10-Mahavidya Collection

    10 Mahavidya (दस महाविद्या)

    10 महाविद्या महाविद्याओं का प्रादुर्भाव - दस महाविद्याओं का सम्बन्ध परम्परातः सती, शिवा और पार्वती से है। ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुण्डा, विष्णुप्रिया आदि नामों से पूजित और अर्चित होती हैं । महाभागवत में कथा आती है कि दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया । सती ने शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति माँगी। शिव ने अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका, पर सती अपने निश्चय पर अटल रहीं। उन्होंने कहा 'मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहाँ या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिए यज्ञभाग प्राप्त करूंगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी। यह कहते हुए सती के नेत्र लाल हो गये । वे शिव को उग्र दृष्टि से देखने लीं। उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया । क्रोधाग्नि से दग्ध शरीर महाभयानक एवं उग्र दीखने लगा। देवी का यह स्वरूप साक्षात् महादेव के लिए भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय उनका श्रीविग्रह करोड़ों मध्याहून के सूर्यों के समान तेजःसम्पन्न था और वे बारंबार अट्टहास कर रही थीं। देवी के इस विकराल महाभयानक रूप को देखकर शिव भाग चले। भागते हुए रुद्र को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने अपनी अङ्गभूता दस देवियों को प्रकट किया । देवी की ये स्वरूपा शक्तियाँ ही दस महाविद्याएँ हैं, जिनके नाम हैं- काली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी, मातङ्गी, षोडशी और शिव ने सती से इन महाविद्याओं का जब परिचय पूछा, तब सती ने स्वयं इसकी व्याख्या करके उन्हें बताया- येयं ते पुरतः कृष्णा सा काली भीमलोचना । श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्व व्यवस्थिता ॥ सेयं तारा महाविद्या महाकालस्वरूपिणी । सव्येतरेयं या देवी विशीर्षातिभयप्रदा ॥ इयं देवी छिन्नमस्ता महाविद्या महामते । वामे तवेयं या देवी सा शम्भो भुवनेश्वरी ॥ पृष्ठतस्तव या देवी बगला शत्रुसूदनी । वह्निकोणे तवेयं या विधवारूपधारिणी ॥ सेयं धूमावती देवी महाविद्या महेश्वरी । नैर्ऋत्यां तव या देवी सेयं त्रिपुरसुन्दरी ॥ वायौ या ते महाविद्या सेयं मतङ्गकन्यका । ऐशान्यां षोडशी देवी महाविद्या महेश्वरी ॥ अहं तु भैरवी भीमा शम्भो मा त्वं भयं कुरु । एताः सर्वाः प्रकृष्टास्तु मूर्तयो बहुमूर्तिषु ॥ 'शम्भो ! आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा एवं भयंकर नेत्रों वाली देवी स्थित हैं वह 'काली' हैं। जो श्याम वर्ण वाली देवी स्वयं ऊर्ध्व भाग में स्थिते हैं, यह महाकालस्वरूपिणी महाविद्या 'तारा' हैं। महामते । बार्थी ओर जो यह अत्यन्त भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं, यह महाविद्या 'छिन्नमस्ता' हैं। शम्भो ! आपके वामभाग में जो यह देवी है, वह 'भुवनेश्वरी' हैं । आप के पृष्ठभाग में जो देवी है, वह शत्रुसंहारिणी 'बगला' हैं। आपके अग्निकोण में जो यह विधवा का रूप धारण करने वाली देवी है, वह महेश्वरी-महाविद्या 'धूमावती' हैं। आप के नैर्ऋत्य कोण में जो देवी है, वह 'त्रिपुरसुन्दरी' हैं। आप के वायव्यकोण में जो देवी है, वह मतङ्गकन्या महाविद्या मातङ्गी हैं। आपके ईशानकोण में महेश्वरी महाविद्या 'षोडशी' देवी हैं। शम्भो मैं भयंकर रूपवाली 'भैरवी' हूँ। आप भय मत करें। ये सभी मूर्तियाँ बहुत-सी मूर्तियों में प्रकृष्ट हैं । महाविद्याओं के क्रम-भेद तो प्राप्त होते हैं, परन्तु काली की प्राथमिकता सर्वत्र देखी जाती है। यों भी दार्शनिक दृष्टि से कालतत्त्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिए मूलतः महाकाली या काली अनेक रूपों में विद्याओं की आदि हैं और उनकी विद्यामय विभूतिया ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महाकाल की प्रियतमा काली अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के रूप में विख्यात हुई और उनके विकराल तथा सौम्य रूप ही विभिन्न नाम-रूपों के साथ दस महाविद्याओं के रूप में अनादिकाल से अर्चित हो रहे हैं। ये रूप अपनी उपासना, मन्त्र और दीक्षाओं के भेद से अनेक होते हुए भी मूलतः एक ही हैं। अधिकारि भेद से इनके अलग-अलग रूप और उपासना स्वरूप प्रचलित हैं। सृष्टि में शक्ति और संहार में शिव की प्रधानता दृष्ट है। जैसे अमा और पूर्णिमा दोनों दो भासती हैं, पर दोनों दोनों की तत्त्वतः एकात्मता और एक दूसरे की कारण-परिणामी हैं, वैसे ही दस महाविद्याओं के रौद्र और सौम्य रूपों को भी समझना चाहिए। काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती विद्यास्वरूप भगवती के प्रकट-कठोर किंतु अप्रकट करुण-रूप हैं तो भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातङ्गी और कमला विद्याओं के सौम्यरूप हैं । बृहन्नील तन्त्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्ण भेद से काली ही दो रूपों में अधिष्ठित हैं। कृष्णा का नाम 'दक्षिणा' है तो रक्तवर्णा का नाम सुन्दरी - विद्या हि द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा रक्ता-प्रभेदतः । कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरी मता ॥ इस प्रकार उपासना के भेद से दोनों में द्वैत है, परन्तु तत्त्वदृष्टि से अद्वैत है । देवीभागवत के अनुसार सदाशिव फलक हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर उस फलक या श्रीमञ्च के पाये हैं। इस श्रीमञ्च पर भुवनेश्वरी भुवनेश्वर के साथ विद्यमान हैं और सात करोड़ मन्त्र इनकी आराधना में लगे हुए हैं।

