Manusmriti Chapter 2 (मनुस्मृति दूसरा अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ मनुस्मृति ॥ ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः दूसरा अध्याय ॥ धर्म का लक्षण विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः । हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत ॥ ॥१॥ कामात्मता न प्रशस्ता न चैवैहास्त्यकामता। काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः ॥ ॥२॥ वेद के जानने वाले, धार्मिक, राग द्वेष से रहित, महात्माओं ने जिस धर्म का सेवन किया और हृदय से अच्छी प्रकार से जाना उसको सुनो। पुरुष को कामफल का अभिलाषी होना अच्छा नहीं है और न बिल्कुल इच्छा का त्याग ही श्रेष्ठ है, क्योंकि बिना इच्छा, वेदाध्ययन और वैदिक कर्मों का अनुष्ठान नहीं हो सकता ॥१-२॥ सङ्कल्पमूलः कामो वै यज्ञाः सङ्कल्पसंभवाः । व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे सङ्कल्पजाः स्मृताः ॥ ॥३॥ अकामस्य क्रिया का चिद् दृश्यते नैह कर्हि चित्। यद् यद् हि कुरुते किं चित् तत् तत् कामस्य चेष्टितम्॥ ॥४॥ तेषु सम्यग् वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम्। यथा सङ्क‌ल्पितांश्चैह सर्वान् कामान् समश्नुते ॥ ॥५॥ इस कर्म से यह इष्टफल होगा-यही संकल्प है। इसलिए सब कामों का मूल संकल्प है। यज्ञादि समस्त कर्म संकल्प से ही होते हैं। व्रत, नियम, धर्म सब संकल्प से किये जाते हैं अर्थात् बिना संकल्प कुछ नहीं हो सकता। संसार में कोई भी कर्म बिना इच्छा के पूर्ण होते नहीं देखा गया। शास्त्रोक्त कर्मों का भलीभांति अनुष्ठान करने में स्वर्ग लोक की प्राप्ति और इष्ट कर्मों की पूर्ती होती है ॥३-५॥ वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥ ॥६॥ संपूर्ण वेद, धर्ममूल हैं - वेद के तत्व को जानने वाले विदुषियों की स्मृति और शील ब्रह्मण्यता, साधु पुरुषों का आचार, और आत्म- सन्तोष यह धर्म में प्रमाण माने जाते हैं ॥६॥ यः कश्चित् कस्य चिद् धर्मो मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥ ॥७॥ सर्वं तु समवेक्ष्यैदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा। श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै ॥ ॥८॥ श्रुतिस्मृत्योदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः । इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ॥ ॥९॥ जिस वर्ण का जो धर्म मनु ने कहा है, वह सब वेदोक्त हैं क्योंकि वेद संपूर्ण ज्ञान का भण्डार है। विद्वान्, ज्ञानदृष्टि से, वेदप्रमाण द्वारा धर्मशास्त्र को जांचकर, अपने धर्म में श्रद्धा करें। जो पुरुष, वेद और स्मृतियों में कहे धर्मों का पालन करता है, वह संसार में कीर्ति पाकर, परलोक में अक्षय सुख पाता है। ॥९॥ श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥ ॥१०॥ योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥ ॥११॥ वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ॥ ॥१२॥ श्रुति अर्थात वेद और स्मृति को ही धर्मशास्त्र को कहते हैं। यह दोनों सब विषयों में निर्विवाद, तर्क-कुतर्क रहित हैं क्योंकि, इन्हीं से धर्म का प्रकाश हुआ है। जो द्विज, कुतर्कों से इनकी निन्दा करते हैं, वह नास्तिक हैं, वेदनिन्दक हैं। वह शिष्टसमाज से निकाल देने योग्य हैं। वेद, स्मृति, सदाचार, और आत्म-सन्तोष, यह चार प्रकार के धर्मलक्षण, मुनियों ने कहे हैं ॥१०-१२॥ अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ॥ ॥१३॥ श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात् तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ । उभावपि हि तौ धर्मों सम्यगुक्तौ मनीषिभिः ॥ ॥१४॥ उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा। सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ ॥१५॥ निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः । तस्य शास्त्रेऽधिकारोऽस्मिन् ज्ञेयो नान्यस्य कस्य चित् ॥ ॥१६॥ जो पुरुष, अर्थ-प्रयोजन, काम-अभिलाषा में नहीं फंसे हैं उनको धर्म का ज्ञान होता है। धर्म जाननेवालों के लिए, सब से श्रेष्ठ प्रमाण श्रुति है। जहां श्रुति दो प्रकार की हो अर्थात् दो विभिन्न अर्थों का प्रतिपादन करती हो, वहां वह दोनों अर्थ ही धर्म हैं, यह ऋषियों ने कहा है। श्रुतिभेद की मान्यता इस प्रकार दिखलाते हैं- उदितकाल- सूर्योदयकाल में, अनुदित-सूर्योदय से पूर्व में, समयाध्युषित-सूर्य, नक्षत्र वर्जितकाल में, सर्वथा यज्ञ-होम होता है, यह वेद की श्रुति है। इस तरह ज्ञात होता है एक ही श्रुति कालभेद कहलाती है और उन में अलग अलग यज्ञकर्म किया जाता है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक जिस वर्ण (द्विजाति) के लिए वेदमन्त्रों से कर्म लिखे हैं उसी का इस शास्त्र को पढ़ने सुनने का अधिकार है ॥१३-१६॥ देश विभाग सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ॥ ॥१७॥ तस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः । वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ॥ ॥१८॥ सरस्वती और दृषद्धती नदी इन देवनदियों के बीच जो देश है उस को 'ब्रह्मावर्त' कहते हैं जिस देश में, परंपरा से, जो आचार चला आता है, वही वर्णों का और सङ्कीर्ण जातियों का 'सदाचार' कहा जाता है ॥१७-१८॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः। एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥ ॥१९॥ एतद् देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ ॥२०॥ हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत् प्राग् विनशनादपि। प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ॥ ॥२१॥ आ समुद्रात् तु वै पूर्वादा समुद्राच्च पश्चिमात्। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बुधाः ॥ ॥२२॥ कुरुक्षेत्र और मत्स्यदेश पांचाल और शूरसेनक यह ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त के समीप हैं। कुरुक्षेत्रादि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से सभी मनुष्यों को अपने-अपने उचित सदाचारों की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। हिमवान् पर्वत और विन्ध्याचल के बीच में, सरस्वती के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में, जो देश हैं, उनको 'मध्यदेश' कहते हैं। पूर्व समुद्र से पश्चिमसमुद्र तक, और हिमाचल से विन्ध्याचल के बीच में जो देश हैं, उनको 'आर्यावर्त' कहते हैं। ॥ ११-२२॥ कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः । स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ॥ ॥२३॥ एतान्द्विजातयो देशान् संश्रयेरन् प्रयत्नतः । शूद्रस्तु यस्मिन् कस्मिन् वा निवसेद् वृत्तिकर्शितः ॥ ॥२४॥ जिस देश में कृष्णसार मृग स्वभाव से विचरता है, वह यज्ञ करने योग्य देश है। इसके सिवा जो देश हैं, वह म्लेच्छ देश हैं- अर्थात यज्ञ लायक नहीं हैं। इन देशों में, द्विजातियों को यत्नपूर्वक निवास करना चाहिये और शूद्र, अपनी जीविकावश, चाहे जिस देश में निवास कर सकता है॥ २३-२४ ॥ एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता। संभवश्चास्य सर्वस्य वर्णधर्मान्निबोधत ॥ ॥२५॥ वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च ॥ ॥२६॥ इस प्रकार, धर्म जानने का कारण और जगत् की उत्पत्ति संक्षेप से कही गई है। अब वर्णधर्म कहे जाते हैं। जो वैदिक पुण्यकर्म हैं, उनसे द्विजातियों का गर्भाधानादि शरीर-संस्कार, जो दोनों लोकों में पवित्र करनेवाला है करना चाहिये। ॥२५-२६॥ वर्णधर्म गार्भेर्होमैर्जातकर्मचौडमौज्ञ्जीनिबन्धनैः । बैजिकं गार्भिकं चैनं द्विजानामपमृज्यते ॥ ॥२७॥ स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥ ॥२८॥ गर्भाधान संस्कार, जातकर्म, चूडाकर्म, मौलीबंधन, इन संस्कारों से द्विजातियों के शुक्र और गर्भ सम्बन्धी दोष निवृत्त होते हैं। वेदाध्ययन, व्रत, होम, इज्याकर्म, ब्रह्मचारिदशा में देव-पितृतर्पण, पुत्रोत्पादन, महायज्ञ-पञ्चमहायज्ञ, यज्ञ-ज्योतिष्टोमादि, इन सभी कर्मों के करने से, यह शरीर ब्रह्मभाव पानेयोग्य होता है ॥ २५-२८॥ प्राङ्‌ नाभिवर्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते। मन्त्रवत् प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम् ॥ ॥२९॥ नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वाऽस्य कारयेत्। पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ॥ ॥३०॥ बालक का नाभिछेदन के पूर्व, जातकर्म-संस्कार करें, और अपने गृह्यसूत्रोक्त विधि के अनुसार, सुवर्ण, मधु और घृत का प्राशन (चटाना ) करावे। फिर अशौच निवृत्त हो जाने पर, दसवें अथवा बारहवें दिन, शुभातथि-मुहूर्त-नक्षत्र में, बालक का नाम करण करे ॥२६-३०॥ मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम्। वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ॥३१॥ शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमन्वितम्। वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥ ॥३२॥ स्त्रीणां सुखौद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम् । मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत् ॥ ॥३३॥ ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धनयुक्त और शूद्र का दासयुक्त नाम होना चाहिये। ब्राह्मणों के नाम में शर्मा, क्षत्रियों के वर्मा, वैश्यों के भूति और शूद्र के दास लगाना चाहिए। स्त्रियों के नाम मुख से उच्चारण योग्य, क्रूर न हो, वह साफ़, सुन्दर, मंगलवाची, अन्त में दीर्घ अक्षर वाला और आशीर्वाद वाचक होना चाहिए। ॥३१-३३॥ चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात् । षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद् वैष्टं मङ्गलं कुले ॥ ॥३४॥ चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ॥ ॥३५॥ गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्यौपनायनम् । गर्भादकादशे राज्ञो गर्भात् तु द्वादशे विशः ॥ ॥३६॥ बालक को चतुर्थ मास में घर से बाहर निकाले। छठे मास में उसको अन्न खिलाना चाहिए, अथवा या जैसी रीति अपने कुल में हो वैसा करे। द्विजों का चूडाकर्म पहले या तीसरे वर्ष में वेदानुसार करना चाहिए। बालक ब्राह्मण बालक का गर्भवर्ष से आठवें वर्ष यज्ञोपवीत करे, क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष और वैश्य का बारहवें वर्ष करना चाहिये। ॥३४-३६ ॥ ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यो विप्रस्य पञ्चमे । राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्यैहार्थिनोऽष्टमे ॥ ॥३७॥ आ षोदशाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। आ द्वाविंशात् क्षत्रबन्धोरा चतुर्विंशतेर्विशः ॥ ॥३८॥ अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः ॥ ॥३९॥ नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हि चित्। ब्राह्मान् यौनांश्च संबन्धान्नाचरेद् ब्राह्मणः सह ॥ ॥४०॥ वेदाध्ययन और उसके अर्थज्ञान से बढ़ा तेज ब्रह्मवर्चस कहलाता है। उसकी इच्छा वाले ब्राह्मण का पांचवें वर्ष, बलार्थी क्षत्रिय का छठे वर्ष, धन चाहनेवाले वैश्य का आठवें वर्ष यज्ञोपवीत संस्कार करे। सोलह वर्ष तक ब्राह्मण की सावित्री नहीं जातीं। क्षत्रिय की बाइस वर्ष तक और वैश्य की चौबीस वर्ष तक नहीं जाती अर्थात् यह यज्ञोपवीत अथवा उपनयन समय की परमावधि हैं। इस काल के बाद, यह तीन, समय में संस्कार न होने से, सावित्री पतित हो जाते हैं। और अपने अपने काल में यज्ञोपवीत न होने से इन द्विजों की संज्ञा 'व्रात्य' होती है और यह शिष्टों से निन्दित होते हैं। इन अशुद्ध व्रात्यों के साथ, जिनका विधिपूर्वक प्रायश्चित इत्यादि नहीं हुआ, आपत्तिकाल में भी ब्राह्मण को, विद्या अथवा विवाह का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। ॥ ३७-४०॥ कार्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः। वसीरन्नानुपूर्येण शाणक्षौमाविकानि च ॥ ॥४१॥ मौजी त्रिवृत् समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला। क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतान्तवी ॥ ॥४२॥ मुज्ञ्जालाभे तु कर्तव्याः कुशाश्मन्तकबल्वजैः । त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा ॥ ॥४३॥ कृष्णमृग, रुरुमृग और अज इनके चर्म को क्रम से तीनों वर्ण के ब्रह्मचारी धारण करें और सन, क्षौम (अलसी) और ऊन का वस्त्र धारण करें। मूँज की तिलडी और चिकनी मेखला ब्राह्मण की बनाये, क्षत्रिय की मूर्वा नामक बेल के रेशे की धनुष के गुण सी बनाये, और वैश्य की सन के डोरे की बनानी चाहिए। यदि मूँज न मिले तो कुश, अशमन्तक, वल्वज तृणों से तीन वर्णों की मेखला बनाये। यह तीन लार की उपयुक्त मेखला को एक, तीन, अथवा पाँच गांठ लगाकर धारण करना चाहिए। ॥४१-४३॥ कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्यौर्ध्ववृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम् ॥ ॥४४॥ ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ। पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः ॥ ॥४५॥ केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणतः । ललाटसम्मितो राज्ञः स्यात् तु नासान्तिको विशः ॥ ॥४६॥ ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणाः सौम्यदर्शनाः। अनुद्वेगकरा नृणां सत्वचोऽनग्निदूषिताः ॥ ॥४७॥ ब्राह्मण का यज्ञोपवीत सूत का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ की ऊन का, ऊपर को बटा हुआ (दाहिने हाथ से) तीन हाथ का होना चाहिए । धर्मशास्त्र के अनुसार, ब्राह्मण बेल वा पलाश का दण्ड, क्षत्रिय वट अथवा कत्था की लकड़ी का दण्ड, वैश्य पीपल अथवा गूलर की लकड़ी के दण्ड को धारण करें। ब्राह्मण का दण्ड ऊँचाई में शिखा तक, क्षत्रिय का मस्तक तक और वैश्य का नाक तक होना चाहिए । यह सब दण्ड सीधे, छेदरहित, देखने में सुन्दर, दूसरे को भय न करनेवाले, छाल सहित और आग में न जले हुए, होने चाहिए। ॥४४-४७॥ प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्। प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरेद् भैक्षं यथाविधि ॥ ॥४८॥ भवत्पूर्वं चरेद् भैक्षमुपनीतो द्विजोत्तमः । भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम् ॥ ॥४९॥ मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम् । भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ॥ ॥५०॥ ब्रह्मचारी दण्ड धारण कर, सूर्य की आराधना और अग्नि की प्रक्षिणा करके विधिपूर्वक भिक्षा मांगे। ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा मांगते समय, 'भवति भिक्षां देहि' क्षत्रिय 'भिक्षां भवति देहि', वैश्य 'भिक्षां देहि भवति' ऐसा बोले । ब्रह्मचारी को, पहले माता से, माता की बहन से, बहन से और जो ब्रह्मचारी का अपमान न करती हो उससे भिक्षा मांगना चाहिए। ॥ ४८-५०॥ समाहृत्य तु तद् भैक्षं यावदन्नममायया। निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्‌मुखः शुचिः ॥ ॥५१॥ आयुष्यं प्राङ्‌मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः । श्रियं प्रत्यङ्‌मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते ह्युदङ्‌मुखः ॥ ॥५२॥ उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात् समाहितः । भुक्त्वा चौपस्पृशेत् सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत् ॥ ॥५३॥ पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन् । दृष्ट्रा हृष्येत् प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः ॥ ॥५४॥ पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जं च यच्छति। अपूजितं तु तद् भुक्तमुभयं नाशयेदिदम् ॥ ॥५५॥ अपने प्रयोजन भर को निष्कपट भाव से भिक्षा लाकर गुरु को तृप्ति भर देकर, पवित्रता से पूर्व दिशा को मुख करके आचमन पूर्वक भोजन करे। आयु के हित के लिए पूर्वमुख, यश के लिए दक्षिण मुख, संपत्ति के लिए पाश्चिम मुख, सत्य के लिए उत्तरमुख होकर भोजन करे। द्विज को नित्य सावधानी से आचमनपूर्वक भोजन ग्रहण करके फिर आचमन और जल के हाथ से आँख, कान, नाक़ का स्पर्श करना चाहिए। अन्न को आदर से ग्रहण करे, उसकी निन्दा न करे। उसको देखकर हर्षित, पुलकित होकर सर्वथा प्रशंसा करे। इस तरह आदर से किया हुआ भोजन शरीर और प्राणों को बल देता है अन्यथा दोनों का नाश करता है। ॥ ५१-५५ ॥ नौच्छिष्टं कस्य चिद् दद्यान्नाद्यादेतत् तथाऽन्तरा। न चैवात्यशनं कुर्यान्न चौच्छिष्टः क्व चिद् व्रजेत् ॥ ॥५६॥ अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्यं चातिभोजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ॥५७॥ उच्छिष्ट-झूठा अन्न किसी को न दे, भोजन के बीच में रुक रुक कर भोजन न करे, अधिक भोजन न करे और झूठे मुंह कहीं न जाय। अतिभोजन से आरोग्य और आयु में बाधा होती है, यह स्वर्ग और धर्म का विरोधी है। लोक में भी अच्छा नहीं माना जाता, इसलिए अतिभोजन नहीं करना चाहिए। ॥ ५६-५७ ॥ ब्राह्मण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत् । कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदा चन ॥ ॥५८॥ अङ्‌गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्यं तीर्थं प्रचक्षते । कायमङ्‌गुलिमूलेऽग्रे देवं पित्र्यं तयोरधः ॥ ॥५९॥ त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात् ततो मुखम्। खानि चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च ॥ ॥६०॥ अनुष्णाभिरफेनाभिरद्भिस्तीर्थेन धर्मवित्। शौचेप्सुः सर्वदाऽचामेदेकान्ते प्रागुदङ्‌मुखः ॥ ॥६१॥ हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः । वैश्योऽद्भिः प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ॥ ॥६२॥ ब्राह्मण सदा ब्राह्मतीर्थ से आचमन करे, या प्रजापतितीर्थ और देवतीर्थ से करे परन्तु पितृतीर्थ से कभी आचमन न करे। अँगूठे के मूल को ब्राह्मतीर्थ कहते हैं। अँगुलियों के मूलभाग को प्रजापतितीर्थ अग्रभाग को देवतीर्थ और अँगूठा तर्जनी के मध्य भाग को पितृतीर्थ कहते हैं। आचमन के समय तीन बार आचमन करके दो बार मुख धोने और आँख, कान, नाक, मुख आदि इन्द्रिय, हृदय और सिर का जल से स्पर्श करे। धर्मज्ञ पुरुष, पवित्र होने की इच्छा से, नित्य, एकान्त में पूर्व या उत्तरमुख बैठकर, शीतल और फेन (झाग) रहित जल से, ब्राह्म आदि तीर्थों से आचमन करें। यह आचमन जल हृदय तक पहुँच जाने से ब्राह्मण, कण्ठ तक पहुँच से क्षत्रिय, मुख मे पहुँचने से वैश्य और होठ स्पर्श मात्र से शूद्र पवित्र होता है- अर्थात् इसी हिसाब से जल लेकर अपना अपना आचमन करना चाहिए। ॥