Kavacha Collection

    Maa Kali kavacha (कालीकवचम् )

    ।। कालीकवचम् ।। भैरव्युवाच । कालीपूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधः प्रभो । इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं पूर्व सूचितम् ।। त्वमेव शरणं नाथ त्राहि मां दुःखसङ्कटात् । त्वमेव स्रष्टा पाता च संहर्ता च त्वमेव हि ।। टीका-भैरवी ने कहा हे नाथ! हे प्राण वल्लभ, प्रभो। मैंने कालीपूजा और उसके विविध भाव सुने, अब पूर्व सूचित कवच सुनने की इच्छा हुई है, उसको वर्णन करके मेरी दुःख संकट से रक्षा कीजिये आपही रचना कर रक्षा करते और संहार करते हो, हे नाथ! आपही मेरे आश्रय हो । भैरव उवाच । रहस्यं शृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे । श्रीजगन्मंगलं नाम कवचं मंत्रविग्रहम् पठित्वा धारयित्वा च त्रैलोक्यं मोहयेत् क्षणात् II टीका-भैरव ने कहा ! हे प्राण बल्लभे ! 'श्री जगन्मंगलनामक' कवच को कहता हूँ। सुनो, इसके पाठ अथवा धारण करने से प्राणी तीनों लोकों को मोहित कर सकता है। नारायणोऽपि यध्वृत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् । योगेशं क्षोभमनयद्यध्दृत्वा च रघूद्वहः । वरदृप्तान् जघानैव रावणादिनिशाचरान् ।। टीका-नारायण ने इस कवच को धारण करके नारी रुप से योगेश्वर शिव को मोहित किया था। श्रीरामचन्द्र ने इसको धारण करके वर-दृप्त रावणादि राक्षसों का संहार किया था। यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी प्रभुः । धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः । एवं हि सकला देवाः सर्व्वसिद्धीश्वराः प्रिये ।। टीका-हे प्रिये ! इस कवच के प्रभाव से मैं तैलोक्य विजयी हुआ, कुबेर इसके प्रसाद से धनाधिप, शचीपति सुरेश्वर, और सम्पूर्ण देवतागण सर्वसिद्धीश्वर हुए हैं। श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य ऋषि श्शिवः । छन्दोऽनुष्टुब्देवता च कालिका दक्षिणेरिता ।। जगतां मोहने दुष्ट निग्रहे भुक्तिमुक्तिषु । योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीत्तितः ।। टीका-इस कवच के ऋषि शिव, छन्द अनुष्टुप् देवता दक्षिणकालिका और मोहन दुष्टनिग्रह भुक्ति मुक्ति और योषिदाकर्षण में विनियोग हैं। शिरो में कालिका पातु क्रीङ्कारैकाक्षरी परा । क्रीं क्रीं क्रीं मेललाटञ्च कालिका खङ्ग धारिणी ।। हूँ हूँ पातु नेत्त्रयुग्मं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुती मम । दक्षिणा कालिका पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरी ।। क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातु कपोलकम् । वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी ।। टीका-कालिका और क्रीङ्कारा, मेरे मस्तक की क्रीं क्रीं क्री और बङ्गधारिणी कालिका ललाट की, हूँ हूँ दोनों नेत्रों की, ह्रीं ह्रीं कर्ण की, दक्षिणा कालिका दोनों घ्राण की, क्रीं क्रीं क्रीं रसना की, हूँ हैं कपोलदेश की और ह्रीं ह्री स्वाहास्वरूपिणी संपूर्ण बदन की रक्षा करें। द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा । खङ्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गमभितोऽवतु ॥ क्रीं हूं ह्रीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम। ऐंहुंओऐं स्तनद्वन्द्वं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् II अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तृका । क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं करौ पातु षडक्षरी मम II टीका-बाईस अक्षर की विद्यारूप सुखदायिनी महाविद्या दोनों स्कन्धों की, खङ्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्ग की. क्रीं हूँ ही चामुण्डा हृदय की, ऐं हूँ ओ ऐं दोनों स्तनों की, ह्रीं फट् स्वाहा कन्धों की, अष्टाक्षरी महाविद्या दोनों भुजाओं की और क्रीं इत्यादि षडक्षरीविद्या दोनों हाथों की रक्षा करें ॥ की नाभि मध्यदेशञ्ज दक्षिणा कालिकाऽवतु । क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठन्तु कालिका सा दशाक्षरी II ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूँ ह्रीं पातु कटीद्वयम् । काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातूरुयुग्मकम् । ॐ ह्रीं क्रीं में स्वाहा पातु कालिका जानुनी मम II कालीहृन्नामविद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा । टीका-क्रीं नाभिदेश की, दक्षिणा कालिका मध्यदेश की, क्रीं स्वाहा और दशाक्षर मन्त्र पीठ की, ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके ह्रीं ह्रीं कटि, दशाक्षरीविद्या उरु की और ॐ ह्रीं क्रीं स्वाहा जानुदेश की रक्षा करें। यह विद्या चतुर्वगफल दायिनी है। क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु गुल्फ दक्षिणे कालिकेऽवतु । क्रीं हूं ह्रीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ।। टीका-क्रीं ह्रीं ह्रीं गुल्फ की एवं क्रीं हूं ह्रीं स्वाहा और चतुर्हणाक्षरी विद्या मेरे पाँवों की रक्षा करें। खङ्गमुण्डधरा काली वरदा भयवारिणी । विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।। टीका-बङ्ग मुण्डधरा वरदा भयहारिणी काली सब विद्याओं के सहित मेरे सर्वांग की रक्षा करो ।। काली कपालिनी कुल्वा कुरुकुल्ला विरोधिनी । विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दिप्ता घनत्विषः ।। नीला घना बालिका च माता मुद्रामिता च माम् । एताः सर्वाः खङ्गधरा मुण्डमालाविभूषिताः ॥ रक्षन्तु मां दिक्षु देवी ब्राह्मी नारायणी तथा । माहेश्वरी च चा मुण्डा कौमारी चापराजिता ।। वाराही नार्रासही च सर्वाश्चामितभूषणाः । रक्षन्तु स्वायुधैर्धोदक्षु मां विदिक्षु यथा तथा ।। टीका-काली कपालिनी कुल्वा कुरु कुल्ला, विरोधिनी विप्रचिता, उग्रोग्र प्रभा, दीपा, धनत्विषा, नीला घना, बालिका माता, मुद्रामिता ये सब खङ्गधारिणी मुण्डमाला धारिणी देवी हमारी दिशाओं की रक्षा करें। ब्राह्मी नारायणी, माहेश्वरी, चामुण्डा, कौमारी, अपराजिता, बाराही तथा नारसिही ये सब असंख्य आभूषणों को धारण करने वाली अपने आयुधों सहित मेरी दिशा, विदिशाओं में रक्षा करें। इत्येवं कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम् । श्री जगन्मंगलं नाम महामन्त्रौघविग्रहम् ।। त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् । गुरुपूजां विधायाथ गृह्णीयात् कवचं ततः । कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्जीवन्त वा पुनः।। टीका-यह कवच 'जगन्संगलनामक' महामंत्र स्वरूप परम अद्भुत कवच कहा गया है। इसके द्वारा विभुवन आकर्षित होता है। गुरु र्क पूजा करने के उपरान्त कवच को ग्रहण करना चाहिये। इसक यावज्जीवन दिन में एक या तीन बार पाठ करना चाहिये । एतच्छतार्द्ध मावृत्य त्रैलोक्र्यावजयी भवेत् ।। त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ।। महाकविर्भवेन्मासात्सर्व सिद्धीश्वरो भवेत् ।। टीका-इस कवच की पचास आवृत्ति करने से पुरुष तैलोक विजयी हो सकता है, इस कवच के प्रताप से त्रिभुवन क्षोभित होता है इस कवच के पाठ करने से एक मास में सभी सिद्धियों का स्वामी है सकता है। पुष्पाञ्जलीन् कालिकायै मूलेनैव पठेत् सकृत् । शतवर्षसहस्त्राणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ।। टीका-मूल मंत्र द्वारा कालिका को पुष्पाञ्जलि देकर एक बा मात्र इस कवच का पाठ करने से शतसहस्त्रवार्षिकी पूजा का फ प्राप्त होता है। भूजें विलिखितञ्चैव स्वर्णस्थं धारयेद्यदि । शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद्यदि ।। त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् । बह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ।। टीका-इस कवच को भोजपत्र अथवा स्वर्ण पत्त्र पर लिखक शिर, मस्तक या दक्षिण-हस्त या कंठ में धारण करने से अपने क्रोध विभुवन को मोहित वा चूर्ण करने में समर्थ होता है और जो स्व इस कवच को धारण करती है वह बहुत सन्तान वाली और जीववत्र होती है। इसमें सन्देह नहीं I न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः । शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यश्चान्यया मृत्युमाप्नुयात् ।। स्पर्द्धामुद्ध्य कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे । पौवान्तस्थैर्य्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ।। टीका-इस कवच को अभक्त अथवा परशिष्य को नहीं देना चाहिए, भक्तियुक्त अपने शिष्य को दे। इसके विपरीत करने से मृत्यु के मुख में गिरना होता है। इस कवच के प्रभाव से कमला (लक्ष्मी) निश्चल होकर साधक के घर में और वाग्देवी मुख में निवास करती है। इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत्कालिदक्षिणाम् । शतलक्षं प्रजप्यापि तस्य विद्या न सिध्यति । स शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ।। टीका-इस कवच को जाने बिना जो पुरुष काली मन्त्र का जप करता है, सो लाख जपने से भी उसको सिद्धि प्राप्त नहीं होती, और वह पुरुष शीघ्र ही शरत्त्राघात से प्राण त्याग करता है।

    Tara Kavacha Mantra (तारा-कवच)

    तारा-कवच भैरव उवाच दिव्यं हि कबचं देवि ताराया: सर्व्वकामदम्‌ । शृणुष्व परमं तत्तु तव स्नेहात्‌ प्रकाशितम् ॥ टीका-भैरव ने कहा हे देवी! तारा देवी का दिव्य कवच सर्वकाम प्रद और श्नेष्ठ है । तुम्हारे प्रति स्नेह के कारण ही कहता हूँ सुनो। अक्षोभ्य ऋषिरित्यस्य छन्दस्त्रिष्टुबुदात्दृतम्‌ । तारा भगवती देवी मंत्रसिद्धौ प्रकीतितम्‌ ॥ इस कवच के ऋषि अक्षोभ्य हैं, छंद त्रिष्टुप् है देवता भगवती तारा हैं और मंत्र सिद्धियों में इसका विनियोग है । ओंकारों में शिर: पातु ब्रह्मरूपा महेश्वरी। ह्लीङ्कार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी ॥ स्त्रींङ्कारः पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी । हुङ्कारः पातु हृदये तारिणी शत्त्किरूपधृक्‌ ॥ टीका-- ॐ ब्रह्मरूपा महेश्वरी मेरे मस्तक कीं, ह्लीं बीजरूपा महेश्वरी मेरे ललाट की, स्त्री लज्जारूपा महेश्वरी मेरे मुख की और हूँ शत्त्किरूपधारिणी तारिणी मेरे हृदय की रक्षा करें । फट्कार: पातु -सर्व्वांगे सर्वसिद्धि फलप्रदा । खर्वा मां पातु देवेशी गण्डयुग्मे भयापहा ॥ लम्बोदरी संदा स्कन्धयुग्मे पातु महेश्वरी । व्याघ्र चर्मावृता कटिं पातु देवी शिवप्रिया ॥ टीका-फट् सर्वसिद्धि फलप्रदा सर्वांगस्वरूपिणी भयनाशिनी खर्वा देवी कपोलों की, महेश्वरी लम्बोदरी देवी दोनों कन्धो की और व्याघ्रचर्मावृता शिवप्रिया मेरी कटि (कमर) की रक्षा करें । पीनोन्नतस्तनी पातु पार्श्वयुग्मे महेश्वरी । रत्त्कवर्त्तुलनेत्रा च कटिदेशे सदावतु ॥ ललज्जिह्वा सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी । करालास्या सदा पातु लिङ्गेर्देवी हरप्रिया॥ टीका-पीनोन्नतस्तनी महेश्वरी दोनों पार्शव की, रक्तगोलनेत्र वाली कटि की, ललजिह्ना, भुवनेश्वरी नाभि की और करालवदना हरप्रिया मेरे लिगस्थान की सदैव रक्षा करें । विवादे कलहे चैव अग्नौ च रणमध्यतः । सर्व्वदा पातु मां देवी झिण्ठीरूपा वृकोदरी ॥ झिन्‍टीरूपा वृकोदरी देवी विवाद में कलह में अग्नि मध्य में तथा रणमध्य में सदैव मेरी रक्षा करें । सर्व्वदा पातु मां देवी स्वर्गे मर्त्त्ये रसातले । सर्व्वस्त्रभुषिता देवी सर्व्वदेवप्रपुजिता ॥ क्रीं क्रीं हुं हुं फट्‌ २ पाहि पाहि समस्तत: ॥ टीका-सब देवताओं से पूजित समस्त--अस्त्रों से विभूषित देवी मेरी स्वर्ग, मर्त्य और रसातल में रक्षा करें । “क्रीं क्रीं हुँ हुँ फट् फट्” यह क्रीं बीजमंत्र मेरी सब ओर से रक्षा करे । कराला घोरदशना भीमनेत्रा वृकोदरी । अट्टहासा महाभागा विधूर्णितत्रिलोचना ॥। लम्बोदरी जगद्धात्री डाकिनी योगिनीयुता । लज्जारूपा योनिरूपा विकटा देवपूजिता ॥ पातु मां चण्डी मातंगी ह्युग्रचण्डा महेश्वरी ॥ टीका-महाकराल घोर दाँतोंवाली भयंकर नेत्रों और बृकोदरी (भेड़िये के समान उदर वाली) जोर से हँसने वाली, महाभाग वाली, घूर्णित तीन नेत्र वाली, लम्बायमान उदरवाली, जगत्‌ की माता, डाकिनी योगिनियों से युत्त्क, लज्जारूप, योनिरूप, विकट तथा देवताओं से पूजित, उग्रचण्डा महेश्वरी मातंगी मेरी रक्षा करें । जले स्थले चान्तरिक्षे तथा च शत्रुमध्यतः । सर्व्वतः पातु मां देवी खड्गहस्ता जयप्रदा ॥ टीका-खड्ग धारिणी, जय देनेवाली देवी मेरी जल में, स्थल में, शून्य में; शत्रुओंके मध्यमें और अन्यान्य सभी स्थानों में रक्षा करें कवचं प्रपठेद्यस्तु धारयेच्छृणुयादपि । न विद्यते भयं तस्य त्रिषु लोकेषु पार्व्वति । टीका-जो व्यक्ति (साधक) इस कवच को पढ़ते हैं, धारण करते हैं अथवा सुनते हैं, हे पार्वती! उन्हें तीनों लोकों में कहीं भी भय नही रहता है । इति श्रीभाषाटीकासहितं ताराकव्चं संपूर्णम्‌ ।

    (Narasimha Kavach) नृसिंह कवच

    नृसिंह कवच(Narasimha Kavach) अभिचार प्रयोगों से बचने के लिये गजेन्द्र मोक्ष का प्रयोग सम्पुटित शतचंडी, प्रत्यंगिरा ओर नृसिंह कवच का प्रयोग किया जाता है । अगर कोई अभिचार प्रयोग के चपेट में आ जाए उनकी रक्षा भी नृसिंह कवच से होती है । इसे नीचे दिया जा रहा है । किसी भी माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दिन शुभ नक्षत्र रहने पर तथा शुभ योग रहने पर गुरु एवं शुक्रोदय काल में इस स्तोत्र को भोजपत्र पर या सादे कागज पर लिख कर अष्टगंध से अनार के कलम से लिखकर षोडशोपचार से पूजा कर दें। साथ ही कवच पर ध्यान लगाकर 108 बार पाठ कर दे । इस स्तोत्र के प्रत्येक मन्त्र से घी का हवन ११ बार कर दें। तत्पश्चात्‌ सोना, चाँदी या ताँबा की ताबीज में स्तोत्र को भरकर गले या दाहिने हाथ में धारण करें, मन्त्र काला सूत्र में पहनें। इससे सब प्रकार की पराकृत व्याधि जाती रहती है। दुष्टों के द्वारा किया हुआ अभिचार कर्म समाप्त होकर व्यक्ति निरोग हो जाता है। नारद उवाच इन्द्राणि देव सन्देश इड्येश्वर जगत्पते, महाविष्णु नृसिंह कवचं ब्रुहि मे प्रभो। यस्य प्रपठनात्‌ विद्धान्‌ त्रैलोक्ये विजयी भवेत्‌। ब्रह्मा उवाच श्रणु नारद वक्ष्यामि पुत्रश्रेष्ठ तपोधन। कवच नरसिंहस्य अैलोक्ये विजयी भवेत्‌॥ स्रष्टाहं जगता वत्स पठनात्‌ धारणात्‌ यतः। लक्ष्मी जगत्‌ क्रयं पाति संहर्ता च महेश्वरः ॥ पठनात् धारणात् देवाः वणवश्च दिगोश्वरः । ब्रह्ममन्त्रमयं वक्ष्ये भ्रान्त्यादि विनिवारकम् ॥ यस्य प्रसादात् दुर्वासः त्रैलोक्य विजयी भवेत् । पठनात् धारणात् यस्य शास्त्रा च क्रोध भैरवः ॥ त्रैलोक्ये विजयस्यापि कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिः छन्दस्तु गायत्री नृसिंहो देवता विभुः ॥ क्षौ बीजं मे सिरः पातु चन्द्रवणीं महामनुः । ओं उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्‌ ॥ नृसिंह भीषणं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्‌। द्वात्रिशद अक्षरो मंत्रो मंत्रराजः सुरद्रुमः॥ कंठं पातु श्रुवं श्रीं हद्‌ भगवते चक्षुषि मम्‌। नरसिंहाय च ज्वाला मालिने पातु कर्णकम्‌॥ दीप दृष्टाय च तथा अग्निनेत्राय नासिकाम्‌। सर्व रक्षोहनाय च तथा सर्वभूतं हिताय च॥ सर्व ज्वर विनाशाय दह दह पदद्दयम्‌। रक्ष रश्च वक्रमन्त्रः स्वाहा पातुं मुखं मम॥ तारादि रामचन्द्राय नमः पातु हृद मम। क्लीं प्रायात्पाशर्वयुग्मं च तारो नमः पदं ततः ॥ नारायणाय नाभिं च आं हीं क्रों श्रो च हुंम्‌ फट्‌। षडक्षरः कटि पातु ओं नमो भगवते पदम्‌॥ वासुदेवाय च पृष्ठं क्लीं कृष्णाय क्लीं उरूद्वयम्‌। क्लीं कृष्णाय सदा पातु जानुनी च मनुत्तमः ॥ क्लीं क्लीं क्लीं श्यामलांगाय नमः पायात्पद। क्षौ नृसिंहाय क्षों च सवगि मे सदावतु ॥ इति तै कथितं वत्स सर्व मन्त्रोद्य विग्रहम्‌। तब स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तव्यं न कष्यचित्‌। गुरूपूजां विधायाश गृहणीयात्‌ कवचं ततः ॥

    Amogh Shivakavacha (अमोघ शिवकवचम्‌)

    अमोघ शिवकवचम्‌ (Amogh Shivakavacham) ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सकलतत्वविहाराय सकललोकैककत्रें सकललोककैकभर्ते सकललोकैकहर्ने सकललोकैकगुरवे सकललोकराक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकलवरप्रदाय सकलदुरितार्तिभञ्जनाय सकलजगदभयंकराय सकललोकैकशंकराय शशांकशेखराय शाश्चतनिजाभासाय निर्गुणाय नीरुपमाय नीरूपाय निराभासाय निरामयाय निष्प्रपंचाय निष्कलंकाय निर्द्धन्दधाय निस्संगाय निर्मलाय निर्गमाय नित्यरूपविभवाय निरुपमविभवाय निराधाराय नित्यशुद्धबुद्धपरिपूर्णसच्चिदानन्दाद्ययाय परमशान्तप्रकाश तेजोरूपा जय जय महारुद्र महारौद्र भद्रावतार दुःखदावदारण महाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव कपालमालाधर खटवांगखंगचर्मपाशांकुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्तिभिन्दिपा- लतोमरमूसलमुगद्रपटिटशपरशुपरिघभुशुण्डीशताघ्नीचक्राद्या- युधभीषणकर सहस्रमुख दंष्टोकराल विकटाट्टहासविसफा- रितब्रह्माण्डमण्डलनागेन्द्रगुण्डल नागेन्द्रहार नागेन्द्रवलय नागेन्द्रचर्मधर मृत्युञ्जय ज्यम्बक त्रिपुरान्तक विरूपाक्ष विश्वेश्वर वृषभवाहन विषभूषण विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामत्युभयमुत्सादयोत्सादयं नाशय नाशय रोगभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरभयं मारय मारय मम शतरुनुच्चाटयोच्चाटय शूलेन विदारय विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि खंगेन छिन्धि छिन्धि खट्वांगेन विपोथय विपोथय मूसलेन निष्येषय निष्येषय बाणैः संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषय भूतानि विद्रावय विद्राव्य कूष्यांडवेतालमारीगणब्रह्य राक्षसान्‌ संत्रासय स्त्रासय | ममाभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय नरक भयान्मामुद्धारयोद्धारय संजीवय संजीवय क्षुत्तदभ्यां ममाप्याययाप्यायय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन पापाच्छादयाच्छादय जयम्बक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते। अमोघ शिवकवचम्‌ Meaning(अर्थ) " ॐ ' जिनका वाचक है, सम्पूर्णं तत्त्व जिनके स्वरूप हैं, जो सम्पूर्ण तत्त्वो मे विचरण करने वाले, समस्त लोकों के एकमात्र कर्ता ओर समस्त विश्व के एकमात्र भरण-पोषण करने वाले हैं, जो अखिल विश्व के एक ही संहारकारी, सब लोकों के एकमात्र गुरु, समस्त संसार के एकमात्र साक्षी, सम्पूर्ण वेदों के गुद तत्त्व, सबको वर देने वाले, समस्त पापों ओर पीड़ाओं का नाश करने वाले, सारे संसार को अभय देने वाले, समस्त लोकों के एकमात्र कल्याणकारी, चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले, अपने सनातन-प्रकाश से प्रकाशित होने वाले, निर्गुण, उपमारहित, निराकार, निराभास, निरामय, निष्प्रपञ्च, निष्कलंक, निर्रद्, निस्संग, निर्मल, गति -शून्य, नित्यरूप, नित्य वैभव से सम्पन्न, अनुपम रेश्वर्य से सुशोभित, आधार शून्य, नित्य-शुद्ध-बुद्ध, परिपूर्ण, सच्िदानन्दघन, अद्वितीय तथा परमशांत, प्रकाशमय, तेजःस्वरूप हैं, उन भगवान सदाशिव को नमस्कार है। हे महारुद्र, महारौद्र, भद्रावतार, दुःख-दावाग्नि विदारण,महाभैरव, कालभैरव, कलपान्तभैरव, कपालमालाधारी! हे खटवांङ्ग खंग, ढाल, फन्दा, अंकुश, डमरू, त्रिशूल, धनुष, बाण, गदा शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर, मूसल, मुग्दर, पट्टिश, परशु, परिघ भुशुण्डी शतघ्नी और चक्र आदि आयुधों के द्वारा भयंकर हाथा वाले! हजार मुख और द्रष्टा से कराल. विकट अट्टहास से विशाल ब्रह्माण्डमंडल का विस्तार करने वाले, नागेन्द्र वासुकि को कुण्डल, हार, कंकण तथा ढाल के रूप में धारण करने वाले, मृत्युञ्जय, त्रिनेत्र, त्रिपुरनाशक, भयंकर नेत्रों वाले, विश्वेश्वर, विश्वरूप में प्रकट, बैल पर सवारी करने वाले, विष को गले में भूषण रूप में धारण करने वाले तथा सब ओर मुख वाले भगवान् शंकर ! आपकी जय हो, जय हो! आप मेरी सब ओर से रक्षा कीजिये। प्रज्ज्वलित होइये प्रज्ज्वलित होइये। मेरे महामृत्युञ्जय भय का तथा अपमृत्यु के भय का नाश कीजिये, नाश कीजिये। बाहर और भीतरी रोग-भय को जड़ से मिटा दीजिये. जड़ से मिटा दीजिये। विष और सर्प के भय को शान्त कीजिये, शान्त कीजिये। चोरभय को मार डालिये, मार डालिये। मेरे (काम, क्रोध, लोभादि भीतरी तथा इन्द्रियों के और शरीर के द्वारा होने वाले पापकर्मरूपी बाहरी) शत्रुओं का उच्चाटन क्रीजिये, उच्चाटन कीजिये। त्रिशूल के द्वारा विदारण कीजिये, विदारण कीजिये। कुठार के द्वारा काट डालिये, काट डालिये। खड्ग के द्वारा छेद डालिए, छेद डालिए। खटवाड़ के द्वारा नाश कीजिये, नाश कीजिये। मूसल क द्वारा पीस डालिये, पीस डालिये ओर बाणो के द्वारा बीध डालिए, बींध डालिए्‌। (आप मेरी हिसा करने वाले) राक्षसो को भय दिखाइये, भय दिखाइये। भूतो को भगा दीजिये, भगा दीजिये। कूष्माण्ड, वेताल, मारियों और ब्रह्मराक्षसों को संत्रस्त कीजिये, संत्रस्त कीजिये। मुञ्च को अभय दीजिये, अभय दीजिये। मुझे अत्यन्त डरे हुए को आश्वासन दीजिए, आश्वासन दीजिए। नरक भय से मरा उद्धार कीजिए, उद्धार कौजिए। मुझे जीवनदान दीजिए, जीवनदान दीजिए। क्षुधा-तृष्णा का निवारण करके मुञ्जको आप्यायित कीजिए, आप्यायित कीजिए। आपकी जय हो, जय हो। मुझ दुःखातुर को आनन्दित कीजिए, आनन्दित कीजिए। शिव कवच से मुझे आच्छादित कीजिए, आच्छादित कीजिए। त्रयम्बक सदाशिव आपको नमस्कार है, नमस्कार हे, नमस्कार हे।

    Shri Narayan Kavacha (श्री नारायण कवचम्‌)

    श्री नारायण कवचम्‌ (Shri Narayan Kavacha) विश्वरूप उवाचः धौताडः प्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः। कृतस्वांगकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥४॥ नारायणमयं वर्म संनहोद भय आगते। पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि॥५॥ मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोकारादीनि विन्यसेत्‌ ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि बा॥६॥ करन्यासं ततः कुर्याद्‌ द्वादशाक्षरविद्यया। प्रणवादियकारान्तमंगुल्यंगुष्ठपर्वसु ॥७॥ न्यसेद्धृदय ओंकारं विकारमनु मूर्थनि। षकारं तु भ्रुवोर्मध्येणकारं शिखया दिशेत्‌॥८॥ वेकारं नेत्रयोर्युज्जयान्नकारं सर्वसंधिषु। मकारमस्त्रमुदिश्य मन्त्रमूर्तिर्भयेद्‌‌ बुध:॥९॥ सविसर्गं फडन्तं तत्‌ सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्‌। ॐ विष्णवे नमः इति॥।१०॥ आत्मानं परमं ध्यायेद्‌ ध्येंयं घट्शक्तिभिर्युतम्‌। विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्रमुदाहरेत्‌॥९९॥ ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपदाः पतगेन्द्रपृष्ठे दरारिचर्मासिगदेषुचापपाशान्‌ दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहः॥१२॥ जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्या- दोर्गणेभ्यो वरुणस्य पाशात्‌। स्थलेषु मायावदटुवामनोऽव्यात्‌ त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूप:॥१३॥ दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायात्रृसिंहोऽसुरयुथपारिः। विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भा:॥१४॥ रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वद्रंष्टयोन्नीतधरो वराहः। रामोऽद्विकूटेषवथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद्‌ भरताग्रजोऽस्मान्‌॥९|| मामुग्रधर्पादखिलात्‌ प्रमादा- ज्नारायणः पातु नरश्च हासात्‌। दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद्‌ गुणेशः कपिलः कर्मबन्धनात्‌॥१६॥ सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा- द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्‌। देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्‌ कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्‌ ॥९७॥ धन्वन्तरिभभंगवान्‌ पात्वपथ्याद्‌ दन्द्दाद्‌ भयादूषभो निर्जितात्मा। यज्ञश्च लोकादेवताज्जानान्ताद्‌ बलो गणात्‌ क्रोधवशादहीन्द्रः॥९८॥ ट्वैपायनों भगवानप्रबोधाद्‌ बुद्धस्तु पाखण्डगणात्‌ प्रमादात्‌। कल्किः कलेः कालमलात्‌ प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः॥९९॥ मां केशवो गदया प्रातरव्याद्‌ गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः नारायणः प्राह्न उदात्तशक्ति- मध्यंदिने विष्णुररीन्द्रपाणिः॥२०॥ देवोऽपराहे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्‌। दोषी हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभ:॥२१॥ श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः। दामोदरोऽव्यादनुसंध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान्‌ कालमूर्तिः॥२२॥ चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत्‌ समन्ताद्‌ भगवत्प्रयुक्तम्‌। दंदग्धि दंदग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताश:॥२३॥ गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिंगे निष्पिण्डि निष्यिण्डय्यजितप्रियासि। कृष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो- भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन्‌॥२४॥ त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ- पिशाचविप्रग्रहवोरदृष्टीन्‌। दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनो ररेर्हदयानि कप्पयन्‌।।२५॥ त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य - मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि | चक्षुषि चर्मजछतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्‌॥२६॥ यत्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्‌ केतुभ्यो नृभ्य एव च। सरीसृपेभ्यो दष्टभ्यो भूतेभ्योऽहोभ्य एव वा॥२७॥ सर्वाण्येतानि भगवान्नामरूपास्त्रकीर्तनात्‌। प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः॥२८॥ गरुडो भगवान्‌ स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः। रक्षत्वशेषकृच्छेभ्यो विषवक्सेनः स्वनामभिः॥२९॥ गरुडो भगवान्‌ स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः। रक्षत्वशेषकृच्छेभ्यो विषवक्सेनः स्वनामभिः॥२९॥ सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः। बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान्‌ पान्तु पार्षदभूषणा:॥३०॥ यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्‌। सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु राशमुपद्रवाः॥३१॥ यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्‌। भूषणायुधलिंगाख्या धत्ते शक्ति: स्वमायमा॥३२॥ तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान्‌ हरिः। पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वग:॥३३॥ विदिक्षु दिकरध्वमधः समन्तादन्तबहिर्भगवान्‌ नारसिंहः। प्रहापयंल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः॥३४॥ मघवन्निदमाख्यातं वर्म॑ नारायणात्मकम्‌। विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान्‌॥३५॥ एतद्‌ धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा। पदा वा संस्पृशेत्‌ सद्यः साध्वसात्‌ स विमुच्यते॥३६॥ न कुतश्चिद्‌ भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्‌। राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रा दिभ्यश्च कहिंचित्‌॥३७॥ इमां विद्यां पुरा कश्चित्‌ कौशिको धारयन्‌ द्विजः। योगधारणया स्वांग जहौ स मरुधन्वनि।।३८॥ तस्योपरि विमानेन गन्थर्वपतिरेकदा। ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षय:॥३९॥ गगनान्यपतत्‌ सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः। स बालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः। प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात्‌ ॥४०॥

