Shatakam Collection

    Nirvana Shatkam (निर्वाण षट्कम्)

    निर्वाण षट्कम् (Nirvana Shatkam) शिवोऽहं शिवोऽहं, शिवोऽहं शिवोऽहं, शिवोऽहं शिवोऽहं मनो बुध्यहङ्कार चित्तानि नाहं न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राणनेत्रे । न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 1 ॥ न च प्राण सञ्ज्ञो न वैपञ्चवायुः न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशाः । नवाक्पाणि पादौ न चोपस्थ पायू चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 2 ॥ न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहो मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः । न धर्मो न चार्धो न कामो न मोक्षः चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 3 ॥ न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः । अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 4 ॥ न मृत्युर्न शङ्का न मे जाति भेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्मः । न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 5 ॥ अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो विभूत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् । न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः [न वा बन्धनं नैव मुक्तिर्न बन्धः] चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ 6 ॥ शिवोऽहं शिवोऽहं, शिवोऽहं शिवोऽहं, शिवोऽहं शिवोऽहं

    Sudarshan Shatkam (सुदर्शन षट्कम्)

    सुदर्शन षट्कम् (Sudarshan Shatkam) सहस्रादित्यसङ्काशं सहस्रवदनं परम् । सहस्रदोस्सहस्रारं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 1 ॥ हसन्तं हारकेयूर मकुटाङ्गदभूषणैः । शोभनैर्भूषिततनुं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 2 ॥ स्राकारसहितं मन्त्रं वदनं शत्रुनिग्रहम् । सर्वरोगप्रशमनं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 3 ॥ रणत्किङ्किणिजालेन राक्षसघ्नं महाद्भुतम् । व्युप्तकेशं विरूपाक्षं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 4 ॥ हुङ्कारभैरवं भीमं प्रणातार्तिहरं प्रभुम् । सर्वपापप्रशमनं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 5 ॥ फट्कारास्तमनिर्देश्य दिव्यमन्त्रेणसंयुतम् । शिवं प्रसन्नवदनं प्रपद्येऽहं सुदर्शनम् ॥ 6 ॥ एतैष्षड्भिः स्तुतो देवः प्रसन्नः श्रीसुदर्शनः । रक्षां करोति सर्वात्मा सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ 7 ॥

    Dasaratha Shatakam (दाशरथी शतकम्)

    दाशरथी शतकम् (Dasaratha Shatakam) श्री रघुराम चारुतुल-सीतादलधाम शमक्षमादि शृं गार गुणाभिराम त्रिज-गन्नुत शौर्य रमाललाम दु र्वार कबन्धराक्षस वि-राम जगज्जन कल्मषार्नवो त्तारकनाम! भद्रगिरि-दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 1 ॥ रामविशाल विक्रम पराजित भार्गवराम सद्गुण स्तोम पराङ्गनाविमुख सुव्रत काम विनील नीरद श्याम ककुत्ध्सवंश कलशाम्भुधिसोम सुरारिदोर्भलो द्धाम विराम भद्रगिरि - दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 2 ॥ अगणित सत्यभाष, शरणागतपोष, दयालसज्घरी विगत समस्तदोष, पृथिवीसुरतोष, त्रिलोक पूतकृ द्गग नधुनीमरन्द पदकञ्ज विशेष मणिप्रभा धग द्धगित विभूष भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 3 ॥ रङ्गदरातिभङ्ग, खग राजतुरङ्ग, विपत्परम्परो त्तुङ्ग तमःपतङ्ग, परि तोषितरङ्ग, दयान्तरङ्ग स त्सङ्ग धरात्मजा हृदय सारसभृङ्ग निशाचराब्जमा तङ्ग, शुभाङ्ग, भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिथी. ॥ 4 ॥ श्रीद सनन्दनादि मुनिसेवित पाद दिगन्तकीर्तिसं पाद समस्तभूत परिपाल विनोद विषाद वल्लि का च्छेद धराधिनाथकुल सिन्धुसुधामयपाद नृत्तगी तादि विनोद भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 5 ॥ आर्युल कॆल्ल म्रॊक्किविन ताङ्गुडनै रघुनाध भट्टरा रार्युल कञ्जलॆत्ति कवि सत्तमुलन् विनुतिञ्चि कार्य सौ कर्य मॆलर्पनॊक्क शतकम्बॊन गूर्चि रचिन्तुनेडुता त्पर्यमुनन् ग्रहिम्पुमिदि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 6 ॥ मसकॊनि रेङ्गुबण्ड्लुकुनु मौक्तिकमुल् वॆलवोसिनट्लुदु र्व्यसनमुजॆन्दि काव्यमु दुरात्मुलकिच्चितिमोस मय्यॆ ना रसनकु~ं बूतवृत्तिसुक रम्बुग जेकुरुनट्लु वाक्सुधा रसमुलुचिल्क बद्युमुख रङ्गमुनन्दुनटिम्प वय्यसं तसमु जॆन्दि भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 7 ॥ श्रीरमणीयहार यतसी कुसुमाभशरीर, भक्त मं दार, विकारदूर, परतत्त्वविहार त्रिलोक चेतनो दार, दुरन्त पातक वितान विदूर, खरादि दैत्यकां तार कुठार भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 8 ॥ दुरितलतालवित्र, खर दूषणकाननवीतिहॊत्र, भू भरणकलाविचित्र, भव बन्धविमोचनसूत्र, चारुवि स्फुरदरविन्दनेत्र, घन पुण्यचरित्र, विनीलभूरिकं धरसमगात्र, भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 9 ॥ कनकविशालचेल भवकानन शातकुठारधार स ज्जनपरिपालशील दिविजस्तुत सद्गुण काण्डकाण्ड सं जनित पराक्रमक्रम विशारद शारद कन्दकुन्द चं दन घनसार सारयश दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 10 ॥ श्री रघुवंश तोयधिकि शीतमयूखुडवैन नी पवि त्रोरुपदाब्जमुल् विकसितोत्पल चम्पक वृत्तमाधुरी पूरितवाक्प्रसूनमुल बूजलॊनर्चॆद जित्तगिम्पुमी तारकनाम भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 11 ॥ गुरुतरमैन काव्यरस गुम्भनकब्बुर मन्दिमुष्करुल् सरसुलमाड्कि सन्तसिल जूलुदुरोटुशशाङ्क चन्द्रिकां कुरमुल किन्दु कान्तमणि कोटिस्रविञ्चिन भङ्गिविन्ध्यभू धरमुन जाऱुने शिललु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 12 ॥ तरणिकुलेश नानुडुल दप्पुलु गल्गिन नीदुनाम स द्विरचितमैन काव्यमु पवित्रमुगादॆ वियन्नदीजलं बरगुचुवङ्कयैन मलिनाकृति बाऱिन दन्महत्वमुं दरमॆ गणिम्प नॆव्वरिकि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 13 ॥ दारुणपात काब्धिकि सदा बडबाग्नि भवाकुलार्तिवि स्तारदवानलार्चिकि सुधारसवृष्टि दुरन्त दुर्मता चारभयङ्क राटविकि जण्डकठोरकुठारधार नी तारकनाम मॆन्नुकॊन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 14 ॥ हरुनकु नव्विभीषणुनक द्रिजकुं दिरुमन्त्र राजमै करिकि सहल्यकुं द्रुपदकन्यकु नार्तिहरिञ्चुचुट्टमै परगिनयट्टि नीपतित पावननाममु जिह्वपै निरं तरमु नटिम्पजेयुमिक दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 15 ॥ मुप्पुन गालकिङ्करुलु मुङ्गिटवच्चिन वेल, रोगमुल् गॊप्परमैनचो गफमु कुत्तुक निण्डिनवेल, बान्धवुल् गप्पिनवेल, मीस्मरण गल्गुनॊ गल्गदॊ नाटि किप्पुडे तप्पकचेतु मीभजन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 16 ॥ परमदयानिधे पतितपावननाम हरे यटञ्चु सु स्धिरमतुलै सदाभजन सेयु महात्मुल पादधूलि ना शिरमुनदाल्तुमीरटकु जेरकुडञ्चु यमुण्डु किङ्करो त्करमुल कान बॆट्टुनट दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 17 ॥ अजुनकु तण्ड्रिवय्यु सनकादुलकुं बरतत्त्वमय्युस द्द्विजमुनिकोटिकॆल्लबर देतवय्यु दिनेशवंश भू भुजुलकु मेटिवय्युबरि पूर्णुडवै वॆलिगॊन्दुपक्षिरा ड्ध्वजमिमु ब्रस्तुतिञ्चॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 18 ॥ पण्डित रक्षकुं डखिल पापविमॊचनु डब्जसम्भवा खण्डल पूजितुण्डु दशकण्ठ विलुण्ठन चण्डकाण्डको दण्डकला प्रवीणुडवु तावक कीर्ति वधूटि कित्तुपू दण्डलु गाग ना कवित दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 19 ॥ श्रीरम सीतगाग निजसेवक बृन्दमु वीरवैष्णवा चार जवम्बुगाग विरजानदि गौतमिगा विकुण्ठ मु न्नारयभद्र शैलशिखराग्रमुगाग वसिञ्चु चेतनो द्धारकुडैन विष्णुडवु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 20 ॥ कण्टि नदीतटम्बुबॊडगण्टिनि भद्रनगाधिवासमुन् गण्टि निलातनूजनुरु कार्मुक मार्गणशङ्खचक्रमुल् गण्टिनि मिम्मु लक्ष्मणुनि गण्टि कृतार्धुड नैति नो जग त्कण्टक दैत्यनिर्धलन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 21 ॥ हलिकुनकुन् हलाग्रमुन नर्धमु सेकुरुभङ्गि दप्पिचे नलमट जॆन्दुवानिकि सुरापगलो जल मब्बिनट्लु दु र्मलिन मनोविकारियगु मर्त्युनि नन्नॊडगूर्चि नीपयिन् दलवु घटिम्पजेसितिवॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 22 ॥ कॊञ्जकतर्क वादमनु गुद्दलिचे बरतत्त्वभूस्धलिन् रञ्जिलद्रव्वि कङ्गॊननि रामनिधानमु नेडु भक्तिसि द्धाञ्जनमन्दुहस्तगत मय्यॆबली यनगा मदीयहृ त्कञ्जमुनन् वसिम्पुमिक दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 23 ॥ रामुङ्डु घोर पातक विरामुडु सद्गुणकल्पवल्लिका रामुडु षड्विकारजय रामुडु साधुजनावनव्रतो द्दामुङ्डु रामुडे परम दैवमु माकनि मी यडुङ्गु गॆं दामरले भुजिञ्चॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 24 ॥ चक्कॆरमानिवेमुदिन जालिनकैवडि मानवाधमुल् पॆक्कुरु ऒक्क दैवमुल वेमऱुगॊल्चॆदरट्ल कादया म्रॊक्किननीकु म्रॊक्कवलॆ मोक्ष मॊसङ्गिन नीवयीवलॆं दक्किनमाट लेमिटिकि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 25 ॥ 'रा' कलुषम्बुलॆल्ल बयलम्बडद्रोचिन 'मा'क वाटमै डीकॊनिप्रोवुचुनिक्क मनिधीयुतुलॆन्नञ्ददीय वर्णमुल् गैकॊनि भक्ति चे नुडुव~ङ्गानरु गाक विपत्परम्परल् दाकॊनुने जगज्जनुल दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 26 ॥ रामहरे ककुत्ध्सकुल रामहरे रघुरामरामश्री रामहरेयटञ्चु मदि रञ्जिल भेकगलम्बुलील नी नाममु संस्मरिञ्चिन जनम्बु भवम्बॆडबासि तत्परं धाम निवासुलौदुरट दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 27 ॥ चक्कॆर लप्पकुन् मिगुल जव्वनि कॆञ्जिगुराकु मोविकिं जॊक्कपुजुण्टि तेनियकु जॊक्कुलुचुङ्गन लेरु गाक ने डक्कट रामनाममधु रामृतमानुटकण्टॆ सौख्यामा तक्किनमाधुरी महिम दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 28 ॥ अण्डजवाह निन्नु हृदयम्बुननम्मिन वारि पापमुल् कॊण्डलवण्टिवैन वॆसगूलि नशिम्पक युन्नॆ सन्त ता खण्डलवैभवोन्नतुलु गल्गकमानुनॆ मोक्ष लक्ष्मिकै दण्डयॊसङ्गकुन्नॆ तुद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 29 ॥ चिक्कनिपालपै मिसिमि जॆन्दिन मीगड पञ्चदारतो मॆक्किनभङ्गि मीविमल मेचकरूप सुधारसम्बु ना मक्कुव पल्लेरम्बुन समाहित दास्यमु नेटिदो यिटन् दक्कॆनटञ्चु जुर्रॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 30 ॥ सिरुलिडसीत पीडलॆग जिम्मुटकुन् हनुमन्तुडार्तिसो दरुडु सुमित्रसूति दुरितम्बुलुमानुप राम नाममुं गरुणदलिर्प मानवुलगावग बन्निन वज्रपञ्जरो त्करमुगदा भवन्महिम दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 31 ॥ हलिकुलिशाङ्कुशध्वज शरासन शङ्खरथाङ्ग कल्पको ज्वलजलजात रेखलनु सांशमुलै कनुपट्टुचुन्न मी कलितपदाम्बुज द्वयमु गौतमपत्नि कॊसङ्गिनट्लु ना तलपुन जेर्चिकावगदॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 32 ॥ जलनिधिलोनदूऱि कुल शैलमुमीटि धरित्रिगॊम्मुनं दलवडमाटिरक्कसुनि यङ्गमुगीटिबलीन्द्रुनिन् रसा तलमुनमाटि पार्धिवक दम्बमुगूऱ्चिन मेटिराम ना तलपुननाटि रागदवॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 33 ॥ भण्डन भीमुडा र्तजन बान्धवुडुज्ज्वल बाणतूणको दण्डकलाप्रचण्ड भुज ताण्डवकीर्तिकि राममूर्तिकिन् रॆण्डव साटिदैवमिक लेडनुचुन् गडगट्टि भेरिका डाण्ड डडाण्ड डाण्ड निनदम्बु लजाण्डमुनिण्ड मत्तवे दण्डमु नॆक्कि चाटॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 34 ॥ अवनिज कन्नुदोयि तॊगलन्दु वॆलिङ्गॆडु सोम, जानकी कुवलयनेत्र गब्बिचनुकॊण्डल नुण्डु घनम्ब मैधिली नवनव यौवनम्बनु वनम्बुकुन् मददन्ति वीवॆका दविलि भजिन्तु नॆल्लपुडु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 35 ॥ खरकरवंशजा विनु मुखण्डित भूतपिशाचढाकिनी ज्वर परितापसर्पभय वारकमैन भवत्पदाब्ज नि स्पुर दुरुवज्रपञ्जरमुजॊच्चिति, नीयॆड दीन मानवो ध्धर बिरुदङ्क मेमऱुकु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 36 ॥ जुर्रॆदमीक थामृतमु जुर्रॆदमीपदकञ्जतो यमुन् जुर्रॆद रामनाममुन जॊब्बिलुचुन्न सुधारसम्ब ने जुर्रॆद जुर्रुजुर्रु~ङ्ग रुचुल् गनुवारिपदम्बु गूर्पवे तुर्रुलतोडि पॊत्तिडक दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 37 ॥ घोरकृतान्त वीरभट कोटिकि गुण्डॆदिगुल् दरिद्रता कारपिशाच संहरण कार्यविनोदि विकुण्ठ मन्दिर द्वार कवाट भेदि निजदास जनावलिकॆल्ल प्रॊद्दु नी तारकनाम मॆन्नुकॊन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 38 ॥ विन्नपमालकिञ्चु रघुवीर नहिप्रतिलोकमन्दु ना कन्नदुरात्मुडुं बरम कारुणिकोत्तम वेल्पुलन्दु नी कन्न महात्मुडुं बतित कल्मषदूरुडु लेडुनाकुवि द्वन्नुत नीवॆनाकु गति दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 39 ॥ पॆम्पुनञ्दल्लिवै कलुष बृन्दसमागम मॊन्दुकुण्डु र क्षिम्पनुदण्ड्रिवै मॆयु वसिञ्चुदु शेन्द्रिय रोगमुल् निवा रिम्पनु वॆज्जवै कृप गुऱिञ्चि परम्बु दिरबुगा~ङ्ग स त्सम्पदलीय नीवॆगति दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 40 ॥ कुक्षिनजाण्डपं क्तुलॊन गूर्चि चराचरजन्तुकोटि सं रक्षणसेयु तण्ड्रिवि परम्पर नी तनयुण्डनैन ना पक्षमु नीवुगावलदॆ पापमु लॆन्नि यॊनर्चिनन् जग द्रक्षक कर्तवीवॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 41 ॥ गद्दरियो गिहृत्कमल गन्धर सानुभवम्बु~ञ्जॆन्दु पॆ न्निद्दवु गण्डु~ं देङ्टि थरणीसुत कौ~ङ्गिलिपञ्जरम्बुनन् मुद्दुलुगुल्कु राचिलुक मुक्तिनिधानमुरामरा~ङ्गदे तद्दयु नेङ्डु नाकडकु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 42 ॥ कलियुग मर्त्यकोटिनिनु गङ्गॊन रानिविधम्बो भक्तव त्सलतवहिम्पवो चटुल सान्द्रविपद्दश वार्धि ग्रुङ्कुचो बिलिचिन बल्क विन्तमऱपी नरुलिट्लनरादु गाक नी तलपुन लेदॆ सीत चॆऱ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 43 ॥ जनवर मीक थालि विनसै~म्पक कर्णमुलन्दु घण्टिका निनद विनोदमुल् सुलुपुनीचुनकुन् वरमिच्चिनावु नि न्ननयमुनम्मि कॊल्चिन महात्मुनकेमि यॊसङ्गु दोसनं दननुत माकॊसङ्गुमय दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 44 ॥ पापमु लॊन्दुवेल रणपन्नग भूत भयज्वारादुलन् दापद नॊन्दुवेल भरताग्रज मिम्मु भजिञ्चुवारिकिन् ब्रापुग नीवुदम्मु डिरुपक्कियलन् जनि तद्वित्ति सं तापमु माम्पि कातुरट दाशरथी करुणापयोनिधि. ॥ 45 ॥ अगणित जन्मकर्मदुरि ताम्बुधिलो बहुदुःखवीचिकल् दॆगिपडवीडलेक जगतीधर नीपदभक्ति नावचे दगिलि तरिम्पगोरिति बदम्पबडि नदु भयम्भु माम्पवे तगदनि चित्तमं दिडक दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 46 ॥ नेनॊनरिञ्चु पापमुल नेकमुलैननु नादुजिह्वकुं बानकमय्यॆमीपरम पावननाममुदॊण्टि चिल्करा माननुगावुमन्न तुदि माटकु सद्गति जॆन्दॆगावुनन् दानि धरिम्पगोरॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 47 ॥ परधनमुल् हरिञ्चि परभामलनण्टि परान्न मब्बिनन् मुरिपम कानिमीञ्दनगु मोसमॆऱुङ्गदु मानसम्बु स्तरमदिकालकिङ्कर गदाहति पाल्पडनीक मम्मु नेदु तऱिदरिजेर्चि काचॆदवॊ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 48 ॥ चेसिति घोरकृत्यमुलु चेसिति भागवतापचारमुल् चेसिति नन्यदैवमुल~ं जेरि भजिञ्चिन वारिपॊन्दु ने~ं जेसिन नेरमुल् दल~ञ्चि चिक्कुल~म्बॆट्टकुमय्ययय्य नी दासुङ्डनय्य भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 49 ॥ परुल धनम्बु~ञ्जूचिपर भामलजूचि हरिम्पगोरु म द्गुरुतरमानसं बनॆडु दॊङ्गनुबट्टिनिरूढदास्य वि स्फुरितविवेक पाशमुल~ं जुट्टि भवच्चरणम्बने मरु त्तरुवुनगट्टिवेयग दॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 50 ॥ सललित रामनाम जपसार मॆऱुङ्गनु गाशिकापुरी निलयुडगानुमीचरण नीरजरेणु महाप्रभावमुं दॆलियनहल्यगानु जगतीवर नीदगु सत्यवाक्यमुं दलपग रावणासुरुनि तम्मुडगानु भवद्विलासमुल् दलचिनुतिम्प नातरमॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 51 ॥ पातकुलैन मीकृपकु बात्रुलु कारॆतलञ्चिचूड ज ट्रातिकिगल्गॆ बावन मरातिकि राज्यसुखम्बुगल्गॆ दु र्जातिकि बुण्यमब्बॆगपि जातिमहत्त्वमुनॊन्दॆगावुनं दातव यॆट्टिवारलकु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 52 ॥ मामक पातक वज्रमु म्राम्पनगण्यमु चित्रगुप्तुले येमनि व्रातुरो? शमनुडेमि विधिञ्चुनॊ? कालकिङ्कर स्तोम मॊनर्चिटेमॊ? विनजॊप्पड दिन्तकमुन्नॆदीनचिं तामणि यॊट्लु गाचॆदवॊ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 53 ॥ दासिन चुट्टूमा शबरि? दानि दयामति नेलिनावु; नी दासुनि दासुडा? गुहुडु तावकदास्य मॊसङ्गिनावु ने जेसिन पापमो! विनुति चेसिनगाववु गावुमय्य! नी दासुललोन नेनॊकङ्ड दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 54 ॥ दीक्षवहिञ्चि नाकॊलदि दीनुल नॆन्दऱि गाचितो जग द्रक्षक तॊल्लिया द्रुपद राजतनूज तलञ्चिनन्तने यक्षयमैन वल्वलिडि तक्कट नामॊऱजित्तगिञ्चि प्रत्यक्षमु गाववेमिटिकि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 55 ॥ नीलघनाभमूर्तिवगु निन्नु गनुङ्गॊनिकोरि वेडिनन् जालमुसेसि डागॆदवु संस्तुति कॆक्किन रामनाम मे मूलनु दाचुकोगलवु मुक्तिकि ब्रापदि पापमूलकु द्दालमुगादॆ मायॆडल दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 56 ॥ वलदु पराकु भक्तजनवत्सल नी चरितम्बु वम्मुगा वलदु पराकु नीबिरुदु वज्रमुवण्टिदि गान कूरके वलदु पराकु नादुरित वार्धिकि दॆप्पवुगा मनम्बुलो दलतुमॆका निरन्तरमु दाशरथी करुनापयोनिधी. ॥ 57 ॥ तप्पुलॆऱुङ्ग लेक दुरितम्बुलु सेसितिनण्टि नीवुमा यप्पवुगावु मण्टि निकनन्युलकुन् नुदुरण्टनण्टिनी कॊप्पिदमैन दासजनु लॊप्पिन बण्टुकु बटवण्टि ना तप्पुल कॆल्ल नीवॆगति दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 58 ॥ इतडु दुरात्मुडञ्चुजनु लॆन्न~ङ्ग नाऱडि~ङ्गॊण्टिनेनॆपो पतितुङ्ड नण्टिनो पतित पावनमूर्तिवि नीवुगल्ल ने नितिरुल वेङ्डनण्टि निह मिच्चिननिम्मुपरम्बॊसङ्गुमी यतुलित रामनाम मधु राक्षर पालिनिरन्तरं बहृ द्गतमनि नम्मिकॊल्चॆदनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 59 ॥ अञ्चितमैननीदु करुणामृतसारमु नादुपैनि ब्रो क्षिञ्चिन जालुदाननिर सिञ्चॆदनादुरितम्बु लॆल्लदू लिञ्चॆद वैरिवर्ग मॆडलिञ्चॆद गोर्कुलनीदुबण्टनै दञ्चॆद, गालकिङ्करुल दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 60 ॥ जलनिधु लेडुनॊक्क मॊगि~ं जक्किकिदॆच्चॆशरम्बु, ऱातिनिं पलर~ङ्ग जेसॆनातिग~म्ब दाब्जपरागमु, नी चरित्रमुं जलजभवादि निर्जरुलु सन्नुति सेय~ङ्ग लेरु गावुनं दलपनगण्यमय्य यिदि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 61 ॥ कोतिकिशक्यमा यसुरकोटुल गॆल्वनु गाल्चॆबो निजं बातनिमेन शीतकरुडौट दवानलु डॆट्टिविन्त? मा सीतपतिव्रता महिमसेवकु भाग्यमुमीकटाक्षमु धातकु शक्यमा पॊगड दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 62 ॥ भूपललाम रामरघुपुङ्गवराम त्रिलोक राज्य सं स्धापनराम मोक्षफल दायक राम मदीय पापमुल् पापगदय्यराम निनु ब्रस्तुति चेसॆदनय्यराम सी तापतिराम भद्रगिरि दासरथी करुणापयोनिधी. ॥ 63 ॥ नीसहजम्बु सात्विकमु नीविडिपट्टु सुधापयोधि, प द्मासनुडात्मजुण्डु, गमलालयनी प्रियुरालु नीकु सिं हासनमिद्धरित्रि; गॊडुगाक समक्षुलु चन्द्रबास्करुल् नीसुमतल्पमादिफणि नीवॆ समस्तमु गॊल्चिनट्टि नी दासुल भाग्यमॆट्टिदय दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 64 ॥ चरणमु सोकिनट्टि शिलजव्वनिरूपगु टॊक्कविन्त, सु स्धिरमुग नीटिपै गिरुलु देलिन दॊक्कटि विन्तगानि मी स्मरण दनर्चुमानवुलु सद्गति जॆन्दिन दॆन्तविन्त? यी धरनु धरात्मजारमण दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 65 ॥ दैवमु तल्लिदण्ड्रितगु दात गुरुण्डु सखुण्डु निन्नॆ का भावन सेयुचुन्नतऱि पापमुलॆल्ल मनोविकार दु र्भावितुजेयुचुन्नविकृपामतिवैननु कावुमी जग त्पावनमूर्ति भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 66 ॥ वासव राज्यभोग सुख वार्धिनि देलु प्रभुत्वमब्बिना यासकुमेर लेदु कनकाद्रिसमान धनम्बुगूर्चिनं गासुनु वॆण्टरादु कनि कानक चेसिन पुण्यपापमुल् वीसरबोव नीवु पदिवेलकु जालु भवम्बुनॊल्ल नी दासुनिगाग नेलुकॊनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 67 ॥ सूरिजनुल् दयापरुलु सूनृतवादु ललुब्धमानवुल् वेरपतिप्रताङ्गनलु विप्रुलु गोवुलु वेदमुल् महा भारमुदाल्पगा जनुलु पावनमैन परोपकार स त्कार मॆऱुङ्गुले रकट दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 68 ॥ वारिचरावतारमु वारिधिलो जॊऱबाऱि क्रोध वि स्तारगुडैन या निगमतस्करवीर निशाचरेन्द्रुनिं जेरि वधिञ्चि वेदमुल चिक्कॆडलिञ्चि विरिञ्चिकि महो दारतनिच्चितीवॆगद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 69 ॥ करमनुर क्तिमन्दरमु गव्वमुगा नहिराजुद्राडुगा दॊरकॊन देवदानवुलु दुग्धपयोधिमथिञ्चुचुन्नचो धरणिचलिम्पलोकमुलु तल्लडमन्दग गूर्ममै धरा धरमु धरिञ्चितीवॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 70 ॥ धारुणि जापजुट्टिन विधम्बुनगैकॊनि हेमनेत्रुड व्वारिधिलोनदागिननु वानिवधिञ्चि वराहमूर्तिवै धारुणिदॊण्टिकै वडिनि दक्षिणशृङ्गमुन धरिञ्चि वि स्तार मॊनर्चितीवे कद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 71 ॥ पॆटपॆटनुक्कु कम्बमुन भीकरदन्त नखान्तर प्रभा पटलमु गप्प नुप्पतिलि भण्डनवीधि नृसिंहभीकर स्फुटपटुशक्ति हेमकशिपु विदलिञ्चि सुरारिपट्टि नं तटगृपजूचितीवॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 72 ॥ पदयुगलम्बु भूगगन भागमुल वॆसनूनि विक्रमा स्पदमगुनब्बलीन्द्रुनॊक पादमुनन्दल क्रिन्दनॊत्तिमे लॊदवजगत्त्रयम्बु बुरु हूतुनिकिय्यवटुण्डवैनचि त्सदमलमूर्ति वीवॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 73 ॥ इरुवदियॊक्कमाऱु धरणीशुल नॆल्लवधिञ्चि तत्कले बर रुधिर प्रवाहमुन बैतृकतर्पण मॊप्पजेसि भू सुरवरकोटिकि मुदमु सॊप्पड भार्गवराममूर्तिवै धरणिनॊसङ्गिती वॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 74 ॥ दुरमुन दाटकन्दुनिमि धूर्जटिविल् दुनुमाडिसीतनुं बरिणयमन्दि तण्ड्रिपनुप घन काननभूमि केगि दु स्तरपटुचण्ड काण्डकुलिशाहति रावणकुम्भकर्ण भू धरमुल गूल्चिती वॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 75 ॥ अनुपमयादवान्वयसु धाब्धिसुधानिधि कृष्णमूर्तिनी कनुजुडुगाजनिञ्चि कुजनावलिनॆल्ल नडञ्चि रोहिणी तनयुडनङ्ग बाहुबल दर्पमुन बलराम मूर्तिवै तनरिन वेल्पवीवॆकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 76 ॥ सुरलुनुतिम्पगा द्रिपुर सुन्दरुल वरियिम्पबुद्धरू परयग दाल्चितीवु त्रिपुरासुरकोटि दहिञ्चुनप्पुडा हरुनकुदोडुगा वरश रासन बाणमुखो ग्रसाधनो त्कर मॊनरिञ्चितीवुकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 77 ॥ सङ्करदुर्गमै दुरित सङ्कुलमैन जगम्बुजूचि स र्वङ्कषलील नु त्तम तुरङ्गमुनॆक्कि करासिबूनि वी राङ्कविलास मॊप्प गलि काकृत सज्जनकोटिकि निरा तङ्क मॊनर्चितीवुकद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 78 ॥ मनमुननूहपोषणलु मर्वकमुन्नॆ कफादिरोगमुल् दनुवुननण्टि मेनिबिगि दप्पकमुन्नॆनरुण्डु मोक्ष सा धन मॊनरिम्प~ङ्गावलयु~ं दत्त्वविचारमु मानियुण्डुट ल्तनुवुनकु विरोधमिदि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 79 ॥ मुदमुन काटपट्टुभव मोहमद्व दिरदाङ्कुशम्बु सं पदल कॊटारु कोरिकल पण्ट परम्बुन कादि वैरुल न्नदन जयिञ्चुत्रोव विपदब्धिकिनावगदा सदाभव त्सदमलनामसंस्मरण दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 80 ॥ दुरित लतानुसार भय दुःख कदम्बमु रामनामभी करतल हेतिचे~ं दॆगि वकावकलै चनकुण्ड नेर्चुने दरिकॊनि मण्डुचुण्डु शिख दार्कॊनिन शलबादिकीटको त्करमु विलीनमैचनवॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 81 ॥ हरिपदभक्तिनिन्द्रियज यान्वितुडुत्तमुङ्डिन्द्रिमम्बुलन् मरुगक निल्पनूदिननु मध्यमुङ्डिन्द्रियपारश्युडै परगिनचो निकृष्टुडनि पल्कग दुर्मतिनैन नन्नु ना दरमुन नॆट्लुकाचॆदवॊ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 82 ॥ वनकरिचिक्कु मैनसकु पाचविकिं जॆडिपोयॆ मीनुता विनिकिकि~ञ्जिक्कॆ~ञ्जिल्वगनु वेञ्दुऱु~ं जॆन्दॆनु लेल्लु ताविलो मनिकिनशिञ्चॆ देटितर मायिरुमूङ्टिनि गॆल्वनै दुसा धनमुलनी वॆ कावनगु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 83 ॥ करमुलुमीकुम्रॊक्कुलिड कन्नुलु मिम्मुनॆ चूड जिह्व मी स्मरणदनर्पवीनुलुभ वत्कथलन् विनुचुण्डनास मी यऱुतुनु बॆट्टुपूसरुल कासगॊनं बरमार्थ साधनो त्करमिदि चेयवेकृपनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 84 ॥ चिरतरभक्ति नॊक्कतुलसीदल मर्पण चेयुवाडु खे चरगरु डोरग प्रमुख सङ्घमुलो वॆलुगन् सधा भवत् सुरुचिर धीन्द पादमुल बूजलॊनर्चिन वारिकॆल्लद त्पर मरचेतिधात्रिगद दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 85 ॥ भानुडु तूर्पुनन्दुगनु पुट्टिन~ं बावक चन्द्र तेजमुल् हीनत जॆन्दिनट्लु जगदेक विराजितमैन नी पद ध्यानमु चेयुचुन्न~ं बर दैवमरीचुलडङ्गकुण्डु ने दानव गर्व निर्दलन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 86 ॥ नीमहनीयतत्त्व रस निर्ण यबोध कथामृताब्धिलो दामुनुग्रुङ्कुलाडकवृ थातनुकष्टमुजॆन्दि मानवुं डी महिलोकतीर्थमुल नॆल्ल मुनिङ्गिन दुर्विकार हृ तामसपङ्कमुल् विदुनॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 87 ॥ नीमहनीयतत्त्व रस निर्ण यबोध कथामृताब्धिलो दामुनुग्रुङ्कुलाडकवृ थातनुकष्टमुजॆन्दि मानवुं डी महिलोकतीर्थमुल नॆल्ल मुनिङ्गिन दुर्विकार हृ तामसपङ्कमुल् विदुनॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 88 ॥ काञ्चन वस्तुसङ्कलित कल्मष मग्नि पुटम्बु बॆट्टॆवा रिञ्चिनरीति नात्मनिगिडिञ्चिन दुष्कर दुर्मलत्रयं बञ्चित भ क्तियोग दह नार्चिञ्दगुल्पक पायुने कन त्काञ्चनकुण्डलाभरण दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 89 ॥ नीसति पॆक्कु गल्मुलिडनेर्पिरि, लोक मकल्मषम्बुगा नीसुत सेयु पावनमु निर्मित कार्यधुरीण दक्षुडै नीसुतुडिच्चु नायुवुलु निन्न भुजिञ्चिन~ं गल्गकुण्डुने दासुलकीप्सि तार्थमुल दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 90 ॥ वारिजपत्रमन्दिडिन वारिविधम्बुन वर्तनीयमं दारय रॊम्पिलोन दनु वण्टनि कुम्मरपुर्वुरीति सं सारमुन मॆलङ्गुचु विचारडैपरमॊन्दुगादॆस त्कार मॆऱिङ्गि मानवुडु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 91 ॥ ऎक्कडि तल्लिदण्ड्रि सुतुलॆक्कडि वारु कलत्र बान्धवं बॆक्कड जीवुङ्डॆट्टि तनु वॆत्तिन बुट्टुनु बोवुचुन्न वा डॊक्कडॆपाप पुणय फल मॊन्दिन नॊक्कडॆ कानराडुवे ऱॊक्कडु वॆण्टनण्टिभव मॊल्लनयाकृप जूडुवय्यनी टक्करि मायलन्दिडक दाशरथी करुणा पयोनिधी. ॥ 92 ॥ दॊरसिनकायमुल्मुदिमि तोचिन~ञ्जूचिप्रभुत्वमुल्सिरु ल्मॆऱपुलुगागजूचिमऱि मेदिनिलोञ्दमतोडिवारुमुं दरुगुटजूचिचूचि तॆगु नायुवॆऱुङ्गक मोहपाशमु लरुगनिवारिकेमिगति दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 93 ॥ सिरिगलनाङ्डु मैमऱचि चिक्किननाङ्डुदलञ्चि पुण्यमुल् पॊरि~म्बॊरि सेयनैतिननि पॊक्किन~ं गल्गु नॆगालिचिच्चुपै~ं गॆरलिन वेलञ्दप्पिकॊनि कीड्पडु वेल जलम्बु गोरि त त्तरमुन~ं द्रव्विनं गलदॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 94 ॥ जीवनमिङ्क~ं बङ्कमुन जिक्किन मीनु चलिम्पकॆन्तयु दावुननिल्चि जीवनमॆ दद्दयु~ं गोरुविधम्बु चॊप्पडं दावलमैन~ङ्गानि गुऱि तप्पनिवाङ्डु तरिञ्चुवाङ्डया तावकभक्तियो गमुन दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 95 ॥ सरसुनिमानसम्बु सर सज्ञुडॆरुङ्गुनु मुष्कराधमुं डॆऱि~ङ्गिग्रहिञ्चुवाडॆ कॊल नेकनिसमु~ं गागदुर्दुरं बरय~ङ्ग नेर्चुनॆट्लु विक चाब्दमरन्द रसैक सौरभो त्करमुमिलिन्द मॊन्दुक्रिय दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 96 ॥ नो~ञ्चिनतल्लिदण्ड्रिकि~ं दनूभवुङ्डॊक्कडॆचालु मेटिचे चा~ञ्चनिवाडु वेऱॊकङ्डु चाचिन लेदन किच्चुवाङ्डुनो रा~ञ्चिनिजम्बकानि पलु काडनिवाङ्डु रणम्बुलोन मेन् दाचनिवाङ्डु भद्रगिरि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 97 ॥ श्रीयुतजानकीरमण चिन्नयरूप रमेशराम ना रायण पाहिपाहियनि ब्रस्तुति~ं जेसिति नामनम्बुनं बायक किल्बिषव्रज वि पाटनमन्द~ङ्ग जेसि सत्कला दायि फलम्बुनाकियवॆ दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 98 ॥ ऎन्तटिपुण्यमो शबरि यॆङ्गिलिगॊण्टिवि विन्तगादॆ नी मन्तन मॆट्टिदो युडुत मैनिक राग्र नखाङ्कुरम्बुलन् सन्तसमन्द~ं जेसितिवि सत्कुलजन्ममु लेमि लॆक्क वे दान्तमुगादॆ नी महिम दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 99 ॥ बॊङ्कनिवाङ्डॆयोग्युडरि बृन्दमु लॆत्तिन चोटजिव्वकुं जङ्कनिवाङ्डॆजोदु रभसम्बुन नर्थि करम्बुसा~ञ्चिनं गॊङ्कनिवाङ्डॆदात मिमु~ं गॊल्चिभजिञ्चिन वाङ्डॆ पोनिरा तङ्क मनस्कु~ं डॆन्न गनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 100 ॥ भ्रमरमुगीटकम्बु~ं गॊनि पाल्पडि झाङ्करणो कारियै भ्रमरमुगानॊनर्चुननि पल्कुट~ं जेसि भवादि दुःखसं तमसमॆडल्चि भक्तिसहि तम्बुग जीवुनि विश्वरूप त त्त्वमुनधरिञ्चु टेमरुदु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 101 ॥ तरुवुलु पूचिकायलगु दक्कुसुमम्बुलु पूजगाभव च्चरणमु सोकिदासुलकु सारमुलो धनधान्यराशुलै करिभट घोटकाम्बर नकायमुलै विरजा समु त्तरण मॊनर्चुजित्रमिदि दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 102 ॥ पट्टितिभट्टरार्यगुरु पादमुलिम्मॆयिनूर्ध्व पुण्ड्रमुल् वॆट्टितिमन्त्रराज मॊडि बॆट्टिति नय्यमकिङ्क रालिकिं गट्टितिबॊम्ममीचरण कञ्जलन्दु~ं दलम्पुपॆट्टि बो दट्टिति~ं बापपुञ्जमुल दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 103 ॥ अल्लन लिङ्गमन्त्रि सुतुडत्रिज गोत्रजुडादिशाख कं चॆर्ल कुलोद्बवुं दम्ब्रसिद्धिडनै भवदङ्कितम्बुगा नॆल्लकवुल् नुतिम्प रचियिञ्चिति गोपकवीन्द्रुडन् जग द्वल्लभ नीकु दासुडनु दाशरथी करुणापयोनिधी. ॥ 104 ॥

