Durga-Saptashati Collection

    Durga Saptashati (दुर्गासप्तशती) 1 chapter (पहला अध्याय)

    ॥ श्रीदुगायै नम: ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती पहला अध्याय मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु- कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना विनियोग ॐ प्रथम चरित्रके ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शत्त्कि, रक्तदन्तिका बीज, अग्नि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्रीमहाकाली देवताकी प्रसन्नताके लिये प्रथम चरित्रके जपमें विनियोग किया जाता है। ध्यान भगवान् विष्णुके सो जानेपर मधु और कैटभको मारनेके लिये कमलजन्मा ब्रह्माजीनी जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवीका मैं सेवन करता (करती) हूँ। वे अपने दस हाथोंमें खड़्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शट्ढ धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अङ्गोंमें दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके शरीरकी कान्ति नीलमणिके समान है तथा वे दस मुख और दस पेरोंसे युत्त्क हैं। ॐ चण्डीदेवीको नमस्कार है। मार्कण्डेयजी बोले-- ॥ १ ॥ सूर्यके पुत्र सावर्णि जो आठवें नु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्तिकी कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो॥ २॥ सूर्यकुमार महामभाग सावर्णि भगवती महामायाके अनुग्रहसे जिस प्रकार मन्वन्तरके स्वामी हुए, वही प्रसङ्ग सुनाता हूँ॥ ३ ॥ पूर्वकालकी बात है, स्वारोचिष मन्वन्तरमें सुरथ नामके एक राजा थे, जो चेत्रवंशमें उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डलपर अधिकार था॥४॥ वे प्रजाका अपने औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय कोलाविध्वंसी नामके क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये॥ ५॥ राजा सुरथकी दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओंके साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्यामें कम थे तो भी राजा सुरथ युद्धमें उनसे परास्त हो गये॥६॥ तब वे युद्धभूमिसि अपने नगरको लौट आये और केवल अपने देशके राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वीसे अब उनका अधिकार जाता रहा), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओंने उस समय महाभाग राजा सुरथपर आक्रमण कर दिया॥ ७॥ राजाका बल क्षीण हो चला था; इसलिये उनके दुष्ट, बलवानू एवं दुरात्मा मन्त्रियोंने वहाँ उनकी राजधानीमें भी राजकीय सेना और खजानेको हथिया लिया॥८॥ सुरथका प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलनेके बहाने घोड़ेपर सवार हो वहाँसे अकेले ही एक घने जंगलमें चले गये॥ ९॥ वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव [अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर] परम शान्तभावसे रहते थे। मुनिके बहुत-से शिष्य उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे॥१०॥ वहाँ जानेपर मुनिने उनका सत्कार किया और वे उन मुनिश्रेष्ठके आश्रमपर इधर-उधर विचरते हुए कुछ कालतक रहे ॥ ११॥ फिर ममतासे आकृष्टचित्त होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे--'पूर्वकालमें मेरे पूर्वजोंने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भ्रृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मदकी वर्षा करनेवाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओंके अधीन होकर न जाने किन भोगोंको भोगता होगा ? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पानेसे सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओंका अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगोंके द्वारा सदा खर्च होते रहनेके कारण अत्यन्त कष्टसे जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा।' ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधाके आश्रमके निकट एक वैश्यको देखा और उससे पूछा--' भाई तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आनेका क् या कारण है? तुम क् यों शोकग्रस्त और अनमने-से दिखायी देते हो ?' राजा सुरथका यह प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्यने विनीत भावसे उन्हें प्रणाम करके कहा-- ॥ १२--१९ ॥ वैश्य बोला-- ॥ २०॥ राजन् ! मैं धनियोंके कुलमें उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है॥ २१॥ मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रोंने धनके लोभसे मुझे घरसे बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रोंसे वश्चित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओंने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर मैं वनमें चला आया हूँ। यहाँ रहकर मैं इस बातको नहीं जानता कि मेरे पुत्रोंकी, सत्रीकी और स्वजनोंकी कुशल है या नहीं। इस समय घरमें वे कुशलसे रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है ?॥ २२--२४॥ वे मेरे पुत्र कैसे हैं ? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं ?॥ २५॥ राजाने पूछा-- ॥ २६॥ जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदिने धनके कारण तुम्हें घरसे निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्तमें इतना स्नेहका बन्धन क् यों है॥ २७-२८ ॥ वैश्य बोला-- ॥ २९॥ आप मेरे विषयमें जैसी बात कहते हैं, वह सब ठीक है॥ ३०॥ किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धनके लोभमें पड़कर पिताके प्रति स्न्रेह, पतिके प्रति प्रेम तथा आत्मीयजनके प्रति अनुरागको तिलाञ्जलि दे मुझे घरसे निकाल दिया है, उन्हींके प्रति मेरे हृदयमें इतना स्नेह है। महामते ! गुणहीन बन्धुओंके प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेममग्न हो रहा है, यह क्या है--इस बातको मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है॥ ३१--३३॥ उन लोगोंमें प्रेमका सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क् या करूँ ?॥ ३४॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं-- ॥ ३५ ॥ ब्रह्मन् ! तदनन्तर राजाओंमें श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनिकी सेवामें उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात् वैश्य और राजाने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया॥ ३६--३८॥ राजाने कहा-- ॥ ३९ ॥ भगवन् ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ ४० ॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होनेके कारण वह बात मेरे मनको बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथसे चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अङ्गोंमें मेरी ममता बनी हुई है॥४१॥ मुनिश्रेष्ठ) यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानीकी भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है; यह क्या है? इधर यह वैश्य भी घरसे अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है॥४२॥ स्वजनोंने भी इसका परित्याग कर दिया है तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है। इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दुःखी हैं ॥४३॥ जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषयके लिये भी हमारे मनमें ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग | हम दोनों समझदार हैं; तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है? विवेकशून्य पुरुषकी भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है॥४४-४५॥ ऋषि बोले--- ॥ ४६॥ महाभाग ! विषयमार्गका ज्ञान सब जीवोंको है ॥ ४७॥ इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग- अलग हैं, कुछ प्राणी दिनमें नहीं देखते और दूसरे रातमें ही नहीं देखते ॥ ४८ ॥ तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रिमें भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते॥ ४९ ॥ पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्योंकी समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियोंकी होती है॥ ५०॥ तथा जैसी मनुष्योंकी होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदिकी होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्राय: दोनोंमें समान ही हैं। समझ होनेपर भी इन पक्षियोंको तो देखो, ये स्वयं भूखसे पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चोंकी चोंचमें कितने चावसे अन्नके दाने डाल रहे हैं! नरश्रेष्ठ ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकारका बदला पानेके लिये पुत्रोंकी अभिलाषा करते हैं ? यद्यपि उन सबमें समझकी कमी नहीं है, तथापि वे संसारकी स्थिति (जन्म-मरणकी परम्परा) बनाये रखनेवाले भगवती महामायाके प्रभावद्वारा ममतामय भँवरसे युत्त्क मोहके गहरे गर्तमें गिराये गये हैं। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान् विष्णुकी योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हींसे यह जगत् मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियोंके भी चित्तको बलपूर्वक खींचकर मोहमें डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको मुत्त्किके लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्षकी हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरोंकी भी अधीश्वरी हैं॥५१-५८॥ राजाने पूछा-- ॥ ५९॥ भगवन् ! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं ? ब्रह्मन् ! उनका आविर्भाव कैसे हुआ ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे ! उन देवीका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादर्भाव हुआ हो, वह सब में आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥ ६०--६२॥ ऋषि बोले--॥ ६३॥ राजन् ! वास्तवमें तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हींका रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्वको व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकारसे होता है। वह मुझसे सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोकमें उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्पके अन्तमें जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णवमें निमग्र हो रहा था और सबके प्रभुभगवान् विष्णु शेषनागकी शय्या बिछाकर योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानोंके मैलसे दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभके नामसे विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्माजीका वध करनेको तैयार हो गये। भगवान् विष्णुके नाभिकमलमें विराजमान प्रजापति ब्रह्माजीनी जब उन दोनों भयानक असुरोंको अपने पास आया और भगवान् को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान् विष्णुको जगानेके लिये उनके नेत्रोंमें निवास करनेवाली योगनिद्राका स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्वकी अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसारका पालन और संहार करनेवाली तथा तेज:स्वरूप भगवान् विष्णुकी अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेबीकी भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे॥ ६४--७१॥ ब्रह्मजीनेी कहा-- ॥ ७२॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणवमें अकार, उकार, मकार--इन तीन मात्राओंके रूपमें तुम्हीं स्थित हो। तथा इन तीन मात्राओंके अतिरिक्त जो विन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है। जिसका विशेषरूपसे उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्डको धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हींसे इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्पके अन्तमें सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्तिके समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-कालमें स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्तके समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणोंको उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालगात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं छी और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शङ्ख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ--ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो--इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर--सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत् -असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्थामें तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्राके अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करनेमें यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान् शङ्करको तथा भगवान् विष्णुको भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करनेकी शक्ति किसमें है ? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावोंसे ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोहमें डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णुको शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरोंको मार डालनेकी बुद्धि उत्पन्न कर दो ॥ ७३--८७॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ८८ ॥ राजन् ! जब ब्रह्माजीने वहाँ मधु और कैटभको मारनेके उद्देश्यसे भगवान् विष्णुको जगानेके लिये तमोगुणकी अधिष्ठात्री देवी योगनिद्राकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष:स्थलसे निकलकर अव्यत्त्कजन्मा ब्रह्माजीकी दृष्टिके समक्ष खड़ी हो गयीं। योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णवके जलमें शेषनागकी शय्यासे जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरोंको देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा पराक्रमी थे और क्रोधसे लाल आँखें किये ब्रह्माजीको खा जानेके लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान् श्रीहरिने उठकर उन दोनोंके साथ पाँच हजार वर्षोतक केवल बाहुयुद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बलके कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामायाने भी उन्हें मोहमें डाल रखा था; इसलिये वे भगवान् विष्णुसे कहने लगे--'हम तुम्हारी वीरतासे संतुष्ट हैं। तुम हमलोगोंसे कोई वर माँगो'॥ ८९--९५॥ श्रीभगवान् बोले-- ॥ ९६॥ यदि तुम दोनों मुझपर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथसे मारे जाओ। बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वरसे क् या लेना है॥ ९७-९८॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ९९॥ इस प्रकार धोखेमें आ जानेपर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत् में जल-ही-जल देखा, तब कमलनयन भगवानूसे कहा--' जहाँ पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो--जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो'॥ १००-१०१॥ ऋषि कहते हैं--॥ १०२॥ तब “तथास्तु' कहकर शट्ढु, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवानने उन दोनोंके मस्तक अपनी जाँघपर रखकर चक्रसे काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजीकी स्तुति करनेपर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभावका वर्णन करता हूँ, सुनो॥ १०३-१०४॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीगाहात्म्यमें 'मधु-केटध-वध ” नामक पहला अध्याय पूरा हुआ॥ १ ॥

    Durga Saptashati(दुर्गासप्तशती) 2 Chapter (दूसरा अध्याय)