    Gayatri Kavacha (गायत्री कवचम्‌)

    गायत्री कवचम्‌ (Gayatri Kavacha) विश्वामित्र महाप्राज्ञ गायत्री कवचं शृणु, यस्य विज्ञानमात्रेण त्रैलोक्यं वशयेत्क्षणात्‌॥१॥ सावित्री मे शिरः पातु शिखायाममृतेश्वरी, ललाटं ब्रह्म दैवत्या भ्रुवौ मे पातु वैष्णवी।॥२॥ कणौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रीकाऽम्बके, गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ॥२॥ द्विजान्यज्ञप्रिया पातु रसनायां सरस्वती, मांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चंद्रहासिनी।४॥ चिबुकं वेदगर्भां च कण्ठं पात्वघनाशिनी, -स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हदयं ब्रह्मवादिनी।।५॥ उदरं विश्वभोक्त्री च नाभो पातु सुरप्रिया, जघनं नारसिंही च पृष्ठं ब्रह्माण्डधारिणी॥६॥ पाश्वों मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्त्रिकाऽवतु, ऊर्वो काररूपा च जान्वोः संध्यात्मिकाऽवतु॥॥७॥ जंघयोः पातु अक्षोभ्या गुल्फयो्ब्रह्य शीर्षका, सूर्या पद दयं पातु चन्दा पादांगुलीषु च।।८॥ सर्वाङ्ग वेद जननी पातु मे सर्वदाऽनघा।॥९॥ इत्येतत्‌ कवचं ब्रह्मन्‌ गायत्र्याः सर्वपावनम्‌। पुण्यं पवित्रं पापध्नं सर्वं रोग निवारणम्‌।॥९०॥ त्रिसंध्यं यः पठेद्विद्वान सर्वान्‌ कामान वाप्नुयात्‌, सर्व शास्त्रार्थं तत्वज्ञ: स भवेदवेदवित्तमः॥॥९९॥ सर्वयज्ञफलम्‌ प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात्‌, प्राप्नोति जपमात्रेण पुरुषार्थाश्चतुर्विधान्‌॥९२॥

    Kali Kavacha (क्राली कवचम्‌)

    क्राली कवचम्‌ (Kali Kavacha) ॥ विनियोग मन्त्र: ॥ ॐ अस्य श्री काली कवचस्य भैरव ऋषिर्गायत्री छंदः, श्री काली देवता सद्यः शत्रु हननार्थे पाठे विनियोगः। ॥ काली ध्यानम्‌ ॥ ध्यात्वा कालीं महामाया त्रिनेत्रां बहरूपिणीम्‌, चतुर्भुजां लोलजिह्लां पूर्ण चन्द्र निभाननाम्‌।।९॥ नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघ विदारिणीम्‌। नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं बरदं तथा ॥२॥ विभ्राणां रक्तवसनां घोरदंष्टा स्वरूपिणीम्‌ अट्टाय्हासनिरतां सर्वदा च दिगम्बराम्‌॥३॥ शवासनस्थितां देवी मुण्डमाला विभूषिताम्‌। इति ध्यात्वा महादेवीं ततस्तु कवचं पठेत्‌॥४॥ ॥ शिव उवाचः ॥ रावण के द्वारा पूछे जाने पर यह कवच भगवान शिवजी ने ऱबण को बताया था। ॐ कालिका घोर रूपादया सर्वकाम प्रदा शुभा, सर्व देव स्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे॥१॥ ह्रीं ह्रीं स्वरूपिणी चैव ह्रीं ह्रीं सं हं गिनी तथा, ह्रीं ह्रीं क्षै क्षौं स्वरूपा सा सर्वदा शत्रु नाशिनी ॥२॥ श्रीं ह्रीं ऐं रूपिणीं देवी भव बन्ध विमोचिनी, यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः ॥३॥ बैरिनाशाय वन्दे तां कालिकां शंकर प्रियाम्‌। ' ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका।४॥ कौमारी श्रीश्चचामुण्डा खाद्ययन्तु मम द्विषान्‌। सुरेश्वरी घोररूपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी॥५॥ मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु माँ सदा, ह्रीं ह्रीं कालिके घोरदष्ट रुधिर प्रिये।।६॥ ॥ माला मन्त्रः ॥ ॐ रुधिर पूर्ण वक्त्रे च च रुधिरावितास्तिनी मम णत्रून खाद्य खाद्य, हिसय हिंसय, मारय मारय, भिन्धि भिन्धि, छिन्धि छिन्धि, उच्चाटय उच्चाटय, द्रावय द्रावय, शोषय शोषय यातुधानिके चामुंड हीं हीं वाँ वीं कालिकायै मर्व शत्रून समर्पयामि स्वाहा, ॐ जहि जहि, किटि किटि, किरि किरि, कटु कटु, मर्दयं मर्दय, मोहय, हर हर मम्‌ रिपून्‌ ध्वंसय, भक्षय भक्षय, त्रोटय टय मातु धानिका चामुण्डायै सर्व जनान, राज पुरुषान, गजश्रियं देहि देहि, नूतनं नृतनं धान्य जक्षय जक्षय क्षां क्षीं क्षुं क्षौ क्षः स्वाहा। ॥ फल श्रुति ॥ इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं तव रावणः,ये पठन्ति सदा भक्तया तेषां नश्यन्ति शत्रुवः ॥७॥ वैरिणः प्रलयं यान्ति व्याधिताशय भवन्ति हि, धनहीनः पुत्रहीनः शत्रुदस्तय सर्वदा ॥८॥ सहस्त्र पठनात् सिद्धिः कवचस्य भवेत्तदा, ततः कार्याणि सिद्धयंति नान्यथा मम् भाषितम् ॥९॥

    Ganesh Kavacha (विध्नविनाशक गणेश कवचम्‌)

    विध्नविनाशक गणेश कवचम्‌ (Ganesh Kavacha) ॥ मुनि उवाचः ॥ ध्यायेत्‌ सिंहगतं विनायकममुदिग्बाहुमाधे युगे, तरेतायां तु मयुरवाहनममुंषडबाहुकं सिद्धिदम्‌॥१॥ द्वापरके तु गजाननं युगभुजं रक्तांग रागं विभु, तुये तु द्विभुजं सितांगरुचिरं सर्वार्थदं सर्वदा॥२॥ विनायकः शिखां पातु परमात्मा परात्परः, अति सुन्दरकायस्तु मस्तकं सुमहोत्कट:॥३॥ ललाटं कश्यप: पातु भ्रूयुगं तु म्रहोदरः, नयने भाल चंदरस्तु गजास्यस्त्वोष्ठपल्लवौ।।४॥ जिहां पातु गणाक्रीडश्चिबुक॑ गिरिजासुत:, वाचं विनायकः पातु दंतान्‌ रक्षतु दुर्मुख:॥५॥ श्रवणौ पाशुपाणिस्तु नासिकां चिंतितार्थदः, गणेशस्तु मुखं कंठं पातु देवो गणजञ्जयः।।६॥ स्कन्धौ पातु गजस्कन्धः स्तनौ विघ्नविनाशनः, हदयं गणनाथस्तु हेरंबो जठरं महान्‌॥७॥ धराधरः पातु पार्श्वो पृष्ठं विघ्नहरः शुभः, लिंगं गुह्यं सदा पातु वक्रतुंडो महाबलः॥८॥ मणक्रीडो जानु जंघे उरु मङ्गलमूर्तिमान्‌, एकदन्तो महाबुद्धिः पादौ गुल्फो सदावतु॥९॥ क्षिप्रप्रसादनो बाहू पाणी आशाप्रपूरकः अंगुलीएच नखान्पातु पदाहस्तोरिनाशनः॥१०॥ सर्वद्गणि मयूरेशो विश्वव्यापी सदावतु, अनुक्तमपि यत्स्थानं धूम्रकेतु: सदावतुः॥९९॥ आमोदस्त्वग्रतः पातु प्रमोदः पृष्ठतोऽवतु , प्राच्यां रक्षतु बुद्धिश आग्नेयां सिद्धिदायकः॥९२॥ दक्षिणस्यामुमापुत्रों नैऋत्यां तु गणेश्वरः, प्रतीच्यां विघ्नहर्ताऽव्याद्रायव्यां गजकर्णकः।।९३॥ कौेर्या निधिपः पायादीशान्यामीनन्दनः, दिवोऽव्यादेकदन्तस्तु रात्रौ संध्यासु विघ्नहत्‌।९४॥ राक्षसासुर वेताल ग्रह॒ भूत पिशाचत पाशाकुशधरः पातु रजः सत्वतमः स्मृती :॥१५॥ ज्ञानं धर्म च लक्ष्मीं च लज्जा कीर्ति तथा कुलम्‌, वपर्धनं च धान्यं च गृह दारान्मुतान्सखीन्‌।।१६॥ सर्वायुधधरः क्षेत्र मयूरेणोऽवतात्सदा, कपिलोऽजाविकं पातु गजाश्वान्‌ विकटोबतु॥९७॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं यः कण्ठे धारयेत्सुधी न भयं जायते तस्य यक्ष रक्षः पिशणाचतः॥१८॥ त्रिसन्ध्यं जपते यस्तु वज्रसार तनुरभवेत्‌, यात्रा काले पठेद्यस्तु निर्विघ्नेन फलं लभेत्‌॥९९॥ युद्धकाले पठेद्यस्तु विजयं चाप्नुयाद ध्रुवम्‌, मारणोच्चाटनाकर्ष स्तम्भ मोहन कर्मणि॥२०॥ सप्तवारं जपेदेतहिनानामेक विंशतिम्‌, तत्फलमवाप्नोति साधको नात्र संशयः।॥।२९॥ एकविंशतिवारं च पठेत्तावदहिनानि यः, कारागृह गतं सद्यो राज्ञवध्यं च मोचयेत्‌॥२२॥ राजा दर्शन वेलायां पठेदेत॒त्रिवारतः, स राजानं वशं नीत्वा प्रकृतिञ्च सभां जयेत्‌॥२३॥ इदं गणेश कवचं कश्यपेनसमीरितम्‌, मुद्गलाय च तेनाथ माण्डव्याय महर्षये॥२४॥ मह्यं स प्राह कृपया कवचं सर्वसिद्धिदम्‌, न देयं भक्ति हीनाय देयं श्रद्धावते शुभम्‌॥२५॥ अनेनास्य कृता रक्षा न बाधाऽस्य भवेत्क्वचित्‌, राक्षसा सुरवेताल दैत्य दानव सम्भवा॥२६॥ ॥ इति श्री गणेशपुराणे हिन्दी भाषा टीका सहित विध्नविनाशक गणेश कवचम्‌ सम्पूर्णम्‌ ॥

    Sudarshan Kavacha (श्री सुदर्शन कवच )

    श्री सुदर्शन कवच (Sudarshan Kavacha) ॐ अस्य श्री सुदर्शनकवचमालामन्त्रस्य। श्रीलक्ष्मीनृसिंहः परमात्मा देवता । मम सर्वकार्यसिद्धयर्थं जपे विनियोगः। ॐ क्षां अंगुष्ठाभ्यां नमः ॐ हीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ श्रीं मध्यमाभ्यां नमः ॐ सहस्रार अनाभिकाभ्यां नमः। ॐ हुँ फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ स्वाहा करतल-कर पृष्ठाभ्यां नमः एवं हदयादि। ध्यानम् उपास्महे नृसिंहाख्यं ब्रह्मवेदान्तगोचरम् । भूयो लालित-संसारच्छेदहेतुं जगद्गुरम् ॥ मानस-पूजा: लं पुथिव्यात्पकं गन्धं समर्पयामि । आकाशत्मिकं पुष्यं समर्पयामि यं वाय्वात्मकं धूपं समर्पयामि । रं बहन्यात्मकं दीपं समर्पयामि। वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयाभि। सं सवांत्मकं ताम्बूलं समर्पयामि। नमस्करोमि। ॐ सुदर्शनाय नमः। ॐ आं ही क्रों नमो भगवते प्रलयकालमहाज्वालाघोर-वीर- सुदर्शन-नारसिंहाय ॐ मरहाचक्रराजाय महाबलाय सहस्रकोटिसूर्यप्रकाशाय सहस्रशीर्षाय सहस्राक्षाय सहस्रपादाय संकर्षणत्मने सहस्रदिव्याश्र-सहस्रहस्ताय सर्वतोमुखज्वलनज्वालामालावृताया विस्फुलिंगस्फोटपरिस्फोटित ब्रह्माण्ड भाण्डाय महापराक्रमाय महोग्रविग्रहाय महाविराय महाविष्णुरूपिणे व्यतीतकालान्तकाय महाभद्ररौद्रावताराय मृत्युस्वरूपाय किरीटहार-केयूर-ग्रेवेय-कटकांगुलयी- कटिसूत्र मजीरादिकनकमणिखचित दिव्यभूषणाय महाभीषणाय महाभीक्षया व्याहततेजोरूपनिधेय रक्त चण्डान्तक मण्डितमदोरुकुण्डादुर्निरीक्षणाण प्रत्यक्षाय ब्रह्मचक्र विष्णुचक्र-कालचक्र-भूमिचक्र-तेजोरूपाव आश्रितरक्षाय। ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्‌ इतिस्वाहा स्वाहा ॥ (दो बार) भो भो सुदर्शन नारसिंह मां रक्षय रक्षय। ॐ सुदर्शनाय व्रिदमहे महाज्वालाय धीमहि । तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्‌॥ (दो बार) मम शत्रुन्नाशय नाशय ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्र प्रचोदयात्‌॥ (दो बार) ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल चंड चंड प्रचंड प्रचंड स्फुर प्रस्फुर घोर घोर घोरतर घोरतर चट चट प्रचट प्रचरं प्रस्फुट दह कहर भग भिंधि हंधि खटट प्रचट फट जहि जहि पय सस प्रलयवा पुरुषाय रं रं नोत्रग्निरूपाय। ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् (दो बार) भो भो सुदर्शन नारसिंह माँ रक्षय रक्षय। ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ॥ (दो बार) एहि एहि आगच्छ आगच्छ भूतग्रह-प्रेतग्रह-पिशाचग्रह-दानवग्रह कृतिमग्रह-प्रयोगग्रह- आवेशग्रह-आगतग्रह-अनागतग्रहान ब्रह्मग्रह-रुद्रग्रह-पाताल- निराकारग्रह-आचारअनाचारग्रह-ननजातिग्रह-भूचरग्रह- खेचरग्रह - वृक्षचरग्रह - पीक्षिचरग्रह गिरिचरग्रह- शमशानचरग्रह - जलचरग्रह कूपचरग्रह - देगारचलग्रह- शून्याचारचरग्रह-स्वप्नग्रह-दिवामनोग्रह-बालग्रह-मूकग्रह- मूखग्रह-बधिरग्रह-स्त्रीग्रह-पुरुषग्रह यक्षग्रह-राक्षसग्रह- प्रेतग्रह-किन्नरग्रह-साध्यचरग्रह-सिद्धचरग्रह कामिनीग्रह- मोहिनीग्रह-पद्मिनीग्रह-यक्षिणीग्रह-पक्षिणीग्रह-संध्याग्रह- मार्गग्रह-कलिंगदेवोग्रह-भैरवग्रह-बेतालग्रह-गन्धर्वग्रह प्रमुखसकलदुष्टग्रह रातांन् आकर्षय आकर्षय आवेशय ड ड ठ ठ ह्यय वाचय दह्य भस्मी कुरू उच्चाटय उच्चाटय। ॐ सुदर्शन विद्महे महाज्वाला धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ॥ (दो बार) ॐ क्षां श्रीं क्षं थें क्षों क्षः भ्रां श्रीं धुं भें भ्रौं भ्रः ह्रां ह्रीं हूं हैं हों हः घ्रां घीं घुं में घ्रों घः श्रां श्रीं श्रृं थें श्रों श्रः। ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ।। (दो बार) एहि एहि सालवं संहारय शरभं क्रंदया विद्रावय विद्रावय भैरव भीषय भीषय प्रत्यगिरि मर्दय मर्दय चिदम्बरं बन्धय बन्धय विडम्बरं ग्रासय ग्रासय शांर्भवां निवतंय कालीं दह दह महिषासुरीं छेदय छेदय दुष्टशक्ति निर्मूलय निर्मूलय रूं रूं हूं हूं मुरु मुरु परमंत्रपरयंत्र-परतंत्र कटुपरं वादुपर जप पर होमपर सहस्रदीपकोटिपूजां भेदय भेदय मारय मारय खंडय खंडय परकतृकं विषं निर्विषं कुरु कुरु अग्निमुख प्रकाण्ड नानाविधि-कर्तृमुख वनमुखंग्रहान् चूर्णय चूर्णय मारी विदारय कूष्माडं वैनायक मारीचगणान् भेदय भेदय मन्त्रांपरस्मांकं विमोचय विमोचय अक्षिशूलकुक्षिशूल- गुल्मशूल-पार्श्व-शूल-सर्वाबाधां निवारय निवारय पांडुरोगं संहारय संहारय विषमज्वरं त्रासय त्रासय एकाहिकं द्वाहिकं त्रयाहिकं चातुर्थिकं पंचाहिकं षष्टज्वर सप्तमज्वरं अष्टमज्वरं नवमज्वरं प्रेतज्वरं पिशाचज्वरं दानवज्वरं महाकालज्वरं दुर्गाज्वरं ब्रह्माविष्णुज्वरं माहेश्वरज्वरं चुतुःषष्टीयोगिनी ज्वरं गंधर्वज्वरं बेतालज्वरं एतान्‌ ज्वारानाशय नाशय दोषं मंथय मंथय दुरित हर हर अन्नतवासुकि तक्षक कालौय पदा कुलिक ककोर्टक शख पालाद्यष्टनागकुलानां विषं हन हन खं खं घं घं पाशुपतं नाशय नाशय शिखण्डं खंडय खंडय ज्वालामालिनीं निवर्तय सर्वेन्द्रियाणि स्तंभय स्तंभय खंडय खंडय प्रमुखदुष्टतंत्र स्फोटय स्फोटय भ्रामय भ्रामय महानारायणस्त्राय पंचाशब्धर्णरूपाय लल लल शरणागतरक्षणाय हुं हूं गं व गं व शं शं अपृतमूर्तये तथ्यं नमः। ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्‌ ॥ (दो बार) भो भो सुदर्शन नारसिंह मां रश्चय रक्षय । ॐ सुदर्शनाय विदमहे महाज्वालाय धीमहि। तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्‌॥ मम सर्वारिष्टशातिं कुरु कुरु सर्वतो रक्ष रक्ष ॐ ह्रीं हूँ फट्‌ स्वाहा । ॐ श्च ह्रीं श्री सहस्त्रार हं फट्‌ स्वाहा ।

    Shri Maha Mrityunjay Kavach (श्री महा मृत्युञ्जय कवच)

    श्री महा मृत्युञ्जय कवच(Shri Maha Mrityunjay Kavach) श्रीदेव्युवाच। भगवन्‌ सर्वधर्मज्ञ सृष्टिस्थितिलयात्मक । पृत्युंजयस्य देवस्य कवचं में प्रकाशय ॥ श्री ईश्वर उवाच ॥ श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिदम्‌। मार्कण्डेयोऽपि यद्धुत्वा चिरंजीवी व्यजायत॥ तथैव सर्वदिक््पाला अमरावमवाप्लुयुः । कवचस्य ऋषिर्ब्रह्मा छन्दोऽनुष्टुबुदाहतन्‌ ॥ मृत्युंजयः समुद्दिष्टो देवता पार्वतीपतिः । देहारोग्यदलायुष्ट्‌वे विनियोगः प्रकीर्तितः। ओं तर्यम्बकं मे शिरः पातु ललाटं मे यजामहे। सुगन्धिं पातु हृदयं जठरं पुष्टिवर्धनम्‌ ॥ नाधिमुर्वारुकमिव पातु मां पार्वतीपतिः। वन्धनादूरुयुग्मं मे पातु वामाङ्कशासनः ॥ मत्योजानुयुगं पातु दक्षयज्ञविनाशनः । जंघायुग्मं च मुक्षीय पातु मां चन्द्रशेखर: ॥ मामृताच्च पददवनदर पातु सर्वेश्वरो हरः। प्रसौ मे श्रीशिवः पातु नीलकण्ठश्च पार्वयोः ॥ ऊर्ध्वमेव सदा पातु सोमसूर्याग्निलोचनः। अधः पातु सदा शम्भुः सर्वापद्विनिवारणः ॥ वारुण्यापर्धनारीशो वायव्यां पातु शंकरः। कपदों पातु कौवेयमिशान्यां ईश्वरोऽवत्‌॥ ईशान: सलिले पायदघोरः पातु कानने। अन्तरिक्ष वामदेवः पायात्तत्पुरुषो भुवि ॥ श्रीकण्ठः शयने पातु भोजने नीललोहितः। गमने त्र्यम्बकः पातु सर्वकार्येषु भुवतः। सर्वत्र सर्वदेहं मे सदा मृत्युंजयो5वतु। इति ते कर्थितं दिव्यं कवचं सर्वकामदम्‌॥ सर्वरक्षाकरं सर्व॑ग्रहपीड़ा-निवारणम्‌। दुःस्वणनाशनं पुण्यमायुरारोग्यदायकम्‌॥ त्रिसंध्यं यः पठेदेतन्मृत्युतस्य न विद्यते। लिखितं भूर्जपत्रे तु य इदं मे व्यधारयेत् ॥ तं दृष्टैव पलायन्ते भूतप्रेतपिशाचकाः । डाकिन्यश्चैव योगिन्यः सिद्धगन्धर्वराक्षसः ।। बालग्रहादिदोषा हि नश्यन्ति तस्य दर्शनात्। उपग्रहाश्चैव मारीभयं चौराभिचारिणः ॥ इदं कवचमायुष्यं कथितं तव सुन्दरि । न दातव्यं प्रयत्नेन न प्रकाश्यं कदाचन् ॥

    Mrit Sanjeevanee Kavach (मृत संजीवनी कवच)

    मृत संजीवनी कवच(Mrit Sanjeevanee Kavach) जब मृत देह को अधिक काल तक सुरक्षित रखना हो, जब भी कोई देह त्याग करने लगे अर्थात प्राणान्त के समय संजीवनी कवच का पाठ अति उत्तम है। एवमाराध्य गौरीशं देवं मृत्युं जयेश्वरम्‌। मृतसंजीवनं नाम्नां कवचं प्रजपेत्सदा ॥ १॥ सारात्सारतरं पुण्यं गुह्याद्‌ गुहातरं शुभम्‌। महादेवस्य कवचं मृतसंजीवनामकम्‌॥ २॥ समाहितमना भूत्वा शृणुष्व ` कवचं शुभम्‌। श्रुत्वैतदिव्यकवचं रहस्यं कुरु सर्वदा॥३॥ वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः। मृत्युंजयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा॥ ४॥ दधानः शक्तिमभयां त्रिमुखः षड्भुजः प्रभुः । सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥ ५॥ अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभु:। यमरूपी महादेवो दक्षिणस्यां सदाऽवतु ॥ ६॥ खङ्ाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः। रक्षोरूपी महेशो मां नैऋत्यां सर्वदाऽवतु ॥ ७॥ पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः। वरुणात्मा महादेव: पश्चिमे मां सदाऽवतु ॥ ८॥ गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः। वायव्यां मारुतात्मा मां शंकरः पातु सर्वदा॥ ९॥ शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः। सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शंकरः प्रभुः॥ १०॥ शूलाभयकरः सर्वविद्यानामधिनायकः। ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥ १९॥ ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी विश्वात्माऽधः सदाऽवतु। शिरो मे शंकरः पातुः ललाटं चन्द्ररोखरः ॥ १२॥ भ्रूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिनेत्रो लोचनेऽवतु। भरूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥ १३॥ नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः । जिह्वां मे दक्षिणमूर्तिर्दन्ताममे गिरिशोऽवतु ॥ १४॥ मृत्युंजयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः। पिनाकी मत्करौ पातु त्रिशूली हदयं मम॥ ९५॥ पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः । नाधिं पातु विरूपाक्षः पाश्वों मे पार्वतीपतिः ॥ ९६॥ कटिद्दयं गिरिशो मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः। गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥ १७॥ जानुनी मे जगद्धर्ता जंघे मे जगदम्बिका। पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥ ९८ ॥ गिरिशः पातु मे भार्या भवः पातु सुतान्मम। मृत्युंजयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥ ९९॥ सर्वाङ्ग मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः। एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम्‌॥ २०॥ मृतसंजीवनं नाम्नां महादेवेन कीर्तितम् । सहस्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥ २१॥ यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सुसमाहितः । स कालमृत्युं निर्जित्यं सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥ हस्तेन वा यदा स्पृष्टवा मृतं संजीवयत्यसौ। आधयो व्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन॥ २३॥ कालमुत्यमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा। अणिमादिगुणैश्वर्य लभते मानवोत्तमः ॥२४॥ शुद्धारम्भे पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम्‌। युद्धमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न हृश्यते॥ २५॥ न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति यस्य वै। विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥ प्रातरुत्थाय सततं यः पटठेत्कवचं शुभम्‌। अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च॥२७॥ सर्वव्याधिविनिर्मुक्तः सर्वरोगविवर्जितः ¦ अजरामरणो भूत्वा सदा षोडषवार्षिंकः ॥ २८॥ विचरत्यखिलोँल्लोकाप्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्‌ । तस्मादिदं महागोप्यं कवचं समुदाहतम्‌॥ २९॥ मृतसंजीवनं नाम्ना दैवतैरपिदुर्लभम्‌॥ ३०॥

    Maa Durga Kavacha Path (माँ दुर्गा कवच पाठ)

    माँ दुर्गा कवच पाठ (Maa Durga Kavacha Path) ॥माँ दुर्गा कवच पाठ संस्कृत ॥ मार्कण्डेय उवाचः ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह । ब्रम्हो उवाचः अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृनुष्व महामुने । अथ दुर्गा कवचः प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयंचन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च । सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे । नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःख भयं न हि ॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। येत्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तन्न संशयः ॥ प्रेतसंस्था तु चामुन्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजासमारुढा वैष्णवी गरुडासना ॥ माहेश्वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ श्वेतरुपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता ॥ इत्येता मतरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः । नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। शङ्खचक्रगदां शक्ति हलं च मुसलायुधम् ॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धरयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महाबले महोत्साहे महाभ्यविनाशिनि । त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। प्राच्यां रक्षतुमामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खद्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायाव्यां मृगावाहिनी ॥ उदीच्यां पातु कौबेरी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जयामे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ अजिता वामपार्श्वे तु क्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योति निरक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी। त्रिनेत्रा च ध्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ॥ शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोद्बरवासिनी। कपौलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥ कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खङ्गिलनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥ हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छ्रुलेश्वरी रक्षेत्कक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढूं गुदे महिषवाहिनी ॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जडेघ महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्टे तु तैजसी। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ शुक्रं ब्रम्हाणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहंकारं मनो बुध्दिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ प्रणापानौ तथा व्याअनमुदानं च समानकम् । वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ आयू रक्षतु वाराही धर्म रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिचलक्ष्मींच धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ गोत्रामिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतुभैरवी ॥ पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्ग क्षेमकरी तथा। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ॥ पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः । कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः । यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोतिनिश्चितम् । परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते तले पुमान् ॥ निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः । त्रैलोक्येतु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । यंपठेत्प्रायतो नित्यं त्रिसन्ध्यम श्रद्धयान्वितः ॥ दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वप्राजितः । जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ॥ अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भुतले। भूचराः खेचराश्चेव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥ सहजाः कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ॥ ग्रहभूतपिशाचाश्च्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः। ब्रम्हराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥ नश्यति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥ यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले । जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ॥ यावभ्दूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रापौत्रिकी ॥ देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् । प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥ लभते परम्म रुपं शिवेन सह मोदते ॥

    Brihaspati Kavacha (बृहस्पति कवचम्)

    || बृहस्पति कवचम् || (Brihaspati Kavacha) अस्य श्रीबृहस्पति कवचमहा मंत्रस्य, ईश्वर ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, बृहस्पतिर्देवता, गं बीजं, श्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, बृहस्पति प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥ ध्यानम् अभीष्टफलदं वंदे सर्वज्ञं सुरपूजितम् । अक्षमालाधरं शांतं प्रणमामि बृहस्पतिम् ॥ अथ बृहस्पति कवचम् बृहस्पतिः शिरः पातु ललाटं पातु मे गुरुः । कर्णौ सुरगुरुः पातु नेत्रे मेभीष्टदायकः ॥ 1 ॥ जिह्वां पातु सुराचार्यः नासं मे वेदपारगः । मुखं मे पातु सर्वज्ञः कंठं मे देवतागुरुः ॥ 2 ॥ भुजा वंगीरसः पातु करौ पातु शुभप्रदः । स्तनौ मे पातु वागीशः कुक्षिं मे शुभलक्षणः ॥ 3 ॥ नाभिं देवगुरुः पातु मध्यं पातु सुखप्रदः । कटिं पातु जगद्वंद्यः ऊरू मे पातु वाक्पतिः ॥ 4 ॥ जानुजंघे सुराचार्यः पादौ विश्वात्मकः सदा । अन्यानि यानि चांगानि रक्षेन्मे सर्वतो गुरुः ॥ 5 ॥ फलशृतिः इत्येतत्कवचं दिव्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । सर्वान् कामानवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ॥ इति श्री बृहस्पति कवचम् ॥

    Panchmukh Hanumatkavacha (पञ्चमुख हनुमत्कवचम्)

