Chhinnamasta(10 Mahavidya) (छिन्नमस्ता)

छिन्नमस्ता छिन्नमस्ता एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरियों जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। वहाँ स्नान करने पर क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्णवर्ण की हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियों ने उनसे कुछ भोजन करने के लिए माँगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने के लिए कहा। कुछ समय प्रतीक्षा करने के बाद पुनः याचना करने पर देवी ने पुनः प्रतीक्षा करने के लिए कहा। बाद में उन देवियों ने विनम्न स्वर में कहा कि 'माँ तो शिशुओं को तुरन्त भूख लगने पर भोजन प्रदान करती है।' इस प्रकार उनके मधुर वचन सुनकर कृपामयी ने अपने कराग्र से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और कबन्ध से तीन धाराएँ निकलीं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं, जिसे पीती हुई वे दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर प्रवाहित थी उसे वे स्वयं पान करने लगीं। तभी से वे 'छिन्नमस्ता' कही जाने लगीं । छिन्नमस्ता भगवती छिन्नशीर्ष (कटा सिर) कर्तरी (कृपाण) एवं खप्पर लिए हुए स्वयं दिगम्बर रहती हैं। कबन्ध-शोणित की धारा पीती रहती हैं। कटे हुए सिर में नागबद्धमणि विराज रही है, सफेद खुले केशों वाली, नील-नयना और हृदय पर उत्पल (कमल) की माला धारण किए हुए ये देवी सुरतासक्त मनोभव के ऊपर विराजमान रहती हैं।