    Kali (10 Mahavidya) (काली)

    काली दस महाविद्याओंमें काली प्रथम हैं। महाभागवतके अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हीके उग्र और सौम्य दो रूपोंमें अनेक रूप धारण करनेवाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान्शि शिवकी शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धिं प्रदान करनेमें समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टिसे भी कालतत्त्वकी प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओंकी आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियों ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपोंमें दस महाविद्याओंके नामसे विख्यात हुईं। बृहन्नीलतन्त्रमें कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेदसे काली ही दो रूपोंमें अधिष्ठित हैं। कृष्णाका नाम “दक्षिणा' और रक्तवर्णाका नाम 'सुन्दरी' है। कालिकापुराणमें कथा आती है कि एक बार हिमालयपर अवस्थित मतंग मुनिके आश्रममें जाकर देवताओंने महामायाकी स्तुति की। स्तुतिसे प्रसन्न होकर मतंग-वनिताके रूपमे भगवतीने देवताओंको दर्शन दिया और पूछा कि तुमलोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवीके शरीरसे काले पहाड़के समान वर्णवाली एक और दिव्य नारीका प्राकट्य हुआ। उस महातेजस्विनीने स्वयं ही देवताओंकी ओरसे उत्तर दिया कि “ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे काजलके समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम 'काली' पड़ा। दुर्गासप्तततीके अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भके अत्याचारसे व्यथित होकर देवताओंने हिमालयपर जाकर देवीसूक्तसे देवीकी स्तुति की, तब गौरीकी देहसे कौशिकीका प्राकट्य हुआ। कौशिकीके अलग होते ही अम्बा पार्वतीका स्वरूप कृष्ण हो गया, जो “काली ' नामसे विख्यात हुईं। कालीको नीलरूपा होनेके कारण तारा भी कहते हैं। नारद -पाञ्चरात्रके अनुसार एक बार कालीके मनमें आया कि वे पुनः गौरी हो जार्ये । यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। शिवजीने नारदजीसे उनका पता पूछा। नारदजीने उनसे सुमेरुके उत्तरमें देवीके प्रत्यक्ष उपस्थित होनेकी बात कही। शिवजीकी प्रेरणासे नारदजी वहाँ गये। उन्होंने देवीसे शिवजीके साथ विवाहका प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो गयीं और उनकी देहसे एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभेरवीका प्राकट्य हुआ। कालीकी उपासनामें सम्प्रदायगत भेद है। प्रायः दो रूपोंमें इनकी उपासनाका प्रचलन है। भव- बन्धन-मोचनमें कालीकी उपासना सर्वोत्कृष्ट कदी जाती है। शक्ति-साधनाके दो पीठोंमें कालीकी उपासना श्याम-पीठपर करनेयोग्य है। भक्तिमार्गमें तो किसी भी रूपमे उन महामायाकी उपासना फलप्रदा है, पर सिद्धिके लिये उनकी उपासना वीरभावसे की जाती है। साधनाके द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धिका नाश होकर साधकमें पूर्ण शिशुत्वका उदय हो जाता है, तब कालीका श्रीविग्रह साधकके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती कालीकी छवि अवर्णनीय होती है। कजनलके पहाड़के समान, दिग्वसना, मुक्तकुन्तला, शवपर आरूढ़, मुण्डमालाधारिणी भगवती कालीका प्रत्यक्ष दर्शन साधकको कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक-मार्गमें यद्यपि कालीकी उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागतिके द्वारा उनकी कृपा किसीको भी प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरुद्वारा उपदिष्ट किसी भी आधारपर भक्तिभावसे, मन्त्र-जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करनेसे भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं। उनकी प्रसन्नतासे साधकको सहज ही सम्पूर्ण अभीष्टोंकी प्राप्ति हो जाती है।