    ॥ पञ्चमुख हनुमत्कवचम् ॥ (Panchmukh Hanumatkavacha) अस्य श्री पञ्चमुखहनुमन्मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्रीछन्दः पञ्चमुखविराट् हनुमान् देवता ह्रीं बीजं श्रीं शक्तिः क्रौं कीलकं क्रूं कवचं क्रैं अस्त्राय फट् इति दिग्बन्धः । श्री गरुड उवाच । अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वाङ्गसुन्दरि । यत्कृतं देवदेवेन ध्यानं हनुमतः प्रियम् ॥ 1 ॥ पञ्चवक्त्रं महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम् । बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥ 2 ॥ पूर्वं तु वानरं वक्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम् । दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटीकुटिलेक्षणम् ॥ 3 ॥ अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् । अत्युग्रतेजोवपुषं भीषणं भयनाशनम् ॥ 4 ॥ पश्चिमं गारुडं वक्त्रं वक्रतुण्डं महाबलम् । सर्वनागप्रशमनं विषभूतादिकृन्तनम् ॥ 5 ॥ उत्तरं सौकरं वक्त्रं कृष्णं दीप्तं नभोपमम् । पातालसिंहवेतालज्वररोगादिकृन्तनम् ॥ 6 ॥ ऊर्ध्वं हयाननं घोरं दानवान्तकरं परम् । येन वक्त्रेण विप्रेन्द्र तारकाख्यं महासुरम् ॥ 7 ॥ जघान शरणं तत्स्यात्सर्वशत्रुहरं परम् । ध्यात्वा पञ्चमुखं रुद्रं हनूमन्तं दयानिधिम् ॥ 8 ॥ खड्गं त्रिशूलं खट्वाङ्गं पाशमङ्कुशपर्वतम् । मुष्टिं कौमोदकीं वृक्षं धारयन्तं कमण्डलुम् ॥ 9 ॥ भिन्दिपालं ज्ञानमुद्रां दशभिर्मुनिपुङ्गवम् । एतान्यायुधजालानि धारयन्तं भजाम्यहम् ॥ 10 ॥ प्रेतासनोपविष्टं तं सर्वाभरणभूषितम् । दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् । सर्वाश्चर्यमयं देवं हनुमद्विश्वतोमुखम् ॥ 11 ॥ पञ्चास्यमच्युतमनेकविचित्रवर्ण- -वक्त्रं शशाङ्कशिखरं कपिराजवर्यम् । पीताम्बरादिमुकुटैरुपशोभिताङ्गं पिङ्गाक्षमाद्यमनिशं मनसा स्मरामि ॥ 12 ॥ मर्कटेशं महोत्साहं सर्वशत्रुहरं परम् । शत्रुं संहर मां रक्ष श्रीमन्नापदमुद्धर ॥ 13 ॥ हरिमर्कट मर्कट मन्त्रमिदं परिलिख्यति लिख्यति वामतले । यदि नश्यति नश्यति शत्रुकुलं यदि मुञ्चति मुञ्चति वामलता ॥ 14 ॥ ॐ हरिमर्कटाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखाय सकलशत्रुसंहारकाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय दक्षिणमुखाय करालवदनाय नरसिंहाय सकलभूतप्रमथनाय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय पश्चिममुखाय गरुडाननाय सकलविषहराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय उत्तरमुखाय आदिवराहाय सकलसम्पत्कराय स्वाहा । ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय सकलजनवशङ्कराय स्वाहा । ॐ अस्य श्री पञ्चमुखहनुमन्मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः पञ्चमुखवीरहनुमान् देवता हनुमान् इति बीजं वायुपुत्र इति शक्तिः अञ्जनीसुत इति कीलकं श्रीरामदूतहनुमत्प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । इति ऋष्यादिकं विन्यसेत् । अथ करन्यासः । ॐ अञ्जनीसुताय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ रुद्रमूर्तये तर्जनीभ्यां नमः । ॐ वायुपुत्राय मध्यमाभ्यां नमः । ॐ अग्निगर्भाय अनामिकाभ्यां नमः । ॐ रामदूताय कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ पञ्चमुखहनुमते करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । अथ अङ्गन्यासः । ॐ अञ्जनीसुताय हृदयाय नमः । ॐ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा । ॐ वायुपुत्राय शिखायै वषट् । ॐ अग्निगर्भाय कवचाय हुम् । ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ पञ्चमुखहनुमते अस्त्राय फट् । पञ्चमुखहनुमते स्वाहा इति दिग्बन्धः । अथ ध्यानम् । वन्दे वानरनारसिंहखगराट्क्रोडाश्ववक्त्रान्वितं दिव्यालङ्करणं त्रिपञ्चनयनं देदीप्यमानं रुचा । हस्ताब्जैरसिखेटपुस्तकसुधाकुम्भाङ्कुशाद्रिं हलं खट्वाङ्गं फणिभूरुहं दशभुजं सर्वारिवीरापहम् । अथ मन्त्रः । ॐ श्रीरामदूताय आञ्जनेयाय वायुपुत्राय महाबलपराक्रमाय सीतादुःखनिवारणाय लङ्कादहनकारणाय महाबलप्रचण्डाय फाल्गुनसखाय कोलाहलसकलब्रह्माण्डविश्वरूपाय सप्तसमुद्रनिर्लङ्घनाय पिङ्गलनयनाय अमितविक्रमाय सूर्यबिम्बफलसेवनाय दुष्टनिवारणाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीविनीसञ्जीविताङ्गद-लक्ष्मणमहाकपिसैन्यप्राणदाय दशकण्ठविध्वंसनाय रामेष्टाय महाफाल्गुनसखाय सीतासहितरामवरप्रदाय षट्प्रयोगागमपञ्चमुखवीरहनुमन्मन्त्रजपे विनियोगः । ॐ हरिमर्कटमर्कटाय बम्बम्बम्बम्बं वौषट् स्वाहा । ॐ हरिमर्कटमर्कटाय फम्फम्फम्फम्फं फट् स्वाहा । ॐ हरिमर्कटमर्कटाय खेङ्खेङ्खेङ्खेङ्खें मारणाय स्वाहा । ॐ हरिमर्कटमर्कटाय लुंलुंलुंलुंलुं आकर्षितसकलसम्पत्कराय स्वाहा । ॐ हरिमर्कटमर्कटाय धन्धन्धन्धन्धं शत्रुस्तम्भनाय स्वाहा । ॐ टण्टण्टण्टण्टं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखवीरहनुमते परयन्त्र परतन्त्रोच्चाटनाय स्वाहा । ॐ कङ्खङ्गङ्घंङं चञ्छञ्जञ्झंञं टण्ठण्डण्ढंणं तन्थन्दन्धन्नं पम्फम्बम्भम्मं यंरंलंवं शंषंसंहं लङ्क्षं स्वाहा । इति दिग्बन्धः । ॐ पूर्वकपिमुखाय पञ्चमुखहनुमते टण्टण्टण्टण्टं सकलशत्रुसंहरणाय स्वाहा । ॐ दक्षिणमुखाय पञ्चमुखहनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः सकलभूतप्रेतदमनाय स्वाहा । ॐ पश्चिममुखाय गरुडाननाय पञ्चमुखहनुमते मम्मम्मम्मम्मं सकलविषहराय स्वाहा । ॐ उत्तरमुखाय आदिवराहाय लंलंलंलंलं नृसिंहाय नीलकण्ठमूर्तये पञ्चमुखहनुमते स्वाहा । ॐ ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुंरुंरुंरुंरुं रुद्रमूर्तये सकलप्रयोजननिर्वाहकाय स्वाहा । ॐ अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय सीताशोकनिवारणाय श्रीरामचन्द्रकृपापादुकाय महावीर्यप्रमथनाय ब्रह्माण्डनाथाय कामदाय पञ्चमुखवीरहनुमते स्वाहा । भूतप्रेतपिशाचब्रह्मराक्षस शाकिनीडाकिन्यन्तरिक्षग्रह परयन्त्र परतन्त्रोच्चटनाय स्वाहा । सकलप्रयोजननिर्वाहकाय पञ्चमुखवीरहनुमते श्रीरामचन्द्रवरप्रसादाय जञ्जञ्जञ्जञ्जं स्वाहा । इदं कवचं पठित्वा तु महाकवचं पठेन्नरः । एकवारं जपेत् स्तोत्रं सर्वशत्रुनिवारणम् ॥ 15 ॥ द्विवारं तु पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् । त्रिवारं च पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं शुभम् ॥ 16 ॥ चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् । पञ्चवारं पठेन्नित्यं सर्वलोकवशङ्करम् ॥ 17 ॥ षड्वारं च पठेन्नित्यं सर्वदेववशङ्करम् । सप्तवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम् ॥ 18 ॥ अष्टवारं पठेन्नित्यमिष्टकामार्थसिद्धिदम् । नववारं पठेन्नित्यं राजभोगमवाप्नुयात् ॥ 19 ॥ दशवारं पठेन्नित्यं त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम् । रुद्रावृत्तिं पठेन्नित्यं सर्वसिद्धिर्भवेद्धृवम् ॥ 20 ॥ निर्बलो रोगयुक्तश्च महाव्याध्यादिपीडितः । कवचस्मरणेनैव महाबलमवाप्नुयात् ॥ 21 ॥ इति सुदर्शनसंहितायां श्रीरामचन्द्रसीताप्रोक्तं श्री पञ्चमुखहनुमत्कवचम्।

    Haridra Ganesh Kavacha (हरिद्रा गणेश कवचम्)

    हरिद्रा गणेश कवचम् (Haridra Ganesh Kavacha) ईश्वरउवाच: शृणु वक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिकरं प्रिये । पठित्वा पाठयित्वा च मुच्यते सर्व संकटात् ॥१॥ अज्ञात्वा कवचं देवि गणेशस्य मनुं जपेत् । सिद्धिर्नजायते तस्य कल्पकोटिशतैरपि ॥ २॥ ॐ आमोदश्च शिरः पातु प्रमोदश्च शिखोपरि । सम्मोदो भ्रूयुगे पातु भ्रूमध्ये च गणाधिपः ॥ ३॥ गणाक्रीडो नेत्रयुगं नासायां गणनायकः । गणक्रीडान्वितः पातु वदने सर्वसिद्धये ॥ ४॥ जिह्वायां सुमुखः पातु ग्रीवायां दुर्मुखः सदा । विघ्नेशो हृदये पातु विघ्ननाथश्च वक्षसि ॥ ५॥ गणानां नायकः पातु बाहुयुग्मं सदा मम । विघ्नकर्ता च ह्युदरे विघ्नहर्ता च लिङ्गके ॥ ६॥ गजवक्त्रः कटीदेशे एकदन्तो नितम्बके । लम्बोदरः सदा पातु गुह्यदेशे ममारुणः ॥ ७॥ व्यालयज्ञोपवीती मां पातु पादयुगे सदा । जापकः सर्वदा पातु जानुजङ्घे गणाधिपः ॥ ८॥ हारिद्रः सर्वदा पातु सर्वाङ्गे गणनायकः । य इदं प्रपठेन्नित्यं गणेशस्य महेश्वरि ॥ ९॥ कवचं सर्वसिद्धाख्यं सर्वविघ्नविनाशनम् । सर्वसिद्धिकरं साक्षात्सर्वपापविमोचनम् ॥ १०॥ सर्वसम्पत्प्रदं साक्षात्सर्वदुःखविमोक्षणम् । सर्वापत्तिप्रशमनं सर्वशत्रुक्षयङ्करम् ॥ ११॥ ग्रहपीडा ज्वरा रोगा ये चान्ये गुह्यकादयः । पठनाद्धारणादेव नाशमायन्ति तत्क्षणात् ॥ १२॥ धनधान्यकरं देवि कवचं सुरपूजितम् । समं नास्ति महेशानि त्रैलोक्ये कवचस्य च ॥ १३॥ हारिद्रस्य महादेवि विघ्नराजस्य भूतले । किमन्यैरसदालापैर्यत्रायुर्व्ययतामियात् ॥ १४॥ ॥ इति विश्वसारतन्त्रे हरिद्रागणेशकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Ekakshara Ganapati Kavacha (एकाक्षर गणपति कवचम्)

    || एकाक्षर गणपति कवचम् || (Ekakshara Ganapati Kavacha) श्रीगणेशाय नमः । नमस्तस्मै गणेशाय सर्वविघ्नविनाशिने । कार्यारम्भेषु सर्वेषु पूजितो यः सुरैरपि ॥ १॥ पार्वत्युवाच । भगवन् देवदेवेश लोकानुग्रहकारकः । इदानी श्रोतृमिच्छामि कवचं यत्प्रकाशितम् ॥ २॥ एकाक्षरस्य मन्त्रस्य त्वया प्रीतेन चेतसा । वदैतद्विधिवद्देव यदि ते वल्लभास्म्यहम् ॥ ३॥ ईश्वर उवाच । श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि नाख्येयमपि ते ध्रुवम् । एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं सर्वकामदम् ॥ ४॥ यस्य स्मरणमात्रेण न विघ्नाः प्रभवन्ति हि । त्रिकालमेककालं वा ये पठन्ति सदा नराः ॥ ५॥ तेषां क्वापि भयं नास्ति सङ्ग्रामे सङ्कटे गिरौ । भूतवेतालरक्षोभिर्ग्रहैश्चापि न बाध्यते ॥ ६॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् गणनायकम् । न च सिद्धिमाप्नोति मूढो वर्षशतैरपि ॥ ७॥ अघोरो मे यथा मन्त्रो मन्त्राणामुत्तमोत्तमः । तथेदं कवचं देवि दुर्लभं भुवि मानवैः ॥ ८॥ गोपनीयं प्रयत्नेन नाज्येयं यस्य कस्यचित् । तव प्रीत्या महेशानि कवचं कथ्यतेऽद्भुतम् ॥ ९॥ एकाक्षरस्य मन्त्रस्य गणकश्चर्षिरीरितः । त्रिष्टुप् छन्दस्तु विघ्नेशो देवता परिकीर्तिता ॥ १०॥ गँ बीजं शक्तिरोङ्कारः सर्वकामार्थसिद्धये । सर्वविघ्नविनाशाय विनियोगस्तु कीर्तितः ॥ ११॥ ध्यानम् । रक्ताम्भोजस्वरूपं लसदरुणसरोजाधिरूढं त्रिनेत्रं पाशं चैवाङ्कुशं वा वरदमभयदं बाहुभिर्धारयन्तम् । शक्त्या युक्तं गजास्यं पृथुतरजठरं नागयज्ञोपवीतं देवं चन्द्रार्धचूडं सकलभयहरं विघ्नराजं नमामि ॥ १२॥ कवचम् । गणेशो मे शिरः पातु भालं पातु गजाननः । नेत्रे गणपतिः पातु गजकर्णः श्रुती मम ॥ १३॥ कपोलौ गणनाथस्तु घ्राणं गन्धर्वपूजितः । मुखं मे सुमुखः पातु चिबुकं गिरिजासुतः ॥ १४॥ जिह्वां पातु गणक्रीडो दन्तान् रक्षतु दुर्मुखः । वाचं विनायकः पातु कष्टं पातु महोत्कटः ॥ १५॥ स्कन्धौ पातु गजस्कन्धो बाहू मे विघ्ननाशनः । हस्तौ रक्षतु हेरम्बो वक्षः पातु महाबलः ॥ १६॥ हृदयं मे गणपतिरुदरं मे महोदरः । नाभि गम्भीरहृदयः पृष्ठं पातु सुरप्रियः ॥ १७॥ कटिं मे विकटः पातु गुह्यं मे गुहपूजितः । ऊरु मे पातु कौमारं जानुनी च गणाधिपः ॥ १८॥ जङ्घे गजप्रदः पातु गुल्फौ मे धूर्जटिप्रियः । चरणौ दुर्जयः पातुर्साङ्गं गणनायकः ॥ १९॥ आमोदो मेऽग्रतः पातु प्रमोदः पातु पृष्ठतः । दक्षिणे पातु सिद्धिशो वामे विघ्नधरार्चितः ॥ २०॥ प्राच्यां रक्षतु मां नित्यं चिन्तामणिविनायकः । आग्नेयां वक्रतुण्डो मे दक्षिणस्यामुमासुतः ॥ २१॥ नैरृत्यां सर्वविघ्नेशः पातु नित्यं गणेश्वरः । प्रतीच्यां सिद्धिदः पातु वायव्यां गजकर्णकः ॥ २२॥ कौबेर्यां सर्वसिद्धिशः ईशान्यामीशनन्दनः । ऊर्ध्वं विनायकः पातु अधो मूषकवाहनः ॥ २३॥ दिवा गोक्षीरधवलः पातु नित्यं गजाननः । रात्रौ पातु गणक्रीडः सन्ध्योः सुरवन्दितः ॥ २४॥ पाशाङ्कुशाभयकरः सर्वतः पातु मां सदा । ग्रहभूतपिशाचेभ्यः पातु नित्यं गजाननः ॥ २५॥ सत्वं रजस्तमो वाचं बुद्धिं ज्ञानं स्मृतिं दयाम् । धर्मचतुर्विधं लक्ष्मीं लज्जां कीर्तिं कुलं वपुः ॥ २६॥ धनं धान्यं गृहं दारान् पौत्रान् सखींस्तथा । एकदन्तोऽवतु श्रीमान् सर्वतः शङ्करात्मजः ॥ २७॥ सिद्धिदं कीर्तिदं देवि प्रपठेन्नियतः शुचिः । एककालं द्विकालं वापि भक्तिमान् ॥ २८॥ न तस्य दुर्लभं किञ्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते । सर्वपापविनिर्मुक्तो जायते भुवि मानवः ॥ २९॥ यं यं कामयते नित्यं सुदुर्लभमनोरथम् । तं तं प्राप्नोति सकलं षण्मासान्नात्र संशयः ॥ ३०॥ मोहनस्तम्भनाकर्षमारणोच्चाटनं वशम् । स्मरणादेव जायन्ते नात्र कार्या विचारणा ॥ ३१॥ सर्वविघ्नहरं देवं ग्रहपीडानिवारणम् । सर्वशत्रुक्षयकरं सर्वापत्तिनिवारणम् ॥ ३२॥ धृत्वेदं कवचं देवि यो जपेन्मन्त्रमुत्तमम् । न वाच्यते स विघ्नौघैः कदाचिदपि कुत्रचित् ॥ ३३॥ भूर्जे लिखित्वा विधिवद्धारयेद्यो नरः शुचिः । एकबाहो शिरः कण्ठे पूजयित्वा गणाधिपम् ॥ ३४॥ एकाक्षरस्य मन्त्रस्य कवचं देवि दुर्लभम् । यो धारयेन्महेशानि न विघ्नैरभिभूयते ॥ ३५॥ गणेशहृदयं नाम कवचं सर्वसिद्धिदम् । पठेद्वा पाठयेद्वापि तस्य सिद्धिः करे स्थिता ॥ ३६॥ न प्रकाश्यं महेशानि कवचं यत्र कुत्रचित् । दातव्यं भक्तियुक्ताय गुरुदेवपराय च ॥ ३७॥ ॥ इति श्रीरुद्रयामले एकाक्षरगणपतिकवचं अथवा त्रैलोक्यमोहनकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Uchchishta Ganesha Kavacha (उच्छिष्ट गणेश कवचम्)

    || उच्छिष्ट गणेश कवचम् || (Uchchishta Ganesha Kavacha) अथ श्रीउच्छिष्टगणेशकवचं प्रारम्भः देव्युवाच ॥ देवदेव जगन्नाथ सृष्टिस्थितिलयात्मक । विना ध्यानं विना मन्त्रं विना होमं विना जपम् ॥ १॥ येन स्मरणमात्रेण लभ्यते चाशु चिन्तितम् । तदेव श्रोतुमिच्छामि कथयस्व जगत्प्रभो ॥ २॥ ईश्वर उवाच ॥ श्रुणु देवी प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं महत् । उच्छिष्टगणनाथस्य कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥ ३॥ अल्पायासैर्विना कष्टैर्जपमात्रेण सिद्धिदम् । एकान्ते निर्जनेऽरण्ये गह्वरे च रणाङ्गणे ॥ ४॥ सिन्धुतीरे च गङ्गायाः कूले वृक्षतले जले । सर्वदेवालये तीर्थे लब्ध्वा सम्यग्जपं चरेत् ॥ ५॥ स्नानशौचादिकं नास्ति नास्ति निर्वंधनं प्रिये । दारिद्र्यान्तकरं शीघ्रं सर्वतत्त्वं जनप्रिये ॥ ६॥ सहस्रशपथं कृत्वा यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति । निन्दकाय कुशिष्याय खलाय कुटिलाय च ॥ ७॥ दुष्टाय परशिष्याय घातकाय शठाय च । वञ्चकाय वरघ्नाय ब्राह्मणीगमनाय च ॥ ८॥ अशक्ताय च क्रूराय गुरूद्रोहरताय च । न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचन ॥ ९॥ गुरूभक्ताय दातव्यं सच्छिष्याय विशेषतः । तेषां सिध्यन्ति शीघ्रेण ह्यन्यथा न च सिध्यति ॥ १०॥ गुरूसन्तुष्टिमात्रेण कलौ प्रत्यक्षसिद्धिदम् । देहोच्छिष्टैः प्रजप्तव्यं तथोच्छिष्टैर्महामनुः ॥ ११॥ आकाशे च फलं प्राप्तं नान्यथा वचनं मम । एषा राजवती विद्या विना पुण्यं न लभ्यते ॥ १२॥ अथ वक्ष्यामि देवेशि कवचं मन्त्रपूर्वकम् । येन विज्ञातमात्रेण राजभोगफलप्रदम् ॥ १३॥ ऋषिर्मे गणकः पातु शिरसि च निरन्तरम् । त्राहि मां देवि गायत्रीछन्दो ऋषिः सदा मुखे ॥ १४॥ हृदये पातु मां नित्यमुच्छिष्टगणदेवता । गुह्ये रक्षतु तद्बीजं स्वाहा शक्तिश्च पादयोः ॥ १५॥ कामकीलकसर्वाङ्गे विनियोगश्च सर्वदा । पार्श्वर्द्वये सदा पातु स्वशक्तिं गणनायकः ॥ १६॥ शिखायां पातु तद्बीजं भ्रूमध्ये तारबीजकम् । हस्तिवक्त्रश्च शिरसी लम्बोदरो ललाटके ॥ १७॥ उच्छिष्टो नेत्रयोः पातु कर्णौ पातु महात्मने । पाशाङ्कुशमहाबीजं नासिकायां च रक्षतु ॥ १८॥ भूतीश्वरः परः पातु आस्यं जिह्वां स्वयंवपुः । तद्बीजं पातु मां नित्यं ग्रीवायां कण्ठदेशके ॥ १९॥ गंबीजं च तथा रक्षेत्तथा त्वग्रे च पृष्ठके । सर्वकामश्च हृत्पातु पातु मां च करद्वये ॥ २०॥ उच्छिष्टाय च हृदये वह्निबीजं तथोदरे । मायाबीजं तथा कट्यां द्वावूरू सिद्धिदायकः ॥ २१॥ जङ्घायां गणनाथश्च पादौ पातु विनायकः । शिरसः पादपर्यन्तमुच्छिष्टगणनायकः ॥ २२॥ आपादमस्तकान्तं च उमापुत्रश्च पातु माम् । दिशोऽष्टौ च तथाकाशे पाताले विदिशाष्टके ॥ २३॥ अहर्निशं च मां पातु मदचञ्चललोचनः । जलेऽनले च सङ्ग्रामे दुष्टकारागृहे वने ॥ २४॥ राजद्वारे घोरपथे पातु मां गणनायकः । इदं तु कवचं गुह्यं मम वक्त्राद्विनिर्गतम् ॥ २५॥ त्रैलौक्ये सततं पातु द्विभुजश्च चतुर्भुजः । बाह्यमभ्यन्तरं पातु सिद्धिबुद्धिर्विनायकः ॥ २६॥ सर्वसिद्धिप्रदं देवि कवचमृद्धिसिद्धिदम् । एकान्ते प्रजपेन्मन्त्रं कवचं युक्तिसंयुतम् ॥ २७॥ इदं रहस्यं कवचमुच्छिष्टगणनायकम् । सर्ववर्मसु देवेशि इदं कवचनायकम् ॥ २८॥ एतत्कवचमाहात्म्यं वर्णितुं नैव शक्यते । धर्मार्थकाममोक्षं च नानाफलप्रदं नृणाम् ॥ २९॥ शिवपुत्रः सदा पातु पातु मां सुरार्चितः । गजाननः सदा पातु गणराजश्च पातु माम् ॥ ३०॥ सदा शक्तिरतः पातु पातु मां कामविह्वलः । सर्वाभरणभूषाढयः पातु मां सिन्दूरार्चितः ॥ ३१॥ पञ्चमोदकरः पातु पातु मां पार्वतीसुतः । पाशाङ्कुशधरः पातु पातु मां च धनेश्वरः ॥ ३२॥ गदाधरः सदा पातु पातु मां काममोहितः । नग्ननारीरतः पातु पातु मां च गणेश्वरः ॥ ३३॥ अक्षयं वरदः पातु शक्तियुक्तिः सदाऽवतु । भालचन्द्रः सदा पातु नानारत्नविभूषितः ॥ ३४॥ उच्छिष्टगणनाथश्च मदाघूर्णितलोचनः । नारीयोनिरसास्वादः पातु मां गजकर्णकः ॥ ३५॥ प्रसन्नवदनः पातु पातु मां भगवल्लभः । जटाधरः सदा पातु पातु मां च किरीटिकः ॥ ३६॥ पद्मासनास्थितः पातु रक्तवर्णश्च पातु माम् । नग्नसाममदोन्मत्तः पातु मां गणदैवतः ॥ ३७॥ वामाङ्गे सुन्दरीयुक्तः पातु मां मन्मथप्रभुः । क्षेत्रपः पिशितं पातु पातु मां श्रुतिपाठकः ॥ ३८॥ भूषणाढ्यस्तु मां पातु नानाभोगसमन्वितः । स्मिताननः सदा पातु श्रीगणेशकुलान्वितः ॥ ३९॥ श्रीरक्तचन्दनमयः सुलक्षणगणेश्वरः । श्वेतार्कगणनाथश्च हरिद्रागणनायकः ॥ ४०॥ पारभद्रगणेशश्च पातु सप्तगणेश्वरः । प्रवालकगणाध्यक्षो गजदन्तो गणेश्वरः ॥ ४१॥ हरबीजगणेशश्च भद्राक्षगणनायकः । दिव्यौषधिसमुद्भूतो गणेशाश्चिन्तितप्रदः ॥ ४२॥ लवणस्य गणाध्यक्षो मृत्तिकागणनायकः । तण्डुलाक्षगणाध्यक्षो गोमयश्च गणेश्चरः ॥ ४३॥ स्फटिकाक्षगणाध्यक्षो रुद्राक्षगणदैवतः । नवरत्नगणेशश्च आदिदेवो गणेश्वरः ॥ ४४॥ पञ्चाननश्चतुर्वक्त्रः षडाननगणेश्वरः । मयूरवाहनः पातु पातु मां मूषकासनः ॥ ४५॥ पातु मां देवदेवेशः पातु मामृषिपूजितः । पातु मां सर्वदा देवो देवदानवपूजितः ॥ ४६॥ त्रैलोक्यपूजितो देवः पातु मां च विभुः प्रभुः । रङ्गस्थं च सदा पातु सागरस्थं सदाऽवतु ॥ ४७॥ भूमिस्थं च सदा पातु पातलस्थं च पातु माम् । अन्तरिक्षे सदा पातु आकाशस्थं सदाऽवतु ॥ ४८॥ चतुष्पथे सदा पातु त्रिपथस्थं च पातु माम् । बिल्वस्थं च वनस्थं च पातु मां सर्वतस्तनम् ॥ ४९॥ राजद्वारस्थितं पातु पातु मां शीघ्रसिद्धिदः । भवानीपूजितः पातु ब्रह्माविष्णुशिवार्चितः ॥ ५०॥ इदं तु कवचं देवि पठनात्सर्वसिद्धिदम् । उच्छिष्टगणनाथस्य समन्त्रं कवचं परम् ॥ ५१॥ स्मरणाद्भूपतित्वं च लभते साङ्गतां ध्रूवम् । वाचः सिद्धिकरं शीघ्रं परसैन्यविदारणम् ॥ ५२॥ प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने दिवा रात्रौ पठेन्नरः । चतुर्थ्यां दिवसे रात्रौ पूजने मानदायकम् ॥ ५३॥ सर्वसौभाग्यदं शीघ्रं दारिद्र्यार्णवघातकम् । सुदारसुप्रजासौख्यं सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ॥ ५४॥ जलेऽथवाऽनलेऽरण्ये सिन्धुतीरे सरित्तटे । स्मशाने दूरदेशे च रणे पर्वतगह्वरे ॥ ५५॥ राजद्वारे भये घोरे निर्भयो जायते ध्रुवम् । सागरे च महाशीते दुर्भिक्षे दुष्टसङ्कटे ॥ ५६॥ भूतप्रेतपिशाचादियक्षराक्षसजे भये । राक्षसीयक्षिणीक्रूराशाकिनीडाकीनीगणाः ॥ ५७॥ राजमृत्युहरं देवि कवचं कामधेनुवत् । अनन्तफलदं देवि सति मोक्षं च पार्वति ॥ ५८॥ कवचेन विना मन्त्रं यो जपेद्गणनायकम् । इह जन्मानि पापिष्ठो जन्मान्ते मूषको भवेत् ॥ ५९॥ इति परमरहस्यं देवदेवार्चनं च कवचपरमदिव्यं पार्वती पुत्ररूपम् । पठति परमभोगैश्वर्यमोक्षप्रदं च लभति सकलसौख्यं शक्तिपुत्रप्रसादात् ॥ ६०॥ ॥ इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीमदुच्छिष्टगणेशकवचं समाप्तम् ॥

