Manusmriti Chapter 9 (मनुस्मृति नवां अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ मनुस्मृति ॥ ॥ अथ नवमोऽध्यायः नवां अध्याय ॥ स्त्री-रक्षा पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः । संयोगे विप्रयोगे च धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ ॥१॥ सनातन धर्म में स्थित पुरुष और स्त्रियों के संयोग और 'वियोग समय के धर्मों को मैं आगे कहता हूँ, सुनोः ॥१॥ अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम् । विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे ॥ ॥२॥ पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ ॥३॥ कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः । मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता ॥ ॥४॥ सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः । द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः ॥ ॥५॥ इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम् । यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि ॥ ॥६॥ पुरुष को अपनी स्त्रियों को कभी स्वतन्त्र न होने देना चाहिए। विषयों में आसक्त स्त्रियों को सदैव अपने वश में रखना चाहिए। बालकपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापा में पुत्र को स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, स्त्री स्वतन्त्र होने योग्य नहीं है। समय पर कन्यादान न करने से पिता, ऋतुकाल में सहवास न करने से पति और पिता के बाद माता की रक्षा न करने से पुत्र निन्दा का पात्र होता है। साधारण कुसंगों से भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि अरक्षित स्त्रियां दोनों कुलों को दुःख देती हैं। इस प्रकार यह संपूर्ण वर्णों का धर्म है। दुर्बल पति भी अपनी स्त्रियों की रक्षा का उपाय करना चाहिए ॥ २- ६॥ स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च । स्वं च धर्म प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति ॥ ॥७॥ पतिर्भार्यां सम्प्रविश्य गर्भो भूत्वैह जायते । जायायास्तद् हि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः ॥ ॥८॥ यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम् । तस्मात् प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत् प्रयत्नतः ॥ ॥९॥ न कश्चिद् योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम् । एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम् ॥ ॥१०॥ स्त्रियों की रक्षा करने से पुरुष अपनी संतान को वर्णसङ्कर होने से बचाता है, अपने चरित्र को निर्दोष रखता है, अपने कुल की मर्यादा बढ़ाता है, तथा अपनी और अपने धर्म की रक्षा करता है। पति स्त्री में वीर्यरूप से प्रवेश करके जगत् में पुत्ररूप से जन्म लेता है। अपनी स्त्री में फिर जन्मता है इसी कारण से स्त्री को जाया कहा जाता है। जैसे पुरुष को स्त्री सेवन करती है उसी भांति का पुत्र पैदा करती है। इसलिए प्रजा की पवित्रता के लिए स्त्री की रक्षा यत्नपूर्वक करे। कोई ॐ बलपूर्वक स्त्रियों की रक्षा नहीं कर सकता, किन्तु इन उपायों से उनकी रक्षा कर सकता है। ॥७-१०॥ अर्थस्य सङ्ग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत् । शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च पारिणाह्यस्य वेक्षणे ॥ ॥११॥ अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः । आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः ॥ ॥१२॥ पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम् । स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट् ॥ ॥१३॥ नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः। सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते ॥ ॥१४॥ धन-संग्रह, खर्च, सफाई, पतिसेवा, धर्म, रसोई और घर को सँभालने के कार्य में स्त्री को लगाना चाहिए। विश्वास पात्र मनुष्यों से घर में रखवाली कराने से रक्षित नहीं होती किन्तु जो अपनी रक्षा अपने आप ही करे, वही सुरक्षित हो सकती हैं। मद्यपान, दुर्जनसंग, पति से वियोग, घूमना, सोना, दूसरे के घर रहना यह छः प्रकार के स्त्रियों में दूषण होते हैं। व्यभिचारिणी स्त्रियां रूप और अवस्था को नहीं देखती केवल पुरुष देखकर ही मोहित होजाती हैं; वह कुरूप हो अथवा सुरूप ॥११-१४॥ पौंश्चल्याच्चलचित्ताच्च नैस्नेह्याच्च स्वभावतः । रक्षिता यत्नतोऽपीह भर्तृष्वेता विकुर्वते ॥ ॥१५॥ एवं स्वभावं ज्ञात्वाऽसां प्रजापतिनिसर्गजम् । परमं यत्नमातिष्ठेत् पुरुषो रक्षणं प्रति ॥ ॥१६॥ शय्याऽऽसनमलङ्कारं कामं क्रोधमनार्जवम् । द्रोहभावं कुचर्यां च स्त्रीभ्यो मनुरकल्पयत् ॥ ॥१७॥ नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः । निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्यो अनृतमिति स्थितिः ॥ ॥१८॥ व्यभिचारिणी होने से, चित्त की चञ्चलता से, स्वभाव से रूखापन से स्त्रियाँ रक्षित होनेपर भी अपने पति मे विकार कर बैठती हैं। ब्रह्मा के रचे ऐसे स्त्रियों के स्वभाव जानकर उनकी रक्षा का परं यत्न करना चाहिए। सोना, बैठे रहना, गहने पर प्रेम, काम, क्रोध, उद्वत पना, दूसरों से द्रोह और दुराचार ये स्त्रियों में स्वभाव से ही पैदा हैं - ऐसा मनुजी ने कहा है। स्त्रियों के जात कर्मादि संस्कार मन्त्रों से नहीं होते इसलिए वे धर्मरहित होती है। असत्य के समान हैं-यह धर्म शास्त्र की मर्यादा है ॥१५-१८॥ तथा च श्रुतयो बद्व्यो निगीता निगमेष्वपि । स्वालक्षण्यपरीक्षार्थं तासां शृणुत निष्कृतीः ॥ ॥१९॥ यन् मे माता प्रलुलुभे विचरन्त्यपतिव्रता । तन् मे रेतः पिता वृ‌ङ्क्तामित्यस्यैतन्निदर्शनम् ॥ ॥२०॥ ध्यायत्यनिष्टं यत् किं चित् पाणिग्राहस्य चेतसा । तस्यैष व्यभिचारस्य निह्नवः सम्यगुच्यते ॥ ॥२१॥ यादृग्गुणेन भर्ना स्त्री संयुज्येत यथाविधि । तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणैव निम्नगा ॥ ॥२२॥ व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वभाव की परीक्षार्थ वेदों में बहुत श्रुतियां पठित हैं। उनमें जो व्यभिचार के प्रायश्चित्तभूत हैं उन को सुनो। कोई पुत्र माता का मानस व्यभिचार जानकर कहता है कि जो मेरी माता अपतिव्रता हुई परपुरुष को चाहने वाली थी, उस दुष्टत का मेरा पिता शुद्ध वीर्य से शोधन करे-यह एक नमूना है। स्त्री अपने मन में पति के लिए जो अशुभ चिन्तन करती है (मानसिक व्यभिचार) उसका ॐ प्रायश्चित्तरूप मन्त्र पुत्र को शुद्ध करने वाला है, माता को नहीं। जिस गुणवाले पति के साथ स्त्री विवाह करके रहती है वैसे ही गुणवाली वह हो जाती है, जैसे समुद्र के साथ नदी के मिलने पर नदी खारी हो जाती है ॥१९-२२॥ अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा । शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ॥ ॥२३॥ एताश्चान्याश्च लोकेऽस्मिन्नपकृष्टप्रसूतयः । उत्कर्ष योषितः प्राप्ताः स्वैः स्वैर्भर्तृगुणैः शुभैः ॥ ॥२४॥ एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा । प्रेत्यैह च सुखोदर्कान् प्रजाधर्मान्निबोधत ॥ ॥२५॥ अक्षमाला नाम की अधम जाति की स्त्री वशिष्ठ को विवाहित होने से पूज्य हुई। शारंगी पक्षीजाति की स्त्री मन्दपाल को विवाहित होने से पूज्य हुई। यह और दूसरी भी स्त्रियां इस लोक में अपने पतियों के गुणों के कारण उन्नति को पहुँची है। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों का उत्तम लौकिक आचार कहा गया है। अब लोक, परलोक में सुख देनेवाले सन्तानधर्म को सुनों ॥ २३-२५ ॥ सन्तानधर्म प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः । स्त्रि यः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन ॥ ॥२६॥ उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् । प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम् ॥ ॥२७॥ अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराऽधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह ॥ ॥२८॥ पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता । सा भर्तृलोकानाप्नोति सद्भिः साध्वीइति चोच्यते ॥ ॥२९॥ व्यभिचारात् तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । सृगालयोनिं चाप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ॥ ॥३०॥ यह स्त्रियाँ पुत्र उत्पन्न करने के लिए बड़ी भाग्यवती, सत्कार योग्य और घर की शोभा हैं। स्त्रियों में और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं है, दोनों समान हैं। सन्तान पैदा करना, उनका पालन, अतिथि, मित्र आदि का लौकिक आदर-भोजन का निर्वाह स्त्री से ही हो सकता है, यह प्रत्यक्ष है। सन्तान, धर्मकार्य, अतिथि सेवा, अच्छा काम सुख, आपने और पितरों को स्वर्ग-प्राप्ति स्त्री के अधीन है। जो स्त्री मन, वाणी और शरीर को वश में रखकर पति के अनुकूल रहती है वह पतिलोक पाती है और जगत् में साध्वी कही जाती है। और पति के विरुद्ध करने से लोक में निन्दा पाती है। सियार की योनि में जन्म लेती है और बुरे रोगों से दुःखी होती है ॥२६-३०॥ पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः । विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत ॥ ॥३१॥ भर्तरि पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु कर्तरि । आहुरुत्पादकं के चिदपरे क्षेत्रिणं विदुः ॥ ॥३२॥ क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् । क्षे त्रबीजसमायोगात् संभवः सर्वदेहिनाम् ॥ ॥३३॥ विशिष्टं कुत्र चिद् बीजं स्त्रीयोनिस्त्वेव कुत्र चित् । उभयं तु समं यत्र सा प्रसूतिः प्रशस्यते ॥ ॥३४॥ बीजस्य चैव योन्याश्च बीजमुत्कृष्टमुच्यते । सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ॥ ॥३५॥ यादृशं तूप्यते बीजं क्षेत्रे कालोपपादिते । तादृग् रोहति तत् तस्मिन् बीजं स्वैर्व्यञ्जितं गुणैः ॥ ॥३६॥ इयं भूमिर्हि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते । न च योनिगुणान् कांश्चिद् बीजं पुष्यति पुष्टिषु ॥ ॥३७॥ भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः । नानारूपाणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः ॥ ॥३८॥ प्राचीनकाल के महात्मा-महर्षियों ने जो पुत्र को कहा था, उस विश्वहितकारी, पवित्र विचार को सुनो- क्षेत्र-बीजनिर्णय मुनिगण उत्पन्न पुत्र को भर्ता का मानते हैं। परन्तु भर्ता के विषय में दो प्रकार की श्रुति हैं। पहला मत है-पुत्र जिसके वीर्य से उत्पन्न हुआ हो उसका माना जाता है। दूसरा मत है-जिसकी स्त्री में पैदा हो उसका होता है। स्त्री क्षेत्ररूप और पुरुष बीज रूप कहा है, इस क्षेत्र और बीज के संयोग से सब प्राणियों की उत्पत्ति है। कहीं बीज और कहीं क्षेत्र श्रेष्ठ माना जाता है परन्तु जिसमें दोनों समान हों वह सन्तान श्रेष्ठ है। बीज और क्षेत्र में बीज उत्तम गिना जाता है, क्योंकि सभी प्राणियों की उत्पत्ति में बीज के रूप, रंग देखने में आते हैं। समय पर जैसा बीज खेत में बोया जाता है, उसी भांति का गुण पैदा होकर आता है। यह भूमि प्राणियों की सनातन-योनि कही जाती है। परन्तु बीज स्वयं अपने खेत के गुणों को धारण नहीं कर सकता। किसान एक ही खेत में समयानुसार अलग अलग बीज बोते हैं और वह अपने स्वभाव के अनुसार विभिन्न प्रकार के उत्पन्न होते हैं अर्थात् एक ही भूमि होने से एक जैसे नहीं होते ॥३१-३८॥ व्रीहयः शालयो मुद्गास्तिला माषास्तथा यवाः । यथाबीजं प्ररोहन्ति लशुनानीक्षवस्तथा ॥ ॥३९॥ अन्यदुप्तं जातमन्यदित्येतन्नोपपद्यते । उप्यते यद् हि यद् बीजं तत् तदेव प्ररोहति ॥ ॥४०॥ तत् प्राज्ञेन विनीतेन ज्ञानविज्ञानवेदिना । आयुष्कामेन वप्तव्यं न जातु परयोषिति ॥ ॥४१॥ अत्र गाथा वायुगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः । यथा बीजं न वप्तव्यं पुंसा परपरिग्रहे ॥ ॥४२॥ धान, साठा, मूंग, तिल, उड़द, जों, लसुन और ईख बोने पर अपने बीज के अनुसार ही उगते हैं। बीज दूसरा हो और वृक्ष दूसरा उगे ऐसा नहीं होता। जो बीज बोया जाता है, वही उत्पन्न होता है। इसलिए बुद्धिमान्, विनीत, ज्ञान-विज्ञान-विशारद को परस्त्री में बीज नहीं बोना चाहिए। प्राचीन इतिहास के ज्ञाता ऋषि इस विषय में वायु की गाई गाथाएँ गाते हैं-परस्त्री में पुरुष को बीज नहीं बोना चाहिए ॥ ६९-४२॥ नश्यतीषुर्यथा विद्धः खे विद्धमनुविध्यतः । तथा नश्यति वै क्षिप्रं बीजं परपरिग्रहे ॥ ॥४३॥ पृथोरपीमां पृथिवीं भार्यां पूर्वविदो विदुः। स्थाणुच्छेदस्य केदारमाहुः शाल्यवतो मृगम् ॥ ॥४४॥ एतावानेव पुरुषो यत्जायाऽत्मा प्रजैति ह । विप्राः प्राहुस्तथा चैतद् यो भर्ता सा स्मृताङ्ग‌ना ॥ ॥४५॥ न निष्क्रयविसर्गाभ्यां भर्तुर्भार्या विमुच्यते । एवं धर्मं विजानीमः प्राक् प्रजापतिनिर्मितम् ॥ ॥४६॥ जैसे दूसरे के बेधे हुए मृग को फिर मारने से बाण निष्फल होता है, ऐसे परस्त्री में बोया बीज शीघ्र निष्फल हो जाता है। इस पृथिवी को जो पहले राजा पृथु की भार्या थी, अभी भी लोग पृथु की भार्या ही जानते हैं। जो वृक्ष काटकर साफ़ करता है उसका खेत और जिसका बाण पहले लगे उसका वह मृग कहलाता है। स्त्री आप और सन्तान यह तीनों मिलकर एक पुरुष कहलाता है। वेदज्ञ ब्राह्मण भी कहते हैं कि जो भर्ता है वही भार्या है। बेचने वा छोड़ने से भार्या अपने पति से नहीं छूटती । ऐसी धर्म मर्यादा, प्रजापति की रची हुई है जिसे हम जानते हैं। ॥४३-४६॥ सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते । सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥ ॥४७॥ यथा गोऽश्वोष्ट्रदासीषु महिष्यजाविकासु च । नोत्पादकः प्रजाभागी तथैवान्याङ्गनास्वपि ॥ ॥४८॥ येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः । ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्व चित् ॥ ॥४९॥ यदन्यगोषु वृषभो वत्सानां जनयेत्शतम् । गोमिनामेव ते वत्सा मोघं स्कन्दितमार्षभम् ॥ ॥५०॥ तथैवाक्षेत्रिणो बीजं परक्षेत्रप्रवापिणः । कुर्वन्ति क्षेत्रिणामर्थं न बीजी लभते फलम् ॥ ॥५१॥ भाइयों का बँटवारा एक बार ही होता है। कन्यादान एक बार होता है और दान भी एक ही बार कहने से हो जाता है-सत्पुरुष इन तीन बातों को एकबार ही करते हैं। जैसे गौ, घोड़ी, ऊंटनी, दासी, भैंस, बकरी और भेड़ आदि में सन्तान पैदा करने वाला उस सन्तान का स्वामी नहीं माना जाता, ऐसे ही परस्त्री में सन्तान का भागी नहीं होता। जो क्षेत्र का स्वामी न होकर, केवल बीज बोनेवाले हो, उसका खेत के अन्नादि फल पर कोई अधिकार नहीं होता। एक बैल जो दूसरे की गायों में सैकड़ों बछड़े पैदा करता है, वह गौ वाले के होते हैं और बैल का वीर्य निष्फल जाता है, वैसे ही दुसरे के क्षेत्र में बोनेवाले खेत वाले का काम करते हैं, बीज वाले को फल प्राप्त नहीं होता ॥४७-५१ ॥ फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा । प्रत्यक्षं क्षेत्रिणामर्थो बीजाद योनिर्गलीयसी ॥ ॥५२॥ क्रियाभ्युपगमात् त्वेतद् बीजार्थं यत् प्रदीयते । तस्यैह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च ॥ ॥५३॥ ओघवाताहृतं बीजं यस्य क्षेत्रे प्ररोहति । क्षे त्रिकस्यैव तद् बीजं न वप्ता लभते फलम् ॥ ॥५४॥ खेत और बीज वालों में कोई ठहराव न हो तब तक सन्तान खेतवाले की प्रत्यक्ष मानी जाती है। क्योंकि बीज से खेत ही प्रधान है। क्षेत्र में जो सन्तान होगी, वह हम दोनों की होगी ऐसा ठहराव हुआ हो तो सन्तान क्षेत्र और बीज दोनों की होगी। जो बीज जल के वेग अथवा वायु के वेग से गिरकर दूसरे के खेत में पैदा हो, उसके फल का भागी खेतवाला होता है बोनेवाला नहीं ॥ ५२-५४ ॥ स्त्रियों का आपद्धर्म एष धर्मो गवाश्वस्य दास्युष्ट्राजाविकस्य च । विहङ्गमहिषीणां च विज्ञेयः प्रसवं प्रति ॥ ॥५५॥ एतद् वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम् । अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्ममापदि ॥ ॥५६॥ भ्रातुर्येष्ठस्य भार्या या गुरुपत्यनुजस्य सा । यवीयसस्तु या भार्या स्रुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता ॥ ॥५७॥ ज्ये येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान् वाऽग्रजस्त्रियम् । पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि ॥ ॥५८॥ देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यक्नियुक्तया । प्रजेप्सिताऽऽधिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये ॥ ॥५९॥ विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि । एकमुत्पादयेत् पुत्रं न द्वितीयं कथं चन ॥ ॥६०॥ द्वितीयमेके प्रजनं मन्यन्ते स्त्रीषु तद्विदः । अनिर्वृतं नियोगार्थं पश्यन्तो धर्मतस्तयोः ॥ ॥६१॥ विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि । गुरुवत्व खुषावत्व वर्तेयातां परस्परम् ॥ ॥६२॥ यह व्यवस्था गौ, घोड़ी, दासी, ऊंटनी, वकरी, भेड़, पक्षी और भैस की संतति में जाननी चाहिए। इस प्रकार बीज और योनि की प्रधानता और अप्रधानता का विषय कहा गया अब स्त्रियों का आपद्धर्म कहा जाता है। बड़े भाई की स्त्री छोटे भाई को गुरुपत्नी के समान और छोटे भाई की स्त्री बड़े भाई को पुत्रवधू के समान कही गयी है। आपत्तिकाल न हो अर्थात् पुत्र हो तो बड़ा भाई छोटे भाई की स्त्री के साथ और छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री के साथ नियोग विधि से भी गमन करे तो दोनों पतित होते हैं। सन्तान न हो तो पुत्र की इच्छा से नियोग की हुई स्त्री को देवर अथवा सपिण्डपुरुप से भी अभीष्ट सन्तान प्राप्त करनी चाहिए। विधवा स्त्री के साथ नियोग करनेवाला शरीर में घी लगाकर मौन होकर रात्रि में भोग करे और इस भांति एक ही पुत्र पैदा करे, दूसरा कभी नही करना चाहिए। नियोगविधि के ज्ञाता कोई ऋषि एक पुत्र से नियोग का प्रयोजन सिद्ध न होते देखकर दूसरा पुत्र पैदा करना भी धर्म मानते हैं। शास्त्र की रीति से विधवा स्त्री में नियोग का प्रयोजन हो जाने पर छोटे भाई को बड़े भाई की स्त्री से माता और बड़े भाई को छोटे को स्त्री से पुत्रवधू के समान व्यवहार करना चाहिए ॥५५-६२॥ नियुक्तौ यौ विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः । तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषागगुरुतल्पगौ ॥ ॥६३॥ नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः । अन्यस्मिन् हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम् ॥ ॥६४॥ नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्व चित् । न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः ॥ ॥६५॥ अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः । मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति ॥ ॥६६॥ स महीमखिलां भुञ्जन् राजर्षिप्रवरः पुरा । वर्णानां सङ्करं चक्रे कामोपहतचेतनः ॥ ॥६७॥ ततः प्रभृति यो मोहात् प्रमीतपतिकां स्त्रियम् । नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति साधवः ॥ ॥६८॥ यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः । तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः ॥ ॥६९॥ यदि नियोग करनेवाले दोनों शास्त्रविधि को छोड़कर मन माना व्यवहार करें तो पतित होते हैं तथा पुत्रवधू गुरुपत्नी के साथ गमन करनेवाले माने जाते हैं। द्विजातियों को विधवा स्त्री का नियोग दूसरे वर्णवाले से नहीं कराना चाहिए। अन्य जाति से नियोग की हुई स्त्रियाँ धर्म का नाश कर डालती हैं। विवाहसम्बन्धी मन्त्रों में कहीं नियोग नहीं कहा है और विधवा का पुनर्विवाह भी कहीं नहीं कहा है। यह नियोगविधि राजा वेन के राज्य में प्रचलित हुई थी। परन्तु विद्वान द्विजों ने इस पशुधर्म की निंदा की है। राजर्षि वेन जब सारी पृथ्वी पर राज्य करता था, उस समय कामवासना से नष्ट बुद्धि होकर वर्णसङ्करता फैलाई थी। तब से जो पुरुष विधवा स्त्री का संतान के लिए नियोग करता है उसकी साधु पुरुष निंदा करते हैं। जिस कन्या का पति वाग्दान करने के याद मर जाय तो उसके देवर को इस प्रकार उसे स्वीकार करना चाहिए ॥६३-६९॥ यथाविध्यधिगम्यैनां शुक्लवस्त्रां शुचिव्रताम् । मिथो भजेता प्रसवात् सकृत्सकृद् ऋतावृतौ ॥ ॥७०॥ न दत्त्वा कस्य चित् कन्यां पुनर्दद्याद् विचक्षणः । दत्त्वा पुनः प्रयच्छन् हि प्राप्नोति पुरुषानृतम् ॥ ॥७१॥ विधिवत् प्रतिगृह्यापि त्यजेत् कन्यां विगर्हिताम् । व्याधितां विप्रदुष्टां वा छद्मना चोपपादिताम् ॥ ॥७२॥ यस्तु दोषवतीं कन्यामनाख्यायौपपादयेत् । तस्य तद् वितथं कुर्यात् कन्यादातुर्दुरात्मनः ॥ ॥७३॥ विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत् कार्यवान्नरः । अवृत्तिकर्शिता हि स्त्री प्रदुष्येत् स्थितिमत्यपि ॥ ॥७४॥ विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता । प्रो षिते त्वविधायैव जीवेत्शिल्पैरगर्हितैः ॥ ॥७५॥ प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः । विद्यार्थं षड् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान् ॥ ॥७६॥ संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः। ऊर्ध्वं संवत्सरात् त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत् ॥ ॥७७॥ श्वेत वस्त्र पहन कर मन, वाणी, शरीर से शुद्ध होकर उस कन्या के साथ उसका देवर गमन करे और सन्तान होने तक ऋतुकाल में उक्तरीति से एक एक बार गमन करे। चतुर पुरष एक बार कन्या देकर फिर दूसरे को न दें, क्योंकि एक बार वाग्दान करके दूसरे को देने से चोरी का पाप लगता है। जो कन्या रोगी, दुष्ट और छल से दी गई हो, उसको विधिपूर्वक ग्रहण करके भी त्याग देना चाहिए। जो दोषवाली कन्या का बिना दोष कहे विवाह कर दे उस दुरात्मा पुरुष के दान को त्याग देना चाहिए। कार्यवश विदेश जाने वाला मनुष्य को स्त्री के भरण पोषण का प्रबन्ध करके जाना चाहिए। क्योंकि सदाचारी स्त्री भी अन्न-वस्त्र के लिए दुखी होकर बिगड़ जाती हैं। प्रबन्ध करके पति के विदेश जाने पर स्त्री नियम से रहना चाहिए शृङ्गार आदि नहीं करना चाहिए। और प्रबंध किए बिना चला गया हो तो सीना, कातना आदि उद्यम से निर्वाह करना चाहिए। पति, धर्मकार्य के लिए विदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या, यश के लिए गया हो तो छः वर्ष और सुख के लिए गया हो तो तीन वर्ष प्रतीक्षा करने के पश्च्यात पति के पास चले जाना चाहिए। दुःखदायी स्त्री के पति को एक वर्ष प्रतीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद आभूपणादि छीनकर उस स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिए ॥ ७०-७७ ॥ अतिक्रामेत् प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तमेव वा । सा त्रीन् मासान् परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा ॥ ॥७८॥ उन्मत्तं पतितं क्लीबमबीजं पापरोगिणम् । न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम् ॥ ॥७९॥ मद्यपाऽसाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत् । व्याधिता वाऽधिवेत्तव्या हिंस्राऽर्थघ्नी च सर्वदा ॥ ॥८०॥ वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा । एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी ॥ ॥८१॥ या रोगिणी स्यात् तु हिता सम्पन्ना चैव शीलतः । साऽनुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हि चित् ॥ ॥८२॥ अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद् रुषिता गृहात् । सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसंनिधौ ॥ ॥८३॥ प्रतिषिद्धाऽपि चेद् या तु मद्यमभ्युदयेष्वपि । प्रेक्षासमाजं गच्छेद् वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट् ॥ ॥८४॥ यदि स्वाश्चापराश्चैव विन्देरन् योषितो द्विजाः । तासां वर्णक्रमेण स्याज् ज्येष्ठ्यं पूजा च वेश्म च ॥ ॥८५॥ जो स्त्री अपने जुआरी, मद्यप और रोगातुर पति की सेवा न करे उसके भूषण आदि लेकर तीन महीने तक त्याग करने योग्य हैं। परन्तु जो पागल, पतित, नपुंसक, बीजहीन, पापरोगी भी अपने पति की सेवा करे उसको त्यागना नहीं चाहिए और इन ही उससे कोई धन, आभूषण इत्यादि छीनना चाहिए। जो स्त्री मद्यप, दुराचारिणी, उलटा बर्ताव करनेवाली, रोगिणी, मार पीट करनेवाली, फिजूल खर्च करनेवाली हो उसके जीते ही दूसरा विवाह कर लेना चाहिए। ऋतुकाल से आठ वर्ष तक वंध्या रहे, दस वर्ष तक बालक होकर मरते जायें, कन्या उत्पन्न होते ग्यारह वर्ष होजायँ और स्त्री कटुभाषी हो तो भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए। परन्तु जो रोगी होकर भी पति का हित करे, सुशीला हो तो उसकी सम्मति से दूसरा विवाह करना चाहिए और उसका अपमान कभी भी नहीं करना चाहिए। दूसरी स्त्री के आने पर पहली स्त्री रूठकर घर से निकल जाती हो तो उसको रोकना चाहिए अथवा सब के समक्ष त्याग देना चाहिए। उत्सवों के समय मना करने पर भी जो स्त्री मद्यपान करे, गाने आदि में शामिल हो, उस पर छः कृष्णल दण्ड राजा को करना चाहिए। कोई द्विज अपनी या दूसरी जाति की स्त्री से विवाह करे तो उस की जाति मर्यादा के अनुसार आदर, आभूषण, घर इत्यादि का प्रबन्ध करना चाहिए ॥७८-८५॥ भर्तुः शरीरशुश्रूषां धर्मकार्यं च नैत्यकम् । स्वा चैव कुर्यात् सर्वेषां नास्वजातिः कथं चन ॥ ॥८६॥ यस्तु तत् कारयेन् मोहात् सजात्या स्थितयाऽन्यया । यथा ब्राह्मणचाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः ॥ ॥८७॥ उन स्त्रियों में जो अपनी जाति की हो वे पतिसेवा और धर्मकर्म करें दूसरी जाति की स्त्रियों को यह कर्म कभी नहीं करना चाहिए। पर जो मूर्खता से अपनी जाति की स्त्री रहते दूसरी से कर्म कराता है उसको चाण्डाल समान जाने-यह ऋषियों ने कहा है ॥८६-८७ ॥ कन्या-विवाह उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च । अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद् यथाविधि ॥ ॥८८॥ काममामरणात् तिष्ठेद् गृहे कन्यार्तुमत्यपि । न चैवैनां प्रयच्छेत् तु गुणहीनाय कर्हि चित् ॥ ॥८९॥ त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यर्तुमती सती । ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम् ॥ ॥९०॥ अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम् । नैनः किं चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति ॥ ॥९१॥ अलङ्कारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा । मातृकं भ्रातृदत्तं वा स्तेना स्याद् यदि तं हरेत् ॥ ॥९२॥ पित्रे न दद्यात्शुल्कं तु कन्यां ऋतुमतीं हरन् । स च स्वाम्यादतिक्रामेद् ऋतूनां प्रतिरोधनात् ॥ ॥९३॥ कुलीन, सुंदर और समान जाति का वर मिले तो पिता विवाह योग्य अवस्था न होने पर भी शास्त्ररीति से कन्यादान कर दे। चाहे कन्या को ऋतुमती होने पर भी मरणपर्यन्त पिता के घर बैठी रहे परन्तु गुणहीन वर को कभी दान नहीं करना चाहिए। यदि पिता गुणी वर मिलने पर विवाह न करे सके और कन्या ऋतुमती होती हो तो वह तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करके अपनी इच्छानुसार पति से विवाह कर सकती है। जिस कन्या का विवाह पिता न करता हो वह यदि स्वयं विवाह कर ले तो कन्या पुरुष को कोई दोष नहीं लगता। स्वयं वर को स्वीकार करनेवाली कन्या पिता-माता या भाई के दिए आभूषण नहीं लेना चाहिए, अगर ले तो चोर समान समझी जाती है। ऋतुमयी कन्या का विवाह करनेवाले को उसके पिता को धन नहीं देना चाहिए। क्योंकि ऋतुकाल में सन्तान को रोकने के कारण पिता का स्वामित्व जाता रहता है ॥८८-९३॥ त्रिंशद्वर्षो वहेत् कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् । त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ॥ ॥९४॥ देवदत्तां पतिर्भार्यां विन्दते नेच्छयाऽत्मनः । तां साध्वीं बिभृयान्नित्यं देवानां प्रियमाचरन् ॥ ॥९५॥ प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः संतानार्थं च मानवः । तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्या सहोदितः ॥ ॥९६॥ कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियेत यदि शुल्कदः । देवराय प्रदातव्या यदि कन्याऽनुमन्यते ॥ ॥९७॥ तीस वर्ष का पुरुष बारह वर्ष की सुन्दर कन्या से विवाह करना चाहिए। अथवा चौबीस वर्ष की आयु के पुरुष को आठ वर्ष की कन्या से विवाह करना चाहिए। और यदि अग्निहोत्रादि धर्म का नाश होता हो तो शीघ्र भी विवाह किया जा सकता है। पति देवताओं की दी हुई स्त्री को पाता है अपनी इच्छा से नहीं, इसलिए देवताओं के प्रीत्यर्थ उस सती का पालन पोषण नित्य करना चाहिए। ईश्वर ने गर्भ धारणार्थ स्त्रियों को रचा और सन्तान पैदा करने के लिए पुरुष को रचा है इसलिए स्त्री-पुरुष को साथ में धर्माचरण करना चाहिए यह वेदों में में कहा गया है। आतुरविवाह के लिए कन्या का मूल्य दिया हो और उसका पति मर जाय तो कन्या की इच्छा से देवर का विवाह कर देना चाहिए ॥९४-९७॥ आददीत न शूद्रोऽपि शुल्कं दुहितरं ददन् । शुल्कं हि गृह्णन् कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम् ॥ ॥९८॥ एतत् तु न परे चक्कुर्नापरे जातु साधवः । यदन्यस्य प्रतिज्ञाय पुनरन्यस्य दीयते ॥ ॥९९॥ नानुशुश्रुम जात्वेतत् पूर्वेष्वपि हि जन्मसु । शुल्कसंज्ञेन मूल्येन छन्नं दुहितृविक्रयम् ॥ ॥१००॥ अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः । एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः ॥ ॥१०१॥ कन्यादान में शूद्र को भी धन ग्रहण नहीं करना चाहिए। शुल्क ग्रहण करने वाला छिप कर कन्या बेंचने वाला माना जाता है। यह कर्म पहले सत्पुरुषों ने नहीं किया था और न इस समय भी शिष्ट पुरुष ऐसा करते हैं जोकि एक को कन्यादान करके दूसरे को कन्या दी जाए। पूर्व कल्पों में भी कन्या-विक्रय नहीं सुना गया। स्त्री पुरुष को मरण पर्यन्त आपस में प्रेमपूर्वक रहकर धर्म आदि चतुर्वर्ग फल को प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार स्त्री-पुरुपों का परम धर्म संक्षेप से कहा गया है। ॥९८-१०१॥ तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ । यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम् ॥ ॥१०२॥ एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः । आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायधर्मं निबोधत ॥ ॥ १०३॥ स्त्री-पुरुष को विवाह करके ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें धर्माचरण में अलग होने की अवांछित घटना नहीं हो। यह स्त्री-पुरुषों का धर्म और आपदकाल में सन्तान विधि कही गई है। अब दायभाग की व्यवस्था सुनो ॥१०२-१०३ ॥ दायभाग-व्यवस्था ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम् । भजेरन् पैतृकं रिक्थमनीशास्ते हि जीवतोः ॥ ॥१०४॥ ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषतः । शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा ॥ ॥१०५॥ ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः । पितॄणामनृणश्चैव स तस्मात् सर्वमर्हति ॥ ॥१०६ ॥ यस्मिनृणं संनयति येन चानन्त्यमश्नुते । स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान् विदुः ॥ ॥१०७॥ पितेव पालयेत् पूत्रान् ज्येष्ठो भ्रातृन् यवीयसः । पुत्रवत्वापि वर्तेरन् ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः ॥ ॥१०८॥ ज्येष्ठः कुलं वर्धयति विनाशयति वा पुनः । ज्येष्ठः पूज्यतमो लोके ज्येष्ठः सद्भिरगर्हितः ॥ ॥१०९॥ पिता और माता की मृत्यु के बाद, भाई आपस में पिता की सम्पत्ति बाँट ले पर उनके जीवेत रहते हुए पुत्रों का अधिकार नहीं होता। बड़े भाई को पिता का समस्त धन ग्रहण करना चाहिए और शेष भाई जैसे पिता की आज्ञा में जीविका चलाते थे, वैसे ही भाई के वश में रहकर करना चाहिए करें। बड़े पुत्र का जन्म होने से मनुष्य पुत्रवान होता है और पितृऋण से छूटता है, इसलिए वह समस्त धन लेने योग्य है। जिस के उत्पन्न होने से, पितृऋण दूर होता है और मोक्ष प्राप्त होता है वही धर्म पुत्र है। दूसरों को काम से उत्पन्न जानना चाहिए। बड़े भाई को छोटे भाइयों का पालन पिता के समान करना चाहिए और छोटे भाई को बड़े भाई के साथ पिता के समान धर्मानुसार व्यवहार करना चाहिए। ज्येष्ठ कुल को बढ़ाता है और ज्येष्ठ ही कुल का नाश करता है, ज्येष्ठ गुणवान् जगत् में पूज्य है और कभी सत्पुरुषों में निंदा नहीं पाता है ॥१०४-१०९ ॥ यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान् मातैव स पितैव सः । अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात् स सम्पूज्यस्तु बन्धुवत् ॥ ॥११०॥ एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया । पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद् धर्म्या पृथक्क्रिया ॥ ॥१११॥ ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद् वरम् । ततोऽर्थं मध्यमस्य स्यात् तुरीयं तु यवीयसः ॥ ॥११२॥ ज्येष्ठश्चैव कनिष्ठश्च संहरेतां यथोदितम् । येऽन्ये ज्येष्ठकनिष्ठाभ्यां तेषां स्यान् मध्यमं ाधनम् ॥ ॥११३॥ जो बड़ा भाई पिता के समान पोषण और व्यव्हार करे वह माता- पिता के समान है। और जो वैसा व्यवहार न करे तो बन्धुवत् पूज्य है। भाइयों ने यदि विभाग नहीं किया हो तो साथ रहना चाहिए और यदि विभाग कर लिया हो तो अलग अलग रहना चाहिए। अलग रहने से धर्म-कर्म अधिक होता है, इसलिए अलग रहना धर्मानुकूल है। बड़े भाई को बीसवां भाग अधिक भाग हैं और सभी पदार्थों में जो उत्तम हो वह भी देना चाहिए। मध्यम भाई को इसका आधा चालीसवां भाग और छोटे को अस्सीवाँ भाग देना चाहिए और जो बच जाए वह सभी भाइयों मे बराबर बाँट लेना चाहिए। बड़ा और सबसे छोटा भाई इस प्रकार अपना भाग ले और दूसरे भाइयों का मध्यम भाग होना चाहिए ॥ ११०-११३ ॥ सर्वेषां धनजातानामाददीताग्यमग्रजः । यच्च सातिशयं किं चिद् दशतश्चाप्नुयाद् वरम् ॥ ॥११४॥ उद्धारो न दशस्वस्ति सम्पन्नानां स्वकर्मसु । यत् किं चिदेव देयं तु ज्यायसे मानवर्धनम् ॥ ॥११५॥ एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान् प्रकल्पयेत् । उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषामियं स्यादंशकल्पना ॥ ॥११६॥ एकाधिकं हरेज् ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्धं ततोऽनुजः । अंशमंशं यवीयांस इति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ॥११७॥ बड़ाभाई गुणवान हो और दूसरे गुणहीन हो तो समस्त सम्पत्ति में जो श्रेष्ठ वस्तु हैं वह बड़े भाई को मिलनी चाहिए और गौ इत्यादि वगैरह दस पशुओं में जो श्रेष्ठ हो वह भी बड़े भाई को ही मिलनी चाहिए। यदि सभी भाई गुणी हो तो बड़े भाई को दसों से श्रेष्ठ वस्तु न देकर, उसके सन्मानार्थ कुछ वस्तु अधिक दे देनी चाहिए। इस प्रकार बीसवां भाग निकालकर बाकी का बराबर भाग करना चाहिए। और बीसवां अलग न किया हो तो इस प्रकार बंटवारा करना चाहिए- बड़े भाई का एक भाग अधिक अर्थात दो भाग उससे छोटा डेढ़ भाग और उससे छोटे भाई सबको एक एक भाग ग्रहण करना चाहिए- यह धर्म व्यवस्था है ॥११४-११७॥ स्वेभ्योंशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भातरः पृथक् । स्वात् स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः ॥ ॥११८॥ अजाविकं सेकशफं न जातु विषमं भजेत् । अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते ॥ ॥ ११९ ॥ यवीयान्ज्येष्ठभार्यायां पुत्रमुत्पादयेद् यदि । समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ॥१२०॥ उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते । पिता प्रधानं प्रजने तस्माद् धर्मेण तं भजेत् ॥ ॥१२१॥ पुत्रः कनिष्ठो ज्येष्ठायां कनिष्ठायां च पूर्वजः । कथं तत्र विभागः स्यादिति चेत् संशयो भवेत् ॥ ॥१२२॥ एकं वृषभमुद्धारं संहरेत स पूर्वजः । ततोऽपरे ज्येष्ठवृषास्तदूनानां स्वमातृतः ॥ ॥१२३॥ ज्येष्ठस्तु जातो ज्येष्ठायां हरेद् वृषभषोडशाः । ततः स्वमातृतः शेषा भजेरन्निति धारणा ॥ ॥ १२४॥ सदृशस्त्रीषु जातानां पुत्राणामविशेषतः । न मातृतो ज्यैष्ठ्यमस्ति जन्मतो ज्यैष्ठ्यमुच्यते ॥ ॥१२५॥ प्रत्येक भाई को अपने भाग में से चौथा भाग अपनी कुमारी बहन को देना चाहिए। जो नहीं देते वह पतित होते हैं। बकरी, भेंड़, घोड़ा आदि एक खुरवाले पशुओं का समान भाग करना चाहिए और कम हो तो न नहीं बांटने चाहियें, क्योंकि वह सभी बड़े भाई के ही होते हैं। छोटा भाई बड़े की स्त्री में नियोग विधि से पुत्र पैदा करे तो उस पुत्र और चाचा का समान भाग करे-यह धर्म है। क्षेत्रज पुत्र गौण होता है, इसलिए वह पिता का समस्त भाग धर्मानुसार नहीं ले सकता। पुत्र पैदा करने में पिता मुख्य है, इस कारण क्षेत्रज पुत्र का भाग पूर्वरीति से करना चाहिए। प्रथम स्त्री में पुत्र पीछे और द्वितीय स्त्री में प्रथम हो तो, उनका भाग कैसे होना चाहिए ? प्रथम स्त्री का पुत्र एक बैल अधिक ले और उसी माता से पैदा हुए छोटे भाईयों को मामूली बैल लें चाहिए। यदि ज्येष्ठ पुत्र, दूसरी स्त्री का हो तो एक बैल और पन्द्रह गौ लेनी चाहिए और दूसरे भाइयों को अपनी माता के अधिकारनुसार बाँट लेना चाहिए परन्तु एक जाति की स्त्रियों में पुत्र पैदा हो तो उनको समान मानना चाहिए, माता के बड़ी होने से पुत्र बड़े नहीं होते, किन्तु जन्म से बड़ाई होती है ॥११८-१२५॥ जन्मज्येष्ठेन चाह्वानं सुब्रह्मण्यास्वपि स्मृतम् । यमयोश्चैव गर्भेषु जन्मतो ज्येष्ठता स्मृता ॥ ॥१२६॥ अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम् । यदपत्यं भवेदस्यां तन् मम स्यात् स्वधाकरम् ॥ ॥१२७॥ अनेन तु विधानेन पुरा चक्रेऽथ पुत्रिकाः । विवृद्धयर्थं स्ववंशस्य स्वयं दक्षः प्रजापतिः ॥ ॥ १२८॥ ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश । सोमाय राज्ञे सत्कृत्य प्रीतात्मा सप्तविंशतिम् ॥ ॥१२९॥ जिसका जन्म पहले हुआ हो उस पुत्र का नाम लेकर, 'अमुक का पिता यजन करता है' ऐसा ज्योतिष्टोम में 'सुब्रह्मण्य मन्त्र' बोलकर इन्द्र का आवाहन होता है। और दो साथ ही पैदा हुए हो, तो भी पहला ज्येष्ठ कहलाता है। जिसके पुत्र न हो वह कन्या दान के समय जामाता से नियम करे की इस कन्या ले जो पुत्र होगा वह मेरा श्राद्ध आदि कर्म करेगा। पहले दक्षप्रजापति ने अपने वंश की वृद्धि के लिए इसी विधि से कन्या को पुत्रिकाएं की थी। दक्ष ने प्रसन्न होकर धर्म को दस, कश्यप को तेरह और राजा सोम को सत्ताईस पुत्री दान में दी थीं ॥१२६-१२६॥ यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा । तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ ॥१३०॥ मातुस्तु यौतकं यत् स्यात् कुमारीभाग एव सः । दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम् ॥ ॥१३१॥ दौहित्रो ह्यखिलं रिक्थमपुत्रस्य पितुहरेत् । स एव दद्याद् द्वौ पिण्डौ पित्रे मातामहाय च ॥ ॥१३२॥ पौत्रदौहित्रयोर्लोक न विशेषोऽस्ति धर्मतः । तयोर्हि मातापितरौ संभूतौ तस्य देहतः ॥ ॥१३३॥ जैसी आत्मा है वैसा ही पुत्र है और पुत्र और पुत्री समान हैं। इसलिए पिता की आत्मारूप-पुत्री वैठी हो तो दूसरा धन कैसे ले जाय ? जो धन माता को दहेज में मिला हो वह कन्या' का ही भाग है। और पुत्रहीन का सब धन दौहित्र का ही है। जिसको पुत्रिका किया हो उसके पुत्र को अपुत्र-पिता का धन लेना चाहिए और उसी को पिता और नाना को पिण्डदान करना चाहिए। लोक में धर्मानुसार पौत्र और दौहित्र में कुछ भेद नहीं है। क्योंकि दोनों के माता-पिता एक ही देह से उत्पन्न हुए हैं ॥ १३०-१३३॥ पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते । समस्तत्र विभागः स्यात्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः ॥ ॥१३४॥ अपुत्रायां मृतायां तु पुत्रिकायां कथं चन । धनं तत् पुत्रिकाभर्ता हरेतैवाविचारयन् ॥ ॥१३५॥ अकृता वा कृता वाऽपि यं विन्देत् सदृशात् सुतम् । पौत्री मातामहस्तेन दद्यात् पिण्डं हरेद् धनम् ॥ ॥१३६॥ पुत्रेण लोकान्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते । अथ पुत्रस्य पौत्रेण ब्रध्नस्याप्नोति विष्टपम् ॥ ॥१३७॥ पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् त्रायते पितरं सुतः । तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ ॥१३८॥ यदि पुत्रिका करने के बाद अपने पुत्र हो जाय तो पुत्र और दौहित्र का समान भाग करना चाहिए। उसमें कन्या की श्रेष्ठता नहीं मानी जाती। पुत्रिका होने वाली, कन्या मर जाय तो उसके पति को उसका समस्त धन लेना चाहिए। पुत्रिका विधान किया हो अथवा न किया हो, समान जाति वाले जामाता से जिस पुत्र को प्राप्त करें उसी से नाना पौत्रवान होता है, उसी को पिण्डदान करना चाहिए और धन लेना चाहिए। पुरुष पुत्र से स्वर्गलोक को जीतता है, पौत्र से धनन्त-सुख पाता है और पुत्र के पौत्र से सूर्यलोक को पाता है। पुत्र 'पुन्नाम' नामक नरक से पिता को बचाता है इसलिए ब्रह्मा ने स्वयं 'पुत्र' संज्ञा की है॥१३४- १३ ॥ पौत्रदौहित्रयोलकि विशेषो नोपपद्यते । दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत् ॥ ॥१३९॥ मातुः प्रथमतः पिण्डं निर्वपेत् पुत्रिकासुतः । द्वितीयं तु पितुस्तस्यास्तृतीयं तत्पितुः पितुः ॥ ॥१४०॥ उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दल्लिमः । स हरेतैव तद्रिक्थं सम्प्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः ॥ ॥१४१॥ लोक में पौत्र और दौहित्र में कुछ अन्तर नहीं है। दौहित्र भी नाना को पौत्र की भांति स्वर्ग पहुँचाता है। पुत्रिका-पुत्र को पहला पिण्ड माता को देना चाहिए, दूसरा-माता के पिता को देना चाहिए, तीसरा- नाना के पिता को देना चाहिए। जिसका दत्तक (गोद लिया) पुत्र, सर्वगुण संपन्न हो, वह दूसरे गोत्र से आकर भी उसकी सम्पत्ति का अधिकारी होता है ॥१३६-१४१॥ गोत्ररिक्थे जनयितुर्न हरेद् दत्त्रिमः क्व चित् । गोत्ररिक्थानुगः पिण्डो व्यपैति ददतः स्वधा ॥ ॥१४२॥ अनियुक्तासुतश्चैव पुत्रिण्याऽप्तश्च देवरात् । उभौ तौ नार्हतो भागं जारजातककामजौ ॥ ॥१४३॥ नियुक्तायामपि पुमान्नार्यां जातोऽविधानतः । नैवार्हः पैतृकं रिक्थं पतितोत्पादितो हि सः ॥ ॥१४४॥ हरेत् तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः । क्षेत्रिकस्य तु तद् बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः ॥ ॥१४५॥ धनं यो बिभृयाद् भ्रातुर्मतस्य स्त्रियमेव च । सो ऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात् तस्यैव तद्धनम् ॥ ॥१४६॥ दत्तक पुत्र अपने उत्पादक पिता के गोत्र और धन को नहीं पा सकता। जिसका गोत्र और धन पाता है, उसी को पिण्डदान दे सकता है। बिना नियोगविधि से पैदा पुत्र और पुत्रवाली के देवर से उत्पन पुत्र ये दोनों भी पिता के धन के अधिकारी नहीं होते क्योकि यह जारज और कामज हैं। नियुक्त स्त्री में भी विधान के बिना पैदा हुआ पुत्र, पिता का धन नहीं पा सकता क्योंकि वह पतित से पैदा हुआ है परन्तु विधि से नियुक्त स्त्री मे उत्पन्न पुत्र औरस पुत्र के समान है। यह क्षेत्रवाले का बीज है-धर्म से उत्पन्न हुआ है। जो पुरुष मृत भाई की स्त्री और उस के धन का ग्रहण करे, उसको नियोग विधि से पुत्र उत्पन्न करके उसको भाई का समस्त धन उस पुत्र को दे देना चाहिए ॥ १४२-१४६॥ या नियुक्ताऽन्यतः पुत्रं देवराद् वाऽप्यवाप्नुयात् । तं कामजमरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते ॥ ॥१४७ ॥ एतद् विधानं विज्ञेयं विभागस्यैकयोनिषु । बह्वीषु चैकजातानां नानास्त्रीषु निबोधत ॥ ॥१४८॥ ब्राह्मणस्यानुपूर्येण चतस्रस्तु यदि स्त्रियः । तासां पुत्रेषु जातेषु विभागेऽयं विधिः स्मृतः ॥ ॥१४९॥ जो नियुक्त-स्त्री दूसरे पुरुष से पुत्र पैदा करे यह पुत्र कामज कहलाता है और पिता की सम्पत्ति के अयोग्य है। एक जाति की स्त्रियों में पैदा हुए पुत्रों के विभाग की यह रीति है। अब एक पुरुष से अनेक जाति की स्त्रियों में उत्पन्न पुत्रों का विभाग सुनो। ब्राह्मण के यदि क्रम से चारों वर्ण की स्त्रियाँ हों तो उनमें पुत्र पैदा होने पर इस प्रकार विभाग करे ॥ १४७-१४६ ॥ कीनाशो गोवृषो यानमलङ्कारश्च वेश्म च । विप्रस्यौद्धारिकं देयमेकांशश्च प्रधानतः ॥ ॥१५०॥ त्र्यंशं दायाद् हरेद् विप्रो द्वावंशौ क्षत्रियासुतः । वैश्याजः सार्धमेवांशमंशं शूद्रासुतो हरेत् ॥ ॥१५१॥ सर्वं वा रिक्थजातं तद् दशधा परिकल्प्य च । ध र्म्य विभागं कुर्वीत विधिनाऽनेन धर्मवित् ॥ ॥१५२॥ चतुरानंशान् हरेद् विप्रस्त्रीनंशान् क्षत्रियासुतः । वैश्यापुत्रो हरेद् व्यंशमंशं शूद्रासुतो हरेत् ॥ ॥१५३॥ यद्यपि स्यात् तु सत्पुत्रोऽप्यसत्पुत्रोऽपि वा भवेत् । नाधिकं दशमाद् दद्यात्शूद्रापुत्राय धर्मतः ॥ ॥१५४॥ ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रापुत्रो न रिक्थभाक् । यदेवास्य पिता दद्यात् तदेवास्य धनं भवेत् ॥ ॥१५५॥ 'खेती का बैल, सांड़, सवारी का घोड़ा, गहना, रहने का स्थान और जो कीमती चीज़ हो उनको ब्राह्मणो के पुत्र को देना चाहिए। ब्राह्मणी के पुत्र को धन में तिहाई हिस्सा मिलना चाहिए, क्षत्रिया के पुत्र को दो भाग, वैश्या के पुत्र को डेढ़ भाग और शूद्रा के पुत्र को एक भाग मिलना चाहिए। अथवा समस्त सम्पत्ति का दस भाग करके धर्मज्ञ पुरुष धर्मानुसार इस प्रकार भाग करे-ब्राह्मणीपुत्र को चार भाग, क्षत्रियापुत्र को तीन भाग, वैश्यापुत्र को दो भाग और शूद्रापुत्र को एक भाग। यद्यपि सत्पुत्र हो अथवा असत्पुत्र हो पर धर्म से शूद्रापुत्र को दशभाग से अधिक नहीं देना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के शुद्रा से पुत्र हो तो वह धन का भागी नहीं होता। जो कुछ पिता उसको प्रेमपूर्वक दे वही उसका धन होता है ॥१५०-२५५ ॥ समवर्णासु वा जाताः सर्वे पुत्रा द्विजन्मनाम् । उद्धारं ज्यायसे दत्त्वा भजेरन्नितरे समम् ॥ ॥१५६॥ शूद्रस्य तु सवर्णैव नान्या भार्या विधीयते । तस्यां जाताः समांशाः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत् ॥ ॥१५७॥ समान वर्ण की स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न हों, उनमें बड़े भाई को कुछ अधिक देकर, बाकी सम्पत्ति को समान रूप से बाँट लेना चाहिए। शुद्र की समान जाति ही की भार्या होती है, दूसरे वर्ण की विधि नहीं है। उसमें यदि सौ पुत्र भी हो तो भी वह समान-भाग के ही अधिकारी होंगे ॥ १५६-१५७॥ पुत्रान् द्वादश यानाह नृणां स्वायंभुवो मनुः । तेषां षड् बन्धुदायादाः षडदायादबान्धवाः ॥ ॥१५८॥ औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च । गू ढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट् ॥ ॥१५९॥ कानीनश्च सहोढश्च क्रीतः पौनर्भवस्तथा । स्व यंदत्तश्च शौद्रश्च षडदायादबान्धवाः ॥ ॥१६०॥ यादृशं फलमाप्नोति कुप्लवैः संतरज्ञ्जलम् । तादृशं फलमाप्नोति कुपुत्रैः संतरंस्तमः ॥ ॥१६१॥ यद्येकरिक्थिनौ स्यातामौरसक्षेत्रजौ सुतौ । यस्य यत् पैतृकं रिक्थं स तद् गृह्णीत नैतरः ॥ ॥ १६२॥ एक एवौरसः पुत्रः पित्र्यस्य वसुनः प्रभुः । शेषाणामानृशंस्यार्थं प्रदद्यात् तु प्रजीवनम् ॥ ॥ १६३॥ षष्ठं तु क्षेत्रजस्यांशं प्रदद्यात् पैतृकाद् धनात् । औरसो विभजन् दायं पित्र्यं पञ्चममेव वा ॥ ॥१६४॥ औरसक्षेत्रजौ पुत्रौ पितृरिक्थस्य भागिनौ । दशापरे तु क्रमशो गोत्ररिक्थांशभागिनः ॥ ॥ १६५॥ स्वायम्भुव मनुने मनुष्यों के जो बारह पुत्र कहे हैं, उनमें छः बान्धव और दायाद कहलाते हैं और छः अदायाद-अबान्धव हैं। औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम, गूढोत्पन्न और अपविद्ध ये छः दायाद् (सम्पत्ति के भागी) बांधव हैं। कानीन, सहोढज, क्रीतक, पौनर्भव, स्वयंदत्त और शौद्र ये छः अदायाद-अबान्धव हैं। टूटी फूटी नाव से जल तैरता हुआ जैसा फल पाता है, वैसा ही फल कुपुत्रों से नरकपार होने में पिता आदि को भी प्राप्त होता है। यदि अपुत्र के क्षेत्र में नियोगविधि से एक पुत्र हो, और किसी प्रकार दूसरा औरस पुत्र भी हो जाय तो दोनों क्षेत्रज-औरस अपने अपने पिता की सम्पत्ति के भागी है। एक औरस पुत्र ही पिता के धन का भागी होता है, शेष सभी को दयावश, अन्न-वस्त्र इत्यादि दे देना चाहिए। औरस पुत्र पिता की सम्पत्ति का विभाग करे तो क्षेत्रज को छठां या पांचवां भाग देना चाहिए। औरस और क्षेत्रज उक्त रीति से पितृधन के अधिकारी हैं। बाकी दस पुत्र, क्रम से गोत्रधन के भागी हैं। १५८-१६५॥ पुत्रों की संज्ञा स्वक्षेत्रे संस्कृतायां तु स्वयमुत्पादयेद् हि यम् । तमौरसं विजानीयात् पुत्रं प्राथमकल्पिकम् ॥ ॥१६६॥ यस्तल्पजः प्रमीतस्य क्लीबस्य व्याधितस्य वा । स्वधर्मेण नियुक्तायां स पुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः ॥ ॥ १६७॥ माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि । सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्त्रिमः सुतः ॥ ॥१६८॥ सदृशं तु प्रकुर्याद् यं गुणदोषविचक्षणम् । पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं स विज्ञेयश्च कृत्रिमः ॥ ॥१६९॥ उत्पद्यते गृहे यस्तु न च ज्ञायेत कस्य सः । स गृहे गूढ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः ॥ ॥१७०॥ मातापितृभ्यामुत्सृष्टं तयोरन्यतरेण वा । यं पुत्रं परिगृह्णीयादपविद्धः स उच्यते ॥ ॥१७१॥ पितृवेश्मनि कन्या तु यं पुत्रं जनयेद् रहः । तं कानीनं वदेन्नाम्ना वोढुः कन्यासमुद्भवम् ॥ ॥१७२॥ या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताऽज्ञाताऽपि वा सती । वोढुः स गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते ॥ ॥१७३॥ विवाह-संस्कार से सवर्णा स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसको औरस कहते हैं-वह मुख्य है। मृत, नपुंसक और रोगी की स्त्री में नियोग से जो पुत्र होता है वह 'क्षेत्रज' है। माता पिता प्रसन्नता से जल लेकर आपत्ति में जिसको देदें वह दत्रिम (दत्तक) पुत्र कहलाता है। जो सजातीय, गुण-दोषज्ञ और पुत्र गुणों से युक्त हो, वह पुत्र कर लिया जाय तो 'कृत्रिम' कहलाता है। जिसके घर पुत्र पैदा हो, पर यह न मालूम हो किसका है ? वह घर में गुप्तरीति से पैदा 'गूढोत्पन्न' जिसकी स्त्री में हो, उसका है। माता-पिता अथवा एक ही ने जिसको त्याग दिया हो उसका जो पालन करे वह उसका 'अपविद्ध' पुत्र कहलाता है। अपने पिता के घर, सजातीय पुरुप से, एकान्त में कन्या जो पुत्र पैदा करे उसको 'कानीन' कहते हैं। यह उस कन्या से विवाह करनेवाले का होता है। जो ज्ञात अथवा, अज्ञात गर्भिणी के साथ विवाह किया जाय वह उसी पति का गर्भ है और उसको 'सहोढ' कहते हैं ॥ १६६-१७३ ॥ क्रीणीयाद् यस्त्वपत्यार्थं मातापित्रोर्यमन्तिकात् । स क्रीतकः सुतस्तस्य सदृशोऽसदृशोऽपि वा ॥ ॥१७४॥ या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वयेच्छया । उत्पादयेत् पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते ॥ ॥१७५॥ सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागताऽपि वा । पौनर्भवेन भर्ना सा पुनः संस्कारमर्हति ॥ ॥१७६॥ मातापितृविहीनो यस्त्यक्तो वा स्यादकारणात् । आत्मानमर्पयेद् यस्मै स्वयंदत्तस्तु स स्मृतः ॥ ॥१७७॥ यं ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादयेत् सुतम् । स पारयन्नेव शवस्तस्मात् पारशवः स्मृतः ॥ ॥१७८॥ दास्यां वा दासदास्यां वा यः शूद्रस्य सुतो भवेत् । सोऽनुज्ञातो हरेदंशमिति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ॥१७९॥ जो अपनी उत्तर क्रिया के लिए माता-पिता से जिस पुत्र को खरीदता है, चाहे वह खरीददार के समान हो अथवा न हो, वह उसका 'क्रीतक पुत्र' होता है। पति की त्यागी या विधवा स्त्री दूसरे की स्त्री होकर पुत्र जने उसको 'पौनर्भव' कहते हैं। वह पति की त्यागी अथया विधवा स्त्री अक्षतयोनि हो तो, प्रायश्चित्त करके दूसरे पुनर्भू पति के पास रह सकती है। जो माता-पिता से हीन हो, बिना कारण ही जिस पुत्र को माता-पिता ने त्याग दिया हो, वह, अपने को जिसे दे दे वह "स्वयंदत्त" पुत्र कहाता हैं। ब्राह्मण कामना से शूद्रा में जिस पुत्र को पैदा करे, वह जीता ही मुर्दा के सामन है इसलिये उसे 'पारशव' कहते हैं। शुद्र का दासी में या दास की स्त्री में जो पुत्र हो, वह पिता की आज्ञा से अपना भाग ले - यह धर्ममर्यादा है ॥१७४-१७९॥ क्षेत्रजादीन् सुतानेतानेकादश यथोदितान् । पुत्रप्रतिनिधीनाहुः क्रियालोपान् मनीषिणः ॥ ॥१८०॥ य एतेऽभिहिताः पुत्राः प्रसङ्गादन्यबीजजाः । यस्य ते बीजतो जातास्तस्य ते नैतरस्य तु ॥ ॥१८१॥ यह क्षेत्रज आदि जो ग्यारह पुत्र कहे हैं, उनको पितर क्रिया का लोप न हो इस कारण पुत्र-प्रतिनिधि आचार्यों ने कहा है। ये औरस पुत्र के प्रसङ्ग से जो दूसरे के वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र कहे गए है, वह जिन के वीर्य से पैदा हुए है उन्ही के हैं- दूसरों के नहीं हैं ॥१८०-१८१॥ भ्रातृणामेकजातानामेकश्चेत् पुत्रवान् भवेत् । सर्वांस्तांस्तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ॥ ॥१८२॥ सर्वासामेकपत्नीनामेका चेत् पुत्रिणी भवेत् । सर्वास्तास्तेन पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनुः ॥ ॥१८३॥ श्रेयसः श्रेयसोऽलाभे पापीयान् रिक्थमर्हति । बहवश्चेत् तु सदृशाः सर्वे रिक्थस्य भागिनः ॥ ॥१८४॥ न भ्रातरो न पितरः पुत्रा रिक्थहराः पितुः । पिता हरेदपुत्रस्य रिक्थं भ्रातर एव च ॥ ॥१८५॥ सहोदर भाइयों में यदि एक भी पुत्रवान् हो तो उस पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हैं-ऐसा मनुजी कहते हैं। एक पुरुष की कई स्त्रियों में जो एक भी पुत्रवाली हो तो उससे सभी पुत्रवाली कहलाती हैं। औरस आदि पहले पहले पुत्र न हो तो अगले अगले पुत्र, पिता के धन के अधिकारी होते हैं और यदि बहुत से पुत्र समान ही हों तो, सभी धन के अधिकारी हैं। पिता के धन को लेने वाले पुत्र ही हैं, न सहोदर भाई है न पिता इत्यादि ही हैं। परन्तु पुत्र हीन का धन उसका पिता अथवा भाई ले सकता है । ॥१८२-१८५ ॥ त्रयाणामुदकं कार्यं त्रिषु पिण्डः प्रवर्तते । चतुर्थः सम्प्रदातैषां पञ्चमो नोपपद्यते ॥ ॥१८६॥ अनन्तरः सपिण्डाद् यस्तस्य तस्य धनं भवेत् । अत ऊर्ध्वं सकुल्यः स्यादाचार्यः शिष्य एव वा ॥ ॥१८७॥ सर्वेषामप्यभावे तु ब्राह्मणा रिक्थभागिनः । त्रैविद्याः शुचयो दान्तास्तथा धर्मो न हीयते ॥ ॥१८८॥ अहार्यं ब्राह्मणद्रव्यं राज्ञा नित्यमिति स्थितिः । इतरेषां तु वर्णानां सर्वाभावे हरेन्नृपः ॥ ॥१८९॥ बाप, दादा और परदादा इन तीन को जल और पिण्डदान होता। पिण्ड देनेवाला चौथा होता है-पाँचवें का सम्बन्ध नहीं है। जो सपिण्डों में अधिक समीप हो, उसका धन होता है। वह न हो तो कुलपुरुष, वह भी न हो तो आचार्य, वह भी न हो तो शिष्य अधिकारी होता है। यह सब भी न हो तो धन ब्राह्मण पाते हैं, परन्तु वह ब्राह्मण तीनों वेदों के ज्ञाता, भीतर-बाहर से पवित्र जितेन्द्रिय होने चाहिए, जिससे श्राद्धादि कर्मों में हानि नहीं पहुँचे। कोई लेने वाला न भी हो, तब भी ब्राह्मण का धन राजा को नहीं लेना चाहिए धर्ममर्यादा है। परन्तु दूसरे वर्णों का धन, कोई लेनेवाला न हो तो राजा ले सकता है ॥१८६-१८९॥ संस्थितस्यानपत्यस्य सगोत्रात् पुत्रमाहरेत् ॥ तत्र यद् रिक्थजातं स्यात् तत् तस्मिन् प्रतिपादयेत् । ॥१९०॥ द्वौ तु यौ विवदेयातां द्वाभ्यां जातौ स्त्रिया धने । तयोर्यद् यस्य पित्र्यं स्यात् तत् स गृह्णीत नैतरः ॥ ॥१९१॥ जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः । भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः ॥ ॥ १९२॥ यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासामपि यथार्हतः । मातामह्या धनात् किं चित् प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम् ॥ ॥१९३॥ कोई पुत्रहीन मर जाय तो उसके सगोत्र में सें पुत्र ले कर उस पुरुष के धन हो, उसे सौंप देना चाहिए। एक स्त्री में दो पुरुषों से पैदा 'दो पुत्र, औरस-पौनर्भव यदि धन के लिए विवाद करें तो, जिसके पिता का जो धन हो उसको वही लेना चाहिए, दूसरा को वह धन नहीं मिलना चाहिए । माता के मरने पर सभी सहोदर भाई और कुमारी बहनों को माता के धन को एक समान बाँट लेना चाहिए र उन लड़कियों की जो अविवाहित हों उनको नानी के धन में से कुछ प्रसन्नता पूर्वक दे देना चाहिए ॥१९०-१९३॥ स्त्रीधन आदि अध्यग्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि । भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड् विधं स्त्रीधनं स्मृतम् ॥ ॥१९४॥ अन्वाधेयं च यद् दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत् । पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद् धनं भवेत् ॥ ॥१९५॥ ब्राह्मदेवार्षगान्धर्वप्राजापत्येषु यद् वसु । अप्रजायामतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते ॥ ॥१९६॥ यत् त्वस्याः स्याद् धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु । अप्रजायामतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते ॥ ॥१९७॥ विवाह काल में अग्नि के समीप पिता आदि का दिया, ससुराल में पाया हुआ आभूषण इत्यादि, पति का दिया, पिता का दिया, भाई का दिया और माता से पाया ये छः प्रकार के स्त्रीधन कहे हैं। विवाह में पति की तरफ से मिला धन और खुशी से पति का दिया धन, पति के जीते स्त्री मर जाय तो वह धन उसके पुत्र का होता है। ब्राह्म, देव, आर्ष, गान्धर्व और प्राजापत्यनामक विवाहों में स्त्रियों को जो धन मिलता है वह स्त्री सन्तानहीन मर जाय तो उसके पति का होता है। और आसुरादि विवाहों में जो स्त्री को धन मिले वह स्त्री सन्तानहीन मर जाय तो उसके माता-पिता का होता है ॥ १९४-१९७॥ स्त्रियां तु यद् भवेद् वित्तं पित्रा दत्तं कथं चन । ब्राह्मणी तद् हरेत् कन्या तदपत्यस्य वा भवेत् ॥ ॥१९८॥ न निर्हारं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद् बहुमध्यगात् । स्वकादपि च वित्ताद् हि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया ॥ ॥१९९॥ पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलङ्कारो धृतो भवेत् । न तं भजेरन् दायादा भजमानाः पतन्ति ते ॥ ॥२००॥ अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा । उन्मत्तजडमूकाश्च ये च के चिन्निरिन्द्रियाः ॥ ॥२०१॥ सर्वेषामपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा । ग्रासाच्छादनमत्यन्तं पतितो ह्यददद् भवेत् ॥ ॥२०२॥ स्त्री के पास किसी भी प्रकार का धन जो पिता का दिया हो, वह उसकी ब्राह्मणी कन्या को ग्रहण करना चाहिए अथवा उसकी सन्तान को ग्रहण करना चाहिए। बहुत कुटुम्बवाले परिवार में स्त्री धन संचय नहीं करना चाहिए और पति की आज्ञा बिना अपने धन में से भी आभूषण इत्यादि भी नहीं बनवाने चाहिए। पति के जीते स्त्रियों का जो गहना हो, उसको हिस्सेदार न बांटे-ऐसा करने वाले पतित हो जाते हैं। नपुंसक, पतित, जन्मान्ध, बधिर, उन्मत्त, जड़, मूक, और जो जन्म से निरिन्द्रिय हो, यह सभी पिता, के धन में भाग नहीं होते। इन सबको जीवनभर यथाशक्ति भोजन वस्त्र इत्यादि जीवन निर्वाह खर्च देना चाहिए, न देने से पतित होता है ॥ १९८-२०२॥ यद्यर्थिता तु दारैः स्यात् क्लीबादीनां कथं चन । तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमर्हति ॥ ॥२०३॥ यत् किं चित् पितरि प्रेते धनं ज्येष्ठोऽधिगच्छति । भागो यवीयसां तत्र यदि विद्यानुपालिनः ॥ ॥२०४॥ अविद्यानां तु सर्वेषामीहातश्चद् धनं भवेत् । समस्तत्र विभागः स्यादपित्र्य इति धारणा ॥ ॥२०५॥ यदि नपुंसक आदि के किसी प्रकार विवाह से क्षेत्रज सन्तान पैदा हों तो उनके सन्तान धन के भागी होते हैं। पिता की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र धन मिलना चाहिए यदि छोटा भाई विद्वान् हो तो उस में भी उसका भाग होता है। सभी भाइयों का यदि व्यापार आदि से कमाया संयुक्त धन हो तो उसमें पिता का धन छोड़कर समान भाग करना चाहिए, यह धर्मशास्त्र को मर्यादा है ॥२०३-२०५॥ विद्याधनं तु यद्यस्य तत् तस्यैव धनं भवेत् । मैत्र्यमोद्वाहिकं चैव माधुपर्किकमेव च ॥ ॥२०६॥ भ्रातृणां यस्तु नैहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा । ु स निर्भाज्यः स्वकादंशात् किं चिद् दत्त्वोपजीवनम् ॥ ॥२०७॥ अनुपघ्नन् पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम् । स्वयमीहितलब्धं तन्नाकामो दातुमर्हति ॥ ॥२०८॥ पैतृकं तु पिता द्रव्यमनवाप्तं यदाप्नुयात् । न तत् पुत्रैर्भजेत् सार्धमकामः स्वयमर्जितम् ॥ ॥ २०९॥ विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन् पुनर्यदि । समस्तत्र विभागः स्याज् ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते ॥ ॥२१०॥ येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः । म्रियेतान्यतरो वाऽपि तस्य भागो न लुप्यते ॥ ॥२११॥ सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम् । भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः ॥ ॥२१२॥ यो ज्येष्ठो विनिकुर्वीत लोभाद् भ्रातॄन् यवीयसः । सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः ॥ ॥२१३॥ जिसको जो धन विद्या से प्राप्त हो वह उसी का है। मित्र से, विवाह में और मधुपर्क में जो धन जिसको मिले वह उसी का है। जो अपने पुरुषार्थ से धन कमा सकता है और भाइयों के साधारण धन को न चाहता हो उसको कुछ निर्वाह योग्य देकर अलग कर देना चाहिए। पिता के धन को हानि न पहुँचाकर, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो यदि उसमे इच्छा न हो तो भाइयों को भाग नहीं देना चाहिए। पिता के पिता का धन जिसको कोई नहीं पा सका हो उसको पिता को प्राप्त करना चाहिए यदि इच्छा न उअका बंटवारा नहीं करना चाहिए,्य क्योंकि वह उसने स्वयं प्राप्त किया है। भाई एक बार अलग होकर फिर साथ रहें और दुबारा बंटवारा करना चाहे तो समान भाग करना चाहिए, उस समय बड़े भाई का भाग अधिक नहीं होना चाहिए। जिन भाइयों में बड़ा वा छोटा भाई बंटवारे के समय संन्यासी हो गया हो अथवा मर गया हो तो भी उसका भाग नष्ट नहीं होता। यादे उसके पुत्र, पुत्री, स्त्री, माता-पिता न हो तो सगे भाई या सहोदर बहनों को आपस में विभाग कर लेना चाहिए। यदि बड़ा भाई, छोटे भाई को लोभ से धोखा दे तो उसको बड़ा नहीं मानना चाहिए, अधिक भाग नहीं देना चाहिए और राजा को उसको दण्ड देना चाहिए। ॥२०६- २१३॥ सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम् । न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत योतकम् ॥ ॥२१४॥ भ्रातृणामविभक्तानां यद्युत्थानं भवेत् सह । न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात् कथं चन ॥ ॥ २१५॥ ऊर्ध्वं विभागात्जातस्तु पित्र्यमेव हरेद् धनम् । संसृष्टास्तेन वा ये स्युर्विभजेत स तैः सह ॥ ॥२१६॥ अनपत्यस्य पुत्रस्य माता दायमवाप्नुयात् । मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माता हरेद् धनम् ॥ ॥२१७॥ ऋणे धने च सर्वस्मिन् प्रविभक्ते यथाविधि । पश्चाद् दृश्येत यत् किं चित् तत् सर्वं समतां नयेत् ॥ ॥२१८॥ वस्त्रं पत्रमलङ्कारं कृतान्नमुदकं स्त्रियः । योगक्षेमं प्रचारं च न विभाज्यं प्रचक्षते ॥ ॥२१९॥ अयमुक्तो विभागो वः पुत्राणां च क्रियाविधिः । क्रमशः क्षेत्रजादीनां यूतधर्मं निबोधत ॥ ॥२२०॥ भाई यदि विरुद्ध कुकर्म में पड़े हों तो वह धन प्राप्त करने योग्य नहीं होता। बड़े भाई हो छोटे भाई का भाग बिना दिये स्वामी नहीं बनना चाहिए। भाई बाँटकर अलग न हुए हों और सभी साथ रहकर व्यापारादि करते हो तो पिता को पुत्रों को न्यूनाधिक भाग कभी नहीं देना चाहिए। यदि अपने जीवन में ही पिता विभाग कर दे और दूसरा पुत्र उत्पन्न हो जाय तो वह पिता के ही धन का अधिकारी होता है अथवा जो पिता के साथ रहते हो उनसे साथ विभाग करना चाहिए। पुत्र का पुत्र' मर जाय और उसकी स्त्री न हो तो धाय माता को धन प्राप्त करना चाहिए और माता भी न रहे तो पिता की माता को वह भाग प्राप्त होना चाहिए। माता-पिता के धन और ऋण का यथाविधि विभाग कर लेने पर यदि कुछ दूसरी सम्पत्ति का पता लगे तो उसको सभी को समान रूप से बांट लेना चाहिए। वस्त्र, सवारी, गहने आभूषण, पकवान, जल, दासी, मंत्री, पुरोहित और गौ चरने का स्थान इनका विभाग धर्मशास्त्री नहीं करते अर्थात् जो जिसके काम में आए वही उसको रखना चाहिए। इस प्रकार विभाग और क्षेत्रज आदि पुत्र उत्पन्न करने की रीति क्रम से कही गई है। अब द्युत - जुए की व्यवस्था सुनो ॥ २१४-२२० ॥ द्युत - जुआ द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रात्निवारयेत् । राजान्तकरणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवीक्षिताम् ॥ ॥२२१॥ प्रकाशमेतत् तास्कर्यं यद् देवनसमाह्वयौ । तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान् भवेत् ॥ ॥२२२॥ अप्राणिभिर्यत् क्रियते तत्लोके द्यूतमुच्यते । प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः ॥ ॥२२३॥ द्यूतं समाह्वयं चैव यः कुर्यात् कारयेत वा । तान् सर्वान् घातयेद् राजा शूद्रांश्च द्विजलिङ्गिनः ॥ ॥२२४॥ कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाषण्डस्थांश्च मानवान् । विकर्मस्थान् शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् ॥ ॥२२५॥ एते राष्ट्र वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः । विकर्मक्रियया नित्यं बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः ॥ ॥२२६॥ द्यूतमेतत् पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं महत् । तस्माद् द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान् ॥ ॥२२७॥ राजा को अपने देश में जुआ और समाहृय को दूर करना चाहिए क्योंकि ये दोनों दोष राजा के राज्य का नाश करने वाले होते हैं । जुआ और समाह्वय प्रत्यक्ष लूट हैं, इस कारण राजा को इन दोनों के नाश का यत्न करना चाहिए। जो रुपया-पैसा-कौड़ी आदि निर्जीव से खेला जाय उसको जुआ कहते हैं और तीतर, बटेर आदि जीवों पर जो बाजी लगाई जाती है उसको' समाहृय' कहते हैं। जो पुरुष जुआ और समाहृह्य करें या करावें उन सब को और ब्राह्मण वेषधारी शूद्रों को राजा को खूब पिटवना चाहिए। जुआरी, धूर्त, क्रूरकर्मा, पाखण्डी, मर्यादा के खिलाफ़ चलनेवाले और शराबी को राजा अपने नगर से निकलवा देना चाहिए। क्योंकि राजा के राज्य में यह सभी छिपे चोर के समान हैं अपने कुकर्म से प्रजा को दुःख देते हैं। यह जुआ, पहले कल्प में बड़ा वैर बढ़ानेवाला देखा गया है। इस कारण बुद्धिमान मनुष्यों को हँसी के लिए भी जुआ नहीं खेलना चाहिए ॥२२१-२२७॥ प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा तन्निषेवेत यो नरः । तस्य दण्डविकल्पः स्याद् यथेष्टं नृपतेस्तथा ॥ ॥२२८॥ क्षत्रविद् शूद्रयोनिस्तु दण्डं दातुमशक्नुवन् । आनृण्यं कर्मणा गच्छेद् विप्रो दद्यात्शनैः शनैः ॥ ॥२२९॥ स्त्रीबालोन्मत्तवृद्धानां दरिद्राणां च रोगिणाम् । शिफाविदलरज्ज्वाद्यैर्विदध्यानृपतिर्दमम् ॥ ॥२३०॥ ये नियुक्तास्तु कार्येषु हन्युः कार्याणि कार्यिणाम् । धनौष्मणा पच्यमानास्तान्निःस्वान् कारयेन्नृपः ॥ ॥२३१॥ कूटशासनकर्तृश्च प्रकृतीनां च दूषकान् । स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विष सेविनस्तथा ॥ ॥२३२॥ तीरितं चानुशिष्टं च यत्र क्व चन यद् भवेत् । कृतं तद् धर्मतो विद्यान्न तद् भूयो निवर्तयेत् ॥ ॥ २३३॥ जो कोई छिपकर अथवा प्रकटरीति से जुआ खेले उसे राजा को इच्छानुसार दण्ड देना चाहिए। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दण्ड न दे सकता हो तो उसको मज़दूरी करके दण्ड चुकाना चाहिए और ब्राह्मण को धीरे धीरे दण्ड चुका देना चाहिए। स्त्री, बालक, पागल, बूढा, निर्धन और रोगियों को चाबुक, बेंत और रस्सी से शिक्षा देनी चाहिए। जिन कर्मचारियों को राज्यकार्य सौंपा हो, वह यदि धन के अहंकार से लोगों के काम बिगाड़े तो राजा को उनके समस्त धन हरण कर लेना चाहिए। राजा की तरफ से बनावटी आज्ञा करने वाले, मंत्रियों में भेद करानेवाले, स्त्री, बालक, ब्राह्मण और घातक शत्रु से मिलनेवाले को राजा को दण्ड देना चाहिए। जिस मामले का न्यायानुसार दण्ड तक निर्णय हो चुका हो उसको पूरा समझ कर पुनः नहीं दोहराना चाहिए ॥२२८-२३३॥ चोर-दुष्टों का निग्रह अमात्यः प्राग्विवाको वा यत् कुर्युः कार्यमन्यथा । तत् स्वयं नृपतिः कुर्यात् तान् सहस्रं च दण्डयेत् ॥ ॥२३४॥ ब्रह्महा च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः। एते सर्वे पृथग् ज्ञेया महापातकिनो नराः ॥ ॥२३५॥ मन्त्री और न्यायाधीश जिस मुकदमे को अनदेखा करें उसको राजा को स्वयं देखना और अपराध साबित होने पर उन पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। ब्रह्मघाती, मद्यप, चोर और गुरुपत्नी से समागम करने वाला इन सबको महापातकी मनुष्य जानना चाहिए ॥२३४-२३५॥ चतुर्णामपि चैतेषां प्रायश्चित्तमकुर्वताम् । शारीरं धनसंयुक्तं दण्डं धर्म्य प्रकल्पयेत् ॥ ॥२३६॥ गुरुतल्पे भगः कार्यः सुरापाने सुराध्वजः । स्तेये च श्वपदं कार्यं ब्रह्महण्यशिराः पुमान् ॥ ॥२३७॥ असंभोज्या ह्यसंयाज्या असम्पाठ्याऽविवाहिनः । चरेयुः पृथिवीं दीनाः सर्वधर्मबहिष्कृताः ॥ ॥२३८॥ ज्ञातिसंबन्धिभिस्त्वेते त्यक्तव्याः कृतलक्षणाः । निर्दया निर्नमस्कारास्तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥२३९॥ प्रायश्चित्तं तु कुर्वाणाः सर्ववर्णा यथोदितम् । नाङ्ङ्ख्या राज्ञा ललाटे स्युर्दाप्यास्तूत्तमसाहसम् ॥ ॥२४०॥ आगःसु ब्राह्मणस्यैव कार्यो मध्यमसाहसः । विवास्यो वा भवेद् राष्ट्रात् सद्रव्यः सपरिच्छदः ॥ ॥२४१॥ इतरे कृतवन्तस्तु पापान्येतान्यकामतः । सर्वस्वहारमर्हन्ति कामतस्तु प्रवासनम् ॥ ॥२४२॥ नाददीत नृपः साधुर्महापातकिनो धनम् । आददानस्तु तत्लोभात् तेन दोषेण लिप्यते ॥ ॥ २४३॥ ये चारों यदि प्रायश्चित्त न करें तो राजा को धर्मानुसार शारीरिक शिक्षा और धन-दण्ड भी करना चाहिए। गुरुपत्नी-गामी के मस्तक में भग- चिह्न, शराबी के मस्तक में मद्यपात्र के आकार का चिन्ह, चोर के कुत्ते के पैर का चिह्न और ब्रह्मघाती के मस्तक में सिरहीन धड़ का चिह्न अंकित करना चाहिए। ऐसे मनुष्य सहभोजन, यज्ञ, वेदाध्ययन और विवाह-सम्वन्ध के अयोग्य होते हैं और इनका श्रौत स्मार्त कमों से बहिष्कृत हो, निर्धन पृथिवी पर विचारना ही उचित है। इन चिह्नवाले पातकियों को सम्बन्धि और जातिवालों को त्याग देना चाहिए। उन पर दया नहीं करनी चाहिए, नमस्कार नहीं करना चाहिए, यही मनुजी की आज्ञा है। परन्तु जो महापातकी प्रायश्चित्त कर लें उन के मस्तक में चिह्न अंकित नहीं करके, केवल उत्तम साहस दण्ड करना चाहिए। इन अपराधों में ब्राह्मण को भी 'मध्यम साहस' दण्ड करना चाहिए अथवा धन-परिवार के साथ राज्य से बाहर निकाल देना चाहिए और दूसरे लोग हन पापों को अज्ञानता वश करें तो उनका सर्वस्व छीन लेना चाहिए और यदि जान समझ कर करें तो देश से निकाल देना चाहिए। धार्मिक राजा को महापातकी का धन ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि लोभ से ग्रहण करे तो राजा उस पाप से लिप्त हो जाता है। ॥२३६-२४३॥ अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणायोपपादयेत् । श्रुतवृत्तोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत् ॥ ॥२४४॥ ईशो दण्डस्य वरुणो राज्ञां दण्डधरो हि सः । ईशः सर्वस्य जगतो ब्राह्मणो वेदपारगः ॥ ॥ २४५॥ यत्र वर्जयते राजा पापकृद्ध्यो धनागमम् । तत्र कालेन जायन्ते मानवा दीर्घजीविनः ॥ ॥ २४६ ॥ निष्पद्यन्ते च सस्यानि यथोप्तानि विशां पृथक् । बालाश्च न प्रमीयन्ते विकृतं च न जायते ॥ ॥२४७॥ महापातकी के दण्ड-धन को राजा जल में डालकर वरुण को अर्पण कर देना चाहिए अथवा वेदज्ञ-सदाचारी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। पातकी के दण्ड का स्वामी वरुण है क्योंकि वह राजाओं को भी दण्ड देनेवाला है और वेदज्ञ ब्राह्मण सारे जगत् का प्रभु है। जिस देश में राजा पापियों का दण्ड लेकर उसका भोग नहीं करता उस देश में मनुष्य दीर्धजीवी होते हैं और प्रजाओं के धान्य ठीक ठीक पैदा होते हैं, बालक नहीं मरते और उस राज्य मे कोई विकार नहीं होता। ॥२४४-२४७॥ ब्राह्मणान् बाधमानं तु कामादवरवर्णजम् । हन्याच्चित्रैर्वधोपायैरुद्वेजनकरैर्नृपः ॥ ॥२४८॥ यावानवध्यस्य वधे तावान् वध्यस्य मोक्षणे । अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः ॥ ॥२४९॥ उदितोऽयं विस्तरशो मिथो विवदमानयोः । अष्टादशसु मार्गेषु व्यवहारस्य निर्णयः ॥ ॥२५०॥ एवं धर्माणि कार्याणि सम्यक् कुर्वन् महीपतिः । देशानलब्धान्लिप्सेत लब्धांश्च परिपालयेत् ॥ ॥२५१॥ जानकर ब्राह्मण को कष्ट देनेवाले, नीचजाति के पुरुष को राजा अनेक उपायों ले शारीरिक दण्ड़ देवे । अदण्ड्य को दण्ड देने से राजा को जितना अधर्म होता है उतना ही अपराधी को छोड़ने से होता है। न्यायकारी को धर्म प्राप्त होता है। अठारह प्रकार के दावों में प्रत्येक के परस्पर-विवाद का निर्णय विस्तार से कहा गया है। राजा इस प्रकार सव कार्यों का धर्मानुसार निर्णय करे।' अप्राप्त देशों को लेना और प्राप्त देशों की रक्षा करना, राजा का धर्म है ॥ २४८-२५१॥ सम्यग्निविष्टदेशस्तु कृतदुर्गश्च शास्त्रतः । कण्टकोद्धरणे नित्यमातिष्ठेद् यत्नमुत्तमम् ॥ ॥२५२॥ रक्षनादार्यवृत्तानां कण्टकानां च शोधनात् । नरेन्द्रास्त्रिदिवं यान्ति प्रजापालनतत्पराः ॥ ॥२५३॥ अशासंस्तस्करान् यस्तु बलिं गृह्णाति पार्थिवः । तस्य प्रक्षुभ्यते राष्ट्र स्वर्गाच्च परिहीयते ॥ ॥२५४॥ निर्भयं तु भवेद् यस्य राष्ट्र बाहुबलाश्रितम् । तस्य तद् वर्धते नित्यं सिच्यमान इव द्रुमः ॥ ॥ २५५॥ द्विविधांस्तस्करान् विद्यात् परद्रव्यापहारकान् । प्रकाशांश्चाप्रकाशांश्च चारचक्षुर्महीपतिः ॥ ॥२५६॥ प्रकाशवञ्चकास्तेषां नानापण्योपजीविनः । प्रच्छन्नवञ्चकास्त्वेते ये स्तेनाटविकादयः ॥ ॥२५७॥ उत्कोचकाश्चोपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा । मङ्गलादेशवृत्ताश्च भद्राश्चैक्षणिकैः सह ॥ ॥२५८॥ असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः । शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणाः पण्ययोषितः ॥ ॥२५९॥ अच्छे प्रकार देश बसाने वाला और शास्त्रानुसार किला बनाने वाले राजा को नित्य चोरों के नाश का पूरा उपाय करना चाहिए। प्रजापालक राजा सदाचारियों की रक्षा और दुष्टों को दण्ड करने से स्वर्ग गामी होता है। जो राजा चोरों को दण्ड न देकर प्रजा से कर लेता है उसकी प्रजा अप्रसन्न रहती है और वह स्वर्ग से पतित होता है। जिस राजा का देश निर्भय होता है वह देश जल से सींचे वृक्ष की भांति नित्य उन्नति करता है। चार-दूतरूपी आँखवाले राजा दो प्रकार के परद्रव्य हरने वाले चोरों को जानना चाहिए। एक प्रकट, दूसरे अप्रकट। उन में अनेकों प्रकार के व्यापार वाले प्रत्यक्ष चोर हैं और वन में रहने वाले छिपे चोर हैं। रिश्वतखोर, भय दिखाकर धन लेनेवाले, ठग, जुआरी, तुमको धन मिलेगा ऐसी मीठी बातों से बहकानेवाले, ऊपर धार्मिक हदय में पापी, हाथरेखा देखनेवाले, राजकर्मचारी, धूर्त वैद्य, कारीगर इत्यादि और वेश्या ॥२५२-२५६॥ एवमादीन् विजानीयात् प्रकाशांल्लोककण्टकान् । निगूढचारिणश्चान्याननार्यानार्यलिङ्गिनः ॥ ॥२६०॥ तान् विदित्वा सुचरितैर्मूढैस्तत्कर्मकारिभिः । चारैश्चानेकसंस्थानैः प्रोत्साद्य वशमानयेत् ॥ ॥२६१॥ तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कर्मणि तत्त्वतः । कुर्वीत शासनं राजा सम्यक् सारापराधतः ॥ ॥२६२॥ न हि दण्डाद् ऋते शक्यः कर्तुं पापविनिग्रहः । स्ते नानां पापबुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ ॥ ॥२६३॥ सभाप्रपाऽपूपशालावेशमद्यान्नविक्रयाः । चतुष्पथांश्चैत्यवृक्षाः समाजाः प्रेक्षणानि च ॥ ॥२६४॥ जीर्णोद्यानान्यरण्यानि कारुकावेशनानि च । शून्यानि चाप्यगाराणि वनान्युपवनानि च ॥ ॥ २६५॥ एवंविधान्नृपो देशान् गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः । तस्करप्रतिषेधार्थं चारैश्चाप्यनुचारयेत् ॥ ॥२६६॥ तत्सहायैरनुगतैर्नानाकर्मप्रवेदिभिः । विद्यादुत्सादयेच्चैव निपुणैः पूर्वतस्करैः ॥ ॥२६७॥ इस तरह के इन प्रत्यक्ष ठगों को राजा दूत द्वारा जाने और ब्राह्मणवेश में छिपे फिरनेवाले शूद्रों पर भी दृष्टि रखनी चाहिए। गुप्त, प्रकट, अनेक वेष, और चालाकी से दूतलोग चोरों को पकड़ना चाहिए। राजा सब के अपराधों को जगत् में प्रकट करके उनको उचित दण्ड देना चाहिए। बिना दण्ड के पाप को रोकना असंभव है, पापियों को वश में नहीं रख सकते। सभा, प्याऊ, हलवाई की दुकान, रण्डी का घर, कलाल का घर, अन्न बिकने का स्थान, चौराहा, प्रसिद्ध वृक्ष, समाज, नाच, गान और नाटक के स्थान, पुराने बगीचे, जंगल, कारीगर के घर, खण्डहर, वन और उपवन ऐसे स्थानों की जांच दूतों द्वारा सदा राजा को करवानी चाहिए। चोरों के सहायक, उनका कर्म करनेवाले, चोरी के कामों को जानने वाले और पुराने चोर ऐसे चतुर दूतों से चोरों को पकड़वाकर दण्ड देना चाहिए ॥ २६०-२६७॥ भक्ष्यभोज्योपदेशैश्च ब्राह्मणानां च दर्शनैः। शौर्यकर्मापदेशैश्च कुर्युस्तेषां समागमम् ॥ ॥२६८॥ ये तत्र नोपसर्पेयुर्मूलप्रणिहिताश्च ये । तान् प्रसह्य नृपो हन्यात् समित्रज्ञातिबान्धवान् ॥ ॥२६९॥ न होढेन विना चौरं घातयेद् धार्मिको नृपः। सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन् ॥ ॥२७०॥ ग्रामेष्वपि च ये के चिच्चौराणां भक्तदायकाः। भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपि घातयेत् ॥ ॥२७१॥ राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान् सामन्तांश्चैव चोदितान् । अभ्याघातेषु मध्यस्थाञ् शिष्याच्चौरानिव द्रुतम् ॥ ॥२७२॥ यश्चापि धर्मसमयात् प्रच्युतो धर्मजीवनः । दण्डेनैव तमप्योषेत् स्वकाद् धर्माद् हि विच्युतम् ॥ ॥२७३॥ ग्रामघाते हिताभङ्गे पथि मोषाभिदर्शने । शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः ॥ ॥२७४॥ राज्ञः कोशापहर्तृश्च प्रतिकूलेषु च स्थितान् । घातयेद् विविधैर्दण्डैररीणां चोपजापकान् ॥ ॥ २७५॥ दूतो को उन चोरों को खाने-पीने के बहाने, ब्राह्मण दर्शन के उपाय से और वीरता के काम के ढंग से राजद्वार में लाकर पकडवा देना चाहिए। जो वहां पकड़े जाने की डर से न जाएँ और गुप्त राजदूतों के साथ चालाकी करके अपने को बचाते हों, उनको राजा बल पूर्वक पकड़ कर मित्र-जाति भाइयों सहित वध कर देना चाहिए। गांवों में भी जो चोरों का भोजन, उनको ठहरने का स्थान देते हैं अथवा चोरी का माल रखते हैं उनको भी राजा को दण्ड देना चाहिए। चोरों के उपद्रवों में देश और सीमा के रक्षक उदासीन रहें तो उनको भी दण्ड करे देना चाहिए। दान या यज्ञ से निर्वाह करनेवाला ब्राह्मण, मर्यादा से भ्रष्ट हो जाएँ तो उसको भी राजा को दण्ड देना चाहिए। ग्राम लुटता हो, पौ तोड़ी जाती हो, मार्ग में चोर देखने में आयें, उस समय रक्षावाले सिपाही आदि अपराधियों के पकड़ने की चेष्टा न करें तो उनका सर्वस्व छीन कर देश से निकाल देना चाहिए। राजा के खजाना में चोरी करनेवाले, राजा की आज्ञा भंग करनेवाले, शत्रुत्रों में मिले हुए मनुष्यों के हाथ-पैर कटवा कर अनेक कठोर दण्ड देना चाहिए। ॥२६८-२७५॥ संधिं छित्त्वा तु ये चौर्यं रात्रौ कुर्वन्ति तस्कराः । तेषां छित्त्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे शूले निवेशयेत् ॥ ॥२७६॥ अङ्‌गुलीग्रन्थिभेदस्य छेदयेत् प्रथमे ग्रहे । द्वितीये हस्तचरणौ तृतीये वधमर्हति ॥ ॥२७७॥ अग्निदान् भक्तदांश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान् । संनिधातूंश्च मोषस्य हन्याच्चौरमिवेश्वरः ॥ ॥२७८॥ तडागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन वा । यद् वाऽपि प्रतिसंस्कुर्याद् दाप्यस्तूत्तमसाहसम् ॥ ॥२७९॥ जो चोर रात को सेंध लगाकर चोरी करते हैं उनका हाथ कटवा कर तीखी शूलों पर चढवा देना चाहिए। जेब तराश पहली बार पकड़ जावे तो उसकी अंगुली कटवा देना चाहिए। दूसरी बार हाथ-पैर कटवा देना चाहिए। तीसरी बार में वध की आज्ञा दे देनी चाहिए। चोरों को आग, भोजन, शस्त्र और ठहरने का स्थान देनेवाले को और चोरी का माल रखने वाले को चोर की भांति दण्ड देना चाहिए। जो तालाब बिगाड़े उसको जल में डूबवा देना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष मरवा देना चाहिए अथवा उससे फिर तालाब बनवाना चाहिए और एक हज़ार पण दण्ड करना चाहिए ॥२७६-२७६॥ कोष्ठागारायुधागारदेवतागारभेदकान् । हस्त्यश्वरथहर्तृश्च हन्यादेवाविचारयन् ॥ ॥२८०॥ यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं हरेत् । आगमं वाऽप्यपां भिन्द्यात् स दाप्यः पूर्वसाहसम् ॥ ॥२८१॥ समुत्सृजेद् राजमार्गे यस्त्वमेध्यमनापदि । स द्वौ कार्षापणौ दद्यादमेध्यं चाशु शोधयेत् ॥ ॥२८२॥ आपद्गतोऽथ वा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा । परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः ॥ ॥२८३॥ राजा का अन्न भण्डार, शस्त्रशाला और देवमंदिर तोड़नेवाले को और हाथी, घोड़ा, रथ चुरानेवाले को बिना विचार मृत्युदंड दे देना चाहिए। जो पूर्व से सब के काम में आनेवाले, जलाशय के जल को अपने वश में कर लेना चाहिए अथवा जल के प्रवाह को रोकना चाहे उसपर ढाई सौ पण दण्ड करना चाहिए। जो नीरोग होकर भी मुख्य सड़कों पर मल आदि अपवित्र वस्तु डाले उस पर दो कार्षापण दण्ड करना चाहिए और वह मल उसी से उठवाना चाहिए। परन्तु रोगी, बूढा, गर्भिणी, बालक ऐसा करे तो उनको मना कर देना चाहिए और वह स्थान शुद्ध करवाना चाहिए, यही मर्यादा है ॥ २८०-२८३॥ चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्याप्रचरतां दमः । अमानुषेषु प्रथमो मानुषेषु तु मध्यमः ॥ ॥२८४॥ स‌ङ्क्रमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः । प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्यात्शतानि च ॥ ॥२८५॥ अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा । मणीनामपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः ॥ ॥२८६॥ समैर्हि विषमं यस्तु चरेद् वै मूल्यतोऽपि वा । समाप्नुयाद् दमं पूर्वं नरो मध्यममेव वा ॥ ॥२८७॥ बन्धनानि च सर्वाणि राजा मार्गे निवेशयेत् । दुःखिता यत्र दृश्येरन् विकृताः पापकारिणः ॥ ॥२८८॥ प्राकारस्य च भेत्तारं परिखाणां च पूरकम् । द्वाराणां चैव भ‌ङ्क्तारं क्षिप्रमेव प्रवासयेत् ॥ ॥२८९॥ अभिचारेषु सर्वेषु कर्तव्यो द्विशतो दमः । मूलकर्मणि चानाप्तेः कृत्यासु विविधासु च ॥ ॥२९०॥ अबीजविक्रयी चैव बीजोत्कृष्टा तथैव च । मर्यादाभेदकश्चैव विकृतं प्राप्नुयाद् वधम् ॥ ॥२९१॥ चिकित्सा करनेवाले उलटी चिकित्सा करें तो पशु आदि के विषय में ढाई सौ पण और मनुष्यों के विषय में पांच सौ पण दण्ड करना चाहिए। नदी के पुल का काठ, राज पताका का डंडा और मर्तियों को तोड़ने वाले को उन सबको फिर बनवा देना चाहिए और पांच सौ पण दण्ड देना चाहिए। अच्छी वस्तु को दूषित करने, तोड़ने और मणियों के बुरा बेधने में, ढाई सौ पण दण्ड करना चाहिए। जो समान- मूल्य की वस्तुओं से न्यूनाधिक मूल्य की वस्तुओं का व्यवहार करे, ऐसे मनुष्य को पूर्व अथवा मध्यम साहस का दण्ड देना चाहिए। राजा को मार्ग में बंदीघर बनवाना चाहिए, जिससे दुःखी और पापी सबको दिखाई देने चाहिए। परकोटे को तोड़नेवाले और उसकी खाई को भरनेवाले और राजद्वारों को तोड़नेवालों को तुरंत देश से निकाल देना चाहिए। सब तरह के अभिचारों मारण आदि जिस के ऊपर किया गया हो और वह न मरे, और वशीकरण, उच्चाटन आदि से भी कोई काम न सिद्ध होता हो तो उस पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। खराब बीजों को बेंचनेवाला या अच्छे में बुरे मिलाकर बेचनेवाला और हद तोड़नेवाले को अंगच्छेद का दण्ड देना चाहिए। ॥२८४-२९१॥ सर्वकण्टकपापिष्ठं हेमकारं तु पार्थिवः । प्रवर्तमानमन्याये छेदयेत्लवशः क्षुरैः ॥ ॥२९२॥ सीताद्रव्यापहरणे शस्त्राणामौषधस्य च । कालमासाद्य कार्यं च राजा दण्डं प्रकल्पयेत् ॥ ॥२९३॥ सब चोरों में महापापी सुनार यदि कोई दुराचार करे तो राजा को उसको टुकड़े टुकड़े करवा देना चाहिए। खेती के हल, कुदाल आदि शस्त्र और पौधे चुराने पर राजा को देश काल के अनुसार दण्ड देना चाहिए ॥२९२-२९३॥ स्वाम्य्ऽमात्यौ पुरं राष्ट्र कोशदण्डौ सुहृत् तथा । सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ ॥ २९४॥ सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम् । पूर्वं पूर्वं गुरुतरं जानीयाद् व्यसनं महत् ॥ ॥२९५॥ सप्ताङ्ग‌स्यैह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत् । अन्योन्यगुणवैशेष्यात्न किं चिदतिरिच्यते ॥ ॥२९६॥ तेषु तेषु तु कृत्येषु तत् तदङ्गं विशिष्यते । येन यत् साध्यते कार्यं तत् तस्मिंश्रेष्ठमुच्यते ॥ ॥२९७॥ चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम् । स्वशक्तिं परशक्तिं च नित्यं विद्यान्महीपतिः ॥ ॥२९८ ॥ पीडनानि च सर्वाणि व्यसनानि तथैव च । आरभेत ततः कार्यं सञ्चिन्त्य गुरुलाघवम् ॥ ॥२९९॥ राजा, मन्त्री, राज्य, देश, खजाना, दण्ड और मित्र, राज्य शक्ति ये सात प्रकृतियों में क्रम से पहली से अगली श्रेष्ठ है। इसलिए पहले अङ्ग की हानि होने से आगे के अङ्ग पर बड़ा दुःख आ पड़ता है। जैसे तीन दण्ड, एक दूसरे के आधार पर रुके रहते हैं, वैसे सातअंग वाला राज्य भी प्रत्येक अंग के आधार पर टिका रहता है। प्रत्येक अंग अपनी विशेषता से समान हैं। जिससे जो काम सधता है, उसमें वही श्रेष्ठ कहा जाता है। राजा को नित्य दूतों के द्वारा सेना को उत्साह देना चाहिए, सभी कार्यों को ठीक रखना चाहिए और अपने शत्रु की शक्ति को जानना चाहिए। सभी प्रकार की पीड़ा और व्यसनों के उंच नीच पर करके कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए। ॥