Manusmriti Chapter 8 (मनुस्मृति आठवाँ अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ मनुस्मृति ॥ ॥ अथ अष्टमोऽध्यायः आठवाँ अध्याय ॥ व्यवहार-निर्णय- विवाद आदि व्यवहारान् दिदृक्षुस्तु ब्राह्मणैः सह पार्थिवः । मन्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिश्चैव विनीतः प्रविशेत् सभाम् ॥ ॥१॥ तत्रासीनः स्थितो वाऽपि पाणिमुद्यम्य दक्षिणम् । विनीतवेषाभरणः पश्येत् कार्याणि कार्यिणाम् ॥ ॥२॥ प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः । अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक् पृथक् ॥ ॥३॥ तेषामाद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः । संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च ॥ ॥४॥ वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः । क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः ॥ ॥५॥ सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके । स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीस‌ङ्ग्रहणमेव च ॥ ॥६॥ स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च । पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह ॥ ॥७॥ राजा को विद्वान् ब्राह्मण और राजनीति चतुर मन्त्रियों के साथ वादी और प्रतिवादियों के विचारार्थ नम्रता से राजसभा में प्रवेश करना चाहिए। वहाँ जाकर, दाहिना हाथ उठाकर, बैठ कर या खडे ही काम वालों के कार्यों को देखे। और वंश, जाति आदि देशव्यवहार और शास्त्रोक्त साक्षी, शपथ आदि के अनुसार अठारह प्रकार के विवाद-झगड़ों का अलग अलग विचार-फैसला करे। उन अठारह विवादों के नाम इस प्रकार है । (१) ऋण लेकर न देना (२) धरोहर (३) दूसरे की वस्तु को बेचना (४) साझे का व्यापार (५) दान दिया हुआ लौटा लेना (६) नौकरी न देना (७) प्रतिज्ञा भंग करना (८) खरीद-बेच का झगड़ा (९) पशु स्वामी और चरवाहे का झगड़ा (१०) सीमा की लड़ाई (११) बड़ी बात कहना (१२) मार पीट (१३) चोरी (१४) अत्याचार (१५) पर स्त्री का हरण (१६) स्त्री और पुरुष के धर्म की व्यवस्था (१७) जुआखोरी (१८) जानवरों की लड़ाई में हार जीत का दाँव करना है इस संसार में ये १८ दावा होने के कारण हैं ॥१- ७॥ एषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम् । धर्मं शाश्वतमाश्रित्य कुर्यात् कार्यविनिर्णयम् ॥ ॥८॥ यदा स्वयं न कुर्यात् तु नृपतिः कार्यदर्शनम् । तदा नियुञ्ज्याद् विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने ॥ ॥९॥ सोऽस्य कार्याणि सम्पश्येत् सभ्यैरेव त्रिभिर्वृतः । सभामेव प्रविश्याग्यामासीनः स्थित एव वा ॥ ॥१०॥ यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान् ब्रह्मणस्तां सभां विदुः ॥ ॥११॥ धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते । शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः ॥ ॥१२॥ सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम् । अब्रुवन् विब्रुवन् वाऽपि नरो भवति किल्बिषी ॥ ॥१३॥ यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च । हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ॥ ॥१४॥ इन विषयों में झगड़ा करनेवालों का फ़ैसला राजा को सनातन धर्म के अनुसार करना चाहिए। जब स्वयं किसी कारण वश काम न देख सके तो विद्वान् ब्राह्मण को सौंप दे। उस ब्राह्मण को तीन सभासदों के साथ सभा में बैठकर या खड़े होकर ही राजा के खास कामों को देखना चाहिए। जिस देश में वेदविशारद तीन ब्राह्मण राजसभा में निर्णयार्थ बैठते हैं और राजा का अधिकार पाया हुआ एक विद्वान् ब्राह्मण रहता है वह ब्रह्मा की सभा मानी जाती है। जिस सभा में धर्म, अधर्म से बींधा जाता है और उसे चुभे काँटे को सभासद धर्मशरीर से बाहर नहीं निकालते तो वे सभासद् पाप भागी होते हैं। या तो सभा में जाना नहीं चाहए और यदि जाना हो तो केवल सत्यवचन कहना चाहिए। और जो जानकर भी कुछ न कहे या झूठ कहे तो वह पातकी होता है, जिस सभा में अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य की हत्या होती उस सभा के सभासद् नष्ट हो जाते हैं ॥ २- १४॥ धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥ ॥१५॥ वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् । वृ षलं तं विदुर्देवास्तस्माद् धर्मं न लोपयेत् ॥ ॥१६॥ एक एव सुहृद् धर्मो निधानेऽप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद् हि गच्छति ॥ ॥१७॥ धर्म का लोप कर देने से वह उस पुरुष को नष्ट कर देता है और धर्म की रक्षा करने से वह भी रक्षा करता है। इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए जिसमें नष्ट धर्म हमारा नाश न करे। भगवान् धर्म को 'वृष' कहते हैं और जो उसका नाश करता है उस को देवता 'वृषल' कहते हैं। इस कारण मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए। मृत्युसमय में भी एकमात्र मित्र धर्म ही पीछे चलता है और सभी शरीर के साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है ॥१५-१७ ॥ पादोऽधर्मस्य कर्तारं पादः साक्षिणं ऋच्छति । पादः सभासदः सर्वान् पादो राजानमृच्छति ॥ ॥१८॥ राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः । एनो गच्छति कर्तारं निन्दाऽर्हो यत्र निन्द्यते ॥ ॥१९॥ जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद् ब्राह्मणब्ब्रुवः । धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न शूद्रः कथं चन ॥ ॥२०॥ यस्य शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम् । तस्य सीदति तद् राष्ट्र पङ्के गौरिव पश्यतः ॥ ॥२१॥ यद् राष्ट्रं शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्तमद्विजम् । विनश्यत्याशु तत् कृत्स्त्रं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम् ॥ ॥२२॥ एक धर्म ही मित्र है जो मरने पर भी साथ चलता है अन्य सभी शरीर के साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है। न्याय करते समय उसका एक चौथाई अधर्म अन्याय करने वाले को, एक चौथाई झूठे गवाह को, एक चौथाई सभासद् और एक चौथाई राजा को अधर्म लगता है। जिस सभा में अन्यायी पुरुष की ठीक ठीक निन्दा की जाती है, वहां राजा और सभा सद् दोष से छूट जाते हैं। और उस अधर्मी को ही पाप लगता है। जिसकी जातिमात्र से जीविका है कुछ विद्या, योग्यता से नहीं चही चाहे न्यायकर्ता नियुक्त किया जाय, पर शुद्र को कभी अधिकार न दे। जिस राजा का न्यायाधीश शूद्र होता है। उसका राज्य कीचड़ में गौ की भांति फँसकर पीड़ा पाता है। जिस राज्य में शूद्र और नास्तिक, अधिक हो, द्विज न हों वह सम्पूर्ण राज्य दुर्भिक्ष और व्याधि से पीड़ित होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥१८- २२॥ धर्मासनमधिष्ठाय संवीताङ्गः समाहितः । प्रणम्य लोकपालेभ्यः कार्यदर्शनमारभेत् ॥ ॥२३॥ अर्थानर्थावुभौ बुद्ध्वा धर्माधर्मों च केवलौ । वर्णक्रमेण सर्वाणि पश्येत् कार्याणि कार्यिणाम् ॥ ॥२४॥ बाद्यैर्विभावयेत्लिङ्गैर्भावमन्तर्गतं नृणाम् । स्वरवर्णैङ्गिताकारैश्चक्षुषा चेष्टितेन च ॥ ॥२५॥ आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च । ने त्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ ॥२६॥ राजा न्यायासन पर राजवस्त्र इत्यादि पहन कर बैठना चाहिए और आठ लोकपालों को प्रणाम करके सावधानी से विचारकार्य का आरम्भ करना चाहिए। प्रजा की लाभ और हानि को, धर्म और अधर्म को सोचकर वादियों के दावों को ब्राह्मणादि वर्ण के क्रम से देखना शुरू करना चाहिए। मनुष्यों के बाहरी लक्षण, स्वर, शरीर का वर्ण, नीचे ऊपर देखना, आकार रोमांच होना आदि, आँख, हाथ, पैर की चेष्टा वगैरह से भीतरी हाल पहचानना। आकार, नीचे ऊपर देखना, गति, चेष्टा, बोली, आँख, मुँह के विकार से मन का भाव जाना जाता है ॥२३-२६॥ बालदायादिकं रिक्थं तावद् राजाऽनुपालयेत् । यावत् स स्यात् समावृत्तो यावत्वातीतशैशवः ॥ ॥२७॥ वशाऽपुत्रासु चैवं स्याद् रक्षणं निष्कुलासु च । पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च ॥ ॥२८॥ जीवन्तीनां तु तासां ये तद् हरेयुः स्वबान्धवाः । तांशिष्यात्वौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः ॥ ॥२९॥ प्रणष्टस्वामिकं रिक्थं राजा त्र्यब्दं निधापयेत् । अर्वाक् त्र्यब्दाद्द हरेत् स्वामी परेण नृपतिहरेत् ॥ ॥३०॥ बालक के दाय भाग का द्रव्य, तब तक राजा के अधीन में रहे जब तक वह समावर्तनवाला अर्थात् पढ़ लिखकर चतुर न हो और बालिग न हो जाए। बन्ध्या स्त्री, अपुत्रा, सपिण्डरहित, पतिव्रता, विधवा और बहुत दिन की रोगी स्त्री का भी धन राजा की रक्षा में रहना चाहिए। इन जीती हुई स्त्रियों को धन भाई बन्धु हर लेना चाहें तो उनको चोर के समान दण्ड देना चाहिए। जिसका स्वामी का ना पता हो उस लावारिस धन को राजा को तीन साल तक रखना चाहिए उसके भीतर यदि उसका स्वामी आ जाय तो उसे ले जाए, अन्यथा वह राजा को ही हो जाता है ॥२७-३०॥ ममैदमिति यो ब्रूयात् सोऽनुयोज्यो यथाविधि । संवाद्य रूपस‌ङ्ख्यादीन् स्वामी तद् द्रव्यमर्हति ॥ ॥३१॥ अवेदयानो नष्टस्य देशं कालं च तत्त्वतः । वर्णं रूपं प्रमाणं च तत्समं दण्डमर्हति ॥ ॥३२॥ आददीताथ षड्‌भागं प्रनष्टाधिगतान्नृपः । दशमं द्वादशं वाऽपि सतां धर्ममनुस्मरन् ॥ ॥३३॥ प्रणष्टाधिगतं द्रव्यं तिष्ठेद् युक्तैरधिष्ठितम् । यांस्तत्र चौरान् गृह्णीयात् तान् राजैभेन घातयेत् ॥ ॥३४॥ ममायमिति यो ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः। तस्याददीत षड्‌भागं राजा द्वादशमेव वा ॥ ॥३५॥ अनृतं तु वदन् दण्ड्यः स्ववित्तस्यांशमष्टमम् । तस्यैव वा निधानस्य स‌ङ्ख्ययाऽल्पीयसीं कलाम् ॥ ॥३६॥ तीन वर्ष के भीतर यदि उसका स्वामी आकर कहे कि यह मेरा धन है, तब राजा दावाकर्ता से ठीक प्रकार से पूछना चाहिए कि धन कैसा है ? कितना है? वह यदि रूप, रंग, संख्या सही-सही बता दे तो उसको वह धन दे देना चाहिए। अगर खोई वस्तु का पता ठीक न बता सके तो उस पर उतने ही धन का जुर्माना करे। कोई खोई वस्तु उसके स्वामी को वापस देते समय उसकी रक्षा के कारण उस धन का छठा, दसवां या बारहवां भाग राजा ले सकता है। किसी की कोई वस्तु खो जाए अथवा चोरी हो जाए और मिले तो राजा को उसे पहरे में रखना चाहिए और वहां से चुरानेवाला पकड़ा जाए तो उसको हाथी से मरवा देना चाहिए। जो पुरुष सच्चाई से कहे कि यह धन मेरा है तो उसके धन छठा अथवा बारहवां भाग राजा को ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि वह दूसरे का धन हथियाने की इच्छा करे तो उस निधि का आठवां भाग अथवा निधि गिनकर उसका कुछ भाग दंड करना चाहिए ॥३१-३६॥ विद्वांस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्रा पूर्वोपनिहितं निधिम् । अशेषतोऽप्याददीत सर्वस्याधिपतिर्हि सः ॥ ॥३७॥ यं तु पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ । तस्माद् द्विजेभ्यो दत्त्वाऽर्धमर्धं कोशे प्रवेशयेत् ॥ ॥३८॥ यदि विद्वान् ब्राह्मण को भूमि मे गडा प्राचीन धन मिले तो वह समस्त धन रख सकता है, क्योंकि ब्राह्मण सबका स्वामी है और यदि भूमि में पुराना धन राजा को मिले तो उसका आधा वह द्विजों को बाँट दें और आधा अपने धन कोष में जमा करवा देना चाहिए ॥ ३७-३८ ॥ निधीनां तु पुराणानां धातूनामेव च क्षितौ। अर्धभाग् रक्षणाद् राजा भूमेरधिपतिर्हि सः ॥ ॥३९॥ दातव्यं सर्ववर्णेभ्यो राज्ञा चौरैर्हतं धनम् । राजा तदुपयुञ्जानश्चौरस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ ॥४०॥ जातिजानपदान् धर्मान् श्रेणीधर्मांश्च धर्मवित् । समीक्ष्य कुलधर्मांश्च स्वधर्मं प्रतिपादयेत् ॥ ॥४१॥ स्वानि कर्माणि कुर्वाणा दूरे सन्तोऽपि मानवाः । प्रिया भवन्ति लोकस्य स्वे स्वे कर्मण्यवस्थिताः ॥ ॥४२॥ नोत्पादयेत् स्वयं कार्यं राजा नाप्यस्य पूरुषः । न च प्रापितमन्येन ग्रसेदर्थं कथं चन ॥ ॥४३॥ भूमि का स्वामी और रक्षक होने से राजा गड़े धन और धातु की खानों के आधे भाग का अधिकारी है। चोरों का चुराया हुआ धन छीन कर जिस वर्ण का हो, वह सब उनको वापस दे देना चाहिए। यदि वह धन राजा स्वयं ग्रहण करता है तो चोर के पाप का स्वयं भागी होता है। जातिधर्म, देशधर्म, श्रेणीधर्म (व्यापार) और कुलधर्म के अनुसार राजा को राजधर्म प्रचरित करना चाहिए। जाति, देश और कुलधर्म और अपने काम को करते लागे दूर रहते हुए भी लोक में प्रिय होते हैं। राजा या राजपुरुष काम पर भी ऋण आदि का झगडा उत्पन्न नहीं करना चाहिए और कोई अन्य विवाद प्रस्तुत करें तो उसकी अपेक्षा न करे ॥ ३९-४३ ॥ यथा नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम् । नयेत् तथाऽनुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम् ॥ ॥४४॥ सत्यमर्थं च सम्पश्येदात्मानमथ साक्षिणः । दे शं रूपं च कालं च व्यवहारविधौ स्थितः ॥ ॥४५॥ सद्भिराचरितं यत् स्याद् धार्मिकैश्च द्विजातिभिः । तद् देशकुलजातीनामविरुद्धं प्रकल्पयेत् ॥ ॥४६॥ जैसे व्याल भूमि पर गिरे रुधिर के बूंद से मारे हुए मृग का घर खोज लेता है। वैसे ही राजा को अनुमान से मामलों की असलियत को खोज लेना चाहिए। सत्य का निर्णय करना चाहिए, अन्याय से स्वयं डरना चाहिए और गवाहों के झूठ, सत्य का एवं देश, काल और मामलों का विचार करना चाहिए। सज्जन पुरुष और धार्मिक द्विज जैसा आचरण करते हों और देश, कुल, जाति के आचार से जो विरुद्ध न हो वैसा ही फैसला करना चाहिए ॥४४-४६॥ ऋण का लेना-देना अधमर्णार्थसिद्धयर्थमुत्तमर्णेन चोदितः । दापयेद् धनिकस्यार्थमधमर्णाद् विभावितम् ॥ ॥४७॥ यैर्यैरुपायैरर्थं स्वं प्राप्नुयादुत्तमर्णिकः । तैर्तेरुपायैः सङ्‌गृह्य दापयेदधमर्णिकम् ॥ ॥४८॥ धर्मेण व्यवहारेण छलेनाचरितेन च । प्रयुक्तं साधयेदर्थं पञ्चमेन बलेन च ॥ ॥४९॥ यः स्वयं साधयेदर्थमुत्तमर्णोऽधमर्णिकात् । न स राज्ञाऽभियोक्तव्यः स्वकं संसाधयन् धनम् ॥ ॥५०॥ अर्थेऽपव्ययमानं तु करणेन विभावितम् । दापयेद् धनिकस्यार्थं दण्डलेशं च शक्तितः ॥ ॥५१॥ अधमर्ण - कर्जदार से अपना क़र्जा वापस दिलाने के लिए उत्तमर्ण- महाजन कहे तो उसका धन राजा को सबूत लेकर वापस दिला देना चाहिए। जिन उपायों से महाजन अपना धन वापस पा सके, उन उपायों से दिलाने की कोशिश करनी चाहिए। महाजन धर्म से, दावे से, कपट से, दबाव से और पाँचवें उचित बलात्कार से अपना धन वसूल कर सकता है। यदि महाजन ऋणी से स्वयं अपना धन वसूल कर ले तो राजा को उस पर कोई अभियोग नहीं चला चाहिए। धनी के धन को, क़र्जदार न क़बूल करे और महाजन साक्षी और लेख से साबित कर दे तो राजा को उसका धन वापस दिलवाना चाहिए तथा ऋणी के ऊपर शक्ति के अनुसार दण्ड भी करना चाहिए ॥४७- ५१॥ अपह्नवेऽधमर्णस्य देहीत्युक्तस्य संसदि । अभियोक्ता दिशेद् देश्यं करणं वाऽन्यदुद्दिशेत् ॥ ॥५२॥ अदेश्यं यश्च दिशति निर्दिश्यापह्नुते च यः । यश्चाधरोत्तरानर्थान् विगीतान्नावबुध्यते ॥ ॥५३॥ अपदिश्यापदेश्यं च पुनर्यस्त्वपधावति । सम्यक् प्रणिहितं चार्थं पृष्टः सन्नाभिनन्दति ॥ ॥५४॥ राजसभा में ऋणी से कहा जाए-महाजन का क़र्जा अदा कर दो, यदि वह इन्कार कर दे तो राजा को साक्षी, दस्तावेज़ इत्यादि पेश करने की आज्ञा देनी चाहिए। जो झूठे गवाह अथवा काग़ज़ पत्र पेश करें, जो पेश करके इन्कार करे और जो पहले कही बातों का ध्यान न रक्खे। अथवा जो बात को उलटता है, स्वीकार करके भी पूछने पर इन्कार करता है। ॥५२-५४ ॥ असंभाष्ये साक्षिभिश्च देशे संभाषते मिथः । निरुच्यमानं प्रश्नं च नेच्छेद् यश्चापि निष्पतेत् ॥ ॥५५॥ ब्रूहीत्युक्तश्च न ब्रूयादुक्तं च न विभावयेत् । न च पूर्वापरं विद्यात् तस्मादर्थात् स हीयते ॥ ॥५६॥ साक्षिणः सन्ति मेत्युक्त्वा दिशेत्युक्तो दिशेन्न यः । धर्मस्थः कारणैरेतैर्हीनं तमपि निर्दिशेत् ॥ ॥५७॥ अभियोक्ता न चेद् ब्रूयाद् बध्यो दण्ड्यश्च धर्मतः । न चेत् त्रिपक्षात् प्रब्रूयाद् धर्मं प्रति पराजितः ॥ ॥५८॥ यो यावद् निहूनुवीतार्थं मिथ्या यावति वा वदेत् । तौ नृपेण ह्यधर्मज्ञौ दाप्यौ तद्द्विगुणं दमम् ॥ ॥५९॥ पृष्टोऽपव्ययमानस्तु कृतावस्थो धनेषिणा । त्र्य वरैः साक्षिभिर्भाव्यो नृपब्राह्मणसंनिधौ ॥ ॥६०॥ और जो एकान्त मे गवाहों के साथ बातचीत करता है, जानते हुए भी प्रश्न का उत्तर नहीं देता, पूछने पर कुछ नहीं कहता और जो कहता है वह दृढ़ता से नहीं कहता, जो पहले की बातों को नहीं जानता, ऐसे पुरुष अपने अर्थ धन से हार जाते हैं। मेरे साक्षीं हाज़िर हैं, ऐसा कह कर जो मांगने पर हाज़िर न कर सके, न्यायाधीश को उसको भी हारा घोषित कर देना चाहिए। वादी अपने दावे को सिद्ध न कर सके तो वह धर्मानुसार शिक्षा और दण्ड दोनों का पात्र होता है और जो प्रतिवादी डेढ़ महीने के अन्दर झूठे दावे से हुई हानि की नालिश न कर सके तो वह भी हारा समझा जाता है। प्रतिवादी जितने धन के लिए झूठ बोले और वादी जितने धन का झूठा दावा करे, राजा को उन दोनों अधर्मियों को उसका दुगना दण्ड करना चाहिए। अगर राजा और ब्राह्मण के सामने पूछने पर ऋणी इन्कार कर दे तो तीन गवाह देकर ऋण सत्य करवाना चाहिए ॥५५-६०॥ यादृशा धनिभिः कार्या व्यवहारेषु साक्षिणः । तादृशान् सम्प्रवक्ष्यामि यथा वाच्यं ऋतं च तैः ॥ ॥६१॥ गृहिणः पुत्रिणो मौलाः क्षत्रविद् शूद्रयोनयः । अर्युक्ताः साक्ष्यमर्हन्ति न ये के चिदनापदि ॥ ॥६२॥ अब महाजनों को तथा अन्य मनुष्यों को कैसे गवाह देने चाहिए और गवाहों को कैसे सच्ची गवाही देनी चाहिए, यह सब कहा जाता है। कुंटुम्वी, पुत्रवान्, उसी देश का वासी, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये लोग जब वादी बुलावें तो गवाही दे सकते हैं, हर कोई नहीं। जब तक किसी को आपत्ति न हो ॥ ६१-६२॥ आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्याः कार्येषु साक्षिणः । सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत् ॥ ॥ ६३॥ नार्थसंबन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः । न दृष्टदोषाः कर्तव्या न व्याध्यार्ता न दूषिताः ॥ ॥६४॥ न साक्षी नृपतिः कार्यो न कारुककुशीलवौ । न श्रोत्रियो न लिङ्गस्थो न सङ्गेभ्यो विनिर्गतः ॥ ॥६५॥ नाध्यधीनो न वक्तव्यो न दस्युर्न विकर्मकृत् । न वृद्धो न शिशुर्नैको नान्त्यो न विकलेन्द्रियः ॥ ॥६६॥ नार्ती न मत्तो नोन्मत्तो न क्षुत्तृष्णोपपीडितः । न श्रमार्तो न कामार्तो न क्रुद्धो नापि तस्करः ॥ ॥६७॥ सभी वर्णों में जो यथार्थ कहनेवाले और धर्मज्ञ हों अर्थात लोभी न हों, उनको साक्षी करना चाहिए, किसी दुसरे को नहीं। दावे मे न धन के सम्बन्धी को, न सगे सम्बन्धी को, न मित्र को, न शत्रु को न झूठ शपथ करने वाले को, न रोगी को, और न अपराधी को गवाह करना चाहिए। राजा को, कारीगर को, नट को, वेदपाठी को, संन्यासी और त्यागी को, पराधीन को, क्रूर को, अधर्मी को, वृद्ध को, बालक को एक ही मनुष्य को, चाण्डाल को, लूला-लंगड़ा को भी गवाह न करें। रोगों से दुखी, नशा करने वाला, उन्मत्त, भूख-प्यास से दुखी, थका, काम पीड़ित, क्रोधी और चोर, यह भी साक्षी बनने योग्य नहीं हैं ॥ ६३-६७ ॥ स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः । शूद्राश्च सन्तः शूद्राणां अन्त्यानामन्त्ययोनयः ॥ ॥६८॥ अनुभावी तु यः कश्चित् कुर्यात् साक्ष्यं विवादिनाम् । अन्तर्वेश्मन्यरण्ये वा शरीरस्यापि चात्यये ॥ ॥६९॥ स्त्रियाऽप्यसंभावे कार्यं बालेन स्थविरेण वा । शिष्येण बन्धुना वाऽपि दासेन भृतकेन वा ॥ ॥७०॥ स्त्रियों की गवाही स्त्रियां, द्विजों की गवाही समान वर्ण के द्विज, शद्रों की गवाही शूद्र और अन्त्य आदि की गवाही अन्ज्य को देनी चाहिए। घर के भीतर, वन में और शरीर के अंत (वध) में, कोई भी जानने वाला पुरुष गवाह हो सकता है। कोई योग्य गवाह न मिले तो स्त्री, बालक, वृद्ध, शिष्य, सम्बन्धी, दास और नौकर चाकर भी गवाह हो सकते हैं ॥६८-७० ॥ बालवृद्धातुराणां च साक्ष्येषु वदतां मृषा । जानीयादस्थिरां वाचमुत्सिक्तमनसां तथा ॥ ॥७१॥ साहसेषु च सर्वेषु स्तेयस‌ङ्ग्रहणेषु च । वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः ॥ ॥७२॥ बहुत्वं परिगृह्णीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः । समेषु तु गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान् ॥ ॥७३॥ समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति । तत्र सत्यं ब्रुवन् साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते ॥ ॥७४॥ साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद् विब्रुवन्नार्यसंसदि । अवाङ्नरकमभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते ॥ ॥७५॥ यत्रानिबद्धोऽपीक्षेत शृणुयाद् वाऽपि किं चन । पृष्टस्तत्रापि तद् ब्रूयाद् यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥ ॥७६॥ एकोऽलुब्धस्तु साक्षी स्याद् बद्व्यः शुच्योऽपि न स्त्रियः। स्त्रीबुद्धेरस्थिरत्वात् तु दोषैश्चान्येऽपि ये वृताः ॥ ॥७७॥ स्वभावेनैव यद् ब्रूयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम् । अतो यदन्यद् विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम् ॥ ॥७८॥ बालक, बूढ़े और रोगियों के झूठ बोलने की सम्भावना रहती है, इसलिए उनके कहने पर भरोसा नहीं करना चाहिए और चंचल चित्त मनुष्य को भी विश्वासी नहीं मानना चाहिए । संपूर्ण साहस के काम खून, डाका, आग लगा देना और चोरी, व्यभिचार, गाली और मारपीट में साक्षियों की अधिक परीक्षा-जांच न करे। दोनों तरफ़ के गवाहों में यदि एक दूसरे के विपरीत कहे तो जिसको अधिक लोग कहें वहीं बात मानी जानी चाहिए। और जहां दोनों विपरीत कहनेवाले समान हो वहां जिधर के गवाह गुणवान् हों उधर की बात सही माने और दोनों ही तरफ़ गुणी हों तो धर्मात्मा द्विजों की गवाही को प्रमाण समझना चाहिए। जिसने आँखों से देखा हो या, जिसने स्वयं कानों से सुना हो, उसकी गवाही प्रमाणित मानी जाती है। उसमें सच बोलने वाला साक्षी धर्म, अर्थ से नहीं हारता। जो पुरुष आर्य की सभा में देखे सुने के विरुद्ध गवाही देता है, वह उलटे सिर नरक में पड़ता है और मरकर स्वर्ग से हीन हो जाता है। जिस मामले में गवाह न भी हों तो भी पूछने पर जैसा देखा, सुना हो वहीं बयान करना चाहिए। लोभ रहित एक भी पुरुष गवाह पर्याप्त होता है, पर बहुत सी पवित्र स्त्रियां भी गवाह नहीं हो सकतीं क्योंकि स्त्री की बुद्धि स्थिर नहीं होती। निर्णय के समय, गवाह स्वाभाविक रीति से जो कुछ कहे, उसको प्रमाण माने। और भय-लोभ आदि से जो विरुद्ध बात कहें, वह बिलकुल व्यर्थ है ॥७१-७८॥ सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसंनिधौ । प्राड् विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन् ॥ ॥७९॥ यद् द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिंश्चेष्टितं मिथः । तद् ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता ॥ ॥८०॥ सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन् साक्षी लोकान् आप्नोत्यपुष्कलान् । इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता ॥ ॥८१॥ साक्ष्येऽनृतं वदन् पाशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम् । विवशः शतमाजातीस्तस्मात् साक्ष्यं वदेद् ऋतम् ॥ ॥८२॥ सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते । तस्मात् सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः ॥ ॥८३॥ आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथाऽत्मनः । माऽवमंस्थाः स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम् ॥ ॥८४॥ सभा में गवाह आ ज्ञाने पर न्यायकर्ता वादी, प्रतिवादी के सामने इस प्रकार कार्यारम्भ करे -इस मामले में आपस में जो कुछ हुआ है, वह जो तुम जानते हो सत्य कहो क्योंकि इसमें तुम्हारी गवाही है। गवाह गवाही में सत्य बोलकर, उत्तम गति को पाता है और यहाँ कीर्ति पाता है, सत्यवाणी की वेद में प्रशंसा की है। गवाही में झूठ बोलने जाला सौ जन्मतक वरुण के पाशों से बाँधा जाता है। इसलिए साक्षी को सत्य बोलना चाहिए। साक्षी सत्य से पवित्र होता है। सत्य से धर्मं बढ़ता है, इसकारण सभी जाति के गवाहों को सदा सत्य बोलना चाहिए। अपना आत्मा ही अपना साक्षी है, आत्मा ही अपने को सद्गति देता है। इसलिए मनुष्यों के उत्तम साक्षी अपनी आत्मा का झूट साक्षी से अपमान नहीं करना चाहिए ॥७६-८४॥ मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित् पश्यतीति नः । तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः ॥ ॥८५॥ द्यौर्भूमिरापो हृदयं चन्द्रार्काग्नियमानिलाः । रात्रिः संध्ये च धर्मश्च वृत्तज्ञाः सर्वदेहिनाम् ॥ ॥८६॥ पापी लोग समझते हैं कि-पाप करते हुए हमको कोई देखता नहीं, परन्तु उनको देवता और उनका अपना अन्तरात्मा देखता है। आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, रात्रि, सन्ध्या और धर्म इन सभी के अधिष्ठात्री देवता सभी प्राणियों के भले बुरे आचरणों को देखते हैं। ॥८५-८६॥ देवब्राह्मणसांनिध्ये साक्ष्यं पृच्छेद् ऋतं द्विजान् । उदङ्‌मुखान् प्राङ्‌मुखान् वा पूर्वाह्न वै शुचिः शुचीन् ॥ ॥८७॥ ब्रूहीति ब्राह्मणं पृच्छेत् सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम् । गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः ॥ ॥८८॥ ब्रह्मघ्नो ये स्मृता लोका ये च स्त्रीबालघातिनः । मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य ते ते स्युर्बुवतो मृषा ॥ ॥८९॥ जन्मप्रभृति यत् किं चित् पुण्यं भद्र त्वया कृतम् । तत् ते सर्वं शुनो गच्छेद् यदि ब्रूयास्त्वमन्यथा ॥ ॥९०॥ एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यस्त्वं कल्याण मन्यसे । नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापैक्षिता मुनिः ॥ ॥९१॥ यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थितः । तेन चेदविवादस्ते मा गङ्गां मा कुरून् गमः ॥ ॥९२॥ नग्नो मुण्डः कपालेन च भिक्षार्थी क्षुत्पिपासितः । अन्धः शत्रुकुलं गच्छेद् यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ॥ ॥९३॥ अवाक्षिरास्तमस्यन्धे किल्बिषी नरकं व्रजेत् । यः प्रश्नं वितथं ब्रूयात् पृष्टः सन् धर्मनिश्चये ॥ ॥९४॥ न्यायाधीश स्नानादि से पवित्र होकर, देवता और ब्राह्मण के समीप में पवित्र द्विजातियों को पूर्व या उत्तरमुख कराकर प्रातःकाल सच सच वृत्तान्त पूंछै । ब्राह्मण से 'कहो' ऐसा पूछे, क्षत्रिय से 'सच बोलो' इस प्रकार पूछना चाहिए । और 'गौ, बीज, सोना चुराने का पातक तुमको होगा' ऐसा कहकर वैश्यों से पूछे। 'सब पाप तुमको लगेगा' यो कहकर शूद्र से साक्षी लेना चाहिए। ब्राह्मण, स्त्री, बालक को मारनेवाले को और मित्रद्रोही, कृताघन को जो जो लोक मिलते हैं वही लोक झूठ बोलनेवाले को मिलते हैं। हे भद्र पुरुष! जन्म से लेकर तूने जो पुण्य अभी तक किए हैं, वह सब झूठी गवाही देगा तो, कुत्ते को पहुँचेगा। हे भद्र ! तू यह जो मानता है कि, मैं अकेला जीवात्मा हूँ सो न मान। क्योंकि-पुण्य, पाप को देखनेवाला अन्तर्यामी नित्य हृदय में ही स्थित है। यमरूप वैवस्वत देव हृदय में स्थित हैं, उसमें विश्वास रखने से गंगा जी और कुरुक्षेत्र जाने की ज़रूरत नहीं है। जो झूठी गवाही देता हैं-उसको नग्न, सिर मुंडाकर, भूखा, प्यासा और अंधा होकर, हाथ में ठीकरा लेकर शत्रु के घर भीख मांगने जाना पड़ता है। जो झूठ साक्षी पूछने पर देता है, वह पापी नीचे सिर होकर, अँधरे नरक में पड़ता है ॥८७-९४॥ अन्धो मत्स्यानिवाश्नाति स नरः कण्टकैः सह । यो भाषतेऽर्थवैकल्यमप्रत्यक्षं सभां गतः ॥ ॥९५॥ यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते । तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः ॥ ॥९६॥ यावतो बान्धवान् यस्मिन् हन्ति साक्ष्येऽनृतं वदन् । तावतः सङ्ख्यया तस्मिन् शृणु सौम्यानुपूर्वशः ॥ ॥९७॥ पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते । शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ॥ ॥९८॥ हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् । सर्वं भूमिअनृते हन्ति मा स्म भूमिअनृतं वदीः ॥ ॥९९॥ अप्सु भूमिवदित्याहुः स्त्रीणां भोगे च मैथुने । अब्जेषु चैव रत्नेषु सर्वेष्वश्ममयेषु च ॥ ॥१००॥ जो सभा में बिना देखी बात झूठी बनाकर बोलता है वह अंधा होकर कांटो सहित मछली खाता है। साक्षी के समय जिसकी जीवात्मा असत्य की शंका नहीं करता, उससे अच्छा देवगण दूसरे को नहीं मानते। हे सौम्य, जिस साक्षी में झूठ बोलनेवाला जितने बान्धवों के मारने का फल पाता है वह इस प्रकार है- पशु के बारे में झूठ बोलने से पांच बान्धव की हत्या का पातक पाता है। गौ के विषय में दस, घोड़े के सौ और पुरुष के लिए हज़ार की हत्या का पातक लगता है। सुवर्ण के लिए झूठ बोलने से पैदा हुए या होनेवालों की हत्या के फल को पाता है और भूमि के लिए असत्य कहने से संपूर्ण प्राणियों के वध का फल पाता है। इसलिए भूमि के बारे में कभी झूठी साक्षी नहीं देनी चाहिए। सरोवर के जल, स्त्रीसंभोग, जल से पैदा मोती और नीलम अदि रत्नों के लिए झूठी गवाही देने से भूमि के सामान दोष होता है ॥९५-१००॥ एतान् दोषानवेक्ष्य त्वं सर्वाननृतभाषणे । यथाश्रुतं यथादृष्टं सर्वमेवाज्ञ्जसा वद ॥ ॥१०१॥ गोरक्षकान् वाणिजिकांस्तथा कारुकुशीलवान् । प्रेष्यान् वाधुषिकांश्चैव विप्रान् शूद्रवदाचरेत् ॥ ॥१०२॥ इन सभी झूठ बोलने वाले पातकों को समझकर, जैसा देखा अथवा सुना है वही ठीक ठीक कहो। गोपालक, बनिया, बढ़ई, लोहार, गाने बजाने का काम करनेवाले, नौकरी पेशा और ब्याजखोर ब्राह्मणों से गवाही लेते समय शुद्र के समान प्रश्न करना चाहिए। ॥ १०१-१०२ ॥ तद् वदन् धर्मतोऽर्थेषु जानन्नप्यन्य्था नरः । न स्वर्गाच्च्यवते लोकाद् दैवीं वाचं वदन्ति ताम् ॥ ॥१०३॥ शूद्रविड् क्षत्रविप्राणां यत्रऋतोक्तौ भवेद् वधः । तत्र वक्तव्यमनृतं तद् हि सत्याद् विशिष्यते ॥ ॥१०४॥ वाग्दैवत्यैश्च चरुभिर्यजेरंस्ते सरस्वतीम् । अनृतस्यैनसस्तस्य कुर्वाणा निष्कृतिं पराम् ॥ ॥१०५॥ कूष्माण्डैर्वाऽपि जुहुयाद् घृतमग्नौ यथाविधि । उदित्य् ऋचा वा वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा ॥ ॥१०६॥ त्रिपक्षादब्रुवन् साक्ष्यं ऋणादिषु नरोऽगदः । तदृणं प्राप्नुयात् सर्वं दशबन्धं च सर्वतः ॥ ॥१०७ ॥ यस्य दृश्येत सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः । ऋणं दाप्यो दमं च सः ॥ ॥१०८ ॥ असाक्षिकेषु त्वर्थेषु मिथो विवदमानयोः । अविन्दंस्तत्त्वतः सत्यं शपथेनापि लम्भयेत् ॥ ॥१०९॥ महर्षिभिश्च देवैश्च कार्यार्थ शपथाः कृताः । वसिष्ठश्चापि शपथं शेपे पैजवने नृपे ॥ ॥ ११०॥ जो मनुष्य जानता हुआ भी धर्मवश झूठ बोले तो वह स्वर्गलोक से पतित नहीं होता क्योंकि उस असत्य को देववाणी कहते हैं। जिस मामले में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के प्राण जाते हों वहां साक्षी झूठ बोल सकता है - क्योंकि झूठ भी सत्य से श्रेष्ठ है। झूठे गवाहों को उस पाप से छुटकारा पाने के लिए वाणी देवता के लिए चरु बनाकर सरस्वती देवी का पूजन करना चाहिए । अथवा कूष्माण्ड मन्त्रों (यजुर्वेद २० । १४) से हवन करे। या वरुण देवता के (यजुर्वेद १२ । १२) मन्त्र से अथवा जल देवता के मन्त्र (यजुर्वेद ११ । ५०) से हवन करे। ऋण की विषय में साक्षी निरोग होने पर, डेढ़ महीने तक न आये तो महाजन को अपना सब ऋण वापस मिलना चाहिए और धन का दशांश गवाह पर दण्ड करना चाहिए। गवाह को सात दिन के अन्दर रोग, अग्नि, स्त्री पुत्रादि के मृत्यु हो जाय तो उसको दण्ड नहीं करना चाहिए। जिन वादी और प्रतिवादियों के गवाह न हों, उनका ठीक वृतांत ज्ञात न हो सके तो शपथ से भी निर्णय कर लेना चाहिए। महर्षि और देवताओं ने भी शपथ की थी। विश्वामित्र ने वशिष्ठ पर हत्या का आरोप लगाया था तब उन्होंने रांजा पैजवन के समीप शपथ ली थी ॥१०३-११० ॥ न वृथा शपथं कुर्यात् स्वल्पेऽप्यर्थे नरो बुधः । वृथा हि शपथं कुर्वन् प्रेत्य चैह च नश्यति ॥ ॥१११॥ कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेन्धने । ब्राह्मणाभ्युपपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् ॥ ॥११२॥ सत्येन शापयेद् विप्रं क्षत्रियं वाहनायुधैः । शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः ॥ ॥११३॥ अग्निं वाऽहारयेदेनमप्सु चैनं निमज्जयेत् । पुत्रदारस्य वाप्येनं शिरांसि स्पर्शयेत् पृथक् ॥ ॥११४॥ यमिद्धो न दहत्यग्निरापो नोन्मज्जयन्ति च । न चार्तिं ऋच्छति क्षिप्रं स ज्ञेयः शपथे शुचिः ॥ ॥११५॥ बुद्धिमान् पुरुष को छोटी सी बात के लिए शपथ नहीं लेनी चाहिए। वृथा शपथ से लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं। स्त्रियों में, विवाह में, गौवों के कुछ नुक़सान करने में यज्ञार्थ काष्ठसंग्रह में और ब्राह्मण की आपत्ति में झूठा शपथ करने से पाप नहीं लगता । ब्राह्मण को सत्य की शपथ दिलाएं, क्षत्रिय को सवारी और शस्त्र की शपथ दिलाएं, वैश्य को गौ, अन्न और सुवर्ण की और शूद्र को सब पातक लगने की शपथ दिलाएं। अथवा अग्नि को साक्षी मान कर शपथ दिलाएं, जल में गोता लगवायें और उसके पुत्र या स्त्री के ऊपर हाथ रख कर शपथ दिलाएं। जिसको अग्नि जलाये, जल में न डूबे और अचानक सिर पर आपत्ति न पड़ जाए उसको शपथ में पवित्र जानना चाहिए ॥१११-११५॥ वत्सस्य ह्यभिशस्तस्य पुरा भ्रात्रा यवीयसा । नाग्निर्ददाह रोमापि सत्येन जगतः स्पशः ॥ ॥११६॥ यस्मिन् यस्मिन् विवादे तु कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत् । तत् तत् कार्यं निवर्तेत कृतं चाप्यकृतं भवेत् ॥ ॥११७॥ लोभान्मोहाद् भयात्मैत्रात् कामात् क्रोधात् तथैव च । अज्ञानाद् बालभावात्व साक्ष्यं वितथमुच्यते ॥ ॥११८॥ पूर्व काल में वत्सऋषि के ऊपर उनके छोटे भाई ने कलंक लगाया था कि तू शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुआ है। तब वत्सऋषि ने अग्नि में प्रवेश किया था, पर सत्यवश अग्नि ने उनका एक रोम भी नहीं जलाया। जिन जिन मुक़द्दमों में झूठी गवाही दी गयी है, ऐसा निश्चित हो उनको फिर से उलट कर परीक्षा करनी चाहिए। लोभ, मोह, भय, मित्रता, काम, क्रोध, अज्ञान और लड़कपन से गवाही झूठी कही जाती है ॥ ११६-११८ ॥ एषामन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यमनृतं वदेत् । तस्य दण्डविशेषांस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ॥ ॥११९ ॥ लोभात् सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात् पूर्वं तु साहसम् । भयाद् द्वौ मध्यमौ दण्डौ मैत्रात् पूर्वं चतुर्गुणम् ॥ ॥१२०॥ कामाद् दशगुणं पूर्वं क्रोधात् तु त्रिगुणं परम् । अज्ञानाद् द्वे शते पूर्णे बालिश्यात्शतमेव तु ॥ ॥१२१॥ एतानाहुः कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान् दण्डान् मनीषिभिः । धर्मस्याव्यभिचारार्थमधर्मनियमाय च ॥ ॥१२२॥ कौटसाक्ष्यं तु कुर्वाणांस्त्रीन् वर्णान् धार्मिको नृपः । प्रवासयेद् दण्डयित्वा ब्राह्मणं तु विवासयेत् ॥ ॥१२३॥ दश स्थानानि दण्डस्य मनुः स्वयंभुवोऽब्रवीत् । त्रिषु वर्णेषु यानि स्युरक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् ॥ ॥१२४॥ इनमें किसी एक कारण से जो झूठी गवाही दे उसके, दण्ड का निर्धार क्रम से इस प्रकार है: लोभ से झूठी गवाही देने पर हज़ार पण दण्ड, मोह से कहनेवाले पर प्रथम साहस अर्थात् २५० पण, भय से गवाही देने वाले पर मध्यम साहस का दुगना और मित्रता के कारण से प्रथम साहस का चौगुना अर्थात १००० पण दण्ड देना चाहिए । काम से झूठी गवाही देने वाले पर प्रथम साहस का दस गुना (२५०० पण), क्रोध से तिगुना मध्यम साहस, अज्ञान से पूरे २०० पण और मूर्खता से झूठ कहने पर १०० पण दण्ड करना चाहिए। सत्य, धर्म की रक्षा और अधर्म को रोकने के लिए ऋषियों ने इन दण्डों को कहा है। धार्मिक राजा झूठी गवाही देने वालों तीनों वर्णों को अपराध के अनुसार दण्ड देकर देश से निकाल दे और ब्राह्मण को दण्ड न देकर देश निकाला ही करे। स्वायम्भूमनु ने दण्ड देने के जो दस स्थान आगे कहे हैं वह क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के लिए हैं, ब्राह्मण को केवल देश निकाला देने का ही दण्ड है ॥ ११६ - १२४॥ उपस्थमुदरं जिह्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम् । चक्षुर्नासा च कर्णौ च धनं देहस्तथैव च ॥ ॥१२५॥ अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः । सारापराधो चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ ॥१२६॥ लिङ्ग, पेट, जीभ, हाथ, पैर, आँख, नाक, कान, धन और शरीर ये दस दण्ड देने के स्थान हैं। अपराध और दण्ड सहने की शक्ति और देश, काल का विचार करके अपराधियों को दण्ड देना चाहिए ॥ १२५-१२६॥ अधर्मदण्डनं लोके यशोप्नं कीर्तिनाशनम् । अस्वर्यं च परत्रापि तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ॥१२७॥ अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ॥ ॥ १२८॥ वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद् धिग्दण्डं तदनन्तरम् । तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम् ॥ ॥१२९॥ वधेनापि यदा त्वेतान्निग्रहीतुं न शक्नुयात् । तदेषु सर्वमप्येतत् प्रयुञ्जीत चतुष्टयम् ॥ ॥१३०॥ अधर्म से दण्ड देना, इस लोक में यश और कीर्ति का नाशक है और परलोक में स्वर्ग प्राप्ति का बाधक है, इसलिए अधर्म से दण्ड नहीं देना चाहिए। निरपराधियों को दण्ड और अपराधियों को दण्ड़ न देने से राजा की बड़ी अकीर्ति होती है। अयश मिलता है और वह नरक में गिरता है। प्रथम अपराध में वाग्दण्ड- डांट कर समझा दे और यदि दोबारा अपराध करे तो धिक्कार दण्ड देना चाहिए। तीसरी बार अपराध करने पर वन दण्ड (जुर्माना) करना चाहिए और यदि चौथी बार अपराध करे तो देहदंड देना चाहिए। यदि देहदंड से भी अपराधी वश में न आये तो इन चारों दण्डों का प्रयोग करना चाहिए ॥ १२७-१३०॥ लोकसंव्यवहारार्थं याः संज्ञाः प्रथिता भुवि । ताम्ररूप्यसुवर्णानां ताः प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥ ॥१३१॥ जालान्तरगते भानौ यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः । प्र थमं तत् प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ॥ ॥१३२॥ लोक में व्यवहार के लिये सोना, चांदी' आदि की जो संज्ञा माप-तौल प्रसिद्ध है वह यहां कही जाती हैः- मकान के झरोखे से, आनेवाली सूर्य किरणों में जो छोटे छोटे धूल के कण, दिखलाई देते हैं वह प्रथम मान है उसको त्रसरेणु कहते हैं ॥ १३१-१३२ ॥ त्रसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः । ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः ॥ ॥१३३॥ सर्षपाः षड् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् । पञ्चकृष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश ॥ ॥१३४॥ पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश । द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः ॥ ॥१३५॥ ते षोडश स्याद् धरणं पुराणश्चैव राजतः । कार्षापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः ॥ ॥१३६॥ धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः । चतुःसौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः ॥ ॥१३७॥ पणानां द्वे शते सार्धे प्रथमः साहसः स्मृतः । मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः ॥ ॥१३८॥ ८ त्रसरेणु = १ लिक्षा। ३ लिक्षा = १ राई । ३ राई = १ सफ़ेद सरसों । ६ सरसों १ मध्यम यव । ३ मध्यम यव = १ कृष्णल । ५ कृष्णल = १ माष । १६ माष = १ सुवर्ण । ४ सुवर्ण = १ पल । १० पल = १ धरण । ३ कृपल = १ चांदी का माषा। १६ चांदी माषा = १ रौप्य धरण, अथवा चांदी का पुराण । १० धरण = १ चांदी का शतमान । ४ सुवर्ण = १ निष्क । २५० पण = प्रथम साहस । (साधारण दण्ड) ५०० पण = मध्यम साहस । १००० पण = उत्तम साहस ॥ १३३-१३८ ॥ ऋणे देये प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतमर्हति । अपह्नवे तद् द्विगुणं तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥१३९॥ वसिष्ठविहितां वृद्धि सृजेद् वित्तविवर्धिनीम् । अशीतिभागं गृह्णीयान् मासाद् वार्थुषिकः शते ॥ ॥१४०॥ द्विकं शतं वा गृह्णीयात् सतां धर्ममनुस्मरन् । द्विकं शतं हि गृह्णानो न भवत्यर्थकिल्बिषी ॥ ॥१४१॥ द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पञ्चकं च शतं समम् । मासस्य वृद्धि गृह्णीयाद् वर्णानामनुपूर्वशः ॥ ॥१४२॥ यदि ऋणी सभा में महाजन का रुपया देना स्वीकार कर ले तो ५% दण्ड देने योग्य हैं। और इन्कार करे परन्तु सभा में प्रमाणित हो जाए तो १०% दण्ड देने योग्य है, ऐसी मनु की आज्ञा है। वशिष्ठ के नियमानुसार वृद्धि (ब्याज) १०० का अस्सीवाँ भाग – १.२५ प्रतिशत होना चाहिए । अथवा सात्पुरुशों के धर्म का स्मरण कर २% ब्याज लेना चाहिए। २% तक ब्याज लेने से दोष नहीं होता। ब्राह्मण आदि चारों वर्णों में क्रम से दो, तीन, चार और पांच % माहवारी व्याज ग्रहण करे ।। १३६-१४२ ॥ न त्वेवाधौ सोपकारे कौसीदीं वृद्धिमाप्नुयात् । न चाधेः कालसंरोधात्निसर्गोऽस्ति न विक्रयः ॥ ॥१४३॥ न भोक्तव्यो बलादाधिर्भुञ्जानो वृद्धिमुत्सृजेत् । मूल्येन तोषयेच्चैनमाधिस्तेनोऽन्यथा भवेत् ॥ ॥१४४॥ आधिश्चोपनिधिश्चोभौ न कालात्ययमर्हतः । अवहार्यो भवेतां तौ दीर्घकालमवस्थितौ ॥ ॥१४५॥ सम्प्रीत्या भुज्यमानानि न नश्यन्ति कदा चन । धेनुरुष्टो वहन्नश्वो यश्च दम्यः प्रयुज्यते ॥ ॥१४६॥ यत् किं चिद् दशवर्षाणि संनिधौ प्रेक्षते धनी । भुज्यमानं परैस्तूष्णीं न स तत्लब्धुमर्हति ॥ ॥१४७॥ भूमि, गौ, धन आदि भोग के पदार्थ यदि आधि (गिरवी) महाजन के यहाँ रखें तो महाजन को ब्याज न मिले और नियमित समय में ऋणी छुड़ा न सके तो महाजन को उस वस्तु को बेचने अथवा किसी अन्य को दे देने का अधिकार नहीं है। आधि वस्तु को ऋणी की आज्ञा के बिना उपयोग मे नहीं लाना चाहिए, यदि उपयोग में लाये तो ब्याज छोड़ देना चाहिए और यदि गिरवी वस्तु टूट फूट जाय तो ऋणी को उसका बदला धन आदि देकर खुश करे नहीं तो चोर माना जाता है। आधि और उपनिधि (अमानत) के पदार्थ बहुत दिन तक पड़े रहें तब भी तत्वत नष्ट नहीं होता। उनका मालिक जब चाहे तब उन्हें वापिस ले सकता है। गौ, ऊँट, घोड़ा वगैरह किसी ने प्रेम से उपयोग करने को दिए हो और चाहे वह उपयोग में लाता हो तब भी उसके स्वामी का ही अधिकार बना रहता है। यदि किसी वस्तु को अन्य लोग दस वर्षों तक उपयोग मे लाते रहें और स्वामी चुपचाप देखा करे, तो उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। ॥ १४३-१४७ ।। अजडश्वेदपोगण्डो विषये चास्य भुज्यते । भग्नं तद् व्यवहारेण भोक्ता तद् द्रव्यमर्हति ॥ ॥१४८॥ आधिः सीमा बालधनं निक्षेपोपनिधिः स्त्रियः। राजस्वं श्रोत्रियस्वं च न भोगेन प्रणश्यति ॥ ॥१४९॥ यः स्वामिनाऽननुज्ञातमाधिं भूङ्ङ्क्तेऽविचक्षणः । तेनार्धवृद्धिर्मोक्तव्या तस्य भोगस्य निष्कृतिः ॥ ॥१५०॥ वस्तु का स्वामी पागल न हो और नादान न हो पर उसका वस्तु दूसरा भोगता रहें तो न्याय से उसका अधिकार नहीं रहता और भोगने वाले का हो जाता है। गिरवी वस्तु, सीमा, बालक का धन, धरोहर, प्रसन्नता से भोगार्थ दिया धन, स्त्री और राजा का धन, श्रोत्रिय का धन इनको दूसरा भोगे तो भी स्वामी का अधिकार नहीं जाता । जो चालाक मनुष्य आधि को बिना स्वामी के कहे भोगता है उसको आधा ब्याज छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसका आधा ब्याज वस्तु को उपयोग में लाने से घट जाता है ॥ १४८-१५०॥ कुसीदवृद्धिद्वैगुण्यं नात्येति सकृदाहृता । धान्ये सदे लवे वाह्ये नातिक्रामति पञ्चताम् ॥ ॥१५१॥ कृतानुसारादधिका व्यतिरिक्ता न सिध्यति । कुसीदपथमाहुस्तं पञ्चकं शतमर्हति ॥ ॥१५२॥ नातिसांवत्सरीं वृद्धि न चादृष्टां पुनहरेत् । चक्रवृद्धिः कालवृद्धिः कारिता कायिका च या ॥ ॥१५३॥ ऋणं दातुमशक्तो यः कर्तुमिच्छेत् पुनः क्रियाम् । स दत्त्वा निर्जितां वृद्धि करणं परिवर्तयेत् ॥ ॥१५४॥ अदर्शयित्वा तत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत् । यावती संभवेद् वृद्धिस्तावतीं दातुमर्हति ॥ ॥१५५॥ कर्जा के रुपयों का सूद एक बार लेने पर, ऋण का धन दुगने से अधिक नहीं लिया जा सकता। और धान्य, वृक्ष के मूल, फल, ऊन और वाहन पांच गुना से अधिक नहीं लिये जाते हैं। जितने ब्याज का ठहराव हो चुका हो उससे अधिक शास्त्र के विपरीत नहीं मिल सकता। ब्याज का मार्ग यही है कि अधिक से अधिक पांच प्रतिशत लिया जा सकता है। एक वर्ष मे ब्याज मिला कर, मूल धन दोगुना हो जाए तो उतना ब्याज नहीं लेना चाहिये और ब्याज का ब्याज भी नहीं लेना चाहिए। नियतकाल बीतने पर दोगुना, तिगुना आदि लेने का सहमति न करें और उससे कोई काम धोखा देकर नहीं करवाना चाहिए। जो कर्जदार पुराना कर्जा अदा न कर सके और नया व्यवहार चलाना चाहे तो पुराने कागज को बदलकर नया कर लेना चाहिए। लेकिन ब्याज भी न दे सके तो उस को मूलधन में जोड़ देना चाहिए फिर जितनी संख्या पहले ब्याज सहित हो जाए, उतनी देने योग्य होती है। ॥ १५१-१५५ ॥ चक्रवृद्धि समारूढो देशकालव्यवस्थितः । अतिक्रामन् देशकालौ न तत्फलमवाप्नुयात् ॥ ॥१५६॥ समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः । स्थापयन्ति तु यां वृद्धि सा तत्राधिगमं प्रति ॥ ॥१५७॥ यो यस्य प्रतिभूस्तिष्ठेद् दर्शनायैह मानवः । अदर्शयन् स तं तस्य प्रयच्छेत् स्वधनाद् ऋणम् ॥ ॥१५८॥ चक्रवृद्धि का आश्रय करनेवाला महाजन को देश-काल के नियम के अनुसार ही ब्याज लेना चाहिए परन्तु नियत देश व काल को उल्लंघित करने पर ब्याज पाने योग्य नहीं रहता है। समुद्र आदि के रास्ते देश-विदेश में व्यापार करने वाले चतुर महाजन 'जो आय - व्यय के अनुसार भाड़ा ब्याज आदि तय करे वहीं प्रमाण है। जो मनुष्य जिसको हाज़िर करने की जिम्मेदारी ले और उसे हाज़िर न कर सके तो उसको अपने पास से वह ऋण चुकाना पडता है ॥१५६-१५८॥ प्रातिभाव्यं वृथादानमाक्षिकं सौरिकां च यत् । दण्डशुल्कावशेषं च न पुत्रो दातुमर्हति ॥ ॥१५९॥ दर्शनप्रातिभाव्ये तु विधिः स्यात् पूर्वचोदितः । दा नप्रतिभुवि प्रेते दायादानपि दापयेत् ॥ ॥१६०॥ अदातरि पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम् । पश्चात् प्रतिभुवि प्रेते परीप्सेत् केन हेतुना ॥ ॥१६१॥ निरादिष्टधनश्चेत् तु प्रतिभूः स्यादलंधनः । स्वधनादेव तद् दद्यान्निरादिष्ट इति स्थितिः ॥ ॥१६२॥ मत्तोन्मत्तार्ताध्यधीनैर्बालेन स्थविरेण वा । असंबद्धकृतश्चैव व्यवहारो न सिध्यति ॥ ॥ १६३॥ सत्या न भाषा भवति यद्यपि स्यात् प्रतिष्ठिता । बहिश्वेद् भाष्यते धर्मानियताद् व्यवहारिकात् ॥ ॥१६४॥ जमानत का धन, वृथा दान, जुए का रुपया, मद्य का रुपया और जुर्माना का रुपया पिता के मरने पर उसके बदले पुत्र के देने योग्य नहीं हैं। सिर्फ उपस्थित करने पर ज़मानत की ही पहली विधि है। परन्तु कर्ज के बदले धन देना स्वीकार करने वाला जमानती मर जाए तो कर्ज उसके वारिसों से भी दिलाना चाहिए। अदाता प्रतिभू अर्थात जिसने कर्ज अदायगी की बात स्वीकार न की ही केवल गवाह बनने की बात ही स्वीकार की हो मर जाए और ऋणी कर्ज अदा न करे, तो महाजन कैसे अपना रुपया वसूल करे ? किसी से नहीं। यदि जमानती को ऋणी रुपया सौंप गया हो और उसके पास भी खूब धन हो तो ज़मानती के मरने पर उसके पुत्र को ऋण चुकाना चाहिए-यह धर्मशास्त्र की मर्यादा है। नशेबाज, पागल, दुख, पराधीन, बालक, बुड्डा और सामर्थ के बाहर प्रतिज्ञा करने वाले का व्यवहार सिद्ध नहीं होता। आपस की लिखा पढ़ी या जबानी ठहरी भी कोई बात यदि धर्म-क़ानून और परंपरा के विरुद्ध हो तो सच्ची नहीं मानी जाती है ॥ १५६-१६४ ॥ योगाधमनविक्रीतं योगदानप्रतिग्रहम् । यत्र वाऽप्युपधिं पश्येत् तत् सर्वं विनिवर्तयेत् ॥ ॥१६५॥ ग्रहीता यदि नष्टः स्यात् कुटुम्बार्थे कृतो व्ययः। दातव्यं बान्धवैस्तत् स्यात् प्रविभक्तैरपि स्वतः ॥ ॥१६६॥ कुटुम्बार्थेऽध्यधीनोऽपि व्यवहारं यमाचरेत् । स्वदेशे वा विदेशे वा तं ज्यायान्न विचालयेत् ॥ ॥१६७॥ कपट से क्रिया हुआ बंधक (गिरवी) विक्रय, दान, प्रतिग्रह, और निक्षेप-धरोहर को भी लौटा देना चाहिए। यदि ऋणी मर गया हो और ऋण का द्रव्य कुटुम्ब में भी लगाया हो तो उसके बांधव चाहे मिले हों अथवा अलग हों, उन्हें अपने धन से ऋण चुकाना चाहिए। कोई अधीन पुरुष भी स्वामी के कुटुम्ब के लिए देश या परदेश में लेन-देन कर ले तो परिवार के स्वामी को उसको स्वीकार कर लेना चाहिए, इन्कार नहीं करना चाहिए ॥१६५-१६७॥ बलाद् दत्तं बलाद् भुक्तं बलाद् यच्चापि लेखितम् । सर्वान् बलकृतानर्थानकृतान् मनुरब्रवीत् ॥ ॥१६८॥ त्रयः परार्थे क्लिश्यन्ति साक्षिणः प्रतिभूः कुलम् । चत्वारस्तूपचीयन्ते विप्र आढ्यो वणि‌नृपः ॥ ॥१६९॥ अनादेयं नाददीत परिक्षीणोऽपि पार्थिवः । न चादेयं समृद्धोऽपि सूक्ष्ममप्यर्थमुत्सृजेत् ॥ ॥१७०॥ अनादेयस्य चादानादादेयस्य च वर्जनात् । दौर्बल्यं ख्याप्यते राज्ञः स प्रेत्यैह च नश्यति ॥ ॥१७१॥ स्वादानाद् वर्णसंसर्गात् त्वबलानां च रक्षणात् । बलं सज्जायते राज्ञः स प्रेत्यैह च वर्धते ॥ ॥१७२॥ बलपूर्वक दिया, बलपूर्वक भोग किया, कुछ लिखाया या कुछ किसी से कराया कह सब न किये के समान ही है, ऐसा मनुजी ने कहा है। तीन दूसरे के लिए दुःख पाते हैं-- साक्षी, जमानती और ऋणी के कुटुम्बी । और चार दूसरे के कारण बढ़ते हैं-ब्राह्मण, धनी, बनिया और राजा । राजा को निर्धन होकर भी अनुचित धन आदि नहीं लेना चाहिए और धनी होकर भी योग्य धन को थोड़ा भी नहीं छोड़ना चाहिए। न लेने योग्य वस्तु को लेने से और लेने योग्य को छोड़ने से राजा की दुर्बलता प्रसिद्ध हो जाती है और वह राजा अपयश पाकर नष्ट हो जाता है। उचित धन लेने से, प्रजा को वर्णसंकर न होने देने से, और दुर्बलों की रक्षा करने से राजा को बल प्राप्त होता है तथा और लोक-परलोक दोनों में सुख भोगता है। ॥१६६-१७२॥ तस्माद् यम इव स्वामी स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये । वर्तेत याम्यया वृत्त्या जितक्रोधो जितेन्द्रियः ॥ ॥१७३॥ यस्त्वधर्मेण कार्याणि मोहात् कुर्यान्नराधिपः । अचिरात् तं दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः ॥ ॥१७४॥ कामक्रोधौ तु संयम्य योऽर्थान् धर्मेण पश्यति । प्रजास्तमनुवर्तन्ते समुद्रमिव सिन्धवः ॥ ॥१७५॥ इसलिए राजा को यमराज के समान अपना प्रिय और अप्रिय छोड़कर क्रोध और इन्द्रियों को वश में करके, समभाव प्रजा पर रखना चाहिए। जो राजा मूर्खता से अधर्म के कार्य करता है, उस दुष्ट को शत्रु शीघ ही वश में कर लेते हैं। परन्तु जो काम, क्रोध को वश में करके, धर्म से कार्यों को देखता है, उसकी प्रजा समुद्र के नदियों की भांति अनुगामिनी होती हैं ॥ १७३-१७५॥ यः साधयन्तं छन्देन वेदयेद् धनिकं नृपे । स राज्ञा तत्वतुर्भागं दाप्यस्तस्य च तद् धनम् ॥ ॥१७६॥ कर्मणाऽपि समं कुर्याद् धनिकायाधमर्णिकः । समोऽवकृष्टजातिस्तु दद्यात्श्रेयांस्तु तत्शनैः ॥ ॥१७७॥ अनेन विधिना राजा मिथो विवदतां नृणाम् । साक्षिप्रत्ययसिद्धानि कार्याणि समतां नयेत् ॥ ॥१७८॥ यदि ऋणी राजा से कहे कि महाजन ज़बरदस्ती ऋण वसूल करता है तब भी राजा उसका धन दिलाए और ऋणी पर ऋण का चौथाई दण्ड करे। समानजाति अथवा हीन जाति क़र्जदार को महाजन का धन उसके यहां काम करके चुका देना चाहिए और महाजन से ऊंची जाति का ऋणी धीरे धीरे अदा कर देना चाहिए। इस प्रकार राजा को आपस में झगड़ा करनेवालों का निर्णय साक्षी, लेख आदि के प्रमाण से करना चाहिए ॥१७६-१७६॥ निक्षेप-धरोहर-अमानत रखना कुलजे वृत्तसम्पन्ने धर्मज्ञे सत्यवादिनि । महापक्षे धनिन्यार्ये निक्षेपं निक्षिपेद् बुधः ॥ ॥ १७९॥ यो यथा निक्षिपेद्द हस्ते यमर्थं यस्य मानवः । स तथैव ग्रहीतव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः ॥ ॥१८०॥ यो निक्षेपं याच्यमानो निक्षेप्तुर्न प्रयच्छति । स याच्यः प्रा‌ड्विवाकेन तत्निक्षेप्तुरसंनिधौ ॥ ॥१८१॥ साक्ष्यभावे प्रणिधिभिर्वयोरूपसमन्वितैः । अपदेशैश्च संन्यस्य हिरण्यं तस्य तत्त्वतः ॥ ॥१८२॥ स यदि प्रतिपद्येत यथान्यस्तं यथाकृतम् । न तत्र विद्यते किं चिद् यत् परैरभियुज्यते ॥ ॥१८३॥ कुलीन, सदाचार, धर्मज्ञ, सत्यवादी, कुटुम्बी, धनी और प्रतिष्ठित पुरुष के पास निक्षेप-धरोहर रखना चाहिए। जो मनुष्य जिसके यहां जो द्रव्य जिस प्रकार रक्खें, उसको उसी प्रकार लेना उचित है। क्योंकि जैसा देना, वैसा लेना। जो धरोहर रखने वाले की वस्तु मांगने पर नहीं देता, उससे न्यायकर्ता राज पुरुष रखनेवाले के पीछे मांगे। धरोहर के समय साक्षी न हो, तो राजा किसी वृद्ध-प्रामाणिक कर्मचारी से कुछ वस्तु किसी बहाने से उसके यहीं रखवाना चाहिए और थोड़े ही दिन में ही लौटा लेना चाहिए। यदि वह राजकर्मचारी अपनी रक्खी वस्तु ठीक ठीक मांगने पर वापिस पा जाएँ तो जो धरोहर न पाने की नालिश करे उसको झूठा समझना चाहिए ॥१७६-१८३॥ तेषां न दद्याद् यदि तु तद् हिरण्यं यथाविधि । उभौ निगृह्य दाप्यः स्यादिति धर्मस्य धारणा ॥ ॥१८४॥ निक्षेपोपनिधी नित्यं न देयौ प्रत्यनन्तरे । नश्यतो विनिपाते तावनिपाते त्वनाशिनौ ॥ ॥१८५॥ स्वयमेव तु यौ दद्यान् मृतस्य प्रत्यनन्तरे । न स राज्ञाऽभियोक्तव्यो न निक्षेप्तुश्च बन्धुभिः ॥ ॥१८६॥ अच्छलेनैव चान्विच्छेत् तमर्थं प्रीतिपूर्वकम् । विचार्य तस्य वा वृत्तं साम्मैव परिसाधयेत् ॥ ॥१८७॥ निक्षेपेष्वेषु सर्वेषु विधिः स्यात् परिसाधने । समुद्रे नाप्नुयात् किं चिद् यदि तस्मान्न संहरेत् ॥ ॥१८८॥ चौरैर्हतं जलेनोढमग्निना दग्धमेव वा । न दद्याद् यदि तस्मात् स न संहरति किं चन ॥ ॥१८९॥ निक्षेपस्यापहर्तारमनिक्षेप्तारमेव च । सर्वैरुपायैरन्विच्छेत्शपथैश्चैव वैदिकैः ॥ ॥ १९०॥ यो निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते । तावुभौ चौरवत्शास्यौ दाप्यौ वा तत्समं दमम् ॥ ॥१९१॥ और यदि वह उस वस्तु को उचित अवस्था में वापस न करे तो राजा को उसे पकड़कर दोनों की धरोहर वापस दिलवानी चाहिए, यही धर्म निर्णय है। खुली या मुहर लगी धरोहर या मांग वस्तु रखने वाले की वस्तु उसके वारिस को नहीं देनी चाहिए, क्योंकि रखनेवाले की मृत्यु होने से धरोहर नष्ट हो जाती हैं परन्तु मनुष्य के जीवित रहते अविनाशी रहती है। धरोहर रखनेवाले की मृत्यु होने पर, यदि महाजन खुशी से उसके वारिसों को धरोहर वापस देना स्वीकार कर ले, तो कम देने का दावा वारिस अथवा राजा को नहीं करना चाहिए। उस धन को प्रसन्नता से कम ज्यादा का कपट छोड़कर, स्वीकार कर लेना चाहिए। यह उन सभी धरोहरों का नियम है जोकि बिना मुहर रखी गई है और मुहरवाली में कोई शक नहीं होता। अमानत की वस्तु को चोर चुरा कर ले जाए, जल में बह जाए, आग में जल जाए और यदि महाजन ने उसमें से कुछ न लिया हो, तो वापस नहीं देनी पड़ती। जो धरोहर न लौटाये अथवा जो बिना रखे ही कपट से मांगे उन दोनों का साम आदि उपाय और वैदिक शपथ से राजा को निर्णय करना चाहिए। जो धरोहर नहीं देता, या जो बिना रक्खे ही मांगता हैं, उन दोनों को चोर के समान ही दण्ड देना चाहिए और धरोहर के समान दण्ड लगाना चाहिए ॥ १८४- १९१॥ निक्षेपस्यापहर्तारं तत्समं दापयेद् दमम् । तथोपनिधिहर्तारमविशेषेण पार्थिवः ॥ ॥१९२॥ उपधाभिश्च यः कश्चित् परद्रव्यं हरेन्नरः । ससहायः स हन्तव्यः प्रकाशं विविधैर्वधैः ॥ ॥१९३॥ निक्षेपो यः कृतो येन यावांश्च कुलसंनिधौ । तावानेव स विज्ञेयो विब्रुवन् दण्डमर्हति ॥ ॥१९४॥ मिथो दायः कृतो येन गृहीतो मिथ एव वा। मिथ एव प्रदातव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः ॥ ॥१९५॥ निक्षिप्तस्य धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च। राजा विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन्यासधारिणम् ॥ ॥ १९६॥ धरोहर और उपनिधि हरण करने वालों को भी राजा को यही दण्ड देना चाहिए। छल, कपट करके पराया धन हरने वालों को उनके मदद गारों के साथ सबके सामने. अनेक पीड़ादायक दण्ड देने चाहिए। गवाहों के सामने जितना धरोहर हो उतना स्वीकार करने से बाद झगडा करनेवाला दण्डनीय होता है। जिसने एकान्त में धरोहर रखी और एकान्त में ली हो, वह एकान्त में ही देना चाहिए। जैसे लेन वैसा देन। धरोहर और प्रेम से भोगार्थ दिए धन का फैसला ऐसा करना चाहिए, जिसमें धरोहर रखने वाले को कोई दुःख न पहुँचे ॥१९२-१९६॥ विक्रीणीते परस्य स्वं योऽस्वामी स्वाम्यसंमतः । न तं नयेत साक्ष्यं तु स्तेनमस्तेनमानिनम् ॥ ॥१९७॥ अवहार्यो भवेत्चैव सान्वयः षट्शतं दमम् । निरन्वयोऽनपसरः प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् ॥ ॥१९८॥ अस्वामिना कृतो यस्तु दायो विक्रय एव वा । अकृतः स तु विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थितिः ॥ ॥१९९॥ दूसरे की वस्तु जिसने बिना स्वामी की आज्ञा से बेची हो उस चोर व साहूकार को बिना गवाह चोर की भांति दण्ड देना चाहिए। दूसरे की वस्तु बेचनेवाला, यदि उस धन के मालिक के वंश में हो तो छः सौ पण दण्ड दे और सम्बन्धी या बेचने का अधिकार न रखता हो तो चोर के समान अपराधी समझ के दण्ड देने योग्य है। इस प्रकार बिनास्वामी की आज्ञा, बेचा या दिया हुआ कोई पदार्थ अवैध है। यही धर्मशास्त्र की मर्यादा है ॥१९७-१९९ ॥ संभोगो दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्व चित् । आगमः कारणं तत्र न संभोग इति स्थितिः ॥ ॥ २००॥ विक्रयाद् यो धनं किं चिद् गृह्णीयात् कुलसंनिधौ । क्रयेण स विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम् ॥ ॥२०१॥ अथ मूलमनाहार्यं प्रकाशक्रयशोधितः । अदण्ड्यो मुच्यते राज्ञा नाष्टिको लभते धनम् ॥ ॥२०२॥ नान्यदन्येन संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति । न चासारं न च न्यूनं न दूरेण तिरोहितम् ॥ ॥ २०३॥ जिसको कोई वस्तु भोगते देखे पर खरीदते न देखा हो तो दूसरे का खरीद का लेख आदि प्रमाण होगा। भोग प्रमाण न होगा। यह व्यवहार की मर्यादा हैं। जो बिकती वस्तु को खरीदे और पीछे कोई झगडा शुरू ही जाए तो खरीदार को निर्दोष समझना चाहिए और उसको वह वस्तु मिलनी चाहिए। माल का मालिक से होकर बेचनेवाले को यदि खरीदनेवाला साबित न कर सके पर बहुतों के सामने खरीदना साबित कर दे तो दण्ड योग्य नहीं है और उस खोई वस्तु को उसका स्वामी वापस ले सकता है। एक वस्तु दूसरी के रूप में मिलती हो तो उसको दूसरे के धोखे मे बेचना ठीक नहीं है। और सड़ी, तौल में कम, बिना दिखलाये, अच्छी वस्तु के नीचे खराब ढककर बेचना अनुचित है ॥२००-२०३॥ अन्यां चेद् दर्शयित्वाऽन्या वोढुः कन्या प्रदीयते । उभे त एकशुल्केन वहेदित्यब्रवीन् मनुः ॥ ॥ २०४॥ नोन्मत्ताया न कुष्ठिन्या न च या स्पृष्टमैथुना । पूर्वं दोषानभिख्याप्य प्रदाता दण्डमर्हति ॥ ॥२०५॥ ऋत्विग् यदि वृतो यज्ञे स्वकर्म परिहापयेत् । तस्य कर्मानुरूपेण देयोंशः सहकर्तृभिः ॥ ॥ २०६॥ दक्षिणासु च दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् । कृत्स्नमेव लभेतांशमन्येनैव च कारयेत् ॥ ॥२०७॥ एक कन्या दिखाकर दूसरी किसी और का विवाह कर दे तो दोनों का एक ही मूल्य में विवाह कर लिया जाए मनु की आज्ञा हैं। पागल, कोढ़िन, किसी से भुक्त हो तो न बतलाने से कन्यादान वाला दण्ड योग्य होता है।' यज्ञ में वरण किया हुआ ऋत्विक किसी कारण से अपना कर्म न पूरा कर सके तो दूसरों के साथ में उसको भी कर्मानुसार दक्षिणा देनी चाहिए। समस्त दक्षिणा दे दी गई हो और ऋत्विक रोगावश कर्म छोड़ दे तो दूसरे से पूरा करा लेना चाहिए। ॥२०४-२०७॥ यस्मिन् कर्मणि यास्तु स्युरुक्ताः प्रत्यङ्गदक्षिणाः। स एव ता आददीत भजेरन् सर्व एव वा ॥ ॥२०८॥ रथं हरेत् चाध्वर्युर्ब्रह्माऽधाने च वाजिनम् । होता वाऽपि हरेदश्वमुद्गाता चाप्यनः क्रये ॥ ॥२०९॥ सर्वेषामर्धिनो मुख्यास्तदर्धेनार्धिनोऽपरे । तृतीयिनस्तृतीयांशाश्चतुर्थांशाश्च पादिनः ॥ ॥२१०॥ संभूय स्वानि कर्माणि कुर्वद्भिरिह मानवैः । अनेन विधियोगेन कर्तव्यांशप्रकल्पना ॥ ॥२११॥ आधान आदि कर्मो के जिन अंगों की जो दक्षिणा हो उनको कर्म कराने वाले को अलग अलग लें अथवा बाँट लेना चाहिए। आधान में रथ अध्वर्यु, घोड़ी ब्रह्मा या होता को लेना चाहिए और सोम खरीदकर गाड़ी में आया हो तो गाड़ी उद्गाता को लेनी चाहिए। यज्ञ के सोलह ऋत्विजों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा ये चार मुख्य ऋत्विक पूर्ण दक्षिणा में आधी के अधिकारी हैं- उनको ४८ गौ देवै । दूसरे मैत्रावरुण आदि चार को उसका आधा-२४ गौ, तीसरे अच्छा वाक् आदि चार को तृतीयांश-१६ गौ और चौथे ग्रांवस्तुत आदि को चतुथांश -१२ देना चाहिए। इस प्रकार सोलह ऋत्विक मिलकर कर्म करें तो अपना अपना भाग बाँट लें ॥ २०८-२११ ॥ धर्मार्थं येन दत्तं स्यात् कस्मै चिद् याचते धनम् । पश्चाच्च न तथा तत् स्यान्न देयं तस्य तद् भवेत् ॥ ॥२१२॥ यदि संसाधयेत् तत् तु दर्पात्लोभेन वा पुनः । राज्ञा दाप्यः सुवर्णं स्यात् तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः ॥ ॥२१३॥ दत्तस्यैषौदिता धर्मा यथावदनपक्रिया । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वेतनस्यानपक्रियाम् ॥ ॥२१४॥ किस याचक को धर्मार्थ किसी ने कुछ देना को कहा हो पर वह कर्म न करे तो उसको प्रतिज्ञात धन नहीं देना चाहिए। जो याचक गर्व अथवा लोभ से उस धन का दावा करें तो राजा, चोर मान कर एक सुवर्ण उस पर जुर्माना करें। इस प्रकार दिये धन को लौटाने का निर्णय धर्मानुसार किया है। अब नौकर को वेतन न देने का निर्णय कहा जायगा ॥ २१२-२१४ ॥ नौकर का वेतन भृतो नार्ती न कुर्याद यो दर्पात् कर्म यथोदितम् । स दण्ड्यः कृष्णलान्यष्टौ न देयं चास्य वेतनम् ॥ ॥२१५॥ जो नौकर बिना बीमारी के घमंड से सम्मति के अनुसार काम न करे तो उसपर आठ कृष्णल जुर्माना करना चाहिए और वेतन नहीं देना चाहिए ॥ २१५॥ आर्तस्तु कुर्यात् स्वस्थः सन् यथाभाषितमादितः । स दीर्घस्यापि कालस्य तत्लभेतेव वेतनम् ॥ ॥ २१६॥ यथोक्तमार्तः सुस्थो वा यस्तत् कर्म न कारयेत् । न तस्य वेतनं देयमल्पोनस्यापि कर्मणः ॥ ॥२१७॥ एष धर्मोऽखिलेनोक्तो वेतनादानकर्मणः । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धर्म समयभेदिनाम् ॥ ॥२१८॥ परन्तु जो बीमार हो और नीरोग होकर सम्मति के अनुसार काम करे तो यदि वह अधिक दिन बीमार रहा हो तब भी उसको वेतन देना चाहिए। स्वयं रोगी हो अथवा नीरोग यदि वह सम्मति दिए हुए कार्य को न करे अथवा दुसरे से न करवा दे तो उसको वेतन नहीं देना चाहिए। यह धर्मानुसार वेतन न देने का निर्णय कहा है। अब प्रतिज्ञाभङ्ग करनेवालों का निर्णय किया जायगा ॥२१५- २१८॥ प्रतिज्ञा भंग यो ग्रामदेशसङ्घानां कृत्वा सत्येन संविदम् । विसंवदेन्नरो लोभात् तं राष्ट्राद् विप्रवासयेत् ॥ ॥२१९॥ निगृह्य दापयेच्चैनं समयव्यभिचारिणम् । चतुःसुवर्णान् षण्निष्कांश्शतमानं च राजकम् ॥ ॥२२०॥ एतद् दण्डविधिं कुर्याद् धार्मिकः पृथिवीपतिः । ग्रामजातिसमूहेषु समयव्यभिचारिणाम् ॥ ॥२२१॥ जो मनुष्य गाँव अथवा देश के लोगों से किसी काम के लिए सत्य प्रतिज्ञा करके लोभ से उसको छोड़ दे तो राजा उसको राज्य से निकाला दे देना चाहिए और उस नियम भंग करनेवाले को पकड़कर चार निष्क अथवा छः स्वर्ण या एक चांदी का शतमान दण्ड करना चाहिए। धार्मिक राजा गाँव या जातिमण्डल में प्रतिज्ञा भंग करनेवाले को भी इसी प्रकार दण्ड करना चाहिए। ॥२१९-२२१ क्रीत्वा विक्रीय वा किं चिद् यस्यैहानुशयो भवेत् । सोऽन्तर्दशाहात् तद् द्रव्यं दद्याच्चैवाददीत वा ॥ ॥२२२॥ परेण तु दशाहस्य न दद्यान्नापि दापयेत् । आददानो ददत् चैव राज्ञा दण्ड्यौ शतानि षट् ॥ ॥२२३॥ किसी वस्तु को खरीद अथवा बेचकर जिसे पसंद न ही वह दस दिन के भीतर ही उसको वापस कर देना चाहिए अथवा वापस ले लेना चाहिए। परन्तु दस दिन के बाद न तो वापस करना चाहिए और न ही किसी और से करवाना चाहिए क्योंकि समय भंग करने से ६०० पण दण्ड योग्य होता है ॥२२२-२२३|| यस्तु दोषवतीं कन्यामनाख्याय प्रयच्छति । तस्य कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान् ॥ ॥२२४॥ अकन्येति तु यः कन्यां ब्रूयाद् द्वेषेण मानवः । स शतं प्राप्नुयाद् दण्डं तस्या दोषमदर्शयन् ॥ ॥२२५॥ पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः । नाकन्यासु क चिन्तॄणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः ॥ ॥२२६॥ पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् । तेषां निष्ठा तु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ॥ ॥२२७॥ यस्मिन् यस्मिन् कृते कार्य यस्येहानुशयो भवेत् । तमनेन विधानेन धर्ये पथि निवेशयेत् ॥ ॥२२८॥ जो पुरुष दोषवाली कन्या के दोष बताये बिना उसका विवाह कर दे उसपर राजा को ९६ पण दण्ड करना चाहिए। किसी कोई मनुष्य ईर्षा से कन्या में दोष लगाये पर उसको सिद्ध नहीं कर पाए तो उस पर एक सौ १०० पण दण्ड करना चाहिए। विवाहसम्वन्धी वैदिक मन्त्र कन्याओं के लिए ही कहे हैं। जो कन्या नहीं हैं उनके लिए इन वैदिक मन्त्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके कन्यापन तो समाप्त हो जाता है। विवाह के मन्त्र कन्या में स्त्रीत्व लाते हैं और उन मन्त्र की समाप्ति सप्तपदी हो जाने पर होती है- ऐसा धर्मशास्त्रियों का निर्णय है। इस जगत् में जिस जिस काम के करने पर बाद में पछतावा हो उसका निर्णय आगे कही रीति से राजा को करना चाहिए ॥२२४-२२८ पशुषु स्वामिनां चैव पालानां च व्यतिक्रमे । विवादं सम्प्रवक्ष्यामि यथावद् धर्मतत्त्वतः ॥ ॥ २२९॥ दिवा वक्तव्यता पाले रात्रौ स्वामिनि तद्गृहे । योगक्षेमेऽन्यथा चेत् तु पालो वक्तव्यतामियात् ॥ ॥ २३०॥ गोपः क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद् दशतो वराम् । गोस्वाम्यनुमते भृत्यः सा स्यात् पालेऽभृते भृतिः ॥ ॥२३१॥ पशु के मालिक और चरवाहे में प्रतिज्ञाभंग होने पर इस प्रकार निर्णय करे-पशुओं की रक्षा का भार दिन में चरवाहे और रात में उनके स्वामी पर है और चारे की कमी होने पर चरवाहा उत्तरदायी होता है। जो चरवाहा दूध मात्र का वेतन पाता हो वह स्वामी की आज्ञा से दस गौओं में जो उत्तम हो उसको दुह कर ले जा सकता है। यह बिना वेतन के चरवाहे का वेतन है ॥ २२६२३१ ।। नष्टं विनष्टं कृमिभिः श्वहतं विषमे मृतम् । हीनं पुरुषकारेण प्रदद्यात् पाल एव तु ॥ ॥२३२॥ विघुष्य तु हृतं चौरैर्न पालो दातुमर्हति । यदि देशे च काले च स्वामिनः स्वस्य शंसति ॥ ॥ २३३॥ कर्णों चर्म च वालांश्च बस्तिं स्नायुं च रोचनाम् । पशुषु स्वामिनां दद्यान् मृतेष्वङ्कानि दर्शयेत् ॥ ॥२३४॥ अजाविके तु संरुद्ध वृकैः पाले त्वनायति । यां प्रसह्य वृको हन्यात् पाले तत् किल्बिषं भवेत् ॥ ॥२३५॥ तासां चेदवरुद्धानां चरन्तीनां मिथो वने। यामुत्प्लुत्य वृको हन्यान्न पालस्तत्र किल्बिषी ॥ ॥२३६॥ जो पशु खो जाय, कीड़े पड़कर मर जाए, कुत्तों से मारा जाए, गड्ढे में गिरकर मर जाए, चरवाहे की असावधानी से उसे चोर ले जायँ तो उसको चरवाहे को मालिक को दे देना चाहिए। जो चोर हमला करके कोई पशु ले जायें और चरवाहा उसका ठीक ठीक वृतांत समय पर उसके स्वामी को बता दे तो चरवाहा दण्ड का भागी नहीं होगा। यदि पशु स्वयं मर जाय तो चरवाहे को उसके कान, चमड़ा, बाल, वस्ति, स्नायु और रोचना इत्यादि कोई अङ्ग स्वामी को दे देना चाहिए। बकरी और भेड़ को भेड़िया घेर ले और चरवाहा उनको छोड़कर भाग जाए तो भेड़िया जिसको मारेगा उसका पातक चरवाहे को लगेगा और यदि बकरी, भेड़ को चरवाके ने घेर रक्खा हो और अचानक भेड़िया आकर मार डाले तो उसका पातकी चरवाहा नहीं होगा ॥ २३२-२३६ ॥ धनुःशतं परीहारो ग्रामस्य स्यात् समन्ततः । शम्यापातास्त्रयो वाऽपि त्रिगुणो नगरस्य तु ॥ ॥२३७॥ तत्रापरिवृतं धान्यं विहिंस्युः पशवो यदि । न तत्र प्रणयेद् दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणाम् ॥ ॥२३८॥ गाँव के चारों तरफ़ चार सौ हाथ था तीन लकड़ी फेंकने पर जितनी दूर गिरे वहां तक और नगर के आसपास उसकी तिगुनी भूमि पशुओं के लिए छोड़ना रखना उचित है, इस भूमि को 'परिहार' कहते हैं। उस भूमि में बाड़ न होने से उसमे उगा अन्न यदि कोई पशु खा ले तो राजा को चरवाहे को दण्ड नहीं देना चाहिए ॥ २३७- २३८ ॥ वृतिं तत्र प्रकुर्वीत यामुष्त्रो न विलोकयेत् । छिद्रं च वारयेत् सर्वं श्वसूकरमुखानुगम् ॥ ॥ २३९॥ पथि क्षेत्रे परिवृते ग्रामान्तीयेऽथ वा पुनः । सपालः शतदण्डार्हो विपालान् वारयेत् पशून् ॥ ॥२४०॥ क्षेत्रेष्वन्येषु तु पशुः सपादं पणमर्हति । सर्वत्र तु सदो देयः क्षेत्रिकस्यैति धारणा ॥ ॥२४१॥ अनिर्दशाहां गां सूतां वृषान् देवपशूस्तथा । सपालान् वा विपालान् वा न दण्ड्यान् मनुरब्रवीत् ॥ ॥२४२॥ क्षेत्रियस्यात्यये दण्डो भागाद् दशगुणो भवेत् । ततोऽर्धदण्डो भृत्यानामज्ञानात् क्षेत्रिकस्य तु ॥ ॥२४३॥ एतद् विधानमातिष्ठेद् धार्मिकः पृथिवीपतिः । स्वा मिनां च पशूनां च पालानां च व्यतिक्रमे ॥ ॥२४४॥ उस भूमि के बचाने के लिए इतनी ऊंची बाड़ करनी चाहिए जिसमें ऊंट न देख सकें और छोटे छेदों को बंद कर दें जिसमें सुंअर, कुत्ता इत्यादि अपना मुंह अन्दर न घुसा सकें। गाँव के या रास्ते के पास बाड़ से घिरे खेतों का अन्न यदि पशु खाले तो चरवाहे पर सौ पण दंड करना चाहिए और बिना चरवाहे के पशुओं को हाँक देना चाहिए। दूसरे के खेतों में यदि पशु हानि करे तो चरवाहे पर सवा पण दण्ड करना चाहिए और खेत के स्वामी की जितनी हानि हुई हो उतनी खेत के मालिक को हर हालत में देना ही चाहिए। दस दिन के भीतर की ब्याई गौ, सांड़ और देवार्पण करके छोड़े हुए पशु यदि खेत खाले चाहे चरवाहा साथ हो अथवा न या न हो, दण्ड नहीं हो सकता-यह मनु जी की आज्ञा हैं। यदि खेतवाले ही के पशु खेत चर जाएँ तो राजा हानि से दस गुना दण्ड करे और यदि यह हलवालों की भूल से हुआ हो तो इसका आधा दण्ड करना चाहिए। इस प्रकार पशुओं के स्वामी, पशु और चरवाहे के अपराध होने पर धार्मिक राजा न्याय करे ॥२३९-२४४ सीमा-सरहद का निर्णय सीमां प्रति समुत्पन्ने विवादे ग्रामयोर्द्वयोः । ज्येष्ठे मासि नयेत् सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु ॥ ॥ २४५॥ सीमावृक्षांश्च कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकान् । शाल्मलीन् सालतालांश्च क्षीरिणश्चैव पादपान् ॥ ॥२४६॥ यदि दो गाँव की सीमा का झगड़ा उठे तो जेठ मास में, जब समस्त जमीन साफ़ हो जाए तब उसका निश्चय करना चाहिए। सीमा जानने के लिए बड़, पीपल, ढाक, सॅमर, साल, ताल और अन्य दूधवाले कोई वृक्ष स्थापित करे ॥२४५-२४६॥ गुल्मान् वेणूंश्च विविधान् शमीवल्लीस्थलानि च । शरान् कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति ॥ ॥२४७॥ तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च । सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च ॥ ॥२४८॥ उपछन्नानि चान्यानि सीमालिङ्गानि कारयेत् । सीमाज्ञाने नृणां वीक्ष्य नित्यं लोके विपर्ययम् ॥ ॥२४९॥ अश्मनोऽस्थीनि गोवालांस्तुषान् भस्म कपालिकाः । करीषमिष्टकाऽङ्गारां शर्करा वालुकास्तथा ॥ ॥२५०॥ यानि चैवंप्रकाराणि कालाद् भूमिर्न भक्षयेत् । तानि संधिषु सीमायामप्रकाशानि कारयेत् ॥ ॥२५१॥ एतैर्लिङ्गैर्नयेत् सीमां राजा विवदमानयोः । पूर्वभुक्त्या च सततमुदकस्यागमेन च ॥ ॥२५२॥ गुल्म, बांस, शमी, लता, रामशर, कुञ्जक की वेल इत्यादि स्थापित करनी चाहिए जिससे सीमा नष्ट न हो पाए। तालाव, कुआं, बावडी, झरना, देव मन्दिर सीमा के मेल पर बनवाने चाहिए । सीमा निर्णय के लिए इस लोक मे मनुष्यों के भ्रम को देख कर उसको जानने के लिए छिपा चिह्न भी स्थापित करना चाहिए। पत्थर, हड्डी, गौ के बाल, भूसी, राख, ठीकरा, सूखा गोबर, ईंट, कोयला, रोड़ा, रेत आदि वस्तु को जो बहुत दिनों तक जमीन में छिपाने योग्य हो उनको सीमा के नीचे गुप्त रूप से रख देना चाहिए। राजा को इन चिह्नों से तत्थ पूर्व भोग से, नदी आदि जल मार्ग से, सीमा का निर्णय करना चाहिए ॥ २४७-२५२ ॥ यदि संशय एव स्यात्लिङ्गानामपि दर्शने । साक्षिप्रत्यय एव स्यात् सीमावादविनिर्णयः ॥ ॥२५३॥ ग्रामीयककुलानां च समक्षं सीम्नि साक्षिणः । प्र ष्टव्याः सीमलिङ्गानि तयोश्चैव विवादिनोः ॥ ॥२५४॥ चिह्नों के देखने पर भी अगर कोई संदेह हो तो साक्षी गवाह के विश्वास पर निर्णय करना चाहिए। वादी, प्रतिवादी, गाँव के कुलीन पंचों के सामने सीमा के चिन्ह पूछने चाहिए और उसी के अनुसार फैसला करना चाहिए ॥ २५३-२५४॥ ते पृष्तास्तु यथा ब्रूयुः समस्ताः सीम्नि निश्चयम् । निबध्नीयात् तथा सीमां सर्वांस्तांश्चैव नामतः ॥ ॥२५५॥ शिरोभिस्ते गृहीत्वोर्वी स्रग्विणो रक्तवाससः । सुकृतैः शापिताः स्वैः स्वैर्नयेयुस्ते समज्ञ्जसम् ॥ ॥२५६॥ यथोक्तेन नयन्तस्ते पूयन्ते सत्यसाक्षिणः । विपरीतं नयन्तस्तु दाप्याः स्युर्द्विशतं दमम् ॥ ॥२५७॥ साक्ष्यभावे तु चत्वारो ग्रामाः सामन्तवासिनः । सीमाविनिर्णयं कुर्युः प्रयता राजसंनिधौ ॥ ॥२५८॥ सामन्तानामभावे तु मौलानां सीम्नि साक्षिणाम् । इमानप्यनुयुञ्जीत पुरुषान् वनगोचरान् ॥ ॥२५९॥ व्याधांशाकुनिकान् गोपान् कैवर्तान् मूलखानकान् । व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः ॥ ॥२६०॥ ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः सीमासंधिषु लक्षणम् । तत् तथा स्थापयेद् राजा धर्मेण ग्रामयोर्द्वयोः ॥ ॥२६१॥ यह लोग पूछने पर जैसा कहें उसके अनुसार सीमा का निर्णय करके उन पञ्चों और साक्षियों का नां लिख लेना चाहिए। उन साक्षियों को लाल फूलों की माला, लाल वस्त्र पहनकर सिर पर मिट्टी का ढेला रखकर अपने अपने पुण्य की शपथ खाकर उचित बात कहनी चाहिए। वह सत्य साक्षी यथार्थ निर्णय करने के कारण निष्पाप होते हैं और असत्य निर्णय करें तो उन पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। यदि साक्षियों का अभाव हो तो आसपास के चार ज़मींदारों को धर्म से राजा के सामने सीमा का निर्णय करना चाहिए। यदि जमींदार और गांव के पुराने वासी सीमा के साक्षी न मिले तो वन में रहनेवाले मनुष्यों से पूछ लेना चाहिए। व्याध, चिड़ीमार, ग्वाल, मछुए, जड़ खोदनेवाले, कना बीनकर जीनेवाले आदि मनुष्यों से सच बाते निश्चित करनी चाहिए। वह लोग जिस प्रकार कहें उसी प्रकार राजा को दो गावों के बीच सीमा की स्थापना करनी चाहिए ॥२५५-२६१॥ क्षेत्रकूपतडागानामारामस्य गृहस्य च । सामन्तप्रत्ययो ज्ञेयः सीमासेतुविनिर्णयः ॥ ॥२६२॥ खेत, कुआं, तालाब, बगीचा और घरों की सीमा का निर्णय आसपास के गवाहों से करना चाहिए ॥२६२॥ सामन्ताश्चेत्मृषा ब्रूयुः सेतौ विवादतां नृणाम् । सर्वे पृथक् पृथग् दण्ड्या राज्ञा मध्यमसाहसम् ॥ ॥२६३॥ गृहं तडागमारामं क्षेत्रं वा भीषया हरन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादज्ञानाद् द्विशतो दमः ॥ ॥२६४॥ सीमायामविषह्यायां स्वयं राजैव धर्मवित् । प्रदिशेद् भूमिमेकेषामुपकारादिति स्थितिः ॥ ॥ २६५॥ एषोऽखिलेनाभिहितो धर्मः सीमाविनिर्णये । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वाक्पारुष्यविनिर्णयम् ॥ ॥२६६॥ यदि सीमा के झगड़े में पास के सामन्त झूठ बोलें तो हर एक को पांच पांच सौ पण दण्ड करना चाहिए। घर, तालाब, बगीचा या खेत को डर दिखा कर कोई छीनले तो पांच सौ पण उस पर दण्ड़ करे और अज्ञानता में कब्ज़ा ले तो दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। सीमा के निर्णय का कोई भी उचित सबूत न मिले तो धर्मज्ञ राजा को स्वयं सीमा का निर्णय कर देना चाहिए, यही मर्यादा है इस प्रकार समस्त सीमा निर्णय का विपय कहा गया है, अब कठोर वचन का निर्णय कहा जायगा ॥ २६३-२६६। कठोर वचन-गाली आदि का निर्णय शतं ब्राह्मणमाक्कुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति । वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शूद्रस्तु वधमर्हति ॥ ॥२६७॥ पञ्चाशद् ब्राह्मणो दण्ड्यः क्षत्रियस्याभिशंसने । वैश्ये स्यादर्धपञ्चाशत्शूद्रे द्वादशको दमः ॥ ॥२६८॥ समवर्णे द्विजातीनां द्वादशैव व्यतिक्रमे । वादेष्ववचनीयेषु तदेव द्विगुणं भवेत् ॥ ॥२६९॥ एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् । जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः ॥ ॥ २७०॥ ब्राह्मण को क्षत्रिय गाली दे तो सौ पण दण्ड करना चाहिए। वैश्यं को डेढ़ सौ या दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। शूद्र को तो पीटना ही उचित है। क्षत्रिय को ब्राह्मण गाली दे तो पचास पण करना चाहिए। वैश्य को दे तो पच्चीस और शूद्र को गाली दे तो बारह पण दण्ड करना चाहिए। द्विजाति अपने समान वर्ण को गाली दे तो बारह पण और गंदी गाली दे तो इसका दुगना दण्ड करना चाहिए। कोई शूद्र, द्विजाति का कठोर वाणी से अपमान करे तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए क्योंकि शुद्र निकृष्ट से पैदा हुआ है। ॥२६७-२७१॥ नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः । निक्षेप्योऽयोमयः शङ्‌कुर्ध्वलन्नास्ये दशाङ्‌गुलः ॥ ॥२७१॥ धर्मोपदेशं दर्पण विप्राणामस्य कुर्वतः । तप्तमासेचयेत् तैलं वक्ते श्रोत्रे च पार्थिवः ॥ ॥२७२॥ श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शरीरमेव च । वितथेन ब्रुवन् दर्पाद् दाप्यः स्याद् द्विशतं दमम् ॥ ॥२७३॥ काणं वाऽप्यथ वा खज्ञ्जमन्यं वाऽपि तथाविधम् । तथ्येनापि ब्रुवन् दाप्यो दण्डं कार्षापणावरम् ॥ ॥२७४॥ मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम् । आक्षारयंशतं दाप्यः पन्थानं चाददद् गुरोः ॥ ॥२७५॥ ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां तु दण्डः कार्यों विजानता । ब्राह्मणे साहसः पूर्वः क्षत्रिये त्वेव मध्यमः ॥ ॥२७६॥ विट् शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः । छेदवर्णं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः ॥ ॥ २७७॥ एष दण्डविधिः प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः । अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम् ॥ ॥२७८॥ यदि नाम और जाति को बोलकर द्वेष से शूद्र द्विजातियों को गाली दे तो उस शूद्र के मुख में अग्नि में तपाई दस अंगुल की कील डालनी चाहिए। शुद्र, अभिमान से द्विजों को धर्मोपदेश करे तो राजा को उसके मुख और कान में खौलता तेल डलवा देना चाहिए। यदि अभिमान से कहे कि तू वेद नहीं पढ़ा है, अमुक देश का नहीं है, तेरी यह जाति नहीं है, तेरे संस्कार नहीं हुए हैं तो राजा को उसप्र दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। काना, लूला अंधा आदि कोई अन्य भी इसी प्रकार अंगहीन हो, उसको सच मे भी उसी दोष से पुकारने वाले पर एक कार्षण दण्ड करना चाहिए। माता, पिता, स्त्री, भाई, पुत्र, गुरु को गाली देनेवाला और गुरु को मार्ग न छोड़नेवाला सौ पण दण्ड पाने योग्य है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आपस में गाली दें तो राजा ब्राह्मण पर २५० और क्षत्रिय पर ५०० पण दण्ड करें। वैश्य शूद्र आपस में गाली दें तो वैश्य को साधारण दण्ड और शुद्र की जीभ न काटकर कोई अन्य दूसरा दण्ड देना चाहिए। इस प्रकार कठोर वचन का दण्ड निर्णय कहा गया है, अब मारपीट का दण्डनिर्णय कहा जायगा। ॥ २७१-२७८ ॥ दण्डपारुष्य-मार पीट का निर्णय येन केन चिदङ्गेन हिंस्याच्चेत्श्रेष्ठमन्त्यजः । छेत्तव्यं तद् तदेवास्य तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥२७९॥ पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनमर्हति । पादेन प्रहरन् कोपात् पादच्छेदनमर्हति ॥ ॥२८०॥ सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः । कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाऽस्यावकर्तयेत् ॥ ॥२८१॥ अवनिष्ठीवतो दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः । अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्धयतो गुदम् ॥ ॥२८२॥ केशेषु गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् । पादयोर्दाढिकायां च ग्रीवायां वृषणेषु च ॥ ॥ २८३॥ अन्त्यज, द्विज को अपने जिस अङ्ग से मारे उसी अङ्गः को कटवा डालना चाहिए यही मनुजी का अनुशासन है। हाथ अथवा डंडा उठाकर मारे तो हाथ और क्रोध में पैर सै मारे तो पैर काटने योग्य है। नीच जाति का मनुष्य ऊँची जातिवाले के साथ अभिमान से बैठना चाहे तो उसकी कमर को दागकर देश से निकाल देना चाहिए। हीन वर्ण ऊंचे वर्ण के ऊपर थूके तो दोनों ओठ कटवा देने चाहिए। यदि मूते तो लिङ्ग और पादे तो गुदा कटवा देना चाहिए। बाल पकड़े, पैर पकड़े, घसीटे, दाढ़ी, गर्दन और अण्डकोष में हाथ लगावे तो बिना विचार हाथ कटवा देना चाहिए ॥ २७९-२८३॥ त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः । मांसभेत्ता तु षट् निष्कान् प्रवास्यस्त्वस्थिभेदकः ॥ ॥२८४॥ वनस्पतीनां सर्वेषामुपभोगो यथा यथा । यथा तथा दमः कार्यों हिंसायामिति धारणा ॥ ॥२८५॥ मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति । यथा यथा महद् दुःखं दण्डं कुर्यात् तथा तथा ॥ ॥२८६॥ 'खाल खींचने और खून निकालने पर सौ पण दण्ड करना चाहिए।। मांस काटे तो छः निष्क और हड्डी तोड़े तो देश निकाले की सज़ा देनी चाहिए। संपूर्ण वृक्षों का उपयोग विचार कर उनके काटनेवाले को दण्ड देना चाहिए। मनुष्य और पशुओं को मारने पर जैसा अधिक दुःख हो उसके अनुसार अपराधी को दण्ड भी दुःखदायी करना चाहिये ॥ २८४-२८६ ॥ अङ्गावपीडनायां च व्रणशोणितयोस्तथा । समुत्थानव्ययं दाप्यः सर्वदण्डमथापि वा ॥ ॥२८७॥ द्रव्याणि हिंस्याद् यो यस्य ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा । स तस्योत्पादयेत् तुष्टिं राज्ञे दद्याच्च तत्समम् ॥ ॥२८८॥ चर्मचार्मिकभाण्डेषु काष्ठलोष्टमयेषु । मूल्यात् पञ्चगुणो दण्डः पुष्पमूलफलेषु च ॥ ॥ २८९॥ यानस्य चैव यातुश्च यानस्वामिन एव च । दशातिवर्तनान्याहुः शेषे दण्डो विधीयते ॥ ॥ २९०॥ छिन्ननास्ये भग्नयुगे तिर्यक्प्रतिमुखागते । अक्षभङ्गे च यानस्य चक्रभङ्गे तथैव च ॥ ॥२९१॥ छेदने चैव यन्त्राणां योक्त्ररश्म्योस्तथैव च । आक्रन्दे चाप्यपैहीति न दण्डं मनुरब्रवीत् ॥ ॥२९२॥ हाथ, पैर आदि अङ्ग तोड़नेअथवा घायल करनेवाले से उसके स्वस्थ होने के लिए खर्च दिलवाना चाहिए अथवा पूर्ण दण्ड देना चाहिए। जो जिस वस्तु का जानकर अथवा न जानकर नुक्सान करे तो उसको दाम वगैरह देकर खुश करना चाहिए और राजा को उतना ही दण्ड देना चाहिए। चमड़ा, चाम के पात्र-मशक आदि, काठ और मिट्टी के पात्र, फूल, मूल और फलों की हानि करने पर मूल्य से पाँच गुना दण्ड करना चाहिए। सवारी सारथि और सवारी के मालिक को दस हालत में छोड़कर बाक़ी में दण्ड दिया जाता है। नाथ टूटने, जुवा टूटने, नीचे ऊँचे के कारण, टेढे वा अड़कर चलने, रथ का धुरा टूटने, पहिया टूटने, रस्सी टूटने, गले की रस्सी टूटने, लगाम टूटने और 'हटो-बचो 'आदि कहने पर भी यदि किसी की हानि हो जाए तो मनुजी ने दण्ड नहीं कहा है॥ २८७-२९२॥ यत्रापवर्तते युग्यं वैगुण्यात् प्राजकस्य तु । तत्र स्वामी भवेद् दण्ड्यो हिंसायां द्विशतं दमम् ॥ ॥२९३॥ प्राजकश्चेद् भवेदाप्तः प्राजको दण्डमर्हति । युग्यस्थाः प्राजकेऽनाप्ते सर्वे दण्ड्याः शतं शतम् ॥ ॥२९४॥ जहां सारथि के कुशल न होने से रथ इधर उधर चलता है उससे हानि होने पर स्वामी को दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। और सारथि चतुर-होशियार हो तो उस पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। सारथि कुशल न होने पर, यह जानते हुए भी जो सवारी करते हैं, वह सभी सौ सौ पण दण्ड करने योग्य हैं ॥ २९३-२९४ ॥ स चेत् तु पथि संरुद्धः पशुभिर्वा रथेन वा । प्रमापयेत् प्राणभृतस्तत्र दण्डोऽविचारितः ॥ ॥२९५॥ मनुष्यमारणे क्षिप्रं चौरवत् किल्बिषं भवेत् । प्राणभृत्सु महत्स्वर्धं गोगजोष्ट्रहयादिषु ॥ ॥२९६॥ क्षुद्रकाणां पशूनां तु हिंसायां द्विशतो दमः । पञ्चाशत् तु भवेद् दण्डः शुभेषु मृगपक्षिषु ॥ ॥२९७॥ गर्धभाजाविकानां तु दण्डः स्यात् पञ्चमाषिकः । माषिकस्तु भवेद् दण्डः श्वसूकरनिपातने ॥ ॥२९८॥ भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्रात्रा च सौदरः । प्रा प्तापराधास्ताड्याः स्यू रज्ज्वा वेणुदलेन वा ॥ ॥२९९॥ पृष्ठतस्तु शरीरस्य नोत्तमाङ्गे कथं चन । अतोऽन्यथा तु प्रहरन् प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् ॥ ॥३००॥ एषोऽखिलेनाभिहितो दण्डपारुष्यनिर्णयः । स्तेनस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं दण्डविनिर्णये ॥ ॥३०१॥ मार्ग में पशु या दूसरी गाड़ी से रुकने पर भी सारथी हांकता चला जाए और किसके चोट लग जाये तो राजा तुरंत नीचे लिखा दण्ड करेः- मनुष्य को प्राणघात हुआ हो तो चोर की तरह दण्ड करना चाहिए। गौ, हाथी, ऊंट, घोड़ा आदि बड़े पशुओं का घात होने पर पांच सौ पण दण्ड करना चाहिए। छोटे छोटे पशुओं की हिंसा होने पर दो सौ पण और मृग, मोर वगैरह सुन्दर पक्षी मर जायँ तो पचास पण करना चाहिए। गधा, बकरी और भेड़ मरे तो पाँच माषक दण्ड करना चाहिए। कुत्ता, सुअर मरे तो एक माषक दण्ड करना चाहिए। स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य और छोटा भाई अपराध करें तो रस्सी या बाँस की छड़ी से पीटने योग्य हैं, परन्तु इनके पीठ में मारे, सिर इत्यादि में कभी नहीं मारना चाहिए, अन्यथा करने पर चोर के समान दण्ड योग्य होता है। इस प्रकार मार पीट का पूरा निर्णय कहा, अब चोर के दण्ड का निर्णय कहेंगे ॥ २९५-३०१ ॥ चोर-दण्ड निर्णय परमं यत्नमातिष्ठेत् स्तेनानां निग्रहे नृपः । स्तेनानां निग्रहादस्य यशो राष्ट्रं च वर्धते ॥ ॥३०२॥ राजा चोरों को दण्ड देने में सदा पूरा यत्न करना चाहिए क्योंकि चोरों के निग्रह से राजा का यश और राज्य वृद्धि प्राप्त करता है ॥३०२॥ अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः । सत्त्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभयदक्षिणम् ॥ ॥३०३॥ सर्वतो धर्मषड्‌भागो राज्ञो भवति रक्षतः । अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य ह्यरक्षतः ॥ ॥३०४॥ यदधीते यद् यजते यद् ददाति यदर्चति । तस्य षड्‌भागभाग् राजा सम्यग् भवति रक्षणात् ॥ ॥३०५॥ रक्षन् धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन् । यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः ॥ ॥३०६॥ योऽरक्षन् बलिमादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः । प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं व्रजेत् ॥ ॥३०७॥ अरक्षितारं राजानं बलिषड्भागहारिणम् । तमाहुः सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम् ॥ ॥३०८॥ जो राजा चोरो से अभय देने वाला है, वह सदा-पूज्य है। उस अभय- दक्षिणा देनेवाले राजा का राज्य खूब बढ़ता है। जो रक्षा करता है उस राजा को सबके धर्म से छठा भाग प्राप्त होता है और जो रक्षा नहीं करता उसको सबके अधर्म में से छठा भाग प्राप्त होता है। जो रक्षाशील हैं, वह प्रजा में देव पढ़ने-पढ़ाने वाले, यज्ञ करने वाले, दान देने वाले, पूजा पाठ करने वाले, सभी के छठे भाग का फल प्राप्त करता है । प्रतिदिन प्राणियों की धर्म से रक्षा और दुष्टों को दण्ड देने से मानो राजा लाख रुपयों की दक्षिणा का यज्ञकर रहा है और जो राजा रक्षा न करते हुए भी, भेंट, कर इत्यादि लेता हैं वह शीघ्र ही नरक गामी होता है। इस प्रकार का राज्ञा अन्न का छठा भाग लेता है वह सभी सब लोगों का 'पाप लेने वाला' कहलाता है ॥ ३०३-३०८॥ अनपेक्षितमर्यादं नास्तिकं विप्रलुंपकम् । अरक्षितारमत्तारं नृपं विद्यादधोगतिम् ॥ ॥३०९॥ अधार्मिकं त्रिभिर्यायैर्निगृह्णीयात् प्रयत्नतः । निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च ॥ ॥ ३१०॥ धर्ममर्यादा से रहित, नास्तिक, प्रजा का धन ठगनेवाला और प्रजा की रक्षा नहीं करने वाला राजा नरकगामी होता हैं। अधर्मी को तीन उपायों से सदा वश में रखना चाहिए- नज़रबंद, कैद और बेंत आदि से मारकर ॥ ३०६-३१०॥ निग्रहेण हि पापानां साधूनां स‌ङ्ग्रहेण च । द्विजातय इवैज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः ॥ ॥३११॥ क्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् । बालवृद्धातुराणां च कुर्वता हितमात्मनः ॥ ॥३१२॥ यः क्षिप्तो मर्षयत्यार्तेस्तेन स्वर्गे महीयते । यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरकं तेन गच्छति ॥ ॥ ३१३॥ राजा स्तेनेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता । आचक्षाणेन तत् स्तेयमेवङ्कर्माऽस्मि शाधि माम् ॥ ॥३१४॥ स्कन्धेनादाय मुसलं लगुडं वाऽपि खादिरम् । शक्तिं चोभयतस्तीक्ष्णामायसं दण्डमेव वा ॥ ॥३१५॥ शासनाद् वा विमोक्षाद् वा स्तेनः स्तेयाद् विमुच्यते । अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ ॥३१६॥ पापियों के निग्रह और साधु पुरुषों का संग्रह करने से राजा पवित्र होता है, जैसे यज्ञ करने से ब्राह्मण पवित्र होता है। कोई वादी- प्रतिवादी और बालक, वृद्ध और पीडित मनुष्य अपने दुःख से दुखी होकर कोई कुवचन कह दें तो राजा को उनको क्षमा कर देना चाहिए। जो आक्षेप वचनों को सहन कर लेता है वह राजा स्वर्ग गामी होता है और जो ऐश्वर्य के मद से नहीं सहता, वह नरकगामी होता है। चोर सिर के बाल खोले दौड़कर राजा के पास अपने अपराध को निवेदन करे अथवा खैर की लकड़ी का मूसल या लट्ठ अथवा जिसमें दोनों तरफ़ धार हो ऐसी बरछी या लोहे का दण्ड कंधे पर रखकर दण्ड के लिए प्रार्थना करे तो राजा के दण्ड देने अथवा छोड़ 36 देने पर से चोर को चोरी का पाप नहीं लगता। परन्तु उसको दण्ड न करने से उसका पाप राजा को लगता है ॥३११-३१६॥ अन्नादे भ्रूणहा मार्टि पत्यौ भार्याऽपचारिणी । गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम् ॥ ॥३१७॥ राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ॥ ॥३१८॥ भ्रूणहत्या करने वाले का पाप उसके अन्न खानेवाले को, व्यभिचारिणी स्त्री का पाप उसके पति को, शिष्य का पाप गुरु को और यश करने वाले का कराने वाले को क्षमा करने से लगता है। वैसे ही चोर का पाप छोड़ने से वह पाप राजा को लगता है। पाप करके भी राजदण्ड पाये हुए मनुष्य स्वर्ग को जाते हैं जैसे पुण्य करने पर साधु पुरुष जाते हैं ॥ ३१७-३१८॥ यस्तु रज्जुं घटं कूपाद्दु हरेद् भिन्द्याच्च यः प्रपाम् । स दण्डं प्राप्नुयान् माषं तच्च तस्मिन् समाहरेत् ॥ ॥३१९॥ धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः । शेषेऽप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद् धनम् ॥ ॥३२०॥ तथा धरिममेयानां शतादभ्यधिके वधः । सुवर्णरजतादीनामुत्तमानां च वाससाम् ॥ ॥३२१॥ पञ्चाशतस्त्वभ्यधिके हस्तच्छेदनमिष्यते । शेषे त्वेकादशगुणं मूल्याद् दण्डं प्रकल्पयेत् ॥ ॥३२२॥ पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः । मुख्यानां चैव रत्नानां हरणे वधमर्हति ॥ ॥३२३॥ जो पुरुष कुँए पर से रस्सी और घड़ा चुराये अथवा जो गोशाला को तोड़े उस पर एक माष का दण्ड करना चाहिए और उसे चुराई गई वास्तु वापस वहीं लाकर रख देने का आदेश देना चाहिए। बीस द्रोण का एक कुम्भ-ऐसे दस कुम्भ अन्न चुराने वाले को पीट-पीट कर मृत्युदण्ड देना चाहिए और इससे कम हो तो ग्यारह गुना जुर्माना करने के पश्च्यात चोरी का माल उसके स्वामी को वापस दिलवाना चाहिए। इसी प्रकार ही तराजू से तौलने लायक सोना, चांदी या वस्त्रादि चुराने पर यदि पदार्थ सौ (१००) पल से अधिक हो तो चोर को मृत्यु दंड दे देना चाहिए। और पचास पल से अधिक हो तो चोर के हाथ कटवा देने चाहिए। इससे कम हो तो माल से ग्यारह गुना जुर्माना करना चाहिए। किसी कुलीन पुरुष या स्त्री के बहुमूल्य जेवर, या जवाहरात चुराने वाला वध अथवा देह दण्ड के योग्य है। ॥ ३१६-३२३॥ महापशूनां हरणे शस्त्राणामौषधस्य च । कालमासाद्य कार्यं च दण्डं राजा प्रकल्पयेत् ॥ ॥३२४॥ गोषु ब्राह्मणसंस्थासु छुरिकायाश्च भेदने । पशूनां हरणे चैव सद्यः कार्योऽर्धपादिकः ॥ ॥३२५॥ सूत्रकार्पासकिण्वानां गोमयस्य गुडस्य च । दनः क्षीरस्य तक्रस्य पानीयस्य तृणस्य च ॥ ॥३२६॥ बड़े पशु, शस्त्र और औषध चुराने पर समय और अपराध के अनुसार राजा को उचित दण्ड देना चाहिए। ब्राह्मण की गौओं की चोरी या छुरी से मारने पर तुरन्त आधा पैर कटवा देना चाहिए। सूत, कपास, मदिरा की गाद, गोबर, गुड़, दही, दूध, मट्ठा, जल और तृण चुराने पर मूल्य से दुगना दण्ड करना चाहिए। ३२४-३२६॥ वेणुवैदलभाण्डानां लवणानां तथैव च । मृण्मयानां च हरणे मृदो भस्मन एव च ॥ ॥ ३२७॥ मत्स्यानां पक्षिणां चैव तैलस्य च घृतस्य च । मांसस्य मधुनश्चैव यच्चान्यत् पशुसंभवम् ॥ ॥३२८॥ अन्येषां चैवमादीनां मद्यानामोदनस्य च । पक्वान्नानां च सर्वेषां तन्मुल्याद् द्विगुणो दमः ॥ ॥३२९॥ पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्मवल्लीनगेषु च । अन्येष्वपरिपूतेषु दण्डः स्यात् पञ्चकृष्णलः ॥ ॥३३०॥ परिपूतेषु धान्येषु शाकमूलफलेषु च । निरन्वये शतं दण्डः सान्वयेऽर्धशतं दमः ॥ ॥३३१॥ स्यात् साहसं त्वन्वयवत् प्रसभं कर्म यत् कृतम् । निरन्वयं भवेत् स्तेयं हृत्वाऽपव्ययते च यत् ॥ ॥३३२॥ यस्त्वेतान्युपक्कृप्तानि द्रव्याणि स्तेनयेन्नरः । तमाद्यं दण्डयेद् राजा यश्चाग्निं चोरयेद् गृहात् ॥ ॥३३३॥ येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टते । तत् तदेव हरेत् तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः ॥ ॥३३४॥ इसी प्रकार बांस के पात्र, नमक, मट्टी के पात्र, मिटटी, राख, मछली, चिडिया, तेल, घी, मांस, मधु, पशुओं के सींग आदि और ऐसे ही दूसरे पदार्थ, मदिरा, भात और सभी प्रकार के पके अन्न चुराने पर इनके मूल्य से दुगना दाम दण्ड करना चाहिए । गुल्म, लता, वृक्ष और धान वगैरह चुराने पर, पाच' कृष्णल' दण्ड करना चाहिए। पवित्र, शोधित धान्य, शाक, मूल और फलों का चोर यदि कुटुम्बी न हो तो सौ पण दण्ड करना चाहिए और सम्बन्धी हो तो पचास पण दण्ड करना चाहिए। जो पदार्थ जबरदस्ती स्वामी के सामने छीना हो वह साहस-लूट कहलाता है और जो पदार्थ स्वामी के पीछे लिया हो और स्वीकार न किया जाए तो वह चोरी है। ऊपर कहे पदार्थों को जो चुराए और जो घर से आग चुराए उन पर प्रथम साहस (२५० पण) का दण्ड, राजा को करना चाहिए। चोर जिस जिस अंग से चोरी अथवा मार काट इत्यादि करें उसका वही अंग शिक्षा देने के लिए राजा को कटवा देना चाहिए ॥ ३२७-३३४॥ पिताऽचार्यः सुहृत्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः । नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति ॥ ॥३३५॥ कार्षापणं भवेद् दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः । तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा ॥ ॥३३६॥ अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम् । षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥ ॥३३७॥ ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्ण वाऽपि शतं भवेत् । द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्द्द्द हि सः ॥ ॥३३८॥ पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित भी यदि अपने धर्म से न चले तो राजा के लिए अदंड्य नहीं है अर्थात राजा इनको भी दण्ड दे सकता है। साधारण मनुष्य को जिस अपराध के लिए एक पण दण्ड करना चाहिए, उस अपराध में राजा को अपने लिए हज़ार पण दण्ड करना चाहिए, यह मर्यादा है। चोरी करने में शुद्र को दोगुना, वैश्य को सोलह गुना और क्षत्रिय को बीस गुना पाप लगता है। ब्राह्मण को चौंसठ गुना अथवा पूरा सौ गुना पाप लगता है अथवा एक सौ अट्ठाईस इस गुना पाप लगता है, क्योंकि ब्राह्मण चोरी के दोष गुण को जानता है। ॥३३५-३३८॥ वानस्पत्यं मूलफलं दार्वग्यर्थं तथैव च । तृणं च गोभ्यो ग्रासार्थमस्तेयं मनुरब्रवीत् ॥ ॥३३९॥ योऽदत्तादायिनो हस्तात्लिप्सेत ब्राह्मणो धनम् । याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः ॥ ॥३४०॥ द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिर्द्वाविधू द्वे च मूलके । आददानः परक्षेत्रात्न दण्डं दातुमर्हति ॥ ॥३४१॥ असंदितानां संदाता संदितानां च मोक्षकः । दासाश्वरथहर्ता च प्राप्तः स्याच्चोरकिल्बिषम् ॥ ॥३४२॥ बिना बाडे के खेतों से फल, फूल, अग्निहोत्र के लिए काष्ठ, गौओं के लिए घास लेना चोरी नहीं है ऐसा मनुजी कहते हैं। जो ब्राह्मण परधन हरण करनेवाले को यज्ञ कराकर या शास्त्र पढ़ाकर उससे धन लेना चाहता है, वह ब्राह्मण भी चोर के समान ही है। जीविकाहीन द्विज मार्ग में जाता हुआ किसी के खेत से दो गन्ने या दो मूली ले ले तो दण्ड योग्य नहीं है। दूसरे के खुले पशुओं को बांधनेवाला और बँधों को खोलनेवाला, दास, घोड़ा, और रथ को हरने वाला चोरी का अपराधी होती है ॥३३९-३४२॥ अनेन विधिना राजा कुर्वाणः स्तेननिग्रहम् । यशोऽस्मिन् प्राप्नुयात्लोके प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ॥ ॥३४३॥ ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम् । नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहसिकं नरम् ॥ ॥३४४॥ वाग्दुष्टात् तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः । साहसस्य नरः कर्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः ॥ ॥३४५॥ साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः । स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ॥ ३४६॥ न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात् । समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान् ॥ ॥३४७॥ इस प्रकार उक्त विधि से चोरों का निग्रह करने से राजा इस लोक में सुयश और अन्त में अक्षय सुख प्राप्त करता है। इन्द्रासन और 'सुयश चाहनेवाला राजा को लुटेरे मनुष्यों के निग्रह में क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। कुवाच्य कहनेवाले, चोर और मार-पीट करने वालों की अपेक्षा लुटेरों को अधिक अपराधी जानना चाहिए । जो राजा लुटेरों को क्षमा करता है वह शीघ्र ही नष्ट होकर प्रजा का दुश्मन हो जाता है। राजा को किसी मित्र के कहने से अथवा धन मिलने की आशा से भयदायी लुटेरों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए ॥ ३४३-३४७॥ शस्त्रं द्विजातिभिर्याह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते । द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ॥ ॥३४८॥ आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च सङ्गरे । स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन् धर्मेण न दुष्यति ॥ ॥३४९॥ गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ॥ ॥ ३५०॥ जिस समय यज्ञादि धर्म-कर्म रोका जाता हो, वर्णाश्रम-धर्म का नाश होता हो, उस समय द्विज को अस्त्र ग्रहण करना चाहिए। अपनी रक्षा करने में, दक्षिणा की रक्षा में, स्त्री और ब्राह्मणों की विपत्ति में धर्म युद्ध से मारनेवाला पाप का भागी नहीं होता। गुरु, बालक, बूढ़ा वेदज्ञ ब्राह्मण भी यदि आततायी बन कर मारने के किए आये तो बिना विचार उन पर प्रहार करना चाहिए ॥ ३४८-३५० ॥ परस्त्रीगमन आदि नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन । प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥ ॥३५१॥ परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान्तॄन् महीपतिः । उद्वेजनकरैर्दण्डैश्छिन्नयित्वा प्रवासयेत् ॥ ॥३५२॥ तत्समुत्थो हि लोकस्य जायते वर्णसङ्करः । येन मूलहरोऽधर्मः सर्वनाशाय कल्पते ॥ ॥३५३॥ परस्य पत्त्या पुरुषः संभाषां योजयन् रहः । पूर्वमाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात् पूर्वसाहसम् ॥ ॥३५४॥ यस्त्वनाक्षारितः पूर्वमभिभाषते कारणात् । न दोषं प्राप्नुयात् किं चिन्न हि तस्य व्यतिक्रमः ॥ ॥३५५॥ परस्त्रियं योऽभिवदेत् तीर्थेऽरण्ये वनेऽपि वा । नदीनां वाऽपि संभेदे स सङ्ग्रहणमाप्नुयात् ॥ ॥३५६॥ उपचारक्रिया केलिः स्पर्शो भूषणवाससाम् । सह खद्वाऽसनं चैव सर्वं स‌ङ्ग्रहणं स्मृतम् ॥ ॥३५७॥ स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टो वा मर्षयेत् तया । परस्परस्यानुमते सर्वं स‌ङ्ग्रहणं स्मृतम् ॥ ॥३५८॥ प्रकट या परोक्ष में मारनेवाले आततायी को मारने से कोई 'दोष नहीं होता, क्योंकि मारनेवाले का क्रोध दूसरे के क्रोध को बढ़ाता है। परस्त्री संभोग में लगे मनुष्यों की नाक इत्यादि काट कर अथवा अंग भंग करके देश से निकाल देना चाहिए। संसार में वर्णसङ्करता उसी से पैदा होती है, क्योंकि अधर्म जड काटता है, सर्वनाश कर डालता है। व्यभिचारी पुरुष परस्त्री से एकान्त में बातचीत करता हुआ - प्रथम साहस (२५० पण) दणड के योग्य होता है। पर साधारण पुरुष किसी परस्त्री से बातें करे तो वह अपराधी नहीं होता न ही दण्ड का भागी होता है। जो पुरुष तीर्थ, जंगल, वन और नदियों के संगमस्थान में परस्त्री से बातें करता है उसको संभोग-दूषण ही लगता है। परस्त्री को पुष्पमाला, तेल आदि भेजना, हँसी करना, उसके गहने- वस्त्र छूना, एक पलंग पर बैठना, इन सब कामों को परस्त्री, संग्रहण जानना चाहिए जो आपस की सलाह से स्त्री के स्तनादि, उसका गुप्त स्थान छुए यह सब संग्रहण कहलाता है। ॥३५१-३५८॥ अब्राह्मणः स‌ङ्ग्रहणे प्राणान्तं दण्डमर्हति । चतुर्णामपि वर्णानां दारा रक्ष्यतमाः सदा ॥ ॥ ३५९॥ भिक्षुका बन्दिनश्चैव दीक्षिताः कारवस्तथा । संभाषणं सह स्त्रीभिः कुर्युरप्रतिवारिताः ॥ ॥३६०॥ न संभाषां परस्त्रीभिः प्रतिषिद्धः समाचरेत् । निषिद्धो भाषमाणस्तु सुवर्णं दण्डमर्हति ॥ ॥ ३६१॥ नैष चारणदारेषु विधिर्नात्मोपजीविषु । सज्जयन्ति हि ते नारीर्निगूढाश्चवारयन्ति च ॥ ॥३६२॥ किं चिदेव तु दाप्यः स्यात् संभाषां ताभिराचरन् । प्रैष्यासु चैकभक्तासु रहः प्रव्रजितासु च ॥ ॥ ३६३॥ ब्राह्मण को छोड़ कर अन्य कोई यदि परस्त्री संग्रहण करे तो मार डालने योग्य होता है, क्योंकि चारों वर्णवालों को सदा अपनी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए। भिक्षुक, भाट, यज्ञ में दीक्षित, रसोईया और कारीगर स्त्रियों के साथ बिना रोक बातचीत की जा सकती है। जिसको निषेध है उसको परस्त्री के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए और बातचीत करने वाला एक सुवर्ण दण्ड के योग्य होता है। यह निषेध-मनादी नट, गवैया आदि की स्त्रिय के लिए नहीं है, क्योंकि वह अपने आप ही अपनी स्त्रियों को सजाकर पर पुरुषों से मिलाते हैं। परन्तु उनके साथ भी निर्जन में बातें करनी दण्डकारक है और एकभक्ता अथवा विरक्त स्त्री के साथ भी बातचीत करने से कुछ दण्ड का विधान करना चाहिए ॥३५६-३६३ ॥ योऽकामां दूषयेत् कन्यां स सद्यो वधमर्हति । सकामां दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः ॥ ॥३६४॥ कन्यां भजन्तीमुत्कृष्टं न किं चिदपि दापयेत् । जघन्यं सेवमानां तु संयतां वासयेद् गृहे ॥ ॥ ३६५॥ उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति । शुल्कं दद्यात् सेवमानः समामिच्छेत् पिता यदि ॥ ॥३६६॥ जो इच्छा न करनेवाली कन्या से गमन करे, वह उसी समय वध के योग्य है। परन्तु कन्या की इच्छा के साथ गमन करने वाला सजातीय पुरुष, वध योग्य नहीं होता। उत्तम जाति के पुरुष को सेवन करनेवाली कन्या पर कुछ भी दण्ड नहीं करना चाहिए परन्तु नीच जाति के साथ गमन करने वाली कन्या को घर में नजरबंद रखना चाहिए। नीच जाति का पुरुष उत्तम जाति की कन्या से भोग करे तो वध के योग्य है और समान जाति की कन्या को भोगता हो तो वह पुरुष कन्या के पिता को आज्ञा से मूल्य देकर विवाह भी कर सकता है । ॥३६४-३६६॥ अभिषह्य तु यः कन्यां कुर्याद दर्पेण मानवः । तस्याशु कर्ये अङ्‌गुल्यौ दण्डं चार्हति षट्शतम् ॥ ॥३६७॥ सकामां दूषयंस्तुल्यो नाङ्‌गुलिछेदमाप्नुयात् । द्वि शतं तु दमं दाप्यः प्रसङ्ग‌विनिवृत्तये ॥ ॥३६८॥ कन्यैव कन्यां या कुर्यात् तस्याः स्याद् द्विशतो दमः । शुल्कं च द्विगुणं दद्यात्शिफाश्चैवाप्नुयाद् दश ॥ ॥ ३६९॥ या तु कन्यां प्रकुर्यात् स्त्री सा सद्यो मौण्ड्यमर्हति । अङ्‌गुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा ॥ ॥३७०॥ भर्तारं लङ्घयेद् या तु स्त्री ज्ञातिगुणदर्पिता । तां श्वभिः खादयेद् राजा संस्थाने बहुसंस्थिते ॥ ॥३७१॥ पुमांसं दाहयेत् पापं शयने तप्त आयसे । अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत् ॥ ॥ ३७२॥ जो मनुष्य अभिमान और बलात्कार से कन्या को उँगलियों से बिगाड़े उसकी दोनों उंगलियाँ कटवा दें और छः सौ पण दण्ड करे। समान जाति और सकामा कन्या को दूषित करनेवाले की अङ्ग‌लियां नहीं काटनी चाहिए, किन्तु प्रसंग की निवृति के लिए सिर्फ दो सौ पण का दण्ड करना चाहिए। कन्या ही कन्या को उँगलियों से बिगाड़े तो उस पर दो सौ पण दण्ड करे और उस कन्या के पिता से कहकर दुगना मूल्य दिलवाना चाहिए और दस कोड़े लगवाने चाहिए। यदि कोई स्त्री कन्या को उँगलियों से बिगाड़े तो उसका सिर मुंडवा कर तथा दो अंगुलियाँ काटकर, गधे पर चढ़ाकर घुमाना चाहिए। जो स्त्री अपने रुप, गुण के घमंड से पति का तिरस्कार कर व्यभिचार करे, उसको राजा को सब के सामने कुत्तों से नुचवाना चाहिए और जो व्यभिचारी पापी हो उसको तपाये हुए लोहे के पलंग पर सुलाकर ऊपर से काष्ठ रखकर जलवा देना चाहिए ॥