    Sadashiv Kavacha (सदाशिव कवचम्)

    || सदाशिव कवचम् || (Sadashiv Kavacha) श्रीआनन्दभैरव उवाच शैलजे देवदेवेशि सर्वाम्नायप्रपूजिते । सर्वं मे कथितं देवि कवचं न प्रकाशितम् ॥ प्रासादाख्यस्य मन्त्रस्य कवचं मे प्रकाशय । सदाशिवमहादेवभावितं सिद्धिदायकम् ॥ अप्रकाश्यं महामन्त्रं भैरवीभैरवोदयम् । सर्वरक्षाकरं देवि यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति ॥ श्रीआनन्दभैरवी उवाच श्रूयतां भगवन्नाथ महाकाल कुलार्णव । प्रासादमन्त्रकवचं सदाशिवकुलोदयम् ॥ प्रासादमन्त्रदेवस्य वामदेव ऋषिः स्मृतः । पङ्क्तिश्छन्दश्च देवेशः सदाशिवोऽत्र देवता ॥ साधकाभीष्टसिद्धौ च विनियोगः प्रकीर्तितः । शिरो मे सर्वदा पातु प्रासादाख्यः सदाशिवः ॥ षडक्षरस्वरूपो मे वदनं तु महेश्वरः । अष्टाक्षरशक्तिरुद्धश्चक्षुषी मे सदाऽवतु ॥ पञ्चाक्षरात्मा भगवान् भुजौ मे परिरक्षतु । मृत्युञ्जयस्त्रिबीजात्मा आयू रक्षतु मे सदा ॥ वटमूलसमासीनो दक्षिणामूर्तिरव्ययः । सदा मां सर्वतः पातु षट्त्रिंशद्वर्णरूपधृक् ॥ द्वाविंशार्णात्मको रुद्रः कुक्षिं मे परिरक्षतु । त्रिवर्णाढ्यो नीलकण्ठः कण्ठं रक्षतु सर्वदा ॥ चिन्तामणिर्बीजरूपोऽर्धनारीश्वरो हरः । सदा रक्षतु मे गुह्यं सर्वसम्पत्प्रदायकः ॥ एकाक्षरस्वरूपात्मा कूटव्यापी महेश्वरः । मार्तण्डो भैरवो नित्यं पादौ मे परिरक्षतु ॥ तुम्बुराख्यो महाबीजस्वरूपस्त्रिपुरान्तकः । सदा मारणभूमौ च रक्षतु त्रिदशाधिपः ॥ ऊर्ध्वमूर्ध्वानमीशानो मम रक्षतु सर्वदा । दक्षिणास्यं तत्पुरुषोऽवतु मे गिरिनायकः ॥ अघोराख्यो महादेवः पूर्वास्यं परिरक्षतु । वामदेवः पश्चिमास्यं सदा मे परिरक्षतु ॥ उत्तरास्यं सदा पातु सद्योजातस्वरूपधृक् । मृत्युजेता सदा पातु जलेऽरण्ये महाभये ॥ पर्वते विषमस्थाने विषहर्ता सदाऽवतु । कालरुद्रः सदा पातु सर्वाङ्गं कालदेवता ॥ कालाग्निरुद्रः सम्पातु महाव्याधिभयादिषु । अकालतारकः पातु खड्गधारी सदाशिवः ॥ कवची वामदेवश्च सदा पातु महाभये । कालभक्षः पातु रुद्रो रुरुकः क्षेत्रपालकः ॥ मातृकामण्डलं पातु सम्पूर्णचन्द्रशेखरः । चिरायुः शाकिनीभर्ता चायुषं पातु मे सदा ॥ सिंहस्कन्धः सदा पातु रुद्राणीवल्लभोऽवतु । भालं पातु वज्रदम्भालेखकः क्रान्तिरूपकः ॥ निरूपकः सदा पातु खेचरीखेचरप्रियः । रत्नमालाधरः पातु रक्तमुखीश्वरोऽवतु ॥ वदनं चक्षुषी कर्णौ पातु पञ्चाननो मम । वेदध्वनिः सदा पातु नासारन्ध्रद्वयं मम ॥ कपालधारकः पातु गण्डयुग्मं युगान्तकृत् । रक्तजिह्वापतिः पातु ममोष्ठाधरवासिनम् ॥ दन्तावलियुगं पातु भृगुरामेश्वरः शिवः । तालुमूलं सदा पातु विश्वभोजी रसामृतम् ॥ जिह्वाग्रं वाक्पतीशश्च भवानीशः शिवो मम । मुखवृत्तं सदा पातु महासेनः कवीश्वरः ॥ क्रोधनाथः सदा पातु दक्षहस्तादिमूलकम् । दक्षकूर्परमापातु तदग्रं कुक्कुरेश्वरः ॥ चिरजीवी सदा पातु चाङ्गुलीमूलदेशकम् । अङ्गुल्यग्रं सदा ब्रह्मा ब्रह्मलिङ्गधरः प्रभुः ॥ विद्यापतिः पार्वतीशो वामहस्तादिमूलकम् । पातु वामकूर्परं मे वामकेश्वर ईश्वरः ॥ कुण्डवासी सदा पातु कूर्पराग्रं कुलाचलः । वेदमातृपतिः पातु कामधेनुपतिः प्रभुः ॥ ममाङ्गुलीमूलदेशं पातु पञ्चमुखो मम । वामाङ्गुल्यग्रभागं मे पातु पर्वतपूजितः ॥ तनुमूलाग्रभागं मे कूर्मचक्रधरः प्रभुः । शाकिनीवल्लभः पातु दक्षाङ्घ्रिमध्यदेशकम् ॥ गुल्फाग्रं गर्गरीनाथः पादाग्रं मूलदेवता । अभयावल्लभः पातु दक्षाङ्गुल्यग्रभागकम् ॥ पातु स्मरहरो योगी वामोरुमूलदेशकम् । वामपादमध्यदेशं मध्यदेशेश्वरोऽवतु ॥ पातु मे भगवाञ्छम्भुर्मम गुल्फाग्रदेशकम् । मूलदेशं वामपादं पातु मेऽङ्गुष्ठमूलकम् ॥ कारणात्मा नीलकण्ठः प्रभाधारी यमान्तकः । अङ्गुष्ठाग्रं सदा पातु सुषुम्नानाडिकेश्वरः ॥ महारुद्रेश्वरः पातु मम नाभिमनोभवम् । उदरं गगनाधारः कामहर्ता हृदम्बुजम् ॥ सर्वानन्दात्मकः पातु मम स्कन्धयुगं शिवः । हृदयाद् दक्षहस्ताग्रपर्यन्तं पातु शोकहा ॥ हृदयाद् वामहस्ताग्रपर्यन्तं परमेश्वरः । हृदयान्मम दक्षाङ्घ्रिनखान्तं मे शिवोऽवतु ॥ सदानन्दा सदा पातु हृदाद्यङ्घ्रिं तु उन्मदः । वासुकीवल्लभः पातु हृदादिगुददेशकम् ॥ अनन्तनाथ आपातु हृदादिमूर्धदेशकम् । व्यापकः सर्वदा पातु सदाशिव उमापतिः ॥ तारात्मकः कायसिद्धः शक्तीशः शुक्रदेवता । पञ्चचूडः सदा पातु पञ्चतत्त्वाङ्गरूपकम् ॥ शीर्षादिपादपर्यन्तं कामधेनुः सदाऽवतु । जलेऽरण्ये घोरवने सङ्कटे च महापथे ॥ प्रान्तरे पातु गुप्ताक्षः कामराजः परापरः । अर्धनारीश्वरः पातु मातृकापरमेश्वरः ॥ मातृकामन्त्रपुटितः स्वस्वस्थानं सदावतु । धर्मात्मा धर्मसन्धिं मे पिङ्गलां पातु चण्डिकाम् ॥ विह्वलः सर्वदा पातु भोलानाथः सदाऽवतु । सर्वदेशे सर्वपीठे कामरूपे विशेषतः ॥ सर्वदा योगिनीनाथः परमात्मा सदाऽवतु । कामरूपाख्यपीठादि पञ्चाशत् पीठदेवताः ॥ पञ्चाशत्पीठमाया तु कामरूपं सदाशिवः । भवो रुद्रो महेशश्च शङ्करो मन्मथान्तकः ॥ गुह्यकेशः पापहर्ता कपाली शूलधारकः । पञ्चवक्त्रो दशभुजो भुजङ्गभूषणो हरः ॥ महाकालो महारुद्रो महावीरो हृदि स्थितः । महादेवो महागुह्यो महामाया महागुणः ॥ पशुपतिर्विरूपाक्षो हरीशो धवलेश्वरः । वटुकेशः क्रमाचार्यः पञ्चशूली हृदुद्भवः ॥ उन्मनीशः साहसिकः पराख्यः पर्वतेश्वरः । सर्वात्मा च महात्मा च शिवात्मा च श्मशानगः ॥ क्रोधवीरः कालकारी सूक्ष्मधर्मा धुरन्धरः । श्यामकः क्रूरहर्ता च गणेशः कालमाधवः ॥ ज्ञानात्मा कपिलात्मा च सिद्धात्मा योगिनीपतिः । कोटिसूर्यप्रतीकाश एकपञ्चाशदीश्वराः ॥ सदा पान्तु मातृकस्थाः स्थितिसर्गलयात्मकाः । आदिपीठं कामरूपं काञ्चीपीठं तदन्तिके ॥ अयोध्यापीठनगरं तदूर्ध्वे जालकन्धरम् । जालन्धरं तदूर्ध्वे तु सिद्धपीठं तदन्तिके ॥ कालीपीठं तदूर्ध्वे तु चण्डिकापीठमग्रके । अष्टपुरीमहापीठं कण्ठदेशं सदाशिवः ॥ सदा पातु महावीरः कालधर्मी परात्परः । मधुपुरीमहापीठं चाष्टपुरान्तरस्थितम् ॥ मायावतीमहापीठं तदूर्ध्वे परिकीर्तितम् । वाराणसीमहापीठं धर्मपीठं तदन्तिके ॥ ज्वालामुखीमहापीठं तदन्तःस्थं प्रकीर्तितम् । तदूर्ध्वे च महापीठं ज्वलन्तीपीठमेव च ॥ तदूर्ध्वे पूणगिर्याख्यं कुरुक्षेत्रं तदन्तिके । उड्डियानं तदूर्ध्वे तु कमलापीठमेव च ॥ हरिद्वारं महापीठं बदरीपीठमेव च । व्यासपीठं नारदाख्यं तदूर्ध्वे वाडवानलम् ॥ हिङ्गुलादं तदूर्ध्वे तु लङ्कापीठं तदूर्ध्वके । तदूर्ध्वे शारदापीठं रतिपीठं तदूर्ध्वके ॥ लिङ्गपीठं कलापीठं द्वारकापीठमेव च । कपालपीठं हर्याख्ये वरदापीठमुत्तरे ॥ कालीपीठं तदूर्ध्वे तु तारापीठं तदूर्ध्वके । उग्रतारामहापीठं महोग्रापीठमेव च ॥ नीलसरस्वतीपीठं जरापीठं तदूर्ध्वके । तदूर्ध्वे गगनापीठं खेचरीपीठमेव च ॥ तदूर्ध्वे तारिणीपीठं सहस्रदलमध्यके । कर्त्रीपीठं तदूर्ध्वे च देवीपीठं तदूर्ध्वके ॥ राजराजेश्वरीपीठं षोडशीपीठमेव च । सहस्रदलमध्ये तु सहस्रपीठमेव च ॥ मध्ये एकजटापीठं कर्त्रीतीरकलोपरि । षोडशीमुखविद्याभिर्वेष्टिता तारिणीकला ॥ काली नीला महाविद्या त्वरिता छिन्नमस्तका । वाग्वादिनी चान्नपूर्णा देवी प्रत्यङ्गिरा पुनः ॥ कामाख्या वासली बाला मातङ्गी शैलवासिनी । षोडशी भुवनेशानी भैरवी बगलामुखी ॥ धूमावती वेदमाता हरसिद्धा च दक्षिणा । एता विद्या महाविद्याः शिवसेवनशोभिताः ॥ द्वाविंशतिमहाविद्या द्वारं द्वाविंशतिस्थलम् । महापीठे सहस्रारे सर्वदा पान्तु मां कलाः ॥ सदाशिवः शक्तियुक्तः पातु चण्डेश्वरो हरः । पञ्चामराधरः पातु देवीनाथः सदाऽवतु ॥ पार्वतीप्राणनाथो मे सर्वाङ्गं पातु सर्वदा । अघोरनाथ ईशानो वरदो मदनान्तकः ॥ यज्ञहर्ता दक्षखण्डो वीरभद्रो दिगम्बरः । अष्टादशभुजो रौद्रो नीलपङ्कजलोचनः ॥ त्रिलोचनः कालकामो महारुद्रो गणेश्वरः । काकिनीवल्लभः शूली योगकर्ता महेश्वरः ॥ वागीश्वरः स्मरहरो महामन्त्रो हलायुधः । श्रीनाथः पूजितो बालो बालेन्द्रो बलवाहनः ॥ बलरामः कृष्णरामो गोविन्दो माधवीश्वरः । जितामित्रेश्वरश्चूडामणीशो मानदः सुखी ॥ मुखं वृन्दावनं पातु षड्दलाम्भोरुहस्थितम् । वैष्णवीवल्लभः पातु ब्रह्माणं कुलकुण्डली ॥ विष्णुनाथः सदा पातु ब्रह्माग्निं गरुडध्वजः । ज्वालामालाधरः पातु कालानलधरोऽवतु ॥ काकिनीवल्लभः पातु ईश्वरो भैरवेश्वरः । महारुद्रो नीलकण्ठो मणिपूरं सुलाकिनीम् ॥ सदा पातु मणिगृहं रुद्राणीप्रियवल्लभः । महारुद्रो नीलकण्ठो महाविष्णुं सदावतु ॥ राकिणीं विष्णुलक्ष्मीं च पातु मे वैष्णवीं कलाम् । सदाशिवो नीलकण्ठो मम पातु हृदि स्थलम् ॥ ईश्वरं परमात्मानं मम रक्षतु शाकिनीम् । सदाशिवं सदा पातु द्विदलस्थोऽपरो हरः ॥ हाकिनीशक्तितः पातु सहस्रारं शिवोऽवतु । तारानाथविधिः पातु सहस्रारनिवासिनीम् ॥ महाकाशं सदा पातु तदधो वायुमण्डलम् । वह्निमण्डलमापातु तदधः शाकिनीश्वरः ॥ तदात्मकः सदा पातु कीलालं कौलदेवता । पृथिवीं पार्थिवः पातु सर्वदैकं सदाशिवः ॥ इत्थं रक्षाकरं नाथ कवचं देवदुर्लभम् । प्रातःकाले पठेद्यस्तु सोऽभीष्टं फलमाप्नुयात् ॥ पूजाकाले पठेद्यस्तु कवचं साधकोत्तमः । कीर्तिश्रीकान्तिमेधायुर्बृंहितो भवति ध्रुवम् ॥ अप्रकाश्यं महावीरकवचं सर्वसिद्धिदम् । ज्ञानमात्रेण भूर्लोके जेता कालस्य योगिराट् ॥ अस्य धारणमात्रेण कालसूत्रान्तको भवेत् । अस्य धारणपाठेन सर्वज्ञो भवति ध्रुवम् ॥ सर्वे व्यासवशिष्ठादिमहासिद्धाश्च योगिनः । पठित्वा धारयित्वा ते प्रधानास्तत्त्वचिन्तकाः ॥ कण्ठे यो धारयेदेतत् कवचं त्वत्स्वरूपकम् । मद्वक्त्राम्भोरुहोद्भूतं विद्यावाक्सिद्धिदायकम् ॥ युद्धे विजयमाप्नोति द्यूते वादे च साधकः । कवचं धारयेद्यस्तु साधको दक्षिणे भुजे ॥ देवा मनुष्या गन्धर्वास्तस्य वश्या न संशयः । कवचं शिरसा यस्तु धारयेद् यतमानसः ॥ करस्थास्तस्य देवेशि अणिमाद्यष्टसिद्धयः । भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां शुक्लपट्टेन वेष्टिताम् ॥ रजतोदरसंविष्टां कृत्वा च धारयेत् सुधीः । संप्राप्य महतीं लक्ष्मीमन्ते तव शरीरधृक् ॥ यस्मै कस्मै न दातव्यं न प्रकाश्यं कदाचन । शिष्याय भक्तियुक्ताय साधकाय प्रकाशयेत् ॥ योगिने ज्ञानयुक्ताय देयं धर्मात्मने सदा । अन्यथा सिद्धिहानिः स्यात्सत्यं सत्यं न संशयः ॥ तव स्नेहान्महादेव कथितं कवचं शुभम् । न देयं कवचं सिद्धं यदीच्छेदात्मनो हितम् ॥ यदि भाग्यफलेनापि कवचं यदि लभ्यते । धूर्तो वा कपटी वापि खलो वा दुर्ग्रहस्थितः ॥ निजकर्मफलत्यागमवश्यं खलु कारयेत् । तदा सिद्धिमवाप्नोति धर्मधाराधरो भवेत् ॥ सिद्धिपूजाफलं तस्य दिवसे दिवसे सुधीः । धूर्ततां खलतां मिथ्यां कापट्यं स विहाय च ॥ राजराजेश्वरो भूत्वा जीवन्मुक्तो न संशयः । योऽर्चयेद् गन्धपुष्पाद्यैः कवचं मन्मुखोदितम् ॥ तेनार्चिता महादेव सर्वदेवा न संशयः । राजसिकं मानसिकं तामसिकं परन्तपः ॥ हृद्ये मानसिकं ध्यायन् पूजा राजसिकं स्मृतम् । तामसिकं लोकमध्ये कवचार्चा त्रिधा मता ॥ सिद्धकवचमाख्यातं केवलं ज्ञानसिद्धये । मोक्षाय जगतां शम्भोः प्रियाय परमेश्वर ॥ तन्त्रेऽस्मिन् सारसङ्केतं पूजाऽप्यारोपणादिकम् । अन्तःकरणमध्ये तु सर्वकार्यमुदीरयेत् ॥ राज्ये च प्रपठेत् स्तोत्रं कवचं ज्ञानसिद्धये । इति ते कथितं नाथ परमात्मनि मङ्गलम् ॥ यस्याराधनमात्रेण शिवत्वमुत किं प्रभो ॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरवीभैरवसंवादे सदाशिवकवचपाठो नाम चतुःसप्ततितमः पटलः ॥

    Shitala Kavacha (श्री शीतला कवचम्)

    || श्री शीतला कवचम् || (Shitala Kavacha) पार्वत्युवाच – भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद । शीतलाकवचं ब्रूहि सर्वभूतोपकारकम् ॥ वद शीघ्रं महादेव ! कृपां कुरु ममोपरि । इति देव्याः वचो श्रुत्वा क्षणं ध्यात्वा महेश्वरः ॥ उवाच वचनं प्रीत्या तत्श‍ृणुष्व मम प्रिये । शीतलाकवचं दिव्यं श‍ृणु मत्प्राणवल्लभे ॥ ईश्वर उवाच – शीतलासारसर्वस्वं कवचं मन्त्रगर्भितम् । कवचं विना जपेत् यो वै नैव सिद्धयन्ति कलौ ॥ धारणादस्य मन्त्रस्य सर्वरक्षाकरनृणाम् । विनियोगः – कवचस्यास्य देवेशि ! ऋषिर्पोक्तो महेश्वरः । छन्दोऽनुष्टुप् कथितं च देवता शीतला स्मृता । लक्ष्मीबीजं रमा शक्तिः तारं कीलकमीरितम् ॥ लूताविस्फोटकादीनि शान्त्यर्थे परिकीर्तितः । विनियोगः प्रकुर्वीत पठेदेकाग्रमानसः ॥ विनियोगः – ॐ अस्य शीतलाकवचस्य श्रीमहेश्वर ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः, श्रीशीतला भगवती देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे पाठे विनियोगः ॥ ऋष्यादिन्यासः – श्रीमहेश्वरऋषये नमः शिरसि अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला भगवती देवतायै नमः हृदि श्री बीजाय नमः गुह्ये ह्रीं शक्तये नमः नाभौ, ॐ कीलकाय नमः पादयो लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥ ध्यानं – उद्यत्सूर्यनिभां नवेन्दुमुकुटां सूर्याग्निनेत्रोज्ज्वलां नानागन्धविलेपनां मृदुतनुं दिव्याम्बरालङ्कृताम् । दोर्भ्यां सन्दधतीं वराभययुगं वाहे स्थितां रासभे भक्ताभीष्टफलप्रदां भगवतीं श्रीशीतलां त्वां भजे ॥ अथ कवचमूलपाठः – ॐ शीतला पातु मे प्राणे रुनुकी पातु चापाने । समाने झुनुकी पातु उदाने पातु मन्दला ॥ व्याने च सेढला पातु मनुर्मे शाङ्करी तथा । पातु मामिन्द्रियान् सर्वान् श्रीदुर्गा विन्ध्यवासिनी ॥ ॐ मम पातु शिरो दुर्गा कमला पातु मस्तकम् । ह्रीं मे पातु भ्रुवोर्मध्ये भवानी भुवनेश्वरी ॥ पातु मे मधुमती देवी ॐकारं भृकुटीद्वयम् ॥ नासिकां शारदा पातु तमसा वर्त्मसंयुतम् । नेत्रौ ज्वालामुखी पातु भीषणा पातु श्रुतिर्मे ॥ कपोलौ कालिका पातु सुमुखी पातु चोष्ठयोः । सन्ध्ययोः त्रिपुरा पातु दन्ते च रक्तदन्तिका ॥ जिह्वां सरस्वती पातु तालुके व वाग्वादिनी । कण्ठे पातु तु मातङ्गी ग्रीवायां भद्रकालिका ॥ स्कन्धौ च पातु मे छिन्ना ककुमे स्कन्दमातरः । बाहुयुग्मौ च मे पातु श्रीदेवी बगलामुखी ॥ करौ मे भैरवी पातु पृष्ठे पातु धनुर्धरी । वक्षःस्थले च मे पातु दुर्गा महिषमर्दिनी ॥ हृदये ललिता पातु कुक्षौ पातु मघेश्वरी । पार्ष्वौ च गिरिजा पातु चान्नपूर्णा तु चोदरम् ॥ नाभिं नारायणी पातु कटिं मे सर्वमङ्गला । जङ्घयोर्मे सदा पातु देवी कात्यायनी पुरा ॥ ब्रह्माणी शिश्नं पातु वृषणं पातु कपालिनी । गुह्यं गुह्येश्वरी पातु जानुनोर्जगदीश्वरी ॥ पातु गुल्फौ तु कौमारी पादपृष्ठं तु वैष्णवी । वाराही पातु पादाग्रे ऐन्द्राणी सर्वमर्मसु ॥ मार्गे रक्षतु चामुण्डा वने तु वनवासिनी । जले च विजया रक्षेत् वह्नौ मे चापराजिता ॥ रणे क्षेमकरी रक्षेत् सर्वत्र सर्वमङ्गला । भवानी पातु बन्धून् मे भार्या रक्षतु चाम्बिका ॥ पुत्रान् रक्षतु माहेन्द्री कन्यकां पातु शाम्भवी । गृहेषु सर्वकल्याणी पातु नित्यं महेश्वरी ॥ पूर्वे कादम्बरी पातु वह्नौ शुक्लेश्वरी तथा । दक्षिणे करालिनी पातु प्रेतारुढा तु नैरृते ॥ पाशहस्ता पश्चिमे पातु वायव्ये मृगवाहिनी । पातु मे चोत्तरे देवी यक्षिणी सिंहवाहिनी । ईशाने शूलिनी पातु ऊर्ध्वे च खगगामिनी ॥ अधस्तात्वैष्णवी पातु सर्वत्र नारसिंहिका । प्रभाते सुन्दरी पातु मध्याह्ने जगदम्बिका ॥ सायाह्ने चण्डिका पातु निशीथेऽत्र निशाचरी । निशान्ते खेचरी पातु सर्वदा दिव्ययोगिनी ॥ वायौ मां पातु वेताली वाहने वज्रधारिणी । सिंहा सिंहासने पातु शय्यां च भगमालिनी ॥ सर्वरोगेषु मां पातु कालरात्रिस्वरुपिणी । यक्षेभ्यो यक्षिणी पातु राक्षसे डाकिनी तथा ॥ भूतप्रेतपिशाचेभ्यो हाकिनी पातु मां सदा । मन्त्रं मन्त्राभिचारेषु शाकिनी पातु मां सदा ॥ सर्वत्र सर्वदा पातु श्रीदेवी गिरिजात्मजा । इत्येतत्कथितं गुह्यं शीतलाकवचमुत्तमम् ॥ फलश्रुतिः – ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा दानवादयः । विस्फोटकभयं नास्ति पठनाद्धारणाद्यदि ॥ अष्टसिद्धिप्रदं नित्यं धारणात्कवचस्य तु । सहस्त्रपठनात्सिद्धिः सर्वकार्यार्थसिद्धिदम् ॥ तदर्धं वा तदर्धं वा पठेदेकाग्रमानसः । अश्वमेधसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः ॥ शीतलाग्रे पठेद्यो वै देवीभक्तैकमानसः । शीतला रक्षयेन्नित्यं भयं क्वापि न जायते ॥ घटे वा स्थापयेद्देवी दीपं प्रज्वाल्य यत्नतः । पूजयेत्जगतां धात्री नाना गन्धोपहारकैः ॥ अदीक्षिताय नो दद्यात कुचैलाय दुरात्मने । अन्यशिष्याय दुष्टाय निन्दकाय दुरार्थिने ॥ न दद्यादिदं वर्म तु प्रमत्तालापशालिने । दीक्षिताय कुलीनाय गुरुभक्तिरताय च ॥ शान्ताय कुलशाक्ताय शान्ताय कुलकौलिने । दातव्यं तस्य देवेशि ! कुलवागीश्वरो भवेत् ॥ इदं रहस्यं परमं शीतलाकवचमुत्तमम् । गोप्यं गुह्यतमं दिव्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ॥ श्रीईश्वरपार्वतीसम्वादे शक्तियामले शीतलाकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Krishna Raksha Kavacha (श्रीकृष्णरक्षाकवचम्)

    || श्रीकृष्णरक्षाकवचम् || (Krishna Raksha Kavacha) गोप्य ऊचुः – श्रीकृष्णस्ते शिरः पातु वैकुण्ठः कण्ठमेव हि । श्वेतद्वीपपतिः कर्णौ नासिकां यज्ञरूपधृक् ॥ नृसिंहो नेत्रयुग्मं च जिह्वां दशरथात्मजः । अधराववतां ते तु नरनाराणावृषी ॥ कपोलौ पातु ते साक्षात्सनकाद्याः कला हरेः । भालं ते श्वेतवाराहो नारदो भ्रूलतेऽवतु ॥ चिबुकं कपिलः पातु दत्तात्रेय उरोऽवतु । स्कन्धौ द्वावृषभः पातु करौ मत्स्यः प्रपातु ते ॥ दोर्दण्डं सततं रक्षेत्पृथुः पृथुलविक्रमः । उदरं कमठः पातु नाभिं धन्वन्तरिश्च ते ॥ मोहिनी गुह्यदेशं च कटिं ते वामनोऽवतु । पृष्ठं परशुरामश्च तवोरू बादरायणः ॥ बलो जानुद्वयं पातु जङ्घे बुद्धः प्रपातु ते । पादौ पातु सगुल्फौ च कल्किर्धर्मपतिः प्रभुः ॥ सर्वरक्षाकरं दिव्यं श्रीकृष्णकवचं परम् । इदं भगवता दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे ॥ ब्रह्मणा शम्भवे दत्तं शम्भुर्दुर्वाससे ददौ । दुर्वासाः श्रीयशोमत्यै प्रादाच्छ्रीनन्दमन्दिरे ॥ अनेन रक्षां कृत्वास्य गोपीभिः श्रीयशोमती । इति गर्गसंहितायां गोलोकखण्डे त्रयोदशाध्यान्तर्गतं गोपीभिः कृतं श्रीकृष्णरक्षाकवचम् ।

    Radha Kavacha (श्रीराधाकवचम्)

    ॥ श्रीराधाकवचम् ॥ (Radha Kavacha) श्रीगणेशाय नमः । पार्वत्युवाच कैलासिअवासिन् भगवन् भक्तानुग्रहकारक । राधिकाकवचं पुण्यं कथयस्व मम प्रभो ॥ १॥ यद्यस्ति करुणा नाथ त्राहि मां दुःखतो भयात् । त्वमेव शरणं नाथ शूलपाणे पिनाकधृक् ॥ २॥ शिव उवाच शृणुष्व गिरिजे तुभ्यं कवचं पूर्वसूचितम् । सर्वरक्षाकरं पुण्यं सर्वहत्याहरं परम् ॥ ३॥ हरिभक्तिप्रदं साक्षाद्भुक्तिमुक्तिप्रसाधनम् । त्रैलोक्याकर्षणं देवि हरिसान्निध्यकारकम् ॥ ४॥ सर्वत्र जयदं देवि सर्वशत्रुभयावहम् । सर्वेषां चैव भूतानां मनोवृत्तिहरं परम् ॥ ५॥ चतुर्धा मुक्तिजनकं सदानन्दकरं परम् । राजसूयाश्वमेधानां यज्ञानां फलदायकम् ॥ ६॥ इदं कवचमज्ञात्वा राधामन्त्रं च यो जपेत् । स नाप्नोति फलं तस्य विघ्नास्तस्य पदे पदे ॥ ७॥ ऋषिरस्य महादेवोऽनुष्टुप् छन्दश्च कीर्तितम् । राधाऽस्य देवता प्रोक्ता रां बीजं कीलकं स्मृतम् ॥ ८॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । श्रीराधा मे शिरः पातु ललाटं राधिका तथा ॥ ९॥ श्रीमती नेत्रयुगलं कर्णौ गोपेन्द्रनन्दिनी । हरिप्रिया नासिकां च भ्रूयुगं शशिशोभना ॥ १०॥ ओष्ठं पातु कृपादेवी अधरं गोपिका तथा । वृषभानुसुता दन्तांश्चिबुकं गोपनन्दिनी ॥ ११॥ चन्द्रावली पातु गण्डं जिह्वां कृष्णप्रिया तथा । कण्ठं पातु हरिप्राणा हृदयं विजया तथा ॥ १२॥ बाहू द्वौ चन्द्रवदना उदरं सुबलस्वसा । कोटियोगान्विता पातु पादौ सौभद्रिका तथा ॥ १३॥ नखांश्चन्द्रमुखी पातु गुल्फौ गोपालवल्लभा । नखान् विधुमुखी देवी गोपी पादतलं तथा ॥ १४॥ शुभप्रदा पातु पृष्ठं कुक्षौ श्रीकान्तवल्लभा । जानुदेशं जया पातु हरिणी पातु सर्वतः ॥ १५॥ वाक्यं वाणी सदा पातु धनागारं धनेश्वरी । पूर्वां दिशं कृष्णरता कृष्णप्राणा च पश्चिमाम् ॥ १६॥ उत्तरां हरिता पातु दक्षिणां वृषभानुजा । चन्द्रावली नैशमेव दिवा क्ष्वेडितमेखला ॥ १७॥ सौभाग्यदा मध्यदिने सायाह्ने कामरूपिणी । रौद्री प्रातः पातु मां हि गोपिनी रजनीक्षये ॥ १८॥ हेतुदा सङ्गवे पातु केतुमाला दिवार्धके । शेषाऽपराह्णसमवे शमिता सर्वसन्धिषु ॥ १९॥ योगिनी भोगसमये रतौ रतिप्रदा सदा । कामेशी कौतुके नित्यं योगे रत्नावली मम ॥ २०॥ सर्वदा सर्वकार्येषु राधिका कृष्णमानसा । इत्येतत्कथितं देवि कवचं परमाद्भुतम् ॥ २१॥ सर्वरक्षाकरं नाम महारक्षाकरं परम् । प्रातर्मध्याह्नसमये सायाह्ने प्रपठेद्यदि ॥ २२॥ सर्वार्थसिद्धिस्तस्य स्याद्यन्मनसि वर्तते । राजद्वारे सभायां च सङ्ग्रामे शत्रुसङ्कटे ॥ २३॥ प्राणार्थनाशसमये यः पठेत्प्रयतो नरः । तस्य सिद्धिर्भवेद्देवि न भयं विद्यते क्वचित् ॥ २४॥ आराधिता राधिका च तेन सत्यं न संशयः । गङ्गास्नानाद्धरेर्नामग्रहणाद्यत्फलं लभेत् ॥ २५॥ तत्फलं तस्य भवति यः पठेत्प्रयतः शुचिः । हरिद्रारोचनाचन्द्रमण्डितं हरिचन्दनम् ॥ २६॥ कृत्वा लिखित्वा भूर्जे च धारयेन्मस्तके भुजे । कण्ठे वा देवदेवेशि स हरिर्नात्र संशयः ॥ २७॥ कवचस्य प्रसादेन ब्रह्मा सृष्टिं स्थितिं हरिः । संहारं चाहं नियतं करोमि कुरुते तथा ॥ २८॥ वैष्णवाय विशुद्धाय विरागगुणशालिने । दद्यात्कवचमव्यग्रमन्यथा नाशमाप्नुयात् ॥ २९॥ ॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्रे ज्ञानामृतसारे राधाकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Brahma Kavacha (श्रीब्रह्मकवचम् )