    दूसरा अध्याय देवताओंके तेजसे देवीका प्रादुर्भाव और महिषासुरकी सेनाका वध विनियोग ॐ मध्यम चरित्रके विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है। श्रीमहालक्ष्मीकी प्रसन्नतांके लिये मध्यम चरित्रके पाठमें इसका विनियोग है। ध्यान मैं कमलके आसनपर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुर- मर्दिनी भगवती महालक्ष्मीका भजन करता (करती) हूँ, जो अपने हाथोंमें अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शत्त्कि, खड़्ग, ढाल, शङ्ख, घण्टा, मथुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ पूर्वकालमें देवताओं और असुरोंमें पूरे सौ वर्षोतक घोर संग्राम हुआ था। उसमें असुरोंका स्वामी महिषासुर था और देवताओंके नायक इन्द्र थे। उस युद्धमें देवताओंकी सेना महाबली असुरोंसे परास्त हो गयी। सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा॥२-३॥ तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजीको आगे करके उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शङ्कर और विष्णु विराजमान थे॥४॥ देवताओंने महिषासुरके पराक्रम तथा अपनी पराजयका यथावत् वृत्तान्त उन दोनों देवेश्वरोंसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया॥ ५॥ वे बोले--' भगवन् | महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण तथा अन्य देवताओंके भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है॥ ६॥ उस दुरात्मा महिषने समस्त देवताओंको स्वर्गसे निकाल दिया है। अब वे मनुष्योंकी भाँति पृथ्वीपर विचरते हैं॥७॥ दैत्योंकी यह सारी करतूत हमने आपलोगोंसे कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरणमें आये हैं। उसके वधका कोई उपाय सोचिये'॥ ८॥ इस प्रकार देवताओंके वचन सुनकर भगवान् विष्णु और शिवने दैत्योंपर बड़ा क्रोध किया। उनकी भौंहें तन गयीं और मुँह टेढ़ा हो गया॥९॥ तब अत्यन्त कोपमें भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णुके मुखसे एक महान् तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओंके शरीरसे भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिलकर एक हो गया॥ १०-११॥ महान् तेजका वह पुञ्ज जाज्वल्यमान पर्वत-सा जान पड़ा। देवताओंने देखा, वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त हो रही थीं॥ १२॥ सम्पूर्ण देवताओंके शरीरसे प्रकट हुए उस तेजकी कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होनेपर वह एक नारीके रूपमें परिणत हो गया और अपने प्रकाशसे तीनों लोकोंमें व्याप्त जान पड़ा॥ १३॥ भगवान् शंकरका जो तेज था, उससे उस देवीका मुख प्रकट हुआ। यमराजके तेजसे उसके सिरमें बाल निकल आये। श्रीविष्णुभगवान् के तेजसे उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं॥ १४॥ चन्द्रमाके तेजसे दोनों स्तनोंका और इन्द्रके तेजसे मध्यभाग- (कटियप्रदेश-) का प्रादुर्भाव हुआ। वरुणके तेजसे जङ्घा और पिंडली तथा पृथ्वीके तेजसे नितम्बभाग प्रकट हुआ॥ १५॥ ब्रह्माके तेजसे दोनों चरण और सूर्यके तेजसे उनकी अँगुलियाँ हुईं। वसुओंके तेजसे हाथोंकी अँगुलियाँ और कुबेरके तेजसे नासिका प्रकट हुई ॥ १६ ॥ उस देवीके दाँत प्रजापतिके तेजसे और तीनों नेत्र अग्निके तेजसे प्रकट हुए थे॥ १७॥ उसकी भौंहें संध्यांके और कान वायुके तेजसे उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्यान्य देवताओंके तेजसे भी उस कल्याणमयी देवीका आविर्भाव हुआ॥ १८॥ तदनन्तर समस्त देवताओंके तेजःपुञ्जसे प्रकट हुई देवीको देखकर महिषासुरके सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए॥ १९॥ पिनाकधारी भगवान् शंकरने अपने शूलसे एक शूल निकालकर उन्हें दिया; फिर भगवान् विष्णुने भी अपने चक्रसे चक्र उत्पन्न करके भगवतीको अर्पण किया॥ २०॥ वरुणने भी शङ्ख भेंट किया, अग्रिने उन्हें शत्त्कि दी और वायुने धनुष तथा बाणसे भरे हुए दो तरकस प्रदान किये॥ २१॥ सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रने अपने वज्र्से वजत्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथीसे उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया॥ २२ ॥ यमराजने कालदण्डसे दण्ड, वरुणने पाश, प्रजापतिने स्फटिकाक्षकी माला तथा ब्रह्माजीने कमण्डलु भेंट किया॥ २३ ॥ सूर्यने देवीके समस्त रोम- कूपोंमें अपनी किरणोंका तेज भर दिया। कालने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी॥ २४॥ क्षीरसमुद्रने उज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्वल अर्धचन्द्र, सब बाहुओंके लिये केयूर, दोनों चरणोंके लिये निर्मल नूपुर, गलेकी सुन्दर हँसली और सब अँगुलियोंमें पहननेके लिये रत्नोंकी बनी अँगूठियाँ भी दीं। विश्वकर्माने उन्हें अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया॥ २५--२७॥ साथ ही अनेक प्रकारके अस्त्र और अभेश्य कवच दिये; इनके सिवा मस्तक और वक्ष:स्थलपर धारण करनेके लिये कभी न कुम्हलानेवाले कमलोंकी मालाएँ दीं॥ २८ ॥ जलधिने उन्हें सुन्दर कमलका फूल भेंट किया। हिमालयने सवारीके लिये सिंह तथा भाँति-भाँतिके रत्न समर्पित किये॥ २९ ॥ धनाध्यक्ष कुबेरने मधुसे भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषने, जो इस पृथ्वीको धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियोंसे विभूषित नागहार भेंट दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओंने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवीका सम्मान किया। तत्पश्चात् उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वरसे गर्जना की। उनके भयंकर नादसे सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा॥ ३०--३२॥ देवीका वह अत्यन्त उच्चस्वर्से किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका, आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोरकी प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्वमें हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे॥३३॥ पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओंने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ सिंहवाहिनी भवानीसे कहा--' देवि ! तुम्हारी जय हो'॥३४॥ साथ ही महर्षियोंने भत्त्किभावसे विनम्र होकर उनका स्तवन किया। सम्पूर्ण त्रिलोकीको क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त सेनाको कवच आदिसे सुसज्जित कर, हाथोंमें हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये। उस समय महिषासुरने बड़े क्रोधमें आकर कहा--' आ: ! यह कया हो रहा है ?' फिर वह सम्पूर्ण असुरोंसे घिरकर उस सिंहनादकी ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवीको देखा, जो अपनी प्रभासे तीनों लोकोंको प्रकाशित कर रही थीं॥ ३५--३७॥ उनके चरणोंके भारसे पृथ्वी दबी जा रही थी। माथेके मुकुटसे आकाशमें रेखा-सी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुषकी टङ्कारसे सातों पातालोंको क्षुब्ध किये देती थीं॥३८॥ देवी अपनी हजारों भुजाओंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करके खड़ी थीं। तदनन्तर उनके साथ दैत्योंका युद्ध छिड़ गया॥३९॥ नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहारसे सम्पूर्ण दिशाएँ उद्धासित होने लगीं। चिक्षुर नामक महान् असुर महिषासुरका सेनानायक था॥४०॥ वह देवीके साथ युद्ध करने लगा। अन्य दैत्योंकी चतुरकङ्गिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा। साठ हजार रथियोंके साथ आकर उद्रग्र नामक महादैत्यने लोहा लिया॥ ४१ ॥ एक करोड़ रथियोंको साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा। जिसके रोएँ तलवारके समान तीखे थे, वह असिलोमा नामका महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकोंसहित युद्धमें आ डटा॥४२॥ साठ लाख रथियोंसे घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमिमें लड़ने लगा। परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार और घुड़सवारोंके अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियोंकी सेना लेकर युद्ध करने लगा। बिडाल नामक दैत्य पाँच अरब रथियोंसे घिरकर लोहा लेने लगा। इनके अतिरित्त्क और भी हजारों महादैत्य रथ, हाथी और घोड़ोंकी सेना साथ लेकर वहाँ देवीके साथ युद्ध करने लगे। स्वयं महिषासुर उस रणभूमिमें कोटि-कोटि सहस्र रथ, हाथी और घोड़ोंकी सेनासे घिरा हुआ खड़ा था। वे दैत्य देवीके साथ तोमर, भिन्दिपाल, शत्त्कि, मूसल, खड्ग, परशु और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे। कुछ दैत्योंने उनपर शक्तिका प्रहार किया, कुछ लोगोंने पाश फेंके ॥ ४३--४८ ॥ तथा कुछ दूसरे दैत्योंने खड्गप्रहार करके देवीको मार डालनेका उद्योग किया। देवीने भी क्रोधमें भरकर खेल-खेलमें ही अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करके दैत्योंके वे समस्त अस्त्र-शस्त्र काट डाले। उनके मुखपर परिश्रम या थकावटका रंचमात्र भी चिह्न नहीं था, देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्योंके शरीरोंपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करती रहीं। देवीका वाहन सिंह भी क्रोधमें भरकर गर्दनके बालोंको हिलाता हुआ असुरोंकी सेनामें इस प्रकार विचरने लगा, मानो वनोंमें दावानल फैल रहा हो। रणभूमिमें दैत्योंके साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवीने जितने नि:श्वास छोड़े, वे सभी तत्काल सैकड़ों-हजारों गणोंके रूपमें प्रकट हो गये और परशु, भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रोंद्वार असुरोंका सामना करने लगे॥ ४९--५३ ॥ देवीकी शत्त्किसे बढ़े हुए वे गण असुरोंका नाश करते हुए नगाड़ा और शङ्ख आदि बाजे बजाने लगे॥ ५४॥ उस संग्राम-महोत्सवमें कितने ही गण मृदङ्ग बजा रहे थे। तदनन्तर देवीने त्रिशूलसे, गदासे, शत्त्किकी वर्षसे और खड्ग आदिसे सैकड़ों महादैत्योंका संहार कर डाला। कितनोंको घण्टेके भयंकर नादसे मूच्छित करके मार गिराया॥ ५०-५६॥ बहुतेरे दैत्योंको पाशसे बाँधकर धरतीपर घसीटा। कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवारकी मारसे दो-दो टुकड़े हो गये॥ ५७॥ कितने ही गदाकी चोटसे घायल हो धरतीपर सो गये। कितने ही मूसलकी मारसे अत्यन्त आहत होकर रत्त्क वमन करने लगे। कुछ दैत्य शूलसे छाती फट जानेके कारण पृथ्वीपर ढेर हो गये। उस रणाङ्गणमें बाणसमूहोंकी वृष्टिसे कितने ही असुरोंकी कमर टूट गयी ॥ ५८-५९ ॥ बाजकी तरह झपटनेवाले देवपीडक दैत्यगण अपने प्राणोंसे हाथ धोने लगे। किन्हींकी बाँहें छिन्न-भिन्न हो गयीं। कितनोंकी गर्दनें कट गयीं। कितने ही दैत्योंके मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। कुछ लोगोंके शरीर मध्यभागमें ही विदीर्ण हो गये। कितने ही महादैत्य जाँघें कट जानेसे पृथ्वीपर गिर पड़े। कितनोंको ही देवीने एक बाँह, एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ोंमें चीर डाला। कितने ही दैत्य मस्तक कट जानेपर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़के ही रूपमें अच्छे-अच्छे हथियार हाथमें ले देवीके साथ युद्ध करने लगते थे। दूसरे कबन्ध युद्धके बाजोंकी लयपर नाचते थे॥६०--६३॥ कितने ही बिना सिरके धड़ हाथोंमें खड्ग, शत्त्कि और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरे-दूसरे महादैत्य “ठहरो! ठहरो!!” यह कहते हुए देवीको युद्धके लिये ललकारते थे। जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहाँकी धरती देवीके गिराये हुए रथ, हाथी, घोड़े और असुरोंकी लाशोंसे ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था॥६४-६५॥ दैत्योंकी सेनामें हाथी, घोड़े और असुरोंके शरीरोंसे इतनी अधिक मात्रामें रत्त्कपात हुआ था कि थोड़ी ही देरमें वहाँ खूनकी बड़ी- बड़ी नदियाँ बहने लगीं॥६६॥ जगदम्बाने असुरोंकी विशाल सेनाको क्षणभरमें नष्ट कर दिया--ठीक उसी तरह, जैसे तृण और काठके भारी ढेरको आग कुछ ही क्षणोंमें भस्म कर देती है॥ ६७॥ और वह सिंह भी गर्दनके बालोंको हिला-हिलाकर जोर-जोरसे गर्जना करता हुआ दैत्योंके शरीरोंसे मानो उनके प्राण चुने लेता था॥ ६८ ॥ वहाँ देवीके गणोंने भी उन महादैत्योंके साथ ऐसा युद्ध किया, जिससे आकाशमें खड़े हुए देवतागण उनपर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे॥६९॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें 'महिषासयुरकी सेनाका वध” नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥ २॥

    Durga Saptashati(दुर्गासप्तशती) 3 Chapter (तीसरा अध्याय)