    Shri Surya Shatakam (श्री सूर्य शतकम्)

    श्री सूर्य शतकम् (Shri Surya Shatakam) ॥ सूर्यशतकम् ॥ महाकविश्रीमयूरप्रणीतम् ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ जम्भारातीभकुम्भोद्भवमिव दधतः सान्द्रसिन्दूररेणुं रक्ताः सिक्ता इवौघैरुदयगिरितटीधातुधाराद्रवस्य । वर् सक्तैः आयान्त्या तुल्यकालं कमलवनरुचेवारुणा वो विभूत्यै भूयासुर्भासयन्तो भुवनमभिनवा भानवो भानवीयाः ॥ 1 ॥ भक्तिप्रह्वाय दातुं मुकुलपुटकुटीकोटरक्रोडलीनां लक्ष्मीमाक्रष्टुकामा इव कमलवनोद्धाटनं कुर्वते ये । कालाकारान्धकाराननपतितजगत्साध्वसध्वंसकल्याः कल्याणं वः क्रियासुः किसलयरुचयस्ते करा भास्करस्य ॥ 2 ॥ गर्भेष्वम्भोरुहाणां शिखरिषु च शिताग्रेषु तुल्यं पतन्तः प्रारम्भे वासरस्य व्युपरतिसमये चैकरूपास्तथैव । निष्पर्यायं प्रवृत्तास्त्रिभुवनभवनप्राङ्गणे पान्तु युष्मा- नूष्माणं सन्तताध्वश्रमजमिव भृशं बिभ्रतो ब्रध्नपादाः ॥ 3 ॥ प्रभ्रश्यत्युत्तरीयत्विषि तमसि समुद्दीक्ष्य वीतावृतीन्प्रा- ग्जन्तूंस्तन्तून्यथा यानतनु वितनुते तिग्मरोचिर्मरीचीन् । ते सान्द्रीभूय सद्यः क्रमविशददशाशादशालीविशालं शश्वत्सम्पादयन्तोऽम्बरममलमलं मङ्गलं वो दिशन्तु ॥ 4 ॥ न्यक्कुर्वन्नोषधीशे मुषितरुचि शुचेवौषधीः प्रोषिताभा भास्वद्ग्रावोद्गतेन प्रथममिव कृताभ्युद्गतिः पावकेन । पक्षच्छेदव्रणासृक्स्रुत इव दृषदो दर्शयन्प्रातरद्रे- राताम्रस्तीव्रभानोरनभिमतनुदे स्ताद्गभस्त्युद्गमो वः ॥ 5 ॥ शीर्णघ्राणाङ्घ्रिपाणीन्व्रणिभिरपघनैर्घर्घराव्यक्तघोषान् दीर्घाघ्रातानघौघै पुनरपि घटयत्येक उल्लाघयन् यः । घर्मांशोस्तस्य वोऽन्तर्द्विगुणघनघृणानिघ्ननिर्विघ्नवृत्ते- र्दत्तार्घाः सिद्धसङ्घैर्विदधतु घृणयः शीघ्रमंहोविधातम् ॥ 6 ॥ बिभ्राणा वामनत्वं प्रथममथ तथैवांशवः प्रांशवो वः क्रान्ताकाशान्तरालास्तदनु दशदिशः पूरयन्तस्ततोऽपि । ध्वान्तादाच्छिद्य देवद्विष इव बलितो विश्वमाश्वश्नुवानाः वर् देवद्रुह कृच्छ्राण्युच्छ्रायहेलोपहसितहरयो हारिदश्वा हरन्तु ॥ 7 ॥ उद्गाढेनारुणिम्ना विदधति बहुलं येऽरुणस्यारुणत्वं मूर्धोद्धूतौ खलीनक्षतरुधिररुचो ये रथाश्वाननेषु । शैलानां शेखरत्वं श्रितशिखरिशिखास्तन्वते ये दिशन्तु वर् शिखरशिखाः प्रेङ्खन्तः खे खरांशोः खचितदिनमुखास्ते मयूखाः सुखं वः ॥ 8 ॥ दत्तानन्दाः प्रजानां समुचितसमयाकृष्टसृष्टैः पयोभिः वर् अक्लिष्टसृष्टैः पूर्वाह्णे विप्रकीर्णा दिशि दिशि विरमत्यह्नि संहारभाजः । दीप्तांशोर्दीर्घदुःखप्रभवभवभयोदन्वदुत्तारनावो गावो वः पावनानां परमपरिमितां प्रीतिमुत्पादयन्तु ॥ 9 ॥ बन्धध्वंसैकहेतुं शिरसि नतिरसाबद्धसन्ध्याञ्जलीनां लोकानां ये प्रबोधं विदधति विपुलाम्भोजखण्डाशयेव । युष्माकं ते स्वचित्तप्रथितपृथुतरप्रार्थनाकल्पवृक्षाः वर् प्रथिम कल्पन्तां निर्विकल्पं दिनकरकिरणाः केतवः कल्मषस्य ॥ 10 ॥ धारा रायो धनायापदि सपदि करालम्बभूताः प्रपाते तत्त्वालोकैकदीपास्त्रिदशपतिपुरप्रस्थितौ वीथ्य एव । निर्वाणोद्योगियोगिप्रगमनिजतनुद्वारि वेत्रायमाणा- स्त्रायन्तां तीव्रभानोर्दिवसमुखसुखा रश्मयः कल्मषाद्वः ॥ 11 ॥ वर् तीव्रभासः वर् कश्मलाद्वः प्राचि प्रागाचरन्त्योऽनतिचिरमचले चारुचूडामणित्वं मुञ्चन्त्यो रोचनाम्भः प्रचुरमिव दिशामुच्चकैश्चर्चनाय । चाटूत्कैश्चक्रनाम्नां चतुरमविचलैर्लोचनैरर्च्यमाना- वर् सुचिरं श्चेष्टन्तां चिन्तितानामुचितमचरमाश्चण्डरोचीरुचो वः ॥ 12 ॥ एकं ज्योतिर्दृशौ द्वे त्रिजगति गदितान्यब्जजास्यैश्चतुर्भि- र्भूतानां पञ्चमं यान्यलमृतुषु तथा षट्सु नानाविधानि । युष्माकं तानि सप्तत्रिदशमुनिनुतान्यष्टदिग्भाञ्जि भानो- र्यान्ति प्राह्णे नवत्वं दश दधतु शिवं दीधितीनां शतानि ॥ 13 ॥ वर् ददतु आवृत्तिभ्रान्तविश्वाः श्रममिव दधतः शोषिणः स्वोष्मणेव ग्रीष्मे दावाग्नितप्ता इव रसमसकृद्ये धरित्र्या धयन्ति । ते प्रावृष्यात्तपानातिशयरुज इवोद्वान्ततोया हिमर्तौ मार्तण्डस्याप्रचण्डाश्चिरमशुभभिदेऽभीषवो वो भवन्तु ॥ 14 ॥ तन्वाना दिग्वधूनां समधिकमधुरालोकरम्यामवस्था- मारुढप्रौढिलेशोत्कलितकपिलिमालङ्कृतिः केवलैव । उज्जृम्भाम्भोजनेत्रद्युतिनि दिनमुखे किञ्चिदुद्भिद्यमाना श्मश्रुश्रेणीव भासां दिशतु दशशती शर्म घर्मत्विषो वः ॥ 15 ॥ मौलीन्दोर्मैष मोषीद्द्युतिमिति वृषभाङ्केन यः शङ्किनेव प्रत्यग्रोद्घाटिताम्भोरुहकुहरगुहासुस्थितेनेव धात्रा । कृष्णेन ध्वान्तकृष्णस्वतनुपरिभवत्रस्नुनेव स्तुतोऽलं त्राणाय स्तात्तनीयानपि तिमिररिपोः स त्विषामुद्गमो वः ॥ 16 ॥ विस्तीर्णं व्योम दीर्घाः सपदि दश दिशो व्यस्तवेलाम्भसोऽब्धीन् कुर्वद्भिर्दृश्यनानानगनगरनगाभोगपृथ्वीं च पृथ्वीम् । पद्मिन्युच्छ्वास्यते यैरुषसि जगदपि ध्वंसयित्वा तमिस्रा- मुस्रा विस्रंसयन्तु द्रुतमनभिमतं ते सहस्रत्विषो वः ॥ 17 ॥ वर् विस्रावयन्तु अस्तव्यस्तत्वशून्यो निजरुचिरनिशानश्वरः कर्तुमीशो विश्वं वेश्मेव दीपः प्रतिहततिमिरं यः प्रदेशस्थितोऽपि । दिक्कालापेक्षयासौ त्रिभुवनमटतस्तिग्मभानोर्नवाख्यां यातः शातक्रतव्यां दिशि दिशतु शिवं सोऽर्चिषामुद्गमो वः ॥ 18 ॥ मागान्म्लानिं मृणाली मृदुरिति दययेवाप्रविष्टोऽहिलोकं लोकालोकस्य पार्श्वं प्रतपति न परं यस्तदाख्यार्थमेव । ऊर्ध्वं ब्रह्माण्डखण्डस्फुटनभयपरित्यक्तदैर्घ्यो द्युसीम्नि स्वेछावश्यावकाशावधिरवतु स वस्तापनो रोचिरोघः ॥ 19 ॥ अश्यामः काल एको न भवति भुवनान्तोऽपि वीतेऽन्धकारे वर् वीतान्धकारः सद्यः प्रालेयपादो न विलयमचलश्चन्द्रमा अप्युपैति । बन्धः सिद्धाञ्जलीनां न हि कुमुदवनस्यापि यत्रोज्जिहाने तत्प्रातः प्रेक्षणीयं दिशतु दिनपतेर्धाम कामाधिकं वः ॥ 20 ॥ यत्कान्तिं पङ्कजानां न हरति कुरुते प्रत्युताधिक्यरम्यां वर् प्रत्युतातीव रम्यां नो धत्ते तारकाभां तिरयति नितरामाशु यन्नित्यमेव । वर् नाधत्ते कर्तुं नालं निमेषं दिवसमपि परं यत्तदेकं त्रिलोक्या- श्चक्षुः सामान्यचक्षुर्विसदृशमघभिद्भास्वतस्तान्महो वः ॥ 21 ॥ क्ष्मां क्षेपीयः क्षपाम्भःशिशिरतरजलस्पर्शतर्षादृतेव द्रागाशा नेतुमाशाद्विरदकरसरःपुष्कराणीव बोधम् । प्रातः प्रोल्लङ्घ्य विष्णोः पदमपि घृणयेवातिवेगाद्दवीय- स्युद्दाम द्योतमाना दहतु दिनपतेर्दुर्निमित्तं द्युतिर्वः ॥ 22 ॥ नो कल्पापायवायोरदयरयदलत्क्ष्माधरस्यापि गम्या वर् शम्या गाढोद्गीर्णोज्ज्वलश्रीरहनि न रहिता नो तमःकज्जलेन । प्राप्तोत्पत्तिः पतङ्गान्न पुनरुपगता मोषमुष्णत्विषो वो वर्तिः सैवान्यरूपा सुखयतु निखिलद्वीपदीपस्य दीप्तिः ॥ 23 ॥ निःशेषाशावपूरप्रवणगुरुगुणश्लाघनीयस्वरूपा पर्याप्तं नोदयादौ दिनगमसमयोपप्लवेऽप्युन्नतैव । अत्यन्तं यानभिज्ञा क्षणमपि तमसा साकमेकत्र वस्तुं ब्रध्नस्येद्धा रुचिर्वो रुचिरिव रुचितस्याप्तये वस्तुनोस्तु ॥ 24 ॥ वर् चिरुरस्य, रुचिरस्य विभ्राणः शक्तिमाशु प्रशमितबलवत्तारकौर्जित्यगुर्वीं कुर्वाणो लीलयाधः शिखिनमपि लसच्चन्द्रकान्तावभासम् । आदध्यादन्धकारे रतिमतिशयिनीमावहन्वीक्षणानां वर् आदेयादीक्षणानां बालो लक्ष्मीमपारामपर इव गुहोऽहर्पतेरातपो वः ॥ 25 ॥ ज्योत्स्नांशाकर्षपाण्डुद्युति तिमिरमषीशेषकल्माषमीष- ज्जृम्भोद्भूतेन पिङ्गं सरसिजरजसा सन्ध्यया शोणशोचिः । प्रातःप्रारम्भकाले सकलमपि जगच्चित्रमुन्मीलयन्ती कान्तिस्तीक्ष्णत्विषोऽक्ष्णां मुदमुपनयतात्तूलिकेवातुलां वः ॥ 26 ॥ आयान्ती किं सुमेरोः सरणिररुणिता पाद्मरागैः परागै- राहोस्वित्स्वस्य माहारजनविरचिता वैजयन्ती रथस्य । माञ्जिष्ठी प्रष्ठवाहावलिविधुतशिरश्चामराली नु लोकै- वर् चामरालीव राशङ्क्यालोकितैवं सवितुरघनुदे स्तात्प्रभातप्रभा वः ॥ 27 ॥ ध्वान्तध्वंसं विधत्ते न तपति रुचिमन्नातिरूपं व्यनक्ति न्यक्त्वं नीत्वापि नक्तं न वितरतितरां तावदह्नस्त्विषं यः । वर् न्यक्तामह्नि स प्रातर्मा विरंसीदसकलपटिमा पूरयन्युष्मदाशा- माशाकाशावकाशावतरणतरुणप्रक्रमोऽर्कप्रकाशः ॥ 28 ॥ तीव्रं निर्वाणहेतुर्यदपि च विपुलं यत्प्रकर्षेण चाणु प्रत्यक्षं यत्परोक्षं यदिह यदपरं नश्वरं शाश्वतं च । यत्सर्वस्य प्रसिद्धं जगति कतिपये योगिनो यद्विदन्ति ज्योतिस्तद्द्विप्रकारं सवितुरवतु वो बाह्यमाभ्यन्तरं च ॥ 29 ॥ रत्नानां मण्डनाय प्रभवति नियतोद्देशलब्धावकाशं वह्नेर्दार्वादि दग्धुं निजजडिमतया कर्तुमानन्दमिन्दोः । यच्च त्रैलोक्यभूषाविधिरघदहनं ह्लादि वृष्ट्याशु तद्वो वर् यत्तु बाहुल्योत्पाद्यकार्याधिकतरमवतादेकमेवार्कतेजः ॥ 30 ॥ मीलच्चक्षुर्विजिह्मश्रुति जडरसनं निघ्नितघ्राणवृत्ति स्वव्यापाराक्षमत्वक्परिमुषितमनः श्वासमात्रावशेषम् । विस्रस्ताङ्गं पतित्वा स्वपदपहरतादश्रियं वोऽर्कजन्मा वर् अप्रियं कालव्यालावलीढं जगदगद इवोत्थापयन्प्राक्प्रतापः ॥ 31 ॥ निःशेषं नैशमम्भः प्रसभमपनुदन्नश्रुलेशानुकारि स्तोकस्तोकापनीतारुणरुचिरचिरादस्तदोषानुषङ्गः । दाता दृष्टिं प्रसन्नां त्रिभुवननयनस्याशु युष्मद्विरुद्धं वध्याद्ब्रध्नस्य सिद्धाञ्जनविधिरपरः प्राक्तनोऽर्चिःप्रचारः ॥ 32 ॥ भूत्वा जम्भस्य भेत्तुः ककुभि परिभवारम्भभूः शुभ्रभानो- वर् स्थित्वा र्बिभ्राणा बभ्रुभावं प्रसभमभिनवाम्भोजजृम्भाप्रगल्भा । भूषा भूयिष्ठशोभा त्रिभुवनभवनस्यास्य वैभाकरी प्राग्- विभ्रान्ता भ्राजमाना विभवतु विभवोद्भूतये सा विभा वः ॥ 33 ॥ वर् निर्भान्ति, विभ्रान्ति संसक्तं सिक्तमूलादभिनवभुवनोद्यानकौतूहलिन्या यामिन्या कन्ययेवामृतकरकलशावर्जितेनामृतेन । अर्कालोकः क्रियाद्वो मुदमुदयशिरश्चक्रवालालवाला- दुद्यन्बालप्रवालप्रतिमरुचिरहःपादपप्राक्प्ररोहः ॥ 34 ॥ भिन्नं भासारुणस्य क्वचिदभिनवया विद्रुमाणां त्विषेव त्वङ्न्नक्षत्ररत्नद्युतिनिकरकरालान्तरालं क्वचिच्च । नान्तर्निःशेषकृष्णश्रियमुदधिमिव ध्वान्तराशिं पिबन्स्ता- दौर्वः पूर्वोऽप्यपूर्वोऽग्निरिव भवदघप्लुष्टयेऽर्कावभासः ॥ 35 ॥ गन्धर्वैर्गद्यपद्यव्यतिकरितवचोहृद्यमातोद्यवाद्यै- राद्यैर्यो नारदाद्यैर्मुनिभिरभिनुतो वेदवेद्यैर्विभिद्य । वर् वीतवेद्यैर्विविद्य, वेदविद्भिर्विभिद्य आसाद्यापद्यते यं पुनरपि च जगद्यौवनं सद्य उद्य- न्नुद्द्योतो द्योतितद्यौर्द्यतु दिवसकृतोऽसाववद्यानि वोऽद्य ॥ 36 ॥ आवानैश्चन्द्रकान्तैश्च्युततिमिरतया तानवात्तारकाणा- वर् आवान्तैः मेणाङ्कालोकलोपादुपहतमहसामोषधीनां लयेन । आरादुत्प्रेक्ष्यमाणा क्षणमुदयतटान्तर्हितस्याहिमांशो- राभा प्राभातिकी वोऽवतु न तु नितरां तावदाविर्भवन्ती ॥ 37 ॥ सानौ सा नौदये नारुणितदलपुनर्यौवनानां वनाना- वर् लसद्यौवनानां मालीमालीढपूर्वा परिहृतकुहरोपान्तनिम्ना तनिम्ना । भा वोऽभावोपशान्तिं दिशतु दिनपतेर्भासमाना समाना- राजी राजीवरेणोः समसमयमुदेतीव यस्या वयस्या ॥ 38 ॥ उज्जृम्भाम्भोरुहाणां प्रभवति पयसां या श्रिये नोष्णतायै पुष्णात्यालोकमात्रं न तु दिशति दृशां दृश्यमाना विधातम् । पूर्वाद्रेरेव पूर्वं दिवमनु च पुनः पावनी दिङ्मुखाना- वर् ततः मेनांस्यैनी विभासौ नुदतु नुतिपदैकास्पदं प्राक्तनी वः ॥ 39 ॥ वाचां वाचस्पतेरप्यचलभिदुचिताचार्यकाणां प्रपञ्चै- र्वैरञ्चानां तथोच्चारितचतुरृचां चाननानां चतुर्णाम् । वर् रुचिर उच्येतार्चासु वाच्यच्युतिशुचिचरितं यस्य नोच्चैर्विविच्य वर् अर्चास्ववाच्य प्राच्यं वर्चश्चकासच्चिरमुपचिनुतात्तस्य चण्डार्चिषो वः ॥ 40 ॥ वर् श्रियं मूर्ध्न्यद्रेर्धातुरागस्तरुषु किसलयो विद्रुमौघः समुद्रे वर् – किसलयाद्विद्रुमौघात्समुद्रे दिङ्मातङ्गोत्तमाङ्गेष्वभिनवनिहितः सान्द्रसिन्दूररेणुः । वर् विहितः, निहितात्सन्द्रसिन्दूररेणोः सीम्नि व्योम्नश्च हेम्नः सुरशिखरिभुवो जायते यः प्रकाशः शोणिम्नासौ खरांशोरुषसि दिशतु वः शर्म शोभैकदेशः ॥ 41 ॥ अस्ताद्रीशोत्तमाङ्गे श्रितशशिनि तमःकालकूटे निपीते याति व्यक्तिं पुरस्तादरुणकिसलये प्रत्युषःपारिजाते । उद्यन्त्यारक्तपीताम्बरविशदतरोद्वीक्षिता तीक्ष्णभानो- वर् रुचिरतरोद्वीक्षिता वर् तीव्रभासः र्लक्ष्मीर्लक्ष्मीरिवास्तु स्फुटकमलपुटापाश्रया श्रेयसे वः ॥ 42 ॥ वर् पुटोपाश्रय नोदन्वाञ्जन्मभूमिर्न तदुदरभुवो बान्धवाः कौस्तुभाद्या यस्याः पद्मं न पाणौ न च नरकरिपूरःस्थली वासवेश्म । तेजोरूपापरैव त्रिषु भुवनतलेष्वादधाना व्यवस्थां वर् त्रिभुवनभवने सा श्रीः श्रेयांसि दिश्यादशिशिरमहसो मण्डलाग्रोद्गता वः ॥ 43 ॥ ॥ इति द्युतिवर्णनम् ॥ वर् तेजोवर्णनम् ॥ अथ अश्ववर्णनम् ॥ रक्षन्त्वक्षुण्णहेमोपलपटलमलं लाघवादुत्पतन्तः पातङ्गाः पङ्ग्ववज्ञाजितपवनजवा वाजिनस्ते जगन्ति । येषां वीतान्यचिह्नोन्नयमपि वहतां मार्गमाख्याति मेरा- वुद्यन्नुद्दामदीप्तिर्द्युमणिमणिशिलावेदिकाजातवेदाः ॥ 44 ॥ प्लुष्टाः पृष्ठेंऽशुपातैरतिनिकटतया दत्तदाहातिरेकै- रेकाहाक्रान्तकृत्स्नत्रिदिवपथपृथुश्वासशोषाः श्रमेण । तीव्रोदन्यास्त्वरन्तामहितविहतये सप्तयः सप्तसप्ते- रभ्याशाकाशगङ्गाजलसरलगलावाङ्नताग्रानना वः ॥ 45 ॥ वर् गलवर्जिताग्राननाः मत्वान्यान्पार्श्वतोऽश्वान् स्फटिकतटदृषद्दृष्टदेहा द्रवन्ती व्यस्तेऽहन्यस्तसन्ध्येयमिति मृदुपदा पद्मरागोपलेषु । सादृश्यादृश्यमूर्तिर्मरकतकटके क्लिष्टसूता सुमेरो- र्मूर्धन्यावृत्तिलब्धध्रुवगतिरवतु ब्रध्नवाहावलिर्वः ॥ 46 ॥ वर् द्रुत हेलालोलं वहन्ती विषधरदमनस्याग्रजेनावकृष्टा स्वर्वाहिन्याः सुदूरं जनितजवजया स्यन्दनस्य स्यदेन । निर्व्याजं तायमाने हरितिमनि निजे स्फीतफेनाहितश्री- वर् स्फीतफेनास्मितश्रीः रश्रेयांस्यश्वपङ्क्तिः शमयतु यमुनेवापरा तापनी वः ॥ 47 ॥ मार्गोपान्ते सुमेरोर्नुवति कृतनतौ नाकधाम्नां निकाये वीक्ष्य व्रीडानतानां प्रतिकुहरमुखं किन्नरीणां मुखानि । सूतेऽसूयत्यपीषज्जडगति वहतां कन्धरार्धैर्वलद्भि- वर् कन्धराग्रैः र्वाहानां व्यस्यताद्वः सममसमहरेर्हेषितं कल्मषाणि ॥ 48 ॥ धुन्वन्तो नीरदालीर्निजरुचिहरिताः पार्श्वयोः पक्षतुल्या- स्तालूत्तानैः खलीनैः खचितमुखरुचश्च्योतता लोहितेन । उड्डीयेव व्रजन्तो वियति गतिवशादर्कवाहाः क्रियासुः क्षेमं हेमाद्रिहृद्यद्रुमशिखरशिरःश्रेणिशाखाशुका वः ॥ 49 ॥ ॥ इत्यश्ववर्णनम् ॥ ॥ अथ अरुणवर्णनम् ॥ प्रातः शैलाग्ररङ्गे रजनिजवनिकापायसंलक्ष्यलक्ष्मी- र्विक्षिप्तापूर्वपुष्पाञ्जलिमुडुनिकरं सूत्रधारायमाणः । यामेष्वङ्केष्विवाह्नः कृतरुचिषु चतुर्ष्वेव जातप्रतिष्ठा- वर् यातः प्रतिष्ठां मव्यात्प्रस्तावयन्वो जगदटनमहानाटिकां सूर्यसूतः ॥ 