    Maa Tara (10 Mahavidya) (Maa Tara)

    तारा तारा वास्तव में काली को ही नीलरूपा होने से 'तारा' भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली तारने वाली हैं, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों से रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या 'उग्रतारा' हैं । तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रूप की चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ । शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नील कमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला है। वे उग्रतारा है, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं । तारा तन्त्र में कहा गया है- समुद्र मधने देवि कालकूट समुपस्थितम् ॥ समुद्र मन्थन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीने वाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं । शिव शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट है। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिङ्गल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भुत है। यह फैली हुई उम्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं। यही एकजटा है। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिङ्गोग्रैक जटा धारिणी उम्र तारा एकजटा के रूप में पूजित हुईं। वही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई। जैसा कि कहा है मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्यदे । प्रत्यालीढपदस्थिते शिवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ॥ शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रूपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति रूप हैं । नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती । तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी ॥ उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता । पिङ्गोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरूपिणी ॥ सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठा- राधिता तारा' भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधन की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्��्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया है, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली। यह कथा 'आचार-तन्त्र' में वसिष्ठ मुनि की आराधना के उपाख्यान में वर्णित है । तारा तारा वास्तव में काली को ही नीलरूपा होने से 'तारा' भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली तारने वाली हैं, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों से रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या 'उग्रतारा' हैं । तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रूप की चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ । शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नील कमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला है। वे उग्रतारा है, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं । तारा तन्त्र में कहा गया है- समुद्र मधने देवि कालकूट समुपस्थितम् ॥ समुद्र मन्थन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीने वाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं । शिव शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट है। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिङ्गल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भुत है। यह फैली हुई उम्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं। यही एकजटा है। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिङ्गोग्रैक जटा धारिणी उम्र तारा एकजटा के रूप में पूजित हुईं। वही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई। जैसा कि कहा है मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्यदे । प्रत्यालीढपदस्थिते शिवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ॥ शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रूपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति रूप हैं । नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती । तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी ॥ उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता । पिङ्गोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरूपिणी ॥ सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठा- राधिता तारा' भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधन की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया है, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली। यह कथा 'आचार-तन्त्र' में वसिष्ठ मुनि की आराधना के उपाख्यान में वर्णित है ।

    Chhinnamasta(10 Mahavidya) (छिन्नमस्ता)