३६७-३७२॥ संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो दमः । व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु ॥ ॥३७३॥ शूद्रो गुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन् । अगुप्तमङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते ॥ ॥३७४॥ यदि कोई एक वर्ष तक व्यभिचार करता रहे तो उस दुष्ट को उक्त दण्ड दुगना होना चाहिए और व्रात्या तथा चाण्डाली के साथ व्यभिचार करने पर भी वही दण्ड देना चाहिए। शुद्र, ब्राह्मण स्त्री से गुप्त या प्रकट व्यभिचार करे तो उसका अंग कटवा डालना चाहिए तथा उसका सर्वस्व हरण कर लेना चाहिए ॥३७३-३७४॥ वैश्यः सर्वस्वदण्डः स्यात् संवत्सरनिरोधतः । सहस्रं क्षत्रियो दण्ड्यो मौण्ड्यं मूत्रेण चार्हति ॥ ॥३७५॥ ब्राह्मणीं यद्यगुप्तां तु गच्छेतां वैश्यपार्थिवौ । वैश्यं पञ्चशतं कुर्यात् क्षत्रियं तु सहस्रिणम् ॥ ॥३७६॥ उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह । वि प्लुतौ शूद्रवद् दण्ड्यौ दग्धव्यौ वा कटाग्निना ॥ ॥३७७॥ सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्यो गुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सङ्गतः ॥ ॥३७८॥ वैश्य रक्षित ब्राह्मणी से गमन करे तो एक वर्ष कैद करके उसका सर्वस्व हरण करना चाहिए। क्षत्रिय करे तो एक हज़ार' पण दण्ड करना चाहिए और उसका सिर गधे के मूत से मुंडवा देना चाहिए। वैश्य और क्षत्रिय यदि अरक्षिता ब्राह्मणी से गमन करे तो वैश्य पर पाँच सौ और क्षत्रिय, पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। वह दोनों यदि रक्षित ब्राह्मणी से गमन करें, शुद्र की भांति दण्ड देना चाहिए अथवा उनको चटाई में लपेट कर जलवा देना चाहिए । रक्षित ब्राह्मणी से ज़बरदस्ती व्यभिचार करनेवाले ब्राह्मण पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए और स्त्री की इच्छा अनुसार गमन करे तो पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए। ॥३७५-३७८॥ मौण्ड्यं प्राणान्तिकं दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते । इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत् ॥ ॥३७९॥ न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्वपापेष्वपि स्थितम् । राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात् समग्रधनमक्षतम् ॥ ॥३८०॥ न ब्राह्मणवधाद् भूयानधर्मो विद्यते भुवि । तस्मादस्य वधं राजा मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥ ॥३८१॥ वैश्यश्चेत् क्षत्रियां गुप्तां वैश्यां वा क्षत्रियो व्रजेत् । यो ब्राह्मण्यामगुप्तायां तावुभौ दण्डमर्हतः ॥ ॥३८२॥ ब्राह्मण का सिर मुंडवा देना ही प्राणान्त दण्ड देना है अन्य वर्णों को प्राणान्त दण्ड का विधान है। जैसा भी अपराध ब्राह्मणे ने किया हो पर उसको प्राणान्त दण्ड कभी नहीं देना चाहिए अपितु उसको धन सहित देश से निकाल देना चाहिए। ब्राह्मण वध से अधिक कोई अधर्म नहीं है। राजा को ब्राह्मण वध का कभी मन में भी विचार नहीं करना चाहिए। वैश्य क्षत्रिया से और क्षत्रिय रक्षित वैश्या से व्यभिचार करे तो, इन दोनों को आरक्षित ब्राह्मणी से व्याभिचारवाला दण्ड देना चाहिए। ॥ ३७९-३८२॥ सहस्रं ब्राह्मणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन् । शूद्रायां क्षत्रियविशोः साहस्रो वै भवेद् दमः ॥ ॥ ३८३॥ क्षत्रियायामगुप्तायां वैश्ये पञ्चशतं दमः । मूत्रेण मौण्ड्यमिच्छेत् तु क्षत्रियो दण्डमेव वा ॥ ॥३८४॥ अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन् । शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यात् सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् ॥ ॥३८५॥ यदि ब्राह्मण रक्षित क्षत्रिया वा वैश्या से गमन करे तो उस पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए और रक्षित शूद्रा से गमन करनेवाले क्षत्रिय और वैश्य पर भी हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। अरक्षित क्षत्रिया में गमन करने वाले वैश्य पर पाँच सौ पण भोर क्षत्रिय का सिर मूत्र से मुंडवाकर पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए। यदि ब्राह्मण, अरक्षित क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा से व्यभिचार करे तो पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए और चाण्डाली से गमन करने पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए ॥३८३-३८५॥ यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् । न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् ॥ ॥३८६॥ एतेषां निग्रहो राज्ञः पञ्चानां विषये स्वके । सांराज्यकृत् सजात्येषु लोके चैव यशस्करः ॥ ॥ ३८७॥ ऋत्विजं यस्त्यजेद् याज्यो याज्यं चर्विक् त्यजेद् यदि । शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम् ॥ ॥३८८॥ न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति । त्य जन्नपतितानेतान् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् ॥ ॥३८९॥ आश्रमेषु द्विजातीनां कार्ये विवदतां मिथः । न विब्रूयान्नृपो धर्म चिकीर्षन् हितमात्मनः ॥ ॥३९०॥ जिस राजा के नगर में न चोर हैं, न व्यभिचारी हैं, न कुवाच्य कहनेवाले हैं, न लुटेरे हैं, और न मार-पीट करनेवाले हैं वह राजा स्वर्ग अथवा इन्द्रलोक को प्राप्त करता है। इन पाँचों का अपने राज्य में निग्रह करने से राजा के राज्य और यश में वृद्धि होती है। जो यजमान अपने कर्म करानेवाले निदोष ऋत्विज को त्याग देता है अथवा जो ऋत्विज् योग्य यजमान को छोड़ देता है उन दोनों पर राजा सौ सौ पण दण्ड करना चाहिए। माता, पिता, स्त्री और पुत्र त्याग के योग्य नहीं होते। जो इनको पतित न होने पर भी त्याग दे, उस पर राजा को छः सौ पण दण्ड करना चाहिए। आश्रम धर्म के लिए झगड़नेवाले द्विजों का राजा कोई फैसला न करे। वह उसका फैसला स्वयं कर लेंगे अर्थात ऐसे कामों मे राजा को बलपूर्वक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए ॥३८६-३९०॥ यथार्हमेतानभ्यर्च्य ब्राह्मणैः सह पार्थिवः । सान्त्वेन प्रशमय्यादौ स्वधर्मं प्रतिपादयेत् ॥ ॥ ३९१॥ प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशतिद्विजे । अर्हावभोजयन् विप्रो दण्डमर्हति माषकम् ॥ ॥३९२॥ श्रोत्रियः श्रोत्रियं साधुं भूतिकृत्येष्वभोजयन् । तदन्नं द्विगुणं दाप्यो हिरण्यं चैव माषकम् ॥ ॥३९३॥ अन्धो जडः पीठसर्पी सप्तत्या स्थविरश्च यः। श्रोत्रियेषूपकुर्वंश्च न दाप्याः केन चित् करम् ॥ ॥३९४॥ श्रोत्रियं व्याधितार्तों च बालवृद्धावकिञ्चनम् । महाकुलीनमार्यं च राजा सम्पूजयेत् सदा ॥ ॥३९५॥ किन्तु अपने सभासदों के साथ इनकी यथोचित पूजा करके पहले समझाने का प्रयास करे फिर स्वधर्म का आदेश करना चाहिए। यदि कोई उत्सव करवाए, जिसमे बीस ब्राह्मणों के भोजन का प्रबंध हो, और उस उत्सव मे पड़ोसी और घर आने जाने वाले अपने हितप्रिय लोगों को आमंत्रण न दे तो उस पुरुष पर एक माषक दण्ड करना चाहिए। किसी मंगलकार्य में वेदज्ञ ब्राह्मण, साधु आदि को भोजन न देने पर उसको दुगना अन्न और सोने का एक माषक देना चाहिए। अन्था, बहिरा, लूला, सत्तर वर्ष के बूढ़े और श्रोत्रिय से राजा को कोई कर नहीं लेना चाहिए। श्रोत्रिय, रोगी, दुःखी, बालक, बूढा, निर्धन, महाकुलीन, और महात्मा पुरुष की ओर राजा को सदा आदर दृष्टि रखनी चाहिए ॥३९१-३९५॥ शाल्मलीफलके श्लक्ष्णे नेनिज्यान्नेजकः शनैः । न च वासांसि वासोभिर्निर्हरन्न च वासयेत् ॥ ॥ ३९६॥ तन्तुवायो दशपलं दद्यादेकपलाधिकम् । अतोऽन्यथा वर्तमानो दाप्यो द्वादशकं दमम् ॥ ॥३९७॥ शुल्कस्थानेषु कुशलाः सर्वपण्यविचक्षणाः । कुर्युरर्धं यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत् ॥ ॥३९८॥ धोबी को सेमर के चिकने पाट पर धीरे धीरे कपड़े धोने चाहिए, कपड़ों को बदलना नहीं चाहिए और न ही बहुत दिनों तक कपड़ों को अपने पास रखना चाहिए। जुलाहे को दस पल सूत लेकर ग्यारह पल कपड़ा तौल कर देना चाहिए। यदि विपरीत करे तो राजा को उस पर बारह पण दण्ड करना चाहिए । जो पुरुष चुंगी वगैरह के कामों में चतुर और हर प्रकार के व्यापारों में प्रवीण हो, उन सौदागरों के लाभ का बीसवाँ भाग राजा को ग्रहण करना चाहिए। ॥३६६-३६८॥ राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिषिद्धानि यानि च । ताणि निर्हरतो लोभात् सर्वहारं हरेन्नृपः ॥ ॥३९९॥ शुल्कस्थानं परिहरन्नकाले क्रयविक्रयी । मिथ्यावादी च सङ्ख्याने दाप्योऽष्टगुणमत्ययम् ॥ ॥४००॥ आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयावुभौ । विचार्य सर्वपण्यानां कारयेत् क्रयविक्रयौ ॥ ॥४०१॥ पञ्चरात्रे पञ्चरात्रे पक्षे पक्षेऽथ वा गते । कुर्वीत चैषां प्रत्यक्षमर्घसंस्थापनं नृपः ॥ ॥४०२॥ तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम् । षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत् ॥ ॥४०३॥ राजा अपने देश की जिन प्रसिद्ध वस्तुओं एवं पदार्थों को परदेश में व्यापारार्थ बेचने से निषेध घोषित करे उनको लोभ वश कोई ले जाए तो राजा को उसका सर्वस्व छीन लेना चाहिए। चुंगीघर से छिपानेवाला, असमय में खरीद-बेच करनेवाला, गिनती-तोल में झूठ बोलनेवाला वस्तु के मूल्य से आठ गुणा दण्ड के योग्य होता है। माल कहां ले आया है, कहां जाता है, कितने दिन पड़ा रहा है, उसमें हानि वा लाभ क्या होगा, यह सब विचार कर खरीदने बेचने का भाव तय करना चाहिए। पाँच पाँच दिन अथवा पक्ष बीतने पर राजा को माल का भाव व्यापारियों के सामने नियत करना चाहिए। तराजू के बाट और गज़ वगैरह पर अपनी मोहर लगाकर ठीक रखना चाहिए और छठे महीना उनकी जांच करनी चाहिए। ॥३६६-४०३॥ पुल, नदी का शुल्क पणं यानं तरे दाप्यं पौरुषोऽर्धपणं तरे । पादं पशुश्च योषित्व पादार्धं रिक्तकः पुमान् ॥ ॥४०४॥ भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं दाप्यानि सारतः। रिक्तभाण्डानि यत् किं चित् पुमांसश्चपरिच्छदाः ॥ ॥४०५॥ \दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत् । नदीतीरेषु तद् विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम् ॥ ॥४०६॥ नदी पार करने में खाली गाड़ी का एक पण, भार सहित मनुष्यों का आधा पण, पशु और स्त्री का चौथाई पण और खाली मनुष्य से पण का आठवाँ भाग शुल्क के रूप में लेना चाहिए। मालभरी गाड़ी पार उतरने का शुल्क उसके वजन के अनुसार लेना चाहिए और खाली सवारी और गरीबों से थोड़ा सा लेना चाहिए। लम्बी उतराई का शुल्क देश काल के अनुसार तय करना चाहिए। यह नदी तट का नियम है। समुद्र के लिए कोई निश्चय नहीं हो सकता ॥४०४-४०६ गर्भिणी तु द्विमासादिस्तथा प्रव्रजितो मुनिः । ब्राह्मणा लिङ्गिनश्चैव न दाप्यास्तारिकं तरे ॥ ॥४०७॥ यन्नावि किं चिद् दाशानां विशीर्येतापराधतः । तद् दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतोऽशतः ॥ ॥४०८॥ एष नौयायिनामुक्तो व्यवहारस्य निर्णयः । दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः ॥ ॥४०९॥ दो महीना से अधिक की गर्भिणी, वानप्रस्थ, संन्यासी और ब्राह्मण, ब्रह्मचारी को नदी पार जाने की उतराई नहीं देनी चाहिए। यदि नाव में मल्लाहों के दोष से कुछ हानि हो, वह मल्लाहों को इकट्ठा होकर अपने भाग में से देना चाहिए। यह नौका से नदी पार होने का निर्णय और जल में मल्लाहों के व्यवहार का निर्णय कहा है। यदि कोई दैवी विपत्ति आ पड़े तो उस में कोई दण्डविधान नहीं है । ॥४०७-४०६ ॥ वाणिज्यं कारयेद् वैश्यं कुसीदं कृषिमेव च । पशूनां रक्षणं चैव दास्यं शूद्रं द्विजन्मनाम् ॥ ॥४१०॥ क्षत्रियं चैव वैश्यं च ब्राह्मणो वृत्तिकर्शितौ । बिभृयादानृशंस्येन स्वानि कर्माणि कारयेत् ॥ ॥४११॥ दास्यं तु कारयन्लोभाद् ब्राह्मणः संस्कृतान् द्विजान् । अनिच्छतः प्राभवत्याद् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् ॥ ॥४१२॥ शूद्रं तु कारयेद् दास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा । दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा ॥ ॥४१३॥ न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद् विमुच्यते । निसर्गजं हि तत् तस्य कस्तस्मात् तदपोहति ॥ ॥४१४॥ राजा को वैश्यों से व्यापार, ब्याज, खेती और पशुरक्षा का उद्यम करवाना चाहिए और शूद्रों से द्विजों की सेवा करवानी चाहिए। जीविका से रहित क्षत्रिय और वैश्यों से ब्राह्मण को अपना कर्म करवाते हुए उनका पालन पोषण करना चाहिए। यदि धनी ब्राह्मण लोभवश उत्तम द्विजों से सेवा कर्म करवाए तो राजा को उस पर छः सौ पण दण्ड करना चाहिए। खरीदे अथवा बिना खरीदे शुद्रों से सेवाकर्म ही करवाना चाहिए क्योंकि ब्रह्मा ने शूद्रों को दासकर्म के लिए ही उत्पन्न किया है। स्वामी से छुड़ाया हुआ शूद्र भी दास कर्म को छोड़ नहीं सकता क्योंकि वह उसका स्वाभाविक धर्म है। ॥ ४१०-४१४॥ ध्वजाहतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदल्लिमौ । पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ॥ ॥४१५॥ भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः । यत् ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद् धनम् ॥ ॥४१६॥ विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्राद् द्रव्योपादानमाचरेत् । न हि तस्यास्ति किं चित् स्वं भर्तृहार्यधनो हि सः ॥ ॥४१७॥ युद्ध में जीतकर लाया हुआ, भक्त दास, दासीपुत्र, खरीदा हुआ, किसी का दिया हुआ, परंपरा से प्राप्त और दण्ड-शुद्धि के लिए जिसने दास भाव स्वीकार किया हो; यह सात प्रकार के दास होते हैं। भार्या, पुत्र और दास इन तीनों को मनु ने निर्धन कहा है, यह जो कुछ धन पाते हैं, वह उसका है जिसके अधीन यह होते हैं। ब्राह्मण को अपने दास शूद्र से बिना विचार धन ले लेना चाहिए उसका धन कुछ नहीं है क्योंकि दास के धन का स्वामी, उसका स्वामी ही होता है ॥४१५-४१७ ॥ वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत् । तौ हि च्युतौ स्वकर्मभ्यः क्षोभयेतामिदं जगत् ॥ ॥४१८॥ अहन्यहन्यवेक्षेत कर्मान्तान् वाहनानि च । आयव्ययौ च नियतावाकरान् कोशमेव च ॥ ॥४१९॥ एवं सर्वानिमान् राजा व्यवहारान् समापयन् । व्यपोह्य किल्बिषं सर्वं प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ ॥४२०॥ राजा को यत्न पूर्वक वैश्य और शूद्र से उनके कर्मों को करवाना चाहिए क्योंकि वे अपने कर्म से हटकर संसार को उपद्रवों से दुखी करेंगे। राजा को प्रतिदिन प्रारम्भ किये कार्यों का, सवारियों का, नियत आय-व्यय का, खान और धन भण्डार का अवलोकन करना चाहिए। इस प्रकार राजा इन सभी व्यवहारों का निर्णय करता हुआ सब पापों का नाश करके परम गति को प्राप्त करता है॥ ४१८-४२० ॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥८॥ ॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का आठवां अध्याय समाप्त ॥

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