Brahmanaspati Sukt (ह्मणस्पतिसूक्त)
ब्रह्मणस्पतिसूक्त(Brahmanaspati Sukt) त्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उप प्र यन्तु मरुत सुदानव इन्द्र प्राशुर्भवा सचा॥ ९॥ त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य॑ उपब्रूते धने हिते। सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥ २॥ प्रतु ब्रह्मणस्यतिः प्र देव्येतु सूनृता। अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः॥ ३॥ यो वाघते ददाति सूनरं वसु स॒ धत्ते अक्षिति श्रवः। तस्मा इलां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥ ४॥ प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्र वदत्युक्थ्यम्। यस्मिनिन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे॥ ५॥ तमिद् वोचेमा विदथेषु शंभुवं मन्त्र देवा अनेहसम्। इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद् वामा वो अश्नवत् ॥ ६॥ को देवयन्तमषश्नवज् जनं को वृक्तलर्हिषम्। प्रप्र दाश्वान् पस्त्याभिरस्थिताऽन्तर्वांवत् क्षयं दधे॥ ७॥ उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित् सुक्षितिं दधे। नास्य वर्ता न तरुता महाधने नाभं अस्ति वजिणः॥ ८॥ [वैदिक देवता विघ्नेश गणपति 'ब्रह्मणस्पति' भी कहलाते हैं। 'ब्रह्मणस्पति' के रूपमें वे ही सर्वज्ञाननिधि तथा समस्त वाङ्मयके अधिष्ठाता हैं। आचार्य सायणसे भी प्राचीन वेदभाष्यकार श्रीस्कन्दस्वामी (वि०सं० ६८७) अपने ऋग्वेदभाष्यके प्रारम्भमें लिखते हैं- विघ्नेश विधिमार्तण्डचन्द्रेन्द्रोपेन्द्रवन्दित। नमो गणपते तुभ्यं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पते ।। अर्थात् ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र तथा विष्णुके द्वारा वन्दित हे विघ्नेश गणपति ! मन्त्रोंके स्वामी ब्रह्मणस्पति ! आपको नमस्कार है। मुद्गलपुराण (८।४९।१७) में भी स्पष्ट लिखा है-सिद्धिबुद्धिपतिं वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम्। माङ्गल्येशं सर्वपूज्यं विघ्नानां नायकं परम् ॥ अर्थात् समस्त मंगलोंके स्वामी, सभीके परम पूज्य, सकल विघ्नोंके परम नायक, 'ब्रह्मणस्पति' नामसे प्रसिद्ध सिद्धि-बुद्धिके पति (गणपति) की मैं वन्दना करता हूँ। ब्रह्मणस्पति के अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं। ऋग्वेदके प्रथम मण्डलका ४० वाँ सूक्त 'ब्रह्मणस्पतिसूक्त' कहलाता है, इसके ऋषि 'कण्व घोर' हैं। गणपतिके इस सूक्तको यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-]
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