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Shodashi(10 Mahavidya) (षोडशी)
षोडशी षोडशी प्रशान्त हिरण्यगर्भ या सूर्य शिव हैं और उन्हीं की शक्ति है षोडशी, षोडशी का विग्रह या मूर्ति पञ्चवक्त्र अर्थात् पाँच मुखों वाली है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें 'पञ्चवक्त्रा' कहा जाता है। ये पाँचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान शिव के इन पाच रूपों के प्रतीक हैं। पूर्वोक्त पाच दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम, नील और पीत होने से मुख भी इन्हीं रंगों के हैं। देवी के दस हाथ हैं, जिनमें वे अभय, टंक, शूल, बज, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि लिए हैं। ये बोधरूपा हैं। इनमें षोडश कलाएँ पूर्णरूपेण विकसित हैं, अतएव ये 'षोडशी' कहलाती हैं। षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रह वाली सिद्ध विद्यादेवी हैं। १६ अक्षरों के मन्त्र वाली उन देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भाति हैं। उनके चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र हैं। शान्त मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर विराजिता षोडशी देवी के चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा-सर्वदा उद्यत उन भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो उनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। श्रीविद्या संस्कृत वाङ्मय में शक्ति उपासना की विविध विद्याएँ प्रचुर रूप से उपलब्ध हैं। इनमें सर्वश्रेष्ठ स्थान है श्रीविद्या साधना का। भारत वर्ष की यह परम रहस्यमयी सर्वोत्कृष्ट साधनाप्रणाली मानी जाती है। ज्ञान, भक्ति, पोग, कर्म आदि समस्त साधनप्रणालियों का समुच्चय ही श्रीविया है। ईश्वर के निःश्वासभूत होने से वेदों की प्रामाणिकता है। अतः सूत्र रूप से वेदों में एवं विशद रूप से तन्त्र शास्त्रों में श्री विद्या साधना के क्रम का विवेचन है । आचार्य शंकर भगवत्पाद 'सौन्दर्य लहरी' में इसे इन शब्दों में प्रकट करते हैं- चतुःषष्ट्या तन्नैः सकलमतिसंधाय भुवनं स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रैः पशुपतिः । पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्यैकघटना- स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ॥ 'पशुपति भगवान् शंकर वाममार्ग के चौसठ तन्त्रों के द्वारा साधकों की जो-जो स्वाभिमत सिद्धि है, उन सब का वर्णन कर शान्त हो गए। फिर भी भगवती । आपके निर्बन्ध अर्थात् आग्रह पर उन्होंने सकल पुरुषार्थों अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्रदान करने वाले इन श्रीविद्या-साधना-तन्त्र का प्राकट्य किया।' श्रीमत्शंकराचार्य 'सौन्दर्य-लहरी' में मन्त्र, यन्त्र आदि साधनाप्रणाली का वर्णन करते हुए इस श्रीविद्या-साधना की फलश्रुति इस प्रकार कहते हैं- सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा । चिरं जीवन्नेव क्षपितपरशुपाशव्यतिकरः परानन्दाभिख्यं रसयति रसं त्वद्भजनवान् ॥ 'देवि ललिते । आपका भजन करने वाला साधक विद्याओं के ज्ञान से विद्यापतित्त्व एवं धनाढ्यता से लक्ष्मीपतित्त्व को प्राप्त कर ब्रह्मा एवं विष्णु के लिए 'सपन्त' अर्थात् अपरपति प्रयुक्त असूया का जनक हो जाता है। वह अपने सौन्दर्यशाली शरीर से रतिपति काम को भी तिरस्कृत करता है एवं चिरञ्जीवी होकर पशु-पाशों से मुक्त जीवन्मुक्त -अवस्था को प्राप्त हो कर 'परानन्द' नामक रस का पान करता है।' आचार्य शंकर भगवत्पाद ने सौन्दर्य-लहरी में स्तुति व्याज से श्रीविद्या-साधना का सार सर्वस्व बता दिया है और श्रीविद्या के पञ्चदशाक्षरी मन्त्र के एक-एक अक्षर पर बीस नामों वाले ब्रह्माण्डपुराणोक्त 'ललिता-त्रिशती' स्तोत्र पर भाष्य लिखकर अपने चारों मठों में श्रीयन्त्र द्वारा श्रीविद्या साधना का परिष्कृत क्रम प्रारम्भ कर दिया है। जन्म-जन्मान्तरीय पुण्य पुष्ञ्ज के उदय होने से यदि किसी को गुरुकृपा से इस साधना का क्रम प्राप्त हो जाय और वह सम्प्रदाय पुरस्सर साधना करे तो कृतकृत्य हो जाता है, उसके समस्त मनोरथपूर्ण हो जाते हैं और वह जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।
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