Maa Tara (10 Mahavidya) (Maa Tara)

तारा तारा वास्तव में काली को ही नीलरूपा होने से 'तारा' भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली तारने वाली हैं, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों से रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या 'उग्रतारा' हैं । तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रूप की चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ । शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नील कमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला है। वे उग्रतारा है, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं । तारा तन्त्र में कहा गया है- समुद्र मधने देवि कालकूट समुपस्थितम् ॥ समुद्र मन्थन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीने वाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं । शिव शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट है। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिङ्गल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भुत है। यह फैली हुई उम्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं। यही एकजटा है। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिङ्गोग्रैक जटा धारिणी उम्र तारा एकजटा के रूप में पूजित हुईं। वही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई। जैसा कि कहा है मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्यदे । प्रत्यालीढपदस्थिते शिवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ॥ शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रूपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति रूप हैं । नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती । तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी ॥ उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता । पिङ्गोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरूपिणी ॥ सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठा- राधिता तारा' भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधन की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्��्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया है, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली। यह कथा 'आचार-तन्त्र' में वसिष्ठ मुनि की आराधना के उपाख्यान में वर्णित है । तारा तारा वास्तव में काली को ही नीलरूपा होने से 'तारा' भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली तारने वाली हैं, इसलिए तारा हैं। अनायास ही वे वाक् प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिए 'नीलसरस्वती' भी हैं। भयंकर विपत्तियों से रक्षण कर कृपा प्रदान करती हैं, इसलिए वे उग्रतारिणी या 'उग्रतारा' हैं । तारा और काली यद्यपि एक ही हैं तथापि बृहन्नील तन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रूप की चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ । शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति है तथा नील कमलों की भाँति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्याघ्रचर्म से विभूषित उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला है। वे उग्रतारा है, पर भक्तों पर कृपा करने के लिए उनकी तत्परता अमोघ है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं । तारा तन्त्र में कहा गया है- समुद्र मधने देवि कालकूट समुपस्थितम् ॥ समुद्र मन्थन के समय जब कालकूट विष निकला तो बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष को पीने वाले शिव ही अक्षोभ्य हैं और उनके साथ तारा विराजमान हैं । शिव शक्ति संगम तन्त्र में अक्षोभ्य शब्द का अर्थ महादेव ही निर्दिष्ट है। अक्षोभ्य को द्रष्टा ऋषि शिव कहा गया है। अक्षोभ्य शिव ऋषि को मस्तक पर धारण करने वाली तारा तारिणी अर्थात् तारण करने वाली हैं। उनके मस्तक पर स्थित पिङ्गल वर्ण उग्र जटा का रहस्य भी अद्भुत है। यह फैली हुई उम्र पीली जटाएं सूर्य की किरणों की प्रतिरूपा हैं। यही एकजटा है। इस प्रकार अक्षोभ्य एवं पिङ्गोग्रैक जटा धारिणी उम्र तारा एकजटा के रूप में पूजित हुईं। वही उग्र तारा शव के हृदय पर चरण रख कर उस शव को शिव बना देने वाली नीलसरस्वती हो गई। जैसा कि कहा है मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्य सम्पत्यदे । प्रत्यालीढपदस्थिते शिवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ॥ शब्दकल्पद्रुम के अनुसार तीन रूपों वाली तारा, एकजटा और नीलसरस्वती एक ही तारा के त्रिशक्ति रूप हैं । नीलया वाक्प्रदा चेति तेन नीलसरस्वती । तारकत्वात् सदा तारा सुखमोक्षप्रदायिनी ॥ उग्रापत्तारिणी यस्मादुग्रतारा प्रकीर्तिता । पिङ्गोग्रैकजटायुक्ता सूर्यशक्तिस्वरूपिणी ॥ सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने तारा की उपासना की। इसलिए तारा को 'वसिष्ठा- राधिता तारा' भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले वैदिक रीति से आराधन की, जो सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्य शक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे 'चीनाचार' कहा गया है, उपासना करें। ऐसा करने से ही वसिष्ठ को सिद्धि मिली। यह कथा 'आचार-तन्त्र' में वसिष्ठ मुनि की आराधना के उपाख्यान में वर्णित है ।