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10 Mahavidya (दस महाविद्या)
10 महाविद्या महाविद्याओं का प्रादुर्भाव - दस महाविद्याओं का सम्बन्ध परम्परातः सती, शिवा और पार्वती से है। ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुण्डा, विष्णुप्रिया आदि नामों से पूजित और अर्चित होती हैं । महाभागवत में कथा आती है कि दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया । सती ने शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति माँगी। शिव ने अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका, पर सती अपने निश्चय पर अटल रहीं। उन्होंने कहा 'मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहाँ या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिए यज्ञभाग प्राप्त करूंगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी। यह कहते हुए सती के नेत्र लाल हो गये । वे शिव को उग्र दृष्टि से देखने लीं। उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया । क्रोधाग्नि से दग्ध शरीर महाभयानक एवं उग्र दीखने लगा। देवी का यह स्वरूप साक्षात् महादेव के लिए भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय उनका श्रीविग्रह करोड़ों मध्याहून के सूर्यों के समान तेजःसम्पन्न था और वे बारंबार अट्टहास कर रही थीं। देवी के इस विकराल महाभयानक रूप को देखकर शिव भाग चले। भागते हुए रुद्र को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने अपनी अङ्गभूता दस देवियों को प्रकट किया । देवी की ये स्वरूपा शक्तियाँ ही दस महाविद्याएँ हैं, जिनके नाम हैं- काली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी, मातङ्गी, षोडशी और शिव ने सती से इन महाविद्याओं का जब परिचय पूछा, तब सती ने स्वयं इसकी व्याख्या करके उन्हें बताया- येयं ते पुरतः कृष्णा सा काली भीमलोचना । श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्व व्यवस्थिता ॥ सेयं तारा महाविद्या महाकालस्वरूपिणी । सव्येतरेयं या देवी विशीर्षातिभयप्रदा ॥ इयं देवी छिन्नमस्ता महाविद्या महामते । वामे तवेयं या देवी सा शम्भो भुवनेश्वरी ॥ पृष्ठतस्तव या देवी बगला शत्रुसूदनी । वह्निकोणे तवेयं या विधवारूपधारिणी ॥ सेयं धूमावती देवी महाविद्या महेश्वरी । नैर्ऋत्यां तव या देवी सेयं त्रिपुरसुन्दरी ॥ वायौ या ते महाविद्या सेयं मतङ्गकन्यका । ऐशान्यां षोडशी देवी महाविद्या महेश्वरी ॥ अहं तु भैरवी भीमा शम्भो मा त्वं भयं कुरु । एताः सर्वाः प्रकृष्टास्तु मूर्तयो बहुमूर्तिषु ॥ 'शम्भो ! आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा एवं भयंकर नेत्रों वाली देवी स्थित हैं वह 'काली' हैं। जो श्याम वर्ण वाली देवी स्वयं ऊर्ध्व भाग में स्थिते हैं, यह महाकालस्वरूपिणी महाविद्या 'तारा' हैं। महामते । बार्थी ओर जो यह अत्यन्त भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं, यह महाविद्या 'छिन्नमस्ता' हैं। शम्भो ! आपके वामभाग में जो यह देवी है, वह 'भुवनेश्वरी' हैं । आप के पृष्ठभाग में जो देवी है, वह शत्रुसंहारिणी 'बगला' हैं। आपके अग्निकोण में जो यह विधवा का रूप धारण करने वाली देवी है, वह महेश्वरी-महाविद्या 'धूमावती' हैं। आप के नैर्ऋत्य कोण में जो देवी है, वह 'त्रिपुरसुन्दरी' हैं। आप के वायव्यकोण में जो देवी है, वह मतङ्गकन्या महाविद्या मातङ्गी हैं। आपके ईशानकोण में महेश्वरी महाविद्या 'षोडशी' देवी हैं। शम्भो मैं भयंकर रूपवाली 'भैरवी' हूँ। आप भय मत करें। ये सभी मूर्तियाँ बहुत-सी मूर्तियों में प्रकृष्ट हैं । महाविद्याओं के क्रम-भेद तो प्राप्त होते हैं, परन्तु काली की प्राथमिकता सर्वत्र देखी जाती है। यों भी दार्शनिक दृष्टि से कालतत्त्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिए मूलतः महाकाली या काली अनेक रूपों में विद्याओं की आदि हैं और उनकी विद्यामय विभूतिया ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महाकाल की प्रियतमा काली अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के रूप में विख्यात हुई और उनके विकराल तथा सौम्य रूप ही विभिन्न नाम-रूपों के साथ दस महाविद्याओं के रूप में अनादिकाल से अर्चित हो रहे हैं। ये रूप अपनी उपासना, मन्त्र और दीक्षाओं के भेद से अनेक होते हुए भी मूलतः एक ही हैं। अधिकारि भेद से इनके अलग-अलग रूप और उपासना स्वरूप प्रचलित हैं। सृष्टि में शक्ति और संहार में शिव की प्रधानता दृष्ट है। जैसे अमा और पूर्णिमा दोनों दो भासती हैं, पर दोनों दोनों की तत्त्वतः एकात्मता और एक दूसरे की कारण-परिणामी हैं, वैसे ही दस महाविद्याओं के रौद्र और सौम्य रूपों को भी समझना चाहिए। काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती विद्यास्वरूप भगवती के प्रकट-कठोर किंतु अप्रकट करुण-रूप हैं तो भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातङ्गी और कमला विद्याओं के सौम्यरूप हैं । बृहन्नील तन्त्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्ण भेद से काली ही दो रूपों में अधिष्ठित हैं। कृष्णा का नाम 'दक्षिणा' है तो रक्तवर्णा का नाम सुन्दरी - विद्या हि द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा रक्ता-प्रभेदतः । कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरी मता ॥ इस प्रकार उपासना के भेद से दोनों में द्वैत है, परन्तु तत्त्वदृष्टि से अद्वैत है । देवीभागवत के अनुसार सदाशिव फलक हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर उस फलक या श्रीमञ्च के पाये हैं। इस श्रीमञ्च पर भुवनेश्वरी भुवनेश्वर के साथ विद्यमान हैं और सात करोड़ मन्त्र इनकी आराधना में लगे हुए हैं।
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