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Puja Vidhi: आरती क्यों और कैसे की जाती है? जानिए नियम
Arti Ki Vidhi (आरती की विधि)
देवी देवता की विधिवत पूजा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। पूजा के बाद आरती जरूर करना चाहिए। बिना आरती किए पूजा का पूर्ण फल नहीं मिलता है। ग्रंथों और पुराणों में आरती से जुड़े कई नियम बताए गए हैं कि किस दिशा में दीपक रखें और कैसे करें आरती। "आरती को 'आरात्रिक' अथवा 'नीराजन' के नाम से भी पुकारा गया है। घर और मंदिर में आरती करने की विधि अलग अलग होती है। शंख-ध्वनि और घंटे-घड़ियाल आरती के प्रधान अंग हैं। प्राचीन काल में प्रभु की उपासना कई विधियों द्वारा की जाती रही है। जैसे संध्या वंदन, प्रात: वंदन, प्रार्थना, हवन, ध्यान, भजन, कीर्तन आदि। आरती पूजा के अंत में की जाती है।आरती क्या है और कैसे करनी चाहिये ?
आरतीको 'आरात्रिक' अथवा 'आरार्तिक' और 'नीराजन' भी कहते
हैं। पूजाके अन्तमें आरती की जाती है। पूजनमें जो त्रुटि रह जाती है,
आरतीसे उसकी पूर्ति होती है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है--
मन्त्रहीन क्रियाहीन॑ यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्व सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे॥
“पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होनेपर भी नीराजन (आरती) कर
लेनेसे उसमें सारी पूर्णता आ जाती है।'
आरती करनेका ही नहीं, आरती देखनेका भी बड़ा पुण्य लिखा है।
हरिभक्तिविलासमें एक श्लोक है--
नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्थ चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्थादन्ते च परम॑ पदम्॥
“जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान्की आरती (सदा) देखता है,
वह सात जन्मोंतक ब्राह्मण होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होता है।!
विष्णुधर्मोत्तरमें आया है--
धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां चर प्रवन्दते।
कुलकोटिं समुदधृत्य याति विष्णो: पर॑ पदम्॥
“जो धूप और आरतीको देखता है और दोनों हाथोंसे आरती लेता है,
वह करोड़ पीढ़ियोंका उद्धार करता है और भगवानू विष्णुके परमपदको
प्राप्त होता है।'
आरतीमें पहले मूलमन्त्र (जिस देवताका जिस मन्त्रसे पूजन किया
गया हो, उस मन्त्र)-के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल,
नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्योंके तथा जय-जयकारके शब्दके साथ
शुभ पात्रमें घृतसे या कपूरसे विषम संख्याकी अनेक बत्तियाँ जलाकर
आरती करनी चाहिये—
ततश्च मूलमन्त्रेण दत्ता पुष्पाउजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै: ॥
प्रज्जलयेत् तदर्थ च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिक॑ शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्॥
साधारणत: पाँच बत्तियोंसे आरती की जाती है, इसे “पंचप्रदीप” भी
कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियोंसे आरती की जाती
है। कपूरसे भी आरती होती है। पद्मपुराणमें आया है--
कुडकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता: ॥
वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्॥
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शड्गखघण्टादिवाद्यकै:।
“कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दनकी सात या पाँच बत्तियाँ
बनाकर अथवा दियेकी (रूई और घीकी) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियोंसे
शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।'
आरतीके पाँच अंग होते हैं--
पञ्च नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं॑ धौतवाससा ॥
चूताश्वत्थादिपत्रैश्च॒ चतुर्थ. परिकीर्तितम्।
पज्चमं प्रणिपातेन साष्टाड्रेन यथाविधि॥
“प्रथम दीपमालाके द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंखसे, तीसरे धुले हुए
वस्त्रसे, चौथे आम और पीपल आदिके पत्तोंसे और प��ँचवें साष्टांग
दण्डवत्से आरती करे |!
“आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान्की प्रतिमाके चरणोंमें उसे
चार बार घुमाये, दो बार नाभिदेशमें, एक बार मुखमण्डलपर और सात
बार समस्त अंगॉंपर घुमाये'--
आदौ चतुः पादतले च विष्णो-
द्ााँ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु. चाड्रेष.. च. सप्तवारा-
नारात्रिक भकक््तजनस्तु. कुर्यात्॥
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