    छिन्नमस्ता छिन्नमस्ता एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरियों जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। वहाँ स्नान करने पर क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्णवर्ण की हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियों ने उनसे कुछ भोजन करने के लिए माँगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने के लिए कहा। कुछ समय प्रतीक्षा करने के बाद पुनः याचना करने पर देवी ने पुनः प्रतीक्षा करने के लिए कहा। बाद में उन देवियों ने विनम्न स्वर में कहा कि 'माँ तो शिशुओं को तुरन्त भूख लगने पर भोजन प्रदान करती है।' इस प्रकार उनके मधुर वचन सुनकर कृपामयी ने अपने कराग्र से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और कबन्ध से तीन धाराएँ निकलीं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं, जिसे पीती हुई वे दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर प्रवाहित थी उसे वे स्वयं पान करने लगीं। तभी से वे 'छिन्नमस्ता' कही जाने लगीं । छिन्नमस्ता भगवती छिन्नशीर्ष (कटा सिर) कर्तरी (कृपाण) एवं खप्पर लिए हुए स्वयं दिगम्बर रहती हैं। कबन्ध-शोणित की धारा पीती रहती हैं। कटे हुए सिर में नागबद्धमणि विराज रही है, सफेद खुले केशों वाली, नील-नयना और हृदय पर उत्पल (कमल) की माला धारण किए हुए ये देवी सुरतासक्त मनोभव के ऊपर विराजमान रहती हैं।

    Bhuvaneshwari(10 Mahavidya) (भुवनेश्वरी)

    भुवनेश्वरी भुवनेश्वरी देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हल्लेखा (हीं) मन्त्र की स्वरूपा शक्ति और और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा आदि शक्ति भगवती भुवनेश्वरी शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी और निखिल प्रपञ्चों की आदि-कारण, सब की शक्ति और सब को नाना प्रकार से पोषण प्रदान करने वाली हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अङ्गकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय एवं समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है। शास्त्रों में इनकी अपार महिमा बतायी गयी है। देवी का स्वरूप 'ह्रीं' इस बीजमन्त्र में सर्वदा विद्यमान है, जिसे देवी भागवत में देवी का 'प्रणव' कहा गया है । विश्व का अधिष्ठान त्र्यम्बक सदाशिव हैं, उनकी शक्ति 'भुवनेश्वरी' है। सोमात्मक अमृत से विश्व का आप्यायन (पोषण) हुआ करता है। इसीलिए भगवती ने अपने किरीट में चन्द्रमा धारण कर रखा है। ये ही भगवती त्रिभुवन का भरण-पोषण करती रहती है, जिसका संकेत उनके हाथ की मुद्रा करती है। ये उदीयमान सूर्यवत् कान्तिमती, त्रिनेत्रा एवं उन्नत कुचयुगला देवी हैं। कृपा दृष्टि की सूचना उनके मृदुहास्य (स्मेर) से मिलती है। शासनशक्ति के सूचक अंकुश, पाश आदि को भी वे धारण करती हैं ।

    Shri Bagalamukhi (10 Mahavidya) (श्री बगलामुखी)