    तीसरा अध्याय सेनापतियोंसहित महिषासुरका वध ध्यान जगदम्बाके श्रीअङ्कोंकी कान्ति उदयकालके सहस्रों सूर्योंके समान है। वे लाल रंगकी रेशमी साड़ी पहने हुए हैं। उनके गलेमें मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनोंपर रत्त्क चन्दनका लेप लगा है। वे अपने कर-कमलोंमें जपमालिका, विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। तीन नेत्रोंसे सुशोभित मुखारविन्दकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तकपर चन्द्रमाके साथ ही रत्रमय मुकुट बँधा है तथा वेक मलके आसनपर विराजमान हैं। ऐसी देवीको मैं भत्त्किपूर्वक प्रणाम करता (करती) हूँ। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ दैत्योंकी सेनाकों इस प्रकार तहस- नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिश्षुर क्रोधमें भरकर अम्बिकादेवीसे युद्ध करनेके लिये आगे बढ़ा॥ २॥ वह असुर रणभूमिमें देवीके ऊपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरुगिरिके शिखरपर पानीकी धार बरसा रहा हो॥३॥ तब देवीने अपने बाणोंसे उसके बाणसमूहको अनायास ही काटकर उसके घोड़ों और सारथिको भी मार डाला॥ ४॥ साथ ही उसके धनुष तथा अत्यन्त ऊँची ध्वजाको भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जानेपर उसके अङ्कोंको अपने बाणोंसे बींध डाला॥ ५॥ धनुष, रथ, घोड़े और सारथिके नष्ट हो जानेपर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवीकी ओर दौड़ा॥६॥ उसने तीखी धारवाली तलवारसे सिंहके मस्तकपर चोट करके देवीकी भी बायीं भुजामें बड़े वेगसे प्रहार किया॥ ७॥ राजन् ! देवीकी बाँहपर पहुँचते ही वह तलवार टूट गयी, फिर तो क्रोधसे लाल आँखें करके उस राक्षसने शूल हाथमें लिया॥ ८ ॥ और उसे उस महादैत्यने भगवती भद्रकालीके ऊपर चलाया । वह शूल आकाशसे गिरते हुए सूर्यमण्डलकी भाँति अपने तेजसे प्रज्बलित हो उठा॥ ९॥ उस शूलको अपनी ओर आते देख देवीने भी शूलका प्रहार किया। उससे राक्षसके शूलके सैकड़ों टुकड़े हो गये, साथ ही महादैत्य चिक्षुरककी भी धज्जियाँ उड़ गयीं। वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा॥ १०॥ महिषासुरके सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुरके मारे जानेपर देवताओंको पीड़ा देनेवाला चामर हाथीपर चढ़कर आया। उसने भी देवीके ऊपर शत्त्किका प्रहार किया, किंतु जगदम्बाने उसे अपने हुंकारसे ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वीपर गिरा दिया॥ ११-१२॥ शत्त्कि टूटकर गिरी हुई देख चामरको बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया, किंतु देवीने उसे भी अपने बाणोंद्वारा काट डाला॥ १३॥ इतनेमें ही देवीका सिंह उछलकर हाथीके मस्तकपर चढ़ बैठा और उस दैत्यके साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा॥ १४॥ वे दोनों लड़ते-लड़ते हाथीसे पृथ्वीपर आ गये और अत्यन्त क्रोधमें भरकर एक-दूसरेपर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लड़ने लगे॥ १५॥ तदनन्तर सिंह बड़े वेगसे आकाशकीओर उछला और उधरसे गिरते समय उसने पंजोंकी मारसे चामरका सिर धड़��े अलग कर दिया॥ १६॥ इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदिकी मार खाकर रणकभूमिमें देवीके हाथसे मारा गया तथा कराल भी दाँतों, मुक्कों और थप्पड़ोंकी चोटसे धराशायी हो गया॥ १७॥ क्रोधमें भरी हुई देवीने गदाकी चोटसे उद्धतका कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपालसे वाष्कलको तथा बाणोंसे ताम्र और अन्धकको मौतके घाट उतार दिया॥ १८ ॥ तीन नेत्रोंवाली परमेश्वरीने त्रिशूलसे उग्रास्य, उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक देैत्यको मार डाला॥ १९॥ तलवारकी चोटसे विडालके मस्तकको धड़से काट गिराया। दुर्धर और दुर्मुख--इन दोनोंको भी अपने बाणोंसे यमलोक भेज दिया॥ २० ॥ इस प्रकार अपनी सेनाका संहार होता देख महिषासुरने भेंसेका रूप धारण करके देवीके गणोंको त्रास देना आरम्भ किया॥ २१॥ किन्हींको थूथुनसे मारकर, किन्हींके ऊपर खुरोंका प्रहार करके, किन्हीं-किन्हींको पूँछसे चोट पहुँचाकर, कुछको सींगोंसे विदीर्ण करके, कुछ गणोंको वेगसे, किन्हींको सिंहनादसे, कुछको चक्कर देकर और कितनोंको निः:श्वास-वायुके झोंकेसे धराशायी कर दिया॥ २२-२३ ॥ इस प्रकार गणोंकी सेनाको गिराकर वह असुर महादेवीके सिंहको मारनेके लिये झपटा । इससे जगदम्बाको बड़ा क्रोध हुआ॥ २४॥ उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोधमें भरकर धरतीको खुरोंसे खोदने लगा तथा अपने सींगोंसे ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंको उठाकर फेंकने और गर्जने लगा॥ २५॥ उसके वेगसे चक्कर देनेके कारण पृथ्वी क्षुब्य होकर फटने लगी। उसकी पूँछसे टकराकर समुद्र सब ओरसे धरतीको डुबोने लगा॥ २६॥ हिलते हुए सींगोंके आघातसे विदीर्ण होकर बादलोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये। उसके श्वासकी प्रचण्ड वायुके वेगसे उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाशसे गिरने लगे॥ २७॥ इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए उस महादैत्यको अपनी ओर आते देख चण्डिकाने उसका वध करनेके लिये महान् क्रोध किया॥ २८ ॥ उन्होंने पाश फेंककर उस महान् असुरको बाँध लिया। उस महासंग्राममें बँध जानेपर उसने भैंसेका रूप त्याग दिया॥ २९ ॥ और तत्काल सिंहके रूपमें वह प्रकट हो गया। उस अवस्थामें जगदम्बा ज्यों ही उसका मस्तक काटनेके लिये उद्यत हुईं, त्यों ही वह खड्गधारी पुरुषके रूपमें दिखायी देने लगा॥ ३० ॥ तब देवीने तुरंत ही बाणोंकी वर्षा करके ढाल और तलवारके साथ उस पुरुषको भी बींध डाला। इतनेमें ही वह महान् गजराजके रूपमें परिणत हो गया॥ ३१ ॥ तथा अपनी सूँड़से देवीके विशाल सिंहको खींचने और गर्जने लगा। खींचते समय देवीने तलवारसे उसकी सूँड़ काट डाली ॥ ३२ ॥ तब उस महादैत्यने पुनः भेंसेका शरीर धारण कर लिया और पहलेकी ही भाँति चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंको व्याकुल करने लगा॥३३॥ तबक्रोधमें भरी हुई जगन्माता चण्डिका बारंबार उत्तम मधुका पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगीं॥ ३४॥ उधर वह बल और पराक्रमके मदसे उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगोंसे चण्डीके ऊपर पर्वतोंको फेंकने लगा॥ ३५॥ उस समय देवी अपने बाणोंके समूहोंसे उसके फेंके हुए पर्वतोंको चूर्ण करती हुई बोलीं । बोलते समय उनका मुख मधुके मदसे लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी॥ ३६॥ देवीने कहा-- ॥ ३७॥ ओ मूढ़! मैं जबतक मधु पीती हूँ, तबतक तू क्षणभरके लिये खूब गर्ज ले। मेरे हाथसे यहीं तेरी मृत्यु हो जानेपर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे॥ ३८॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ३९ ॥ यों कहकर देवी उछलीं और उस महादैत्यके ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैरसे उसे दबाकर उन्होंने शूलसे उसके कण्ठमें आघात किया ॥ ४० ॥ उनके पैरसे दबा होनेपर भी महिषासुर अपने मुखसे [दूसरे रूपमें बाहर होने लगा] अभी आधे शरीरसे ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवीने अपने प्रभावसे उसे रोक दिया॥४१॥ आधा निकला होनेपर भी वह महादैत्य देवीसे युद्ध करने लगा। तब देवीने बहुत बड़ी तलवारसे उसका मस्तक काट गिराया॥ ४२॥ फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्योंकी सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ४३ ॥ देवताओंने दिव्य महर्षियोंके साथ दु्गदिवीका स्तवन किया। गन्धर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ४४ ॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें (महिषासुरवध ” नामक वीसरा अध्याय पूरा हुआ॥ ३ ॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 4 Chapter (चौथी अध्याय)

    दुर्गा सप्तशती चौथी अध्याय इन्द्रादि देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति ध्यान सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं, उन “जया” नामवाली दुर्गदेवीका ध्यान करे। उनके श्रीअङ्गोंकी आभा काले मेघके समान श्याम है। वे अपने कटाक्षोंसे शत्रुसमूहको भय प्रदान करती हैं। उनके मस्तकपर आबडद्ध चन्द्रमाकी रेखा शोभा पाती है। वे अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे सिंहके कंधेपर चढ़ी हुई हैं और अपने तेजसे तीनों लोकोंकों परिपूर्ण कर रही हैं। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेनाके देवीके हाथसे मारे जानेपर इन्द्र आदि देवता प्रणामके लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गाका उत्तम वचनोंद्वारा स्तवन करने लगे। उस समय उनके सुन्दर अङ्गोंमे में अत्यन्त हर्षक कारण रोमाञ्न हो आया था॥२॥ देवता बोले--' सम्पूर्ण देवताओंकी शक्तिका समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवीने अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियोंकी पूजनीया उन जगदम्बाकों हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगोंका कल्याण करें॥ ३॥' जिनके अनुपम प्रभाव और बलका वर्णन करनेमें भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भयका नाश करनेका विचार करें॥ ४ ॥ जो पुण्यात्माओंके घरोंमें स्वयं ही लक्ष्मीरूपसे, पापियोंके यहाँ दरिद्रतारूपसे, शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंके हृदयमें बुद्धिरूपसे, सत्पुरुषोंमें श्रद्धारूपसे तथा कुलीन मनुष्यमें लज्जारूपसे निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गाकों हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्वका पालन कीजिये॥५॥ देवि! आपके इस अचिन्त्य रूपका, असुरोंका नाश करनेवाले भारी पराक्रमका तथा समस्त देवताओं और दैत्योंके समक्ष युद्धमें प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रोंका हम किस प्रकार वर्णन करें॥६॥ आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्तिमें कारण हैं। आपमें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण--ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषोंके साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता। भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं॥७॥ देवि! सम्पूर्ण यज्ञोंमें जिसके उच्चारणसे सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप पितरोंकी भी तृप्तिका कारण हैं, अतएब सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं॥८॥ देवि! जो मोक्षकी प्राप्तिका साधन है, अचिन्त्य महाब्रतस्वरूपा है, समस्त दोषोंसे रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्वको ही सार वस्तु माननेवाले तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह भगवती परा विद्या आप ही हैं॥९॥ आप शब्दस्वरूपा हैं, अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथके मनोहर पदोंके पाठसे युक्त सामवेदका भी आधार आप ही हैं। आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्योंसे युक्त) हैं। इस विश्वकी उत्पत्ति एवं पालनके लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका)-के रूपमें प्रकट हुई हैं। आप सम्पूर्ण जगत् की घोर पीड़ाका नाश करनेवाली हैं ॥ १०॥ देवि! जिससे समस्त शास्त्रोंके सारका ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं। दुर्गण भवसागरसे पार उतारनेवाली नौकारूप दु्गदिवी भी आप ही हैं। आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है। कैटभके शत्रु भगवान् विष्णुके वक्ष:स्थलमें एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी तथा भगवान् चन्द्रशेखरद्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं॥ ११॥ आपका मुख मन्द मुसकानसे सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमाके बिम्बका अनुकरण करनेवाला और उत्तम सुवर्णकी मनोहर कान्तिसे कमनीय है; तो भी उसे देखकर महिषासुरको क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है॥१२॥ देवि! वही मुख जब क्रोधसे युक्त होनेपर उदयकालके चन्द्रमाकी भाँति लाल और तनी हुई भौंहोंके कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुरके प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्यकी बात है; क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराजको देखकर भला, कौन जीवित रह सकता है ?॥ १३ ॥ देवि! आप प्रसन्न हों। परमात्मस्वरूपा आपके प्रसन्न होनेपर जगत् का अभ्युदय होता है और क्रोधमें भर जानेपर आप तत्काल ही कितने कुलोंकासर्वगाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभवमें आयी है; क्योंकि महिषासुरकी यह विशाल सेना क्षणभरमें आपके कोपसे नष्ट हो गयी है॥ १४॥ सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिनपर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देशमें सम्मानित हैं, उन्हींको धन और यशकी प्राप्ति होती है, उन्हींका धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्योंके साथधन्य माने जाते हैं॥१५॥ देवि! आपकी ही कृपासे पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सदा सब प्रकारके धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभावसे स्वर्गलोकमें जाता है; इसलिये आप तीनों लोकोंमें निश्चय ही मनोवाज्छित फल देनेवाली हैं॥ १६॥ माँ दुर्गे! आप स्मरण करनेपर सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषोंद्वारा चिन्तन करनेपर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयाद्र रहता हो॥ १७॥ देवि! इन राक्षसोंके मारनेसे संसारको सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकालतक नरकमें रहनेके लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राममें मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्गलोकमें जायँ—निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओंका वध करती हैं॥१८॥ आप शत्रुओंपर शस्त्रोंका प्रहार क्यों करती हैं? समस्त असुरोंको दृष्टिपातमात्रसे ही भस्म क् यों नहीं कर देतीं ? इसमें एक रहस्य है। ये शत्रु भी हमारे शस्त्रोंसे पवित्र होकर उत्तम लोकोंमें जायँ-- इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है॥ १९॥ खड्गके तेज:पुझ्की भयड्डूर दीमप्तिसे तथा आपके त्रिशूलके अग्रभागकी घनीभूत प्रभासे चौंधियाकर जो असुरोंकी आँखें फूट नहीं गयीं, उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियोंसे युक्त चन्द्रमाके समान आनन्द प्रदान करनेवाले आपके इस सुन्दर मुखका दर्शन करते थे॥ २०॥ देवि! आपका शील दुराचारियोंके बुरे बर्तावकों दूर करनेवाला है। साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तनमें भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरोंसे तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्योंका भी नाश करनेवाला है, जो कभी देवताओंके पराक्रमको भी नष्ट कर चुके थे। इस प्रकार आपने शत्रुओंपर भी अपनी दया ही प्रकट की है॥२१॥ वरदायिनी देवि! आपके इस पराक्रमकी किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओंको भय देनेवाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है ? हृदयमें कृपा और युद्धमें निष्ठुरता--ये दोनों बातें तीनों लोकोंके भीतर केवल आपमें ही देखी गयी हैं॥ २२॥ मातः! आपने शत्रुओंका नाश करके इस समस्तत्रिलोकीकी रक्षा की है। उन शत्रुओंको भी युद्धभूमिमें मारकर स्वर्गलोकमें पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले हमलोगोंके भयको भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कारहै॥ २३॥ देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी हमलोगोंकी रक्षा करें॥ २४॥ चण्डिके | पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें आप हमारी रक्षा करें तथा ईश्वरि! अपने त्रिशूलको घुमाकर आप उत्तर दिशामें भी हमारी रक्षा करें॥ २५॥ तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयड्लूर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोककी रक्षा करें॥ २६॥ अम्बिके! आपके कर-पल्लवोंमें शोभा पानेवाले खड़्ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों, उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें॥ २७॥ ऋषि कहते हैं--॥ २८॥ इस प्रकार जब देवताओंने जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और नन्दनवनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा उनका पूजन किया, फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की, तब देवीने प्रसन्ननदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओंसे कहा-- ॥ २९-३० ॥ देवी बोलीं-- ॥ ३१ ॥ देवताओ | तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो॥ ३२॥ देवता बोले-- ॥ ३३॥ भगवतीने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं है॥ ३४॥ क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया। महेश्वरि! इतनेपर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं ॥ ३५॥ तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हमलोगोंके महान् संकट दूर कर दिया करें तथा प्रसन्नममुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही उसकी धन और स्त्री आदि सम्पत्तिको भी बढ़ानेके लिये आप सदा हमपर प्रसन्न रहें॥ ३६-३७॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ३८॥ राजन् ! देवताओंने जब अपने तथा जगत् के कल्याणके लिये भद्रकाली देवीको इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे “'तथास्तु' कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं॥ ३९॥ भूपाल! इस प्रकार पूर्वकालमें तीनों लोकोंका हित चाहनेवाली देवी जिस प्रकार देवताओंके शरीरोंसे प्रकट हुई थीं, वह सब कथा मैंने कह सुनायी ॥४०॥ अब पुनः देवताओंका उपकार करनेवाली वे देवी दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भका वध करने एवं सब लोकोंकी रक्षा करनेके लिये गौरीदेवीके शरीरसे जिस प्रकार प्रकट हुई थीं, वह सब प्रसड़ मेरे मुँहसे सुनो। मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ॥४१-४२॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीयाहात्म्यमें 'शक्रादिस्वुति” नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥ ४॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 5 Chapter(पाँचवाँ अध्याय)