    ॥ श्रीब्रह्मकवचम् ॥ (Brahma Kavacha) ॐ श्रीब्रह्मणे नमः । कवचं शृणु चार्वङ्गि जगन्मङ्गलनामकम् । पठनाद्धारणाद्यस्य ब्रह्मज्ञो जायते ध्रुवम् ॥ परमात्मा शिरः पातु हृदयं परमेश्वरः । कण्ठं पातु जगत्त्राता वदनं सर्वदृग्विभुः ॥ करौ मे पातु विश्वात्मा पादौ रक्षतु चिन्मयः । सर्वाङ्गं सर्वदा पातु परब्रह्म सनातनम् ॥ श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य सदाशिवः । ऋषिश्छन्दोऽनुष्टुबिति परब्रह्म च देवता ॥ चतुर्वर्गफलावाप्त्यै विनियोगः प्रकीर्तितः । यः पठेद्ब्रह्मकवचं ऋषिन्यासपुरःसरम् ॥ स ब्रह्मज्ञानमासाद्य साक्षाद्ब्रह्ममयो भवेत् । भूर्जे विलिख्य गुटिकां स्वर्णस्थां धारायेद्यदि ॥ कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् । इत्येतत् परमं ब्रह्मकवचं ते प्रकाशितम् ॥ दद्यात् प्रियाय शिष्याय गुरुभक्ताय धीमते । पठित्वा स्तोत्रकवचं प्रणमेत्साधकाग्रणीः ॥ ॐ नमस्ते परमं ब्रह्म नमस्ते परमात्मने । निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सद्रूपाय नमो नमः ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Alabhya Gayatri Kavacha (अलभ्य श्री गायत्री कवचम्)

    ॥ अलभ्य श्री गायत्री कवचम् ॥ (Alabhya Gayatri Kavacha) ॥ विनियोगः ॥ ॐ अस्य श्रीगायत्रीकवचस्य ब्रह्माविष्णुरुद्राः ऋषयः । ऋग्यजुःसामाथर्वाणि छन्दांसि । परब्रह्मस्वरूपिणी गायत्री देवता । भूः बीजम् । भुवः शक्तिः । स्वः कीलकम् । सुवः कीलकम् । चतुर्विंशत्यक्षरा श्रीगायत्रीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ॥ ध्यानं ॥ वस्त्राभां कुण्डिकां हस्तां, शुद्धनिर्मलज्योतिषीम् । सर्वतत्त्वमयीं वन्दे, गायत्रीं वेदमातरम् ॥ मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलैश्छायैः मुखेस्त्रीक्षणैः । युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् ॥ गायत्रीं वरदाभयाङ्कुशकशां शूलं कपालं गुणैः । शङ्खं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥ ॥ कवच पाठः ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ भूः ॐ ॐ भुवः ॐ ॐ स्वः ॐ ॐ त ॐ ॐ त्स ॐॐ वि ॐ ॐ तु ॐ ॐ र्व ॐ ॐ रे ॐ ॐ ण्यं ॐ ॐ भ ॐ ॐ र्गो ॐॐ दे ॐ ॐ व ॐ ॐ स्य ॐ ॐ धी ॐ ॐ म ॐ ॐ हि ॐ ॐ धि ॐॐ यो ॐ ॐ यो ॐ ॐ नः ॐ ॐ प्र ॐ ॐ चो ॐ ॐ द ॐॐ या ॐ ॐ त् ॐ ॐ । ॐ ॐ ॐ ॐ भूः ॐ पातु मे मूलं चतुर्दलसमन्वितम् । ॐ भुवः ॐ पातु मे लिङ्गं सज्जलं षट्दलात्मकम् । ॐ स्वः ॐ पातु मे कण्ठं साकाशं दलषोडशम् । सुवः ॐ त ॐ पातु मे रूपं ब्राह्मणं कारणं परम् । ॐ त्स ॐ ब्रह्मरसं पातु मे सदा मम । ॐ वि ॐ पातु मे गन्धं सदा शिशिरसंयुतम् । ॐ तु ॐ पातु मे स्पर्शं शरीरस्य कारणं परम् । ॐ र्व ॐ पातु मे शब्दं शब्दविग्रहकारणम् । ॐ रे ॐ पातु मे नित्यं सदा तत्त्वशरीरकम् । ॐ ण्यं ॐ पातु मे अक्षं सर्वतत्त्वैककारणम् । ॐ भ ॐ पातु मे श्रोत्रं शब्दश्रवणैककारणम् । ॐ र्गो ॐ पातु मे घ्राणं गन्धोत्पादानकारणम् । ॐ दे ॐ पातु मे चास्यं सभायां शब्दरूपिणीम् । ॐ व ॐ पातु मे बाहुयुगलं च कर्मकारणम् । ॐ स्य ॐ पातु मे लिङ्गं षट्दलयुतम् । ॐ धी ॐ पातु मे नित्यं प्रकृति शब्दकारणम् । ॐ म ॐ पातु मे नित्यं नमो ब्रह्मस्वरूपिणीम् । ॐ हि ॐ पातु मे बुद्धिं परब्रह्ममयं सदा । ॐ धि ॐ पातु मे नित्यमहङ्कारं यथा तथा । ॐ यो ॐ पातु मे नित्यं जलं सर्वत्र सर्वदा । ॐ यो ॐ पातु मे नित्यं जलं सर्वत्र सर्वदा । ॐ नः ॐ पातु मे नित्यं तेजःपुञ्जो यथा तथा । ॐ प्र ॐ पातु मे नित्यमनिलं कायकारणम् । ॐ चो ॐ पातु मे नित्यमाकाशं शिवसन्निभम् । ॐ द ॐ पातु मे जिह्वां जपयज्ञस्य कारणम् । ॐ यात् ॐ पातु मे नित्यं शिवं ज्ञानमयं सदा । ॐ तत्त्वानि पातु मे नित्यं, गायत्री परदैवतम् । कृष्णं मे सततं पातु, ब्रह्माणि भूर्भुवः स्वरोम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ जातवेदसे सुनवाम सोममाराती यतो निदहाति वेदाः । स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेवं सिन्धुं दुरितात्यग्निः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । ऊर्वारिकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥ ॐ नमस्ते तुरीयाय सर्शिताय पदाय परो रजसेऽसावदों मा प्रापत ॥ ॥ इति श्री कवचं गायत्री सम्पूर्णा ॥

    Ek Mukhi Hanumat Kavacha (श्री एक मुखी हनुमत्कवचम्)

    ॥ श्री एक मुखी हनुमत्कवचम् ॥ (Ek Mukhi Hanumat Kavacha) ॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥ मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥ ॥ श्रीहनुमते नमः ॥ एकदा सुखमासीनं शङ्करं लोकशङ्करम् । पप्रच्छ गिरिजाकान्तं कर्पूरधवलं शिवम् ॥ ॥ पार्वत्युवाच ॥ भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगद्गुरो । शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्ध्रुवम् ॥ सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे भूतप्रेतादिके भये । दुःखदावाग्निसन्तप्तचेतसां दुःखभागिनाम् ॥ ॥ ईश्वर उवाच ॥ शृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया । विभीषणाय रामेण प्रेम्णा दत्तं च यत्पुरा ॥ कवचं कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः । गुह्यं ते सम्प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छृणु सुन्दरि ॥ ॐ अस्य श्रीहनुमत् कवचस्त्रोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । श्रीमहावीरो हनुमान् देवता। मारुतात्मज इति बीजम् ॥ ॐ अञ्जनीसूनुरिति शक्ति ॐ ह्रैं ह्रां ह्रौं इति कवचम्। स्वाहा इति कीलकम् । लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्ध्यर्थे जपे वीनियोगः ॥ ॥ अथ न्यासः ॥ ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ॐ अञ्जनीसूनवे हृदयाय नमः । ॐ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा । ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ब्रह्मास्त्रनिवारणाय अस्त्राय फट् । ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमही । तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॐ हुं फट् स्वाहा ॥ ॥ अथ ध्यानम् ॥ ॐ ध्यायेद्बालदिवाकरधृतिनिभं देवारिदर्पापहंदेवेन्द्र- प्रमुखप्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा । सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालङ्कृतम् ॥ उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं मौञ्जीयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिखाशोभितं कुण्डलाङ्गम्। भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवार्धिम् ॥ वज्राङ्गं पिङ्गकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डलमण्डितम् । नियुद्धकर्मकुशलं पारावारपराक्रमम् ॥ वामहस्ते महावृक्षं दशास्यकरखण्डनम् । उद्यद्दक्षिणदोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥ स्फटिकाभं स्वर्णकान्ति द्विभुजं च कृताञ्जलिम् । कुण्डलद्वयसंशोभिमुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥ उद्यदादित्यसङ्काशमुदारभुजविक्रमम् । कन्दर्पकोटिलावण्यं सर्वविद्याविशारदम् ॥ श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरूहम् । अभयं वरदं दोर्भ्यां कलये मारूतात्मजम् ॥ अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित । प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ यो वारांनिधिमल्पपल्वलमिवोल्लङ्घ्य प्रतापान्वितो- वैदेहीघनशोकतापहरणो वैकुण्ठतत्त्वप्रियः । अक्षाद्यर्चितराक्षसेश्वरमहादर्पापहारी रणे । सोऽयं वानरपुङ्गवोऽवतु सदा युष्मान्समीरात्मजः ॥ वज्राङ्गं पिङ्गकेशं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं नाना विद्याधिनाथं करतलविधृतं पूर्णकुम्भं दृढं च भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं त्रैलोक्यत्राणकारं सकलभुवनगं रामदूतं नमामि ॥ उद्यल्लाङ्गूलकेशप्रलयजलधरं भीममूर्तिं कपीन्द्रं वन्दे रामाङ्घ्रिपद्मभ्रमरपरिवृतं तत्त्वसारं प्रसन्नम् । वज्राङ्गं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं दम्भोलिस्तम्भसारप्रहरणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकण्ठलग्नम् । दधानमासाद्य सुवर्णवर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डलरामदूतम् ॥ पद्मरागमणिकुण्डलत्विषा पाटलीकृतकपोलमण्डलम् । दिव्यगेहकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥ ॥ ईश्वर उवाच ॥ इति वदति विशेषाद्राघवो राक्षसेन्द्रम प्रमुदितवरचित्तो रावणस्यानुजो ह् रघुवरवरदूतं पूजयामास भूयः स्तुतिभिरकृतार्थः स्वं परं मन्यमानः ॥ वन्दे विद्युद्वलयसुभगस्वर्णयज्ञोपवीतं कर्णद्वन्द्वे कनकरुचिरे कुण्डले धारयन्तम् । उच्चैर्हृष्यद्द्युमणिकिरणश्रेणिसम्भाविताङ्गं सत्कौपीनं कपिवरवृतं कामरूपं कपीन्द्रम् ॥ मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं सततं स्मरामि ॥ ॐ नमो भगवते हृदयाय नमः । ॐ आञ्जनेयाय शिरसे स्वाहा । ॐ रुद्रमूर्तये शिखायै वषट् । ॐ रामदूताय कवचाय हुम् । ॐ हनुमते नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ अग्निगर्भाय अस्त्राय फट् । ॐ नमो भगवते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ आञ्जनेयाय तर्जनीभ्यां नमः । ॐ रुद्रमूर्तये मध्यमाभ्यां नमः । ॐ वायुसूनवे अनामिकाभ्यां नमः । ॐ हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ अग्निगर्भाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ॥ अथ मन्त्र उच्यते ॥ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः । ॐ ह्रीं ह्रौं ॐ नमो भगवते महाबलपराक्रमाय भूतप्रेतपिशाच शाकिनी डाकिनी यक्षिणी पूतनामारी महामारी भैरव-यक्ष-वेताल-राक्षस-ग्रहराक्षसादिकं क्षणेन हन हन भञ्जय भञ्जय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामाहेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते हनुमदाख्याय रुद्राय सर्वदुष्टजन- मुखस्तम्भनं कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रूं ठंठंठं फट् स्वाहा । ॐ नमो भगवते अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकराय कपिसैन्यप्रकाशनाय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाधकाय रणोच्चाटनाय कुमारब्रह्मचारिणे गम्भीरशब्दोदयाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्वदुष्टनिवारणाय स्वाहा । ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहानुभूत भविष्यद्वर्तमानान् दूरस्थान् समीपस्थान् सर्वकालदुष्टदुर्बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्यं साधय धय हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् देहि । ॐ शिवं सिद्धं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं स्वाहा । ॐ नमो हनुमते परकृतान् तन्त्रमन्त्र-पराहङ्कारभूतप्रेतपिशाच परदृष्टिसर्वविघ्नदुर्जनचेटकविधान् सर्वग्रहान् निवारय निवारयवध वध पच पच दल दल किल किल सर्वकुयन्त्राणि दुष्टवाचं फट् स्वाहा । ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि एहिसर्वग्रहभूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषं दुष्टानां सर्वविषयान्आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय भेदय भेदय मृत्युमुत्पाटयोत्पाटय शोषय शोषय ज्वल ज्वल प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल भूतमण्डलं प्रेतमण्डलं पिशाचमण्डलं निरासय निरासय भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर विषमज्वर माहेश्वरज्वरान् छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि अक्षिशूल-वक्षःशूल-शरोभ्यन्तरशूल- गुल्मशूल-पित्तशूल-ब्रह्मराक्षसकुल- परकुल-नागकुल-विषं नाशय नाशय निर्विषं कुरु कुरु फट् स्वाहा । ॐ ह्रीं सर्वदुष्टग्रहान् निवारय फट् स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते पवनपुत्राय वैश्वानरमुखाय हन हन पापदृष्टिं षण्ढदृष्टिं हन हनहनुमदाज्ञया स्फुर स्फुर फट् स्वाहा ॥ ॥ श्रीराम उवाच ॥ हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः । प्रतीच्यां पातु रक्षोघ्न उत्तरस्यामब्धिपारगः ॥ उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरीप्रियनन्दनः । अधश्च विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ॥ अवान्तरदिशः पातु सीताशोकविनाशनः । लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ॥ सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः । भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ॥ नेत्रे छायाऽपहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः । कपोलकर्णमूले तु पातु श्रीरामकिङ्करः ॥ नासाग्रे अञ्जनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः । वाचं रूद्रप्रियः पातु जिह्वां पिङ्गललोचनः ॥ पातु दन्तान् फाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणहृत् । ओष्ठं रामप्रियः पातु चिबुकं- दैत्यकोटिहृत् पातु कण्ठं च दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ॥ भुजौ पातु महातेजाः करौ तु चरणायुधः । नखान्नखायुधः पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ॥ वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः । लङ्काविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ॥ नाभिञ्च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः । गुह्मं पातु महाप्राज्ञः सृक्किणी च शिवप्रियः ॥ ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः । जङ्घे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ॥ अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः । पादान्ते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादाङ्गुलीस्तथा ॥ सर्वाङ्गानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् । हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विचाक्षणः ॥ स एव पुरूषश्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं च विन्दति । त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयं सदा ॥ सर्वान् रिपून् क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् । मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्यदि ॥ क्षयाऽपस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवारणम् । आर्किवारेऽश्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ॥ अचलां श्रियमाप्नोति सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् । विवाहे दिव्यकाले च द्यूते राजकुले रणे ॥ भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसम्प्लवे । दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेन्द्रियः ॥ विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः । सिंहव्याघ्रभये चाग्नौ शरशस्त्रास्त्रयातने ॥ शृङ्खलाबन्धने चैव काराग्रहनियन्त्रणे । कायस्तम्भे वह्निदाहे गात्ररोगे च दारूणे ॥ शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने । सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्यसंशयम् ॥ भूर्जे वा वसने रक्ते क्षौमे वा तालपत्रके । त्रिगन्धेनाथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ॥ पञ्चसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभम् । गले कट्यां बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितम् ॥ सर्वान् कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितम् ॥ उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः । आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ॥ ॐ हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः । श्रीरामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥ उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः । लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः । स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ॥ तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् । धनधान्यं भवेत्तस्य दुःखं नैव कदाचन ॥ ॐ ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गते नारद अगस्त्य संवादे । ॥ इति श्री एकमुखी हनुमत् कवचम् सम्पूर्णम् ॥

    Saptmukhi Hanuman Kavacha (श्री सप्तमुखी हनुमत्कवचम्)

    ॥ श्री सप्तमुखी हनुमत्कवचम् ॥ (Saptmukhi Hanuman Kavacha) ॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥ ॐ अस्य श्रीसप्तमुखीवीरहनुमत्कवच स्तोत्रमन्त्रस्य, नारदऋषिः ,अनुष्टुप्छन्दः ,श्रीसप्तमुखीकपिः परमात्मादेवता ,ह्रां बीजम् ,ह्रीं शक्तिः ,ह्रूं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रां हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं कवचाय हुं । ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः अस्त्राय फट् । ॥ अथ ध्यानम् ॥ वन्देवानरसिंहसर्परिपुवाराहाश्वगोमानुषैर्युक्तं सप्तमुखैः करैर्द्रुमगिरिं चक्रं गदां खेटकम् । खट्वाङ्गं हलमङ्कुशं फणिसुधाकुम्भौ शराब्जाभयान् शूलं सप्तशिखं दधानममरैः सेव्यं कपिं कामदम् ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ सप्तशीर्ष्णः प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिदम् । जप्त्वा हनुमतो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ सप्तस्वर्गपतिः पायाच्छिखां मे मारुतात्मजः । सप्तमूर्धा शिरोऽव्यान्मे सप्तार्चिर्भालदेशकम् ॥ २॥ त्रिःसप्तनेत्रो नेत्रेऽव्यात्सप्तस्वरगतिः श्रुती । नासां सप्तपदार्थोऽव्यान्मुखं सप्तमुखोऽवतु ॥ ३॥ सप्तजिह्वस्तु रसनां रदान्सप्तहयोऽवतु । सप्तच्छन्दो हरिः पातु कण्ठं बाहू गिरिस्थितः ॥ ४॥ करौ चतुर्दशकरो भूधरोऽव्यान्ममाङ्गुलीः । सप्तर्षिध्यातो हृदयमुदरं कुक्षिसागरः ॥ ५॥ सप्तद्वीपपतिश्चित्तं सप्तव्याहृतिरूपवान् । कटिं मे सप्तसंस्थार्थदायकः सक्थिनी मम ॥ ६॥ सप्तग्रहस्वरूपी मे जानुनी जङ्घयोस्तथा । सप्तधान्यप्रियः पादौ सप्तपातालधारकः ॥ ७॥ पशून्धनं च धान्यं च लक्ष्मीं लक्ष्मीप्रदोऽवतु । दारान् पुत्रांश्च कन्याश्च कुटुम्बं विश्वपालकः ॥ ८॥ अनुक्तस्थानमपि मे पायाद्वायुसुतः सदा । चौरेभ्यो व्यालदंष्ट्रिभ्यः श्रृङ्गिभ्यो भूतराक्षसात् ॥ ९॥ दैत्येभ्योऽप्यथ यक्षेभ्यो ब्रह्मराक्षसजाद्भयात् । दंष्ट्राकरालवदनो हनुमान् मां सदाऽवतु ॥ १०॥ परशस्त्रमन्त्रतन्त्रयन्त्राग्निजलविद्युतः । रुद्रांशः शत्रुसङ्ग्रामात्सर्वावस्थासु सर्वभृत् ॥ ११॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय आद्यकपिमुखाय वीरहनुमते सर्वशत्रुसंहारणाय ठंठंठंठंठंठंठं ॐ नमः स्वाहा ॥ १२॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय द्वीतीयनारसिंहास्याय अत्युग्रतेजोवपुषे भीषणाय भयनाशनाय हंहंहंहंहंहंहं ॐ नमः स्वाहा ॥ १३॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय तृतीयगरुडवक्त्राय वज्रदंष्ट्राय महाबलाय सर्वरोगविनाशाय मंमंमंमंमंमंमं ॐ नमः स्वाहा ॥ १४॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय चतुर्थक्रोडतुण्डाय सौमित्रिरक्षकाय पुत्राद्यभिवृद्धिकराय लंलंलंलंलंलंलं ॐ नमः स्वाहा ॥ १५॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय पञ्चमाश्ववदनाय रुद्रमूर्तये सर्ववशीकरणाय सर्वनिगमस्वरूपाय रुंरुंरुंरुंरुंरुंरुं ॐ नमः स्वाहा ॥ १६॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय षष्ठगोमुखाय सूर्यस्वरूपाय सर्वरोगहराय मुक्तिदात्रे ॐॐॐॐॐॐॐ ॐ नमः स्वाहा ॥ १७॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय सप्तममानुषमुखाय रुद्रावताराय-अञ्जनीसुताय सकलदिग्यशोविस्तारकाय वज्रदेहाय सुग्रीवसाह्यकराय उदधिलङ्घनाय सीताशुद्धिकराय लङ्कादहनाय अनेकराक्षसान्तकाय रामानन्ददाय- कायअनेकपर्वतोत्पाटकाय सेतुबन्धकाय कपिसैन्यनायकाय रावणान्तकाय ब्रह्मचर्याश्रमिणे कौपीनब्रह्मसूत्रधारकाय रामहृदयाय सर्वदुष्टग्रहनिवारणाय शाकिनीडाकिनीवेतालब्रह्मराक्षसभैरवग्रह- यक्षग्रहपिशाचग्रहब्रह्मग्रहक्षत्रियग्रहवैश्यग्रह- शूद्रग्रहान्त्यजग्रहम्लेच्छग्रह- सर्पग्रहोच्चाटकाय मम सर्व कार्यसाधकाय सर्वशत्रुसंहारकाय सिंहव्याघ्रादिदुष्टसत्वाकर्षकायै काहिकादिविविधज्वरच्छेदकाय परयन्त्रमन्त्रतन्त्रनाशकाय सर्वव्याधिनिकृन्तकाय सर्पादि- सर्वस्थावरजङ्गमविषस्तम्भनकराय सर्वराजभयचोरभयाऽ ग्निभयप्रशमनायाऽऽध्यात्मिकाऽऽधि- दैविकाधिभौतिकतापत्रयनिवारणाय सर्वविद्यासर्वसम्पत्सर्वपुरुषार्थ-दायकायाऽसाध्यकार्यसाधकाय सर्ववरप्रदायसर्वाऽभीष्टकराय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः ॐ नमः स्वाहा ॥ १८॥ य इदं कवचं नित्यं सप्तास्यस्य हनुमतः । त्रिसन्ध्यं जपते नित्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ॥ १९॥ पुत्रपौत्रप्रदं सर्वं सम्पद्राज्यप्रदं परम् । सर्वरोगहरं चाऽऽयुःकीर्त्तिदं पुण्यवर्धनम् ॥ २०॥ राजानं स वशं नीत्वा त्रैलोक्यविजयी भवेत् । इदं हि परमं गोप्यं देयं भक्तियुताय च ॥ २१॥ न देयं भक्तिहीनाय दत्वा स निरयं व्रजेत् ॥ २२॥ नामानिसर्वाण्यपवर्गदानि रूपाणि विश्वानि च यस्य सन्ति । कर्माणि देवैरपि दुर्घटानि तं मारुतिं सप्तमुखं प्रपद्ये॥ २३॥ ॥ इति श्री सप्तमुखी हनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Lakshmi Narayan Kavacha (श्री लक्ष्मीनारायण कवच)

    ॥ श्री लक्ष्मीनारायण कवचम् ॥ (Lakshmi Narayan Kavacha) ॥ श्री भैरव उवाच ॥ अधुना देवि वक्ष्यामि लक्ष्मीनारायणस्य ते । कवचं मन्त्रगर्भं च वज्रपञ्जरकाख्यया ॥ श्रीवज्रपञ्जरं नाम कवचं परमाद्भुतम् । रहस्यं सर्वदेवानां साधकानां विशेषतः ॥ यं धृत्वा भगवान् देवः प्रसीदति परः पुमान् । यस्य धारणमात्रेण ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ईश्वरोऽहं शिवो भीमो वासवोऽपि दिवस्पतिः । सूर्यस्तेजोनिधिर्देवि चन्द्रर्मास्तारकेश्वरः ॥ वायुश्च बलवांल्लोके वरुणो यादसाम्पतिः । कुबेरोऽपि धनाध्यक्षो धर्मराजो यमः स्मृतः ॥ यं धृत्वा सहसा विष्णुः संहरिष्यति दानवान् । जघान रावणादींश्च किं वक्ष्येऽहमतः परम् ॥ कवचस्यास्य सुभगे कथितोऽयं मुनिः शिवः । त्रिष्टुप् छन्दो देवता च लक्ष्मीनारायणो मतः ॥ रमा बीजं परा शक्तिस्तारं कीलकमीश्वरि । भोगापवर्गसिद्ध्यर्थं विनियोग इति स्मृतः ॥ ॐ अस्य श्रीलक्ष्मीनारायणकवचस्य शिवः ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः , श्रीलक्ष्मीनारायण देवता, श्रीं बीजं , ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं ,भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः । ॥ अथ ध्यानम् ॥ पूर्णेन्दुवदनं पीतवसनं कमलासनम् । लक्ष्म्या श्रितं चतुर्बाहुं लक्ष्मीनारायणं भजे ॥ ॥ अथ कवचम् ॥ ॐ वासुदेवोऽवतु मे मस्तकं सशिरोरुहम् । ह्रीं ललाटं सदा पातु लक्ष्मीविष्णुः समन्ततः ॥ ह्सौः नेत्रेऽवताल्लक्ष्मीगोविन्दो जगतां पतिः । ह्रीं नासां सर्वदा पातु लक्ष्मीदामोदरः प्रभुः ॥ श्रीं मुखं सततं पातु देवो लक्ष्मीत्रिविक्रमः । लक्ष्मी कण्ठं सदा पातु देवो लक्ष्मीजनार्दनः ॥ नारायणाय बाहू मे पातु लक्ष्मीगदाग्रजः । नमः पार्श्वौ सदा पातु लक्ष्मीनन्दैकनन्दनः ॥ अं आं इं ईं पातु वक्षो ॐ लक्ष्मीत्रिपुरेश्वरः । उं ऊं ऋं ॠं पातु कुक्षिं ह्रीं लक्ष्मीगरुडध्वजः ॥ लृं लॄं एं ऐं पातु पृष्ठं ह्सौः लक्ष्मीनृसिंहकः । ओं औं अं अः पातु नाभिं ह्रीं लक्ष्मीविष्टरश्रवः ॥ कं खं गं घं गुदं पातु श्रीं लक्ष्मीकैटभान्तकः । चं छं जं झं पातु शिश्र्नं लक्ष्मी लक्ष्मीश्वरः प्रभुः ॥ टं ठं डं ढं कटिं पातु नारायणाय नायकः । तं थं दं धं पातु चोरू नमो लक्ष्मीजगत्पतिः ॥ पं फं बं भं पातु जानू ॐ ह्रीं लक्ष्मीचतुर्भुजः । यं रं लं वं पातु जङ्घे ह्सौः लक्ष्मीगदाधरः ॥ शं षं सं हं पातु गुल्फौ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीरथाङ्गभृत् । ळं क्षः पादौ सदा पातु मूलं लक्ष्मीसहस्रपात् ॥ ङं ञं णं नं मं मे पातु लक्ष्मीशः सकलं वपुः । इन्द्रो मां पूर्वतः पातु वह्निर्वह्नौ सदावतु ॥ यमो मां दक्षिणे पातु नैरृत्यां निरृतिश्च माम् । वरुणः पश्चिमेऽव्यान्मां वायव्येऽवतु मां मरुत् ॥ उत्तरे धनदः पायादैशान्यामीश्वरोऽवतु । वज्रशक्तिदण्डखड्ग पाशयष्टिध्वजाङ्किताः ॥ सशूलाः सर्वदा पान्तु दिगीशाः परमार्थदाः । अनन्तः पात्वधो नित्यमूर्ध्वे ब्रह्मावताच्च माम् ॥ दशदिक्षु सदा पातु लक्ष्मीनारायणः प्रभुः । प्रभाते पातु मां विष्णुर्मध्याह्ने वासुदेवकः ॥ दामोदरोऽवतात् सायं निशादौ नरसिंहकः। सङ्कर्षणोऽर्धरात्रेऽव्यात् प्रभातेऽव्यात् त्रिविक्रम॥ अनिरुद्धः सर्वकालं विश्वक्सेनश्च सर्वतः । रणे राजकुले द्युते विवादे शत्रुसङ्कटे ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं मूलं लक्ष्मीनारायणोऽवतु ॥ ॐॐॐरणराजचौररिपुतः पायाच्च मां केशवः ह्रींह्रींह्रींहह्हाह्सौः ह्सह्सौः वह्नेर्वतान्माधवः । ह्रींह्रींह्रींजलपर्वताग्निभयतः पायादनन्तो विभुः श्रींश्रींश्रींशशशाललं प्रतिदिनं लक्ष्मीधव पातु माम्॥ इतीदं कवचं दिव्यं वज्रपञ्जरकाभिधम् । लक्ष्मीनारायणस्येष्टं चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ सर्वसौभाग्यनिलयं सर्वसारस्वतप्रदम् । लक्ष्मीसंवननं तत्वं परमार्थरसायनम् ॥ मन्त्रगर्भं जगत्सारं रहस्यं त्रिदिवौकसाम् । दशवारं पठेद्रात्रौ रतान्ते वैष्णवोत्तमः ॥ स्वप्ने वरप्रदं पश्येल्लक्ष्मीनारायणं सुधीः । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं कवचं मन्मुखोदितम् ॥ स याति परमं धाम वैष्णवं वैष्णवेश्वरः । महाचीनपदस्थोऽपि यः पठेदात्मचिन्तकः ॥ आनन्दपूरितस्तूर्णं लभेद् मोक्षं स साधकः । गन्धाष्टकेन विलिखेद्रवौ भूर्जे जपन्मनुम् ॥ पीतसूत्रेण संवेष्ट्य सौवर्णेनाथ वेष्टयेत् । धारयेद्गुटिकां मूर्ध्नि लक्ष्मीनारायणं स्मरन् ॥ रणे रिपुन् विजित्याशु कल्याणी गृहमाविशेत् । वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याङ्गना ॥ सा बध्नीयान् कण्ठदेशे लभेत् पुत्रांश्चिरायुषः । गुरुपदेशतो धृत्वा गुरुं ध्यात्वा मनुं जपन् ॥ वर्णलक्षपुरश्चर्या फलमाप्नोति साधकः । बहुनोक्तेन किं देवि कवचस्यास्य पार्वति ॥ विनानेन न सिद्धिः स्यान्मन्त्रस्यास्य महेश्वरि । सर्वागमरहस्याढ्यं तत्वात् तत्वं परात् परम् ॥ अभक्ताय न दातव्यं कुचैलाय दुरात्मने । दीक्षिताय कुलीनाय स्वशिष्याय महात्मने ॥ महाचीनपदस्थाय दातव्यं कवचोत्तमम् । गुह्यं गोप्यं महादेवि लक्ष्मीनारायणप्रियम् । वज्रपञ्जरकं वर्म गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ॥ इति श्री लक्ष्मीनारायण कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Tripura Bhairavi Kavacha (त्रिपुरभैरवी कवचम्)