    श्रीबगला श्रीबगला सत्ययुग में सम्पूर्ण जगत् को नष्ट करने वाला तूफान आया । प्राणियों के जीवन पर संकट आया देखकर महा विष्णु चिन्तित हो गये और वे सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर भगवती को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। श्रीविद्या ने उस सरोवर से निकलकर 'पीताम्बरा' के रूप में उन्हें दर्शन दिया और बढ़ते हुए जल-वेग तथा विध्वंसकारी उत्पात का स्तम्भन किया। वास्तव में दुष्ट वही है, जो जगत् के या धर्म के छन्द का अतिक्रमण करता है। बगला उसका स्तम्भन किंवा नियन्त्रण करने काली महाशक्ति हैं। वे परमेश्वर की सहायिका हैं और वाणी, विद्या तथा गति को अनुशासित करती हैं। वें सर्वसिद्धि देने में समर्थ और उपासकों की वाष्ठाकल्पतरु हैं । श्रीबगला को 'त्रिशक्ति' भी कहा जाता है सत्ये काली च श्रीविद्या कमला भुवनेश्वरी । सिद्धविद्या महेशानि त्रिशक्तिर्बगला शिवे ॥ श्रीबगला पीताम्बरा को तामसी मानना उचित नहीं, क्योंकि उनके आभिचारिक कृत्यों में रक्षा की ही प्रधानता होती है और यह कार्य इसी शक्ति द्वारा होता है । शुक्ल-आयुर्वेद की माध्यदिन संहिता के पांचवें अध्याय की २३, २४, २५वीं कण्डिकाओं में अभिचार-कर्मकी निवृत्ति में श्रीबगलामुखी को ही सर्वोत्तम बताया गया है, । अर्थात् शत्रु के विनाश के लिए जो कृत्याविशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उन्हें नष्ट करने वाली वैष्णवी महाशक्ति श्रीबगलामुखी ही हैं। सिद्धेश्वर-तन्त्र के बगलापटल में मन्त्र जपादि के विषय में विशेष विधान बताए गए हैं, जो इस प्रकार हैं- पीताम्बरधरो भूत्वा पूर्वाशाभिमुखः स्थितः । लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं हरिद्राग्रन्थिमालया ॥ ब्रह्मचर्यरतो नित्यं प्रयतो ध्यानतत्परः । प्रियंगुकुसुमेनापि पीतपुष्पैश्च होमयेत् ॥ बगला के जप में पीले रंग का विशेष महत्त्व है। जपकर्ता को पीला वस्त्र पहन कर हत्वी की गांठ की माला से जप करना चाहिए। देवी की पूजा और होम में पीले पुष्पों, प्रियंगु, कनेर, गेंदा आदि के पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए। शुचिर्भूत हो पीले कपड़े पहन कर साथक पूर्वाभिमुख बैठ कर ही जप करे। उसे ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्यतः करना चाहिए और सदैव पवित्र रहकर भगवती का ध्यान करना चाहिए । श्रीबगला के साधक श्रीप्रजापति ने यह उपासना वैदिक रीति से की और वे सृष्टि की संरचना में सफल हुए। श्रीप्रजापति ने इस महाविद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को किया। सनत्कुमार ने श्रीनारद को तथा श्रीनारद ने सांख्ययन नामक परमहंस को बताया तथा सांख्यायन ने ३६ पटलों में उपनिबद्ध बगला-तन्त्र की रचना की। दूसरे उपासक भगवान् श्रीविष्णु हुए, जिनका वर्णन 'स्वतन्त्र तन्त्र' में मिलता है। तीसरे उपासक श्रीपरशुराम जी हुए तथा श्रीपरशुराम जी ने पह विद्या आचार्य द्रोण को बतायी । महर्षि व्यवन ने भी इसी विद्या के प्रभाव से इन्द्र के वज को स्तम्भित कर दिया था। श्रीमद्‌ङ्गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने वाली रेवा नदी का स्तम्भन श्री शंकराचार्य ने इसी विद्या के बल से किया ना। महामुनि श्रीनिम्बार्क ने एक परिव्राजक को नीमवृक्ष पर सूर्य का दर्शन इसी विद्या के प्रभाव से कराया था। अतः साधकों को चाहिए कि वे श्रीबगला की विधिपूर्वक उपासना करें ।

    Dhumavati(10 Mahavidya) (धूमावती)