    पाँचवाँ अध्याय देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिकाके रूपकी प्रशंसा सुनकर शुम्भका उनके पास दूत भेजना और दूतका निराश लौटना विनियोग ॐ इस उत्तर चरित्रके रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हें, अनुष्टुप् छन्द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्त्व है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वतीकी प्रसन्नताके लिये उत्तर चरित्रके पाठमें इसका विनियोग किया जाता है। ध्यान जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शङ्ख मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरदू-ऋतुके शोभासम्पन्न चन्द्रमाके समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा गौरीके शरीरसे जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवीका मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ। ऋषि कहते हैं--॥१॥ पूर्वकालमें शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरोंने अपने बलके घमंडमें आकर शचीपति इन्द्रके हाथसे तीनों लोकोंका राज्य और यज्ञभाग छीन लिये॥ २॥ वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुणके अधिकारका भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्निका कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनोंने सब देवताओंको अपमानित, राज्यश्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्गसे निकाल दिया। उन दोनों महान्असुरोंसे तिरस्कृत देवताओंने अपराजिता देवीका स्मरण किया और सोचा--' जगदम्बाने हमलोगोंको वर दिया था कि आपत्तिकालमें स्मरण करनेपर मैं तुम्हारी सब आपत्तियोंका तत्काल नाश कर दूँगी'॥ ३--६॥ यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गये और वहाँ भगवती विष्णुमायाकी स्तुति करने लगे॥७॥ देवता बोले--- ॥ ८ ॥ देवीको नमस्कार है, महादेवी शिवाको सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्राको प्रणाम है। हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बाको नमस्कार करते हैं ॥ ९॥ रौद्राको नमस्कार है। नित्या, गौरी एवं धात्रीको बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्स्त्रामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवीको सतत प्रणाम है॥१०॥ शरणागतोंका कल्याण करनेवाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवीको हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नैर्क्रती (राक्षसोंकी लक्ष्मी), राजाओंकी लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी)-स्वरूपा आप जगदम्बाको बार-बार नमस्कार है॥ ११॥ दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकटसे पार उतारनेवाली ), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवीकों सर्वदा नमस्कार है॥१२॥ अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवीको हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत् की आधारभूता कृति देवीको बारम्बार नमस्कार है॥१३॥ जो देवी सब प्राणियोंमें विष्णुमायाके नामसे कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ १४--१६॥ जो देवी सब प्राणियोंमें चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ १७--१९॥ जो देवी सब प्राणियोंमें बुद्धिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २०--२२॥ जो देवी सब प्राणियोंमें निद्रारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २३--२५॥ जो देवी सब प्राणियोंमें क्षुधारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २६--२८ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें छायारूपसे स्थित हें, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २९--३१॥ जो देवी सब प्राणियोंमें शक्तिरूपसे स्थित हें, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३२--३४॥ जो देवी सब प्राणियोंमें तृष्णारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३५--३७॥ जो देवी सब प्राणियोंमें क्षान्ति-( क्षमा-) रूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३८--४०॥ जो देवी सब प्राणियोंमें जातिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥४१--४३॥ जो देवी सब प्राणियोंमें लज्जारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥४४--४६॥ जो देवी सब प्राणियोंमें शान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥४७--४९॥ जो देवी सब प्राणियोंमें श्रद्धारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ५०--५२॥ जो देवी सब प्राणियोंमें कान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥५३-५५॥ जो देवी सब प्राणियोंमें लक्ष्मीरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥५६--५८॥ जो देवी सब प्राणियोंमें वृत्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥५९--६१॥ जो देवी सब प्राणियोंमें स्मृतिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥६२--६४॥ जो देवी सब प्राणियोंमें दयारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥६५-६७॥ जो देवी सब प्राणियोंमें तुष्टिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥६८--७०॥ जो देवी सब प्राणियोंमें मातारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥७१--७३॥ जो देवी सब प्राणियोंमें भ्रान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥७४--७६॥ जो जीवोंके इन्द्रियवर्गकी अधिशष्छात्री देवी एवं सब प्राणियोंमें सदा व्याप्त रहनेवाली हैं, उन व्याप्तिदेवीको बारम्बार नमस्कार है॥७७॥ जो देवी चैतन्यरूपसे इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है ॥ ७८--८० ॥ पूर्वकालमें अपने अभीष्टकी प्राप्ति होनेसे देवताओंने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्रने बहुत दिनोंतक जिनका सेवन किया, वह कल्याणकी साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियोंका नाश कर डाले॥ ८१॥ उदृण्ड दैत्योंसे सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरीको इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्तिसे विनम्र पुरुषोंद्दारा स्मरण की जानेपर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियोंका नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें॥ ८२॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ८३॥ राजन् ! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गड़गजीके जलमें स्त्रान करनेके लिये वहाँ आयीं॥८४॥ उन सुन्दर भौंहोंवाली भगवतीने देवताओंसे पूछा--' आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं ?' तब उन्हींके शरीरकोशसे प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं--॥ ८५॥ “शुम्भ दैत्यसे तिरस्कृत और युद्धमें निशुम्भसे पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हें '॥ ८६॥ पार्वतीजीके शरीरकोशसे अम्बिकाका प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकोंमें “कौशिकी' कही जाती हैं ॥ ८७॥ कौशिकीके प्रकट होनेके बाद पार्वतीदेवीका शरीर काले रंगका हो गया, अत: वे हिमालयपर रहनेवाली कालिकादेवीके नामसे विख्यात हुईं॥ ८८॥ तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भके भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करनेवाली अम्बिकादेवीको देखा॥८९॥ फिर वे शुम्भके पास जाकर बोले--'महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्तिसे हिमालयको प्रकाशित कर रही है॥९०॥' वैसा उत्तम रूप कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये ॥ ९१ ॥ स्त्रियोंमें तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अङ्गबहुत ही सुन्दर है तथा वह अपने श्रीअङ्गोंकी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रकाश फैला रही है। दैत्ययाज! अभी वह हिमालयपर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं॥९२॥ प्रभो! तीनों लोकोंमें मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्र हैं, वे सब इस समय आपके घरमें शोभा पाते हैं ॥ ९३ ॥ हाथियोंमें रत्रभूत ऐरावत, यह पारिजातका वृक्ष और यह उच्चै:श्रवा घोड़ा--यह सब आपने इन्द्रसे ले लिया है॥९४॥ हंसोंसे जुता हुआ यह विमान भी आपके आँगनमें शोभा पाता है। यह रत्रभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजीके पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है॥ ९५॥ यह महापद्म नामक निधि आप कुबेरसे छीन लाये हैं। समुद्रने भी आपको किझल्किनी नामकी माला भेंट की है, जो केसरोंसे सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं ॥ ९६॥ सुवर्णकी वर्षा करनेवाला वरुणका छत्र भी आपके घरमें शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापतिके अधिकारमें था, अब आपके पास मौजूद है॥९७॥ दैत्येश्वर! मृत्युकी उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुणका पाश और समुद्रमें होनेवाले सब प्रकारके रत्न आपके भाई निशुम्भके अधिकारमें हैं। अग्निने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किये हैं॥९८-९९॥ दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्र आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियोंमें रत्ररूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क् यों नहीं अपने अधिकारमें कर लेते ॥ १००॥ ऋषि कहते हैं--॥१०१॥ चण्ड-मुण्डका यह वचन सुनकर शुम्भने महादैत्य सुग्रीवको दूत बनाकर देवीके पास भेजा और कहा--' तुम मेरी आज्ञासे उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय'॥ १०२-१०३॥ वह दूत पर्वतके अत्यन्त रमणीय प्रदेशमें जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणीमें कोमल वचन बोला॥ १०४॥ दूत बोला--॥ १०५॥ देवि! दैत्ययाज शुम्भ इस समय तीनों लोकोंके परमेश्वर हैं। मैं उन्हींका भेजा हुआ दूत हूँ औरयहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ॥१०६॥ उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वरसे मानते हैं। कोई उसका उल्लद्गन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओंको परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो॥१०७॥ सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकारमें है। देवता भी मेरी आज्ञाके अधीन चलते हैं। सम्पूर्ण यज्ञोंक भागोंको मैं ही पृथक् -पृथक् भोगता हूँ॥ १०८ ॥ तीनों लोकोंमें जितने श्रेष्ठ रत्र हैं, वे सब मेरे अधिकारमें हैं। देवराज इन्द्रका वाहन ऐरावत, जो हाथियोंमें रत्रके(error) समान है, मैंने छीन लिया है॥ १०९ ॥ क्षीरसागरका मन्थन करनेसे जो अश्वरत्र उच्चै:श्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओंने मेरे पैरोंपर पड़कर समर्पित किया है॥ ११० ॥ सुन्दरी ! उनके सिवा और भी जितने रत्रभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागोंके पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं॥ १११॥ देवि! हमलोग तुम्हें संसारकी स्त्रियोंमें रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क् योंकि रत्रोंका उपभोग करनेवाले हम ही हैं॥११२॥ चञ्जल कटक्षोंवाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भी सेवामें आ जाओ; क् योंकि तुम रत्रस्वरूपा हो ॥ ११३ ॥ मेरा वरण करनेसे तुम्हें तुलनारहित महान् ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धिसे यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओ'॥ ११४॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ११५ ॥ दूतके यों कहनेपर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी, जो इस जगत् को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीर भावसे मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं--॥ ११६॥ देवीने कहा-- ॥ ११७॥ दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकोंका स्वामी है और निशुम्भ भी उसीके समान पराक्रमी है॥११८॥ किंतु इस विषयमें मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्पबुद्धिके कारण पहलेसे जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो--॥११९॥ “जो मुझे संग्राममें जीत लेगा, जो मेरे अभिमानको चूर्ण कर देगा तथा संसारमें जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा'॥ १२०॥इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधोरें और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्बकी क् या आवश्यकता है ?॥ १२१॥ दूत बोला-- ॥ १२२॥ देवि! तुम घमंडमें भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ-निशुम्भके सामने खड़ा हो सके॥ १२३॥ देवि! अन्य दैत्योंके सामने भी सारे देवता युद्धमें नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो॥ १२४॥ जिन शुम्भ आदि दैत्योंके सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्धमें खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी ॥ १२५ ॥ इसलिये तुम मेरे ही कहनेसे शुम्भ-निशुम्भके पास चली चलो। ऐसा करनेसे तुम्हारे गौरवकी रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा॥ १२६॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीयाहात्म्यमें 'देवी-दूत-संवाद नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ५ ॥

    Durga Saptashati(दुर्गा सप्तशती) 6 Chapter (छठा अध्याय)

    छठा अध्याय धूप्रलोचन-वध ध्यान मैं सर्वज्ञेध्र भेरवके अड्डूमें निवास करनेवाली परमोत्कृष्ट पद्मावतीदेवीका चिन्तन करता (करती) हूँ। वे नागराजके आसनपर बैठी हैं, नागोंके फ्णोंमें सुशोभित होनेवाली मणियोंकी विशाल मालासे उनकी देहलता उद्धासित हो रही है। सूर्यके समान उनका तेज है, तीन नेत्र उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वे हाथोंमें माला, कुम्भ, कपाल और कमल लिये हुए हैं तथा उनके मस्तकमें अर्धचन्द्रका मुकुट सुशोभित है। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ देवीका यह कथन सुनकर दूतको बड़ा अमर्ष हुआ और उसने दैत्यराजके पास जाकर सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया॥ २॥ दूतके उस वचनको सुनकर दैत्ययाज कुपित हो उठा और दैत्यसेनापति धूप्रलोचनसे बोला॥ ३॥ ‘धूप्रलोचन ! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टके केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ॥ ४॥ उसकी रक्षा करनेके लिये यदि कोई दूसरा खड़ा हो तो वह देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व ही क् यों न हो, उसे अवश्य मार डालना'॥ ५॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ६॥ शुम्भके इस प्रकार आज्ञा देनेपर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरोंकी सेनाको साथ लेकर वहाँसे तुरंत चल दिया॥७॥ वहाँ पहुँचकर उसने हिमालयपर रहनेवाली देवीको देखा और ललकारकर कहा-'अरी! तू शुम्भ-निशुम्भके पास चल। यदि इस समय प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामीके समीप नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा'॥ ८-९॥ देवी बोलीं-- ॥ १०॥ तुम्हें दैत्योंके राजाने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान् हो और तुम्हारे साथ विशाल सेना भी है; ऐसी दशामें यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ ?॥ ११॥ ऋषि कहते हैं--॥१२॥ देवीके यों कहनेपर असुर धूप्रलोचन उनकी ओर दौड़ा, तब अम्बिकाने “हुं! शब्दके उच्चारणमात्रसे उसे भस्म कर दिया॥ १३॥ फिर तो क्रोधमें भरी हुई दैत्योंकी विशाल सेना और अम्बिकाने एक-दूसरेपर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसोंकी वर्षा आरम्भ की॥ १४॥ इतनेमें ही देवीका वाहन सिंह क्रोधमें भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दनके बालोंको हिलाता हुआ असुरोंकी सेनामें कूद पड़ा॥ १५॥ उसने कुछ दैत्योंको पंजोंकी मारसे, कितनोंको अपने जबड़ोंसे और कितने ही महादैत्योंको पटककर ओठकी दाढ़ोंसे घायल करके मार डाला॥ १६॥ उस सिंहने अपने नखोंसे कितनोंके पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनोंके सिर धड़से अलग कर दिये॥ १७॥ कितनोंकी भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दनके बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्योंके पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया॥ १८ ॥ अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए देवीके वाहन उस महाबली सिंहने क्षणभरमें ही असुरोंकी सारी सेनाका संहार कर डाला॥ १९॥ शुम्भने जब सुना कि देवीने धूम्रलोचन असुरको मार डाला तथा उसके सिंहने सारी सेनाका सफाया कर डाला, तब उस दैत्यगाजको बड़ा क्रोध हुआ। उसका ओठ काँपने लगा। उसने चण्ड और मुण्ड नामक दो महादैत्योंको आज्ञा दी--॥ २०-२१॥ “हे चण्ड! और हे मुण्ड! तुमलोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ, उस देवीके झोंटे पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीकघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लानेमें संदेह हो तो युद्धमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेनाका प्रयोग करकेउसकी हत्या कर डालना॥ २२-२३॥ उस दुष्टाकी हत्या होने तथा सिंहके भी मारे जानेपर उस अम्बिकाको बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना'॥ २४॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें 'धूम्रलोचन-वध ” नामक छठा अध्याय पूरा हुआ॥ ६ ॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 7 Chapter(सातवाँ अध्याय)

