीरे में छेद करना और खारी समुद्र के जल को मधु की बूंदों से मीठा करना चाहता है। ॥६॥ स्वायत्तमेकांत गुणं विधात्रा विनिमतंछादनमज्ञतायाः । विशेषतः सर्व विदांसमाजे विभूषणंमौनमपण्डितानाम् ॥७॥ विधाता द्वारा निर्मित मौन में अनेक गुण हैं। इसे किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं होती, जो चाहे इस स्वाधीन रहने वाली वस्तु को कार्य में ला सकता है। मुर्खता के लिए ढक्कन स्वरूप यह मौन विद्वत्समाज में मूर्खी के लिए आभूषण स्वरूप ही होता है। ॥७॥ यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम् तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः। यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम् तदा मूखोंऽस्मोति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥८॥ जब मुझे किंचित् ज्ञान होने लगा तब मैं हाथी के समान मदोन्मत्त होकर अपने मन में सोचने लगा कि मैं सर्वज्ञ हूँ। परन्तु जब ज्ञानी जनों के संग से कुछ यथार्थ ज्ञान हुआ, तब मेरा वह गर्व ऐसे उतर गया, जैसे रोगी का ज्वर उतर जाता है, तभी मुझे अपने मूर्ख होने की प्रतीति हुई। ॥८॥ कृमिकुलचितं लालाक्लिन्ने विगन्धि जुगुप्सित निरुपमरस प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शङ्कते न हि गणपति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥९॥ जब कृमियों से युक्त, लार से क्लिन्न, दुर्गन्धित, घृणित, रसहीन तथा माँसहीन मानव-अस्थि को कुत्ता प्रीतिपूर्वक चबाता हुआ पाश्र्व में स्थित इन्द्र की भी शंका नहीं मानता तो इससे यही प्रकट होता है कि क्षुद्र जीव जिस वस्तु को ग्रहण कर लेता है उसके अवगुण को नहीं देखता। ॥९॥ शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपपिशिरस्कः क्षितिधरं महीधादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् । अधोऽधो गङ्ग यं पदमुपगता स्तोकमथवा विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥१०॥ गंगा भी स्वर्ग से पहले शिवजी के शिर पर, फिर वहाँ से हिमगिरि पर और वहाँ से पृथिवी पर गिर कर समुद्र में चली गई। इस प्रकार उसके नीचे गिरते चले जाने से यह सिद्ध होता है कि विवेक से भ्रष्ट हुए पुरुष भी ऐसी ही सैकड़ों अधोगतियों को प्राप्त होते हैं। ॥१०॥ शक्यो वारयितु जलेन हुतभुक् छत्रेण ्तसूर्यातपो नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदा दण्डेन गोगर्दभौ। व्याधिर्भेषजसंग्रहेश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैविषम् सर्वस्यौषधमस्तिशास्त्रविहितं मूर्खस्यनास्त्यौषधम् ॥११॥ अग्नि का निवारण जल से होता है। धूप का छत्र से, मदमत्त हाथी का अकुश से, बैल और गधा डंडे से तथा रोग का अनेक प्रकार की औषधियों से और विष का विविध मन्त्रादि के प्रयोगों से निवारण होता है। इस प्रकार शास्त्रों में सभी की औषधि बताई है, परन्तु मूर्खता के लिए कोई औषधि नहीं हो सकती। ॥११॥ साहित्यसङ्गीतकलाविहीनःसाक्षात्पशुःपुच्छविषाणहीनः । तृणन्नखादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयंपरमंपशूनाम् ॥१२॥ जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन हैं वे पूँछ और सींग से रहित साक्षात् पशु ही हैं। परन्तु यह घास न खाकर जीवित रहते हैं, इसे पशुओं का परम सौभाग्य ही सम झना चाहिए। ॥१२॥ येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभुतामनुष्यरूपेणमृगाश्चरन्ति ॥१३॥ जिनमें विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील और गुण का अभाव है, वे मृत्युलोक में पृथिवी पर भारम्प होकर मनुष्य रूप में मृग के समान विचरण करते हैं। ॥१३॥ वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह । न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि ॥१४॥ निर्जन पर्वतों पर वनचरों के साथ विचरण करना अच्छा है, परन्तु मूखों के साथ इन्द्र के भवन में रहना भी ठीक नहीं है। ॥१४॥ विद्वत्प्रशंसा शास्त्रोपस्कृत शब्द सुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोनिर्धनाः। तज्जाड्य' वसुधाधिपस्य सुधियस्त्वर्थं विनापीश्वराः । कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षकाहिमणयो यैरर्घतः पातिताः ॥१५॥ शास्त्रों के श्रेष्ठ शब्दों से विभूषित वाणी एवं शिष्यों के उपदेश में उपयोगी वाक्यों वाले विख्यात कवियों का निर्धन रहकर जिस राज्य में निवास हो, वह उस राजा की अयोग्यता का सूचक है। क्योंकि विद्वान् कवि तो निर्धन होते हुए भी सर्वत्र पूजनीय और सर्व समर्थ होते हैं। रत्नों के मूल्य को यथार्थ से कम परखने वाला पारखी ही निन्दनीय हो सकता है, रत्न नहीं हो सकते। ॥१५॥ हर्तु यति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा ह्यार्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धि पराम् । कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधन विद्याख्यमन्तर्धनम् येषां तान्प्रति मानुमुज्झत नृपाः कस्तैः सहस्पर्धते ॥१६॥ विद्या रूप गुप्त धन को चोर नहीं देख सकता और वह धन सदा श्रेय की ही वृद्धि करता है। याचकों को देने पर भी बढ़ता और प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होता। हे नृपगण ! उन महाकवियों के प्रति अभिमान उनसे स्पर्धा करने वाला ही कौन है? ॥१६॥ अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्भावमस्था- स्तृणमिव लघुलक्ष्मीनँव तान्संरुणद्धि । अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां । न भवति विसतन्तुवरणं वारणानाम् ॥१७॥ परमार्थ के ज्ञाता पंडितों का अपमान न करो, क्योंकि तृण के समान तुच्छ लक्ष्मी द्वारा उनका वशीभूत होना वैसे ही संभव नहीं है, जैसे कि कमलनाल के तन्तु द्वारा नवीन मद के स्राव वाले और श्याम गण्डस्थल वाले हाथी को रोकना असम्भव है ॥१७॥ अम्भोजिनीवनविहारविलासमेव हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता । न त्वस्य दुग्ध-जलभेदविधौप्रसिद्धां वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौसमर्थः ॥१८॥ यदि विधाता क्रुद्ध हो जाय तो वह कमलिनी वन में विलास करते हुए हंस को भले ही रोक दे, परन्तु उसके दूध और जल को पृथक् पृथक् कर देने वाले चतुराई युक्त गुण को कोन छीन सकता है ? ॥१८॥ केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नाल‌ङ्कृता मूर्धजा वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सतत वाग्भूषणं भूषणम् ॥१६॥ केयूर और चन्द्रमा के समान उज्वल मोतियों के हार धारण करने, स्नान और उबटन करने तथा केशों में पुष्प धारण करने से भी ऐसी शोभा नहीं हो सकती, जैसी कि संस्कार युक्त अलंकृत वाणी से होती है। क्योंकि अलंकारों का तो नाश हो जाता है, परन्तु वाणी रूपी अलंकार का जीवन- पर्यन्त नाश नहीं होता ॥१६॥ विद्या नाम नरस्य रूपमधिक प्रच्छन्नगुप्तं धनं विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥२०॥ विद्या ही मनुष्य का सुन्दर रूप और गुप्त धन है, विद्या ही भोग, यश और सुख को प्राप्त कराने वाली है, विद्या ही गुरुओं की भी गुरु है, विद्या ही विदेश-गमन में बन्धु स्वरूप होती है, विद्या ही परा देवता है और विद्या ही राजाओं के द्वारा भी पूजी जाती है, धन नहीं पूजा जाता। इसलिए विद्याविहीन मनुष्य पशु ही है। ॥२०॥ क्षान्तिश्चेत्कवचेनकिं किंमरिभिः क्रोधोऽस्ति चेदेहिनां ्य ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृदिव्योषधैः किं फलम् । किं सपैर्यदि दुर्जनाः किमु धनैवद्याऽनवद्य यदि व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यपि राज्येन किम् ॥२१॥ यदि क्षमा है तो कवच का क्या प्रयोजन ? यदि क्रोध है तो शत्र की क्या आवश्यकता ? यदि जाति है तो अग्नि की क्या अपेक्षा ? यदि सुहृद् हैं तो दिव्य औषधियों का क्या लाभ ? यदि साथ में दुर्जन हो तो सर्प भी क्या है? यदि विद्या धन है तो अन्य धन किस काम का ? यदि लज्जा है तो आभूषणों से क्या प्रयोजन है ? और यदि श्रेष्ठ कविता है तो राज्य भी क्या है ? ॥२१॥ दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्य सदा दुर्जने प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जने चार्जवम् । शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धृष्टता ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोके स्थितिः ॥२२॥ स्वजनों पर उदारता, परिजनों पर दया, दुर्जनों से शठता, साधुओं से प्रीति, राजपुरुषों से नीति, विद्वानों से सरलता, शत्रुओं से शूरता, गुरुजनों से सहनशीलता, स्त्रियों से धृष्टता आदि लौकिक व्यवहार में कुशल पुरुषों से ही लोक की स्थिति है। ॥२२॥ जाडयं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति ी सत्सङ्गतिः कथय किन्न करोति पुंसाम् ।।२३।। सज्जनों की संगति जड़ता को दूर करती है, वाणी को सत्य से परिपूर्ण करती है, मान की वृद्धि करती है, पापों को नष्ट करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और सब दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है। कहो, वह मनुष्य के हितार्थ क्या नहीं करती ? ॥२३॥ जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः । नास्ति तेषां यशः काये जरामरणजे भयम् ॥२४॥ श्रेष्ठ कर्म वाले और सभी रसों में सिद्ध वह कवीश्वर ही सर्व विजेता हैं, जिन्हें यश, कोया, वृद्धावस्था और मृत्यु का भी भय नहीं है ॥२४॥ सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशमनः । आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं तुष्टे विष्टपहारिणीष्टदहरौ सम्प्राप्यते देहिनाम् ॥२५॥ सच्चरित्र पुत्र, पतिव्रता पत्नी, प्रसन्न मुख स्वामी, स्नेही मित्र, अवंचक परिजन, क्लेश-रहित मन, रुचिर आकृति, स्थिर वैभव, विद्या से सुशोभित मुख यह सब परमात्मा की प्रसन्नता से ही शरीरधारियों को प्राप्त होते हैं। ॥२५॥ प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्य काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् । ा तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्व भूतानुकम्पा सामान्य सर्व शास्त्रेष्वनुपहतविधिःश्रेयसामेष पन्था ॥२६॥ जीवों की हिंसा न करना, पराये धन को न हरना, सत्य बोलना, पर्वकाल में यथाशक्ति दान करना, युवतियों की कथा में मौन रहना, तृष्णा को तोड़ना, गुरुजनों के प्रति विनय भाव रखना, सब जीवों पर दया करना आदि सर्वशास्त्रों द्वारा बताया हुआ कल्याण का मार्ग है।॥२६॥ प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरन्तिम मध्याः। विघ्नै पुनः पुनरपि पूतिहन्यमानाः ्य प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ॥२७॥ निम्न श्रेणी के पुरुष विघ्न-भय से कार्यारम्भ नहीं करते, मध्यम श्रेणी के पुरुष कार्यारम्भ कर देते हैं और विघ्न होने पर मध्य में ही उसे छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम श्रेणी के पुरुष विघ्नों के कारण बार-बार संतप्त होने पर भी उसे नहीं छोड़ते, अपितु पूर्ण करके ही रहते हैं। ॥२७॥ प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्‌ऽप्यसुकरं त्वसन्तो नाभ्यार्थाः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः। विपद्यच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्ट विषममसिधाराब्रतमिदम् ॥२८॥ श्रेष्ठ पुरुष न्याय-प्रिय होते हैं, वे घोर विपत्ति में भी अनुचित कार्य नहीं करते। दृष्ट पुरुष से या अल्पधन वाले सुहृद से धन की याचना नहीं करते। प्राण भले ही चले जाँय परन्तु वे अपने गौरव का ह्रास नहीं होने देते, यह समझ में नहीं आता कि तलवार की धार पर चलने के समान यह कठोर व्रत उन्हें किसने सिखाया है ? ॥२८॥ मान शौर्य प्रशंसा क्षत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्रायोऽपिकष्टां दशामापन्नोऽपि विपन्नदीधितिरपि प्राणेषु नश्यत्स्वपि । मत्तेभेन्द्र विभिन्नकुम्भपिशितग्रासैक बद्धस्पृहः किंजीर्णतृणमत्तिमान महतामग्रेसरः केसरी ॥२९॥ क्षुधा से कृश शरीर, शिथिल प्रायः जरावस्था के कारण बलहीन और कष्टमय दशा को प्राप्त हुआ सिंह तेज-रहित होने पर भी मत्त गजेन्द्र के मस्तक का भक्षण करने की इच्छा रख कर कभी शुष्क और जीर्ण घास को खा सकता है? ॥२९॥ स्वल्पस्नायुवसावशेषमलिनं, निर्मा समप्यस्थिकं श्वालब्ध्वा परितोषमेति न च तत्तस्य क्षुधाशान्तये। सिहो जम्बुकमङ्गागतमपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विषं सर्वः कृच्छ्रगतोपि वाञ्छतिजन सत्वाप्ररूपंफलम् ॥३०॥ स्वल्प स्नायु, चर्बी आदि तथा मांस-रहित अस्थि को प्राप्त करके प्रसन्न तो होता है, परन्तु उससे उसकी भूख शान्त नहीं हो सकती। सिंह भी पास आये हुए सियार को छोड़ कर हाथी का ही वध करता है। इस प्रकार कष्टमय दशा को प्राप्त होकर भी सब जीव अपनी शक्ति के अनुसार ही फल प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। ॥३०॥ लांगूलचालनमधश्चरणावपातं भूमौ निपत्य बदनोदरदर्शनञ्च । श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीर विलोकयति चाटुशतैश्च भक्त ॥३१॥ कुत्ता भोजनदाता के आगे पूँछ हिलाकर और भूमि पर लोट-पोट होकर अपनी दीनता प्रदर्शित करता है, परन्तु हाथी अपने भोजनदाता को गंभीरता से देख कर सैकड़ों वार मनाने पर ही भोजन करता है। ॥३१॥ परिर्वातनि संसारे मृतः को वा न जायते। स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥३२॥ इस परिवर्तनशील संसार में मरण को कौन नहीं प्राप्त होता और कौन नहीं जन्म लेता ? परन्तु जिसके द्वारा वंश की वृद्धि हो, उसी का जन्म लेना सार्थक है। ॥३२॥ कुसुमस्तवकस्येव द्वयी वृत्तिर्मनस्विनः । मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशार्येत वनेऽथवा ॥३३॥ पुष्पों के गुच्छे के समान मनस्वी पुरुषों की दो गतियाँ ही हैं-सब के सिर पर प्रतिष्ठित होना अथवा वन में ही मुरझा मुझ कर नष्ट हो जाना है। ॥३३॥ सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते। द्वावेव ग्रसते दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ भास्वरौ भ्रातः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षाविशेषाकृतिः ॥३४॥ आकाश में बृहस्पति और उसके समान तेजस्वी पाँच, छः ग्रह और भी हैं, परन्तु अपने विशेष पराक्रम में रुचि रखने वाला सिर मात्र शेष राहू उनसे वैर न करके परम तेजस्वी सूर्य चन्द्र को ही (क्रमशः) पूणिमा और अमावस के समय ग्रास करता है। ॥३४॥ वहति भुवनश्रेणि शेषः फणफलकस्थितां कमठपतिना मध्येपृष्ठ सदा स विधार्यते । तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा- दहह महतां निःसीमानश्वचरित्रविभूतयः ॥३५॥ शेष नाग अपने फण पर ही चौदह भुवनो को धारण किये रहते हैं, परन्तु कच्छप ने उन शेष नाग को भी अपनी पीठ पर धारण कर रखा है। वह कच्छप भी समुद्र की गोद में अनादर पूर्वक धारणकिया हुआ है। अहो ! महान् पुरुषों के चरित्र की महिमा भी असीमित होती है। ॥३५॥ वरं प्राणोच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश प्रहारैरुद्गच्छबहुल दहनोद्गारगुरुभिः । तुषाराद्रे सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः ॥३६॥ अग्नि की असह्य ज्वाला वाले वज्र के इन्द्र द्वारा प्रहार करने से हिमालय के पुत्र मैनाक के परों का काटना अच्छा था, परन्तु यह अच्छा नहीं था कि उसने अपने पिता को संकट ग्रस्त छोड़ कर समुद्र के आश्रय में अपनी प्राण-रक्षा की। ॥३६॥ यदचेतनोऽपिपादस्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः । तत्तेजस्वी पुरुषः परकृतनिकृतिं कथं सहते ॥३७॥ सूर्यकान्त मणि अचेतन होने पर सूर्य की रश्मियों के ताप से प्रज्वलित हो जाती है तो सचेतन तेजस्वी पुरुष दूसरों के द्वारा किये जाने वाले निरादर को कैसे सहन कर सकता है ? ॥३७॥ सिंहः शिशुरपिनिपततिमदमलिनकपोलभित्तिषुगजेषु । प्रकृतिरियं सत्ववतां न खलु वयस्ते जसा हेतुः ॥३८॥ सिंह का शिशु भी मदोन्मत्त हाथी पर आक्रमण कर देता है, क्योंकि शक्तिशालियों का स्वभाव ही ऐसा होता है। तेजस्विता को प्रदशित करने में वय बाधा का कारण कदापि नहीं बन सकती। ॥३८॥ द्रव्य प्रशंसा जातिर्यातु रसातलं गुण गणस्तत्राप्यधो गच्छतात् शालं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना । शौर्ये वैरिणि वज़माशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं येनकेन बिनागुणास्तृणलवप्रायाः समस्ताइमे ॥३९॥ जाति चाहे रसातल में क्यों न चली जाय, श्रेष्ठ गुणगण भी अधोगामी क्यों न हो जाँय, शीलता पर्वत से शिला के पतित होने के समान क्यों न गिर जाय, परिवारीजन अग्नि में क्यों न भस्म हो जाँय, शत्रुरूपी शुरता पर वज्रपात क्यों न हो जाय, परन्तु हमें तो धन से ही प्रयोजन है, क्योंकि धन के बिना सभी गुण तृण के तुल्य ही हैं। ॥३९॥ तानोन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम ें सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव । अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥१०॥ वही इन्द्रियाँ हैं, वही नाम है, वही अकुंठित बुद्धि है, वही वाणी है, फिर भी केसी अद्भुत बात है कि धन के बिना मनुष्य क्षणभर में ही कुछ का कुछ हो जाता है। ॥४०॥ यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥४१॥ जिसके पास धन है, वही पुरुष कुलीन है, वही पण्डित है, वही विद्वान् और गुणज्ञ है, वही वक्ता और वही दर्शनीय है। अभिप्राय यह है कि सभी गुण स्वर्णरूपी धन के आश्रित हैं ॥४१॥ दौर्यन्त्यान्नृपतिविनश्यतियतिः सङ्गात्सुतोलालनाद् विप्रोऽनध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीले खलोपासनात् । हीर्मद्यादानवेक्षणादपिकृषि: स्नेहः प्रवासाश्रया मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्यागात्प्रमादाद्धनम् ॥४२॥ बुरे मन्त्रियों से राजा का, कुसंगति से योगी पुरुष का, लाड़ से पुत्र का, अध्ययन न करने से ब्राह्मण का, कुपुत्र से कुल का और खलों की सेवा से शील का नाश होजाता है। ॥४२॥ दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य यो न ददाति न भङक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥४३॥ धन की तीन गति हैं- दान, भोग और नाश। धन का दान या भोग न किया जाय तो उसकी तीसरी गति ही हुआ करती है। ॥४३॥ मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिनिहतो मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः । कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता तनिम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चाथिषुजना ॥४४॥ शान पर खराद किया हुआ मणि, शस्त्रों से आहत समर विजयी, मद का स्राव करता हुआ हाथी, शरद ऋतु में किंचित सूखी हुई नदी, कला से शेष चन्द्रमा, कामकेलि में मर्दिता बालवनिता और शुभकर्म में व्यय करके निर्धन हुआ राजा, इनकी शोभा कृशता में भी होती है। ॥४४॥ परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवांना प्रसृतये स पश्चात्सम्पूर्णो गणयति धरित्रीं तृणसमाम् ।। अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयार्थषु धनिनामवस्था वस्तूनिप्रथयतिचसङ्कोचयति च ॥४५॥ दरिद्र रहने पर जो मनुष्य एक अंजुली मात्र जौ की कामना करता है, वही धनवान होने पर सम्पूर्ण पृथिवी को तृण के समान समझता है। इस प्रकार यह दोनों अवस्थाएँ मनुष्यों को छोटा या बड़ा बना देतीं और वस्तुओं का विस्तार और संकोच किया करती हैं। ॥४५॥ राजन्दधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां तेनाद्य वत्समिव लोकममुम्पुषाण । तस्मिश्च सम्यगनिशं परिपुष्यमाणे नानाफलं फलति कल्पलतेव भूमिः ॥४६॥ हे राजन् ! यदि पृथिवी रूपी गाय का दोहन करना हो तो प्रजा का पालन बछडे के समान करो । क्योंकि भले प्रकार पालन की हुई पृथिवी कल्पवृक्ष के समान फल देने वाली होती है। ॥४६॥ सत्याऽनृता च परुषा प्रियवादिनी च हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।। नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा ॥४७॥ कहीं सत्य, कहीं झूठ, कहीं कठोर, कहीं मधुर बोलने वाली, कहीं घातक, कहीं दयालु, कहीं कृपण, कहीं उदार, कहीं प्रचुर धन का व्यय करने वाली और कहीं अधिक धन-संचय करने वाली यह राजनीति वेश्या के समान अनेक रूप वाली होती हैं ॥४७॥ विद्या कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणञ्च । येषामेते षड्‌गुणा न प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥१८॥ विद्या, कीर्ति, ब्राह्मणों का पालन, दान देना, भोग करना और मित्र की रक्षा, जिसमें यह छः गुण नहीं, उस राजा के आश्रय से क्या लाभ है ? ॥४८॥ यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं तत्प्राप्नोतिमरुस्थलेऽपिनितरां मेरौततोनाधिकम् । तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्ति वृथामाकृथा कूपेपश्य पयोनिधीवविघटो गृहणाति तुल्य जलम् ॥८९॥ विधाता ने भाग्य में अल्प या अधिक जितना भी धन लिखा है, वह तो उसे मरुस्थल में भी प्राप्त होता ही है और उससे अधिक सुमेरु पर्वत पर जाने से भी नहीं मिल सकता। इसलिए धैर्य पूर्वक जो है उसी पर सन्तोष करो और किसी धनवान के समक्ष दीनता व्यक्त न करो। देखो, घड़े को कूप में डालो या समुद्र में, जल तो एक समान ही भरेगा। ॥४९॥ त्वमेव चाय काधारोऽसोति केषां न गोचरः । किमभ्भोदवरास्माकं कार्पण्योक्ति पतीक्षसे ॥५०॥ हे मघवर ! यह किसे ज्ञात नहीं कि हम पपीहों के आधार तुम्हीं हो, तो फिर तुम हमारे दीनता भरे शब्दों की ही प्रतीक्षा क्यों करते हो ? ॥५०॥ रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयतां मम्भोदा बहवोहि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः । केचिद्दृष्टिभिराद्रयन्ति वसुधांगर्जन्तिकेचिद् वृथा यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रहि दीनंवचः ॥५१॥ अरे पपीहा ! सावधान मन से मेरा वचन सुन। आकाश में अनेक मेघ हैं, परन्तु सभी समान नहीं हैं। उनमें से कुछ तो जल की वर्षा करके पृथिवी की तृप्ति करते हैं और कुछ वृथा ही गर्जन करते रहते हैं। इसलिए तू जिस-जिस को देखे उस-उस के समक्ष ही दोन वचनों को न बोला कर। ॥५१॥ अकरुणत्वमकारण विग्रहः परधने परयोषिति च स्पृहा । सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम् ॥५२॥ करुणाहीनता, अकारण विग्रह, परधन और परनारी की कामना, स्वजनों और मित्रों के प्रति असहिष्णुता, दुरात्माओं के यह स्वभाव सिद्ध लक्षण हैं। ॥५२॥ दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ॥५३॥ दुर्जन विद्यावान है तो भी त्याग देने योग्य है। क्या मणि से अलंकृत हुए सर्प में भयंकरता नहीं होती ॥५३॥ जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौदम्भः शुचौ कैतवं शूरे निघृणता मुनौ विमतितार्दैन्यं प्रियालापिनि । तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तव्यशक्तिः स्थिरे तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैनङ्कितः ॥५४॥ लज्जावानों में जड़ता, व्रत करने वालों में दम्भ पवित्र चित्त वालों में कपट वीरों में दयाहीनता, मुनियों में बुद्धि राहित्य, मधुर भाषियों में दैन्य, तेजस्वियों में अवलिप्तता, वक्ताओं में मुखरता और स्थिर चित्त वालों में आलस्य का होना कह कर दुर्जन पुरुष, गुणियों में ऐसा कौन-सा गुण है जिसमें दोष न निकालते हों। ॥५४॥ लोभश्चदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः सत्यं चेत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेनकिम् । सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किंमण्डनैः सद्विद्यायदिकिं धनैरपयशो यद्यम्तिकं मृत्युना ॥५५॥ लोभ है तो किसी अन्य दुर्गुण की क्या आवश्यकता ? यदि पशुता है तो पापों का क्या प्रयोजन ? यदि सत्य है तो तप से क्या लाभ ? यदि मन में पवित्रता है तो तीर्थों में जाने का क्या उद्देश्य ? यदि सौजन्य है तो अन्य गुणों से क्या कार्य ? यदि यश है तो अन्य भूषण से क्या अपेक्षा ? यदि सद् विद्या है। तो धन का क्या अभिप्राय ? यदि अपयश है तो मृत्यु की क्या कामना ? ॥५५॥ शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वाकृतेः । प्रभुर्घनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो नृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे ॥५६॥ दिन का धूमिल चन्द्र, यौवनहीना नारी, कमलविहीन सरोवर, बुद्धिहीन सुन्दर पुरुष, कृपण स्वामी, दुर्गति-ग्रस्त सज्जन और राजभवन में दुष्ट मनुष्य का वास, यह सातों काँटे के समान हैं। ॥५६॥ न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भुभुजाम् । होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः ॥५७॥ अत्यन्त क्रोधी राजाओं का आत्मीय कोई नहीं होता। क्योकिं अग्नि आहुति देने वाले को भी स्पर्श करने पर दग्ध कर देती है। ॥५७॥ मौनान्मूकः प्रवचनपटुवार्तुलो जल्पको वा धृष्टः पाश्व पसति च सदा परतश्चापगल्भः। क्षान्त्या भीरुर्यादी न सहतेप्रायशो नाभिजातः सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥५८॥ यदि सेवक मौन रहे तो गूंगा, वाक्पटु हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ और दूर रहे तो मूर्ख कहलाता है। यदि क्षमाशील हो तो उसे भीरु और असहनशील हो तो कुलहीन कहते हैं। अभिप्राय यह है कि सेवा धर्म अत्यन्त गहन है, जो कि योगियों को भी अगम्य होता है। ॥