    धूमावती धूमावती एक बार पार्वती ने महादेव जी से अपनी क्षुधा को निवारण करने का निवेदन किया। महादेव जी चुप रह गये। कई बार निवेदन करने पर भी जब देवाधिदेव ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेव जी को ही निगल लिया। उनके शरीर से धूमराशि निकली। तब शिवजी ने शिवा से कहा कि 'आपकी मनोहर मूर्ति बगला अब 'धूमावती' या 'धूम्रा' कही जायगी।' यह धूमावती वृद्धास्वरूपा, डरावनी और भूख-प्यास से व्याकुल स्त्री-विग्रहवत् अत्यन्त शक्तिमयी हैं। अभिचार कर्मों में इनकी उपासना का विधान है। विश्व की अमाङ्गल्यपूर्ण अवस्था की अधिष्ठात्री शक्ति 'धूमावती' हैं। ये विधवा समझी जाती हैं, अतएव इनके साथ पुरुष का वर्णन नहीं है। यहाँ पुरुष अव्यक्त है। चैतन्य, बोध आदि अत्यन्त तिरोहित होते हैं। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये भगवती विविर्णा, चञ्चला, दुष्टा एवं दीर्घ तथा गलित अम्बर (वसन) धारण करने वाली, खुले केशों वाली, विरल दन्त बाली, विधवा रूप में रहने वाली, काक-ध्वज वाले रथ पर आरूढ, लम्बे-लम्बे पयोधरों वाली, हाथ में शूर्प (सूप) लिए हुए, अत्यन्त रूक्ष नेत्रों वाली, कम्पित-हस्ता, लम्बी नासिका वाली, कुटिल-स्वभावा, कुटिल नेत्रों से युक्त, क्षुधा, पिपासा से पीड़ित, सदैव भयप्रदा और कलह की निवास-भूमि हैं । पुत्र-लाभ, धन-रक्षा और शत्रु-विजय के लिए धूमावती की साधना उपासना का विधान है।

    Tripurasundari(10 Mahavidya) (त्रिपुरसुन्दरी)

    त्रिपुरसुन्दरी त्रिपुरसुन्दरी कालिकापुराण के अनुसार शिवजी की भार्या त्रिपुरा श्रीचक्र की परम नापिका है। परम शिव इन्हीं के सहयोग से सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्कूल से स्कूल रूपों में भासते हैं। त्रिपुरभैरवी महात्रिपुरसुन्दरी की रथ वाहिनी हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है। वास्तव में काली, तारा, छिन्नमस्ता, वगलामुखी, मातङ्गी, धूमावती ये विद्याएं रूप और विग्रह में कठोर तथा भुवनेश्वरी, षोडशी, कमला और भैरवी अपेक्षाकृत माधुर्यमयी रूपों की अधिष्ठातृ विद्याएँ हैं। करुणा और भक्तानुग्रहाकांक्षा तो सब में समान हैं। दुष्टों के वलन-हेतु विराजित होकर नाना प्रकार की सिद्धिया प्रदान करती हैं।

    Matangi(10 Mahavidya) मातङ्गी

    मातङ्गी मातङ्गी मतङ्ग मुनि की कन्या मातङ्गी कही गयी हैं। वस्तुतः वाणी-विलास की सिद्धि प्रदान करने में इनका कोई विकल्प नहीं। चाण्डाल रूप को प्राप्त शिव की प्रिया होने के कारण इन्हें 'वाण्डाली' या 'उच्छिष्ट चाण्डाली' भी कहा गया है । गृहस्थ-जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ सिद्धि और वाग्विलास में पारङ्गत होने के लिए मातङ्गी-साधना श्रेयस्करी है।

    Shodashi(10 Mahavidya) (षोडशी)