    सातवाँ अध्याय चण्ड और मुण्डका वध ध्यान मैं मातड्रीदेवीका ध्यान करता (करती) हूँ। वे रत्रमय सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोतेका मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीरका वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं और मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्रर- (error)पुष्पोंकी माला धारण किये वीणा बजाती हैं| उनके अछ्में कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंगकी साड़ी पहने हाथमें शह्ढुमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदनपर मधुका हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाठमें बेंदी शोभा दे रही है। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ तदनन्तर शुम्भकी आज्ञा पाकर वे चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य चतुरड्िणी(error) सेनाके साथ अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो चल दिये॥ २॥ फिर गिरिराज हिमालयके सुवर्णमय ऊँचे शिखरपर पहुँचकर उन्होंने सिंहपर बैठी देवीको देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं ॥ ३ ॥ उन्हें देखकर दैत्यलोग तत्परतासे पकड़नेका उद्योग करने लगे। किसीने धनुष तान लिया, किसीने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवीके पास आकर खड़े हो गये ॥ ४॥ तब अम्बिकाने उन शत्रुओंके प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोधके कारण उनका मुख काला पड़ गया॥५॥ ललाटमें भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँसे तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं॥६॥ वे विचित्र खट्वाड़ धारण किये और चीतेके चर्मकी साड़ी पहने नर-मुण्डोंकी मालासे विभूषित थीं। उनके शरीरका मांस सूख गया था, केवल हड्डियोंका ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं॥७॥ उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपानेके कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। उनकी आँखें भीतरको धँसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाओंको गुँजा रही थीं॥ ८ ॥ बड़े-बड़े दैत्योंका वध करती हुई वे कालिकादेवी बड़े वेगसे दैत्योंकी उस सेनापर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं॥९॥ वे पार्थरक्षकों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाओं और घण्टासहित कितने ही हाथियोंको एक ही हाथसे पकड़कर मुँहमें डाल लेती थीं॥ १०॥ इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथिके साथ रथी सैनिकोंको मुँहमें डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूपसे चबा डालती थीं॥ ११॥ किसीके बाल पकड़ लेतीं, किसीका गला दबा देतीं, किसीको पैरोंसे कुचल डालतीं और किसीको छातीके धक्केसे गिराकर मार डालती थीं॥१२॥ वे असुरोंके छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँसे पकड़ लेतीं और रोषमें भरकर उनको दाँतोंसे पीस डालती थीं॥१३॥ कालीने बलवान एवं दुरात्मा दैत्योंकी वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनोंको मार भगाया॥ १४॥ कोई तलवारके घाट उतारे गये, कोई खट्वाड़से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतोंके अग्रभागसे कुचले जाकर मृत्युको प्राप्त हुए॥ १५॥ इस प्रकार देवीने असुरोंकी उस सारी सेनाको क्षणभरमें मार गिराया। यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवीकी ओर दौड़ा॥ १६॥ तथा महादैत्य मुण्डने भी अत्यन्त भयंकर बाणोंकी वर्षसे तथा हजारों बार चलाये हुए चक्रोंसे उन भयानक नेत्रोंवाली देवीको आच्छादित कर दिया॥ १७॥ वे अनेकों चक्र देवीके मुखमेंसमाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्यके बहुतेरे मण्डल बादलोंके उदरमें प्रवेश कर रहे हों॥ १८॥ तब भयंकर गर्जना करनेवाली कालीने अत्यन्त रोषमें भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदनके भीतर कठिनतासे देखे जा सकनेवाले दाँतोंकी प्रभासे वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं॥ १९॥ देवीने बहुत बड़ी तलवार हाथमें ले 'हं' का उच्चारण करके चण्डपर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवारसे उसका मस्तक काट डाला॥ २०॥ चण्डको मारा गया देखकर मुण्ड भी देवीकी ओर दौड़ा। तब देवीने रोषमें भरकर उसे भी तलवारसे घायल करके धरतीपर सुला दिया॥ २१॥ महापराक्रमी चण्ड और मुण्डको मारा गया देख मरनेसे बची हुई बाकी सेना भयसे व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी॥२२॥ तदनन्तर कालीने चण्ड और मुण्डका मस्तक हाथमें ले चण्डिकाके पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा--॥ २३ ॥ 'देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओंको तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञमें तुम शुम्भ और निशुम्भका स्वयं ही वध करना'॥ २४॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ २५॥ वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महादैत्योंको देखकर कल्याणमयी चण्डीने कालीसे मधुर वाणीमें कहा-- ॥ २६॥ 'देवि! तुम चण्ड और मुण्डको लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसारमें चामुण्डाके नामसे तुम्हारी ख्याति होगी!॥ २७॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीगाहात्य्ययें “चण्ड-मुण्ड-वध ” नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ७॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 8 chapter(आठवाँ अध्याय)

    आठवाँ अध्याय रक्तबीज-वध ध्यान मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणोंसे आवृत भवानीका ध्यान करता (करती) हूँ। उनके शरीरका रंग लाल है, नेत्रोंमें करुणा लहरा रही है तथा हाथोंमें पाश, अड्भूश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ चण्ड और मुण्ड नामक दैत्योंके मारे जाने तथा बहुत-सी सेनाका संहार हो जानेपर दैत्योंके राजा प्रतापी शुम्भके मनमें बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्योंकी सम्पूर्ण सेनाको युद्धके लिये कूच करनेकी आज्ञा दी॥२-३॥ वह बोला--' आज उदायुध नामके छियासी दैत्य-सेनापति अपनी सेनाओंके साथ युद्धके लिये प्रस्थान करें। कम्बु नामवाले दैत्योंके चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनीसे घिरे हुए यात्रा करें॥ ४॥ पचास कोटिवीर्य-कुलके और सौ धौम्र-कुलके असुरसेनापति मेरी आज्ञासे सेनासहित कूच करें॥५॥ कालक, दौईद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्धके लिये तैयार हो मेरी आज्ञासे तुरंत प्रस्थान करें '॥ ६॥ भयानक शासन करनेवाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे सहस्रों बड़ी-बड़ी सेनाओंके साथ युद्धके लिये प्रस्थित हुआ॥ ७॥ उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख चण्डिकाने अपने धनुषकी टंकारसे पृथ्वी और आकाशके बीचका भाग गुँजा दिया॥ ८ ॥ राजन! तदनन्तर देवीके सिंहने भी बड़े जोर-जोरसे दहाड़ना आरम्भ किया, फिर अम्बिकाने घण्टेके शब्दसे उस ध्वनिको और भी बढ़ा दिया॥ ९॥ धनुषकी टंकार, सिंहकी दहाड़ और घण्टेकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं। उस भयंकर शब्दसे कालीने अपने विकराल मुखको और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं॥ १०॥ उस तुमुल नादको सुनकर दैत्योंकी सेनाओंने चारों ओरसे आकर चण्डिकादेवी, सिंह तथा कालीदेवीको क्रोधपूर्वक घेर लिया॥ ११॥ राजन! इसी बीचमें असुरोंके विनाश तथा देवताओंके अभ्युदयके लिये ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवोंकी शक्तियाँ, जो अत्यन्त पराक्रम और बलसे सम्पन्न थीं, उनके शरीरोंसे निकलकर उन्हींके रूपमें चण्डिकादेवीके पास गयीं॥ १२-१३ ॥ जिस देवताका जैसा रूप, जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही, साधनोंसे सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरोंसे युद्ध करनेके लिये आयी॥ १४॥ सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमण्डलुसे सुशोभित ब्रह्माजीकी शक्ति उपस्थित हुई, जिसे “ब्रह्माणी' कहते हैं॥ १५॥ महादेवजीकी शक्ति वृषभपर आरूढ़ हो हाथोंमें श्रेष्ठ त्रिशुल धारण किये महानागका कल्लूण पहने, मस्तकमें चन्द्रेखासे विभूषित हो वहाँ आ पहुँची ॥ १६ ॥ कार्तिकेयजीकी शक्तिरूपा जगदम्बिका उन्हींका रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूरपर आरूढ़ हो हाथमें शक्ति लिये दैत्योंसे युद्ध करनेके लिये आयीं॥ १७॥ इसी प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति गरुड़पर विराजमान हो शह्ठु, चक्र, गदा, शार्ब्धनुष तथा खड्ग हाथमें लिये वहाँ आयी॥ १८॥ अनुपम यज्ञवाराहका रूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी जो शक्ति है, वह भी वाराह-शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई ॥ १९ ॥ नारसिंही शक्ति भी नृसिंहके समान शरीर धारण करके वहाँ आयी। उसकी गर्दनके बालोंके झटकेसे आकाशके तारे बिखरे पड़ते थे॥ २०॥ इसी प्रकार इन्द्रकी शक्ति वज्र हाथमें लिये गजराज ऐरावतपर बैठकर आयी। उसके भी सहस्र नेत्र थे। इन्द्रका जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था॥२१॥ तदनन्तर उन देव-शक्तियोंसे घिरे हुए महादेवजीने चण्डिकासे कहा--' मेरी प्रसन्नताके लिये तुम शीघ्र ही इन असुरोंका संहार करो'॥ २२॥ तब देवीके शरीरसे अत्यन्त भयानक और परम उग्र चण्डिका-शक्ति प्रकट हुई, जो सैकड़ों गीदड़ियोंकी भाँति आवाज करनेवाली थी॥२३॥ उस अपराजिता देवीने धूमिल जटावाले महादेवजीसे कहा--' भगवन् ! आप शुम्भ-निशुम्भके पास दूत बनकर जाइये॥ २४॥ और उन अत्यन्त गर्वीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनोंसे कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्धके लिये वहाँ उपस्थित हों उनको भी यह संदेश दीजिये '-- ॥ २५॥ 'दैत्यो! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पातालको लौट जाओ। इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य मिल जाय और देवता यज्ञभागका उपभोग करें॥ २६॥ यदि बलके घमंडमें आकर तुम युद्धकी अभिलाषा रखते हो तो आओ। मेरी शिवाएँ (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांससे तृप्त हों'॥ २७॥ चूँकि उस देवीने भगवान् शिवको दूतके कार्यमें नियुक्त किया था, इसलिये वह “शिवदूती' के नामसे संसारमें विख्यात हुई॥२८॥ वे महादैत्य भी भगवान् शिवके मुँहसे देवीके वचन सुनकर क्रोधमें भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस ओर बढ़े ॥ २९॥ तदनन्तर वे दैत्य अमर्षमें भरकर पहले ही देवीके ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अ्त्रोंकी(error) वृष्टि करने लगे॥ ३०॥ तब देवीने भी खेल-खेलमें ही धनुषकी टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणोंद्वारा दैत्योंक चलाये हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसोंको काट डाला॥ ३१॥ फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओंको शूलके प्रहारसे विदीर्ण करने लगी और खट्वाड़से(error) उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमिमें विचरने लगी ॥ ३२॥ ब्रह्माणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी-उसी ओर अपने कमण्डलुका जल छिड़ककर शत्रुओंके ओज और पराक्रमको नष्ट कर देती थी॥३३॥ माहेश्वरीने त्रिशूलसे तथा वैष्णवीने चक्रसे और अत्यन्त क्रोधमें भरी हुई कुमार कार्तिकेयकी शक्तिने शक्तिसे दैत्योंका संहार आरम्भ किया॥ ३४॥ इन्द्रशक्तिके वज्रप्रहारसे विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य-दानव रक्तकी धारा बहाते हुए पृथ्वीपर सो गये॥३५॥ वाराही शक्तिने कितनोंको अपनी थूथुनकी मारसे नष्ट किया, दाढ़ोंके अग्रभागसे कितनोंकी छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्रकी चोटसे विदीर्ण होकर गिर पड़े॥ ३६॥ नारसिंही भी दूसरे-दूसरे महादैत्योंकी अपने नखोंसे विदीर्ण करके खाती और सिंहनादसे दिशाओं एवं आकाशको गुँजाती हुई युद्ध-दश्षेत्रमें विचरने लगी॥३७॥ कितने ही असुर शिवदूतीके प्रचण्ड अट्टहाससे अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वीपर गिर पड़े और गिरनेपर उन्हें शिवदूतीने उस समय अपना ग्रास बना लिया॥ ३८॥ इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए मातृगणोंको नाना प्रकारके उपायोंसे बड़े-बड़े असुरोंका मर्दन करते देख दैत्यसैनिक भाग खड़े हुए॥ ३९॥ मातृगणोंसे पीड़ित दैत्योंको युद्धसे भागते देख रक्तनीज नामक महादैत्य क्रोधमें भरकर युद्ध करनेके लिये आया॥ ४०॥ उसके शरीरसे जब रक्तकी बूँद पृथ्वीपर गिरती, तब उसीके समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वीपर पैदा हो जाता॥ ४१॥ महासुर रक्तबीज हाथमें गदा लेकर इन्द्रशक्तिके साथ युद्ध करने लगा। तब ऐन्द्रीने अपने वज्रजसे रक्तबीजको मारा॥ ४२॥ वज़से घायल होनेपर उसके शरीरसे बहुत-सा रक्त चूने लगा और उससे उसीके समान रूप तथा पराक्रमवाले योद्धा उत्पन्न होने लगे॥४३॥ उसके शरीरसे रक्तकी जितनी बूँदें गिरी, उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये। वे सब रक्तबीजके समान ही वीर्यवानू, बलवान् तथा पराक्रमी थे॥४४॥ वे रक्तसे उत्पन्न होनेवाले पुरुष भी अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणोंके साथ घोर युद्ध करने लगे ॥ ४५ ॥ पुनः वज्रके प्रहारसे जब उसका मस्तक घायल हुआ, तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये॥४६॥ वैष्णवीने युद्धमें रक्तबीजपर चक्रका प्रहार किया तथा ऐमन्द्रीने उस दैत्यसेनापतिकों गदासे चोट पहुँचायी॥ ४७॥ वैष्णवीके चक्रसे घायल होनेपर उसके शरीरसे जो रक्त बहा और उससे जो उसीके बराबर आकारवाले सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया॥ ४८॥ कौमारीने शक्तिसे, वाराहीने खड्गसे और माहेश्वरीने त्रिशूलसे महादैत्य रक्तनीजको घायल किया॥ ४९ ॥ क्रोधमें भरे हुए उस महादैत्य रक्तबीजने भी गदासे सभी मातृ-शक्तियोंपर पृथक् -पृथक् प्रहार किया॥ ५० ॥ शक्ति और शूल आदिसे अनेक बार घायल होनेपर जो उसके शरीरसे रक्तकी धारा पृथ्वीपर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए॥ ५१॥ इस प्रकार उस महादैत्यके रक्तसे प्रकट हुए असुरोंद्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। इससे उन देवताओंको बड़ा भय हुआ॥ ५२॥ देवताओंको उदास देख चण्डिकाने कालीसे शीघ्रतापूर्वक कहा--' चामुण्डे! तुम अपना मुख और भी फैलाओ॥ ५३॥ तथा मेरे शस्त्रपातसे गिरनेवाले रक्तबिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होनेवाले महादैत्योंकों तुम अपने इस उतावले मुखसे खा जाओ॥ ५४॥ इस प्रकार रक्तसे उत्पन्न होनेवाले महादैत्योंका भक्षण करती हुई तुम रणमें विचरती रहो। ऐसा करनेसे उस दैत्यका सारा रक्त क्षीण हो जानेपर वह स्वयंभी नष्ट हो जायगा॥५०॥ उन भयंकर दैत्योंको जब तुम खा जाओगी, तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे।' कालीसे यों कहकर चण्डिका देवीने शूलसे रक्तबीजको मारा॥ ५६॥ और कालीने अपने मुखमें उसका रक्त ले लिया। तब उसने वहाँ चण्डिकापर गदासे प्रहार किया॥ ५७॥ किंतु उस गदापातने देवीको तनिक भी वेदना नहीं पहुँचायी। रक्तनीजके घायल शरीरसे बहुत-सा रक्त गिरा॥५८॥ किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही चामुण्डाने उसे अपने मुखमें ले लिया। रक्त गिरनेसे कालीके मुखमें जो महादैत्य उत्पन्न हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीजका रक्त भी पी लिया। तदनन्तर देवीने रक्तबीजको, जिसका रक्त चामुण्डाने पी लिया था, वज्र, बाण, खड़्ग तथा ऋष्टि आदिसे मार डाला। राजन् ! इस प्रकार शस्त्रोंक समुदायसे आहत एवं रक्तहीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वीपर गिर पड़ा। नरेश्वर! इससे देवताओंको अनुपम हर्षकी प्राप्ति हुई॥ ५९--६२॥ और मातृगण उन असुरोंके रक्तपानके मदसे उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगा॥ ६३॥ इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें (रक्तनीज-वध ” नायक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ८ ॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 9 Chapter(नवाँ अध्याय)

