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Shri Sita Kavacham || श्री सीता कवचम् : Goddess Sita, the Goddess of Strength and Virtue, full Lyrics and Benefits
Shri Sita Kavacham (श्री सीता कवचम्)
श्री सीता कवचम् एक अद्भुत वैदिक स्तोत्र है, जो देवी सीता की महिमा और सुरक्षा प्रदान करने वाले गुणों का वर्णन करता है। यह कवच भगवान श्रीराम की परम प्रिया और त्याग, धैर्य, एवं निष्ठा की प्रतीक माता सीता की स्तुति करता है। यह कवच भक्तों को देवी सीता के समान साहस और धैर्य प्रदान करने में सहायक है। यह स्तोत्र उनके आशीर्वाद के साथ जीवन में सफलता, शांति और समृद्धि लाने की शक्ति रखता है। इस कवच का पाठ जीवन में "positivity", "spiritual growth" और "divine blessings" लाने के लिए अत्यंत लाभकारी माना गया है। "Protection mantra", "Hindu scriptures", और "devotional hymns" जैसे विषयों से जुड़ने वाले पाठकों के लिए यह कवच अत्यंत प्रभावी है।॥ श्री सीता कवचम् ॥
(Shri Sita Kavacha)
॥ अगस्तिरुवाच ॥
सम्यक् पृष्टं त्वया वत्स सावधानमनाः श्रुणु ।
आदौ वक्ष्याम्यहं रम्यं सीतायाः कवचं शुभम् ॥
या सीतावनि संभवाथमिथिलापालेन
संवर्धितापद्माक्षनृपतेः सुता नलगता या
मातुलिङ्गोत्भवा। या रत्ने लयमागता
जलनिधौ या वेद वारं गतालङ्कां
सा मृगलोचना शशिमुखी मांपातु रामप्रिया ॥
॥ अथ न्यासः ॥
अस्य श्री सीताकवच मन्त्रस्य अगस्ति ऋषिः ।
श्री सीता देवता । अनुष्टुप् छन्दः । रमेति बीजम् ।
जनकजेति शक्तिः ऽवनिजेति कीलकम् ।
पद्माक्ष सुतेत्यस्त्रम् । मातुलिङ्गीति कवचम् ।
मूलकासुर घातिनीति मन्त्रः ।
श्रीसीतारामचन्द्र प्रीत्यर्थं सकल
कामना सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥
॥ अथ अङ्गुळी न्यासः ॥
ॐ ह्रां सीतायै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं रमायै तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं जनकजायै मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रैं अवनिजायै अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं पद्माक्षसुतायै कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रः मातुलिङ्ग्यै करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥
॥ हृदयादिन्यासः ॥
ॐ ह्रां सीतायै हृदयाय नमः ।
ॐ ह्रीं रमायै शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रूं जनकजायै शिकायै वषट् ।
ॐ ह्रैं अवनिजायै कवचाय हुम् ।
ॐ ह्रौं पद्माक्षसुतायै नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ह्रः मातुलिङ्ग्यै अस्त्राय फट् ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
॥ अथ ध्यानम् ॥
सीतां कमलपत्राक्षीं विद्युत्पुञ्च समप्रभाम् ।
द्विभुजां सुकुमाराङ्गीं पीतकौसेय वासिनीम् ॥
सिंहासने रामचन्द्र वामभाग स्थितां वराम् ।
नानालङ्कार सम्युक्तां कुण्डलद्वय धारिणीम् ॥
