No festivals today or in the next 14 days. 🎉
Shri Rama Chandra Ashtakam || श्री रामचन्द्र अष्टकम् : A Journey Through Its Lyrics and Transformative Benefits
Shri Rama Chandra Ashtakam (श्री रामचन्द्र अष्टकम्)
रामचरित मानस के अनुसार भगवान श्रीराम जी को सर्वशक्ति शाली माना जाता है। श्री रामचंद्रा अष्टकम भगवान श्रीराम जी को समर्पित है भगवान श्रीराम जी को भगवान श्री विष्णु जी के अवतार है। रामनवमी के दिन श्री रामचंद्र अष्टकम का पाठ किया जाए तो मनुष्य के जीवन में बुराइयों का विनाश होता है और शत्रुओ से विजय प्राप्त कराता है। श्री रामचंद्रा अष्टकम का पाठ नियमित रूप से करने से साधक के जीवन में सभी प्रकार की बाधाओं, दुःख,कष्टो, बीमारियां व भय से मुक्ति प्राप्त होती है और मनोवांछित कामना भी पूर्ण होने लगती हैI इस पाठ को करने से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होने लगता है। भगवान श्रीराम का आशिर्वाद व उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते है तो प्रतिदिन नियमित रूप से श्री रामचंद्रा अष्टकम का पाठ अवश्य करें। याद रखे इस पाठ को करने से पूर्व अपना पवित्रता बनाये रखेI इससे मनुष्य को जीवन में बहुत अधिक लाभ प्राप्त होता है।श्री रामचन्द्र अष्टकम्
(Shri Rama Chandra Ashtakam)
॥ श्रीरामचन्द्राष्टकम् ॥
चिदाकारो धातापरमसुखदः पावन-
तनुर्मुनीन्द्रैर्यो-गीन्द्रैर्यतिपतिसुरेन्द्रैर्हनुमता।
सदा सेव्यः पूर्णोजनकतनयाङ्गः सुरगुरू
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥1॥
मुकुन्दो गोविन्दोजनकतनयालालितपदः
पदं प्राप्तायस्याधमकुलभवा चापि शबरी।
गिरातीतोऽगम्योविमलधिषणैर्वेदवचसा
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥2॥
धराधीशोऽधीशःसुरनरवराणां रघुपतिः
किरीटी केयूरीकनककपिशः शोभितवपुः।
समासीनः पीठेरविशतनिभे शान्तमनसो
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥3॥
वरेण्यः शारण्यःकपिपतिसखश्चान्तविधुरो
ललाटे काश्मीरोरुचिरगतिभङ्गः शशिमुखः।
नराकारो रामोयतिपतिनुतः संसृतिहरो
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्।॥4॥
विरूपाक्षः कश्यामुपदिशियन्नाम शिवदं
सहस्रं यन्नाम्नां पठतिगिरिजा प्रत्युषसि वै।
स्वलोके गायन्तीश्वरविधिमुखायस्य चरितं
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥5॥
परो धीरोऽधीरोऽसुरकुल-भवश्चासुरहरः
परात्मा सर्वज्ञोनरसुरगणैर्गीतसुयशाः।
अहल्याशापघ्नःशरकरऋजुः कौशिकसखो
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥6॥
हृषीकेशः शौरिर्धरणि-धरशायी मधुरिपु-
रुपेन्द्रोवैकुण्ठोगजरिपुहरस्तुष्टमनसा।
बलिध्वंसी वीरोदशरथसुतो नीतिनिपुणो
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥7॥
कविः सौमित्रीड्यःकपटमृगघाती वनचरो
रणश्लाघी दान्तोधरणिभरहर्ता सुरनुतः।
अमानी मानज्ञोनिखिलजनपूज्यो हृदिशयो
रमानाथो रामो रमतुमम चित्ते तु सततम्॥8॥
इदं रामस्तोत्रंवरममरदासेन रचितमुषः
काले भक्त्या यदिपठति यो भावसहितम्।
मनुष्यः स क्षिप्रंजनिमृतिभयं तापजनकं
परित्यज्य श्रेष्ठंरघुपतिपदं याति शिवदम्॥9॥
॥ इति श्रीमद्रामदासपूज्यपादशिष्य
श्रीमद्धंसदासशिष्येणामरदासाख्यकविना
विरचितं श्रीरामचन्द्राष्टकं समाप्तम् ॥
Related to Ram
Shri Ramchandra Arti (1) (श्री रामचन्द्र आरती)
श्री रामचंद्र आरती भगवान श्री रामचंद्र की भक्ति और महिमा को समर्पित एक पवित्र स्तुति है।Arti
Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) अरण्यकाण्ड(Aranyakanda)
श्री राम चरित मानस (Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - अरण्यकाण्ड श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ 1 ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 2 ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पण्डित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौञ्च हति भागा। मूढ़ मन्दमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ 1 ॥ प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयु पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीम् ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकि राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करि सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित सन्ता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायुँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयुँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़एउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ 2 ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयू। सुनत महामुनि हरषित भयू ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़आने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ 3 ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलम् ॥ भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदम् ॥ निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरम् ॥ प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनम् ॥ प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवम् ॥ निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकम् ॥ दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनम् ॥ मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनम् ॥ मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितम् ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहम् ॥ नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिम् ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजम् ॥ त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सरा ॥ पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्ति ते गतिं स्वकम् ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुम् ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलम् ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभम् ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहम् ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिम् ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदम् ॥ व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ 4 ॥ श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस ---------- तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) श्लोक मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ 1 ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 2 ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पण्डित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौञ्च हति भागा। मूढ़ मन्दमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ 1 ॥ प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयु पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीम् ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकि राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करि सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित सन्ता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायुँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयुँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़एउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ 2 ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयू। सुनत महामुनि हरषित भयू ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़आने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ 3 ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलम् ॥ भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदम् ॥ निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरम् ॥ प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनम् ॥ प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवम् ॥ निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकम् ॥ दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनम् ॥ मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनम् ॥ मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितम् ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहम् ॥ नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिम् ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजम् ॥ त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सरा ॥ पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्ति ते गतिं स्वकम् ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुम् ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलम् ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभम् ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहम् ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिम् ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदम् ॥ व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ 4 ॥ अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥ रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई ॥ दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए ॥ कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥ मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥ धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी ॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥ एकि धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान सन्त सब कहहिम् ॥ उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीम् ॥ मध्यम परपति देखि कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैंसेम् ॥ धर्म बिचारि समुझि कुल रही। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कही ॥ बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई ॥ पति बञ्चक परपति रति करी। रौरव नरक कल्प सत परी ॥ छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥ बिनु श्रम नारि परम गति लही। पतिब्रत धर्म छाड़इ छल गही ॥ पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई ॥ सो. सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहि। जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ 5क ॥ सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि। तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ 5ख ॥ सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा ॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना ॥ सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥ धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥ जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी ॥ ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे ॥ अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥ जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई ॥ केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी ॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥ छं. तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पङ्कज दिए। मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावी। रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावी ॥ दो. कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल। सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ 6(क) ॥ सो. कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप। परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ 6(ख) ॥ मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥ आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछेम् ॥ उमय बीच श्री सोहि कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥ सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥ जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥ मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता ॥ तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा ॥ पुनि आए जहँ मुनि सरभङ्गा। सुन्दर अनुज जानकी सङ्गा ॥ दो. देखी राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग। सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग ॥ 7 ॥ कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला ॥ जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥ चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़आनी छाती ॥ नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥ सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥ जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥ एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाड़इ सब सङ्गा ॥ दो. सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरन्तर सगुनरुप श्रीराम ॥ 8 ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुण्ठ सिधारा ॥ ताते मुनि हरि लीन न भयू। प्रथमहिं भेद भगति बर लयू ॥ रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भे निज हृदयँ बिसेषी ॥ अस्तुति करहिं सकल मुनि बृन्दा। जयति प्रनत हित करुना कन्दा ॥ पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृन्द बिपुल सँग लागे ॥ अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥ जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी ॥ निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥ दो. निसिचर हीन करुँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ 9 ॥ मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥ प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥ हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥ मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीम् ॥ नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥ होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन ॥ निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥ दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥ कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करि गुन गाई ॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥ अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥ मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥ मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥ भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥ मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसेम् ॥ आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥ परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥ भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥ मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला ॥ राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़आ। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़आ ॥ दो. तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ 10 ॥ कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥ श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरम् ॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरम् ॥ मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः ॥ निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥ अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशम् ॥ हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालम् ॥ संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥ भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥ निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपम् ॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारम् ॥ भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥ अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः ॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः ॥ जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी ॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥ जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी ॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करु सो राम हृदय मम अयना। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥ परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥ मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परि झूठ का साचा ॥ तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥ प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मम हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम ॥ 11 ॥ एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभञ्ज रिषि पासा ॥ बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भे मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥ अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीम् ॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसै द्वौ भाई ॥ पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥ तुरत सुतीछन गुर पहिं गयू। करि दण्डवत कहत अस भयू ॥ नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा ॥ राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥ सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥ सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी ॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा ॥ जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा ॥ दो. मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। सरद इन्दु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ 12 ॥ तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥ तुम्ह जानहु जेहि कारन आयुँ। ताते तात न कहि समुझायुँ ॥ अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥ मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥ तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानुँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया ॥ जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना ॥ ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सौ काला ॥ ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईम् ॥ यह बर मागुँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥ अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा ॥ जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता ॥ अस तव रूप बखानुँ जानुँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानुँ ॥ सन्तत दासन्ह देहु बड़आई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥ है प्रभु परम मनोहर ठ्AUँ। पावन पञ्चबटी तेहि न्AUँ ॥ दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥ बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥ चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई ॥ दो. गीधराज सैं भैण्ट भि बहु बिधि प्रीति बढ़आइ ॥ गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ 13 ॥ जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भे मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥ खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गञ्जत छबि लहहीम् ॥ सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥ एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना ॥ सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछुँ निज प्रभु की नाई ॥ मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥ कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥ दो. ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥ जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ 14 ॥ थोरेहि महँ सब कहुँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई ॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई ॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥ एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ॥ एक रचि जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकेम् ॥ ग्यान मान जहँ एकु नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही ॥ कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥ दो. माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ 15 ॥ धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥ जातें बेगि द्रवुँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई ॥ सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलि जो सन्त होइँ अनुकूला ॥ भगति कि साधन कहुँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी ॥ प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥ एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥ श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़आहीं। मम लीला रति अति मन माहीम् ॥ सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥ गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥ मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥ काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकेम् ॥ दो. बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥ तिन्ह के हृदय कमल महुँ करुँ सदा बिश्राम ॥ 16 ॥ भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥ एहि बिधि गे कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥ सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥ पञ्चबटी सो गि एक बारा। देखि बिकल भि जुगल कुमारा ॥ भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥ होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥ रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥ तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥ मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीम् ॥ ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥ सीतहि चिति कही प्रभु बाता। अहि कुआर मोर लघु भ्राता ॥ गि लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥ सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥ प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥ सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥ लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥ पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥ लछिमन कहा तोहि सो बरी। जो तृन तोरि लाज परिहरी ॥ तब खिसिआनि राम पहिं गी। रूप भयङ्कर प्रगटत भी ॥ सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥ दो. लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ 17 ॥ नाक कान बिनु भि बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥ खर दूषन पहिं गि बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥ तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥ नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा ॥ सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥ असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥ गर्जहि तर्जहिं गगन उड़आहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीम् ॥ कौ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़आई ॥ धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥ लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर ॥ रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी ॥ देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदण्ड चढ़आवा ॥ छं. कोदण्ड कठिन चढ़आइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्योम् ॥ कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥ चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥ सो. आइ गे बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ 18 ॥ प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भी रजनीचर धारी ॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कौ नृपबालक नर भूषन ॥ नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुन्दरताई ॥ जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥ मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई ॥ हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीम् ॥ रिपु बलवन्त देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीम् ॥ जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक ॥ जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतुँ न काहू ॥ रन चढ़इ करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई ॥ दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥ छं. उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥ प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भे बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥ दो. सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ 19(क) ॥ तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़ए निज तीर ॥ 19(ख) ॥ छं. तब चले जान बबान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल ॥ कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम ॥ अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर ॥ भे क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ ॥ तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥ आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार ॥ रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि ॥ छाँड़ए बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच ॥ उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन ॥ चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान ॥ भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड ॥ नभ उड़त बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड ॥ खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल ॥ छं. कटकटहिं ज़म्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं। बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीम् ॥ रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥ अन्तावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीम् ॥ सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ई उड़आवहीम् ॥ मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥ सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीम् ॥ प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥ महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥ सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। देखहि परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥ दो. राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ 20(क) ॥ हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान। अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ 20(ख) ॥ जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥ तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए। सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता ॥ पञ्चवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥ धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥ बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी ॥ करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥ राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥ बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ए किएँ अरु पाएँ ॥ सङ्ग ते जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥ प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥ सो. रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ 21(क) ॥ दो. सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ। तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ ॥ 21(ख) ॥ सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥ कह लङ्केस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता ॥ अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए ॥ समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥ जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भे बिचरत मुनि कानन ॥ देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना ॥ अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥ सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा ॥ रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥ तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥ खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥ खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता ॥ दो. सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति। गयु भवन अति सोचबस नीद परि नहिं राति ॥ 22 ॥ सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कौ नाहीम् ॥ खर दूषन मोहि सम बलवन्ता। तिन्हहि को मारि बिनु भगवन्ता ॥ सुर रञ्जन भञ्जन महि भारा। जौं भगवन्त लीन्ह अवतारा ॥ तौ मै जाइ बैरु हठि करूँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरूँ ॥ होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मन्त्र दृढ़ एहा ॥ जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहुँ नारि जीति रन दोऊ ॥ चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ ॥ इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥ दो. लछिमन गे बनहिं जब लेन मूल फल कन्द। जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द ॥ 23 ॥ सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥ तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥ जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥ निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसि सील रुप सुबिनीता ॥ लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना ॥ दसमुख गयु जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥ नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई ॥ भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥ दो. करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात। कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ 24 ॥ दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागेम् ॥ होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥ तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा ॥ तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥ मुनि मख राखन गयु कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥ सत जोजन आयुँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीम् ॥ भि मम कीट भृङ्ग की नाई। जहँ तहँ मैं देखुँ दौ भाई ॥ जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥ दो. जेहिं ताड़का सुबाहु हति खण्डेउ हर कोदण्ड ॥ खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबण्ड ॥ 25 ॥ जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥ गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा ॥ तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥ सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बन्दि कबि भानस गुनी ॥ उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥ उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागेम् ॥ अस जियँ जानि दसानन सङ्गा। चला राम पद प्रेम अभङ्गा ॥ मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहुँ परम सनेही ॥ छं. निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं। श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौम् ॥ निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी। निज पानि सर सन्धानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥ दो. मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान। फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहुँ धन्य न मो सम आन ॥ 26 ॥ तेहि बन निकट दसानन गयू। तब मारीच कपटमृग भयू ॥ अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई ॥ सीता परम रुचिर मृग देखा। अङ्ग अङ्ग सुमनोहर बेषा ॥ सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुन्दर छाला ॥ सत्यसन्ध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही ॥ तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥ मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥ प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥ सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥ प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी ॥ निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा ॥ कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटि कबहुँ छपाई ॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयु लै दूरी ॥ तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥ लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥ प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥ अन्तर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥ दो. बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ। निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ ॥ 27 ॥ खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥ आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता ॥ जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परि कि सोई ॥ मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥ बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू ॥ सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा ॥ जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीम् ॥ सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चिति चला भड़इहाई ॥ इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा ॥ नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई ॥ कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईम् ॥ तब रावन निज रूप देखावा। भी सभय जब नाम सुनावा ॥ कह सीता धरि धीरजु गाढ़आ। आइ गयु प्रभु रहु खल ठाढ़आ ॥ जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भेसि कालबस निसिचर नाहा ॥ सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना ॥ दो. क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ। चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ 28 ॥ हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥ आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायुँ कीन्हेउँ रोसा ॥ बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥ बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा ॥ सीता कै बिलाप सुनि भारी। भे चराचर जीव दुखारी ॥ गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥ अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥ सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहुँ जातुधान कर नासा ॥ धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटि पबि परबत कहुँ जैसे ॥ रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥ आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना ॥ की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई ॥ जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़इहि देहा ॥ सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥ तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥ राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥ उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥ धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥ चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भि मुरुछा तेही ॥ तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़एसि परम कराल कृपाना ॥ काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥ सीतहि जानि चढ़आइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी ॥ करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥ गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥ एहि बिधि सीतहि सो लै गयू। बन असोक महँ राखत भयू ॥ दो. हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ। तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ 29(क) ॥ नवान्हपारायण, छठा विश्राम जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम। सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ 29(ख) ॥ रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी ॥ जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली ॥ निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीम् ॥ गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥ अनुज समेत गे प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥ आश्रम देखि जानकी हीना। भे बिकल जस प्राकृत दीना ॥ हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती ॥ हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥ खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥ कुन्द कली दाड़इम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीम् ॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ किमि सहि जात अनख तोहि पाहीम् । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीम् ॥ एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥ पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥ आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥ दो. कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रधुबीर ॥ निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भी सब पीर ॥ 30 ॥ तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भञ्जन भव भीरा ॥ नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥ लै दच्छिन दिसि गयु गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई ॥ दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना ॥ राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥ जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमु मुकुत होई श्रुति गावा ॥ सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥ जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥ परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥ तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥ दो. सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥ जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ 31 ॥ गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥ छं. जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही ॥ पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं। नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनम् ॥ 1 ॥ बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं। गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरम् ॥ जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं। नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनम् ॥ 2। जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीम् ॥ करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीम् ॥ सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोही। मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोही ॥ 3 ॥ जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा। पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥ सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी। मम उर बसु सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ 4 ॥ दो. अबिरल भगति मागि बर गीध गयु हरिधाम। तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ 32 ॥ कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥ सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥ पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥ सङ्कुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन ॥ आवत पन्थ कबन्ध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता ॥ दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥ सुनु गन्धर्ब कहुँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥ दो. मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव। मोहि समेत बिरञ्चि सिव बस ताकें सब देव ॥ 33 ॥ सापत ताड़त परुष कहन्ता। बिप्र पूज्य अस गावहिं सन्ता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥ रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयु गगन आपनि गति पाई ॥ ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥ सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥ सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ भाई। सबरी परी चरन लपटाई ॥ प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे ॥ दो. कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि ॥ 34 ॥ पानि जोरि आगें भि ठाढ़ई। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ई ॥ केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी ॥ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानुँ एक भगति कर नाता ॥ जाति पाँति कुल धर्म बड़आई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥ भगति हीन नर सोहि कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥ नवधा भगति कहुँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीम् ॥ प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा ॥ दो. गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करि कपट तजि गान ॥ 35 ॥ मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा ॥ छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा ॥ सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा ॥ आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखि परदोषा ॥ नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥ नव महुँ एकु जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरेम् ॥ जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भि सोई ॥ मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता कि सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी ॥ पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥ बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥ छं. कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पङ्कज धरे। तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भि जहँ नहिं फिरे ॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥ दो. जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ 36 ॥ चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥ बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा ॥ लछिमन देखु बिपिन कि सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥ नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा ॥ हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीम् ॥ तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए ॥ सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीम् ॥ सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥ राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीम् ॥ देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥ दो. बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल। सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ 37(क) ॥ देखि गयु भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात। डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ 37(ख) ॥ बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥ कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका ॥ बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना ॥ कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥ कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी ॥ तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥ रथ गिरि सिला दुन्दुभी झरना। चातक बन्दी गुन गन बरना ॥ मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥ चतुरङ्गिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हेम् ॥ लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥ एहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥ दो. तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ 38(क) ॥ लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि। क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ 38(ख) ॥ गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी ॥ कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़आई ॥ क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥ सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥ उमा कहुँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥ पुनि प्रभु गे सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा ॥ सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥ दो. पुरिनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म। मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ 39(क) ॥ सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं। जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख सञ्जुत जाहिम् ॥ 39(ख) ॥ बिकसे सरसिज नाना रङ्गा। मधुर मुखर गुञ्जत बहु भृङ्गा ॥ बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥ चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनि बरनि नहिं जाई ॥ सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥ ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥ चम्पक बकुल कदम्ब तमाला। पाटल पनस परास रसाला ॥ नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चञ्चरीक पटली कर गाना ॥ सीतल मन्द सुगन्ध सुभ्AU। सन्तत बहि मनोहर ब्AU ॥ कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीम् ॥ दो. फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ ॥ 40 ॥ देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥ देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया ॥ तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥ बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला ॥ बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी ॥ मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा ॥ ऐसे प्रभुहि बिलोकुँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥ यह बिचारि नारद कर बीना। गे जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥ गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥ स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे ॥ दो. नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि। नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ 41 ॥ सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक ॥ देहु एक बर मागुँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी ॥ जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभ्AU। जन सन कबहुँ कि करुँ दुर्AU ॥ कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥ जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरेम् ॥ तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागुँ करुँ ढिठाई ॥ जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥ राम सकल नामन्ह ते अधिका। हौ नाथ अघ खग गन बधिका ॥ दो. राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम। अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ 42(क) ॥ एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिन्धु रघुनाथ। तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायु माथ ॥ 42(ख) ॥ अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥ राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥ तब बिबाह मैं चाहुँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥ सुनु मुनि तोहि कहुँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥ करुँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखि महतारी ॥ गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखि जननी अरगाई ॥ प्रौढ़ भेँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करि नहिं पाछिलि बाता ॥ मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी ॥ जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥ यह बिचारि पण्डित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीम् ॥ दो. काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि। तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ 43 ॥ सुनि मुनि कह पुरान श्रुति सन्ता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसन्ता ॥ जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषि सब नारी ॥ काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥ दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥ धर्म सकल सरसीरुह बृन्दा। होइ हिम तिन्हहि दहि सुख मन्दा ॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहि नारि सिसिर रितु पाई ॥ पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥ बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥ दो. अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ 44 ॥ सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥ कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥ जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रङ्क नर मन्द अभागी ॥ पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥ सन्तन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भञ्जन भीरा ॥ सुनु मुनि सन्तन्ह के गुन कहूँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहूँ ॥ षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिञ्चन सुचि सुखधामा ॥ अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥ सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥ दो. गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह ॥ तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ 45 ॥ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीम् ॥ सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥ जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा ॥ श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना ॥ दम्भ मान मद करहिं न क्AU। भूलि न देहिं कुमारग प्AU ॥ गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला ॥ मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥ छं. कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे। अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥ सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गे ॥ ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥ दो. रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग। राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ 46(क) ॥ दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतङ्ग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसङ्ग ॥ 46(ख) ॥ मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः। (अरण्यकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Raghav Stuti (राघव स्तुति)
Shri Raghav Stuti (राघव स्तुति) भगवान Shri Ram की महिमा का गुणगान करने वाला एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। यह स्तुति श्रीराम के divine virtues, strength, compassion, और righteousness का वर्णन करती है। सनातन धर्म में श्रीराम को Maryada Purushottam कहा गया है, जो धर्म और आदर्शों के प्रतीक हैं। श्रीराम की भक्ति से peace, prosperity, और spiritual growth प्राप्त होती है। इस स्तुति का नियमित पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और मन को inner strength एवं devotion प्राप्त होती है। Shri Raghav Stuti का पाठ करने से भगवान श्रीराम की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-शांति बनी रहती है।Stuti
Shri Ramchandra Arti (श्री रामचन्द्र आरती)
श्री रामचंद्र आरती भगवान श्री रामचंद्र की भक्ति और महिमा को समर्पित एक पवित्र स्तुति है।Arti
Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) लङ्काकाण्ड(Lankakanda)
श्री राम चरित मानस(Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - लङ्काकाण्ड श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान (लङ्काकाण्ड) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्। मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ 1 ॥ शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्। काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ 2 ॥ यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ 3 ॥ दो. लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड। भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड ॥ सो. सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥ सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़इ भव सागर तरिहिम् ॥ यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥ तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयु तेहिं खारा ॥ सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥ जामवन्त बोले दौ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥ राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीम् ॥ बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥ राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू ॥ धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥ सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥ दो. अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ 1 ॥ सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीम् ॥ देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥ परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥ करिहुँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना ॥ सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥ लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥ सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥ दो. सङ्कर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ 2 ॥ जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिम् ॥ जो गङ्गाजलु आनि चढ़आइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥ होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि ॥ मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥ राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥ गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥ बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयु उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भे उपल बोहित सम तेई ॥ महिमा यह न जलधि कि बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कि करनी ॥ दो0=श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान। ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ 3 ॥ बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥ सेतुबन्ध ढिग चढ़इ रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई ॥ देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भे सब जलचर बृन्दा ॥ मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला ॥ ऐसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीम् ॥ प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भे सुखारे ॥ तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भे हरि रूप निहारी ॥ चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥ दो. सेतुबन्ध भि भीर अति कपि नभ पन्थ उड़आहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़इ चढ़इ पारहि जाहिम् ॥ 4 ॥ अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥ सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥ सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥ खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिम् ॥ जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिम् ॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥ जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥ दो. बान्ध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस। सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस ॥ 5 ॥ निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयु ग्रह करि भय भोरी ॥ मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥ कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी ॥ चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥ नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सोम् ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥ अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे ॥ जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥ तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा ॥ दो. रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ। सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ 6 ॥ नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघु सनमुख गेँ न खाई ॥ चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥ सन्त कहहिं असि नीति दसानन। चौथेम्पन जाइहि नृप कानन ॥ तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता ॥ सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥ सोइ कोसलधीस रघुराया। आयु करन तोहि पर दाया ॥ जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥ दो. अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ 7 ॥ तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥ सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ॥ बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरेम् ॥ नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥ मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना ॥ सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥ कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥ कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा ॥ दो. सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिन्न्ह मति अति थोरि ॥ 8 ॥ कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥ बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥ छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥ सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥ जेहिं बारीस बँधायु हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥ सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥ तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥ प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीम् ॥ बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥ प्रथम बसीठ पठु सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥ दो. नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़आइअ रारि। नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ 9 ॥ यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥ सुत सन कह दसकण्ठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥ अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा ॥ हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसेम् ॥ सन्ध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेही मन्दिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन ॥ बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥ दो. सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करि बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ 10 ॥ इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा ॥ सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥ ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा ॥ दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना ॥ बड़भागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना ॥ प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन ॥ दो. एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ 11(क) ॥ पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक। कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क ॥ 11(ख) ॥ पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी ॥ मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी ॥ बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा ॥ कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई ॥ कह सुग़ईव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥ मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई ॥ कौ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥ छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीम् ॥ प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥ बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी ॥ दो. कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास। तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ 12(क) ॥ नवान्हपारायण ॥ सातवाँ विश्राम पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ 12(ख) ॥ देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घम्मड दामिनि बिलासा ॥ मधुर मधुर गरजि घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥ कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़इत न बारिद माला ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकङ्घर देख अखारा ॥ छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥ मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का ॥ बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥ प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़आइ बान सन्धाना ॥ दो. छत्र मुकुट ताटङ्क तब हते एकहीं बान। सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ 13(क) ॥ अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषङ्ग। रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग ॥ 13(ख) ॥ कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥ सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयु भयङ्कर भारी ॥ दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥ सिरु गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही ॥ सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई ॥ मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥ सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥ कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥ दो. बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अङ्ग अङ्ग प्रति जासु ॥ 14 ॥ पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥ भृकुटि बिलास भयङ्कर काला। नयन दिवाकर कच घन माला ॥ जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥ श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी ॥ अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला ॥ आनन अनल अम्बुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा ॥ रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥ उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥ दो. अहङ्कार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान। मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ 15 क ॥ अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ। प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ 15 ख ॥ बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना ॥ नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीम् ॥ साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया ॥ रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥ सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरेम् ॥ जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥ तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥ मन्दोदरि मन महुँ अस ठयू। पियहि काल बस मतिभ्रम भयू ॥ दो. एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध। सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयु मद अन्ध ॥ 16(क) ॥ सो. फूलह फरि न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद। मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम ॥ 16(ख) ॥ इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥ कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई ॥ सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥ मन्त्र कहुँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥ नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना ॥ बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा ॥ बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहूँ। परम चतुर मैं जानत अहूँ ॥ काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥ सो. प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ। सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥ 17(क) ॥ स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियु। अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियु ॥ 17(ख) ॥ बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥ प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का ॥ पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैण्टा ॥ बातहिं बात करष बढ़इ आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥ तेहि अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥ निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥ एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीम् ॥ भयु कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहीं जारी ॥ अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥ बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥ दो. गयु सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कञ्ज। सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुञ्ज ॥ 18 ॥ तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा ॥ सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥ आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुञ्जरहि बोलि लै आए ॥ अङ्गद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसेम् ॥ भुजा बिटप सिर सृङ्ग समाना। रोमावली लता जनु नाना ॥ मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कन्दरा खोह अनुमाना ॥ गयु सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥ उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥ दो. जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ। राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥ 19 ॥ कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर ॥ मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयुँ भाई ॥ उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरञ्चि पूजेहु बहु भाँती ॥ बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥ नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा ॥ अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥ दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी ॥ सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागेम् ॥ दो. प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि। आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ 20 ॥ रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥ कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई ॥ अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भी ही भेटा ॥ अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना ॥ अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥ गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु ॥ अब कहु कुसल बालि कहँ अही। बिहँसि बचन तब अङ्गद कही ॥ दिन दस गेँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥ राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥ सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकेम् ॥ दो. हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस। अन्धु बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥ 21। सिव बिरञ्चि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई ॥ तासु दूत होइ हम कुल बोरा। ऐसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥ सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी ॥ खल तव कठिन बचन सब सहूँ। नीति धर्म मैं जानत अहूँ ॥ कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥ देखी नयन दूत रखवारी। बूड़इ न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥ कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥ धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥ दो. जनि जल्पसि जड़ जन्तु कपि सठ बिलोकु मम बाहु। लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ 22(क) ॥ पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास। सोभत भयु मराल इव सम्भु सहित कैलास ॥ 22(ख) ॥ तुम्हरे कटक माझ सुनु अङ्गद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥ तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥ तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥ जामवन्त मन्त्री अति बूढ़आ। सो कि होइ अब समरारूढ़आ ॥ सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला ॥ आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥ सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥ रावन नगर अल्प कपि दही। सुनि अस बचन सत्य को कही ॥ जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥ चलि बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई ॥ दो. सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ। फिरि न गयु सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ 23(क) ॥ सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह। कौ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ 23(ख) ॥ प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। जौं मृगपति बध मेड़उकन्हि भल कि कहि कौ ताहि ॥ 23(ग) ॥ जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष। तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ 23(घ) ॥ बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस। प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ 23(ङ) ॥ हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। जो प्रतिपालि तासु हित करि उपाय अनेक ॥ 23(छ) ॥ धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचि परिहरि लाजा ॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करि धर्म निपुनाई ॥ अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥ मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करुँ नहिं काना ॥ कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥ सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई ॥ देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥ जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥ पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥ बालि बिमल जस भाजन जानी। हतुँ न तोहि अधम अभिमानी ॥ कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥ बलिहि जितन एक गयु पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥ खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़आई ॥ एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़आवा ॥ दो. एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख। इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ 24 ॥ सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥ जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़आई ॥ सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥ भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥ जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरुँ जाइ बरिआई ॥ जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे ॥ जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥ दो. तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान। रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ 25 ॥ सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥ सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़ए नृप अगनित बहु बारा ॥ तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा ॥ राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा ॥ पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥ बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन ॥ सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा ॥ दो. सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥ कस रे सठ हनुमान कपि गयु जो तव सुत मारि ॥ 26 ॥ सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिन्धु रघुराई ॥ जौ खल भेसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥ मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला ॥ तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागेम् ॥ ते तव सिर कन्दुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥ जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥ तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा ॥ सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा ॥ दो. कुम्भकरन अस बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ 27 ॥ सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिन्धु इहि प्रभुताई ॥ नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥ मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़ए बहु सुर नर सूरा ॥ बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा ॥ दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥ जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥ तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥ हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥ दो. सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस। हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ 28 ॥ जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला ॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥ सौ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरेम् ॥ आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥ कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कौ नाहीम् ॥ लाजवन्त तव सहज सुभ्AU। निज मुख निज गुन कहसि न क्AU ॥ सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही ॥ सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥ सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा ॥ इन्द्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटि निज कर सकल सरीरा ॥ दो. जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द। ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द ॥ 29 ॥ अब जनि बतबढ़आव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही ॥ दसमुख मैं न बसीठीं आयुँ। अस बिचारि रघुबीष पठायुँ ॥ बार बार अस कहि कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥ मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥ नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी ॥ तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥ जौं न राम अपमानहि डरुँ। तोहि देखत अस कौतुक करूँ ॥ दो. तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ। तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ 30 ॥ जौ अस करौं तदपि न बड़आई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥ कौल कामबस कृपिन बिमूढ़आ। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़आ ॥ सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति सन्त बिरोधी ॥ तनु पोषक निन्दक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥ अस बिचारि खल बधुँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥ सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥ रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़इ कहसी ॥ कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकेम् ॥ दो. अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास। सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ 31(क) ॥ जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि ऐसे मनुज अनेक। खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ 31(ख) ॥ जब तेहिं कीन्ह राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयु कपिन्दा ॥ हरि हर निन्दा सुनि जो काना। होइ पाप गोघात समाना ॥ कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी ॥ डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥ गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर ॥ कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे ॥ आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥ की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए ॥ कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥ ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे ॥ दो. तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास। कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ 32(क) ॥ उहाँ सकोऽपि दसानन सब सन कहत रिसाइ। धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अङ्गद मुसुकाइ ॥ 32(ख) ॥ एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥ मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥ पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा ॥ मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥ रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मन्दमति कामी ॥ सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भेसि कालबस खल मनुजादा ॥ याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागेम् ॥ रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥ गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीम् ॥ सो. सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर। बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ 33(क) ॥ तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर। तजुँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ 33(ख) ॥ मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥ असि रिस होति दसु मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौम् ॥ गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का ॥ मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥ जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥ बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भेसि लबारा ॥ साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥ समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा ॥ जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥ सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥ इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥ झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरि बैठहिं सिरु नाई ॥ पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरि न कीस चरन एहि भाँती ॥ पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥ दो. कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ। झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ 34(क) ॥ भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥ कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ 34(ख) ॥ कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे ॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा ॥ गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥ भयु तेजहत श्री सब गी। मध्य दिवस जिमि ससि सोही ॥ सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई ॥ जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥ उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावि नासा ॥ तृन ते कुलिस कुलिस तृन करी। तासु दूत पन कहु किमि टरी ॥ पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना ॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥ हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़आई ॥ प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयु दुखारा ॥ जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भे बिसेषी ॥ दो. रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुञ्ज। पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कञ्ज ॥ 35(क) ॥ साँझ जानि दसकन्धर भवन गयु बिलखाइ। मन्दोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ (ख) ॥ कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥ रामानुज लघु रेख खचाई। सौ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥ पिय तुम्ह ताहि जितब सङ्ग्रामा। जाके दूत केर यह कामा ॥ कौतुक सिन्धु नाघी तव लङ्का। आयु कपि केहरी असङ्का ॥ रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥ अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥ पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥ बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥ जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हु बल अतुल बिसाला ॥ भञ्जि धनुष जानकी बिआही। तब सङ्ग्राम जितेहु किन ताही ॥ सुरपति सुत जानि बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥ सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥ दो. बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबन्ध। बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकन्ध ॥ 36 ॥ जेहिं जलनाथ बँधायु हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायु तव हित हेतू ॥ सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥ अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥ तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू ॥ अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा ॥ काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरि धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईम् ॥ दो. दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु। कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ 37 ॥ नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयु उठि होत बिहाना ॥ बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली ॥ इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥ बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछुँ तोही ॥ । रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥ तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥ सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥ साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥ दो. धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस। तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥ 38(((क) ॥ परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ 38(ख) ॥ रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए ॥ लङ्का बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥ तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥ करि बिचार तिन्ह मन्त्र दृढ़आवा। चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥ जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥ प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिङ्घनाद करि धाए ॥ हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिम् ॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥ जानत परम दुर्ग अति लङ्का। प्रभु प्रताप कपि चले असङ्का ॥ घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥ दो. जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। गर्जहिं सिङ्घनाद कपि भालु महा बल सींव ॥ 39 ॥ लङ्काँ भयु कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी ॥ देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥ आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे ॥ अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥ सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥ उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥ चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी ॥ तोमर मुग्दर परसु प्रचण्डा। सुल कृपान परिघ गिरिखण्डा ॥ जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥ चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥ दो. नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। कोट कँगूरन्हि चढ़इ गे कोटि कोटि रनधीर ॥ 40 ॥ कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे ॥ बाजहिं ढोल निसान जुझ्AU। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन च्AU ॥ बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥ देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥ धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥ कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिम् ॥ उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई ॥ निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिम् ॥ दो. धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीम् ॥ अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़इ चढ़इ गे। कपि भालु चढ़इ मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भे ॥ दो. एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ 41 ॥ राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥ चढ़ए दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥ चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥ हाहाकार भयु पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी ॥ सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥ निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लङ्केस रिसाना ॥ जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना ॥ सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भे बल्लभ प्राना ॥ उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥ सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥ दो. बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि। ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ 42 ॥ भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥ कौ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता। कहँ नल नील दुबिद बलवन्ता ॥ निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥ मेघनाद तहँ करि लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई ॥ पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥ कूदि लङ्क गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥ भञ्जेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥ दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यन्दन घालि तुरत गृह आना ॥ दो. अङ्गद सुना पवनसुत गढ़ पर गयु अकेल। रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़एउ कपि खेल ॥ 43 ॥ जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बन्दर। राम प्रताप सुमिरि उर अन्तर ॥ रावन भवन चढ़ए द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई ॥ कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा ॥ नारि बृन्द कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती ॥ कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिम् ॥ पुनि कर गहि कञ्चन के खम्भा। कहेन्हि करिअ उतपात अरम्भा ॥ गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी ॥ काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥ दो. एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड। रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड ॥ 44 ॥ महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिम् ॥ कहि बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥ खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥ देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी ॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी ॥ अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥ लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहि सिन्धु दुइ मन्दर जैसेम् ॥ दो. भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त। कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त ॥ 45 ॥ प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भे बिगतश्रम परम सुखारे ॥ गे जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई ॥ निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥ द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥ महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे ॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥ प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥ अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥ भयु निमिष महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥ दो. देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयु खभार। एकहि एक न देखी जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ 46 ॥ सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अङ्गद हनुमाना ॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोऽपि कपिकुञ्जर धाए ॥ पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़आवा। पावक सायक सपदि चलावा ॥ भयु प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीम् ॥ भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥ हनूमान अङ्गद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥ भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥ गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीम् ॥ दो. कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़ए पराइ। गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ 47 ॥ निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी ॥ राम कृपा करि चितवा सबही। भे बिगतश्रम बानर तबही ॥ उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥ आधा कटकु कपिन्ह सङ्घारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥ माल्यवन्त अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मन्त्री बर ॥ बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥ जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥ बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥ दो. हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान। जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिन्धु भगवान ॥ 48(क) ॥ मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध। सिव बिरञ्चि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ 48(ख) ॥ परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥ ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥ बूढ़ भेसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही ॥ तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥ सो उठि गयु कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा ॥ कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहुँ बहुत कहौं का थोरा ॥ सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अङ्क बैठावा ॥ करत बिचार भयु भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥ कोऽपि कपिन्ह दुर्घट गढ़उ घेरा। नगर कोलाहलु भयु घनेरा ॥ बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥ छं. ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले। घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥ मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भे। गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हे ॥ दो. मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़उ पुनि छेङ्का आइ। उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ 49 ॥ कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥ कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अङ्गद हनूमन्त बल सींवा ॥ कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारुँ ओही ॥ अस कहि कठिन बान सन्धाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥ सर समुह सो छाड़ऐ लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥ जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥ जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥ सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥ दो. दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर। सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ 50 ॥ देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवन्त जनु धायु काला ॥ महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा ॥ आवत देखि गयु नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई ॥ बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना ॥ रघुपति निकट गयु घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥ अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥ देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना ॥ जिमि कौ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥ दो. जासु प्रबल माया बल सिव बिरञ्चि बड़ छोट। ताहि दिखावि निसिचर निज माया मति खोट ॥ 51 ॥ नभ चढ़इ बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥ नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥ बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़आ। बरषि कबहुँ उपल बहु छाड़आ ॥ बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा ॥ कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखेम् ॥ कौतुक देखि राम मुसुकाने। भे सभीत सकल कपि जाने ॥ एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥ कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भे प्रबल रन रहहिं न रोके ॥ दो. आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ 52 ॥ छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥ इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥ भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी ॥ भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥ मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिम् ॥ मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥ असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा ॥ देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा ॥ दो. रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़आइ। जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ 53 ॥ घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥ लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥ एकहि एक सकि नहिं जीती। निसिचर छल बल करि अनीती ॥ क्रोधवन्त तब भयु अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता ॥ नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयु प्रान अवसेषा ॥ रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयु हरिहि मम प्राना ॥ बीरघातिनी छाड़इसि साँगी। तेज पुञ्ज लछिमन उर लागी ॥ मुरुछा भी सक्ति के लागें। तब चलि गयु निकट भय त्यागेम् ॥ दो. मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ 54 ॥ सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारि भुवन चारिदस आसू ॥ सक सङ्ग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥ यह कौतूहल जानि सोई। जा पर कृपा राम कै होई ॥ सन्ध्या भि फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी ॥ ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥ तब लगि लै आयु हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥ जामवन्त कह बैद सुषेना। लङ्काँ रहि को पठी लेना ॥ धरि लघु रूप गयु हनुमन्ता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता ॥ दो. राम पदारबिन्द सिर नायु आइ सुषेन। कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ 55 ॥ राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभञ्जन सुत बल भाषी ॥ उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा ॥ दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥ देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पन्थ को रोकन पारा ॥ भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥ नील कञ्ज तनु सुन्दर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥ मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू ॥ काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥ दो. सुनि दसकण्ठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार। राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ 56 ॥ अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मन्दिर बर बाग बनाया ॥ मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥ राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा ॥ जाइ पवनसुत नायु माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥ होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिम् ॥ इहाँ भेँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥ मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥ सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥ दो. सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़इ जान ॥ 57 ॥ कपि तव दरस भिउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥ मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥ अस कहि गी अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयु कपि तबहीम् ॥ कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मन्त्र तुम्ह देहू ॥ सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥ राम राम कहि छाड़एसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥ देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥ गहि गिरि निसि नभ धावत भयू। अवधपुरी उपर कपि गयू ॥ दो. देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ 58 ॥ परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक ॥ सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए ॥ बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥ मुख मलीन मन भे दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी ॥ जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥ जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया ॥ तौ कपि हौ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥ सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥ सो. लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ 59 ॥ तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥ कपि सब चरित समास बखाने। भे दुखी मन महुँ पछिताने ॥ अहह दैव मैं कत जग जायुँ। प्रभु के एकहु काज न आयुँ ॥ जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥ तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥ चढ़उ मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥ सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥ राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी ॥ दो. तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहुँ नाथ तुरन्त। अस कहि आयसु पाइ पद बन्दि चलेउ हनुमन्त ॥ 60(क) ॥ भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ 60(ख) ॥ उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥ अर्ध राति गि कपि नहिं आयु। राम उठाइ अनुज उर लायु ॥ सकहु न दुखित देखि मोहि क्AU। बन्धु सदा तव मृदुल सुभ्AU ॥ मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥ सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥ जौं जनतेउँ बन बन्धु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥ सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥ अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलि न जगत सहोदर भ्राता ॥ जथा पङ्ख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥ अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥ जैहुँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीम् ॥ अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥ सौम्पेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥ उतरु काह दैहुँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥ बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥ उमा एक अखण्ड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥ सो. प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भे बानर निकर। आइ गयु हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ 61 ॥ हरषि राम भेण्टेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥ तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥ हृदयँ लाइ प्रभु भेण्टेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥ कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लि आवा ॥ यह बृत्तान्त दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥ ब्याकुल कुम्भकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥ जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥ कुम्भकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ॥ कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा सङ्घारे ॥ दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकम्पन भारी ॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ॥ दो. सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान। जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ 62 ॥ भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना ॥ हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक ॥ अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥ कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक ॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥ अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥ स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥ दो. राम रूप गुन सुमिरत मगन भयु छन एक। रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ 63 ॥ महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना ॥ कुम्भकरन दुर्मद रन रङ्गा। चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा ॥ देखि बिभीषनु आगें आयु। परेउ चरन निज नाम सुनायु ॥ अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥ तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मन्त्र बिचारा ॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयुँ। देखि दीन प्रभु के मन भायुँ ॥ सुनु सुत भयु कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन ॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥ बन्धु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥ दो. बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। जाहु न निज पर सूझ मोहि भयुँ कालबस बीर। 64 ॥ बन्धु बचन सुनि चला बिभीषन। आयु जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥ नाथ भूधराकार सरीरा। कुम्भकरन आवत रनधीरा ॥ एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना ॥ लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥ कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥ मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥ तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥ पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमन्ता। घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता ॥ पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥ चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कौ समुहाई ॥ दो. अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ 65 ॥ उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥ भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहि ऐसि लराई ॥ जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिम् ॥ मुरुछा गि मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥ सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयु तेहि मृतक प्रतीती ॥ काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलु तेहिं जाना ॥ गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥ पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना ॥ नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भि मन ग्लानी ॥ सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥ दो. जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। एकहि बार तासु पर छाड़एन्हि गिरि तरु जूह ॥ 66 ॥ कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥ कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ई गिरि गुहाँ समाई ॥ कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥ मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥ रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥ मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥ कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी ॥ देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥ दो. सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। मैं देखुँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ 67 ॥ कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥ प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयु सुनि सोरा ॥ सत्यसन्ध छाँड़ए सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥ जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥ कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा ॥ घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीम् ॥ लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिम् ॥ रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिम् ॥ दो. छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। पुनि रघुबीर निषङ्ग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ 68 ॥ कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी ॥ भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥ कोऽपि महीधर लेइ उपारी। डारि जहँ मर्कट भट भारी ॥ आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ । पुनि धनु तानि कोऽपि रघुनायक। छाँड़ए अति कराल बहु सायक ॥ तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीम् ॥ सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥ बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥ दो. महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। महि पटकि गजराज इव सपथ करि दससीस ॥ 69 ॥ भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥ चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी ॥ यह निसिचर दुकाल सम अही। कपिकुल देस परन अब चही ॥ कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥ सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना ॥ राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली ॥ खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने ॥ लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा ॥ लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥ धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सौ भुजा काटि महि पारी ॥ काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा ॥ उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥ दो. करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ 70 ॥ सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजन्त सरासनु तान्यो ॥ बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥ सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥ तब प्रभु कोऽपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥ सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयु जिमि फनि मनि त्यागेम् ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खण्डा ॥ परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना ॥ सुर दुन्दुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिम् ॥ करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए ॥ गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥ बेगि हतहु खल कहि मुनि गे। राम समर महि सोभत भे ॥ छं. सङ्ग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। श्रम बिन्दु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥ भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने। कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥ दो. निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ 71 ॥ दिन कें अन्त फिरीं दौ अनी। समर भी सुभटन्ह श्रम घनी ॥ राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़आ। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़आ ॥ छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥ बहु बिलाप दसकन्धर करी। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरी ॥ रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥ मेघनाद तेहि अवसर आयु। कहि बहु कथा पिता समुझायु ॥ देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़आई ॥ इष्टदेव सैं बल रथ पायुँ। सो बल तात न तोहि देखायुँ ॥ एहि बिधि जल्पत भयु बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥ इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा ॥ लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥ दो. मेघनाद मायामय रथ चढ़इ गयु अकास ॥ गर्जेउ अट्टहास करि भि कपि कटकहि त्रास ॥ 72 ॥ सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥ डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥ दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥ धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारि तेहि कौ न जाना ॥ गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिम् ॥ अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर ॥ जाहिं कहाँ ब्याकुल भे बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर ॥ मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥ पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥ पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥ ब्याल पास बस भे खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी ॥ नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना ॥ रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो ॥ दो. गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। सो कि बन्ध तर आवि ब्यापक बिस्व निवास ॥ 73 ॥ चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥ अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥ ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहि दुर्बादा ॥ जामवन्त कह खल रहु ठाढ़आ। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़आ ॥ बूढ़ जानि सठ छाँड़एउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही ॥ अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो ॥ मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥ पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो ॥ बर प्रसाद सो मरि न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा ॥ इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो ॥ दो. खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ। माया बिगत भे सब हरषे बानर जूथ। 74(क) ॥ गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़ए पराइ ॥ 74(ख) ॥ मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥ तुरत गयु गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा ॥ इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥ मेघनाद मख करि अपावन। खल मायावी देव सतावन ॥ जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥ सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना ॥ लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥ तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥ मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥ जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥ जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन ॥ प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥ जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौम् ॥ जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतुँ रघुबीर दोहाई ॥ दो. रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त। अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त ॥ 75 ॥ जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥ कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठि तब करहिं प्रसंसा ॥ तदपि न उठि धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई ॥ लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे ॥ आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥ कोऽपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥ प्रभु कहँ छाँड़एसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा ॥ उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोऽपि तेहि घाउ न बाजा ॥ फिरे बीर रिपु मरि न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा ॥ आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़ए बिसिख कराला ॥ देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयु खल अन्तरधाना ॥ बिबिध बेष धरि करि लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥ देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयु अहीसा ॥ लछिमन मन अस मन्त्र दृढ़आवा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥ सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा ॥ छाड़आ बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा ॥ दो. रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़एसि प्रान। धन्य धन्य तव जननी कह अङ्गद हनुमान ॥ 76 ॥ बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लङ्का द्वार राखि पुनि आयो ॥ तासु मरन सुनि सुर गन्धर्बा। चढ़इ बिमान आए नभ सर्बा ॥ बरषि सुमन दुन्दुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिम् ॥ जय अनन्त जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥ अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥ सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयु परेउ महि तबहीम् ॥ मन्दोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥ नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकन्धर पोचा ॥ दो. तब दसकण्ठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि। नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ 77 ॥ तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन ॥ पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥ निसा सिरानि भयु भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥ सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥ सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भेँ न भलाई ॥ निज भुज बल मैं बयरु बढ़आवा। देहुँ उतरु जो रिपु चढ़इ आवा ॥ अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझ्AU बाजा ॥ चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली ॥ असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनि न भुजबल गर्ब बिसाला ॥ छं. अति गर्ब गनि न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते। भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥ गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने। जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥ दो. ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ 78 ॥ चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा ॥ बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥ चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥ बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया ॥ अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी ॥ चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीम् ॥ उठी रेनु रबि गयु छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥ पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिम् ॥ भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई ॥ केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीम् ॥ कहि दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥ हौं मारिहुँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई ॥ यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई ॥ छं. धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। मानहुँ सपच्छ उड़आहिं भूधर बृन्द नाना बान ते ॥ नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं। जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीम् ॥ दो. दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि। भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ 79 ॥ रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयु अधीरा ॥ अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा ॥ नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥ सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यन्दन आना ॥ सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ॥ ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म सन्तोष कृपाना ॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्ड़आ। बर बिग्यान कठिन कोदण्डा ॥ अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥ सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकेम् ॥ दो. महा अजय संसार रिपु जीति सकि सो बीर। जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ 80(क) ॥ सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज। एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज ॥ 80(ख) ॥ उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान। लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ 80(ग) ॥ सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़ए बिमाना ॥ हमहू उमा रहे तेहि सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा ॥ सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते ॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिम् ॥ मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिम् ॥ उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिम् ॥ निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥ बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥ छं. क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं। मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीम् ॥ मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं। चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीम् ॥ धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीम् ॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥ दो. निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। रथ चढ़इ चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ 81 ॥ धायु परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर ॥ गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥ लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू ॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥ इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयु अति क्रोधा ॥ चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना ॥ पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई ॥ तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने ॥ छं. सन्धानि धनु सर निकर छाड़एसि उरग जिमि उड़इ लागहीं। रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीम् ॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे ॥ दो. निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ 82 ॥ रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़आवुँ छाती ॥ अस कहि छाड़एसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा ॥ कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥ पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा ॥ सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥ पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीम् ॥ उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़इसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥ छं. सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही। पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥ ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥ दो. देखि पवनसुत धायु बोलत बचन कठोर। आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ 83 ॥ जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥ मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥ धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥ अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो ॥ कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता ॥ सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गी गगन सो सकति कराला ॥ पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥ छं. आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो। गिर् यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥ सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो। रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥ दो. उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ 84 ॥ इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥ नाथ करि रावन एक जागा। सिद्ध भेँ नहिं मरिहि अभागा ॥ पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर ॥ प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए ॥ कौतुक कूदि चढ़ए कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का ॥ जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥ रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥ अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥ छं. नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीम् ॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारी। एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारी ॥ दो. जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ 85 ॥ चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उड़आइ सिरन्ह पर ॥ भयु कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥ चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा ॥ प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसेम् ॥ इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही ॥ देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना। जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥ अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥ कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा ॥ छं. सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे ॥ दो. सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ 86 ॥ एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी। देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥ बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमङ्कहिम् ॥ गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥ कपि लङ्गूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इन्द्रधनु उए सुहाए ॥ उठि धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुन्द भै बृष्टि अपारा ॥ दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥ रघुपति कोऽपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई ॥ लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीम् ॥ स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी ॥ छं. कादर भयङ्कर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। दौ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥ जल जन्तुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरङ्ग चर्म कमठ घने ॥ दो. बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ 87 ॥ मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला ॥ काक कङ्क लै भुजा उड़आहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीम् ॥ एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥ कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥ खैञ्चहिं गीध आँत तट भे। जनु बंसी खेलत चित दे ॥ बहु भट बहहिं चढ़ए खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीम् ॥ जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूत पिसाच बधू नभ नञ्चहिम् ॥ भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिम् ॥ जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिम् ॥ कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिम् ॥ छं. बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीम् ॥ बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भे। सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हे ॥ दो. रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ 88 ॥ देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा ॥ तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़ए कोसलपुर भूपा ॥ चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी ॥ रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥ सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी ॥ सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥ देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥ छं. बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥ निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी। माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥ दो. बहुरि राम सब तन चिति बोले बचन गँभीर। द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भे अति बीर ॥ 89 ॥ अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥ जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीम् ॥ रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना ॥ खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥ निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु ॥ आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीम् ॥ आजु करुँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले ॥ सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥ छं. जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥ एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलि केवल लागहीं। एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीम् ॥ दो. राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ 90 ॥ कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँड़ऐ सर ॥ नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥ पावक सर छाँड़एउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥ छाड़इसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई ॥ कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥ निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसेम् ॥ तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥ राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥ छं. भे क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥ मँदोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे। चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥ दो. तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़ए बिसिख कराल। राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ 91 ॥ चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥ रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका ॥ तुरत आन रथ चढ़इ खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़एसि बिधि नाना ॥ बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥ तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥ तुरग उठाइ कोऽपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँड़ए सायक ॥ रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥ दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गे चले रुधिर पनारे ॥ स्त्रवत रुधिर धायु बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना ॥ तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥ काटतहीं पुनि भे नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥ प्रभु बहु बार बाहु सिर हे। कटत झटिति पुनि नूतन भे ॥ पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥ रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥ छं. जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं। रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरन न पावहीम् ॥ एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। जनु कोऽपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीम् ॥ दो. जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ 92 ॥ दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ई। बिसरा मरन भी रिस गाढ़ई ॥ गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायु दसहु सरासन तानी ॥ समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥ दण्ड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥ हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोऽपि कारमुक लीन्हा ॥ सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥ काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिम् ॥ कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥ छं. कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥ सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं। करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीम् ॥ दो. पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँड़ई सक्ति प्रचण्ड। चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड ॥ 93 ॥ आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा ॥ तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥ लागि सक्ति मुरुछा कछु भी। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकली ॥ देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥ रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥ सादर सिव कहुँ सीस चढ़आए। एक एक के कोटिन्ह पाए ॥ तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥ राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥ छं. उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो। दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर् यो ॥ द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै। रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥ दो. उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ 94 ॥ देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायु हनूमान गिरि धारी ॥ रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥ ठाढ़ रहा अति कम्पित गाता। गयु बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥ पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥ गहिसि पूँछ कपि सहित उड़आना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥ लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥ सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीम् ॥ बुधि बल निसिचर परि न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु सम्भार् यो ॥ छं. सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥ हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले ॥ दो. तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचण्ड। कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषण्ड ॥ 95 ॥ अन्तरधान भयु छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥ देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥ भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥ दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥ डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई ॥ सब सुर जिते एक दसकन्धर। अब बहु भे तकहु गिरि कन्दर ॥ रहे बिरञ्चि सम्भु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥ छं. जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे। चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥ हनुमन्त अङ्गद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अङ्कुरे ॥ दो. सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। सजि सारङ्ग एक सर हते सकल दससीस ॥ 96 ॥ प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥ रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥ भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥ प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि सञ्जुग महि आए ॥ अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयुँ एक मैं इन्ह के लेखेम् ॥ सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोऽपि गगन पर धायल ॥ हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥ देखि बिकल सुर अङ्गद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥ छं. गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। सम्भारि उठि दसकण्ठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥ करि दाप चाप चढ़आइ दस सन्धानि सर बहु बरषी। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषी ॥ दो. तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। काटे बहुत बढ़ए पुनि जिमि तीरथ कर पाप। 97 ॥ सिर भुज बाढ़इ देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भी घनेरी ॥ मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोऽपि भालु भट कीसा ॥ बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ॥ बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥ एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥ तब नल नील सिरन्हि चढ़इ गयू। नखन्हि लिलार बिदारत भयू ॥ रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥ गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीम् ॥ कोऽपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥ पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥ हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर ॥ मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायु रनधीरा ॥ सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी ॥ भयु क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकि भट नाना ॥ देखि भालुपति निज दल घाता। कोऽपि माझ उर मारेसि लाता ॥ छं. उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा। गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥ मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ। निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥ दो. मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ 98 ॥ मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥ सिर भुज बाढ़इ सुनत रिपु केरी। सीता उर भि त्रास घनेरी ॥ मुख मलीन उपजी मन चिन्ता। त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥ होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥ रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरी। बिधि बिपरीत चरित सब करी ॥ मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही ॥ जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥ जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥ रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी ॥ ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥ बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की ॥ कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरि सुरारी ॥ प्रभु ताते उर हति न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥ छं. एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है। मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥ सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा। अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय महा ॥ दो. काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान। तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ 99 ॥ अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥ राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥ निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँती। जुग सम भी सिराति न राती ॥ करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥ जब अति भयु बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥ सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥ इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा ॥ सठ रनभूमि छड़आइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही ॥ तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भेँ रथ चढ़इ पुनि धावा ॥ सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयु घनेरा ॥ जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी ॥ छं. धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा ॥ बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो। चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो ॥ दो. देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार ॥ 100 ॥ छं. जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भे प्रगट जन्तु प्रचण्ड ॥ बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच ॥ 1 ॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल ॥ करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान ॥ 2 ॥ धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ॥ मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान ॥ 3 ॥ जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि ॥ भे बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु ॥ 4 ॥ जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस ॥ लछिमन कपीस समेत। भे सकल बीर अचेत ॥ 5 ॥ हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ ॥ एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि ॥ 6 ॥ प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान ॥ तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ॥ 7 ॥ मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ ॥ दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज ॥ 8 ॥ छं. तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही। जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही ॥ प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। रघुबीर एकहि तीर कोऽपि निमेष महुँ माया हरी ॥ 1 ॥ माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। सर निकर छाड़ए राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे ॥ श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं। सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीम् ॥ 2 ॥ दो. ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास। जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥ 101(क) ॥ काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लङ्केस। प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥ 101(ख) ॥ काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥ मरि न रिपु श्रम भयु बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा ॥ उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥ सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥ नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकेम् ॥ सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला ॥ असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥ बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भे नभ जहँ तहँ केतू ॥ दस दिसि दाह होन अति लागा। भयु परब बिनु रबि उपरागा ॥ मन्दोदरि उर कम्पति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥ छं. प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही। बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥ उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जे। सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भे ॥ दो. खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़ए सर एकतीस। रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ 102 ॥ सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥ लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा ॥ गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥ डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर ॥ धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढ़आई। चापि भालु मर्कट समुदाई ॥ मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥ प्रबिसे सब निषङ्ग महु जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई ॥ तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन ॥ जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा ॥ बरषहि सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा ॥ छं. जय कृपा कन्द मुकन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो। खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥ सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही। सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही ॥ सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर तड़इत पटल समेत उड़उगन भ्राजहीम् ॥ भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने। जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥ दो. कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृन्द। भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकन्द ॥ 103 ॥ पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥ जुबति बृन्द रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥ पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥ उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥ तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी ॥ सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥ बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥ भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईम् ॥ जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥ राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कौ कुल रोवनिहारा ॥ तव बस बिधि प्रपञ्च सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥ अब तव सिर भुज जम्बुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीम् ॥ काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥ छं. जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं। जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयम् ॥ आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं। तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयम् ॥ दो. अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु नहिं आन। जोगि बृन्द दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥ 104 ॥ मन्दोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥ अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी ॥ भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भे सुखारी ॥ रुदन करत देखीं सब नारी। गयु बिभीषनु मन दुख भारी ॥ बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥ लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥ कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥ कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥ दो. मन्दोदरी आदि सब देइ तिलाञ्जलि ताहि। भवन गी रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥ 105 ॥ आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो ॥ तुम्ह कपीस अङ्गद नल नीला। जामवन्त मारुति नयसीला ॥ सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥ पिता बचन मैं नगर न आवुँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावुँ ॥ तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥ सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥ जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥ तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥ छं. किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो। पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥ मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। संसार सिन्धु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैम् ॥ दो. प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज। बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज ॥ 106 ॥ पुनि प्रभु बोलि लियु हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना ॥ समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥ तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥ बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥ दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥ कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥ सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा ॥ अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥ छं. अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा। का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥ सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं। रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयम् ॥ दो. सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त। सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त ॥ 107 ॥ अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥ तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥ सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥ मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥ तुरतहिं सकल गे जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥ बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥ बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥ ता पर हरषि चढ़ई बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥ बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा ॥ देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोऽपि निवारन धाए ॥ कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु ॥ देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥ सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥ सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी ॥ दो. तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥ 108 ॥ प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥ लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥ सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥ लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥ देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥ पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥ जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीम् ॥ तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ हौ श्रीखण्ड समाना ॥ छं. श्रीखण्ड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली। जय कोसलेस महेस बन्दित चरन रति अति निर्मली ॥ प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचण्ड पावक महुँ जरे। प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥ 1 ॥ धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो। जिमि छीरसागर इन्दिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥ सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली। नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पङ्कज की कली ॥ 2 ॥ दो. बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान। गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढ़ईं बिमान ॥ 109(क) ॥ जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार। देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥ 109(ख) ॥ तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥ आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी ॥ दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥ बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयु कुमारगगामी ॥ तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी ॥ अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥ मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी ॥ जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हिँ नसायो ॥ यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही ॥ अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा ॥ हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥ भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥ दो. करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि। अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥ 110 ॥ छं. जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे ॥ भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥ तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी ॥ जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥ जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयम् ॥ अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनम् ॥ अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा ॥ रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥ गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजम् ॥ भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलम् ॥ बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितम् ॥ भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरम् ॥ सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरम् ॥ सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनम् ॥ अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो ॥ इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥ कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तवानन सादर ए ॥ धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥ अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥ जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥ खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा ॥ नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेम सदा सुभदम् ॥ दो. बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात। सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥ 111 ॥ तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥ अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥ तात सकल तव पुन्य प्रभ्AU। जीत्यों अजय निसाचर र्AU ॥ सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ई। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ई ॥ रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चिति पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥ ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो ॥ सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीम् ॥ बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गे सुरधामा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस। सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥ 112 ॥ छं. जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम ॥ धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप ॥ 1 ॥ जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि ॥ यह दुष्ट मारेउ नाथ। भे देव सकल सनाथ ॥ 2 ॥ जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार ॥ जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल ॥ 3 ॥ लङ्केस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गन्धर्ब ॥ मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पन्थ सब कें लाग ॥ 4 ॥ परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट ॥ अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल ॥ 5 ॥ मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कौ मोहि समान ॥ अब देखि प्रभु पद कञ्ज। गत मान प्रद दुख पुञ्ज ॥ 6 ॥ कौ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥ मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप ॥ 7 ॥ बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत ॥ मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास ॥ 8 ॥ दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं। सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकम् ॥ सुर बृन्द रञ्जन द्वन्द भञ्जन मनुज तनु अतुलितबलं। ब्रह्मादि सङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलम् ॥ दो. अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल। काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥ 113 ॥ सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥ मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥ सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़आई ॥ सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥ सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥ रामाकार भे तिन्ह के मन। मुक्त भे छूटे भव बन्धन ॥ सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥ राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥ खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥ दो. सुमन बरषि सब सुर चले चढ़इ चढ़इ रुचिर बिमान। देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयु सम्भु सुजान ॥ 114(क) ॥ परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि। पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥ 114(ख) ॥ छं. मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥ मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन ॥ 1 ॥ अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥ काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन ॥ 2 ॥ बिषय मनोरथ पुञ्ज कञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन ॥ भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर ॥ 3 ॥ स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन ॥ अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर ॥ 4 ॥ मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन ॥ 5 ॥ दो. नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार। कृपासिन्धु मैं आउब देखन चरित उदार ॥ 115 ॥ करि बिनती जब सम्भु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥ नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥ सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो ॥ दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥ अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥ देखि कोस मन्दिर सम्पदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥ सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥ सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भे द्वौ नयन बिसाला ॥ दो. तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात। भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ 116(क) ॥ तापस बेष गात कृस जपत निरन्तर मोहि। देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरुँ तोहि ॥ 116(ख) ॥ बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावुँ बीर। सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ 116(ग) ॥ करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं। पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ सन्त सब जाहिम् ॥ 116(घ) ॥ सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥ बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥ बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो ॥ लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिन्धु तब भाषा ॥ चढ़इ बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥ नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अम्बर सबही ॥ जोइ जोइ मन भावि सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीम् ॥ हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता ॥ दो. मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद। कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ 117(क) ॥ उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम। राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ 117(ख) ॥ भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥ नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥ चिति सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया ॥ तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो ॥ निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥ सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर ॥ प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥ दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥ सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीम् ॥ देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥ दो. प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि। हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ 118(क) ॥ कपिपति नील रीछपति अङ्गद नल हनुमान। सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ 118(ख) ॥ दो. कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि। सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ 118(ग) ॥ ऽ अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़आई ॥ मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥ चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहि सबु कोई ॥ सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥ राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृङ्ग जनु घन दामिनी ॥ रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥ परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी ॥ सगुन होहिं सुन्दर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥ कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥ हनूमान अङ्गद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे ॥ कुम्भकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥ दो. इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम। सीता सहित कृपानिधि सम्भुहि कीन्ह प्रनाम ॥ 119(क) ॥ जहँ जहँ कृपासिन्धु बन कीन्ह बास बिश्राम। सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ 119(ख) ॥ तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दण्डक बन जहँ परम सुहावा ॥ कुम्भजादि मुनिनायक नाना। गे रामु सब कें अस्थाना ॥ सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा ॥ तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥ बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥ पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता ॥ तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥ देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥ पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥ । दो. सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम। सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ 120(क) ॥ पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह। कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ 120(ख) ॥ प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥ भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥ तुरत पवनसुत गवनत भयु। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयू ॥ नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥ मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढ़इ बिमान प्रभु चले बहोरी ॥ इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥ सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥ तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥ दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा ॥ सुनत गुहा धायु प्रेमाकुल। आयु निकट परम सुख सङ्कुल ॥ प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥ प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥ छं. लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती। बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती। अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे। सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ 1 ॥ सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥ यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा। कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ 2 ॥ दो. समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ 121(क) ॥ यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार। श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ 121(ख) ॥ मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः। (लङ्काकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Ram Ashtakam (श्री राम अष्टकम्)
Shri Ram Ashtakam (श्री राम अष्टकम): श्री राम अष्टकम Lord Shri Ram को समर्पित है। Shri Ram Ashtakam की रचना Maharishi Vyasa ने की थी। इसमें Shri Vyasa Ji ने Lord Shri Ram का बहुत सुंदर वर्णन किया है। Shri Ram Ashtakam Sanskrit Language में लिखा गया है। यह Vyasa Muni की एक अद्भुत रचना है। Vyasa Muni इस Shri Ram Ashtakam में कहते हैं कि वे Lord Shri Ram की Worship करते हैं, क्योंकि Shri Ram अपने Devotees के सभी Sins को नष्ट कर देते हैं। Lord Ram हमेशा अपने Devotees को Blissful करते हैं। वे अपने Devotees' Fear को दूर करते हैं। वे True Knowledge के Giver हैं और हमेशा अपने Devotees को Blessings देते हैं। यह Shri Ram Ashtakam का संक्षिप्त अर्थ है। Shri Ram Lord Vishnu के Avatar हैं, जो Ravana के Destruction के लिए Earth पर आए थे। Hindu Tradition में, Lord Ram को Maryada Purushottam माना जाता है, जो Ideal Man हैं और जो Humanity's Perfection का Example प्रस्तुत करते हैं। Lord Krishna के साथ, वे Lord Vishnu के सबसे महत्वपूर्ण Avatars में से एक माने जाते हैं। Lord Vishnu को Dharma's Preserver और Hindu Trimurti का एक प्रमुख अंग माना जाता है। Rama-Centric Sects में, उन्हें Avatar के बजाय Supreme Being माना जाता है। वे Righteousness और Truthful Living के प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त, Lord Ram के दो अर्थ हैं – 1. वह जिन्होंने अपनी इच्छा से दशरथ पुत्र श्रीराम का मोहक रूप धारण किया। 2. Supreme Brahman, जो अनंत Blissful Spiritual Self हैं, जिनमें Yogis तल्लीन रहते हैं। Rishi Vyasa इस Shri Ram Ashtakam में कहते हैं कि वे Lord Ram की Worship करते हैं क्योंकि Shri Ram अपने Devotees' Sins को दूर कर देते हैं। Shri Ram हमेशा अपने Devotees को Happiness प्रदान करते हैं। वे अपने Devotees' Fear को नष्ट करते हैं। Lord Ram's Teachings हमें यह स्मरण कराती हैं कि Happiness and Sorrow, Fear and Anger, Gain and Loss, Life and Death – ये सभी Destiny के अधीन हैं। Shri Ram's Life and Journey हमें सिखाते हैं कि कैसे कठिनतम परिस्थितियों में भी Dharma का पालन करना चाहिए। वे Ideal Man और Perfect Human के रूप में चित्रित किए जाते हैं। Lord Ram ने अपने Gurus से अनेक Spiritual Practices (Sadhanas) सीखी थीं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि हमें अपने जीवन के हर क्षेत्र में Dharma और Guru का अनुसरण करना चाहिए।Ashtakam
Shri Rama Raksha Stotram (श्री राम रक्षा स्तोत्रम्)
Shri Rama Raksha Stotram भगवान Ram की महिमा और कृपा का स्तवन है, जो "Protector of Dharma" और "Ideal King" के रूप में पूजित हैं। यह Stotram भक्त को जीवन की सभी समस्याओं, भय और बाधाओं से सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें भगवान श्रीराम, सीता माता, लक्ष्मण और हनुमान की शक्तियों का आह्वान किया गया है, जो "Spiritual Protector" और "Divine Guardian" के रूप में जाने जाते हैं। इस Stotram के नियमित पाठ से मानसिक शांति, आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास प्राप्त होता है। Shri Rama Raksha Stotram को "Protection Mantra of Lord Ram" और "Powerful Sanskrit Chant" के रूप में भी जाना जाता है। यह Stotram भगवान Ram के प्रति विश्वास और श्रद्धा को गहरा करता है, जिससे जीवन में सुख, शांति और सफलता मिलती है। इसे पढ़ने से भक्त के चारों ओर एक "Divine Shield" का निर्माण होता है, जो नकारात्मक शक्तियों और शत्रुओं से बचाव करता है। यह "Ram Devotional Hymn" हर प्रकार के भय और संकट को दूर करने में सहायक है।Stotra
Shri Ram Vandana (श्री राम-वन्दना)
श्री राम वंदना भगवान श्रीराम की महिमा का गान है, जिसमें उनके आदर्श चरित्र, धर्म पालन और लोक कल्याणकारी कार्यों का वर्णन किया गया है।Vandana