    ॥त्रिपुरभैरवी कवचम्॥ (Tripura Bhairavi Kavacha) श्रीपार्वत्युवाच देवदेव महादेव सर्वशास्त्रविशारद । कृपाङ्कुरु जगन्नाथ धर्मज्ञोऽसि महामते ॥ भैरवी या पुरा प्रोक्ता विद्या त्रिपुरपूर्विका । तस्यास्तु कवचन्दिव्यं मह्यङ्कथय तत्त्वतः ॥ तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा जगाद जगदीश्वरः । अद्भुतङ्कवचन्देव्या भैरव्या दिव्यरूपि वै ॥ ईश्वर उवाच कथयामि महाविद्याकवचं सर्वदुर्लभम् । श‍ृणुष्व त्वञ्च विधिना श्रुत्वा गोप्यन्तवापि तत् ॥ यस्याः प्रसादात्सकलं बिभर्मि भुवनत्रयम् । यस्याः सर्वं समुत्पन्नयस्यामद्यापि तिष्ठति ॥ माता पिता जगद्धन्या जगद्ब्रह्मस्वरूपिणी । सिद्धिदात्री च सिद्धास्स्यादसिद्धा दुष्टजन्तुषु ॥ सर्वभूतहितकरी सर्वभूतस्वरूपिणी । ककारी पातु मान्देवी कामिनी कामदायिनी ॥ एकारी पातु मान्देवी मूलाधारस्वरूपिणी । इकारी पातु मान्देवी भूरि सर्वसुखप्रदा ॥ लकारी पातु मान्देवी इन्द्राणी वरवल्लभा । ह्रीङ्कारी पातु मान्देवी सर्वदा शम्भुसुन्दरी ॥ एतैर्वर्णैर्महामाया शम्भवी पातु मस्तकम् । ककारे पातु मान्देवी शर्वाणी हरगेहिनी ॥ मकारे पातु मान्देवी सर्वपापप्रणाशिनी । ककारे पातु मान्देवी कामरूपधरा सदा ॥ ककारे पातु मान्देवी शम्बरारिप्रिया सदा । पकारी पातु मान्देवी धराधरणिरूपधृक् ॥ ह्रीङ्कारी पातु मान्देवी आकारार्द्धशरीरिणी । एतैर्वर्णैर्महामाया कामराहुप्रियाऽवतु ॥ मकारः पातु मान्देवी सावित्री सर्वदायिनी । ककारः पातु सर्वत्र कलाम्बरस्वरूपिणी ॥ लकारः पातु मान्देवी लक्ष्मीः सर्वसुलक्षणा । ह्रीं पातु मान्तु सर्वत्र देवी त्रिभुवनेश्वरी ॥ एतैर्वर्णैर्महामाया पातु शक्तिस्वरूपिणी । वाग्भवं मस्तकमम्पातु वदनङ्कामराजिका ॥ शक्तिस्वरूपिणी पातु हृदययन्त्रसिद्धिदा । सुन्दरी सर्वदा पातु सुन्दरी परिरक्षति ॥ रक्तवर्णा सदा पातु सुन्दरी सर्वदायिनी । नानालङ्कारसंयुक्ता सुन्दरी पातु सर्वदा ॥ सर्वाङ्गसुन्दरी पातु सर्वत्र शिवदायिनी । जगदाह्लादजननी शम्भुरूपा च मां सदा ॥ सर्वमन्त्रमयी पातु सर्वसौभाग्यदायिनी । सर्वलक्ष्मीमयी देवी परमानन्ददायिनी ॥ पातु मां सर्वदा देवी नानाशङ्खनिधिः शिवा । पातु पद्मनिधिर्देवी सर्वदा शिवदायिनी ॥ दक्षिणामूर्तिर्माम्पातु ऋषिः सर्वत्र मस्तके । पङ्क्तिश्छन्दः स्वरूपा तु मुखे पातु सुरेश्वरी ॥ गन्धाष्टकात्मिका पातु हृदयं शङ्करी सदा । सर्वसंमोहिनी पातु पातु सङ्क्षोभिणी सदा ॥ सर्वसिद्धिप्रदा पातु सर्वाकर्षणकारिणी । क्षोभिणी सर्वदा पातु वशिनी सर्वदावतु ॥ आकर्षिणी सदा पातु सं मोहिनी सदावतु । रतिर्देवी सदा पातु भगाङ्गा सर्वदावतु ॥ महेश्वरी सदा पातु कौमारी सर्वदावतु । सर्वाह्लादनकारी माम्पातु सर्ववशङ्करी ॥ क्षेमङ्करी सदा पातु सर्वाङ्गसुन्दरी तथा । सर्वाङ्गयुवतिः सर्वं सर्वसौभाग्यदायिनी ॥ वाग्देवी सर्वदा पातु वाणिनी सर्वदावतु । वशिनी सर्वदा पातु महासिद्धिप्रदा सदा ॥ सर्वविद्राविणी पातु गणनाथः सदावतु । दुर्गा देवी सदा पातु बटुकः सर्वदावतु ॥ क्षेत्रपालः सदा पातु पातु चावरिशान्तिका । अनन्तः सर्वदा पातु वराहः सर्वदावतु ॥ पृथिवी सर्वदा पातु स्वर्णसिम्हासनन्तथा । रक्तामृतञ्च सततम्पातु मां सर्वकालतः ॥ सुरार्णवः सदा पातु कल्पवृक्षः सदावतु । श्वेतच्छत्रं सदा पातु रक्तदीपः सदावतु ॥ नन्दनोद्यानं सततम्पातु मां सर्वसिद्धये । दिक्पालाः सर्वदा पान्तु द्वन्द्वौघाः सकलास्तथा ॥ वाहनानि सदा पान्तु अस्त्राणि पान्तु सर्वदा । शस्त्राणि सर्वदा पान्तु योगिन्यः पान्तु सर्वदा ॥ सिद्धाः पान्तु सदा देवी सर्वसिद्धिप्रदावतु । सर्वाङ्गसुन्दरी देवी सर्वदावतु मान्तथा ॥ आनन्दरूपिणी देवी चित्स्वरूपा चिदात्मिका । सर्वदा सुन्दरी पातु सुन्दरी भवसुन्दरी ॥ पृथग्देवालये घोरे सङ्कटे दुर्गमे गिरौ । अरण्ये प्रान्तरे वापि पातु मां सुन्दरी सदा ॥ इदङ्कवचमित्युक्तं मन्त्रोद्धारश्च पार्वति । यः पठेत्प्रयतो भूत्वा त्रिसन्ध्यन्नियतः शुचिः ॥ तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याद्यद्यन्मनसि वर्तते । गोरोचनाकुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा ॥ स्वयम्भूकुसुमैः शुक्लैर्भूमिपुत्रे शनौ सुरे । श्मशाने प्रान्तरे वापि शून्यागारे शिवालये ॥ स्वशक्त्या गुरुणा यन्त्रम्पूजयित्वा कुमारिकाः । तन्मनुम्पूजयित्वा च गुरुपङ्क्तिन्तथैव च ॥ देव्यै बलिन्निवेद्याथ नरमार्जारसूकरैः । नकुलैर्महिषैर्मेषैः पूजयित्वा विधानतः ॥ धृत्वा सुवर्णमध्यस्तङ्कण्ठे वा दक्षिणे भुजे । सुतिथौ शुभनक्षत्रे सूर्यस्योदयने तथा ॥ धारयित्वा च कवचं सर्वसिद्धिलभेन्नरः । कवचस्य च माहात्म्यन्नाहवर्षशतैरपि ॥ शक्नोमि तु महेशानि वक्तुन्तस्य फलन्तु यत् । न दुर्भिक्षफलन्तत्र न चापि पीडनन्तथा ॥ सर्वविघ्नप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ सर्वरक्षाकरञ्जन्तोश्चतुर्वर्गफलप्रदम् । यत्र कुत्र न वक्तव्यन्न दातव्यङ्कदाचन ॥ मन्त्रम्प्राप्य विधानेन पूजयेत्सततं सुधीः । तत्रापि दुर्लभं मन्ये कवचन्देवरूपिणम् ॥ गुरोः प्रसादमासाद्य विद्याम्प्राप्य सुगोपिताम् । तत्रापि कवचन्दिव्यन्दुर्लभम्भुवनत्रये ॥ श्लोकवा स्तवमेकवा यः पठेत्प्रयतः शुचिः । तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्याच्छङ्करेण प्रभाषितम् ॥ गुरुर्द्देवो हरः साक्षात्पत्नी तस्य च पार्वती । अभेदेन यजेद्यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ॥ इति श्रीरुद्रयामले भैरवभैरवीसंआदे श्रीभैरवीकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Sita Kavacha (श्री सीताकवचम्)

    ॥ श्री सीताकवचम् ॥ (Shri Sita Kavacha) ॥ अगस्तिरुवाच ॥ सम्यक् पृष्टं त्वया वत्स सावधानमनाः श्रुणु । आदौ वक्ष्याम्यहं रम्यं सीतायाः कवचं शुभम् ॥ या सीतावनि संभवाथमिथिलापालेन संवर्धितापद्माक्षनृपतेः सुता नलगता या मातुलिङ्गोत्भवा। या रत्ने लयमागता जलनिधौ या वेद वारं गतालङ्कां सा मृगलोचना शशिमुखी मांपातु रामप्रिया ॥ ॥ अथ न्यासः ॥ अस्य श्री सीताकवच मन्त्रस्य अगस्ति ऋषिः । श्री सीता देवता । अनुष्टुप् छन्दः । रमेति बीजम् । जनकजेति शक्तिः ऽवनिजेति कीलकम् । पद्माक्ष सुतेत्यस्त्रम् । मातुलिङ्गीति कवचम् । मूलकासुर घातिनीति मन्त्रः । श्रीसीतारामचन्द्र प्रीत्यर्थं सकल कामना सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥ ॥ अथ अङ्गुळी न्यासः ॥ ॐ ह्रां सीतायै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं रमायै तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं जनकजायै मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अवनिजायै अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं पद्माक्षसुतायै कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः मातुलिङ्ग्यै करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥ ॥ हृदयादिन्यासः ॥ ॐ ह्रां सीतायै हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं रमायै शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं जनकजायै शिकायै वषट् । ॐ ह्रैं अवनिजायै कवचाय हुम् । ॐ ह्रौं पद्माक्षसुतायै नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः मातुलिङ्ग्यै अस्त्राय फट् । भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ॥ ॥ अथ ध्यानम् ॥ सीतां कमलपत्राक्षीं विद्युत्पुञ्च समप्रभाम् । द्विभुजां सुकुमाराङ्गीं पीतकौसेय वासिनीम् ॥ सिंहासने रामचन्द्र वामभाग स्थितां वराम् । नानालङ्कार सम्युक्तां कुण्डलद्वय धारिणीम् ॥ चूडाकङ्कण केयूर रशना नूपुरान्विताम् । सीमन्ते रविचन्द्राभ्यां निटिले तिलकेन च ॥ मयूरा भरणेनापि घ्राणेति शोभितांशुभाम् । हरिद्रां कज्जलं दिव्यं कुङ्कुमं कुसुमानि च ॥ बिभ्रन्तीं सुरभिद्रव्यं सगन्ध स्नेह मुत्तमम् । स्मिताननां गौरवर्णां मन्दार कुसुमं करे ॥ बिभ्रन्ती मपरे हस्ते मातुलिङ्ग मनुत्तमम् । रम्यवासां च बिम्बोष्ठीं चन्द्र वाहन लोचनाम् ॥ कलानाथ समानास्यां कलकण्ठ मनोरमाम् । मातुलिङ्गोत्भवां देवीं पद्माक्षदुहितां शुभाम् ॥ मैथिलीं रामदयितां दासीभिः परिवीजिताम् । एवं ध्यात्वा जनकजां हेमकुंभ पयोधरां ॥ सीतायाः कवचं दिव्यं पठनीयं सुभावहं ॥ ॐ । श्री सीता पूर्वतः पातु दक्षिणेवतु जानकी । प्रतीच्यां पातु वैदेही पातूदीच्यां च मैथिली ॥ अधः पातु मातुलिङ्गी ऊर्ध्वं पद्माक्षजावतु । मध्येवनिसुता पातु सर्वतः पातु मां रमा ॥ स्मितानना शिरः पातु पातु भालं नृपात्मजा । पद्मावतु भृवोर्मध्ये मृगाक्षी नयनेवतु ॥ कपोले कर्णमूले च पातु श्रीराम वल्लभा । नासाग्रं सात्विकी पातु पातु वक्त्रं तु राजसी ॥ तामसी पातु मद्वाणीं पातु जिह्वां पतिव्रता । दन्तान् पातु महामाया चिबुकं कनकप्रभा ॥ पातु कण्ठं सौम्यरूपा स्कन्धौ पातु सुरार्चिता । भुजौ पातु वरारोहा करौ कङ्कण मण्डिता ॥ नखान् रक्तनखा पातु कुक्षौ पातु लघूदरा । वक्षः पातु रामपत्नी पार्श्वे रावणमोहिनी ॥ पृष्ठदेशे वह्निगुप्ता वतु मां सर्वदैव हि । दिव्यप्रदा पातु नाभिं कटिं राक्षस मोहिनी ॥ गुह्यं पातु रत्नगुप्ता लिङ्गं पातु हरिप्रिया । ऊरू रक्षतु रंभोरूः जानुनी प्रिय भाषिणी ॥ जङ्घे पातु सदा सुभ्रूः गुल्फौ चामरवीजिता । पादौ लवसुता पातु पात्वङ्गानि कुशाम्बिका ॥ पादाङ्गुळीः सदा पातु मम नूपुर निस्वना । रोमाण्यवतु मे नित्यं पीतकौशेयवासिनी ॥ रात्रौ पातु कालरूपा दिने दानैक तत्परा । सर्वकालेषु मां पातु मूलकासुरघातिनी ॥ एवं सुतीक्ष्ण सीतायाः कवचं ते मयेरितम् । इदं प्रातः समुत्थाय स्नात्वा नित्यं पठेत्तुयः ॥ जानकीं पूजयित्वा स सर्वान् कामानवाप्नुयात् । धनार्थी प्राप्नुयाद्द्रव्यं पुत्रार्थी पुत्रमाप्नुयात् ॥ स्त्रीकामार्थी शुभां नारीं सुखार्थि सौख्य माप्नुयात् । अष्टवारं जपनीयं सीतायाः कवचं सदा ॥ अष्टभूसुर सीतायै नरै प्रीत्यार्पयेत् सदा । फलपुष्पादि कादीनि यानि यानि पृथक् पृथक् ॥ सीतायाः कवचं चेदं पुण्यं पातक नाशनम् । ये पठन्ति नरा भक्त्या ते धन्या मानवा भुवि ॥ पठन्ति रामकवचं सीतायाः कवचं विना । तथा विना लक्ष्मणस्य कवचेन वृथा स्मृतम् ॥ तस्मात् सदा नरैर् जाप्यं कवचानां चतुष्टयम् । आदौ तु वायुपुत्रस्य लक्ष्मणस्य ततः परम् ॥ ततः पटेच्च सीतायाः श्रीरामस्य ततः परम् । एवं सदा जपनीयं कवचानां चतुष्टयम् ॥ ॥ इति श्री सीता कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Krishan Naam Kavacha (श्री कृष्ण नाम कवचम्)

    ॥ श्री कृष्ण नाम कवचम् ॥ (Shri Krishan Naam Kavacha) ॥ नारद उवाच ॥ भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि किं मन्त्रं भगवान्हरः । कृपया-ऽदात् परशुरामाय स्तोत्रं च वर्म च ॥ कोवाऽस्य मन्त्रस्याराध्यः किं फलं कवचस्य च । स्तवनस्य फलं किं वा तद्भवान्वक्तुमर्हसि ॥ ॥ नारायण उवाच ॥ मन्त्राराध्यो हि भगवान् परिपूर्णतमः स्वयम् । गोलोकनाथः श्रीकृष्णो गोप-गोपीश्वरः प्रभुः ॥ त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् । स्तवराजं महापुण्यं भूतियोग-समुद्भवम् ॥ मन्त्रं कल्पतरुं नाम सर्वकाम-फलप्रदम् । ददौ परशुरामाय रत्नपर्वत-सन्निधौ ॥ स्वयंप्रभा-नदीतीरे पारिजात-वनान्तरे । आश्रमे लोकदेवस्य माधवस्य च सन्निधौ ॥ ॥ महादेव उवाच ॥ वत्सागच्छ महाभाग भृगुवंश-समुद्भव । पुत्राधिकोऽसि प्रेम्णा मे कवचग्रहणं कुरु ॥ शृणु राम प्रवक्ष्यामि ब्रह्माण्डे परमाद्भुतम् । त्रैलोक्यविजयं नाम श्रीकृष्णस्य जयावहम् ॥ श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रमे । रासमण्डल-मध्ये च मह्यं वृन्दावने वने ॥ अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्व-मन्त्रौघविग्रहम् । पुण्यात्पुण्यतरं चैव परं स्नेहाद्वदामि ते ॥ यद्धृत्वा पठनाद्देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी । शुंभं निशुंभं महिषं रक्तबीजं जघान ह ॥ यद्धृत्वाऽहं च जगतां संहर्ता सर्वतत्ववित् । अवध्यं त्रिपुरं पूर्वं दुरन्तमपि लीलया ॥ यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मा ससृजे सृष्टिमुत्तमाम् । यद्धृत्वा भगवाञ्छेषो विधत्ते विश्वमेव च ॥ यद्धृत्वा कूर्मराजश्च शेषं धत्ते हि लीलया । यद्धृत्वा भगवान्वायुः विश्वाधारो विभुः स्वयम् ॥ यद्धृत्वा वरुणः सिद्धः कुबेरश्च धनेश्वरः । यद्धृत्वा पठनादिन्द्रो देवानामधिपः स्वयम् ॥ यद्धृत्वा भाति भुवने तेजोराशिः स्वयं रविः । यद्धृत्वा पठनाच्चन्द्रो महाबल-पराक्रमः ॥ अगस्त्यः सागरान्सप्त यद्धृत्वा पठनात्पपौ । चकार तेजसा जीर्णं दैत्यं वातापिसंज्ञकम् ॥ यद्धृत्वा पठनाद्देवी सर्वाधारा वसुन्धरा । यद्धृत्वा पठनात्पूता गङ्गा भुवनपावनी ॥ यद्धृत्वा जगतां साक्षी धर्मो धर्मभृतां वरः । सर्व-विद्याधिदेवी सा यच्च धृत्वा सरस्वती ॥ यद्धृत्वा जगतां लक्ष्मी-रन्नदात्री परात्परा । यद्धृत्वा पठनाद्वेदान् सावित्री सा सुषाव च ॥ वेदाश्च धर्मवक्तारो यद्धृत्वा पठनाद् भृगो । यद्धृत्वा पठनाच्छुद्ध-स्तेजस्वी हव्यवाहनः । सनत्कुमारो भगवान्यद्धृत्वा ज्ञानिनां वरः ॥ दातव्यं कृष्ण-भक्ताय साधवे च महात्मने । शठाय परशिष्याय दत्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ॠषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम् ॥ त्रैलोक्यविजय-प्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः । परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा । पायात्कपालं कृष्णाय स्वाहा पञ्चाक्षरः स्मृतः ॥ कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्ण स्वाहेति तारकम् । हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा ॥ ॐ गोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु सन्ततम् । गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा ॥ ॐ नमो गोपाङ्गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम । ॐ कृष्णाय नमः शश्वत्पातु मेऽधर-युग्मकम् ॥ ॐ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तौघं मे सदाऽवतु । पातु कृष्णाय दन्ताधो दन्तोर्ध्वं क्लीं सदाऽवतु ॥ ॐ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु मे सदा । रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा ॥ राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम । नमो गोपाङ्गनेशाय वक्षः पातु सदा मम ॥ ॐ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम । नमः किशोर-वेषाय स्वाहा पृष्टं सदाऽवतु ॥ उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा । ॐ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पातु सदा मम ॥ ॐ विष्णवे नमो बाहुयुग्मं पातु सदा मम । ॐ ह्रीं भगवते स्वाहा नखं पातु मे सदा ॥ ॐ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदाऽवतु । ॐ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम ॥ ॐ सर्वेशाय स्वाहेति कङ्कालं पातु मे सदा । ॐ गोपीरमणाय स्वाह नितम्बं पातु मे सदा ॥ ॐ गोपीरमणनाथाय पादौ पातु सदा मम । ॐ ह्रीं क्लीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु। ॐ केशवाय स्वाहेति मम केशान्सदाऽवतु । नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदाऽवतु ॥ ॐ माधवाय स्वाहेति मे लोमानि सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥ परिपूर्णतमः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदाऽवतु । स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेयां दिशि रक्षतु ॥ पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदाऽवतु । नैरॄत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः ॥ गोविन्दः पातु मां शश्वद्वायव्यां दिशि नित्यशः । उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः ॥ ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावन-विहारकृत् । वृन्दावनी-प्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः ॥ सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः । जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा ॥ स्वप्ने जागरणे शश्वत्पातु मां माधवः सदा । सर्वान्तरात्मा निर्लिप्तः पातु मां सर्वतो विभुः ॥ इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघ-विग्रहम् । त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ मया श्रुतं कृष्ण-वक्त्रात् प्रवक्तव्यं न कस्यचित् । गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् यः ॥ कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः । स च भक्तो वसेद्यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ यदि स्यात्सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः । निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ राजसूय-सहस्राणि वाजपेय-शतानि च । अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च ॥ महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा । त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ व्रतोपवास-नियमं स्वाध्यायाध्ययनं तपः । स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि ॥ सिद्धत्वममरत्वं च दासत्वं श्रीहरेरपि । यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ स भवेत्सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः । यो भवेत्सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद्ध्रुवम् ॥ इदं कवच-मज्ञात्वा भजेत्कृष्णं सुमन्दधीः । कोटिकल्पं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धि-दायकः ॥ गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियं कुरु । त्रिस्सप्तकृत्वो निश्शंकः सदानन्दो हि लीलया ॥ राज्यं देयं शिरो देयं प्रणा देयाश्च पुत्रक । एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ॥ ॥ इति श्री कृष्ण नाम कवचं संपूर्णम् ॥

    Das Mahavidya Kavacha (श्री दशमहाविद्या कवचम्)

    ॥ श्री दशमहाविद्या कवचम् ॥ (Das Mahavidya Kavacha) ॥ विनियोगः ॥ ॐ अस्य श्रीमहाविद्याकवचस्य श्रीसदाशिव ऋषिः उष्णिक् छन्दः श्रीमहाविद्या देवता सर्वसिद्धीप्राप्त्यर्थे पाठे विनियोगः । ॥ ऋष्यादि न्यासः ॥ श्रीसदाशिवऋषये नमः शिरसी उष्णिक् छन्दसे नमः मुखे श्रीमहाविद्यादेवतायै नमः हृदि सर्वसिद्धिप्राप्त्यर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । ॥ मानसपुजनम् ॥ ॐ पृथ्वीतत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे समर्पयामि नमः । ॐ हं आकाशतत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे समर्पयामि नमः । ॐ यं वायुतत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे आघ्रापयामि नमः । ॐ रं अग्नितत्त्वात्मकं दीपं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे दर्शयामि नमः । ॐ वं जलतत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे निवेदयामि नमः । ॐ सं सर्वतत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहाविद्याप्रीत्यर्थे निवेदयामि नमः। ॥ अथ श्री महाविद्याकवचम् ॥ ॐ प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूपनिवासिनी । आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम् ॥ नैरृत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी । वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी ॥ कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी । ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुरसुन्दरी ॥ ऊर्ध्वं रक्षतु मे विद्या मातङ्गीपीठवासिनी । सर्वतः पातु मे नित्यं कामाख्या कालिका स्वयम् ॥ ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम् । शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्रीभवगेहिनी ॥ त्रिपुरा भ्रुयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम् । चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे निलसरस्वती ॥ मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती । जिह्वां रक्षतु मे देवी जिह्वाललनभीषणा ॥ वाग्देवी वदनं पातु वक्षः पातु महेश्वरी । बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुलीः सुरेश्वरी ॥ पृष्ठतः पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी । उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी ॥ उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु । उग्रातारा गुदं मुष्कं च मेढ्रं च नाभिं च सुरसुन्दरी ॥ पादाङ्गुलीः सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी । रक्तमांसास्थिमज्जादीन् पातु देवी शवासना ॥ महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी । पातु देवी महामाया कामाख्यापीठवासिनी ॥ भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया । पातु श्रीकालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा ॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम् । तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षणकारिणी ॥ ॥ इति श्री दश महाविद्या कवचम् सम्पूर्णाम ॥

    Shri Devi Chandi Kavacha (श्री देवी चण्डी कवच)

    ॥ श्री देवी चण्डी कवच ॥ (Shri Devi Chandi Kavacha) ॥ विनियोग: ॥ ॐ अस्य श्रीदेव्या: कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवता, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तय:, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजानि, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोग:। ॥ ऋष्यादि-न्यास: ॥ ब्रह्मर्षये नम: शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवतायै नम: हृदि, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तिभ्यो नम: नाभौ, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजेभ्यो नम: लिंगे, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोगाय नम: सर्वांगे। ॥ ध्यान: ॥ ॐ रक्ताम्बरा रक्तवर्णा, रक्त-सर्वांग-भूषणा। रक्तायुधा रक्त-नेत्रा, रक्त-केशाऽति-भीषणा।। रक्त-तीक्ष्ण-नखा रक्त-रसना रक्त-दन्तिका। पतिं नारीवानुरक्ता, देवी भक्तं भजेज्जनम्।। वसुधेव विशाला सा, सुमेरू-युगल-स्तनी। दीर्घौ लम्बावति-स्थूलौ, तावतीव मनोहरौ।। कर्कशावति-कान्तौ तौ, सर्वानन्द-पयोनिधी। भक्तान् सम्पाययेद् देवी, सर्वकामदुघौ स्तनौ।। खड्गं पात्रं च मुसलं, लांगलं च बिभर्ति सा। आख्याता रक्त-चामुण्डा, देवी योगेश्वरीति च।। अनया व्याप्तमखिलं, जगत् स्थावर-जंगमम्। इमां य: पूजयेद् भक्तो, स व्याप्नोति चराचरम्।। ॥ मार्कण्डेय उवाच ॥ ॐॐॐ यद् गुह्यं परमं लोके, सर्व-रक्षा-करं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं, तन्मे ब्रूहि पितामह।। ॥ ब्रह्मोवाच ॥ ॐ अस्ति गुह्य-तमं विप्र सर्व-भूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं, तच्छृणुष्व महामुने।। प्रथमं शैल-पुत्रीति, द्वितीयं ब्रह्म-चारिणी। तृतीयं चण्ड-घण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।। पंचमं स्कन्द-मातेति, षष्ठं कात्यायनी तथा। सप्तमं काल-रात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।। नवमं सिद्धि-दात्रीति, नवदुर्गा: प्रकीर्त्तिता:। उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना।। अग्निना दह्य-मानास्तु, शत्रु-मध्य-गता रणे। विषमे दुर्गमे वाऽपि, भयार्ता: शरणं गता।। न तेषां जायते किंचिदशुभं रण-संकटे। आपदं न च पश्यन्ति, शोक-दु:ख-भयं नहि।। यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं, तेषां वृद्धि: प्रजायते। प्रेत संस्था तु चामुण्डा, वाराही महिषासना।। ऐन्द्री गज-समारूढ़ा, वैष्णवी गरूड़ासना। नारसिंही महा-वीर्या, शिव-दूती महाबला।। माहेश्वरी वृषारूढ़ा, कौमारी शिखि-वाहना। ब्राह्मी हंस-समारूढ़ा, सर्वाभरण-भूषिता।। लक्ष्मी: पद्मासना देवी, पद्म-हस्ता हरिप्रिया। श्वेत-रूप-धरा देवी, ईश्वरी वृष वाहना।। इत्येता मातर: सर्वा:, सर्व-योग-समन्विता। नानाभरण-षोभाढया, नाना-रत्नोप-शोभिता:।। श्रेष्ठैष्च मौक्तिकै: सर्वा, दिव्य-हार-प्रलम्बिभि:। इन्द्र-नीलैर्महा-नीलै, पद्म-रागै: सुशोभने:।। दृष्यन्ते रथमारूढा, देव्य: क्रोध-समाकुला:। शंखं चक्रं गदां शक्तिं, हलं च मूषलायुधम्।। खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं च खड्गं च, शार्गांयुधमनुत्तमम्।। दैत्यानां देह नाशाय, भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं, देवानां च हिताय वै।। नमस्तेऽस्तु महारौद्रे ! महाघोर पराक्रमे !महाबले ! महोत्साहे ! महाभय विनाशिनि।। त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये ! शत्रूणां भयविर्द्धनि ! प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री, आग्नेय्यामग्नि देवता।। दक्षिणे चैव वाराही, नैऋत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्, वायव्यां वायुदेवता।। उदीच्यां दिशि कौबेरी, ऐशान्यां शूल-धारिणी। ऊर्ध्वं ब्राह्मी च मां रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा।। एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शव-वाहना। जया मामग्रत: पातु, विजया पातु पृष्ठत:।। अजिता वाम पार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता। शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता।। मालाधरी ललाटे च, भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी। नेत्रायोश्चित्र-नेत्रा च, यमघण्टा तु पार्श्वके।। शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये, श्रोत्रयोर्द्वार-वासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्, कर्ण-मूले च शंकरी।। नासिकायां सुगन्धा च, उत्तरौष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृत-कला, जिह्वायां च सरस्वती।। दन्तान् रक्षतु कौमारी, कण्ठ-मध्ये तु चण्डिका। घण्टिकां चित्र-घण्टा च, महामाया च तालुके।। कामाख्यां चिबुकं रक्षेद्, वाचं मे सर्व-मंगला। ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठ-वंशे धनुर्द्धरी।। नील-ग्रीवा बहि:-कण्ठे, नलिकां नल-कूबरी। स्कन्धयो: खडि्गनी रक्षेद्, बाहू मे वज्र-धारिणी।। हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदिम्बका चांगुलीषु च। नखान् सुरेश्वरी रक्षेत्, कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी।। स्तनौ रक्षेन्महादेवी, मन:-शोक-विनाशिनी। हृदये ललिता देवी, उदरे शूल-धारिणी।। नाभौ च कामिनी रक्षेद्, गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा, पायुं मे गुह्य-वासिनी।। कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे घन-वासिनी। जंगे महाबला रक्षेज्जानू माधव नायिका।। गुल्फयोर्नारसिंही च, पाद-पृष्ठे च कौशिकी। पादांगुली: श्रीधरी च, तलं पाताल-वासिनी।। नखान् दंष्ट्रा कराली च, केशांश्वोर्ध्व-केशिनी। रोम-कूपानि कौमारी, त्वचं योगेश्वरी तथा।। रक्तं मांसं वसां मज्जामस्थि मेदश्च पार्वती। अन्त्राणि काल-रात्रि च, पितं च मुकुटेश्वरी।। पद्मावती पद्म-कोषे, कक्षे चूडा-मणिस्तथा। ज्वाला-मुखी नख-ज्वालामभेद्या सर्व-सन्धिषु।। शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहंकारं मनो बुद्धिं, रक्षेन्मे धर्म-धारिणी।। प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। वज्र-हस्ता तु मे रक्षेत्, प्राणान् कल्याण-शोभना।। रसे रूपे च गन्धे च, शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्वं रजस्तमश्चैव, रक्षेन्नारायणी सदा।। आयू रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षन्तु मातर:। यश: कीर्तिं च लक्ष्मीं च, सदा रक्षतु वैष्णवी।। गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्, पशून् रक्षेच्च चण्डिका। पुत्रान् रक्षेन्महा-लक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी।। धनं धनेश्वरी रक्षेत्, कौमारी कन्यकां तथा। पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमंकरी तथा।। राजद्वारे महा-लक्ष्मी, विजया सर्वत: स्थिता। रक्षेन्मे सर्व-गात्राणि, दुर्गा दुर्गाप-हारिणी।। रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन च। सर्वं रक्षतु मे देवी, जयन्ती पाप-नाशिनी।। ॥ फल-श्रुति ॥ सर्वरक्षाकरं पुण्यं, कवचं सर्वदा जपेत्। इदं रहस्यं विप्रर्षे ! भक्त्या तव मयोदितम्।। देव्यास्तु कवचेनैवमरक्षित-तनु: सुधी:। पदमेकं न गच्छेत् तु, यदीच्छेच्छुभमात्मन:।। कवचेनावृतो नित्यं, यत्र यत्रैव गच्छति। तत्र तत्रार्थ-लाभ: स्याद्, विजय: सार्व-कालिक:।। यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम्। परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकल: पुमान्।। निर्भयो जायते मर्त्य:, संग्रामेष्वपराजित:। त्रैलोक्ये च भवेत् पूज्य:, कवचेनावृत: पुमान्।। इदं तु देव्या: कवचं, देवानामपि दुर्लभम्। य: पठेत् प्रयतो नित्यं, त्रि-सन्ध्यं श्रद्धयान्वित:।। देवी वश्या भवेत् तस्य, त्रैलोक्ये चापराजित:। जीवेद् वर्ष-शतं साग्रमप-मृत्यु-विवर्जित:।। नश्यन्ति व्याधय: सर्वे, लूता-विस्फोटकादय:। स्थावरं जंगमं वापि, कृत्रिमं वापि यद् विषम्।। अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले। भूचरा: खेचराश्चैव, कुलजाश्चोपदेशजा:।। सहजा: कुलिका नागा, डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरीक्ष-चरा घोरा, डाकिन्यश्च महा-रवा:।। ग्रह-भूत-पिशाचाश्च, यक्ष-गन्धर्व-राक्षसा:। ब्रह्म-राक्षस-वेताला:, कूष्माण्डा भैरवादय:।। नष्यन्ति दर्शनात् तस्य, कवचेनावृता हि य:। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजो-वृद्धि: परा भवेत्।। यशो-वृद्धिर्भवेद् पुंसां, कीर्ति-वृद्धिश्च जायते। तस्माज्जपेत् सदा भक्तया, कवचं कामदं मुने।। जपेत् सप्तशतीं चण्डीं, कृत्वा तु कवचं पुर:। निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डी-जप-समुद्भवा।। यावद् भू-मण्डलं धत्ते ! स-शैल-वन-काननम्। तावत् तिष्ठति मेदिन्यां, जप-कर्तुर्हि सन्तति:।। देहान्ते परमं स्थानं, यत् सुरैरपि दुर्लभम्। सम्प्राप्नोति मनुष्योऽसौ, महा-माया-प्रसादत:।। तत्र गच्छति भक्तोऽसौ, पुनरागमनं न हि। लभते परमं स्थानं, शिवेन सह मोदते ॐॐॐ।। ॥ श्री देवी चण्डी कवचम् सम्पूर्णाम ॥