चूडाकङ्कण केयूर रशना नूपुरान्विताम् ।
सीमन्ते रविचन्द्राभ्यां निटिले तिलकेन च ॥
मयूरा भरणेनापि घ्राणेति शोभितांशुभाम् ।
हरिद्रां कज्जलं दिव्यं कुङ्कुमं कुसुमानि च ॥
बिभ्रन्तीं सुरभिद्रव्यं सगन्ध स्नेह मुत्तमम् ।
स्मिताननां गौरवर्णां मन्दार कुसुमं करे ॥
बिभ्रन्ती मपरे हस्ते मातुलिङ्ग मनुत्तमम् ।
रम्यवासां च बिम्बोष्ठीं चन्द्र वाहन लोचनाम् ॥
कलानाथ समानास्यां कलकण्ठ मनोरमाम् ।
मातुलिङ्गोत्भवां देवीं पद्माक्षदुहितां शुभाम् ॥
मैथिलीं रामदयितां दासीभिः परिवीजिताम् ।
एवं ध्यात्वा जनकजां हेमकुंभ पयोधरां ॥
सीतायाः कवचं दिव्यं पठनीयं सुभावहं ॥
ॐ । श्री सीता पूर्वतः पातु दक्षिणेवतु जानकी ।
प्रतीच्यां पातु वैदेही पातूदीच्यां च मैथिली ॥
अधः पातु मातुलिङ्गी ऊर्ध्वं पद्माक्षजावतु ।
मध्येवनिसुता पातु सर्वतः पातु मां रमा ॥
स्मितानना शिरः पातु पातु भालं नृपात्मजा ।
पद्मावतु भृवोर्मध्ये मृगाक्षी नयनेवतु ॥
कपोले कर्णमूले च पातु श्रीराम वल्लभा ।
नासाग्रं सात्विकी पातु पातु वक्त्रं तु राजसी ॥
तामसी पातु मद्वाणीं पातु जिह्वां पतिव्रता ।
दन्तान् पातु महामाया चिबुकं कनकप्रभा ॥
पातु कण्ठं सौम्यरूपा स्कन्धौ पातु सुरार्चिता ।
भुजौ पातु वरारोहा करौ कङ्कण मण्डिता ॥
नखान् रक्तनखा पातु कुक्षौ पातु लघूदरा ।
वक्षः पातु रामपत्नी पार्श्वे रावणमोहिनी ॥
पृष्ठदेशे वह्निगुप्ता वतु मां सर्वदैव हि ।
दिव्यप्रदा पातु नाभिं कटिं राक्षस मोहिनी ॥
गुह्यं पातु रत्नगुप्ता लिङ्गं पातु हरिप्रिया ।
ऊरू रक्षतु रंभोरूः जानुनी प्रिय भाषिणी ॥
जङ्घे पातु सदा सुभ्रूः गुल्फौ चामरवीजिता ।
पादौ लवसुता पातु पात्वङ्गानि कुशाम्बिका ॥
पादाङ्गुळीः सदा पातु मम नूपुर निस्वना ।
रोमाण्यवतु मे नित्यं पीतकौशेयवासिनी ॥
रात्रौ पातु कालरूपा दिने दानैक तत्परा ।
सर्वकालेषु मां पातु मूलकासुरघातिनी ॥
एवं सुतीक्ष्ण सीतायाः कवचं ते मयेरितम् ।
इदं प्रातः समुत्थाय स्नात्वा नित्यं पठेत्तुयः ॥
जानकीं पूजयित्वा स सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।
धनार्थी प्राप्नुयाद्द्रव्यं पुत्रार्थी पुत्रमाप्नुयात् ॥
स्त्रीकामार्थी शुभां नारीं सुखार्थि सौख्य माप्नुयात् ।
अष्टवारं जपनीयं सीतायाः कवचं सदा ॥
अष्टभूसुर सीतायै नरै प्रीत्यार्पयेत् सदा ।
फलपुष्पादि कादीनि यानि यानि पृथक् पृथक् ॥
सीतायाः कवचं चेदं पुण्यं पातक नाशनम् ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या ते धन्या मानवा भुवि ॥
पठन्ति रामकवचं सीतायाः कवचं विना ।
तथा विना लक्ष्मणस्य कवचेन वृथा स्मृतम् ॥
तस्मात् सदा नरैर् जाप्यं कवचानां चतुष्टयम् ।
आदौ तु वायुपुत्रस्य लक्ष्मणस्य ततः परम् ॥
ततः पटेच्च सीतायाः श्रीरामस्य ततः परम् ।
एवं सदा जपनीयं कवचानां चतुष्टयम् ॥
॥ इति श्री सीता कवचं सम्पूर्णम् ॥
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