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कल्याणकारी अद्भुत महामंत्र - श्री परमेश्वर स्तोत्रम्
Parameshwar Stotram (परमेश्वर स्तोत्रम्)
परमेश्वर स्तोत्र परमात्मा के प्रति एक प्रार्थना है, जो परम है। इस स्तोत्र के कुछ पदों में भगवान शिव को संबोधित किया गया है और कुछ में भगवान विष्णु को, लेकिन इसका उद्देश्य उस परमात्मा को संबोधित करना है जो इन सीमित विवरणों से परे है। यह स्तोत्र अत्यंत संगीतात्मक है और इसे "स्तोत्र रत्नावली" से लिया गया है।
यह स्तुति भगवान महेश्वर को समर्पित है, जो उमा (उनकी शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली) के अविभाज्य साथी हैं। शक्ति और शक्तिमान के बीच भेद को अद्वैत रूप में दर्शाने के लिए इसे मंदिरों में अर्धनारीश्वर के रूप में मूर्त रूप दिया गया है। इन दोनों को, जिन्हें कालिदास ने "रघुवंश" में अपने मंगलाचरण में पार्वती और परमेश्वर के रूप में संबोधित किया है, उन्होंने शब्द और अर्थ (वाक और अर्थ) की उस अनादि अविभाज्य जोड़ी के समान बताया है। यह सत्य कात्यायन ने अपने पहले वार्तिक में भी व्यक्त किया है।
परमेश्वरस्तोत्रम्
जगदीड सुश्नीदा भवेदा विभो
'परमेझा परात्पर पूत पितः।
श्रणत पतित हतबुद्धिबलं
जनतारण तारय तापितकम् ॥ १ ॥
गुणहीनसुदीनमलीनमतिं
त्वयि पातरि दातरि चापरतिम् ।
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं । जन॥ २ ॥
मम जीवनमीनमिमं पतित
मरुघोरभुवीह सुवी हमहो ।
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयन । जन॥ ३ ॥
भववारण कारण कर्मततौ
भवसिन्धुजले शिव मयझमतः ।
करुणाज्ञ समर्प्प तरि त्वरितं। जन॥ ४ ॥
अतिनाइय ज नुर्मम पुण्यरुचे
दुरितौघभरै: परिपूर्णभुवः ।
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं || जन ॥ ५ ॥
भवकारक नारकहारक हे
भवतारक पातकदारक हे ।
हर चक्र किड्टूरकर्मचये । जन ॥ ६ ॥
तुषितश्िरमस्मि सुधां हित मे-
उच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर ।
अतिमोहवदेन विनष्टकृते । जन ॥ ७ ॥
ज्रणमामि नमामि नमामि भव
भवजन्मकृतिप्रणिघूदनकम ।
गुणहीनमनन्तमिते सारण । जन ॥ ८
अर्थ:-
पनी सेवाकी सामग्रीके रूपमें स्वीकार कीजिये ॥ ७७ ॥| है प्रभो ! मेरे एकमात्र
आप ही रक्षक हैं, आप ही मुझपर दया करनेवाले हैं; अतः पापोंको मेरी ओर
प्रवृत्त न कीजिये और प्रवृत्त हुए पा्षोंका निवारण कीजिये ॥ ८ ॥ हे देव ! है
दीनदुःखहारी भगवन् ! मेरा न करने योग्य कार्योका करना और करने योग्योंको
न करना आप क्षमा करें ॥ ९ ॥ श्रीमन् ! आपने स्वयं ही मेरी पाँचों इन्द्रियोंको
'नियन्तित करके मेरी रक्षाका भार अपने ऊपर ले लिया; अतः अब मैं निर्भर
हो गया ॥ १० ॥।
है जगदीज्ञा ! हे सुमतियोंके स्वामी ! हे विश्वेश ! हे सर्वव्यापिन् ! हे
परमेश्वर ! है प्रकृति आदिसे अतीत ! है परमपावन ' है पितः ! हे जीवोंका
ड निस्तार करनेवाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बलसे हीन संसारसन्तप्त
दासका उद्धार कीजिये॥ १॥ जो सर्वथा गुणहीन, -अत्यन्त दीन और
मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आपसे पराड्मुख है, हे जीवॉंका
निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त उस तामस-राजसवृत्तिवाले दासका आप
उद्धार कीजिये ॥ २ ॥ हे जीवोंका निस्तार करनेवाले ! इस भयानक मरुभूमिमें
'पड़कर नितान्त निश्चेष्ठ हुए मेंर इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीनका अपने
'करुणावारिधिकी चज्नल तस्ड्रोॉंका जल लाकर उद्धार कीजिये ॥ ३ ॥ अतः हे
दुःखितका उद्धार कीजिये ॥ ५॥ है जगत्कर्ता ! हे नास्कीय यन्त्रणाओंका
अपहरण करनेवाले ! हे संसारकां उद्धार करनेवाले ! हे पापराशिकों विदीर्ण
करनेवाले ! हे झाडटर ! इस दासकी कर्मरादिका हरण कीजिये और हे जीवॉंका
निस्तार करनेवाले ! इस संसारसन्तप्त जनका उद्धार कीजिये ॥ ६॥ हे
अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदास्चूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त
'तृषित हूँ, मुझे ज्ञारूप अमृतका पान कराइये। मैं अत्यन्त मोहके वशीभूत
होकर नष्ट हो रहा हूँ । हे जीवोंका उद्धार करनेवाले ! मुझ संसारसन्तप्तको पार
'लगाइये ॥ ७॥ संसारमें जन्मप्राप्तिकि कारणभूत कर्मोका नाश करनेवाले
आपको मैं बारंबार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ। हे जीवॉका उद्धार
करनेवाले ! आप निर्गुण और अनन्तकी झारणकों प्राप्त हुए इस संसारसन्तप्त
जनका उद्धार कीजिये ॥ ८ ॥