५८॥ उद्भासिताखिलखलस्यविशृङ्खलस्य प्राग्जातविस्मृतनिजाधर्मकर्मवृत्तेः । दैवा वाप्तनिभवस्य गुणद्विषोऽस्य नीचस्य गोचरगतैः सुखमास्यते कैः ॥५६॥ जिस की दुष्टता का ज्ञान सभी को होगया हो, जिसके पूर्वजन्म के नीचकर्म इस जन्म में प्रकट हो रहे हों, जो देव वशात् धनवान होगया हो और जिसे श्रेष्ठ गुणों से द्वेष हो, ऐसे दुष्ट मनुष्य के सामने जाकर कौन सुख प्राप्त कर सकता है। ॥५९॥ सज्जन प्रशंसा आरम्भुभुगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वीपुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वाद्ध पराद्धभिन्ना छायेव मैत्रीखलसज्जनानाम् ॥६०॥ जैसे दिवस के प्रारम्भ में घनी छाया रहती है और घोरे धीरे घटती जाती है, फिर दिवस के उत्तरार्ध के अन्त में छाया स्वल्प रहती और धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, वैसे ही दुष्ट और सज्जन की मित्रता होती है। ॥६०॥ मृगमीनसज्जनानांतृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम् । लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणमेव वैरिणो जगति ॥६१॥ मृग और मछली क्रमशः घास खाकर और जल पीकर रहते हैं, तो भी शिकारी और मछेरे उससे द्वेष रखते हैं। वैसे ही सज्जन पुरुषों से दुर्जन पुरुष अकारण ही वैर रखते हैं। ॥६१॥ वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिगुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषित रतिर्लोकापवादाद्भयम् । भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले एते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ॥६२॥ सज्जनों के संग की इच्छा, पराये गुणों से प्रेम, गुरुजनों के समक्ष नम्रता, विद्या में अनुराग, निज पत्नी से प्रीति, लोक निन्दा से भय, शिव की भक्ति, इन्द्रियदमन की शक्ति रखना और दुष्टों की संगति का परित्याग करना, यह श्रेष्ठ गुण जिनमें हैं, उन सज्जनों को नमस्कार। ॥६२॥ विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥६३॥ विपत्ति में धैर्य, अभ्युदय में क्षमा-भाव, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश में अभिरुचि, शास्त्र-श्रवण में चित, महात्मा पुरुषों के यह स्वाभाविक गुण हैं।॥६३॥ प्रदानं प्रच्छन्न गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः। अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसाराः परकथाः सतां केनोद्दिष्ट विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥६४॥ दान को गोपनीय रखना, गृह पर आगत का स्वागत सत्कार करना, परोपकार करके चुप रहना, किसी अन्य द्वारा किये हुए उपकार को सभा में कहना, धन प्राप्त होने पर गर्व न करना, दूसरों की चर्चा में निन्दा-भाव न लाना यह तलवार की धार पर चलने के समान कठोर व्रत किसने बताया है ? ॥६४॥ करे श्लाध्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोवीर्यमतुलम् । हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतमधिगतं च श्रवणयो विनाऽप्यैश्वर्यं प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥६५॥ हाथों की प्रशंसा दान में है, सिर की शोभा गुरुजन के चरणों में प्रणाम करने में है, मुख की शोभा सत्य बोलने में और भुजाओं की शोभा अपार बल प्रदर्शित करने में है। हृदय की श्लाघा स्वच्छता में और कानों की शोभा शास्त्र-श्रवण में है, सज्जनों के लिए यह सब ऐश्वर्य और महान भूषण हैं। ॥६५॥ सम्पत्सु महतां चित्तं भवेदुत्पलकोमलम् । आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम् ॥६६॥ महात्माओं का चित्त सम्पत्ति मिलने पर कमल के समान कोमल तथा आपत्ति पड़ने पर पर्वत की शिला के समान अत्यन्त कठोर होता है। ॥६६॥ सन्तप्तायसिसंस्थितस्यपयसोनामापिनाज्ञायते मुक्ताकारतया तदेव नलिनोपत्नस्थितं राजते। स्वात्यांसागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मोकि कंजायते प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते ॥६७॥ तपते हुए लोहे पर पड़ने वाले जल का नाम भी नहीं जाना जाता अर्थात् चिन्ह भी शेष नहीं रहता, परन्तु वही जल कमल के पत्तों पर मोती के आकार का हो जाता है। यदि वही जल स्वाति नक्षत्र में समुद्र की शक्तियों पर पड़ जाय तो मोती बन जाता है। इससे यही विदित होता है कि शरीर- धारियों के अधम, मध्यम और उतम गुण संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। ॥६७॥ यः प्रीणयेत्सुचरितैः पितरं स पुत्रो यद्भर्तुरव हितमिच्छति तत्कलत्रम् । तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यएतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥६८॥ जो अपने श्रेष्ठ आचरण से पिता को प्रसन्न रखता है, वही पुत्र है, जो अपने पति का हित-चिन्तन करती है, वही पत्नी है। और सुख-दुःख दोनों अवस्थाओं में समान रहे, वही सच्चा मित्र है, इन तीनों की प्राप्ति पुण्यात्मा पुरुषों को ही होती है। ॥६८॥ एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा । एको वासः पत्तने वा वने वा एको नारी सुन्दरी वा दरी वा ॥६९॥ आराध्य देव एक हो-केशव हो अथवा शिव, मित्र भी एक ही हो-राजा हो अथवा योगी। एक ही निवास स्थान हो नगर में अथवा वन में और नारी भी एक ही हो-सुन्दरी हो अथवा गिरि की गुफा हो अर्थात् असुन्दर हो। ॥६६॥ नम्रत्वेनोन्नमन्तःपरगुणकथनैः स्वान्गुणान्ख्यापयन्तः स्वार्थान्सम्पादयन्तोविततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे । क्षान्त्येवाक्षेयूरक्षाक्षपुमुखरमुखान्दुर्जनान्दूषयन्तः सन्तसाश्चर्यचर्याजगतिबहुमताः कस्यनाभ्यर्चनीयाः ॥७०॥ जो नम्र रहकर उन्नति करते हैं, जो पराये गुणों का वर्णन करते हुए अपने गुणों को व्यक्त करते हैं, जो परोपकार करते हुए अपना भी कार्य-साधन करते हैं, जो दुर्जनों की निन्दित और कठोर वाणी से युक्त मुख को क्षमा से ही दूषित करते हैं। इस प्रकार के उन आश्चर्यजनक दिनचर्या वाले सन्त पुरुषों को संसार में पूजनीय कौन नहीं मानता ? ॥७०॥ परोपकारी प्रशंसा भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैनर्वाम्बुभिभू मिविलम्बिनो घना । अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥७१॥ जैसे फल लग जाने पर वृक्ष झुक जाते हैं, जैसे नवीन जल से भरे हुए मेघ पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे ही समृद्धि को प्राप्त हुए सत्पुरुष भी झुक जाते है। क्योंकि परोपकारियों को स्वभाव ही ऐसा होता है। ॥७१॥ श्रोत्र श्रुतेनैवनकुण्डलेनदानेनपाणिर्न तु कङ्कणेन । विभातिकायः करुणामयानां परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥७२॥ श्रोत्रों की शोभा कुण्डल धारण से नहीं, शास्त्र श्रवण से है, हाथों की शोभा कंकण पहनने से नहीं, दान से है और करुणा परायण पुरुषों की शोभा चन्दन-लेपन से नहीं, वरन परोपकार करने से होती है। ॥७२॥ पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निगूहति गुणान्पुकटीकरोति । आपद्गतञ्च न जहाति ददाति काले समित्रलक्षणमिदं पूवदन्ति सन्तः ॥७३॥ अपने मित्र के पाप कर्मों का निवारण करना, हित के कार्यों में युक्त करना, उसकी गुप्त बातों को छिपाये रखना, उसके गुणों को प्रकट करना, उसका साथ कभी न छोड़ना और समय उपस्थित होने पर उसे सहायता करना, सन्तजनों ने यह सब लक्षण श्रेष्ठ मित्र के बताये हैं ॥७३॥ पद्माकर दिनकरो विकचं करोति चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम् । नाभ्यथितो जलधरोऽपि जलं ददाति सन्तः स्वयं परिहितेषु कृताभियोगाः॥७४॥ बिना याचना किये ही सूर्य कमलों को खिलाता और चन्द्रमा कुमुदिनी को विकसित करता है। मेघ भी स्वयं ही जल की वर्षा करता है, क्योंकि सत्पुरुष बिना किसी की प्रार्थना के ही परोपकार में तत्पर रहते हैं। ॥७४॥ एते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य ये सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेनये । तेऽमी मानुषराक्षसः परहित स्वार्थाय निघ्नन्ति ये ये निघ्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानीमहे ॥७५॥ सज्जन पुरुष अपना कार्य छोड़ कर भी पराये कार्य में तत्पर रहते हैं, इनमें जो सामान्य पुरुष हैं वे अपने कार्य में लगे रह कर पराया हित साधन करते हैं। परन्तु जो अपने लाभ के लिए पराया कार्य बिगाड़ देते हैं, वे मनुष्य होते दुए भी राक्षस हैं और जो अकारण ही किसी दूसरे के कार्य को बिगाड़ देते हैं, उन्हें क्या कहना चाहिए, यह मैं नहीं जानता। ॥७५॥ क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ताः पुरा तेऽखिलाः क्षीरोत्तापमवेक्ष्य तेनपयसा ह्यात्मा कृशानौ हुतः। गन्तु पावकमुन्मनास्तदभवद् दृष्टवा तु मित्रापदं युक्तं तेनजलेनशाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी ॥७६॥ जल के साथ मिले हुए दुग्ध ने उसे अपने सभी गुण प्रदान करके मैत्री दृढ़ की। फिर जल ने दुग्ध को जलता हुआ देखा तो उसे बचाने के लिए स्वयं को ही अग्नि में होम कर दिया। जल की यह दशा देख कर दूध ने भी अग्नि की ओर प्रयाण कर दिया, तब जल ने अपने शीतल छीटों से मित्र दुग्ध को स्थिर किया और तभी शान्त हो सका। अहो, सज्जन पुरुषों की मित्रता ऐसी ही होती है। ॥७६॥ इतःस्वपिति केशवःकुलमितस्तदीयद्विषामितश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते । इतोऽपि बड़वानलः सह समस्त संवर्तकैरहो विततमूजितं भरसहञ्च सिन्धोर्वपुः ॥७७॥ समुद्र में एक ओर भगवान् विष्णु शयन करते हैं तो दूसरी ओर उनके शत्रु, एक ओर अपनी रक्षा की आकांक्षा से पर्वतों के समूह सोते हैं तो दूसरी ओर प्रलय काल की सम्वतग्नि को साथ लिए हुए बड़वानल वृद्धि पर है। अहो, समुद्र कैसा महान् बलवान और भारसहन में समर्थ है, इसी प्रकार सज्जन भी होते हैं। ॥७७॥ तृष्णांछिन्धिभजक्षमांजहि मदं पापे रतिमाकृथाः सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनम् । मान्यान्मानयविद्विषोऽप्यनुनयप्रच्छादयस्वान्गुणान् कीर्ति पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॥७८॥ तृष्णा का त्याग करो, क्षमा को अपनाओ, अहंकार को छोड़ दो, पाप से चित्त हटाओ, सत्य बोलो, सज्जनों के पदानुयायी बनो, विद्वानों की सेवा करो, मान्य पुरुषों का मान करो, विद्वषी को भी प्रसन्न रखो, अपने गुणों को व्यक्त करो, यह सभी लक्षण सत्पुरुषों के हैं। ॥७८॥ मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रणिभिः प्रीणयन्तः । परगुण परमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥७९॥ जिनके मन, वचन और काया में पुण्यमय पीयूष भरा है, जिन्होंने परोपकार से त्रिभुवन को प्रसन्न किया है और जिन्होंने दूसरे के अल्प से भी अल्प गुण को पर्वत के समान बढ़ा कर प्रसन्नता प्राप्त की है, ऐसे सन्त पुरुष संसार में कितने हैं ॥७९॥ किं तेन हेमगिरणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव । मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कङ्गोलनिम्बकुटजा अपि चन्दनाः स्युः ॥८०॥ स्वर्ण का वह सुमेरु और रजत का वह हिमालय किस काम का, जिसके आश्रय में स्थित वृक्ष सदा वृक्ष ही रहे आते हैं। परन्तु वह मलयाचल ही धन्य है, जहाँ खड़े हुए कंकोल, नीम और कुटज के वृक्ष भी चन्दन बन जाते हैं। ॥८०॥ धैर्य प्रशंसा रत्नेर्महास्तुतुषुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् । सुधां बिना न प्रययुर्वीराम न निश्चिार्थाद्विरमन्ति धीराः ॥८१॥ समुद्र मन्थन के समय देवगण महान् रत्नों को पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए, भयंकर विष की प्राप्ति से भयभीत न हुए और जब तक मन्थन न हो गया उस कार्य से नहीं हटे। तात्पर्य यह है कि विद्वान् और धीर पुरुष अभीष्ट की प्राप्ति हुए बिना आरम्भ किये हुए कार्य को नहीं छोड़ते ॥८१॥ क्वचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यायनः क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपिः च शाल्योदनरुचिः। क्वचित्कन्थाधारी ववचिदपि च दिव्याम्बरधरो मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुखं न च सुखम् ॥८२॥ कभी भूमि पर सोते हैं तो कभी पलंग पर, कभी शाक का आहार करते हैं तो कभी चावल-भात का भक्षण करते हैं, कभी गुदड़ी पहन कर दिन व्यतीत करते हैं तो कभी दिव्य वस्त्र पहनते हैं, इस प्रकार मनस्वी कार्यार्थी जब कार्य करने लगते हैं तो सुख, दुःख में भेद नहीं मानते। ॥८२॥ ऐश्वर्यस्य विभुषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्यपात्रेव्ययः । अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निवर्याजता सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥८३॥ ऐश्वर्य का भूषण सुजनता, शौर्य का भूषण वाक् संयम, ज्ञान की शोभा शान्ति, शास्त्र की शोभा विनय, धन की शोभा सुपात्र को दान, तप की शोभा अक्रोध, प्रभुत्व की शोभा क्षमा, धर्म की शोभा कपट-रहितता और अन्य सभी गुणों का कारण रूप भूषण शील ही है। ॥८३॥ निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्माः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्येव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥८४।। नीति निपुण मनुष्य निन्दा करे या स्तुति, लक्ष्मी आये या चली जाय, मृत्यु आज ही हो अथवा युगान्तर में, परन्तु धीरजवान् पुरुष न्याय मार्ग से पीछे कभी नहीं हटते। ॥८४॥ भग्नाशस्य करण्डपीडिततनोम्लनेन्द्रियस्य क्षुधा कृत्वाऽऽ खुर्वीवरस्वयंनि पतितो नक्तं मुखे भोगिनः। तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव यातः पथा लोकाः पश्यत दैवमेव हि नृणां वृद्धौक्षये कारणम् ॥८५॥ जिस पिटारे में बन्द रहने के कारण पीड़ित हुआ सर्प जीवन की आशा का त्याग किये बैठा था, उसकी इन्द्रियाँ क्षुधा से शिथिल हो गई थीं, तभी रात्रि के समय एक चूहे ने उस पिटारे में छेद कर उसके भीतर प्रवेश किया और स्वयं ही सर्प के मुख में जा पड़ा। तब सर्प ने उसका भक्षण कर लिया और प्रसन्न होता हुआ पिटारे से बाहर निकल आया। अहो, देखो मनुष्यों की वृद्धि और क्षय का कारण दैव ही है। ॥८५॥ पतितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः । प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः ॥८६॥ जिस पर हाथ के आघात से नीचे की ओर फेंकी हुई गेंद कुछ देर के लिए ऊपर की ओर ही उछलती है, वैसे ही साधुओं की विपत्ति भी अल्पकालीन होती है। ॥८६॥ आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महानरिपुः । नास्त्युद्यमसमो बन्धुर्य कृत्वा नावसीदति ॥८७॥ मनुष्यों के शरीर में आलस्य ही घोर शत्रु है और उद्योग ही उसका ऐसा बन्धु है, जिसके करने पर कभी दुःख नहीं होता। ॥८७॥ छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षोणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्र। इति विमृशन्तः सन्तः संतप्यन्ते न ते विपदा ॥८८॥ जैसे काटा हुआ वृक्ष काट कर भी पुनः बढ़ने लगता है, वैसे ही क्षीण हुआ चन्द्रमा भी पुनः बढ़ता जाता है। ऐसा जानकर सत्पुरुष संकटकाल में भी कभी दुःखित नहीं होते। ॥८८॥ देव प्रशंसा नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः किलहरेरेरावतो वारण । इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलभिद्भग्नः परैः सङ्गरे तद् व्यक्तं वरमेव देवशरणंधिग्धिवृथा पौरुषम् ॥८९॥ जिस के नेता (मन्त्रदाता) बृहस्पति, वज्र जिसका आयुध, देवगण सैनिक, स्वर्ग दुर्ग और ऐरावते जिसका हाथी है, ऐसे सब प्रकार के ऐश्वर्य और बल से समन्वित होकर भी रण में शत्रु से हारता रहता है, इससे यही मानना होता है कि दैव ही शरण लेने योग्य है और वृथा पौरुष को धिक्कार है। ॥८९॥ कर्मायत्तं फलं पुन्सां बुद्धिः कर्मानुसारिणी। तथापि सुधिया कार्य कर्तव्यं सुविचारतः ॥९०॥ मनुष्य कर्म के अनुसार फल भोगता है और कर्म के अनुसार ही बुद्धि हो जाती है। तो भी समझ सोचकर कार्य करना बुद्धिमान का कर्तव्य है। ॥९०॥ खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापिते मस्तके वाञ्छन्देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः। तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्न सशब्दं शिरः प्रायोगच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ॥९१॥ गंजा मनुष्य सूर्य के ताप से सिर को बचाने के लिए छायामय तालवृक्ष के नीचे आया और वहां उस वृक्ष से एक बड़ा फल गिरने के कारण उसका सिर फट गया। इस प्रकार भाग्यहीन पुरुष जहाँ-जहाँ जाता है, विपत्ति भी वहीं-वहीं (उसके पीछे पीछे) जाती है। ॥९१॥ शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनं गजभुजङ्गमयोरपि बन्धनम् । मतिमताञ्चविलोक्यदरिद्रतां विधिरहोबलवानितिमेमतिः ॥९२॥ सूर्य-चन्द्र का राहु के द्वारा ग्रहण, हाथी और सर्प का बन्धन तथा विद्वानों की दरिद्रता को देखकर मैं विधान को ही बलवान समझता हूँ। ॥९२॥ सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलणं भुवः। तदपि तत्क्षणभङ्गिः करोति चेदहह कष्टमपण्डितता विधेः ॥९३॥ ब्रह्मा की कैसी मूर्खता है कि वह गुणों के सभी आकार तथा भूमि के अलंकार रूप जिस पुरुष और रत्नादि की रचना करता है उसे क्षणभंगुर ही बनाता है। ॥९३॥ पत्रं नैव यदा करोर विटपे दोषो वसन्तस्य कि नोलूकोऽप्यबलोकते यदिदिवा सूर्यस्य किंदूषणम् । धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य कि दूषणं यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्माजितु कःक्षमः ॥९४॥ यदि करील के वृक्ष में पत्ते उत्पन्न न हों तो इसमें बसन्त ऋतु का क्या दोष है ? यदि दिन में उल्लू को दिखाई न दे तो इसमें सूर्य का क्या दोष है? यदि चातक के मुख में जल की धारा न पड़े तो इसमें मेघ का क्या दोष है? जो विधाता ने पहले ही ललाट में लिख दिया है, उसको मिटाने में कौन समर्थ होसकता है ? ॥९४॥ कर्म प्रशंसा नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः । फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किञ्च विधिना नमस्तत्कर्मभ्या विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥९५।। हम जिन देवताओं को नमस्कार करते हैं, वे देवता भी विधाता के वश में पड़े हुए हैं। इसलिए हम भी विधाता को नमस्कार करते हैं, जो कि हमारे कर्मों के अनुसार ही फल देता है। जब कर्म के अनुसार ही फल मिलना है, तब हमें देवताओं से और विधाता से ही क्या प्रयोजन? इसलिए उस कर्म को ही नमस्कार करना चाहिए, जिस पर विधाता का भी कोई वश नहीं चल पाता ॥६५॥ ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासंकटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमःकर्मणे ॥६९॥ जिसने ब्रह्माण्ड रूपी पात्र के उदर में सृष्टि रचने के लिए ब्रह्मा को कुम्हार के समान नियुक्त किया, जिसने विष्णु को दश अवतार धारण करने रूपी घोर संकट में डाल दिया, जिसने रुद्र को खप्पर हाथ में लेकर भिक्षा मांगने के लिए बाध्य किया और जसने सूर्य को आकाश भ्रमण का कार्य सोंपा, उस कर्म को नमस्कार है। ॥