50 ॥ आक्रान्त्या वाह्यमानं पशुमिव हरिणा वाहकोऽग्र्यो हरीणां भ्राम्यन्तं पक्षपाताज्जगति समरुचिः सर्वकर्मैकसाक्षी । शत्रुं नेत्रश्रुतीनामवजयति वयोज्येष्ठभावे समेऽपि स्थाम्नां धाम्नां निधिर्यः स भवदघनुदे नूतनः स्तादनूरुः ॥ 51 ॥ दत्तार्घैर्दूरनम्रैर्वियति विनयतो वीक्षितः सिद्धसार्थैः वर् सिद्धसाध्यैः सानाथ्यं सारथिर्वः स दशशतरुचेः सातिरेकं करोतु । आपीय प्रातरेव प्रततहिमपयःस्यन्दिनीरिन्दुभासो यः काष्ठादीपनोऽग्रे जडित इव भृशं सेवते पृष्ठतोऽर्कम् ॥ 52 ॥ मुञ्चन्रश्मीन्दिनादौ दिनगमसमये संहरंश्च स्वतन्त्र- स्तोत्रप्रख्यातवीर्योऽविरतहरिपदाक्रान्तिबद्धाभियोगः । वर् वितत कालोत्कर्षाल्लघुत्वं प्रसभमधिपतौ योजयन्यो द्विजानां सेवाप्रीतेन पूष्णात्मसम इव कृतस्त्रायतां सोऽरुणो वः ॥ 53 ॥ वर् स्वसम शातः श्यामालतायाः परशुरिव तमोऽरण्यवह्नेरिवार्चिः वर् दाहे दवाभः प्राच्येवाग्रे ग्रहीतुं ग्रहकुमुदवनं प्रागुदस्तोऽग्रहस्तः । वर् प्राचीवाग्रे, ग्रहकुमुदरुचिं ऐक्यं भिन्दन्द्युभूम्योरवधिरिव विधातेव विश्वप्रबोधे वाहानां वो विनेता व्यपनयतु विपन्नाम धामाधिपस्य ॥ 54 ॥ पौरस्त्यस्तोयदर्तोः पवन इव पतत्पावकस्येव धूमो वर् पतन् विश्वस्येवादिसर्गः प्रणव इव परं पावनो वेदराशेः सन्ध्यानृत्योत्सवेच्छोरिव मदनरिपोर्नन्दिनान्दीनिनादः सौरस्याग्रे सुखं वो वितरतु विनतानन्दनः स्यन्दनस्य ॥ 55 ॥ वर् स्यन्दनो वः पर्याप्तं तप्तचामीकरकटकतटे श्लिष्टशीतेतरांशा- वासीदत्स्यन्दनाश्वानुकृतिमरकते पद्मरागायमाणः । वर् अश्वानुकृतमरकते यः सोत्कर्षां विभूषां कुरुत इव कुलक्ष्माभृदीशस्य मेरो- रेनांस्यह्नाय दूरं गमयतु स गुरुः काद्रवेयद्विषो वः ॥ 56 ॥ नीत्वाश्वान्सप्त कक्षा इव नियमवशं वेत्रकल्पप्रतोद- वर् कक्ष्या स्तूर्णं ध्वान्तस्य राशावितरजन इवोत्सारिते दूरभाजि । पूर्वं प्रष्ठो रथस्य क्षितिभृदधिपतीन्दर्शयंस्त्रायतां व- स्त्रैलोक्यास्थानदानोद्यतदिवसपतेः प्राक्प्रतीहारपालः ॥ 57 ॥ वज्रिञ्जातं विकासीक्षणकमलवनं भासि नाभासि वह्ने! वर् नो भासि तातं नत्वाश्वपार्श्वान्नय यम! महिषं राक्षसा वीक्षिताः स्थ । सप्तीन्सिञ्च प्रचेतः! पवन! भज जवं वित्तपावेदितस्त्वं वन्दे शर्वेति जल्पन्प्रतिदिशमधिपान्पातु पूष्णोऽग्रणीर्वः ॥ 58 ॥ पाशानाशान्तपालादरुण वरुणतो मा ग्रहीः प्रग्रहार्थं तृष्णां कृष्णस्य चक्रे जहिहि नहि रथो याति मे नैकचक्रः । योक्तुं युग्यं किमुच्चैःश्रवसमभिलषस्यष्टमं वृत्रशत्रो- वर् त्वाष्ट्रशत्रोः स्त्यक्तान्यापेक्षविश्वोपकृतिरिव रविः शास्ति यं सोऽवताद्वः ॥ 59 ॥ नो मूर्च्छाच्छिन्नवाञ्छः श्रमविवशवपुर्नैव नाप्यास्यशोषी पान्थः पथ्येतराणि क्षपयतु भवतां भास्वतोऽग्रेसरः सः । यः संश्रित्य त्रिलोकीमटति पटुतरैस्ताप्यमानो मयूखै- रारादारामलेखामिव हरितमणिश्यामलामश्वपङ्क्तिम् ॥ 60 ॥ वर् हरिततृण सीदन्तोऽन्तर्निमज्जज्जडखुरमुसलाः सैकते नाकनद्याः स्कन्दन्तः कन्दरालीः कनकशिखरिणो मेखलासु स्खलन्तः । दूरं दूर्वास्थलोत्का मरकतदृषदि स्थास्नवो यन्न याताः पूष्णोऽश्वाः पूरयंस्तैस्तदवतु जवनैर्हुङ्कृतेनाग्रगो वः ॥ 61 ॥ वर् प्रेरयन् हुङ्कृतैरग्रणीः ॥ इत्यरुणवर्णनम् ॥ वर् सूतवर्णनम् ॥ अथ रथवर्णनम् ॥ पीनोरःप्रेरिताभ्रैश्चरमखुरपुटाग्रस्थितैः प्रातरद्रा- वादीर्घाङ्गैरुदस्तो हरिभिरपगतासङ्गनिःशब्दचक्रः । उत्तानानूरुमूर्धावनतिहठभवद्विप्रतीपप्रणामः प्राह्णे श्रेयो विधत्तां सवितुरवतरन्व्योमवीथीं रथो वः ॥ 62 ॥ वर् प्रेयो ध्वान्तौघध्वंसदीक्षाविधिपटु वहता प्राक्सहस्रं कराणा- वर् विधिगुरु द्राक्सहस्रं मर्यम्णा यो गरिम्णः पदमतुलमुपानीयताध्यासनेन । स श्रान्तानां नितान्तं भरमिव मरुतामक्षमाणां विसोढुं स्कन्धात्स्कन्धं व्रजन्वो वृजिनविजितये भास्वतः स्यन्दनोऽस्तु ॥ 63 ॥ योक्त्रीभूतान्युगस्य ग्रसितुमिव पुरो दन्दशूकान्दधानो द्वेधाव्यस्ताम्बुवाहावलिविहितबृहत्पक्षविक्षेपशोभः । सावित्रः स्यन्दनोऽसौ निरतिशयरयप्रीणितानूरुरेनः- क्षेपीयो वो गरुत्मानिव हरतु हरीच्छाविधेयप्रचारः ॥ 64 ॥ एकाहेनैव दीर्घां त्रिभुवनपदवीं लङ्घयन् यो लघिष्ठः वर् कृस्त्नां पृष्ठे मेरोर्गरीयान् दलितमणिदृषत्त्विंषि पिंषञ्शिरांसि । सर्वस्यैवोपरिष्टादथ च पुनरधस्तादिवास्ताद्रिमूर्न्धि ब्रध्नस्याव्यात्स एवं दुरधिगमपरिस्पन्दनः स्यन्दनो वः ॥ 65 ॥ धूर्ध्वस्ताग्र्यग्रहाणि ध्वजपटपवनान्दोलितेन्दूनि दूरं वर् दूरात् राहौ ग्रासाभिलाषादनुसरति पुनर्दत्तचक्रव्यथानि । श्रान्ताश्वश्वासहेलाधुतविबुधधुनीनिर्झराम्भांसि भद्रं देयासुर्वो दवीयो दिवि दिवसपतेः स्यन्दनप्रस्थितानि ॥ 66 ॥ अक्षे रक्षां निबध्य प्रतिसरवलयैर्योजयन्त्यो युगाग्रं धूःस्तम्भे दग्धधूपाः प्रहितसुमनसो गोचरे कूबरस्य । चर्चाश्चक्रे चरन्त्यो मलयजपयसा सिद्धवध्वस्त्रिसन्ध्यं वर् चर्चां वन्दन्ते यं द्युमार्गे स नुदतु दुरितान्यंशुमत्स्यन्दनो वः ॥ 67 ॥ उत्कीर्णस्वर्णरेणुद्रुतखुरदलिता पार्श्वयोः शश्वदश्वै- वर् रेणुर्द्रुत रश्रान्तभ्रान्तचक्रक्रमनिखिलमिलन्नेमिनिम्ना भरेण । मेरोर्मूर्धन्यघं वो विघटयतु रवेरेकवीथी रथस्य स्वोष्मोदक्ताम्बुरिक्तप्रकटितपुलिनोद्धूसरा स्वर्धुनीव ॥ 68 ॥ वर् स्वोष्मोदस्ताम्बु नन्तुं नाकालयानामनिशमनुयतां पद्धतिः पङ्क्तिरेव वर् उपयतां क्षोदो नक्षत्रराशेरदयरयमिलच्चक्रपिष्टस्य धूलिः । हेषह्लादो हरीणां सुरशिखरिदरीः पूरयन्नेमिनादो वर् नादो यस्याव्यात्तीव्रभानोः स दिवि भुवि यथा व्यक्तचिह्नो रथो वः ॥ 69 ॥ निःस्पन्दानां विमानावलिविततदिवां देववृन्दारकाणां वर् वलितदिशा वृन्दैरानन्दसान्द्रोद्यममपि वहतां विन्दतां वन्दितुं नो । मन्दाकिन्याममन्दः पुलिनभृति मृदुर्मन्दरे मन्दिराभे वर् मन्दराभे मन्दारैर्मण्डितारं दधदरि दिनकृत्स्यन्दनः स्तान्मुदे वः ॥ 70 ॥ चक्री चक्रारपङ्क्तिं हरिरपि च हरीन् धूर्जटिर्धूर्ध्वजान्ता- नक्षं नक्षत्रनाथोऽरुणमपि वरुणः कूबराग्रं कुबेरः । रंहः सङ्घः सुराणां जगदुपकृतये नित्ययुक्तस्य यस्य स्तौति प्रीतिप्रसन्नोऽन्वहमहिमरुचेः सोऽवतात्स्यन्दनो वः ॥ 71 ॥ वर् रुच नेत्राहीनेन मूले विहितपरिकरः सिद्धसाध्यैर्मरुद्भिः पादोपान्ते स्तुतोऽलं बलिहरिरभसाकर्षणाबद्धवेगः । भ्राम्यन्व्योमाम्बुराशावशिशिरकिरणस्यन्दनः सन्ततं वो दिश्याल्लक्ष्मीमपारामतुलितमहिमेवापरो मन्दराद्रिः ॥ 72 ॥ वर् अतुल्यां ॥ इति रथवर्णनम् ॥ ॥ अथ मण्डलवर्णनम् ॥ यज्ज्यायो बीजमह्नामपहततिमिरं चक्षुषामञ्जनं य- वर् ज्यायो यद्बीजमह्नामपहृत द्द्वारं यन्मुक्तिभाजां यदखिलभुवनज्योतिषामेकमोकः । यद्वृष्ट्यम्भोनिधानं धरणिरससुधापानपात्रं महद्य- द्दिश्यादीशस्य भासां तदधीकलमलं मङ्गलं मण्डलं वः ॥ 73 ॥ वर् देवस्य भानोः तदधिकममलं मण्डलं मङ्गलं वेलावर्धिष्णु सिन्धोः पय इव खमिवार्धोद्गताग्य्रग्रहोडु स्तोकोद्भिन्नस्वचिह्नप्रसवमिव मधोरास्यमस्यन्मनांसि । वर् महांसि प्रातः पूष्णोऽशुभानि प्रशमयतु शिरःशेखरीभूतमद्रेः पौरस्त्यस्योद्गभस्तिस्तिमिततमतमःखण्डनं मण्डलं वः ॥ 74 ॥ प्रत्युप्तस्तप्तहेमोज्ज्वलरुचिरचलः पद्मरागेण येन ज्यायः किञ्जल्कपुञ्जो यदलिकुलशितेरम्बरेन्दीवरस्य । कालव्यालस्य चिह्नं महिततममहोमूर्न्धि रत्नं महद्य- द्दीप्तांशोः प्रातरव्यात्तदविकलजगन्मण्डनं मण्डलं वः ॥ 75 ॥ कस्त्राता तारकाणां पतति तनुरवश्यायबिन्दुर्यथेन्दु- र्विद्राणा दृक्स्मरारेरुरसि मुररिपोः कौस्तुभो नोद्गभस्तिः । वह्नेः सापह्नवेव द्युतिरुदयगते यत्र तन्मण्डलं वो मार्तण्डीयं पुनीताद्दिवि भुवि च तमांसीव मृष्णन्महांसि ॥ 76 ॥ यत्प्राच्यां प्राक्चकास्ति प्रभवति च यतः प्राच्यसावुज्जिहाना- दिद्धं मध्ये यदह्नो भवति ततरुचा येन चोत्पाद्यतेऽहः । यत्पर्यायेण लोकानवति च जगतां जीवितं यच्च तद्वो विश्वानुग्राहि विश्वं सृजदपि च रवेर्मण्डलं मुक्तयेऽस्तु ॥ 77 ॥ शुष्यन्त्यूढानुकारा मकरवसतयो मारवीणां स्थलीनां येनोत्तप्ताः स्फुटन्तस्तडिति तिलतुलां यान्त्यगेन्द्रा युगान्ते । वर् चटिति तच्चण्डांशोरकाण्डत्रिभुवनदहनाशङ्कया धाम कृच्छात् वर् कृत्स्नं संहृत्यालोकमात्रं प्रलघु विदधतः स्तान्मुदे मण्डलं वः ॥ 78 ॥ वर् आहृत्यालोकमात्रं प्रतनु उद्यद्द्यूद्यानवाप्यां बहुलतमतमःपङ्कपूरं विदार्य वर् बहल प्रोद्भिन्नं पत्रपार्श्वेष्वविरलमरुणच्छायया विस्फुरन्त्या । कल्याणानि क्रियाद्वः कमलमिव महन्मण्डलं चण्डभानो- वर् चण्डरश्मेः रन्वीतं तृप्तिहेतोरसकृदलिकुलाकारिणा राहुणा यत् ॥ 79 ॥ चक्षुर्दक्षद्विषो यन्न तु दहति पुरः पूरयत्येव कामं वर् न दहति नितरां पुनः नास्तं जुष्टं मरुद्भिर्यदिह नियमिनां यानपात्रं भवाब्धौ । यद्वीतश्रान्ति शश्वद्भ्रमदपि जगतां भ्रान्तिमभ्रान्ति हन्ति ब्रध्नस्याख्याद्विरुद्धक्रियमथ च हिताधायि तन्मण्डलं वः ॥ 80 ॥ ॥ इति मण्डलवर्णनम् ॥ ॥ अथ सूर्यवर्णनम् । सिद्धैः सिद्धान्तमिश्रं श्रितविधि विबुधैश्चारणैश्चाटुगर्भं गीत्या गन्धर्वमुख्यैर्मुहुरहिपतिभिर्यातुधानैर्यतात्म । सार्धं साध्यैर्मुनीन्द्रैर्मुदितमतमनो मोक्षिभिः पक्षपाता- वर् मोक्षुभिः त्प्रातः प्रारभ्यमाणस्तुतिरवतु रविर्विश्ववन्द्योदयो वः ॥ 81 ॥ भासामासन्नभावादधिकतरपटोश्चक्रवालस्य तापा- च्छेदादच्छिन्नगच्छत्तुरगखुरपुटन्यासनिःशङ्कटङ्कैः । वर् न्यस्त निःसङ्गस्यन्दनाङ्गभ्रमणनिकषणात्पातु वस्त्रिप्रकारं वर् त्रिप्रकारैः तप्तांशुस्तत्परीक्षापर इव परितः पर्यटन्हाटकाद्रिम् ॥ 82 ॥ नो शुष्कं नाकनद्या विकसितकनकाम्भोजया भ्राजितं तु वर् कनकाम्भोरुहा प्लुष्टा नैवोपभोग्या भवति भृशतरं नन्दनोद्यानलक्ष्मीः । नो शृङ्गाणि द्रुतानि द्रुतममरगिरेः कालधौतानि धौता- नीद्धं धाम द्युमार्गे म्रदयति दयया यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 83 ॥ ध्वान्तस्यैवान्तहेतुर्न भवति मलिनैकात्मनः पाप्मनोऽपि प्राक्पादोपान्तभाजां जनयति न परं पङ्कजानां प्रबोधम् । कर्ता निःश्रेयसानामपि न तु खलु यः केवलं वासराणां सोऽव्यादेकोद्यमेच्छाविहितबहुबृहद्विश्वकार्योऽर्यमा वः ॥ 84 ॥ लोटँल्लोष्टाविचेष्टः श्रितशयनतलो निःसहीभूतदेहः सन्देही प्राणितव्ये सपदि दश दिशः प्रेक्षमाणोऽन्धकाराः । निःश्वासायासनिष्ठः परमपरवशो जायते जीवलोकः वर् चिरतरवशो शोकेनेवान्यलोकानुदयकृति गते यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 85 ॥ वर् लोकाभ्युदय क्रामँल्लोलोऽपि लोकाँस्तदुपकृतिकृतावाश्रितः स्थैर्यकोटिं नॄणां दृष्टिं विजिह्मां विदधदपि करोत्यन्तरत्यन्तभद्राम् । यस्तापस्यापि हेतुर्भवति नियमिनामेकनिर्वाणदायी भूयात्स प्रागवस्थाधिकतरपरिणामोदयोऽर्कः श्रिये वः ॥ 86 ॥ व्यापन्नर्तुर्न कालो व्यभिचरति फलं नौषधीर्वृष्टिरिष्टा नैष्टैस्तृप्यन्ति देवा न हि वहति मरुन्निर्मलाभानि भानि । आशाः शान्ता न भिन्दन्त्यवधिमुदधयो बिभ्रति क्ष्माभृतः क्ष्मां यस्मिंस्त्रैलोक्यमेवं न चलति तपति स्तात्स सूर्यः श्रिये वः ॥ 87 ॥ कैलासे कृत्तिवासा विहरति विरहत्रासदेहोढकान्तः श्रान्तः शेते महाहावधिजलधि विना छद्मना पद्मनाभः । योगोद्योगैकतानो गमयति सकलं वासरं स्वं स्वयम्भू- र्भूरित्रैलोक्याचिन्ताभृति भुवनविभौ यत्र भास्वान्स वोऽव्यात् ॥ 88 ॥ एतद्यन्मण्डलं खे तपति दिनकृतस्ता ऋचोऽर्चींषि यानि द्योतन्ते तानि सामान्ययमपि पुरुषो मण्डलेऽणुर्यजूंषि । एवं यं वेद वेदत्रितयमयमयं वेदवेदी समग्रो वर्गः स्वर्गापवर्गप्रकृतिरविकृतिः सोऽस्तु सूर्यः श्रिये वः ॥ 89 ॥ नाकौकःप्रत्यनीकक्षतिपटुमहसां वासवाग्रेसराणां सर्वेषां साधु पातां जगदिदमदितेरात्मजत्वे समेऽपि । येनादित्याभिधानं निरतिशयगुणैरात्मनि न्यस्तमस्तु वर् गुणेनात्मनि स्तुत्यस्त्रैलोक्यवन्द्यैस्त्रिदशमुनिगणैः सोंऽशुमान् श्रेयसे वः ॥ 90 ॥ भूमिं धाम्नोऽभिवृष्ट्या जगति जलमयीं पावनीं संस्मृताव- वर् धाम्नोऽथ प्याग्नेयीं दाहशक्त्या मुहुरपि यजमानां यथाप्रार्थितार्थैः । वर् यजमानात्मिकां लीनामाकाश एवामृतकरघटितां ध्वान्तपक्षस्य पर्व- ण्वेवं सूर्योऽष्टभेदां भव इव भवतः पातु बिभ्रत्स्वमूर्तिम् ॥ 91 ॥ प्राक्कालोन्निद्रपद्माकरपरिमलनाविर्भवत्पादशोभो भक्त्या त्यक्तोरुखेदोद्गति दिवि विनतासूनुना नीयमानः । सप्ताश्वाप्तापरान्तान्यधिकमधरयन्यो जगन्ति स्तुतोऽलं देवैर्देवः स पायादपर इव मुरारातिरह्नां पतिर्वः ॥ 92 ॥ यः स्रष्टाऽपां पुरस्तादचलवरसमभ्युन्नतेर्हेतुरेको लोकानां यस्त्रयाणां स्थित उपरि परं दुर्विलङ्घ्येन धाम्ना । वर् च त्रयाणां सद्यः सिद्ध्यै प्रसन्नद्युतिशुभचतुराशामुखः स्ताद्विभक्तो वर् शुचि द्वेधा वेधा इवाविष्कृतकमलरुचिः सोऽर्चिषामाकरो वः ॥ 93 ॥ साद्रिद्यूर्वीनदीशा दिशति दश दिशो दर्शयन्प्राग्दृशो यः वर् द्राक् दृशो सादृश्यं दृश्यते नो सदशशतदृशि त्रैदशे यस्य देशे । दीप्तांशुर्वः स दिश्यादशिवयुगदशादर्शितद्वादशात्मा शं शास्त्यश्वांश्च यस्याशयविदतिशयाद्दन्दशूकाशनाद्यः ॥ 94 ॥ तीर्थानि व्यर्थकानि हृदनदसरसीनिर्झराम्भोजिनीनां नोदन्वन्तो नुदन्ति प्रतिभयमशुभश्वभ्रपातानुबन्धि । आपो नाकापगाया अपि कलुषमुषो मज्जतां नैव यत्र वर् स्वर्गापगायाः त्रातुं यातेऽन्यलोकान् स दिशतु दिवसस्यैकहेतुर्हितं वः ॥ 95 ॥ वर् लोकं एतत्पातालपङ्कप्लुतमिव तमसैवैकमुद्गाढमासी- दप्रज्ञाताप्रतर्क्यं निरवगति तथालक्षणं सुप्तमन्तः । यादृक्सृष्टेः पुरस्तान्निशि निशि सकलं जायते तादृगेव त्रैलोक्यं यद्वियोगादवतु रविरसौ सर्गतुल्योदयो वः ॥ 96 ॥ द्वीपे योऽस्ताचलोऽस्मिन्भवति खलु स एवापरत्रोदयाद्रि- र्या यामिन्युज्ज्वलेन्दुद्युतिरिह दिवसोऽन्यत्र तीव्रातपः सा । यद्वश्यौ देशकालाविति नियमयतो नो तु यं देशकाला- वर् नु वव्यात्स स्वप्रभुत्वाहितभुवनहितो हेतुरह्नामिनो वः ॥ 97 ॥ व्यग्रैरग्र्यग्रहेन्दुग्रसनगुरु भरैर्नो समग्रैरुदग्रैः वर् गुरुतरैः प्रत्यग्रैरीषदुग्रैरुदयगिरिगतो गोगणैर्गौरयन् गाम् । उद्गाढार्चिर्विलीनामरनगरनगग्रावगर्भामिवाह्ना- मग्रे श्रेयो विधत्ते ग्लपयतु गहनं स ग्रहग्रामणीर्वः ॥ 98 ॥ योनिः साम्नां विधाता मधुरिपुरजितो धूर्जटिः शङ्करोऽसौ मृत्युः कालोऽलकायाः पतिरपि धनदः पावको जातवेदाः । इत्थं सञ्ज्ञा डवित्थादिवदमृतभुजां या यदृच्छाप्रवृत्ता- स्तासामेकोऽभिधेयस्तदनुगुणगुणैर्यः स सूर्योऽवताद्वः ॥ 99 ॥ वर् गणैः देवः किं बान्धवः स्यात्प्रियसुहृदथवाऽऽचार्य आहोस्विदर्यो वर् आर्यः रक्षा चक्षुर्नु दीपो गुरुरुत जनको जीवितं बीजमोजः । एवं निर्णीयते यः क इव न जगतां सर्वथा सर्वदाऽसौ वर् सर्वदाः सर्वाकारोपकारी दिशतु दशशताभीषुरभ्यर्थितं वः ॥ 100 ॥ श्लोका लोकस्य भूत्यै शतमिति रचिताः श्रीमयूरेण भक्त्या युक्तश्चैतान्पठेद्यः सकृदपि पुरुषः सर्वपापैर्विमुक्तः । आरोग्यं सत्कवित्वं मतिमतुलबलं कान्तिमायुःप्रकर्षं विद्यामैश्वर्यमर्थं सुतमपि लभते सोऽत्र सूर्यप्रसादात् ॥ 101 ॥ इति श्रीमयूरकविप्रणीतं सूर्यशतकं समाप्तम् ।