    Vairinashnam Sri Kalika Kavacha (वैरिनाशनं श्री कालिका कवचम्)

    ॥ वैरिनाशनं श्री कालिका कवचम् ॥ (Vairinashnam Sri Kalika Kavacha) ॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥ कैलासशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम् । शङ्करं परिपप्रच्छ पार्वती परमेश्वरम् ॥ कैलासशिखरारूढं शङ्करं वरदं शिवम् । देवी पप्रच्छ सर्वज्ञं सर्वदेव महेश्वरम् ॥ ॥ पार्वत्युवाच ॥ भगवन् देवदेवेश देवानां भोगद प्रभो । प्रब्रूहि मे महादेव गोप्यं चेद्यदि हे प्रभो ॥ शत्रूणां येन नाशः स्यादात्मनो रक्षणं भवेत् । परमैश्वर्यमतुलं लभेद्येन हि तद्वद ॥ ॥ भैरव उवाच ॥ वक्ष्यामि ते महादेवि सर्वधर्मविदां वरे । अद्भुतं कवचं देव्याः सर्वकामप्रसाधकम् ॥ विशेषतः शत्रुनाशं सर्वरक्षाकरं नृणाम् । सर्वारिष्टप्रशमनं सर्वाभद्रविनाशनम् ॥ सुखदं भोगदं चैव वशीकरणमुत्तमम् । शत्रुसंघाः क्षयं यान्ति भवन्ति व्याधिपीडिअताः ॥ दुःखिनो ज्वरिणश्चैव स्वाभीष्टद्रोहिणस्तथा । भोगमोक्षप्रदं चैव कालिकाकवचं पठेत् ॥ ॐ अस्य श्रीकालिकाकवचस्य भैरव ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः ।श्रीकालिका देवता । शत्रुसंहारार्थ जपे विनियोगः । ॥ ध्यानम् ॥ ॐ ध्यायेत्कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीम् । चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥ नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीम् । नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा ॥ निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्रालीघोररूपिणीम् । साट्टहासाननां देवीं सर्वदां च दिगम्बरीम् ॥ शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषिताम् । इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत् ॥ ॐ कालिका घोररूपा सर्वकामप्रदा शुभा । सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ॥ ॐ ह्रीं ह्रींरूपिणीं चैव ह्रां ह्रीं ह्रांरूपिणीं तथा । ह्रां ह्रीं क्षों क्षौंस्वरूपा सा सदा शत्रून्विदारयेत् ॥ श्रीं-ह्रीं ऐंरूपिणी देवी भवबन्धविमोचनी । हुंरूपिणी महाकाली रक्षास्मान् देवि सर्वदा ॥ यया शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः । वैरिनाशाय वन्दे तां कालिकां शङ्करप्रियाम् ॥ ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका । कौमार्यैन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः ॥ सुरेश्वरी घोररूपा चण्डमुण्डविनाशिनी । मुण्डमालावृताङ्गी च सर्वतः पातु मां सदा ॥ ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे दंष्ट्रेव रुधिरप्रिये । रुधिरापूर्णवक्त्रे च रुधिरेणावृतस्तनि ॥ मम शत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय भिन्धि भिन्धि छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा । ह्रां ह्रीं कालिकायै मदीयशत्रून् समर्पयामि स्वाहा । ॐ जय जय किरि किरि किटि किटि कट कट मर्द मर्द मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंस ध्वंस भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान्चा मुण्डे सर्वजनान् राज्ञो राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्यान् कुरु कुरुतनु तनु धान्यं धनं मेऽश्वान् गजान् रत्नानि दिव्यकामिनीः पुत्रान् राजश्रियं देहि यच्छ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा । इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा । ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रवः ॥ वैरिणः प्रलयं यान्ति व्याधिता या भवन्ति हि । बलहीनाः पुत्रहीनाः शत्रवस्तस्य सर्वदा ॥ सहस्रपठनात्सिद्धिः कवचस्य भवेत्तदा । तत्कार्याणि च सिध्यन्ति यथा शङ्करभाषितम् ॥ श्मशानाङ्गारमादाय चूर्णं कृत्वा प्रयत्नतः । पादोदकेन पिष्ट्वा तल्लिखेल्लोहशलाकया ॥ भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा । हस्तं दत्त्वा तु हृदये कवचं तु स्वयं पठेत् ॥ शत्रोः प्राणप्रियष्ठां तु कुर्यान्मन्त्रेण मन्त्रवित् । हन्यादस्त्रं प्रहारेण शत्रो गच्छ यमक्षयम् ॥ ज्वलदङ्गारतापेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् । प्रोञ्छनैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ॥ वैरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् । परमैश्वर्यदं चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धिदम् ॥ प्रभातसमये चैव पूजाकाले च यत्नतः । सायङ्काले तथा पाठात्सर्वसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् ॥ शत्रुरुच्चाटनं याति देशाद्वा विच्युतो भवेत् । पश्चात्किङ्करतामेति सत्यं सत्यं न संशयः ॥ शत्रुनाशकरे देवि सर्वसम्पत्करे शुभे । सर्वदेवस्तुते देवि कालिके! त्वां नमाम्यहम् ॥ ॥ इति श्री कालिका कवचम् सम्पूर्णम् ॥

    Shri Baglamukhi Kavacha ( श्री बगलामुखी कवचं)

    ॥ श्री बगलामुखी कवचं ॥ (Shri Baglamukhi Kavacha) ॥ अथ ध्यानम् ॥ जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं वामेन शत्रून् परिपीडयन्तीम्। गदाभि घातेन च दक्षिणेन पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ॥ ॥ अथ बगलामुखी कवचम् ॥ श्रुत्वा च बगलापूजां स्तोत्रं चापि महेश्वर । इदानी श्रोतुमिच्छामि कवचं वद मे प्रभो ॥ वैरिनाशकरं दिव्यं सर्वाSशुभविनाशनम् । शुभदं स्मरणात्पुण्यं त्राहि मां दु:खनाशनम् ॥ ॥ श्री भैरव उवाच ॥ कवचं शृणु वक्ष्यामि भैरवीप्राणवल्लभम् । पठित्वा धारयित्वा तु त्रैलोक्ये विजयी भवेत् ॥ ॐ अस्य श्री बगलामुखीकवचस्य नारद ऋषि: । अनुष्टप्छन्द: । बगलामुखी देवता । लं बीजम् । ऐं कीलकम् पुरुषार्थचष्टयसिद्धये जपे विनियोग:। ॐ शिरो मे बगला पातु हृदयैकाक्षरी परा । ॐ ह्ली ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी ॥ गदाहस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी । वैरिजिह्वाधरा पातु कण्ठं मे वगलामुखी ॥ उदरं नाभिदेशं च पातु नित्य परात्परा । परात्परतरा पातु मम गुह्यं सुरेश्वरी ॥ हस्तौ चैव तथा पादौ पार्वती परिपातु मे । विवादे विषमे घोरे संग्रामे रिपुसङ्कटे ॥ पीताम्बरधरा पातु सर्वाङ्गी शिवनर्तकी । श्रीविद्या समय पातु मातङ्गी पूरिता शिवा ॥ पातु पुत्रं सुतांश्चैव कलत्रं कालिका मम । पातु नित्य भ्रातरं में पितरं शूलिनी सदा ॥ रंध्र हि बगलादेव्या: कवचं मन्मुखोदितम् । न वै देयममुख्याय सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ पाठनाद्धारणादस्य पूजनाद्वाञ्छतं लभेत् । इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीम् ॥ पिवन्ति शोणितं तस्य योगिन्य: प्राप्य सादरा: । वश्ये चाकर्षणो चैव मारणे मोहने तथा ॥ महाभये विपत्तौ च पठेद्वा पाठयेत्तु य: । तस्य सर्वार्थसिद्धि: स्याद् भक्तियुक्तस्य पार्वति ॥ ॥ इति श्री बगलामुखी कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Kamakhya Kavacha (श्री कामाख्या कवचम्)

    ॥ श्री कामाख्या कवचम् ॥ (Shri Kamakhya Kavacham) ॥ कामाख्या ध्यानम् ॥ रविशशियुतकर्णा कुंकुमापीतवर्णा मणिकनकविचित्रा लोलजिह्वा त्रिनेत्रा । अभयवरदहस्ता साक्षसूत्रप्रहस्ता प्रणतसुरनरेशा सिद्धकामेश्वरी सा ॥ अरुणकमलसंस्था रक्तपद्मासनस्था नवतरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा । शवहृदि पृथुतुङ्गा स्वाङ्घ्रियुग्मा मनोज्ञा शिशुरविसमवस्त्रा सर्वकामेश्वरी सा ॥ विपुलविभवदात्री स्मेरवक्त्रा सुकेशी दलितकरकदन्ता सामिचन्द्रावतंसा । मनसिज-दृशदिस्था योनिमुद्रालसन्ती पवनगगनसक्ता संश्रुतस्थानभागा । चिन्ता चैवं दीप्यदग्निप्रकाशा धर्मार्थाद्यैः साधकैर्वाञ्छितार्था ॥ ॥ कामाख्या-कवचम् ॥ ॐ कामाख्याकवचस्य मुनिर्बृहस्पतिः स्मृतः । देवी कामेश्वरी तस्य अनुष्टुप्छन्द इष्यते ॥ विनियोगः सर्वसिद्धौ तञ्च शृण्वन्तु देवताः । शिराः कामेश्वरी देवी कामाख्या चक्षूषी मम ॥ शारदा कर्णयुगलं त्रिपुरा वदनं तथा । कण्ठे पातु माहामाया हृदि कामेश्वरी पुनः ॥ कामाख्या जठरे पातु शारदा पातु नाभितः । त्रिपुरा पार्श्वयोः पातु महामाया तु मेहने ॥ गुदे कामेश्वरी पातु कामाख्योरुद्वये तु माम् । जानुनोः शारदा पातु त्रिपुरा पातु जङ्घयोः ॥ माहामाया पादयुगे नित्यं रक्षतु कामदा । केशे कोटेश्वरि पातु नासायां पातु दीर्घिका ॥ भैरवी (शुभगा) दन्तसङ्घाते मातङ्ग्यवतु चाङ्गयोः । बाह्वोर्मे ललिता पातु पाण्योस्तु वनवासिनी ॥ विन्ध्यवासिन्यङ्गुलीषु श्रीकामा नखकोटिषु । रोमकूपेषु सर्वेषु गुप्तकामा सदावतु ॥ पादाङ्गुली पार्ष्णिभागे पातु मां भुवनेश्वरी । जिह्वायां पातु मां सेतुः कः कण्टाभ्यन्तरेऽवतु ॥ पातु नश्चान्तरे वक्षः ईः पातु जठरान्तरे । सामीन्दुः पातु मां वस्तौ विन्दुर्विन्द्वन्तरेऽवतु ॥ ककारस्त्वचि मां पातु रकारोऽस्थिषु सर्वदा । लकारः सर्वनाडिषु ईकारः सर्वसन्धिषु ॥ चन्द्रः स्नायुषु मां पातु विन्दुर्मज्जासु सन्ततम् । पूर्वस्यां दिशि चाग्नेय्यां दक्षिणे नैरृते तथा ॥ वारुणे चैव वायव्यां कौबेरे हरमन्दिरे । अकाराद्यास्तु वैष्णव्याः अष्टौ वर्णास्तु मन्त्रगाः ॥ पान्तु तिष्ठन्तु सततं समुद्भवविवृद्धये । ऊर्द्ध्वाधः पातु सततं मां तु सेतुद्वये सदा ॥ नवाक्षराणि मन्त्रेषु शारदा मन्त्रगोचरे । नवस्वरास्तु मां नित्यं नासादिषु समन्ततः ॥ वातपित्तकफेभ्यस्तु त्रिपुरायास्तु त्र्यक्षरम् । नित्यं रक्षतु भूतेभ्यः पिशाचेभ्यस्तथैव च ॥ तत् सेतु सततं पातु क्रव्याद्भ्यो मान्निवारकम् नमः कामेश्वरीं देवीं महामायां जगन्मयीम् । या भूत्वा प्रकृतिर्नित्या तनोति जगदायतम् ॥ कामाख्यामक्षमालाभयवरदकरां सिद्धसूत्रैकहस्तां श्वेतप्रेतोपरिस्थां मणिकनकयुतां कुङ्कमापीतवर्णाम् । ज्ञानध्यानप्रतिष्ठामतिशयविनयां ब्रह्मशक्रादिवन्द्या मग्नौ विन्द्वन्तमन्त्रप्रियतमविषयां नौमि विन्ध्याद्र्यतिस्थाम् ॥ मध्ये मध्यस्य भागे सततविनमिता भावहारावली या लीलालोकस्य कोष्ठे सकलगुणयुता व्यक्तरूपैकनम्रा । विद्या विद्यैकशान्ता शमनशमकरी क्षेमकर्त्री वरास्या नित्यं पायात् पवित्रप्रणववरकरा कामपूर्वेश्वरी नः ॥ इति हरेः कवचं तनुकेस्थितं शमयति वै शमनं तथा यदि । इह गृहाण यतस्व विमोक्षणे सहित एष विधिः सह चामरैः ॥ इतीदं कवचं यस्तु कामाख्यायाः पठेद्बुधः । सुकृत् तं तु महादेवी तनु व्रजति नित्यदा ॥ नाधिव्याधिभयं तस्य न क्रव्याद्भ्यो भयं तथा । नाग्नितो नापि तोयेभ्यो न रिपुभ्यो न राजतः ॥ दीर्घायुर्बहुभोगी च पुत्रपौत्रसमन्वितः । आवर्तयन् शतं देवीमन्दिरे मोदते परे ॥ यथा तथा भवेद्बद्धः सङ्ग्रामेऽन्यत्र वा बुधः । तत्क्षणादेव मुक्तः स्यात् स्मारणात् कवचस्य तु ॥ ॥ इति श्री कामाख्या कवचम् सम्पूर्णम ॥

    Shri Bhuvaneshwari Kavacha (श्री भुवनेश्वरी कवचम्)

    ॥ श्री भुवनेश्वरी कवचम् ॥ (Shri Bhuvaneshwari Kavacha) ॥ देव्युवाच ॥ देवेश भुवनेश्वर्या या या विद्याः प्रकाशिताः । श्रुताश्चाधिगताः सर्वाः श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं यत्पुरोदितम् । महादेव मम प्रीतिकरं परम् ॥ ॥ ईश्वर उवाच ॥ श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि सावधानावधारय । त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं मन्त्रविग्रहम् ॥ सिद्धविद्यामयं देवि सर्वैश्वर्यसमन्वितम् । पठनाद्धारणान्मर्त्यस्त्रैलोक्यैश्वर्यभाग्भवेत् ॥ ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीत्रैलोक्यमङ्गलकवचस्य शिव ऋषिः ,विराट् छन्दः, जगद्धात्री भुवनेश्वरी देवता , धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः । ह्रीं बीजं मे शिरः पातु भुवनेशी ललाटकम् । ऐं पातु दक्षनेत्रं मे ह्रीं पातु वामलोचनम् ॥ श्रीं पातु दक्षकर्णं मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी । वामकर्णं सदा पातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा ॥ ह्रीं पातु वदनं देवि ऐं पातु रसनां मम । वाक्पुटा च त्रिवर्णात्मा कण्ठं पातु परात्मिका ॥ श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं ह्रीं भुजौ पातु सर्वदा । क्लीं करौ त्रिपुटा पातु त्रिपुरैश्वर्यदायिनी ॥ ॐ पातु हृदयं ह्रीं मे मध्यदेशं सदावतु । क्रौं पातु नाभिदेशं मे त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ॥ सर्वबीजप्रदा पृष्ठं पातु सर्ववशङ्करी । ह्रीं पातु गुह्यदेशं मे नमोभगवती कटिम् ॥ माहेश्वरी सदा पातु शङ्खिनी जानुयुग्मकम् । अन्नपूर्णा सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम् ॥ सप्तदशाक्षरा पायादन्नपूर्णाखिलं वपुः । तारं माया रमाकामः षोडशार्णा ततः परम् ॥ शिरःस्था सर्वदा पातु विंशत्यर्णात्मिका परा । तारं दुर्गे युगं रक्षिणी स्वाहेति दशाक्षरा ॥ जयदुर्गा घनश्यामा पातु मां सर्वतो मुदा । मायाबीजादिका चैषा दशार्णा च ततः परा ॥ उत्तप्तकाञ्चनाभासा जयदुर्गाऽऽननेऽवतु । तारं ह्रीं दुं च दुर्गायै नमोऽष्टार्णात्मिका परा ॥ शङ्खचक्रधनुर्बाणधरा मां दक्षिणेऽवतु । महिषामर्द्दिनी स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा ॥ नैऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुरनाशिनी । माया पद्मावती स्वाहा सप्तार्णा परिकीर्तिता ॥ पद्मावती पद्मसंस्था पश्चिमे मां सदाऽवतु । पाशाङ्कुशपुटा मायो स्वाहा हि परमेश्वरि ॥ त्रयोदशार्णा ताराद्या अश्वारुढाऽनलेऽवतु । सरस्वति पञ्चस्वरे नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ॥ स्वाहा वस्वक्षरा विद्या उत्तरे मां सदाऽवतु । तारं माया च कवचं खे रक्षेत्सततं वधूः ॥ हूँ क्षें ह्रीं फट् महाविद्या द्वादशार्णाखिलप्रदा । त्वरिताष्टाहिभिः पायाच्छिवकोणे सदा च माम् ॥ ऐं क्लीं सौः सततं बाला मूर्द्धदेशे ततोऽवतु । बिन्द्वन्ता भैरवी बाला हस्तौ मां च सदाऽवतु ॥ इति ते कथितं पुण्यं त्रैलोक्यमङ्गलं परम् । सारात्सारतरं पुण्यं महाविद्यौघविग्रहम् ॥ अस्यापि पठनात्सद्यः कुबेरोऽपि धनेश्वरः । इन्द्राद्याः सकला देवा धारणात्पठनाद्यतः ॥ सर्वसिद्धिश्वराः सन्तः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः । पुष्पाञ्जल्यष्टकं दद्यान्मूलेनैव पृथक् पृथक् ॥ संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात् । प्रीतिमन्योऽन्यतः कृत्वा कमला निश्चला गृहे ॥ वाणी च निवसेद्वक्त्रे सत्यं सत्यं न संशयः । यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्यमङ्गलाभिधम् ॥ कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्यवतां वरः । सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यविजयी भवेत् ॥ पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा । बहुपुत्रवती भूयाद्वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥ ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनम् । एतत्कवचमज्ञात्वा यो भजेद्भुवनेश्वरीम् । दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥ ॥ इति श्री भुवनेश्वरी कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Bhairavi Kavacha (श्री भैरवी कवचम्)

    ॥ श्री भैरवी कवचम् ॥ (Shri Bhairavi Kavacham) ॥ श्री देव्युवाच ॥ भैरव्याः सकला विद्याः श्रुताश्चाधिगता मया । साम्प्रतं श्रोतुमिच्छामि कवचं यत्पुरोदितम् ॥ त्रैलोक्यविजयं नाम शस्त्रास्त्रविनिवारणम् । त्वत्तः परतरो नाथ कः कृपां कर्तुमर्हति ॥ ॥ ईश्वर उवाच ॥ श्रुणु पार्वति वक्ष्यामि सुन्दरि प्राणवल्लभे । त्रैलोक्यविजयं नाम शस्त्रास्त्रविनिवारकम् ॥ पठित्वा धारयित्वेदं त्रैलोक्यविजयी भवेत् । जघान सकलान्दैत्यान् यधृत्वा मधुसूदनः ॥ ब्रह्मा सृष्टिं वितनुते यधृत्वाभीष्टदायकम् । धनाधिपः कुबेरोऽपि वासवस्त्रिदशेश्वरः ॥ यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी विभुः । न देयं परशिष्येभ्योऽसाधकेभ्यः कदाचन ॥ पुत्रेभ्यः किमथान्येभ्यो दद्याच्चेन्मृत्युमाप्नुयात् । ऋषिस्तु कवचस्यास्य दक्षिणामूर्तिरेव च ॥ विराट् छन्दो जगद्धात्री देवता बालभैरवी । धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ अधरो बिन्दुमानाद्यः कामः शक्तिशशीयुतः । भृगुर्मनुस्वरयुतः सर्गो बीजत्रयात्मकः ॥ बालैषा मे शिरः पातु बिन्दुनादयुतापि सा । भालं पातु कुमारीशा सर्गहीना कुमारिका ॥ दृशौ पातु च वाग्बीजं कर्णयुग्मं सदावतु । कामबीजं सदा पातु घ्राणयुग्मं परावतु ॥ सरस्वतीप्रदा बाला जिह्वां पातु शुचिप्रभा । हस्रैं कण्ठं हसकलरी स्कन्धौ पातु हस्रौ भुजौ ॥ पञ्चमी भैरवी पातु करौ हसैं सदावतु । हृदयं हसकलीं वक्षः पातु हसौ स्तनौ मम ॥ पातु सा भैरवी देवी चैतन्यरूपिणी मम । हस्रैं पातु सदा पार्श्वयुग्मं हसकलरीं सदा ॥ कुक्षिं पातु हसौर्मध्ये भैरवी भुवि दुर्लभा । ऐंईंओंवं मध्यदेशं बीजविद्या सदावतु ॥ हस्रैं पृष्ठं सदा पातु नाभिं हसकलह्रीं सदा । पातु हसौं करौ पातु षट्कूटा भैरवी मम ॥ सहस्रैं सक्थिनी पातु सहसकलरीं सदावतु । गुह्यदेशं हस्रौ पातु जनुनी भैरवी मम ॥ सम्पत्प्रदा सदा पातु हैं जङ्घे हसक्लीं पदौ । पातु हंसौः सर्वदेहं भैरवी सर्वदावतु ॥ हसैं मामवतु प्राच्यां हरक्लीं पावकेऽवतु । हसौं मे दक्षिणे पातु भैरवी चक्रसंस्थिता ॥ ह्रीं क्लीं ल्वें मां सदा पातु निऋत्यां चक्रभैरवी । क्रीं क्रीं क्रीं पातु वायव्ये हूँ हूँ पातु सदोत्तरे ॥ ह्रीं ह्रीं पातु सदैशान्ये दक्षिणे कालिकावतु । ऊर्ध्वं प्रागुक्तबीजानि रक्षन्तु मामधःस्थले ॥ दिग्विदिक्षु स्वाहा पातु कालिका खड्गधारिणी । ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् सा तारा सर्वत्र मां सदावतु ॥ सङ्ग्रामे कानने दुर्गे तोये तरङ्गदुस्तरे । खड्गकर्त्रिधरा सोग्रा सदा मां परिरक्षतु ॥ इति ते कथितं देवि सारात्सारतरं महत् । त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ यः पठेत्प्रयतो भूत्वा पूजायाः फलमाप्नुयात् । स्पर्धामूद्धूय भवने लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ यः शत्रुभीतो रणकातरो वा भीतो वने वा सलिलालये वा । वादे सभायां प्रतिवादिनो वा रक्षःप्रकोपाद् ग्रहसकुलाद्वा ॥ प्रचण्डदण्डाक्षमनाच्च भीतो गुरोः प्रकोपादपि कृच्छ्रसाध्यात् । अभ्यर्च्य देवीं प्रपठेत्रिसन्ध्यं स स्यान्महेशप्रतिमो जयी च ॥ त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं मन्मुखोदितम् । विलिख्य भूर्जगुटिकां स्वर्णस्थां धारयेद्यदि ॥ कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ त्रैलोक्यविजयी भवेत् । तद्गात्रं प्राप्य शस्त्राणि भवन्ति कुसुमानि च ॥ लक्ष्मीः सरस्वती तस्य निवसेद्भवने मुखे । एतत्कवचमज्ञात्वा यो जपेद्भैरवीं पराम् । बालां वा प्रजपेद्विद्वान्दरिद्रो मृत्युमाप्नुयात् ॥ ॥ इति श्री भैरवी कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Chhinnamasta Kavacha (श्री छिन्नमस्ता कवचम्)

    ॥ श्री छिन्नमस्ता कवचम् ॥ (Shri Chhinnamasta Kavacha) ॥ देव्युवाच ॥ कथिताच्छिन्नमस्ताया या या विद्या सुगोपिताः । त्वया नाथेन जीवेश श्रुताश्चाधिगता मया ॥ इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं सर्वसूचितम् । त्रैलोक्यविजयं नाम कृपया कथ्यतां प्रभो ॥ ॥ भैरव उवाच ॥ श्रुणु वक्ष्यामि देवेशि सर्वदेवनमस्कृते । त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं सर्वमोहनम् ॥ सर्वविद्यामयं साक्षात्सुरात्सुरजयप्रदम् । धारणात्पठनादीशस्त्रैलोक्यविजयी विभुः ॥ ब्रह्मा नारायणो रुद्रो धारणात्पठनाद्यतः । कर्ता पाता च संहर्ता भुवनानां सुरेश्वरि ॥ न देयं परशिष्येभ्योऽभक्तेभ्योऽपि विशेषतः । देयं शिष्याय भक्ताय प्राणेभ्योऽप्यधिकाय च ॥ देव्याश्च च्छिन्नमस्तायाः कवचस्य च भैरवः । ऋषिस्तु स्याद्विराट् छन्दो देवता च्छिन्नमस्तका ॥ त्रैलोक्यविजये मुक्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः । हुंकारो मे शिरः पातु छिन्नमस्ता बलप्रदा ॥ ह्रां ह्रूं ऐं त्र्यक्षरी पातु भालं वक्त्रं दिगम्बरा । श्रीं ह्रीं ह्रूं ऐं दृशौ पातु मुण्डं कर्त्रिधरापि सा ॥ सा विद्या प्रणवाद्यन्ता श्रुतियुग्मं सदाऽवतु । वज्रवैरोचनीये हुं फट् स्वाहा च ध्रुवादिका ॥ घ्राणं पातु च्छिन्नमस्ता मुण्डकर्त्रिविधारिणी । श्रीमायाकूर्चवाग्बीजैर्वज्रवैरोचनीयह्रूं ॥ हूं फट् स्वाहा महाविद्या षोडशी ब्रह्मरूपिणी । स्वपार्श्र्वे वर्णिनी चासृग्धारां पाययती मुदा ॥ वदनं सर्वदा पातु च्छिन्नमस्ता स्वशक्तिका । मुण्डकर्त्रिधरा रक्ता साधकाभीष्टदायिनी ॥ वर्णिनी डाकिनीयुक्ता सापि मामभितोऽवतु । रामाद्या पातु जिह्वां च लज्जाद्या पातु कण्ठकम् ॥ कूर्चाद्या हृदयं पातु वागाद्या स्तनयुग्मकम् । रमया पुटिता विद्या पार्श्वौ पातु सुरेश्र्वरी ॥ मायया पुटिता पातु नाभिदेशे दिगम्बरा । कूर्चेण पुटिता देवी पृष्ठदेशे सदाऽवतु ॥ वाग्बीजपुटिता चैषा मध्यं पातु सशक्तिका । ईश्वरी कूर्चवाग्बीजैर्वज्रवैरोचनीयह्रूं ॥ हूंफट् स्वाहा महाविद्या कोटिसूर्य्यसमप्रभा । छिन्नमस्ता सदा पायादुरुयुग्मं सशक्तिका ॥ ह्रीं ह्रूं वर्णिनी जानुं श्रीं ह्रीं च डाकिनी पदम् । सर्वविद्यास्थिता नित्या सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ प्राच्यां पायादेकलिङ्गा योगिनी पावकेऽवतु । डाकिनी दक्षिणे पातु श्रीमहाभैरवी च माम् ॥ नैरृत्यां सततं पातु भैरवी पश्चिमेऽवतु । इन्द्राक्षी पातु वायव्येऽसिताङ्गी पातु चोत्तरे ॥ संहारिणी सदा पातु शिवकोणे सकर्त्रिका । इत्यष्टशक्तयः पान्तु दिग्विदिक्षु सकर्त्रिकाः ॥ क्रीं क्रीं क्रीं पातु सा पूर्वं ह्रीं ह्रीं मां पातु पावके । ह्रूं ह्रूं मां दक्षिणे पातु दक्षिणे कालिकाऽवतु ॥ क्रीं क्रीं क्रीं चैव नैरृत्यां ह्रीं ह्रीं च पश्चिमेऽवतु । ह्रूं ह्रूं पातु मरुत्कोणे स्वाहा पातु सदोत्तरे ॥ महाकाली खड्गहस्ता रक्षःकोणे सदाऽवतु । तारो माया वधूः कूर्चं फट् कारोऽयं महामनुः ॥ खड्गकर्त्रिधरा तारा चोर्ध्वदेशं सदाऽवतु । ह्रीं स्त्रीं हूं फट् च पाताले मां पातु चैकजटा सती । तारा तु सहिता खेऽव्यान्महानीलसरस्वती ॥ इति ते कथितं देव्याः कवचं मन्त्रविग्रहम् । यद्धृत्वा पठनान्भीमः क्रोधाख्यो भैरवः स्मृतः ॥ सुरासुरमुनीन्द्राणां कर्ता हर्ता भवेत्स्वयम् । यस्याज्ञया मधुमती याति सा साधकालयम् ॥ भूतिन्याद्याश्च डाकिन्यो यक्षिण्याद्याश्च खेचराः । आज्ञां गृह्णंति तास्तस्य कवचस्य प्रसादतः ॥ एतदेवं परं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् । देवीमभ्यर्च गन्धाद्यैर्मूलेनैव पठेत्सकृत् ॥ संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात् । भूर्जे विलिखितं चैतद्गुटिकां काञ्चनस्थिताम् ॥ धारयेद्दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा यदि वान्यतः । सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यं वशमानयेत् ॥ तस्य गेहे वसेल्लक्ष्मीर्वाणी च वदनाम्बुजे । ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद्गात्रे यान्ति सौम्यताम् ॥ इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छिन्नमस्तकाम् । सोऽपि शत्रप्रहारेण मृत्युमाप्नोति सत्वरम् ॥ ॥ इति श्री छिन्नमस्ता कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Dhumavati Kavacha (धूमावती कवचम्)