१६॥ नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शील विद्याऽपि नैव न च यत्कृतापिसेवा। भाग्यानि पूर्वतपसा खलुसञ्चितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ॥९७॥ फल देने में न तो सुन्दर आकृति ही उपयोगी है और न कुल, शील, विद्या अथवा परिश्रमपूर्वक की गई सेवा, वरन् पूर्व जन्म में किये गये तप से सिंचित कर्म ही समय प्राप्त होने पर वृक्ष के समान फल देते हैं। ॥९७॥ वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥१८॥ वन, युद्ध, शत्रु, जल, अग्नि और समुद्र में अथवा पर्वत के शिखर पर, सुप्त अवस्था या प्रमत्त और विषम अवस्था में पूर्व जन्म में किये हुए (शुभ) कर्म ही रक्षा किया करते हैं। ॥९८॥ या साधू श्रखलान्करोतिविदुषोमूर्खन्हितान्द्वेषिणः प्रत्यक्षकुरुते परोक्षममृतं हालाहलं तत्क्षणात्। तामाराधयसत्क्रियां भगवतीं भोक्तु फलवाञ्छितं हे साधो व्यसनैगुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा माकृथाः ॥९९॥ जो सत्क्रिया दुष्टों को सज्जन, मूख को विद्वान्, शत्रुओं को मित्र, अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष और विष को अमृत बनाने में समर्थ है, उसी की आराधना करो। हे साधो ! अनेक गुणों के साधन में श्रम करना व्यर्थ है। ॥९९॥ गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्त र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥१००॥ अच्छे या बुरे कर्म करने से पहले विद्वान् पुरुष का कर्तव्य है कि उसके परिणाम पर भले प्रकार विचार कर ले, क्योंकि बिना विचारे शीघ्रता में किये हुए कर्म का फल मरण पर्यन्त काँटे के समान हृदय में दाह करता रहता है। ॥१००॥ स्थाल्यांवैदूर्यमण्यांपचतितिलकणांश्चान्द नैरिन्धनाद्य : सौवर्गोलङ्ग‌लात्रै विलिखति वसुधामर्कमूलस्य हेतोः । छित्वाकर्पूरखण्डान्वृतिमिहकुरुतेकोद्रवाणां समन्तात् प्राप्येमां कर्मभूमिचरतिनमनुजोयस्तपोमन्दभाग्यः ॥१०१॥ जो मन्दभागी पुरुष इस कर्म भूमि में जन्म लेकर तपश्चर्या कर्म नहीं करता,वह वैदूर्य मणि से निर्मित स्वर्ण पात्र में मानों चन्दन की लकड़ी जला कर दानों को पकाता है और आक के वृक्ष के मूल का पता लगाने के लिए सोने का हल जोतता तथा कर्पूर के टुकड़ों को काट-काट कर मेढ़ लगाता है। ॥१०१॥ मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुज्ञ्जयत्वाहवे वाणिज्यं कृषिसेवनादिसकला विद्या: कलाः शिक्षतु । आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्यनाशः कुतः ॥१०२॥ चाहे समुद्र में गोता लगावे या सुमेर के शिखर पर चढ़ जाय, चाहे शत्रुओं को जीते और चाहे वाणिज्य, कृषि, सेवा इत्यादि सभी कलाओं में निपुणता प्राप्त करले अथवा पक्षियों के समान आकाश में उड़ने में समर्थ होजाय, तो भी अनहोनी का न होना सम्भव नहीं है। ॥१०२॥ भीमं बनं भवति तस्य पुरं प्रधानं सर्वो जनः सुजनतामुपयाति तस्य । कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य ॥१०३॥ जिसने पूर्वजन्म में बहुत पुण्य किये हैं, उसके लिए भयंकर बन भी श्रेष्ठ नगर बन जाता है, सभी मनुष्य उसके लिए सज्जन हो जाते हैं और यह सम्पूर्ण पृथिवी विपुल धनरत्न से सम्पन्न हो जाती है। ॥१०३॥ को लाभो गुणिसंगमः किममुखं प्रज्ञेतरैः संगतिः का हानिःसमयच्युतिन पुणता ना धर्मतत्त्वे रतिः। कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा काऽनुव्रता कि धनं विद्याकि सुखमपूगासगमनं राज्यं किमाज्ञाफलम् ॥१०४॥ संसार में उत्पन्न होने का क्या लाभ है ? गुणवानों का संग। दुःख क्या है ? मूर्खा की संगति । हानि क्या है ? समय को व्यर्थ व्यतीत करना। निपुणता क्या है ? धर्म में अनुराग रखना। शूर कौन है ? इन्द्रियों को जीतने वाला। प्रियतमा कौन है ? पति व्रता भार्या। धन क्या है ? विद्या । सुख क्या है? परदेश में न जाना। राज्य क्या है? आज्ञा का पालन होना। ॥१०४ ॥ मालतीकु सुमस्येव द्वेगती स्तो मनस्विनः । मूर्धिन वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा ॥१०५॥ मालती के पुष्पों के समान मनस्वी पुरुषों की दो ही गति हैं या तो वे सब के मुकुट होकर रहते हैं या वन में जाकर ही शरीर छोड़ते है। ॥१०५॥ अप्रियवचनदरिद्रे : प्रियवचनाढयंः स्वदारपरितुष्टैः । परपरिवादवृत्त, क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा ॥१०६॥ अप्रिय वचन कहने वाले, प्रिय बोलने वाले, अपनी पत्नी से सन्तुष्ट और पर निन्दा से दूर रहने वाले पुरुषों से यह पृथिवी कहीं-कहीं ही विभूषित होती है ॥१०६॥ वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते । ब्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते यस्याङ्गऽखिललोकवल्लभतमंशीलंसमुन्मीलति ॥१०७॥ जिसके शरीर में अखिल विश्व का अत्यन्त प्रिय शील प्रतिष्ठित है, उसके लिए अग्नि जल के समान, समुद्र क्षुद्र नदी के समान, सुमेरु अल्प शिला के समान, सिंह मृग के समान, सर्प पुष्पमाला के समान और विष भी पीयूष की वर्षा करने वाला हो जाता है। ॥१०७ ॥ एकेनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् । क्रियते भास्करेणैव परिस्फुरित तेजसा ।।१०८॥ एक ही शूर सम्पूर्ण पृथिवी को पदाक्रान्त करके इस प्रकार वश में कर लेता है, जिस प्रकार कि सूर्य सम्पूर्ण विश्व को अपने प्रकाश से वश में कर लेता है। ॥१०८ ॥ कथितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्नशक्यते धैर्यगुणाः प्रपाष्टुम। अधोमुखस्यापि कृतस्य वहने नधिः शिखायाति कदाचिदेव ॥१०९॥ कैसा भी कष्ट क्यों न आ पड़े, धीरजवान पुरुष धैर्य को नहीं छोड़ता। अग्नि की ज्वाला कितनी भी नीची करदी जाय, परन्त वह ऊपर को ही जाती है। ॥ १०९ ॥ लज्जागुणौघजननीं जननीमिव स्वामत्यन्त शुद्धहृदयामनु वर्तमानाम् । तेजस्विनः सुखमसूनपि सत्यजन्ति सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥११०॥ सत्य व्रतधारी तेजस्वी मनुष्य लज्जा आदि गुणों को उन्पन्न करने वाली, माता के समान पवित्र हृदया, एवं सदैव स्वाधीन रहने वाली अपनी प्रतिज्ञा को कभी नहीं त्यागते, चाहे उनके प्राण ही क्यों न चले जाँय। ॥ ११० ॥ ॐ नीति शतक समाप्त ॐ