    षोडशी षोडशी प्रशान्त हिरण्यगर्भ या सूर्य शिव हैं और उन्हीं की शक्ति है षोडशी, षोडशी का विग्रह या मूर्ति पञ्चवक्त्र अर्थात् पाँच मुखों वाली है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें 'पञ्चवक्त्रा' कहा जाता है। ये पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान शिव के इन पाच रूपों के प्रतीक हैं। पूर्वोक्त पाच दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम, नील और पीत होने से मुख भी इन्हीं रंगों के हैं। देवी के दस हाथ हैं, जिनमें वे अभय, टंक, शूल, बज, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि लिए हैं। ये बोधरूपा हैं। इनमें षोडश कलाएँ पूर्णरूपेण विकसित हैं, अतएव ये 'षोडशी' कहलाती हैं। षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध विद्यादेवी हैं। १६ अक्षरों के मन्त्र वाली उन देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भाति हैं। उनके चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र हैं। शान्त मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर विराजिता षोडशी देवी के चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा-सर्वदा उद्यत उन भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो उनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। श्रीविद्या संस्कृत वाङ्मय में शक्ति उपासना की विविध विद्याएँ प्रचुर रूप से उपलब्ध हैं। इनमें सर्वश्रेष्ठ स्थान है श्रीविद्या साधना का। भारत वर्ष की यह परम रहस्यमयी सर्वोत्कृष्ट साधनाप्रणाली मानी जाती है। ज्ञान, भक्ति, पोग, कर्म आदि समस्त साधनप्रणालियों का समुच्चय ही श्रीविया है। ईश्वर के निःश्वासभूत होने से वेदों की प्रामाणिकता है। अतः सूत्र रूप से वेदों में एवं विशद रूप से तन्त्र शास्त्रों में श्री विद्या साधना के क्रम का विवेचन है । आचार्य शंकर भगवत्पाद 'सौन्दर्य लहरी' में इसे इन शब्दों में प्रकट करते हैं- चतुःषष्ट्या तन्नैः सकलमतिसंधाय भुवनं स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रैः पशुपतिः । पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्यैकघटना- स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ॥ 'पशुपति भगवान् शंकर वाममार्ग के चौसठ तन्त्रों के द्वारा साधकों की जो-जो स्वाभिमत सिद्धि है, उन सब का वर्णन कर शान्त हो गए। फिर भी भगवती । आपके निर्बन्ध अर्थात् आग्रह पर उन्होंने सकल पुरुषार्थों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्रदान करने वाले इन श्रीविद्या-साधना-तन्त्र का प्राकट्य किया।' श्रीमत्शंकराचार्य 'सौन्दर्य-लहरी' में मन्त्र, यन्त्र आदि साधनाप्रणाली का वर्णन करते हुए इस श्रीविद्या-साधना की फलश्रुति इस प्रकार कहते हैं- सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा । चिरं जीवन्नेव क्षपितपरशुपाशव्यतिकरः परानन्दाभिख्यं रसयति रसं त्वद्भजनवान् ॥ 'देवि ललिते । आपका भजन करने वाला साधक विद्याओं के ज्ञान से विद्यापतित्त्व एवं धनाढ्यता से लक्ष्मीपतित्त्व को प्राप्त कर ब्रह्मा एवं विष्णु के लिए 'सपन्त' अर्थात् अपरपति प्रयुक्त असूया का जनक हो जाता है। वह अपने सौन्दर्यशाली शरीर से रतिपति काम को भी तिरस्कृत करता है एवं चिरञ्जीवी होकर पशु-पाशों से मुक्त जीवन्मुक्त -अवस्था को प्राप्त हो कर 'परानन्द' नामक रस का पान करता है।' आचार्य शंकर भगवत्पाद ने सौन्दर्य-लहरी में स्तुति व्याज से श्रीविद्या-साधना का सार सर्वस्व बता दिया है और श्रीविद्या के पञ्चदशाक्षरी मन्त्र के एक-एक अक्षर पर बीस नामों वाले ब्रह्माण्डपुराणोक्त 'ललिता-त्रिशती' स्तोत्र पर भाष्य लिखकर अपने चारों मठों में श्रीयन्त्र द्वारा श्रीविद्या साधना का परिष्कृत क्रम प्रारम्भ कर दिया है। जन्म-जन्मान्तरीय पुण्य पुष्ञ्ज के उदय होने से यदि किसी को गुरुकृपा से इस साधना का क्रम प्राप्त हो जाय और वह सम्प्रदाय पुरस्सर साधना करे तो कृतकृत्य हो जाता है, उसके समस्त मनोरथपूर्ण हो जाते हैं और वह जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

    Tripurabhairavi(10 Mahavidya) त्रिपुरभैरवी

    त्रिपुरभैरवी त्रिपुरभैरवी - क्षीयमान विश्व का अधिष्ठान दक्षिण मूर्ति कालभैरव हैं । उनकी शक्ति ही 'त्रिपुरभैरवी' है। उनके ध्यान में बताया गया है कि वे उदित हो रहे सहस्रों सूर्यो के समान अरुण कान्ति वाली और क्षौमाम्बरधारिणी होती हुई मुण्डमाला पहने हैं। रक्त से उनके पयोधर लिप्त हैं। वे तीन नेत्र एवं हिमांशु-मुकुट धारण किए, हाथ में जपवटी, विद्या, वर एवं अभयमुद्रा धारण किए हुए हैं । ये भगवती मन्द मन्द हास्य करती रहती हैं। इन्द्रियों पर विजय और सर्वतः उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु त्रिपुर-भैरवी की उपासना का विधान शास्त्रों में कहा गया है। त्रिपुरभैरवी की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं - वारमेकं पठन्मत्र्यो मुच्यते सर्वसंकटात् । किमन्यद् बहुना देवि सर्वाभीष्टफलं लभेत् ॥