    नवाँ अध्याय निशुम्भ-वध ध्यान मैं अर्धनारीश्वरके श्रीविग्रहकी निरन्तर शरण लेता (लेती) हूँ। उसका वर्ण बन्धूकपुष्प और सुवर्णके समान रत्त्कपीतमिश्रित है। वह अपनी भुजाओंमें सुन्दर अक्षमाला, पाश, अङ्कुश और वरद-मुद्रा धारण करता है; अर्धचन्द्र उसका आभूषण है तथा वह तीन नेत्रोंसे सुशोभित है। राजाने कहा--॥ १॥ भगवन्! आपने रत्त्कबीजके वधसे सम्बन्ध रखनेवाला देवी-चरित्रका यह अद्भुत माहात्म्य मुझे बतलाया॥ २॥ अब रत्त्कबीजके मारे जानेपर अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए शुम्भ और निशुम्भने जो कर्म किया, उसे मैं सुनना चाहता हूँ॥ ३॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ४॥ राजन्! युद्धमें रत्त्कबीज तथा अन्य दैत्योंके मारे जानेपर शुम्भ और निशुम्भके क्रोधकी सीमा न रही ॥ ५॥ अपनी विशाल सेना इस प्रकार मारी जाती देख निशुम्भ अमर्षमें भरकर देवीकी ओर दौड़ा। उसके साथ असुरोंकी प्रधान सेना थी ॥६॥ उसके आगे, पीछे तथा पार्श्वभागमें बड़े-बड़े असुर थे, जो क्रोधसे ओठ चबाते हुए देवीको मार डालनेके लिये आये॥ ७॥ महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेनाके साथ मातृगणोंसे युद्ध करके क्रोधवश चण्डिकाको मारनेके लिये आ पहुँचा॥ ८॥ तब देवीके साथ शुम्भ और निशुम्भका घोर संग्राम छिड़ गया। वे दोनों दैत्य मेघोंकी भाँति बाणोंकी भयंकर वृष्टि कर रहे थे॥ ९॥ उन दोनोंके चलाये हुए बाणोंको चण्डिकाने अपने बाणोंके समूहसे तुरंत काट डाला और शस्त्रसमूहोंकी वर्षा करके उन दोनों दैत्यपतियोंके अङ्गोंमें भी चोट पहुँचायी॥ १० ॥ निशुम्भने तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवीके श्रेष्ठ वाहन सिंहके मस्तकपर प्रहार किया॥ ११॥ अपने वाहनको चोट पहुँचनेपर देवीने श्षुरप्र नामक बाणसे निशुम्भकी श्रेष्ठ तलवार तुरंत ही काट डाली और उसकी ढालको भी, जिसमें आठ चाँद जड़े थे, खण्ड-खण्ड कर दिया॥ १२॥ ढाल और तलवारके कट जानेपर उस असुरने शत्त्कि चलायी, किंतु सामने आनेपर देवीने चक्रसे उसके भी दो टुकड़े कर दिये॥ १३॥ अब तो निशुम्भ क्रोधसे जल उठा और उस दानवने देवीको मारनेके लिये शूल उठाया; किंतु देवीने समीप आनेपर उसे भी मुक्केसे मारकर चूर्ण कर दिया॥ १४॥ तब उसने गदा घुमाकर चण्डीके ऊपर चलायी, परंतु वह भी देवीके त्रिशूलसे कटकर भस्म हो गयी ॥ १५॥ तदनन्तर दैत्यराज निशुम्भकों फरसा हाथमें लेकर आते देख देवीने बाणसमूहोंसे घायलकर धरतीपर सुला दिया॥ १६॥ उस भयंकर पराक्रमी भाई निशुम्भके धराशायी हो जानेपर शुम्भको बड़ा क्रोध हुआ और अम्बिकाका वध करनेके लिये वह आगे बढ़ा॥ १७॥ रथपर बैठे-बैठे ही उत्तम आयुधोंसे सुशोभित अपनी बड़ी-बड़ी आठ अनुपम भुजाओंसे समूचे आकाशको ढककर वह अद्भुत शोभा पाने लगा॥ १८ ॥ उसे आते देख देवीने शङ्ख बजाया और धनुषकी प्रत्यञ्चाका भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया॥ १९॥ साथ ही अपने घण्टेके शब्दसे, जो समस्त दैत्य-सैनिकोंका तेज नष्ट करनेवाला था, सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त कर दिया॥२०॥ तदनन्तर सिंहने भी अपनी दहाड़से, जिसे सुनकर बड़े-बड़े गजराजोंका महान् मद दूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओंको गुँजा दिया॥ २१॥ फिर कालीने आकाशमें उछलकर अपने दोनों हाथोंसे पृथ्वीपर आघात किया। उससे ऐसा भयंकर शब्द हुआ, जिससे पहलेके सभी शब्द शान्त हो गये॥ २२॥ तत्पश्चात् शिवदूतीने दैत्योंके लिये अमङ्गलजनक अट्टहास किया, इन शब्दोंको सुनकर समस्त असुर थर्य उठे; किंतु शुम्भको बड़ा क्रोध हुआ॥२३॥ उस समय देवीने जब शुम्भको लक्ष्य करके कहा--' ओ दुरात्मन् ! खड़ा रह, खड़ा रह', तभी आकाशमें खड़े हुए देवता बोल उठे-- जय हो, जय हो'॥ २४॥ शुम्भने वहाँ आकर ज्वालाओंसे युत्त्क अत्यन्त भयानक शत्त्कि चलायी। अग्निमय पर्वतके समान आती हुई उस शत्त्किको देवीने बड़े भारी लूकेसे दूर हटा दिया॥२५॥ उस समय शुम्भके सिंहनादसे तीनों लोक गूँज उठे। राजन्! उसकी प्रतिध्वनिसे वज़्पातके समान भयानक शब्द हुआ, जिसने अन्य सब शब्दोंको जीत लिया॥ २६॥ शुम्भके चलाये हुए बाणोंके देवीने और देवीके चलाये हुए बाणोंके शुम्भने अपने भयंकर बाणोंद्वारा सैकड़ों और हजारों टुकड़े कर दिये॥ २७॥ तब क्रोधमें भरी हुई चण्डिकाने शुम्भकों शूलसे मारा। उसके आघातसे मूच्छित हो वह पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ २८॥ इतनेमें ही निशुम्भकभो चेतना हुई और उसने धनुष हाथमें लेकर बाणोंद्वारा देवी, काली तथा सिंहको घायल कर डाला॥ २९॥ फिर उस दैत्यराजने दस हजार बाँहें बनाकर चक्रोंके प्रहारसे चण्डिकाको आच्छादित कर दिया॥३०॥ तब दुर्गम पीड़ाका नाश करनेवाली भगवती दुर्गने कुपित होकर अपने बाणोंसे उन चक्रों तथा बाणोंको काट गिराया॥३१॥ यह देख निशुम्भ दैत्यसेनाके साथ चण्डिकाका वध करनेके लिये हाथमें गदा ले बड़े वेगसे दौड़ा॥ ३२॥ उसके आते ही चण्डीने तीखी धारवाली तलवारसे उसकी गदाको शीघ्र ही काट डाला। तब उसने शूल हाथमें ले लिया॥ ३३॥ देवताओंको पीड़ा देनेवाले निशुम्भको शूल हाथमें लिये आते देख चण्डिकाने वेगसे चलाये हुए अपने शूलसे उसकी छाती छेद डाली ॥ ३४ ॥ शूलसे विदीर्ण हो जानेपर उसकी छातीसे एक दूसरा महाबली एवं महापराक्रमी पुरुष 'खड़ी रह, खड़ी रह' कहता हुआ निकला॥ ३५॥ उस निकलते हुए पुरुषकी बात सुनकर देवी ठठाकर हँस पड़ीं और खड्गसे उन्होंने उसका मस्तक काट डाला। फिर तो वह पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ ३६॥ तदनन्तर सिंह अपनी दाढ़ोंसे असुरोंकी गर्दन कुचलकर खाने लगा, यह बड़ा भयंकर दृश्य था। उधर काली तथा शिवदूतीने भी अन्यान्य दैत्योंका भक्षण आरम्भ किया॥ ३७॥ कौमारीकी शत्त्किसे विदीर्ण होकर कितने ही महादैत्य नष्ट हो गये। ब्रह्माणीके मन्त्रपूत जलसे निस्तेज होकर कितने ही भाग खड़े हुए॥ ३८॥ कितने ही दैत्य माहे श्वरीके त्रिशूलसे छिन्न-भिन्न हो धराशायी हो गये। वाराहीके थूथुनके आघातसे कितनोंका पृथ्वीपर कचूमर निकल गया॥ ३९॥ वैष्णवीने भी अपने चक्रसे दानवोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। ऐन्द्रीके हाथसे छूटे हुए वज्रसे भी कितने ही प्राणोंसे हाथ धो बैठे ॥ ४०॥ कुछ असुर नष्ट हो गये, कुछ उस महायुद्धसे भाग गये तथा कितने ही काली, शिवदूती तथा सिंहके ग्रास बन गये॥ ४१॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 10 Chapter (दसवाँ अध्याय)