५२-६२॥ उधृते दक्षिणे पाणावुपवीत्यौच्यते द्विजः । सव्ये प्राचीनावीती निवीती कण्ठसज्जने ॥ ॥६३॥ मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम् । अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत् ॥ ॥६४॥ बायें कंधे पर जनेऊ रखकर, दाहिने हाथ को बाहर निकालने से द्विज 'उपवीती' कहलाता है। दाहिने कंधे पर से बायें तरफ़ लटकाने से 'आवीती' और गले में माला के समान पहन लेने पर 'निवीती' कहा जाता है। यदि मेखला, मृगचर्म, दण्ड, जनेऊ और कमण्डलु पुराने हो जाएँ या टूट जाएँ तो इनको जल में प्रवाहित कर और अपने गृह्यसूत्र के मन्त्रों को पढ़कर, दूसरा धारण करना चाहिए। ॥६३- ६४॥ केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य व्यधिके मतः ॥ ॥६५॥ अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः । संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम् ॥ ॥६६॥ वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥ ॥६७॥ एष प्रोक्तो द्विजातीनामौपनायनिको विधिः। उत्पत्तिव्यञ्जकः पुण्यः कर्मयोगं निबोधत ॥ ॥६८॥ उपनीयं गुरुः शिष्यं शिक्षयेत्शौचमादितः। आचारमग्निकार्यं च संध्यौपासनमेव च ॥ ॥६९॥ ब्राह्मण को गर्भ से सोलहवें चर्ष, क्षत्रिय का बीसवें चर्ष, और वैश्य का चौवीसवें वर्ष केशान्त संस्कार किया जाता है। स्त्रियों की शरीर-शुद्धि के लिए, सब संस्कार (उपनयन छोड़कर) समय पर क्रम से होते हैं, पर उः सभी अमन्त्र होते हैं अर्थात स्त्रियों के सभी संस्कारों मे वेदमन्त्रों को पाठ नहीं करना चाहिए। विवाह-संस्कार ही स्त्रियों को उपनयन संस्कार है, पति का गृह ही गुरुकुल वास है, गृहाग्नि को प्रज्वल्लित करना ही हवनकर्म है। यह द्विजों के द्विजत्व को करनेवाले उपनयन-संस्कार को कहा है, अब उन के कर्तव्य कर्मों को सुनो। ॥६५-६९॥ अध्येष्यमाणस्त्वाचान्तो यथाशास्त्रमुदङ्‌मुखः । ब्रह्माज्ञ्जलिकृतोऽध्याप्यो लघुवासा जितैन्द्रियः ॥ ॥७०॥ ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा। संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माज्ञ्जलिः स्मृतः ॥ ॥७१॥ शिष्य के यज्ञोपवीत संस्कार के उपरांत, पहले गुरु (शिष्य को) शुद्धि, आचार, प्रातःकाल और सायंकाल हवन और सन्ध्या सिखाये। पढ़ने वाले शिष्य को, शास्त्रविधि से उत्तरमुख आचमन करके, हल्का वस्त्र धारण कर जितेन्द्रिय होकर, ब्रह्माज्ञ्जलि पूर्वक पढ़ना चाहिए ॥ ७०- ७१ ।। व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपस‌ङ्ग्रहणं गुरोः। सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः ॥ ॥७२॥ अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः । अधीष्व भो इति ब्रूयाद् विरामोऽस्त्विति चारमेत् ॥ ॥७३॥ ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा। स्रवत्यनो‌ङ्कृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यति ॥ ॥७४॥ प्राक्कूलान् पर्युपासीनः पवित्रैश्चैव पावितः । प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओं। कारमर्हति ॥ ॥७५॥ वेदाध्ययन के आरम्भ और अन्त में सदा गुरु के चरण छुए और हाथ जोड़कर पढ़े, इसी को 'ब्रह्माज्ञ्जलि' कहते हैं। अलग अलग हाथ से गुरु के पैर छुए, दाहिने से दाहिना और बाएं से बायां। गुरु बिना आलस्य के पहले शिष्य को 'अधीष्व भो' 'हे शिष्य पढ़ो' कहकर वेद पढ़ाये और अन्त में 'विरामोऽस्तु' कहकर विश्राम करे। वेदाध्ययन के आदि और अन्त में 'ॐ' का उच्चारण सदा करे। यदि आदि में 'ॐ' न कहे तो विद्या में प्रेम नहीं होता और अन्त में न कहे तो पढ़ी विद्या भूल जाती है। पूर्वदिशा को कुशासन का अग्रभाग करके, उस पर वेदाध्यायी वैठकर, तीन प्राणायाम करके, पवित्रता से, स्वाध्याय करने के पूर्व ॐकार का उच्चारण करे। ॥७२-७५॥ अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः। वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ ॥७६॥ त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत् । तदित्यर्थोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः ॥ ॥७७॥ प्रजापति ने, अकार, उकार, मकार और भूः, भुवः स्वः, इन तीन व्यहतियों को ऋक्, यजु और सामवेद से दुहकर सार निकाला है और तीनों वेद से, गायत्री ऋचा के एक-एक पाद को दुहा है। ॥७६- ७७ ॥ एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्। संध्ययोर्वेदविद् विप्रो वेदपुण्येन युज्यते ॥ ॥७८॥ सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत् त्रिकं द्विजः। महतोऽप्येनसो मासात् त्वचैवाहिर्विमुच्यते ॥ ॥७९॥ एतयाऋचा विसंयुक्तः काले च क्रियया स्वया। ब्रह्मक्षत्रियविद्योनिर्गर्हणां याति साधुषु ॥ ॥८०॥ वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रातः और सायंकाल समय, ॐकार, और भूः, भुवः स्वः, इन व्याहृतियों को पूर्व लगाकर गायत्री जपने से, वेद पढ़ने का फल पाता है। जो द्विज, ग्राम वा नगर के बाहर एकान्त में, ओमकार, तीन- व्याहृति और गायत्री इन तीनों का एक हजार जप करता है, वह केंचुल से सांप की भांति, महापापों से छूट जाता है। यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य गायत्री न जपता हो और समय पर अपनी अग्निहोत्रादि क्रिया न करता हो तो वह सत्पुरुषों में निन्दा पाता है। ॥७८-८०॥ ओंकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः। त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम् ॥ ॥८१॥ योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ॥ ॥८२॥ एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः। सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात् सत्यं विशिष्यते ॥ ॥८३॥ क्षरन्ति सर्वा वैदिक्यो जुहोतियजतिक्रियाः। अक्षरं त्वक्षरं ज्ञेयं ब्रह्म चैव प्रजापतिः ॥ ॥८४॥ ॐकार, तीनों व्याहृति और तीन चरण की गायत्री इनको वेद का मुख जानना चाहिए। जो पुरुष, आलस्य रहित होकर तीन वर्ष तक गायत्री जप करता है, वह अन्त में वायु तुल्य व्यापक होकर, परब्रह्म को पहुँचता है। 'ॐ' यह परब्रह्म का वाचक है, प्राणायाम बड़ा तप है, गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है और मौन रहने से सत्य बोलना उत्तम होता है। वेदोक्त होम, यज्ञ, क्रिया सब नाशवान हैं-या उनका स्वर्गादि फलभी नाशवान है। केवल ॐकार परब्रह्म-प्रजापति का रूप ही अविनाशी जानना चाहिए। ॥८१-८४॥ विधियज्ञाज् जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः । उपांशुः स्यात्शतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥ ॥८५॥ ये पाकयज्ञाः चत्वारो विधियज्ञसमन्विताः । सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ॥८६॥ जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान् मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ॥ ॥८७॥ इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तैव वाजिनाम् ॥ ॥८८॥ विधियज्ञ से जप यज्ञ दसगुना श्रेष्ठ है और जिस जपयज्ञ में पास में बैठा व्यक्ति भी न सुन सके, ऐसा उपांशु जप सौ गुना श्रेष्ठ है और जिस में होठ भी न हिले, ऐसा मानसिक जप हज़ार गुना श्रेष्ठ है। विधियज्ञ और चारों पाकयज्ञ 10, जपयज्ञ के सोलहवें भाग के समान भी नहीं हो सकते । ब्राह्मण, गायत्रीजप से ही मुक्ति पाता है, और यज्ञ आदि करे चाहे न करे। वह गायत्री द्वारा मैत्र¹¹ अर्थात सर्वप्रिय कहा जाता है, इसमें संशय नहीं है। विवेकी पुरुष को, मन को खींचने वाले विषयों से, इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए, जैसे सारथि घोड़ों को वश में रखता है। ॥ ८५-८८।। एकादशेन्द्रियाण्याहुर्यानि पूर्वे मनीषिणः। तानि सम्यक् प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ ॥८९॥ श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। पायूपस्थं हस्तपादं वाक् चैव दशमी स्मृता। ॥९०॥ बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः । कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्वादीनि प्रचक्षते ॥ ॥९१॥ पूर्वाचार्यों ने ग्यारह इन्द्रियां कही हैं, उनके नाम हैं-कान, आँख, नाक, जीभ, खाल, गुदा, शिश्न, हाथ, पैर और वाणी इन दस इन्द्रियों में पहली पांच 'ज्ञानेन्द्रिय' और बाद वाली 'कर्मेन्द्रिय' कहलाती हैं। ॥८६-९१॥ एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनौभयात्मकम्। यस्मिन् जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ ॥ ॥९२॥ इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषं ऋच्छत्यसंशयम् । संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं निगच्छति ॥ ॥९३॥ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मैव भूय एवाभिवर्धते ॥ ॥९४॥ यश्चैतान् प्राप्नुयात् सर्वान् यश्चैतान् केवलांस्त्यजेत् । प्रापणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते ॥ ॥९५॥ ग्यारहवां मन है, वह अपने संकल्प-विकल्प रूप गुण से दसों इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त करता है। इसी मन को वश मे करने से सभी इन्द्रियां वश में हो जाती हैं। इन्द्रियों के विषय में फंसने से, अवश्य दोष होता है, पर उनको वश में रखने से सिद्धि प्राप्त हो जाता है। विषय भोग की इच्छा उसके भोगने से कभी शान्त नहीं होती जैसे घृत से अग्नि कभी शान्त नहीं होती अपितु बढती ही है। जो पुरुष 'सब कामनाओं को भोगता है और जो उन सबको छोड़ता है। इन दोनों में से उनको छोड़ना ही बेहतर है। ॥९२-९५॥ न तथैतानि शक्यन्ते संनियन्तुमसेवया। विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः ॥ ॥९६॥ वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छति कर्हि चित् ॥ ॥९७॥ श्रुत्वा स्पृष्ट्ा च दृष्ट्ा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितैन्द्रियः ॥ ॥९८॥ विषयों में फँसी इन्द्रियों को, जैसा ज्ञान से वश में किया जा सकता है, वैसा विषय के त्याग से नहीं किया जा सकता है। जिस का का मन विषयों में लगा होता है, उसको वेदाध्ययन, दान, यज्ञ, नियम और तप कभी फल नहीं देते। जिसको कोई चीज़ सुनकर; या छूकर या देखकर या खाकर, या सूंघकर हर्ष अथवा शोक नहीं होता, उसको जितेन्द्रिय ज्ञानना चाहिए ॥ ९६-९८॥ इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् ॥ ॥९९॥ वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा । सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम् ॥ ॥१००॥ जैसे पानी की मशक में छेद हो जाने से उसका पानी बाहर निकल जाता है, वैसे ही यदि इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय विषयों में संलग्न हो जाती है तो मनुष्य की बुद्धि में विकार आ जाता है । इसलिए इन्द्रियों को और मन को वश में करके, शरीर को क्लेश ना देकर, अच्छी रीति से अपने कार्यों का साधन करना चाहिए। ॥९९-१००॥ पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमाऽर्कदर्शनात् । पश्चिमां तु समासीतः सम्यग् ऋक्षविभावनात् ॥ ॥१०१॥ पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति । पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम् ॥ ॥१०२॥ न तिष्ठति तु यः पूर्वा नौपास्ते यश्च पश्चिमाम् । स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ॥ ॥१०३॥ अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः ॥ ॥१०४॥ वेदौपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके। नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि ॥ ॥१०५॥ प्रातःकाल, सन्ध्या और गायत्रीजप का समय सूर्यदर्शन तक रहता है और सायंकाल में नक्षत्रदर्शन तक रहता है। प्रातःसन्ध्या से रात में किया हुआ साधारण दोष और सायंसन्ध्या से दिन में किया हुआ साधारण दोष दूर हो जाता है। जो प्रातः सन्ध्या और सायं संन्ध्या नहीं करता उसको शुद्र की भांति सब द्विजाति के कामों से अलग कर देना चाहिए। जल के पास अथवा वन में, एकाग्र होकर नित्य कर्म, गायत्रीजप और स्वाध्याय को करना चाहिए। वेदों के छः अंगो को पढ़ने में, नित्य स्वाध्याय में, ब्रह्मयज्ञ और होममन्त्र पढ़ने में, अनध्याय नहीं माना जाता है ॥१०१-१०५॥ नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत् स्मृतम्। ब्र ह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट् कृतम् ॥ ॥१०६॥ यः स्वाध्यायमधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः। तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु ॥ ॥१०७ ॥ अग्नीन्धनं भैक्षचर्यामधः शय्यां गुरोर्हितम् । आ समावर्तनात् कुर्यात् कृतोपनयनो द्विजः ॥ ॥१०८॥ आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः। आप्तः शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः ॥ ॥१०९॥ नापृष्टः कस्य चिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः । जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ॥ ॥११०॥ अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति । तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वाऽधिगच्छति ॥ ॥१११॥ नित्य कर्म में अनध्याय नहीं माना जाता, क्योंकि वह ब्रह्मयज्ञ कहा जाता है। उसमें ब्रह्माहुति का होम, पुण्यफल है और अनाध्याय में वषट्कार-वेदाध्ययन की समाप्ति का शब्द किया जाता है। जो ब्रह्मचारी, एक साल तक नियम से पवित्र होकर स्वाध्याय करता है उसके लिए वह स्वाध्याय, दूध, दही, घी और मधु की प्राप्ति कराता है। ब्रह्मचारी को उपनयन के बाद समावर्तन 12 तक, गुरुकुल में, होम के लिए लकड़ी बटोरे, भिक्षा लाए, भूमि पर सोए और गुरुसेवा करनी चाहिए। आचार्यपुत्र, सेवक, ज्ञान दाता, धर्मपरायण, पवित्र, प्रामाणिक, पढ़ने योग्य, धनदाता, सदा चारी और अपने जाति- सम्बन्धी यह दस धर्मार्थ पढ़ाने योग्य हैं। बिना पूछे किसी से न बोले और जो अन्याय से पूछे उससे भी न बोले, ऐसे मौके पर चतुर जानकर को भी अनजान सा रहना चाहिए, क्योंकि, जो अधर्म से जो पूछता है या जो उत्तर देता है, उन में एक मर जाता है अथवा द्वेषी बन जाता है ॥१०६-१११॥ धर्मार्थों यत्र न स्यातां शुश्रूषा वाऽपि तद्विधा। तत्र विद्या न वप्तव्या शुभं बीजमिवौषरे ॥ ॥ ११२ ॥ विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना। आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामिरिणे वपेत् ॥ ॥११३॥ जिसको पढ़ाने से धर्म, धन अथवा सेवा कुछ भी न मिले, उसको विद्या नहीं देनी चाहिए। अच्छा बीज अनुपजाऊ भूमि में बोना ही व्यर्थ है। वेदज्ञाता, विद्या के साथ ही मर जाए वह अच्छा है परन्तु घोर दुःख के समय मे भी कुपात्र में विद्याबीज कभी न बोवे ॥११२-११३॥ विद्या ब्राह्मणमेत्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम्। असूयकाय मां मादास्तथा स्यां वीर्यवत्तमा ॥ ॥११४॥ यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम् । तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने ॥ ॥११५॥ ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातमधीयानादवाप्नुयात् । स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते ॥ ॥११६॥ विद्या ने ब्राह्मण के पास आकर कहा मैं तेरी निधि हूँ, आप मेरी रक्षा करना तथा द्वेष रखने वाले पुरुष को मुझे कभी न देना, ऐसा करने से मैं तुम में अधिक बलवान होकर रहूंगी। जो पवित्र, जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी हो और निधि के समान मेरी रक्षा करनेवाला हो, उसको मेरा उपदेश करना । जो कोई पढ़ता हो उससे उसके गुरु की आज्ञा बिना यदि दूसरा पढ ले, तो वह विद्याचोर, नरकगामी होता हैं ॥ ११४- ११६॥ लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽध्यात्मिकमेव वा । आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ॥ ॥११७॥ सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः। नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी ॥ ॥११८॥ शय्याऽऽसनेऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत् । शय्याऽऽ सनस्थश्चैवेनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ॥ ॥११९ ॥ ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रमन्ति यूनः स्थविर आयति। प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते ॥ ॥१२०॥ जिससे लौकिक विषय, या वैदिक क्रिया था ब्रह्मविद्या को सीखे, उसको पहले प्रणाम करना चाहिए, उसे प्रणाम करने के पश्च्यात किसी ओर को प्रणाम करे। जो केवल गायत्री ज्ञानता हो, जितेन्द्रिय हो वह ब्राह्मण शिष्टों में मान्य होता है। जो तीन वेदों का भी ज्ञाता हो परन्तु भक्ष्याभक्ष्य का विचार न रखता हो, सभी निषिद्ध चीजें बेचता हो, वह अजितेन्द्रिय शिष्टों में माननीय नहीं होता। जिस शय्या और आसन्न पर, अपने से श्रेष्ठ-बड़ा बैठता हो उस पर कभी न बैठे। स्वयं आसन अथवा शय्या पर बैठा हो तब किसी पूज्य का आगमन हो तो उठकर प्रणाम करना चाहिए। गुरु या किसी श्रेष्ठ के आने पर युवा पुरुष के प्राण ऊपर को चढ़ने लगते हैं और फिर उठकर प्रणाम आदि करने पर वह प्राण स्वस्थ होते हैं। अतः अपने से वरिष्ठ और विद्या आदि मे उत्तम व्यक्तियों के आने पर, अपने आसन से उठकर स्वागत अवश्य करना चाहिए ॥ ११७-१२० ॥ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मी यशो बलम् ॥ ॥१२१॥ अभिवादात् परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन् । असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत् ॥ ॥१२२॥ नामधेयस्य ये के चिदभिवादं न जानते । तान् प्राज्ञोऽहमिति ब्रूयात् स्त्रियः सर्वास्तथैव च ॥ ॥१२३॥ भोःशब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने। नाम्नां स्वरूपभावो हि भोभाव ऋषिभिः स्मृतः ॥ ॥१२४॥ आयुष्मान् भव सौम्यैति वाच्यो विप्रोऽभिवादने । अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः ॥ ॥१२५॥ जो पुरुष वरिष्ठों की सेवा और उनको प्रणाम करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं। वृद्ध को प्रणाम करते हुए विप्र, 'मैं अमुक नाम हूँ' ऐसा कहे। जो प्रणम्य पुरुष आशीर्वाद देने का नियम न जानता हो, उनको प्रणाम के समय में 'मैं हूं' इतना ही कहे और स्त्रियों को भी प्रणाम करते हुए यही कहना चाहिए। अभिवादन- प्रणाम करने के समय अपने नाम के अन्त में भोः' कहे जैसे 'देवेशमहिमस्मि भोः। प्रणम्य पुरुष के नाम के स्थान में भी 'भोः' कहना चाहिए, यह सम्बोधन ऋषियों ने कहा है। अर्थात् प्रणम्य का नाम न कहकर 'भोः' कहना चाहिए। विप्र प्रणाम करे तो आशीर्वाद में 'आयुष्मान भव सौम्य' ऐसा कहे। और उसके नाम के अन्त में अकार का अगर व्यञ्जनान्त नाम हो तो उसके पहले अक्षर का प्लुत ऊंचा उच्चारण करे ॥ १२१-१२५ ॥ यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम् । नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ॥ ॥१२६॥ ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्। वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ॥ ॥१२७॥ जो ब्राह्मण, प्रणाम-आशीर्वाद की रीति न जानता हो उसको प्रणाम नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह शूद्र के समान है। आपस में मिलने पर ब्राह्मण से 'कुशल' क्षत्रिय से 'अनामय' वैश्य से 'क्षेम' और शूद्र से 'आरोग्य' पूछना चाहिए ॥ १२६-१२७ ॥ अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत्। भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित् ॥ ॥१२८॥ परपत्नी तु या स्त्री स्यादसंबन्धा च योनितः। तां ब्रूयाद् भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च ॥ ॥ १२९॥ मातुलांश्च पितृव्यांश्च श्वशुरान् ऋत्विजो गुरून्। असावहमिति ब्रूयात् प्रत्युत्थाय यवीयसः ॥ ॥ १३०॥ मातृश्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृश्वसा । सम्पूज्या गुरुपत्नीवत् समास्ता गुरुभार्यया ॥ ॥१३१॥ भ्रातुर्भार्योपस‌ङ्ग्राह्या सवर्णाऽहन्यहन्यपि। विप्रोष्य तूपस‌ङ्ग्राह्या ज्ञातिसंबन्धियोषितः ॥ ॥१३२॥ यज्ञादि में दीक्षित ब्राह्मण उम्र में छोटा हो तब भी उसका नाम नहीं लेना चाहिए, उसको 'भोः' 'भवान्' कहकर सम्बोधित करना चाहिए। जो दूसरे की स्त्री हो अथवा जिससे सम्बन्ध न हो उससे 'भवति', सुभगे, 'भगिनी' कहकर बोलना चाहिए। मामा, पिता का भाई, श्वशुर, ऋत्विज्ञ और गुरु यह यदि उमर में छोटे हों, तब भी, मिलने पर उठकर "असौ अहम्" कहकर अपना नाम प्रकट करना चाहिए। मौसी, मामी, सास और बुआ, यह सभी गुरुस्त्री के समान पूज्य हैं इसलिए इनका आदर सदैव गुरुमाता के समान करना चाहिए। ज्येष्ठ भाई की सवर्णा स्त्री से रोज प्रणाम आदि करना चाहिए, और जाति, सम्बन्धी स्त्रियों को पितृकुल या मातृकुल में, विदेश से आने पर प्रणाम करना चाहिए ॥१२८-१३२॥ पितुर्भगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि। तृवद् वृत्तिमातिष्ठेन् माता ताभ्यो गरीयसी ॥ ॥ १३३॥ दशाब्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलाभृताम् । त्र्यब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु ॥ ॥१३४॥ पिता की बहन, माता की बहन और बड़ी बहन माता के समान आदर योग्य हैं, पर माता इनमें सबसे श्रेष्ठ हैं। एक नगर का निवासी उम्र में दस वर्षे बड़ा होने तक सख्य अर्थात बराबरी का होता है। इसी प्रकार संगीत, नृत्य आदि जाननेवाला उम्र में पाँच वर्ष बड़ा, वेदज्ञ तीन वर्ष बड़ा और सम्बन्धी थोड़े ही दिन बड़ा, समान अवस्था के माने जाते हैं । ॥१३३-१३४॥ ब्राह्मणं दशवर्ष तु शतवर्ष तु भूमिपम् । पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥ ॥१३५॥ वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी । एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम् ॥ ॥१३६॥ पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च । यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः शूद्रोऽपि दशमीं गतः ॥ ॥१३७॥ दस वर्ष के ब्राह्मण को, सौ वर्ष का भी क्षत्रिय पिता माने और अपने को पुत्र माने । धन, कुटुम्ब, आयु, कर्म और विद्या यह पाँच बड़ाई (मान) के स्थान हैं। इनमें, पहले से दूसरा क्रम से अधिक मान्य होता है। तीनों वर्णों में जो इन पाँच बातों में जो बड़ा हो वहीं जगत् में माननीय है और दसवीं अवस्था में (६० वर्ष में) शुद्र भी माननीय होता है ॥१३५-१३७॥ चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः। स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च ॥ ॥१३८॥ तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ । राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक् ॥ ॥१३९॥ उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः। सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते ॥ ॥१४०॥ एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः । योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ ॥१४१॥ चक्र युक्त गाड़ी में बैठा, नब्जे वर्ष से अधिक उम्र कर वृद्ध, रोगी, सिर पर बोझा उठाए व्यक्ति, स्त्री, वेदपाठी, ब्रह्मचारी, राजा और विवाह में वर, इनको देखकर मार्ग छोड़ देना चाहिए। यह सब जहां इक्कठे हों वह स्नातक ब्राह्मण, जिसका वेदपाठ हो गया है, और राजा अधिक माननीय होते हैं। इन दोनों में भी राजा स्नातक का मान करे। जो अपने शिष्य का उपनयन करके उसे कल्प 13 और रहस्य 14 के साथ वेद पढ़ाता हैं वह 'आचार्य' कहलाता है। जो ब्राह्मण वेद के एक देश अथवा एक अङ्गों (जैसे ज्योतिष, व्याकरण आदि) को जीविका के लिए पढ़ाता है, वह 'उपाध्याय' कहलाता है॥१३८-१४१॥ निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि। संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते ॥ ॥१४२॥ अग्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान् मखान् । यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्विगिहोच्यते ॥ ॥१४३॥ य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ । स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत् कदा चन ॥ ॥१४४॥ उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेणातिरिच्यते ॥ ॥१४५॥ जो गर्भाधान आदि संस्कार विधि से करता है और अन्न से पोषण करता है, वह 'गुरु' कहलाता है। जो ब्राह्मण आहवनीय अग्नि का वरण कर, अग्याधैय कर्म, अष्टादर्श, पौर्णमास आदि पाकयज्ञ और अग्निष्टोम आदि यज्ञ करता है वह उसका 'ऋत्विज' कहलाता है। जो वेद का शुद्ध अध्यापन कराता है वह पिता, माता के समान माननीय होता है, उसके साथ कभी द्रोह न करे। 'आचार्य' 'उपाध्याय' से दस गुना; पिता आचार्य से सौ गुना और माता पिता से हज़ार गुना अधिक पूज्य है ॥१४२-१४५॥ उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता । ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ॥ ॥१४६॥ कामान् माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथः । संभूतिं तस्य तां विद्याद् यद् योनावभिजायते ॥ ॥१४७॥ आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः। उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साऽजराऽमरा ॥ ॥१४८॥ अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्यौपकरोति यः। तमपीह गुरुं विद्यात्श्रुतौपक्रियया तया ॥ ॥१४९॥ पैदा करनेवाला पिता और वेदाध्यापक गुरु में, गुरु श्रेष्ठ है। क्योंकि वह ब्रह्मजन्म का दाता हैं, उसी से लोक, परलोक में स्थिर सुख मिलता है। माता और पिता कामवश होकर जो बालक पैदा करते है, वह जिस योनि में जाता है, उसी प्रकार उसके हाथ, पैर अंग हो जाते हैं। परन्तु वेदविशारद आचार्य, गायत्री उपदेश से जो बालक की जाति उत्पन्न करता है वह जाति सत्य, अजर और अमर हैं। जो उपाध्याय वेद पढ़ाकर, जिसका थोड़ा या बहुत उपकार करता है, उसको भी गुरु के समान जानना चाहिए ॥१४६-१४९॥ ब्राह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता। बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः ॥ ॥ १५०॥ अध्यापयामास पितॄन् शिशुराङ्गिरसः कविः। पुत्रका इति हौवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान् ॥ ॥१५१॥ ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः । देवाश्चैतान् समेत्यौचुर्याय्यं वः शिशुरुक्तवान् ॥ ॥१५२॥ ब्रह्म-वेद पढ़ाने योग्य जन्म देनेवाला और स्वधर्म की शिक्षा देनेवाला ब्राह्मण यदि बालक हो तब भी वह धर्मानुसार बूढ़ों के पिता समान है। अंगिरस मुनि के विद्वान पुत्र ने बाल्य अवस्था में अपने चाचा, मामा आदि पित्रव्यों को वेद पढ़ाया और धर्मबुद्धि से उनको शिष्य जान 'हे पुत्रकाः!' अर्थात 'हे लड़कों' ऐसा कह कर पुकारा था। उन्होंने अत्यधिक क्रोध कर के देवताओं से पुत्र का अर्थ पूछा, तब उन्होंने कहा कि बालक ने उचित रीति से तुम्हें पुकारा है। ॥१५०-१५२॥ अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥ ॥१५३॥ न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः । ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् ॥ ॥१५४॥ विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः । वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः ॥ ॥१५५॥ न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। यो वै युवाऽप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः ॥ ॥१५६॥ अज्ञानी ही बालक है और मन्त्रदाता ही पिता हैं। इसलिए अज्ञानी मूर्ख को बालक और मन्त्रदाता को पिता कहते हैं। न बहुत उम्र से, न सफ़ेद बालों से, न धन से, न सम्बन्ध-रिश्तेदारी में बड़ाई होने से ब्राह्मण की बड़ाई है, किन्तु जो वेद-विशारद हैं, वही श्रेष्ठ हैं यह ऋषियों ने नियम बनाया है। ब्राह्मण की ज्ञान से, क्षत्रियों की पराक्रम से, वैश्यों की धन-धान्य से और शूद्रों की जन्म-उम्र से बड़ाई होती है। सर के बाल पक जाने से कोई वृद्ध नहीं होता, किन्तु जो युवा पुरुष भी वेद-विशारद है उसको देवताओं ने भी वृद्ध कहा है ॥ १५३- १५६ ॥ यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति ॥ ॥१५७॥ यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। यथा चाज्ञेऽफलं दानं तथा विप्रोऽनृचोऽफलः ॥ ॥१५८॥ अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् । वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ ॥१५९॥ यस्य वाङ्गनसी शुद्धे सम्यग् गुप्ते च सर्वदा। स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ॥ ॥१६०॥ जैसा काठ का हाथी और चमड़े का मृग, वैसा बिना पढ़ा ब्राह्मण है। यह तीनों नाममात्र को धारण करते हैं पर किसी काम के नहीं हैं। जैसे स्त्रियों के लिए नपुंसक पुरुष निष्फल है, गौ के लिए दूसरी गौ निष्फल है, अज्ञानी को दिया दान निष्फल है, वैसा ही बिना वेद पढ़ा ब्राह्मण निष्फल है क्योंकि ऐसा ब्राह्मण श्रौतस्मार्त कर्मों के अयोग्य होता है। किसी के चित्त को दुखाकर धर्मशिक्षा नहीं देनी चाहिए। मधुर और कोमल वाणी बोलनी चाहिए। जिसकी वाणी और मन शुद्ध है, दोषों से रहित है, उसको वैदिक कर्मों का पूरा फल मिलता है। ॥१५९-१६०॥ नारुंतुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः । ययाऽस्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् ॥ ॥१६१॥ सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव । अमृतस्येव चाकाचे दवमानस्य सर्वदा ॥ ॥१६२॥ सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते । सुखं चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति ॥ ॥१६३॥ बहुत दुखी होने पर भी किसी को मर्मभेदी वचन नहीं कहने चाहिए। जिसमें किसी दूसरे की हानि होती हो ऐसी बात का विचार भी नहीं करना चाहिए और जिससे लोगों में घबराहट पैदा होती हो, उस अहित करनेवाली बात को भी नहीं कहना चाहिए। सम्मान में, सुख का अनुभव न कर, विष की तरह उससे नित्य डरते रहना चाहिए और अपमान की अमृत की तरह सदा चाह रखनी चाहिए। इस लोक में अपमान से जो दुःख नहीं मानता वह सुख से सोता है, सुख से जागता है, सुख से विचरता है और उसका अपमान करनेवाला नष्ट हो जाता है ॥१६१-१६३॥ अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः। गुरौ वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः ॥ ॥१६४॥ तपोविशेषैर्विविधैव्रतैश्च विधिचोदितैः। वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना ॥ ॥१६५॥ वेदमेव सदाऽभ्यस्येत् तपस्तप्यन् द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहौच्यते ॥ ॥ १६६॥ आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः। यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायं शक्तितोऽन्वहम् ॥ ॥१६७॥ योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ ॥ १६८॥ इस क्रम से गर्भाधानादि उपनयन संस्कारों से पवित्र द्विज गुरुकुल में वेद प्राप्ति योग्य तप करे। द्विज को तपों से और नाना प्रकार के व्रत में संपूर्ण वेद और उपनिषदों के ज्ञान का संपादन करना चाहिए। तप करने की इच्छा से वेद का सदा अभ्यास करे। वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप कहा गया है। जो द्विज पुष्पमाला को भी धारण करके अर्थात् ब्रह्मचर्य का नियम न रखकर भी नित्य यथाशक्ति वेदाध्ययन करता है, वह निश्चय ही नख-शिख से परम तप करता है। जो द्विज वेद को न पढ़कर, अन्य कार्य में श्रम करता हैं, वह जीता हुआ ही वंश के साथ शुद्रता को प्राप्त होता है ॥ १६४-१६८ ॥ मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धने । तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचोदनात् ॥ ॥ १६९॥ तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौज्ञ्जीबन्धनचिह्नितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ॥ ॥१७०॥ वेदप्रदानादाचार्यं पितरं परिचक्षते। न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदा मौञ्जिबन्धनात् ॥ ॥१७१॥ श्रुति की आज्ञा से द्विज को माता से पहला जन्म, उपनयन से दूसरा जन्म, ज्योतिष्ठोम आदि यज्ञदीक्षा लेने पर तीसरा जन्म होता है। इन तीनों में उपनयन वाले ब्रह्मजन्म में सावित्री-गायत्री माता और आचार्य को पिता कहा जाता है। वेद के अध्यापन से आचार्य को पिता कहते हैं। उपनयन के बिना बालक को श्रौत स्मार्त कर्मों का अधिकार नहीं होता ॥१६९-१७१॥ नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म स्वधानिनयनाद् ऋते। शूद्रेण हि समस्तावद् यावद् वेदे न जायते ॥ ॥१७२॥ कृतौपनयनस्यास्य व्रतादेशनमिष्यते। ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम् ॥ ॥१७३॥ यद्यस्य विहितं चर्म यत् सूत्रं या च मेखला। यो दण्डो यत्व वसनं तत् तदस्य व्रतेष्वपि ॥ ॥ १७४॥ सेवेतैमांस्तु नियमान् ब्रह्मचारी गुरौ वसन्। सन्नियम्यैन्द्रियग्रामं तपोवृद्धयर्थमात्मनः ॥ ॥१७५॥ जिसका यज्ञोपवीत न हुआ हो उसके समीप, श्राद्धकर्म के मन्त्रों के सिवाय दूसरे वेदमन्त्रों का उच्चारण न करें। क्योकि उपनयन से पूर्व वह शूद्र के समान माना जाता है। उपनयन के बाद बालक को व्रत धारण और विधि से वेद का अध्ययन कराए। उपनयन में जिसके लिए जो चर्म, सूत्र, मेखला, दण्ड और वस्त्र धारण करने को कहा है वही व्रत में धारण करना चाहिए। गुरु कुल में ब्रह्मचारी को इन्द्रियों को संयम करके अपनें तप की वृद्धि के लिए इन नियमों का पालन करना चाहिए ॥ १७२-१७५ ॥ ब्रह्मचारी के धर्म नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद् देवर्षिपितृतर्पणम्। देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च ॥ ॥१७६॥ वर्जयेन् मधु मांसं च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः। शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ॥ ॥१७७॥ अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् । कामं क्रोधं च लोभं च नर्तनं गीतवादनम् ॥ ॥१७८॥ द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथाऽनृतम् । स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च ॥ ॥ १७९॥ नित्य स्नान से पवित्र होकर द्विज, देवता, कृषि और पितरों का तर्पण, देवपूजन और होम करना चाहिए। मधु, मांस, सुगन्ध का पदार्थ, पुष्प, रस, स्त्री, सड़ी वस्तु जैसे सिरका इत्यादि और प्राणियों की हिंसा इनको छोड़ देना चाहिए। तेल लगाना, आँखों में अंजन, जूता, छतरी, काम, क्रोध, लोभ, नाच, गान, बाजा, जुआ, व्यर्थ बोलना, परनिंदा, झूठ बोलना, स्त्रियों को देखना और छूना, दूसरे का अनहित, यह सब छोड़ देना चाहिए ॥१७६-१७९॥ एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत् क्व चित्। कामाद् हि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः ॥ ॥१८०॥ स्वप्ने सिक्त्वा ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामतः । स्नात्वाऽर्कमर्चयित्वा त्रिः पुनर्मामित्यूचं जपेत् ॥ ॥१८१॥ उदकुम्भं सुमनसो गोशकृत्मृत्तिकाकुशान् । आहरेद् यावदर्थानि भैक्षं चाहरहश्चरेत् ॥ ॥१८२॥ वेदयज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु । ब्रह्मचार्याहरेद् भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम् ॥ ॥१८३॥ गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु । अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत् ॥ ॥१८४॥ हमेशा अकेला सोना चाहिए और वीर्य की रक्षा करनी चाहिए। जो इच्छा से वीर्यपात करता है वह अपने ब्रह्मचर्यव्रत का नाश करता है। अपनी अनिच्छा से यदि वीर्यपात हो जाये तो स्नान, सूर्य पूजन करने ले पश्च्यात 'पुनर्मामेत्विन्द्रियम्' इस ऋचा का तीन बार जप करे। जल का घड़ा, फूल, गोबर, मिट्टी और कुश यह वस्तुएं आवश्यकता अनुसार ले कर आये और प्रतिदिन भिक्षा मांगे। वेद और यज्ञ से जो हीन नहीं है, अपने नित्यकर्म में परायण हैं, उनके घरों से ब्रह्मचारी को भिक्षा लानी चाहिए। अपने गुरुकुल में, जाति में और सम्बन्धियों में भिक्षा नहीं मांगनी चाहिए। यदि किसी अन्य से भिक्षा न मिल सके तो पहले पहले को छोड़ कर दूसरों से भिक्षा मांगनी चाहिए अर्थात नजदीक के रिश्तेदारों को छोड़ कर दूर वालों से भिक्षा मांगनी चाहिए। ॥१८०- १८४॥ सर्वं वापि चरेद् ग्रामं पूर्वोक्तानामसंभवे । नियम्य प्रयतो वाचमभिशस्तांस्तु वर्जयेत् ॥ ॥१८५॥ दूरादाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्‌ विहायसि । सायं।प्रातश्च जुहुयात्‌ ताभिरग्निमतन्दरितः ॥ ॥१८६॥ अकृत्वा भक्षचरणमसमिध्य च पावकम्‌ | अनातुरः सप्तरात्रमवकीर्णित्रितं चरेत्‌ ॥ ॥१८७॥ यदि धर्म-कर्म वाले पुरुषों का गाँव में अभाव हो तो सभी गाँवों में भिक्षा मांगने जाना चाहिए। महापातकी लोगों को छोड़ देना चाहिए और अपनी वाणी का सदा संयम रखना चाहिए। दूर से समिधा-होम की लकड़ी लाकर ऊँचे पर रखनी चाहिए और आलस्य हीन होकर प्रातःकाल ओर सायंकाल उससे अग्नि में हवन करना चाहिए। ब्रह्मचारी नीरोग होने पर यदि सात रात तक भिक्षा न ला सके और हवन न करे तो उसको 'अवकीर्णिव्रित प्रायश्चित्त करना चाहिए ॥ १८५-१८७ ॥ भक्षेण वर्त्यिन्नित्यं नैकान्नादी भवेद्‌ व्रती। भक्षेण व्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा स्मृता ॥ ॥१८८॥ व्रतवद्‌ देवदैवत्ये पित्रे कर्मण्यथर्षिवत्‌ | काममभ्यर्थितोऽश्रीयाद्‌ व्रतमस्य न लुप्यते ॥ ॥१८९॥ ब्राह्मणस्यैव कर्मतदुपदिष्टं मनीषिभिः। राजन्यवेश्ययोस्त्वेवं नैतत्‌ कर्म विधीयते ॥ ॥१९०॥ ब्रह्मचारी को भिक्षा माँगकर ही नित्य भोजन करना चाहिए और केवल एक ही घर से अन्न लाकर नहीं खाना चाहिए। क्योकि भिक्षासमूह से जो निर्वाह होता है, वह व्रत के समान माना जाता हे। देवयज्ञ में निमन्त्रण हों तो निषिद्ध पदार्थ छोड़कर यदि एक घर के अन्न का भी तृतिपूर्वक भोजन करे तो ब्रहमचर्य व्रत धारक का व्रत भंग नहीं होता। इसी प्रकार श्राद्ध में ऋषियों के अर्पण तुल्य भीजन करने से भी व्रत भंग नहीं होता है। लेकिन विद्वानों मेँ यह कर्म केवल ब्राह्मण ब्रह्मचारी के लिए कहा है, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ऐसे कर्म का विधान नहीं है ॥१८८-१९०॥ चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा | कुर्यादध्ययने यलमाचार्यस्य हितेषु च ॥ ॥१९१॥ शरीरं चैव वाचं च बुद्धीद्दियमनांसि च । नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्‌ वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्‌ ॥ ॥१९२॥ नित्यमुदधृतपाणिः स्यात्‌ साध्वाचारः सुसंवृतः। आस्यतामिति चौक्तः सप्नासीताभिमुखं गुरोः ॥ ॥१९३॥ हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्‌ सर्वदा गुरुसन्निधौ । उत्तिष्ठेत्‌ प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशोत्‌ ॥ ॥१९४॥ प्रतिश्रावणसंभाषे शयानो न समाचरेत्‌। नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः ॥ ॥१९५॥ गुरु प्रतिदिन कहं अथवा न कहें, पर अध्ययन ओर आचार्य के हित के लिए सदा यत्र करना चाहिए। शरीर, वाणी, बुद्धि, ज्ञानेद्धिय और मन का संयम करके हाथ जोड़कर गुरुमुख को देखते हुए रहना चाहिए। ओदने के वस्त से दाहिना हाथ सदा बाहर रखे, ओर गुरुआज्ञा से गुरु के सम्मुख बैठे अर्थात जब गुरु कहें 'बैठो ' केवल तभी बैठे। गुरु के सम्मुख सदा सादा भोजन करे और सादे वस्त्र सदा पहने। गुरु के पहले जागे और पीछे सोये। ब्रह्मचारी सोता, बैठा, खाता, खड़ा और मुंह फेरकर खड़ा हुआ गुरु से वार्तालाप न करे ॥ १९१-१९५ ॥ आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः। प्रतयुद्रम्य त्वाव्रजतःपश्चाद्‌ धावंस्तु धावतः ॥ ॥१९६॥ पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्येत्य चान्तिकम्‌ । प्रणम्य तु शयानस्यनिदेशे चैव तिष्ठतः ॥ ॥१९७॥ नीचं शय्याऽऽसनं चास्य नित्यं स्याद्‌ गुरुसन्निधौ । गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्‌ ॥ ॥१९८॥ नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम्‌। न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम्‌ ॥ ॥१९९॥ गुरोर्यत्र परिवादो निन्दा वाऽपि प्रवर्तते | कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥ ॥२००॥ परीवादात्‌ खरो भवति श्रा वै भवति निन्दकः। परिभीक्ता कृमिर्भवति कोटो भवति मत्सरी ॥ ॥२०१॥ गुरु आसन पर बैठे हों तो शिष्य आसन से उठकर, गुरु खड़े हो तो उनके पास जाकर, आते हों तो सन्मुख जाकर और जा रहे हों तो उनके पीछे दौडकर बात करना चाहिए । गुरु पीछे हो तो सन्मुख होकर, टूर हो तो पास जाकर, लेटे हों तो प्रणाम करके, खड़े हों तो समीप होकर आज्ञा को सुनना चाहिए। गुरु के पास में बिछोना तथा आसन गुरु से नीचा रखना चाहिए ओर उनके सामने मनमानी तौर से बैठना नहीं चाहिए। गुरु के पीछे भी उनका अकेला नाम लेकर न बोले और उनकी बोल चाल, चेष्टा इत्यादि की नक़ल न करे। जहाँ गुरुनिन्दा होती हो वहाँ शिष्य को अपने दोनों कानों को बंद कर लेना चाहिए अथवा वहां से दूर चले जाना चाहिए। गुरुनिन्दा सच्ची या झूठी सुनने अथवा करने से, मर कर गधा और कुत्ता होता है। गुरुधन का अनुचित उपभोग करने वाला कृमि और दुष्टता करने वाला कीट होता है ॥१९९ -२०१॥ दूरस्थो नार्चयेदेनं न कुद्धो नान्तिके स्त्रियाः। यानासनस्थश्चैवैनमवरुह्याभिवादयेत् ॥ ॥२०२॥ प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह । संश्रवे चैव गुरोर्न किं चिदपि कीर्तयेत् ॥ ॥२०३॥ शिष्य को स्वयं दूर रहकर, दूसरे के द्वारा गुरुपूजा नहीं करनी चाहिए। क्रोध मे भी पूजा नहीं करनी चाहिए तथा जब गुरु अपनी स्त्री के संग हों तब भी पूजा नहीं करनी चाहिए। शिष्य यदि आसन अथवा गाड़ी में बैठा हो तो उतर कर गुरु को प्रणाम करे। गुरु के सन्मुख यदि शिष्य की ओर से गुरु की तरफ वायु आता हो (प्रतिवात) अथवा गुरु की ओर से शिष्य की तरफ वायु आता हो (अनुवात) तो शिष्य को गुरु के सन्मुख नहीं बैठना चाहिए, अर्थात इन दोनों अवस्थाओं मे गुरु के सामने न बैठ कर गुरु की आज्ञा से उनके दाएँ अथवा बाएं ओर बैठना चाहिए। यदि गुरु कुछ न सुन सकें तो कुछ कहना भी नहीं चाहिए ॥ २०२-२०३॥ गोऽश्वौष्ट्रयानप्रासादप्रस्तरेषु कटेषु च। आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलकनौषु च ॥ ॥ २०४॥ गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद् वृत्तिमाचरेत् । न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत् ॥ ॥ २०५॥ विद्यागुरुष्वेवमेव नित्या वृत्तिः स्वयोनिषु । प्रतिषेधत्सु चाधर्माद् हितं चोपदिशत्स्वपि ॥ ॥ २०६॥ श्रेयःसु गुरुवद् वृत्तिं नित्यमेव समाचरेत् । गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव स्वबन्धुषु ॥ ॥२०७॥ बालः समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि । अध्यापयन् गुरुसुतो गुरुवत्मानमर्हति ॥ ॥२०८॥ बैल, घोड़ा, ऊँट की सवारी में, मकान की छत, चटाई, शिला, पाटा और नाव पर गुरु के साथ बैठने का निषेध नहीं है। गुरु का गुरु समीप आये तो उनका गुरु की समान सम्मान करे। गुरु की आज्ञा बिना अपने माता, पिता आदि को भी प्रणाम न करें। विद्या, गुरु, पिता आदि, अधर्म से बचानेवाला और हितैषी इनसे भी गुरु समान ही व्यवहार करें। विद्या, तप से श्रेष्ठ, अपने से बड़ा सदाचारी, गुरुपुत्र और गुरुसम्बन्धी इनसे भी गुरु के समान व्यवहार करें। गुरुपुत्र, अपने से छोटा, या समान अवस्था का अथवा यज्ञकर्म में शिष्य हों तो भी वेद का अध्यापक होने से गुरु के समान ही माननीय होता हैं। ॥२०४-॥ उत्सादनं च गात्राणां स्नापनौच्छिष्टभोजने । न कुर्याद् गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् ॥ ॥ २०९॥ गुरुवत् प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरुयोषितः । असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः ॥ ॥२१०॥ अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनमेव च। गुरुपत्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम् ॥ ॥२११॥ गुरु के समान गुरुपुत्र को उबटन मलना, स्नान कराना, पैर दवाना और उनका जूठा खाना यह सब काम नहीं करना चाहिए। गुरु की स्त्री सजातीय हो तो गुरुसमान पूज्य है, अथवा उसको उठकर प्रणाम करले-यही सेवा है। उबटन मलना, स्नान कराना, शरीर दबाना, फूल से बाल गूंथना, यह काम गुरु स्त्री के नहीं करने चाहिए ॥ २०६-२११ गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्यैह पादयोः। पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता ॥ ॥२१२॥ स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम् । अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः ॥ ॥ २१३॥ अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः । प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम् ॥ ॥२१४॥ मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ ॥२१५॥ कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि। विधिवद् वन्दनं कुर्यादसावहमिति ब्रुवन् ॥ ॥२१६॥ पूरे बीस साल का जवान और भला बुरा जाननेवाला शिष्य जवान गुरुत्री को पैर छूकर प्रणाम न करे, दूर से भूमि पर ही प्रणाम कर ले करे। यह स्त्रियों का स्वभाव होता है कि पुरुषों को दोष लगा देती हैं, इसेलिए बुद्धिमान् पुरुष स्त्रियों से सदा सावधान रहते हैं । संसार में पुरुष पण्डित हो या सूर्ख, उसको काम, क्रोध के वश कुमार्ग में ले जाने को स्त्रियां बड़ी समर्थ होती हैं। माता, बहन अथवा पुत्री के साथ भी एकान्त में न बैठे, क्योंकि इन्द्रियां ऐसी प्रबल हैं कि विद्वान् के मन को भी खींच लेती हैं। यदि इच्छा हो तो युवा शिष्य युवती गुरुपत्नी को 'मैं अमुक हूँ' कहकर दूर से भूमि पर प्रणाम करना चाहिए ॥२१२-२१६ ॥ विाप्रोष्य पादग्रहणमन्वहं चाभिवादनम् । गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन् ॥ ॥२१७॥ यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति । तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ॥ ॥२१८॥ मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथ वा स्यात्शिखाजटः । नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेत् सूर्यो नाभ्युदियात् क्व चित् ॥ ॥२१९॥ विदेश से आने पर पैर छूकर और प्रतिदिन दूर से, गुरुस्त्री को प्रणाम करना चाहिए। यही शिष्यों को आचार है। जैसे पुरुष, कुदाल-फावड़े से भूमि को खोदता हुआ जल प्राप्त करता है, उसी प्रकार सेवा से गुरुविद्या को पाता है। ब्रह्मचारी, मुण्डित या शिखावाला, या जटाधारी हो उसका गाँव के भीतर सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिए। अर्थात् दोनों काल में गाँव के बाहर सन्ध्या-गायत्री की उपासना में रहना चाहिए ॥२१७-२१६॥ तं चेदभ्युदियात् सूर्यः शयानं कामचारतः । निम्लोचेद् वाऽप्यविज्ञानाज् जपन्नुपवसेद् दिनम् ॥ ॥२२०॥ सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोऽभ्युदितश्च यः । प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युक्तः स्यान् महतेनसा ॥ ॥२२१॥ आचम्य प्रयतो नित्यमुभे संध्ये समाहितः । शुचौ देशे जपज्ञ्जप्यमुपासीत यथाविधि ॥ ॥२२२॥ यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किं चित् समाचरेत् । तत् सर्वमाचरेद् युक्तो यत्र चास्य रमेन् मनः ॥ ॥२२३॥ यदि ब्रह्मचारी, इच्छा से सोता रहे और सूर्योदय हो जाय या नगर में ही सूर्यास्त हो जाय, तो एक दिन उपवास और गायत्री जप करे। यदि सोते हुए को सूर्योदय और सूर्यास्त हो जाय और उसका प्रायश्चित्त न करे तो उसको महापातक लगता हैं। आचमन करके प्रतिदिन दोनों सन्ध्या में एकाग्रसन होकर पवित्र स्थान में यथाविधि गायत्री जप करना चाहिए। यदि किसी धर्म का स्त्री अथवा शुद्र आचरण करता हो और उसमें मन लगे तो उसका भी पालन करें। अथवा जिस धर्म में अपना चित्त प्रसन्न हो वहीं करे ॥२२०-२२३॥ धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थों धर्म एव च । अर्थ एवैह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः ॥ ॥ २२४॥ आचार्यश्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः । नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः ॥ ॥२२५॥ आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः । माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मनः ॥ ॥२२६॥ यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥ ॥ २२७॥ कोई अर्थ और धर्म को, कोई काम को, कोई अर्थ को, कोई धर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं। पर धर्म, अर्थ और काम इन तीनों का आचरण करने से भला होता है-यह धर्मशास्त्र की आज्ञा है। आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति, पिता प्रजापति की मूर्ति, माता पृथिवी की मूर्ति और बड़ा भाई अपनी ही मूर्ति है। इनसे दुःखी होने पर भी इनका अपमान न करे और ब्राह्मण को तो इनका अपमान कभी करना ही नहीं चाहिए । मनुष्य की उत्पत्ति और पालन आदि में, माता, पिता जो दुःख सहते हैं उसका बदला सैकड़ों वर्ष सेवा से भी नहीं हो सकता ॥ २२४-२२७ तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा । तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं समाप्यते ॥ ॥२२८॥ तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप उच्यते । न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत् ॥ ॥२२९॥ त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः । त एव हि त्रयो वेदास्त एवौक्तास्त्रयोऽग्नयः ॥ ॥२३०॥ पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताऽग्निर्दक्षिणः स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साऽग्नित्रेता गरीयसी ॥ ॥२३१॥ त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रीन् लोकान् विजयेद् गृही । दीप्यमानः स्ववपुषा देववद् दिवि मोदते ॥ ॥ २३२॥ इमं लोकं मातृभक्त्या पितृभक्त्या तु मध्यमम् । गुरुशुश्रूषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्रुते ॥ ॥२३३॥ सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः । अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ ॥२३४॥ यावत् त्रयस्ते जीवेयुस्तावत्नान्यं समाचरेत् । तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात् प्रियहिते रतः ॥ ॥२३५॥ इसलिए सदा माता, पिता और आचार्य का प्रिय कार्य करे। इन तीनों के सन्तुष्ट होने से सब तप पूरे हो जाते हैं। इन तीनों की सेवा को परम तप कहा जाता है। इनकी आज्ञा लेकर दूसरे धर्मों का आचरण करना चाहिए। यह ही तीनों लोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग हैं। तीनों आश्रम, तीनों वेद और तीनों अग्नि हैं। पिता गार्हपत्यअग्नि, माता दक्षिणाग्नि और गुरु अहवनीयाग्नि का स्वरूप है, यह तीनों अग्नि संसार में बड़े हैं। इन तीनों की भक्ति सेवा से तीनों लोक गृहस्थ जीतता है और स्वर्ग में देवताओं की भांति सुख पाता है। मातृभक्ति से यह लोक, पितृभक्ति से मध्यलोक और गुरुभक्ति से ब्रह्मलोक को पाता है। जिसने इन तीनों का आदर किया उसने सब धर्मों का पालन किया और जिसने अनादर किया उसके सब धर्म-कर्म निष्फल हैं। जब तक पिता, माता और गुरु जीवित रहें तब तक इनकी सेवा में विशेष रूप से लगे रहना चाहिए ॥२२८-२३५॥ तेषामनुपरोधेन पारत्र्यं यद् यदाचरेत् । तत् तन्निवेदयेत् तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ॥ ॥ २३६॥ त्रिष्वेतेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते । एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते ॥ ॥२३७॥ द्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि । अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ ॥ २३८॥ विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् । अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम् ॥ ॥२३९॥ स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम् । विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः ॥ ॥२४०॥ इसके अतिरिक्त, परलोक प्रप्ति के लिए जो भी कर्म करे वह मन, वचन और कर्म से इनको ही निवेदन कर दे। इन तीनों की सेवा से, पुरुष के कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। यह मुख्य धर्म है और गौणधर्म भी माना जाता है। श्रद्धामय पुरुष उत्तम विद्या को हीनजाति से भी सीखे और चण्डाल से भी लोकमर्यादा सीखें और हीनकुल मे भी यदि स्त्री रत्न सुशील स्त्री को तो उसे विवाह के लिए स्वीकार कर ले। विष से अमृत और बालक से भी हित वचन ग्रहण कर लेने चाहिए। शत्रु से भी सदाचार और अपवित्र में से भी सुवर्ण मिले तो उसे निकाल लेना चाहिए। स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, शौच, अच्छे वचन अरि भांति भांति के शिल्प आदि सब से सीख ले ॥ २३६-२४०॥ अब्राह्मणादध्यायनमापत्काले विधीयते । अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्यायनं गुरोः ॥ ॥२४१॥ नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत् । ब्राह्मणे वाऽननूचाने काङ्क्षन् गतिमनुत्तमाम् ॥ ॥२४२॥ यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरोः कुले । युक्तः परिचरेदेनमा शरीरविमोक्षणात् ॥ ॥२४३॥ आपत्तिकाल में क्षत्रिय, वैश्य से भी अध्ययन का विधान है, परन्तु ऐसे गुरु की सेवा अध्ययनकाल तक ही करनी चाहिए। जो गुरु ब्राह्मण न हो या साङ्गवेद का ज्ञाता न हो तो मोक्षार्थी ब्रह्मचारी जीवनभर गुरुकुलवास न करें। यदि नैष्ठिक-ब्रह्मचारी जीवन भर गुरुकुलवास चाहें तो देहान्त तक सावधानी से गुरुसेवा में लगा रहे ॥२४१-२४३॥ आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम् । स गच्छत्यज्ञ्जसा विप्रो ब्रह्मणः सद्म शाश्वतम् ॥ ॥२४४॥ न पूर्वं गुरवे किं चिदुपकुर्वीत धर्मवित् । स्नास्यंस्तु गुरुणाऽज्ञप्तः शक्त्या गुर्थमाहरेत् ॥ ॥२४५॥ ि क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं छत्रौपानहमासनम् । धान्यं शाकं च वासांसि गुरवे प्रीतिमावहेत् ॥ ॥२४६॥ जो ब्राह्मण देहान्त तक गुरु की सेवा-सुश्रुसा करता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। धर्मज्ञ ब्रह्मचारी को अध्ययन के पहले दक्षिणा आदि से गुरु का कुछ भी उपकार नहीं करना चाहिए। किन्तु समावर्तन के पश्च्यात, गुरु की आज्ञा से यथा शक्ति गुरुदक्षिणा देनी चाहिए। खेत, सोना, गौ, घोड़ा, छतरी, जूता, आसन, अन्न, शाक और वस्त्र अर्पण करके गुरु को प्रसन्न करे ॥२३३-२४६॥ आचार्ये तु खलु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते । गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुवद् वृत्तिमाचरेत् ॥ ॥२४७॥ एतेष्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान् । प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद् देहमात्मनः ॥ ॥२४८॥ एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यमविप्लुतः । स गच्छत्युत्तमस्थानं न चैह जायते पुनः ॥ ॥२४९॥ गुरु की मृत्यु उपरांतर, विद्वान् गुरुपुत्र, गुरुस्त्री और गुरु के सहोदर भाई आदि हों तो उनको गुरु के समान मानना चाहिये । और यह विद्यमान न हों तो, गुरुस्थान में अग्नि की सेवा करे और उपासना से निज देह को ब्रह्म प्राप्ति के योग्य करे। इस प्रकार जो ब्राह्मण, अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह परमात्मा में लीन होकर, पुनः इस लोक में जन्म नहीं लेता ॥ २४७-२४६॥ ॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥२॥ ॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का दूसरा अध्याय समाप्त ॥

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