    Mundamala Tantra Stotra (मुण्डमालातन्त्रोक्त महाविद्यास्तोत्र)

    मुण्डमालातन्त्रोक्त महाविद्यास्तोत्र (Mundamala Tantra Stotra) ॐ नमस्ते चण्डिके चण्डि चण्डमुण्डविनाशिनि । नमस्ते कालिके कालमहाभयविनाशिनि॥ शिवे रश्च जगद्धात्रि प्रसीद हरवत्छभे। प्रणमामि जगद्धात्रीं जगत्पालनकारिणीम् ॥ जगत् क्षोभकरीं विद्यां जगत्सृष्टिविधायिनीम् । करालां विकटां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् ॥ हरा्यितां हराराध्यां नमामि हरवक्छभाम् । गौरीं गुरूप्रियां गौरवर्णालङ्कारभूषिताम् ॥ हरिप्रियं महामायां नमामि ब्रह्मपूजिताम् । सिद्धां सिद्धेश्वरीं सिद्धविद्याधरगणर्युताम् ॥ मन्त्रसिद्धिप्रदां योनिसिद्धिदां लिङ्कशोभिताम् । प्रणमामि महामायां दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम् ॥ उग्रामुग्रमयीमुग्रतारासुग्रगणर्युताम् . नीलां नीलघनश्यामां नमामि नीलसुन्दरीम् ॥ श्यामाड़ीं श्यामघटितां श्यामवर्णविभूषिताम् । प्रणमामि जगद्धात्रीं गौरीं सर्वार्थसाधिनीम् ॥ विश्वेश्वीं महाघोरां विकटां घोरनादिनीम् । आआद्यामाद्यगुरोराद्यामाद्यनाथप्रपूलिताम् ॥ श्री दुर्गां धनदामन्नपूर्णां पद्मां सुरेश्वरीम् । प्रणमामि जगद्धात्रीं चन्द्ररोररवह्छभाम् ॥ त्रिपुरां सुन्दरीं बालामबलागणभूषिताम् । शिवदूतीं शिवाराध्यां शिवध्येयां सनातनीम् ॥ सुन्दरीं तारिणीं सर्वशिवागणविभूषिताम् । नारायणीं विष्णुपूज्यां ब्रह्यविष्णुहरप्रियाम् ॥ सर्वसिद्धिप्रदां नित्यामनित्यां गुणवजिताम् । सगुणां निर्गुणां ध्येयामर्चितां सर्वसिदचिदाम् ॥ विद्यां सिद्धिप्रदां विद्यां महाविद्यां महेश्वरीम् । महेशभक्तां माहेशीं महाकालप्रपूजिताम् ॥ प्रणमामि जगद्धात्रीं शुम्भासुरविमर्दिनीम् । रक्तप्रियां रक्तवर्णां रक्तबीजविमर्दिनीम् ॥ भैरवीं भुवनां देवीं लोलजिह्लां सुरेश्वरीम् । चतुर्भुजां दशभुजामष्टादशभुजां शुभाम् ॥ त्रिपुरेशी विश्वनाथप्रियां विश्वेश्वरीं शिवाम् । अद्डहासामट्डहास प्रियां धूप्रविनाशिनीम् ॥ कमलां छिलन्नभालाह्न मातंगीं सुरसुन्दरीम् । षोडशीं विजयां भीमां धूमाञ् वगलापमुखीम् ॥ सर्वसिद्धिप्रदां सर्वविद्यामन्त्रविशोधिनीम् । प्रणमामि जगत्तारां साराद्छ मन्त्रसिन्दधये॥ इत्येव वरारोहे, स्तोत्रं सिद्धिकरं परम् । पठित्वा मोश्चमाप्नोति सत्यं वै गिरिनन्दिनि ॥