    दसवाँ अध्याय शुम्भ-वध ध्यान मैं मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाली शिवशत्त्किस्वरूपा भगवती कामेश्वरीका हृदयमें चिन्तन करता (करती) हूँ। वे तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दर हैं। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि-- ये ही तीन उनके नेत्र हैं तथा वे अपने मनोहर हाथोंमें धनुष- बाण, अल्भुश, पाश और शूल धारण किये हुए हैं। ऋषि कहते हैं-- ॥ १॥ राजन् ! अपने प्राणोंके समान प्यारे भाई निशुम्भको मारा गया देख तथा सारी सेनाका संहार होता जान शुम्भने कुपित होकर कहा-- ॥ २॥ ' दुष्ट दुर्गे ! तूब लके अभिमानमें आकर झूठ-मूठका घमंड न दिखा। तू बड़ी मानिनी बनी हुई है, किंतु दूसरी स्त्रियोंक बलका सहारा लेकर लड़ती है'॥ ३॥ देवी बोलीं--॥४॥ ओ दुष्ट! मैं अकेली ही हूँ। इस संसारमें मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अत: मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं॥ ५॥ तदनन्तर ब्रह्माणी आदि समस्त देवियाँ अम्बिका देवीके शरीरमें लीन हो गयीं। उस समय केवल अम्बिका देवी ही रह गयीं ॥ ६॥ देवी बोलीं-- ॥ ७॥ मैं अपनी ऐश्वर्यत्त्किसे अनेक रूपोंमें यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपोंको मैंने समेट लिया। अब अकेली ही युद्धमें खड़ी हूँ। तुम भी स्थिर हो जाओ॥ ८॥ ऋषि कहते हैं-- ॥ ९॥ तदनन्तर देवी और शुम्भ दोनोंमें सब देवताओं तथा दानवोंके देखते-देखते भयंकर युद्ध छिड़ गया॥ १०॥ बाणोंकी वर्षा तथा तीखे शस्त्रों एवं दारुण अस्त्रोंके प्रहारके कारण उन दोनोंका युद्ध सब लोगोंके लिये बड़ा भयानक प्रतीत हुआ॥ ११५॥ उस समय अम्बिका देवीने जो सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोड़े, उन्हें दैत्यराज शुम्भने उनके निवारक अस्त्रोंद्वारा काट डाला॥ १२॥ इसी प्रकार शुम्भने भी जो दिव्य अस्त्र चलाये; उन्हें परमेश्वरीने भयंकर हुंकार शब्दके उच्चारण आदिद्वारा खिलवाड़में ही नष्ट कर डाला॥१३॥ तब उस असुरने सैकड़ों बाणोंसे देवीको आच्छादित कर दिया। यह देख क्रोधमें भरी हुई उन देवीने भी बाण मारकर उसका धनुष काट डाला॥ १४॥ धनुष कट जानेपर फिर दैत्यराजने शत्त्कि हाथमें ली, किंतु देवीने चक्रसे उसके हाथकी शत्त्किको भी काट गिराया॥ १५ ॥ तत्पश्चात् दैत्योंके स्वामी शुम्भने सौ चाँदवाली चमकती हुई ढाल और तलवार हाथमें ले उस समय देवीपर धावा किया॥ १६॥ उसके आते ही चण्डिकाने अपने धनुषसे छोड़े हुए तीखे बाणोंद्वार उसकी सूर्यकरणोंके समान उज्ज्वल ढाल और तलवारको तुरंत काट दिया॥ १७॥ फिर उस दैत्यके घोड़े और सारथि मारे गये, धनुष तो पहले ही कट चुका था, अब उसने अम्बिकाको मारनेके लिये उद्यत हो भयंकर मुद्गर हाथमें लिया॥ १८॥ उसे आते देख देवीने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसका मुद्गर भी काट डाला, तिसपर भी वह असुर मुक्का तानकर बड़े वेगसे देवीकी ओर झपटा॥ १९ ॥ उस देत्यराजने देवीकी छातीमें मुक्का मारा, तब उन देवीने भी उसकी छातीमें एक चाँटा जड़ दिया॥ २०॥ देवीका थप्पड़ खाकर दैत्यराज शुम्भ पृथ्वीपर गिर पड़ा, किंतु पुनः सहसा पूर्ववत् उठकर खड़ा हो गया॥ २१५॥ फिर वह उछला और देवीको ऊपर ले जाकर आकाशमें खड़ा हो गया; तब चण्डिका आकाशमें भी बिना किसी आधारके ही शुम्भके साथ युद्ध करने लगीं॥ २२॥ उस समय दैत्य और चण्डिका आकाशमें एक-दूसरेसे लड़ने लगे। उनका वह युद्ध पहले सिद्ध और मुनियोंको विस्मयमें डालनेवाला हुआ॥ २३॥ फिर अम्बिकाने शुम्भके साथ बहुत देरतक युद्ध करनेके पश्चात् उसे उठाकर घुमाया और पृथ्वीपर पटक दिया॥ २४॥ पटके जानेपर पृथ्वीपर आनेके बाद वह दुष्टात्मा दैत्य पुनः चण्डिकाका वध करनेके लिये उनकी ओर बड़े वेगसे दौड़ा॥ २५॥ तब समस्त दैत्योंके राजा शुम्भभो अपनी ओर आते देख देवीने त्रिशुलसे उसकी छाती छेदकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया॥ २६॥ देवीके शूलकी धारसे घायल होनेपर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह समुद्रों, द्वीपों तथा पर्वतोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ भूमिपर गिर पड़ा॥ २७॥ तदनन्तर उस दुरात्माके मारे जानेपर सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ दिखायी देने लगा॥ २८ ॥ पहले जो उत्पातसूचक मेघ और उल्कापात होते थे, वे सब शान्त हो गये तथा उस दैत्यके मारे जानेपर नदियाँ भी ठीक मार्गसे बहने लगीं॥ २९॥ उस समय शुम्भकी मृत्युके बाद सम्पूर्ण देवताओंका हृदय हर्षसे भर गया और गन्धर्वगण मधुर गीत गाने लगे॥ ३० ॥ दूसरे गन्धर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वायु बहने लगी। सूर्यकी प्रभा उत्तम हो गयी॥ ३१॥ अग्निशालाकी बुझी हुई आग अपने-आप प्रज्वलित हो उठी तथा सम्पूर्ण दिशाओंके भयंकर शब्द शान्त हो गये॥ ३२॥

    Durga saptashati(दुर्गा सप्तशती) 11 Chapter (ग्यारहवाँ अध्याय)

    ग्यारहवाँ अध्याय देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा देवताओंको वरदान ध्यान मैं भुवनेश्वरी देवीका ध्यान करता (करती) हूँ। उनक श्रीअङ्गोंकी आभा प्रभातकालके सूर्यके समान है और मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है। वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रोंसे युत्त्क हैं। उनके मुखपर मुसकानकी छटा छायी रहती है और हाथोंमें वरद, अङ्कुश, पाश एवं अभय-मुद्रा शोभा पाते हैं। ऋषि कहते हैं--॥१॥ देवीके द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भके मारे जानेपर इन्द्र आदि देवता अग्निको आगे करके उन कात्यायनी देवीकी स्तुति करने लगे। उस समय अभीष्टकी प्राप्ति होनेसे उनके मुखकमल दमक उठे थे और उनके प्रकाशसे दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं॥ २॥ देवता बोले--शरणागतकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि ! विश्वकी रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो॥३॥ तुम इस जगत् का एकमात्र आधार हो; क्योंकि पृथ्वीरूपमें तुम्हारी ही स्थिति है। देवि! तुम्हारा पराक्रम अलङ्घनीय है। तुम्हीं जलरूपमें स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करती हो॥४॥ तुम अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शत्त्कि हो। इस विश्वकी कारणभूता परा माया हो। देवि! तुमने इस समस्त जगत् को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होनेपर इस पृथ्वीपर मोक्षकी प्राप्ति कराती हो॥५॥ देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्वको व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थोंसे परे एवं परा वाणी हो॥६॥ जब तुम सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली हो, तब इसी रूपमें तुम्हारी स्तुति हो गयी। तुम्हारी स्तुतिके लिये इससे अच्छी उत्त्कियाँ और क्या हो सकती हैं ?॥ ७॥ बुद्धिरूपसे सब लोगोंके हृदयमें विराजमान रहनेवाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥ ८॥ कला, काष्ठा आदिके रूपसे क्रमश: परिणाम-( अवस्था-परिवर्तन-) की ओर ले जानेवाली तथा विश्वका उपसंहार करनेमें समर्थ नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है॥९॥ नारायणी | तुम सब प्रकारका मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थोकों सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंबाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है॥१०॥ तुम सृष्टि, पालन और संहारकी शत्त्किभूता, सनातनी देवी, गुणोंका आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ ११ ॥ शरणमें आये हुए दीनों एवं पीड़ितोंकी रक्षामें संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ १२॥ नारायणि! तुम ब्रह्माणीका रूप धारण करके हंसोंसे जुते हुए विमानपर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हें नमस्कार है॥ १३ ॥ माहे श्वरीरूपसे त्रिशूल, चन्द्रमा एवं सर्पको धारण करनेवाली तथा महान् वृषभकी पीठपर बैठनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ १४॥ मोरों और मुर्गोंसे घिरी रहनेवाली तथा महाशत्त्कि धारण करनेवाली कौमारीरूपधारिणी निष्पापे नारायणि! तुम्हें नमस्कार है ॥ १५ ॥ शङ्ख, चक्र, गदा और शार्ङ्गंनुषरूप उत्तम आयुधोंको धारण करनेवाली बैष्णवी शत्त्किरूपा नारायणि! तुम प्रसन्न होओ। तुम्हें नमस्कार है॥१६॥ हाथमें भयानक महाचक्र लिये और दाढ़ोंपर धरतीको उठाये वाराहीरूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है॥ १७॥ भयंकर नृसिंहरूपसे दैत्योंके वधके लिये उद्योग करनेवाली तथा त्रिभुवनकी रक्षामें संलग्न रहनेवाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १८॥ मस्तकपर किरीट और हाथमें महावज़ धारण करनेवाली, सहस्र नेत्रोंके कारण उद्दीप्त दिखायी देनेवाली और वृत्रासुरके प्राणोंका अपहरण करनेवाली इन्द्रशत्त्किरूपा नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥ १९॥ शिवदूतीरूपसे दैत्योंकी महती सेनाका संहार करनेवाली, भयंकर रूप धारण तथा विकट गर्जना करनेवाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ २० ॥ दाढ़ोंक कारण विकराल मुखवाली मुण्डमालासे विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ २१॥ लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, श्र॒वा, महारात्रि तथा महाअविद्यारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ २२॥ मेधा, सरस्वती, वरा (श्रेष्ठा), भूति (ऐश्वर्यरूपा), बाभ्रवी (भूरे रंगकी अथवा पार्वती), तामसी (महाकाली), नियता (संयमपरायणा) तथा ईशा-(सबकी अधीश्वरी ) रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ २३॥ सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकारकी शत्त्कियोंसे सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयोंसे हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है॥ २४॥ कात्यायनी! यह तीन लोचनोंसे विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकारके भयोंसे हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है॥२५॥ भद्रकाली! ज्वालाओंके कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरोंका संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भयसे हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है॥ २६॥ देवि! जो अपनी ध्वनिसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्योंके तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगोंकी पापोंसे उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रोंकी बुरे कर्मोंसे रक्षा करती है॥ २७॥ चण्डिके ! तुम्हारे हाथोंमें सुशोभित खड्ग, जो असुरोंके रत्त्क और चर्बीसे चर्चित है, हमारा मङ्गा करे। हम तुम्हें नमस्कार करते हैं॥ २८॥ देवि! तुम प्रसन्न होनेपर सब रोगोंको नष्ट कर देती हो और कुपित होनेपर मनोवाञ्छित सभी कामनाओंका नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरणमें जा चुके हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरणमें गये हुए मनुष्य दूसरोंको शरण देनेवाले हो जाते हैं॥ २९॥ देवि! अम्बिके! तुमने अपने स्वरूपको अनेक भागोंमें विभत्त्क करके नाना प्रकारके रूपोंस जो इस समय इन धर्मद्रोही महादैत्योंका संहार किया है, वह सब दूसरी कौन कर सकती थी ?॥ ३०॥ विद्याओंमें, ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले शास्त्रोंमें तथा आदिवाक्यों-(वेदों-) में तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है ? तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शत्त्कि है, जो इस विश्वको अज्ञानमय घोर अन्धकारसे परिपूर्ण ममतारूपी गढ़ेमें निरन्तर भटका रही हो॥३१॥ जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरोंकी सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्रके बीचमें भी साथ रहकर तुम विश्वकी रक्षा करती हो॥३२॥ विश्वेश्वरि ! तुम विश्वका पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्वको धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथकी भी वन्दनीया हो। जो लोग भत्त्किपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्वको आश्रय देनेवाले होते हैं ॥ ३३ ॥ देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरोंका वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओंके भयसे बचाओ। सम्पूर्ण जगत्का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापोंके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े उपद्रवोंको शीघ्र दूर करो॥ ३४॥ विश्वकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणोंपर पड़े हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियोंकी पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगोंको वरदान दो॥ ३५॥ देवी बोलीं-- ॥ ३६॥ देवताओ।! मैं वर देनेको तैयार हूँ। तुम्हारे मनमें जिसकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। संसारके लिये उस उपकारक वरको मैं अवश्य दूँगी॥३७॥ देवता बोले-- ॥ ३८॥ सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकोंकी समस्त बाधाओंको शान्त करो और हमारे शत्रुओंका नाश करती रहो॥ ३९॥ देवी बोलीं-- ॥ ४० ॥ देवताओ ! बैवस्वत मन्वन्तरके अट्ठाईसवें युगमें शुम्भ और निशुम्भ नामके दो अन्य महादैत्य उत्पन्न होंगे॥ ४१॥ तब मैं नन्दगोपके घरमें उनकी पत्नी यशोदाके गर्भसे अवतीर्ण हो विन्ध्याचलमें जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरोंका नाश करूँगी॥४२॥ फिर अत्यन्त भयंकर रूपसे पृथ्वीपर अवतार ले मैं विप्रचित्ति नामवाले दानवोंका वध करूँगी॥ ४३ ॥ उन भयंकर महादैत्योंको भक्षण करते समय मेरे दाँत अनारके फूलकी भाँति लाल हो जायूँगे॥४४॥ तब स्वर्गमें देवता और मर्त्यलोकमें मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए मुझे 'रत्त्कदन्तिका' कहेंगे ॥ ४५॥ फिर जब पृथ्वीपर सौ वर्षके लिये वर्षा रुक जायगी और पानीका अभाव हो जायगा, उस समय मुनियोंके स्तवन करनेपर मैं पृथ्वीपर अयोनिजारूपमें प्रकट होऊँगी ॥ ४६ ॥ और सौ नेत्रोंसे मुनियोंको देखूँगी। अतः मनुष्य 'शताक्षी' इस नामसे मेरा कीर्तन करेंगे॥ ४७॥ देवताओ | उस समय मैं अपने शरीरसे उत्पन्न हुए शाकोंद्वार समस्त संसारका भरण-पोषण करूँगी। जबतक वर्षा नहीं होगी, तबतक वे शाक ही सबके प्राणोंकी रक्षा करेंगे॥४८॥ ऐसा करनेके कारण पृथ्वीपर 'शाकम्भरी' के नामसे मेरी ख्याति होगी। उसी अवतारमें मैं दुर्गम नामक महादैत्यका वध भी करूँगी॥ ४९ ॥ इससे मेरा नाम 'दुर्गदिवी' के रूपसे प्रसिद्ध होगा। फिर मैं जब भीमरूप धारण करके मुनियोंकी रक्षाके लिये हिमालयपर रहनेवाले राक्षसोंका भक्षण करूँगी, उस समय सब मुनि भत्त्किसे नतमस्तक होकर मेरी स्तुति करेंगे॥ ५०-५१ ॥ तब मेरा नाम 'भीमादेवी ' के रूपमें विख्यात होगा। जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकोंमें भारी उपद्रव मचायेगा ॥ ५२ ॥ तब मैं तीनों लोकोंका हित करनेके लिये छः पैरोंवाले असंख्य भ्रमरोंका रूप धारण करके उस महादैत्यका वध करूँगी॥ ५३ ॥ उस समय सब लोग ' भ्रामरी ' के नामसे चारों ओर मेरी स्तुति करेंगे। इस प्रकार जब-जब संसारमें दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर में शत्रुओंका संहार करूँगी॥ ५४-५५ ॥