२९४-२९९॥ आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः । कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते ॥ ॥ ३००॥ कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च । राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते ॥ ॥३०१॥ कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम् । कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम् ॥ ॥३०२॥ इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च । चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोवृत्तं नृपश्चरेत् ॥ ॥३०३॥ राजा को राज्यवृद्धि के कार्यों को धीरे धीरे करते ही रहना चाहिए क्योंकि कर्म करनेवाले को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग, सभी राजा के कार्यों पर ही आधार रखते हैं क्योकि राजा ही भले-बुरे समय का कारण है: युगस्वरुप है। जब राजा आलस्य, निद्रा में समय बिताता है तो कलियुग, जब "सावधानी से राज्य करता है तो द्वापर, जब अपने कार्यों में लगा रहता है तब त्रेता और जब शास्त्रानुसार कर्मों का संपादन करता है तब सतयुग होता है । इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्र, अग्नि और पृथ्वी के तेजोमय-प्रकाशमान आचरणों से राजा को जगत में व्यवहार करना चाहिए ॥३००-३०३॥ वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति । तथाऽभिवर्षेत् स्वं राष्ट्र कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥ ॥३०४॥ अष्टौ मासान् यथाऽदित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः । तथा हरेत् करं राष्ट्रानित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ ॥३०५॥ प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः । तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद् हि मारुतम् ॥ ॥३०६॥ यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति । तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद् हि यमव्रतम् ॥ ॥३०७॥ जैसे इन्द्र वर्षाऋतु के चार मास जल वर्षा करके प्रजा का मनोरथ पूर्ण फरता है वैसे ही राजा को इन्द्र के आचरण से अपने देश की प्रजा को सन्तुष्ट रखना चाहिए। जैसे आठ मास सूर्य अपने तेज से पृथ्वी का जल खींच लेता है, वैसे राजा को सूर्य की भांति आचरण करके प्रजा को दुःख न देते हुए राज्य करना चाहिए। जैसे वायु प्राणरूप से सब प्राणियों में विचरण करता है वैसे ही राजा को भी दूतों से अपने देश का समाचार लेते रहना चाहिए। जैसे यम समय पर मित्र-शत्रु सबको शिक्षा देता है, वैसे राजा को यम के समान सारी प्रजा पर शासन करना चाहिए ॥ ३०४-३०७॥ वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते । तथा पापान्निगृह्णीयाद् व्रतमेतद् हि वारुणम् ॥ ॥३०८॥ परिपूर्ण यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः । तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः ॥ ॥३०९॥ प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु । दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम् ॥ ॥३१०॥ यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् । तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम् ॥ ॥३११॥ एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः । स्ते नान् राजा निगृह्णीयात् स्वराष्ट्र पर एव च ॥ ॥३१२॥ जैसे वरुण अपराधियों को अपने पाशों से बाँधता है, वैसे राजा को वरुण होकर पापियों को दण्ड देना चाहिए। जैसे मनुष्य पूर्ण चन्द्रविम्ब को देखकर खुश होते हैं, वैसे प्रजामण्डल जिस राजा को देख कर खुश होता हो तो उस राजा को चन्द्रव्रतधारी मानना चाहिए। पापियों पर अग्नि के समान प्रताप रखना, दुष्ट मन्त्रियों को मरवा देना यह अग्निव्रत है। जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को समभाव से धारण करती है, वैसे ही राजा को भी समभाव से प्राणियों का पालन करना चाहिए। इन सभी और दूसरे भी उपायों से राजा को व्यवहार करते हुए स्वराज्य अथवा परराज्य के चोरों को दण्ड देना चाहिए ॥३०८- ३१२॥ ब्राह्मण माहात्म्य परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत् । ते ह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम् ॥ ॥३१३॥ यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः । क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत् प्रकोप्य तान् ॥ ॥३१४॥ लोकानन्यान् सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः । देवान् कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान् समृध्नुयात् ॥ ॥३१५॥ कोषक्षय आदि बड़ी विपत्ति में पड़कर भी राजा को ब्राह्मणों को कष्ट नहीं देना चाहिए क्योंकि वह लोग कुपित होकर राजा और राज्य का नाश कर देते हैं। जिन ब्राह्मणों ने कुपित होकर अग्नि को सर्वभक्षक, समुद्र को न पीने योग्य और चन्द्रमा को क्षयरोगी कर दिया उन ब्राह्मणों को कुपित करके कौन नष्ट न हो जायगा ? जो ब्राह्मण रुष्ट होकर दूसरे लोक और लोकपालों को रच सकते हैं और देवताओं को शाप देकर नीचयोनि में डाल सकते है उन को दुःख देकर कौन उन्नति कर सकता है ? ॥ ३१३-३१५ ॥' यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा । ब्रह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात् ताञ्जिजीविषुः ॥ ॥३१६॥ अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् । प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत् ॥ ॥३१७॥ श्म मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति । हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ॥ ॥३१८॥ एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत् ॥ ॥३१९॥ स्वर्गादि लोक और देवता, जिनके आश्रय से टिके रहते हैं और वेद ही जिन का धन है उन ब्राह्मणों को जीने की इच्छा रखने वाला कौन दुखी करेगा? जैसे अग्नि चाहे वेदमन्त्रों से चाहे दूसरे प्रकार से प्रकट हो पर महान् देवता है, वैसे ब्राह्मण विद्वान् या मूर्ख हो महान् देवता है। तेजस्वी अग्नि श्मशान में भी दूषित नहीं होता किन्तु यज्ञ में हवन किया हुआ फिर वृद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार ब्राह्मण सब निंदित कर्मों के करने पर भी सर्वथा पूज्य हैं, महान् देवता है। ॥३१६- ३१९॥ क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान् प्रति सर्वशः । ब्रह्मैव संनियन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् ॥ ॥३२०॥ अद्भयोऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् । तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ ॥३२१॥ नाब्रह्म क्षत्रं ऋध्रोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते । ब्रह्म क्षत्रं च सम्पृक्तमिह चामुत्र वर्धते ॥ ॥३२२॥ दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम् । पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे ॥ ॥३२३॥ क्षत्रिय यदि ब्राह्मण को दुःख दे तो ब्राह्मणों को ही उनको किसी उपाय से अपने वश में रखना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों से ही क्षत्रिय उत्पन्न हुए हैं। जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय, पत्थर ले लोहा पैदा हुआ है। इनको पैदा करनेवाला व्यापक तेज अपने कारण में शान्त हो जाता है। ब्राह्मण की सहायता के बिना क्षत्रिय वृद्धि को प्राप्त नहीं होता और क्षत्रिय की सहायता बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती इसलिये दोनों मिलकर रहें तभी लोक-परलोक में वृद्धि पाते हैं। राजा को दण्ड का सम्पूर्ण धन ब्राह्मणों को देकर और पुत्र को राज्य समर्पण करके रण में प्राण त्यागने चाहिए। ॥३२०-३२३॥ एवं चरन् सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः । हितेषु चैव लोकस्य सर्वान् भृत्यान्नियोजयेत् ॥ ॥३२४॥ एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः । इमं कर्मविधिं विद्यात् क्रमशो वैश्यशूद्रयोः ॥ ॥३२५॥ इस प्रकार राजा सदा आचरण कर राजधर्मों का पालन करना चाहिए और लोकहित के कामों में सभी सव कर्मचारियों को नियुक्त करना चाहिए। यह सभी राजा का सनातन-कर्तव्य कहा गया है, अब वैश्य और शूद्र के कर्तव्यों को क्रम से सुनो ॥ ३२४-३२५।। वैश्य-शूद्रकर्तव्य वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम् । वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात् पशूनां चैव रक्षणे ॥ ॥३२६॥ प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् । ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः ॥ ॥३२७॥ न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति । वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन ॥ ॥३२८॥ मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च । गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम् ॥ ॥ ३२९॥ बीजानामुप्तिविद् च स्यात् क्षेत्रदोषगुणस्य च । मानयोगं च जानीयात् तुलायोगांश्च सर्वशः ॥ ॥३३०॥ वैश्य को यज्ञोपवीत संस्कार के बाद विवाह करके नित्य व्यापार और पशुरक्षा में तत्पर रहना चाहिए। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनकी रक्षा का भार वैश्यों को सौंपा और ब्राह्मण, क्षत्रिय को प्रजा का भार सौंपा। इसलिए पशुपालन न करने की इच्छा वैश्य को नहीं करनी चाहिए, जब तक वैश्य पशु पालन करे, तब तक दूसरे वर्ण को पशुपालन कभी नहीं करना चाहिए। मणि, मोती, मूंगा, लोहा, सूत की वस्तु, कपूर और मीठा, घी आदि रसपदार्थों का भाव पर वैश्य को सदा विचार करना चाहिए। सभी बीजों के बोने की विधि, खेतों के गुण-दोष और सब तरह की नाप-तौल को भी जानना चाहिए। ॥३२६-३३०॥ सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् । लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम् ॥ ॥३३१॥ भृत्यानां च भृतिं विद्याद् भाषाश्च विविधा नृणाम्। द्र व्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च ॥ ॥३३२॥ धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद् यत्नमुत्तमम् । दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः ॥ ॥३३३॥ विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् । शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः ॥ ॥३३४॥ शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनह‌ङ्कृतः । ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते ॥ ॥३३५॥ एषोऽनापदि वर्णानामुक्तः कर्मविधिः शुभः । आपद्यपि हि यस्तेषां क्रमशस्तन्निबोधत ॥ ॥३३६॥ व्यापर के अच्छे-बुरे का हाल, देशों में पदार्थों का भाव, गुण आदि, समय में खरीदने, बेचने में मुनाफा इत्यादि और पशुओं के बढ़ने की, रीति वैश्य को जाननी चाहिए। नौकरों की नौकरी का परिमाण, अनेक भाषा, माल ठीक रखने रहने की विधि, खरीदने-बेचने का ढंग भी जानना चाहिए। धर्मानुसार धन बढ़ाने में परमयत्न करना चाहिए और सभी प्राणियों को अन्न देना, यह सब वैश्यों का कर्तव्य है। वेदविशारद विद्वान्, गृहस्थ, यशस्वी ब्राह्मण आदि की सेवा ही शूद्र का परम सुखदायी धर्म है। जो शूद्र भीतर बाहर से पवित्र, उत्तमजाति का सेवक, मधुरभाषी, निरहंकार और ब्राह्मणों के आश्रय में रहता है, वह क्रम से उत्तम जाति को प्राप्त करता है। इस प्रकार सुख के समय में चारों वर्षों के कर्तव्य शुभकर्म कहे गये हैं। अब आपत्तिकाल में चारों वर्गों का व्यवहार कहा जाता है । ॥ ३३१-३३६॥ ॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥९॥ ॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का नवां अध्याय समाप्त ॥

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