    Durga Saptashati-12 Chapter (दुर्गा सप्तशती-बारहवाँ अध्याय)

    बारहवाँ अध्याय देवी-चरित्रोंक पाठका माहात्म्य ध्यान मैं तीन नेत्रोंवाली दुर्गादवीका ध्यान करता (करती) हूँ, उनके श्रीअङ्गोंकी प्रभा बिजलीके समान है। वे सिंहके कंधेपर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती हैं। हाथोंमें तलवार और ढाल लिये अनेक कन्याएँ उनकी सेवामें खड़ी हैं। वे अपने हाथोंमें चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। उनका स्वरूप अग्रिमय है तथा वे माथेपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करती हैं। देवी बोलीं--॥१॥ देवताओ! जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इन स्तुतियोंसे मेरा स्तवन करेगा, उसकी सारी बाधा में निश्चय ही दूर कर दूँगी॥ २॥ जो मधुकैटभका नाश, महिषासुरका वध तथा शुम्भ-निशुम्भके संहारके प्रसङ्गका पाठ करेंगे॥ ३॥ तथा अष्टमी, चतुर्दशी और नवमीको भी जो एकाग्रचित्त हो भत्त्किपूर्वक मेरे उत्तम माहात्म्यका श्रवण करेंगे॥ ४॥ उन्हें कोई पाप नहीं छू सकेगा। उनपर पापजनित आपत्तियाँ भी नहीं आयेंगी। उनके घरमें कभी दरिद्रता नहीं होगी तथा उनको कभी प्रेमीजनोंके विछोहका कष्ट भी नहीं भोगना पड़ेगा॥ ५॥ इतना ही नहीं, उन्हें शत्रुसे, लुटेरोंसे, राजासे, शस्त्रसे, अग्नरिसे तथा जलकी राशिसे भी कभी भय नहीं होगा॥६॥ इसलिये सबको एकाग्रचित्त होकर भत्त्किपूर्वक मेरे इस माहात्म्यको सदा पढ़ना और सुनना चाहिये। यह परम कल्याणकारक है॥७॥ मेरा माहात्म्य महामारीजनित समस्त उपद्रवों तथा आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके उत्पातोंको शान्त करनेवाला है॥८॥ मेरे जिस मन्दिरमें प्रतिदिन विधिपूर्वक मेरे इस माहात्म्यका पाठ किया जाता है, उस स्थानको मैं कभी नहीं छोड़ती। वहाँ सदा ही मेरा सन्निधान बना रहता है॥९॥ बलिदान, पूजा, होम तथा महोत्सवके अवसरोंपर मेरे इस चरित्रका पूरा-पूरा पाठ और श्रवण करना चाहिये॥ १०॥ ऐसा करनेपर मनुष्य विधिको जानकर या बिना जाने भी मेरे लिये जो बलि, पूजा या होम आदि करेगा, उसे मैं बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्रहण करूँगी॥ ११॥ शरत्कालमें जो वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसरपर जो मेरे इस माहात्म्यको भत्त्किपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरे प्रसादसे सब बाधाओंसे मुत्त्क तथा धन, धान्य एवं पुत्रसे सम्पन्न होगा-- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है॥ १२-१३ ॥ मेरे इस माहात्म्य, मेरे प्रादर्भावकी सुन्दर कथाएँ तथा युद्धमें किये हुए मेरे पराक्रम सुननेसे मनुष्य निर्भय हो जाता है॥ १४॥ मेरे माहात्म्यका श्रवण करनेवाले पुरुषोंके शत्रु नष्ट हो जाते हैं, उन्हें कल्याणकी प्राप्ति होती तथा उनका कुल आनन्दित रहता है॥ १५॥ सर्वत्र शान्ति- कर्ममें, बुरे स्वप्न दिखायी देनेपर तथा ग्रहजनित भयंकर पीड़ा उपस्थित होनेपर मेरा माहात्म्य श्रवण करना चाहिये॥ १६॥ इससे सब विप्न तथा भयंकर ग्रह-पीड़ाएँ शान्त हो जाती हैं और मनुष्योंद्रारा देखा हुआ दुःस्वप्र शुभ स्वप्रमें परिवर्तित हो जाता है॥ १७॥ बालग्रहोंसे आक्रान्त हुए बालकोंके लिये यह माहात्म्य शान्तिकारक है तथा मनुष्योंके संगठनमें फूट होनेपर यह अच्छी प्रकार मित्रता करानेवाला होता है॥ १८॥ यह माहात्म्य समस्त दुराचारियोंक बलका नाश करानेवाला है। इसके पाठमात्रसे राक्षसों, भूतों और पिशाचोंका नाश हो जाता है॥ १९ ॥ मेरा यह सब माहात्म्य मेरे सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है। सम्यक् प्रकार पुष्प, अर्ध्य, धूप, दीप, गन् न्ध आदि उत्तम सामग्रियोंद्वारा पूजन करनेसे, ब्राह्मणोंकों भोजन करानेसे, होम करनेसे, प्रतिदिन अभिषेक करनेसे, नाना प्रकारके अन्य भोगोंका अर्पण करनेसे तथा दान देने आदिसे एक वर्षतक जो मेरी आराधना की जाती है और उससे मुझे जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी प्रसन्नता मेरे इस उत्तम चरित्रका एक बार श्रवण करनेमात्रसे हो जाती है। यह माहात्म्य श्रवण करनेपर पापोंको हर लेता और आरोग्य प्रदान करता है॥ २०--२२॥ मेरे प्रादुर्भावका कीर्तन समस्त भूतोंसे रक्षा करता है तथा मेरा युद्धविषयक चरित्र दुष्ट दैत्योंका संहार करनेवाला है॥ २३॥ इसके श्रवण करनेपर मनुष्योंको शत्रुका भय नहीं रहता। देवताओ! तुमने और ब्रह्मर्षियोंने जो मेरी स्तुतियाँ की हैं॥२४॥ तथा ब्रह्माजीने जो स्तुतियाँ की हैं, वे सभी कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। वनमें, सूने मार्गमें अथवा दावानलसे घिर जानेपर॥ २५॥ निर्जन स्थानमें, लुटेरोंके दावमें पड़ जानेपर या शत्रुओंसे पकड़े जानेपर अथवा जंगलमें सिंह, व्याप्र या जंगली हाथियोंके पीछा करनेपर॥ २६॥ कुपित राजाके आदेशसे वध या बन्धनके स्थानमें ले जाये जानेपर अथवा महासागरमें नावपर बैठनेके बाद भारी तूफानसे नावके डगमग होनेपर॥ २७॥ और अत्यन्त भयंकर युद्धमें शस्त्रोंका प्रहार होनेपप अथवा वेदनासे पीड़ित होनेपर, कि बहुना, सभी भयानक बाधाओंके उपस्थित होनेपर ॥ २८ ॥ जो मेरे इस चरित्रका स्मरण करता है, वह मनुष्य संकटसे मुत्त्क हो जाता है। मेरे प्रभावसे सिंह आदि हिंसक जत्तु नष्ट हो जाते हैं तथा लुटेरे और शत्रु भी मेरे चरित्रका स्मरण करनेवाले पुरुषसे दूर भागते हैं॥ २९-३० ॥ ऋषि कहते हैं--॥ ३१॥ यों कहकर प्रचण्ड पराक्रमवाली भगवती चण्डिका सब देवताओंके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं। फिर समस्त देवता भी शत्रुओंके मारे जानेसे निर्भय हो पहलेकी ही भाँति यज्ञभागका उपभोग करते हुए अपने- अपने अधिकारका पालन करने लगे। संसारका विध्वंस करनेवाले महाभयंकर अतुलपराक्रमी देवशत्रु शुम्भ तथा महाबली निशुम्भके युद्धमें देवीद्वारा मारे जानेपर शेष दैत्य पाताललोकमें चले आये॥ ३२--३५॥ राजनू् ! इस प्रकार भगवती अम्बिकादेवी नित्य होती हुई भी पुनः-पुनः प्रकट होकर जगत् की रक्षा करती हैं ॥३६॥ वे ही इस विश्वको मोहित करतीं, वे ही जगत् को जन्म देतीं तथा वे ही प्रार्थना करनेपर संतुष्ट हो विज्ञान एवं समृद्धि प्रदान करती हैं॥ ३७॥ राजन् ! महाप्रलयके समय महामारीका स्वरूप धारण करनेवाली वे महाकाली ही इस समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त हैं॥३८॥ वे ही समय-समयपर महामारी होती और वे ही स्वयं अजन्मा होती हुई भी सृष्टिके रूपमें प्रकट होती हैं। वे सनातनी देवी ही समयानुसार सम्पूर्ण भूतोंकी रक्षा करती हैं॥३५९॥ मनुष्योंके अभ्युदयके समय वे ही घरमें लक्ष्मीके रूपमें स्थित हो उन्नति प्रदान करती हैं और वे ही अभावके समय दरिद्रता बनकर विनाशका कारण होती हैं॥४०॥ पुष्प, धूप और गन्ध आदिसे पूजन करके उनकी स्तुति करनेपर बे धन, पुत्र, धार्मिक बुद्धि तथा उत्तम गति प्रदान करती हैं॥ ४१॥

    Durga Saptashati 13 Chapter (दुर्गा सप्तशती तेरहवाँ अध्याय)

    तेरहवाँ अध्याय सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान ध्यान जो उदयकालके सूर्यमण्डलकी-सी कान्ति धारण करनेवाली हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं तथा जो अपने हाथोंमें पाश, अङ्कुश, वर एवं अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं, उन शिवादेवीका मैं ध्यान करता (करती) हूँ। ऋषि कहते हैं-- ॥ १ ॥ राजन्! इस प्रकार मैंने तुमसे देवीके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया। जो इस जगत् को धारण करती हैं, उन देवीका ऐसा ही प्रभाव है॥ २॥ वे ही विद्या (ज्ञान) उत्पन्न करती हैं। भगवान् विष्णुकी मायास्वरूपा उन भगवतीके द्वारा ही तुम, ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन मोहित होते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होंगे। महाराज! तुम उन्हीं परमेश्वरीकी शरणमें जाओ ॥ ३-४॥ आराधना करनेपर वे ही मनुष्योंको भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं ॥ ५॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं-- ॥ ६॥ क्रौष्टकिजी! मेधामुनिके ये वचन सुनकर राजा सुरथने उत्तम ब्रतका पालन करनेवाले उन महाभाग महर्षिको प्रणाम किया। वे अत्यन्त ममता और राज्यापहरणसे बहुत खिन्न हो चुके थे ॥ ७-८ ॥ महामुने! इसलिये विरत्त्क होकर वे राजा तथा वैश्य तत्काल तपस्याको चले गये और वे जगदम्बाके दर्शनके लिये नदीके तटपर रहकर तपस्या करने लगे॥ ९॥ वे वैश्य उत्तम देवीसूत्त्कका जप करते हुए तपस्यामें प्रवृत्त हुए। वे दोनों नदीके तटपर देवीकी मिट्टीकी मूर्ति बनाकर पुष्प, धूप और हवन आदिके द्वारा उनकी आराधना करने लगे। उन्होंने पहले तो आहारको धीरे-धीरे कम किया; फिर बिलकुल निराहार रहकर देवीमें ही मन लगाये एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन आरम्भ किया॥ १०-११॥ वे दोनों अपने शरीरके रत्त्कसे प्रोक्षित बलि देते हुए लगातार तीन वर्षतक संयमपूर्वक आराधना करते रहे ॥ १२॥ इसपर प्रसन्न होकर जगत् को धारण करनेवाली चण्डिका देवीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा॥ १३॥ देवी बोलीं-- ॥ १४॥ राजन्! तथा अपने कुलको आनन्दित करनेवाले वैश्य! तुमलोग जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, वह मुझसे माँगो। मैं संतुष्ट हूँ, अतः तुम्हें वह सब कुछ दूँगी॥ १५॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं-- ॥ १६॥ तब राजाने दूसरे जन्ममें नष्ट न होनेवाला राज्य माँगा तथा इस जन्ममें भी शत्रुओंकी सेनाको बलपूर्वक नष्ट करके पुनः अपना राज्य प्राप्त कर लेनेका वरदान माँगा॥ १७॥ वैश्यका चित्त संसारकी ओरसे खिन्न एवं विरत्त्क हो चुका था और वे बड़े बुद्धिमान् थे; अत: उस समय उन्होंने तो ममता और अहंतारूप आसत्त्किका नाश करनेवाला ज्ञान माँगा ॥ १८ ॥ देवी बोलीं-- ॥ १९ ॥ राजन्! तुम थोड़े ही दिनोंमें शत्रुओंको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लोगे। अब वहाँ तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा॥ २०-२१॥ फिर मृत्युके पश्चात् तुम भगवान् विवस्वान् -(सूर्य-) के अंशसे जन्म लेकर इस पृथ्वीपर सावर्णिक मनुके नामसे विख्यात होओगे॥ २२-२३॥ वैश्यवर्य | तुमने भी जिस वरको मुझसे प्राप्त करनेकी इच्छा की है, उसे देती हूँ। तुम्हें मोक्षके लिये ज्ञान प्राप्त होगा॥ २४-२५॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं-- ॥ २६॥ इस प्रकार उन दोनोंको मनोवाञ्छित वरदान देकर तथा उनके द्वारा भत्त्किपूर्वक अपनी स्तुति सुनकर देवी अम्बिका तत्काल अन्तर्धान हो गयीं। इस तरह देवीसे वरदान पाकर क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ सुरथ सूर्यसे जन्म ले सावर्णि नामक मनु होंगे॥ २७--२९॥