    ॥ धूमावती कवचम् ॥ (Shri Dhumavati Kavacha) ॥ श्री पार्वत्युवाच॥ धूमावत्यर्चनं शम्भो श्रुतम् विस्तरतो मया। कवचं श्रोतुमिच्छामि तस्या देव वदस्व मे ॥ ॥ श्री भैरव उवाच॥ शृणु देवि परङ्गुह्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे। कवचं श्रीधूमावत्या: शत्रुनिग्रहकारकम् ॥ ब्रह्माद्या देवि सततम् यद्वशादरिघातिन:। योगिनोऽभवञ्छत्रुघ्ना यस्या ध्यानप्रभावत: ॥ ॐ अस्य श्री धूमावती कवचस्य पिप्पलाद ऋषि: निवृत छन्द:, श्री धूमावती देवता, धूं बीजं, स्वाहा शक्तिः,धूमावती कीलकं, शत्रुहनने पाठे विनियोग:॥ ॐ धूं बीजं मे शिरः पातु धूं ललाटं सदाऽवतु। धूमा नेत्रयुग्मं पातु वती कर्णौ सदाऽवतु ॥ दीर्ग्घा तुउदरमध्ये तु नाभिं में मलिनाम्बरा। शूर्पहस्ता पातु गुह्यं रूक्षा रक्षतु जानुनी ॥ मुखं में पातु भीमाख्या स्वाहा रक्षतु नासिकाम्। सर्वा विद्याऽवतु कण्ठम् विवर्णा बाहुयुग्मकम् ॥ चञ्चला हृदयम्पातु दुष्टा पार्श्वं सदाऽवतु। धूमहस्ता सदा पातु पादौ पातु भयावहा ॥ प्रवृद्धरोमा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा। क्षुत्पिपासार्द्दिता देवी भयदा कलहप्रिया ॥ सर्वाङ्गम्पातु मे देवी सर्वशत्रुविनाशिनी। इति ते कवचम्पुण्यङ्कथितम्भुवि दुर्लभम् ॥ न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे। पठनीयम्महादेवि त्रिसन्ध्यन्ध्यानतत्परैः ॥ दुष्टाभिचारो देवेशि तद्गात्रन्नैव संस्पृशेत् ॥ ॥ इति श्री धूमावतीकवचं सम्पूरणम् ॥

    Shri Mahalakshmi Kavacha (श्री महालक्ष्मी कवचम्)

    ॥ श्री महालक्ष्मी कवचम् ॥ (Shri Mahalakshmi Kavacha) ॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥ अस्य श्रीमहालक्ष्मीकवचमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दःमहालक्ष्मीर्देवता महालक्ष्मीप्रीत्यर्थं जपे विनियोग। इन्द्र उवाच । समस्तकवचानां तु तेजस्वि कवचोत्तमम् । आत्मरक्षणमारोग्यं सत्यं त्वं ब्रूहि गीष्पते ॥ श्रीगुरुरुवाच । महालक्ष्म्यास्तु कवचं प्रवक्ष्यामि समासतः । चतुर्दशसु लोकेषु रहस्यं ब्रह्मणोदितम् ॥ ब्रह्मोवाच । शिरो मे विष्णुपत्नी च ललाटममृतोद्भवा । चक्षुषी सुविशालाक्षी श्रवणे सागराम्बुजा ॥ घ्राणं पातु वरारोहा जिह्वामाम्नायरूपिणी । मुखं पातु महालक्ष्मीः कण्ठं वैकुण्ठवासिनी ॥ स्कन्धौ मे जानकी पातु भुजौ भार्गवनन्दिनी । बाहू द्वौ द्रविणी पातु करौ हरिवराङ्गना ॥ वक्षः पातु च श्रीर्देवी हृदयं हरिसुन्दरी । कुक्षिं च वैष्णवी पातु नाभिं भुवनमातृका ॥ कटिं च पातु वाराही सक्थिनी देवदेवता । ऊरू नारायणी पातु जानुनी चन्द्रसोदरी ॥ इन्दिरा पातु जंघे मे पादौ भक्तनमस्कृता । नखान् तेजस्विनी पातु सर्वाङ्गं करूणामयी ॥ ब्रह्मणा लोकरक्षार्थं निर्मितं कवचं श्रियः । ये पठन्ति महात्मानस्ते च धन्या जगत्त्रये ॥ कवचेनावृताङ्गनां जनानां जयदा सदा । मातेव सर्वसुखदा भव त्वममरेश्वरी ॥ भूयः सिद्धिमवाप्नोति पूर्वोक्तं ब्रह्मणा स्वयम् । लक्ष्मीर्हरिप्रिया पद्मा एतन्नामत्रयं स्मरन् ॥ नामत्रयमिदं जप्त्वा स याति परमां श्रियम् । यः पठेत्स च धर्मात्मा सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ॥ इति श्री महालक्ष्मी कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Saraswati Kavacha (श्री सरस्वती कवचं)

    ॥ श्री सरस्वती कवचं ॥ (Shri Saraswati Kavacha) ॥ ब्रह्मोवाच ॥ शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् । श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने । रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् । अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मन्बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः । यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ॥ पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः । स्वायंभुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सार्वपूजितः ॥ कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः । ग्रन्थं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च । चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः । यद्धृत्वा पठनाद्ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चाऽऽस्तीको देवलस्तथा । जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यत्द्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः । स्वयं बॄहस्पतिश्छन्दो देवो रासेश्वरः प्रभुः ॥ सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थेऽपि च साधने । कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ओं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः । श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ॥ ओं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रं पातु निरन्तरम् । ओं श्रीं ह्रीं भार्त्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु ॥ ओं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु । ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा श्रोत्रं सदाऽवतु ॥ ओं श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदाऽवतु । ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ॥ ओं श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदाऽवतु । श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ओं ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् । ओं ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम प्र्ष्ठं सदाऽवतु ॥ ओं सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु । ओं वागधिष्ठातृदेव्यै सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ओं सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्रच्यां सदाऽवतु । ओं ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु ॥ ओं ऐं श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा । सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ ओं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैरॄत्यां मे सदाऽवतु । कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ओं सदम्बकायै स्वाहा वायव्यै मां सदाऽवस्तु । ओं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ओं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदाऽवतु । ओं ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ॥ ओं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाऽधो मां सदाऽवतु । ओं ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ इति ते कथितं विप्र सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मारूपकम् ॥ पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्ध्मादने । तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः । प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् । यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् । शक्नोति सर्व्ं जेतुं स कवचस्य प्रभावतः ॥ इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने । स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ ॥ इति श्री सरस्वती कवचं सम्पूर्णम ॥

    Shri Vidya Kavacha (श्री विद्या कवचम्)

    ॥ श्री विद्या कवचम् ॥ (Shri Vidya Kavacha) ॥ देव्युवाच ॥ देवदेव महादेव भक्तानां प्रीतिवर्धनम् । सूचितं यन्महादेव्याः कवचं कथयस्व मे ॥ ॥ महादेव उवाच ॥ श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं देवदुर्लभम् । न प्रकाश्यं परं गुह्यं साधकाभीष्टसिद्धिदम् ॥ कवचस्य ऋषिर्देवि दक्षिणामूर्तिरव्ययः । छन्दः पङ्क्तिः समुद्दिष्टं देवी त्रिपुरसुन्दरी ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां विनियोगस्तु साधने । वाग्भवः कामराजश्च शक्तिर्बीजं सुरेश्वरि ॥ ऐं वाग्भवः पातु शीर्षे मां क्लीं कामराजस्तथा हृदि । सौः शक्तिबीजं सदा पातु नाभौ गुह्ये च पादयोः ॥ ऐं श्रीं सौः वदने पातु बाला मां सर्वसिद्धये । ह्सौं हसकलह्रीं ह्सौः पातु भैरवी कण्ठदेशतः ॥ सुन्दरी नाभिदेशे च शीर्षे कामकला सदा । भ्रूनासयोरन्तराले महात्रिपुरसुन्दरी ॥ ललाटे सुभगा पातु भगा मां कण्ठदेशतः । भगोदया च हृदये उदरे भगसर्पिणी ॥ भगमाला नाभिदेशे लिङ्गे पातु मनोभवा । गुह्ये पातु महादेवी राजराजेश्वरी शिवा ॥ चैतन्यरूपिणी पातु पादयोर्जगदम्बिका । नारायणी सर्वगात्रे सर्वकार्ये शुभङ्करी ॥ ब्रह्माणी पातु मां पूर्वे दक्षिणे वैष्णवी तथा । पश्चिमे पातु वाराही उत्तरे तु महेश्वरी ॥ आग्नेयां पातु कौमारी महालक्ष्मीस्तु नैरृते । वायव्यां पातु चामुण्डा इन्द्राणी पातु ईशके ॥ जले पातु महामाया पृथिव्यां सर्वमङ्गला । आकाशे पातु वरदा सर्वत्र भुवनेश्वरी ॥ इदं तु कवचं देव्या देवानामपि दुर्लभम् । पठेत्प्रातः समुत्थाय शुचिः प्रयतमानसः ॥ नाधयो व्याधयस्तस्य न भयं च क्वचिद्भवेत् । न च मारी भयं तस्य पातकानां भयं तथा ॥ न दारिद्र्यवशं गच्छेत्तिष्ठेन्मृत्युवशे न च । गच्छेच्छिवपुरं देवि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ इदं कवचमज्ञात्वा श्रीविद्यां यो जपेत्सदा । स नाप्नोति फलं तस्य प्राप्नुयाच्छस्त्रघातनम् ॥ ॥ इति श्री विद्या कवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Ram Kavacha (श्री राम कवचम्)

    ॥ श्री राम कवचम् ॥ (Shri Ram Kavacha) ॥ अगस्तिरुवाच ॥ आजानुबाहुमरविन्ददळायताक्षाजन्म शुद्धरस हास मुखप्रसादम् । श्यामं गृहीत शरचाप मुदाररूपम् । रामं सराम मभिराम मनुस्मरामि ॥ १॥ श्रुणु वक्ष्याम्यहं सर्वं सुत्तिक्ष्ण मुनिसत्तम । श्रीरामकवचं पुण्यं सर्वकाम प्रदायकम् ॥ २॥ अद्वैतानन्द चैतन्य शुद्ध सत्वैक लक्षणः । बहिरन्तः सुतीक्ष्णात्र रामचन्द्रः प्रकाशते ॥ ३॥ तत्व विद्यार्थिनो नित्यं रमन्ते चित्सुखात्मनि । इति रामपदे नासौ परब्रह्माभिधीयते ॥ ४॥ जयरामेति यन्नाम कीर्तयन् नाभिवर्णयेत् । सर्वपापैर्विनिर्मुक्तो याति विष्णोः परं पदम् ॥ ५॥ श्रीरामेति परं मन्त्रं तदेव परमं पदम् । तदेव तारकं विद्धि जन्म मृत्यु भयापहम् ॥ ६॥ श्री रामेति वदन् ब्रह्मभावमाप्नो त्यसंशयम् ॥ ७॥ ॐ अस्य श्री रामकवचस्य, अगस्त्य ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । सीतालक्ष्मणोपेतः श्रीरामचन्द्रो देवता । श्री रामचन्द्र प्रसाद सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥ अथध्यानं प्रवक्ष्यामि सर्वाभीष्ट फलप्रदम् । नीलजीमूत सङ्काशं विद्युद् वर्णाम्बरावृतम् ॥ १॥ कोमलाङ्गं विशालाक्षं युवानमतिसुन्दरम् । सीतासौमित्रि सहितं जटामकुट धारिणम् ॥ २॥ सासितूरण धनुर्बाण पाणिं दानव मर्दनम् । यदाचोरभये राजभये शत्रुभये तथा ॥ ३॥ ध्यात्वा रघुपतिं कृद्धं कालानल समप्रभम् । चीरकृष्णाजिनधरं भस्मोद्धूळित विग्रहम् ॥ ४॥ आकर्णाकृष्ट सशर कोदण्ड भुजमण्डितम् । रणे रिपून् रावणादीन् तीक्ष्णमार्गण वृष्टिभिः ॥ ५॥ संहरन्तं महावीरं उग्रं ऐन्द्र रथस्थितम् । लक्ष्मणाद्यैर्महावीरैर्वृतं हनुमदादिभिः ॥ ६॥ सुग्रीवद्यैर् माहावीरैः शैल वृक्ष करोद्यतैः । वेगात् करालहुङ्कारैः भुभुक्कार महारवैः ॥ ७॥ नदद्भिः परिवादद्भिः समरे रावणं प्रति । श्रीराम शत्रुसङ्घान् मे हन मर्दय घातय ॥ ८॥ भूतप्रेत पिशाचादीन् श्रीरामशु विनाशय । एवं ध्यात्वा जपेत् राम कवचं सिद्धि दायकम् ॥ ९॥ सुतीक्ष्ण वज्रकवचं श्रुणुवक्ष्याम्यहं शुभम् । श्रीरामः पातु मे मूर्ध्नि पूर्वे च रघुवंशजः ॥ १०॥ दक्षिणे मे रघुवरः पश्चिमे पातु पावनः । उत्तरे मे रघुपतिः भालं दशरथात्मजः ॥ ११॥ भृवोर् दूर्वादळश्यामः तयोर्मध्ये जनार्दनः । श्रोत्रं मे पातु राजेन्द्रो दृशौ राजीवलोचनः ॥ १२॥ घ्राणं मे पातु राजर्षिः कण्ठं मे जानकीपतिः । कर्णमूले ख्रध्वंसी भालं मे रघुवल्लभः ॥ १३॥ जिह्वां मे वाक्पतिः पातु दन्तवल्यौ रघूत्तमः । ओष्ठौ श्रीरामचन्द्रो मे मुखं पातु परात्परः ॥ १४॥ कण्ठं पातु जगत् वन्द्यः स्कन्धौ मे रावणान्तकः । धनुर्बाणधरः पातु भुजौ मे वालिमर्दनः ॥ १५॥ सर्वाण्यङ्गुळि पर्वाणि हस्तौ मे राक्षसान्तकः । वक्षो मे पातु काकुत्स्थः पातु मे हृदयं हरिः ॥ १६॥ स्तनौ सीतापतिः पातु पार्श्वे मे जगदीश्वरः । मध्यं मे पातु लक्ष्मीशो नभिं मे रघुनायकः ॥ १७॥ कौसल्येयः कटिं पातु पृष्टं दुर्गति नाशनः । गुह्यं पातु हृषीकेशः सक्थिनी सत्यविक्रमः ॥ १८॥ ऊरू शार्ङ्गधरः पातु जानुनी हनुमत्प्रियः । जङ्घे पातु जगद्व्यापी पादौ मे ताटिकान्तकः ॥ १९॥ सर्वाङ्गं पातु मे विष्णुः सर्वसन्धीननामयः । ज्ञानेन्द्रियाणि प्राणादीन् पातु मे मधुसूदनः ॥ २०॥ पातु श्रीरामभद्रो मे शब्दादीन् विषयानपि । द्विपदादीनि भूतानि मत्सम्बन्धीनि यानि च ॥ २१॥ जामतग्न्य महादर्पदळनः पातु तानि मे । सौमित्रि पूर्वजः पातु वागादीनीन्द्रियाणि च ॥ २२॥ रोमाङ्कुराण्यशेषाणि पातु सुग्रीव राज्यदः । वाङ्मनो बुद्ध्यहङ्कारैः ज्ञानाज्ञान कृतानि च ॥ २३॥ जन्मान्तर कृतानीह पापानि विविधानि च । तानि सर्वाणि दग्ध्वाशु हरकोदण्डखण्डनः ॥ २४॥ पातु मां सर्वतो रामः शार्ङ्ग बाणधर: सदा । इति श्रीरामचन्द्रस्य कवचं वज्रसंमितम् ॥ २५॥ गुह्यात् गुह्यतमं दिव्यं सुतीक्ष्ण मुनिसत्तमः । यः पठेत् श्रुणुयाद्वापि श्रावयेद् वा समाहितः ॥ २६॥ स याति परमं स्थानं रामचन्द्र प्रसादतः । महापातकयुक्तो वा गोघ्नो वा भॄणहातथा ॥ २७॥ श्रीरमचन्द्र कवच पठनात् सुद्धि माप्नुयात् । ब्रह्महत्यादिभिः पापैः मुच्यते नात्र संशयः ॥ २८॥ ॥ इति श्री रामकवचं सम्पूर्णम् ॥

    Shri Rudra Kavacha (श्री रुद्र कवचम्)

    ॥ श्री रुद्र कवचम् ॥ (Shri Rudra Kavacha) ॥ अथ श्री रुद्रकवचम् ॥ ॐ अस्य श्री रुद्र कवच स्तोत्र महा मंत्रस्य दूर्वासऋषिः अनुष्ठुप् छंदः त्र्यंबक रुद्रो देवता ह्राम् बीजम्श्रीम् शक्तिः ह्रीम् कीलकम्- मम मनसोभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ह्रामित्यादिषड्बीजैः षडंगन्यासः ॥ ॥ ध्यानम् ॥ शांतम् पद्मासनस्थम् शशिधरमकुटम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम् शूलम् वज्रंच खड्गम् परशुमभयदम् दक्षभागे महन्तम् । नागम् पाशम् च घंटाम् प्रळय हुतवहम् सांकुशम् वामभागे नानालंकारयुक्तम् स्फटिकमणिनिभम् पार्वतीशम् नमामि ॥ ॥ दूर्वास उवाच ॥ प्रणम्य शिरसा देवम् स्वयंभु परमेश्वरम् । एकम् सर्वगतम् देवम् सर्वदेवमयम् विभुम् । रुद्र वर्म प्रवक्ष्यामि अंग प्राणस्य रक्षये । अहोरात्रमयम् देवम् रक्षार्थम् निर्मितम् पुरा ॥ रुद्रो मे जाग्रतः पातु पातु पार्श्वौहरस्तथा । शिरोमे ईश्वरः पातु ललाटम् नीललोहितः । नेत्रयोस्त्र्यंबकः पातु मुखम् पातु महेश्वरः । कर्णयोः पातु मे शंभुः नासिकायाम् सदाशिवः ॥ वागीशः पातु मे जिह्वाम् ओष्ठौ पात्वंबिकापतिः । श्रीकण्ठः पातु मे ग्रीवाम् बाहो चैव पिनाकधृत् । हृदयम् मे महादेवः ईश्वरोव्यात् स्सनान्तरम् । नाभिम् कटिम् च वक्षश्च पातु सर्वम् उमापतिः ॥ बाहुमध्यान्तरम् चैव सूक्ष्म रूपस्सदाशिवः । स्वरंरक्षतु मेश्वरो गात्राणि च यथा क्रमम् वज्रम् च शक्तिदम् चैव पाशांकुशधरम् तथा । गण्डशूलधरान्नित्यम् रक्षतु त्रिदशेश्वरः ॥ प्रस्तानेषु पदे चैव वृक्षमूले नदीतटे संध्यायाम् राजभवने विरूपाक्षस्तु पातु माम् । शीतोष्णा दथकालेषु तुहिनद्रुमकंटके । निर्मनुष्ये समे मार्गे पाहि माम् वृषभध्वज ॥ इत्येतद्द्रुद्रकवचम् पवित्रम् पापनाशनम् । महादेव प्रसादेन दूर्वास मुनिकल्पितम् । ममाख्यातम् समासेन नभयम् तेनविद्यते । प्राप्नोति परम आरोग्यम् पुण्यमायुष्यवर्धनम् ॥ विद्यार्थी लभते विद्याम् धनार्थी लभते धनम् । कन्यार्थी लभते कन्याम् नभय विन्दते क्वचित् । अपुत्रो लभते पुत्रम् मोक्षार्थी मोक्ष माप्नुयात् । त्राहि त्राहि महादेव त्राहि त्राहि त्रयीमय ॥ त्राहिमाम् पार्वतीनाथ त्राहिमाम् त्रिपुरंतकपाशम् खट्वांग दिव्यास्त्रम् त्रिशूलम् रुद्रमेवच । नमस्करोमि देवेश त्राहिमाम् जगदीश्वर । शत्रु मध्ये सभामध्ये ग्राममध्ये गृहान्तरे ॥ गमनेगमने चैव त्राहिमाम् भक्तवत्सल । त्वम् चित्वमादितश्चैव त्वम् बुद्धिस्त्वम् परायणम् । कर्मणामनसा चैव त्वंबुद्धिश्च यथा सदा । सर्व ज्वर भयम् छिन्दि सर्व शत्रून्निवक्त्याय ॥ सर्व व्याधिनिवारणम् रुद्रलोकम् सगच्छति रुद्रलोकम् सगच्छत्योन्नमः ॥ ॥ इति श्री रुद्र कवचम् सम्पूर्णम् ॥

    Brahmandvijay Shri Shiva Kavacha (ब्रह्माण्डविजय श्री शिव कवचम्)

    ॥ ब्रह्माण्डविजय श्री शिव कवचम् ॥ (Brahmandvijay Shri Shiva Kavacha) ॥ नारद उवाच ॥ शिवस्य कवचं ब्रूहि मत्स्य राजेन यद्धृतम् । नारायण महाभाग श्रोतुं कौतूहलं मम ॥ १॥ ॥ श्रीनारायण उवाच ॥ कवचं शृणु विप्रेन्द्र शङ्करस्य महात्मनः । ब्रह्माण्ड विजयं नाम सर्वाऽवयव रक्षणम् ॥ २॥ पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यस्य राजाय धीमते । दत्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥ ३॥ स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् । अस्त्रेशस्त्रेजलेवह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः ॥ ४॥ यद्धृत्वा पठनात् बाणः शिवत्वं प्रापलीलया । बभूव शिवतुल्यश्च यद्धृत्वा नन्दिकेश्वरः ॥ ५॥ वीरश्रेष्ठो वीरभद्रो साम्बोऽभूद् धारणाद्यतः । त्रैलोक्य विजयी राजा हिरण्यकशिपुः स्वयम् ॥ ६॥ हिरण्याक्षश्च विजयी चाऽभवद् धारणाद्धि सः । यद्धृत्वा पठनात् सिद्धो दुर्वासा विश्व पूजितः ॥ ७॥ जैगीषव्यो महायोगी पठनाद् धारणाद्यतः । यद्धृत्वा वामदेवश्च देवलः पवनः स्वयम् ॥ ८॥ अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्चाऽभवत् विश्वपूजितः ॥ ९॥ ॥ श्री शिव कवचम् ॥ ॐ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु । ॐ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु ॥ १॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु । ॐ ह्रीं क्लीं हूं शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम्॥२॥ ॐ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं हूं संसार कर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदावतु ॥ ३॥ ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदावतु । ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाऽधरं पातु मे सदा ॥ ४॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान् सदाऽवतु । ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ५॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं मे रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु । ॐ ह्रीं ऐं श्रीं श्रीं ईश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ६॥ ॐ ह्रीं क्लीं मृतुञ्जयाय स्वाहा भ्रुवौ सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ॥ ७॥ ॐ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा चोदरं पातु मे सदा । ॐ श्रीं ह्रीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ॥ ८॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा पातु करौ मम । ॐ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ॥ ९॥ ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु । ॐ सर्वेश्वराय शर्वाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ॥ १०॥ प्राच्यां मां पातु भूतेशः आग्नेय्यां पातु शङ्करः । दक्षिणे पातु मां रुद्रो नैॠत्यां स्थाणुरेव च ॥ ११॥ पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः । उत्तरे गिरिशः पातु चैशान्यां ईश्वरः स्वयम् ॥ १२॥ ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु चाऽधो मृत्युञ्जयः स्वयम् । जले स्थले चाऽन्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ॥ १३॥ पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं वै भक्तवत्सलः ॥ १४॥ ॥ फलश्रुतिः ॥ इति ते कथितं वत्स कवचं परमाऽद्भुतम् ॥ १५॥ दश लक्ष जपेनैव सिद्धिर्भवति निश्चितम् । यदि स्यात् सिद्ध कवचो रुद्र तुल्यो भवेद् ध्रुवम् ॥ १६॥ तव स्नेहान् मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् । कवचं काण्व शाखोक्तं अतिगोप्यं सुदुर्लभम् ॥ १७॥ अश्वमेध सहस्राणि राजसूय शतानि च । सर्वाणि कवचस्यास्य फलं नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १८॥ कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । सर्वज्ञः सर्वसिद्धेशो मनोयायी भवेद् ध्रुवम् ॥ १९॥ इदं कवचं अज्ञात्वा भवेत् यः शङ्करप्रभुम् । शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ २०॥ ॥ इति श्री ब्रह्माण्डविजय शिव कवचम् सम्पूर्णम् ॥

    Shri Venkateshwara Vajra Kavacha Stotram (श्री वेंकटेश्वर वज्र कवच स्तोत्रम्)

    श्री वेंकटेश्वर वज्र कवच स्तोत्रम् (Sri Venkateshwara Vajra Kavacha Stotram) मार्कंडेय उवाच । नारायणं परब्रह्म सर्व-कारण-कारणम् । प्रपद्ये वेंकटेशाख्यं तदेव कवचं मम ॥ 1 ॥ सहस्र-शीर्षा पुरुषो वेंकटेश-श्शिरोऽवतु । प्राणेशः प्राण-निलयः प्राणान् रक्षतु मे हरिः ॥ 2 ॥ आकाशरा-ट्सुतानाथ आत्मानं मे सदावतु । देवदेवोत्तमो पायाद्देहं मे वेंकटेश्वरः ॥ 3 ॥ सर्वत्र सर्वकालेषु मंगांबाजा-निरीश्वरः । पालयेन्मां सदा कर्म-साफल्यं नः प्रयच्छतु ॥ 4 ॥ य एत-द्वज्रकवच-मभेद्यं वेंकटेशितुः । सायं प्रातः पठेन्नित्यं मृत्युं तरति निर्भयः ॥ 5 ॥ इति मार्कंडेय-कृतं श्री वेंकटेश्वर वज्रकवच-स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

    Devi Mahatmyam Devi Kavacham (देवी माहात्म्यं देवि कवचम्)

    देवी माहात्म्यं देवि कवचम् (Devi Mahatmyam Devi Kavacham) ॐ नमश्चंडिकायै न्यासः अस्य श्री चंडी कवचस्य । ब्रह्मा ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः । चामुंडा देवता । अंगन्यासोक्त मातरो बीजम् । नवावरणो मंत्रशक्तिः । दिग्बंध देवताः तत्वम् । श्री जगदंबा प्रीत्यर्थे सप्तशती पाठांगत्वेन जपे विनियोगः ॥ ॐ नमश्चंडिकायै मार्कंडेय उवाच । ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ 1 ॥ ब्रह्मोवाच । अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ 2 ॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चंद्रघंटेति कूष्मांडेति चतुर्थकम् ॥ 3 ॥ पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च । सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ॥ 4 ॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ 5 ॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे । विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ 6 ॥ न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे । नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ 7 ॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते । ये त्वां स्मरंति देवेशि रक्षसे तान्नसंशयः ॥ 8 ॥ प्रेतसंस्था तु चामुंडा वाराही महिषासना । ऐंद्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ 9 ॥ माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना । लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ 10 ॥ श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना । ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥ 11 ॥ इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः । नानाभरणाशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ 12 ॥ दृश्यंते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः । शंखं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ 13 ॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च । कुंतायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ 14 ॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च । धारयंत्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥ 15 ॥ नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे । महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥ 16 ॥ त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि । प्राच्यां रक्षतु मामैंद्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ 17 ॥ दक्षिणेऽवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी । प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ॥ 18 ॥ उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी । ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ॥ 19 ॥ एवं दश दिशो रक्षेच्चामुंडा शववाहना । जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥ 20 ॥ अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता । शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ 21 ॥ मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी । त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघंटा च नासिके ॥ 22 ॥ शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी । कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ 23 ॥ नासिकायां सुगंधा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका । अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ 24 ॥ दंतान् रक्षतु कौमारी कंठदेशे तु चंडिका । घंटिकां चित्रघंटा च महामाया च तालुके ॥ 25 ॥ कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमंगला । ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ 26 ॥ नीलग्रीवा बहिः कंठे नलिकां नलकूबरी । स्कंधयोः खड्गिनी रक्षेद्बाहू मे वज्रधारिणी ॥ 27 ॥ हस्तयोर्दंडिनी रक्षेदंबिका चांगुलीषु च । नखांछूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ 28 ॥ स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी । हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ 29 ॥ नाभौ च कामिनी रक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥ 30 ॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विंध्यवासिनी । जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥ 31 ॥ गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी । पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥ 32 ॥ नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ॥ 33 ॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । अंत्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ 34 ॥ पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा । ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ 35 ॥ शुक्रं ब्रह्माणि! मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ 36 ॥ प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् । वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ॥ 37 ॥ रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी । सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ 38 ॥ आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी । यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ 39 ॥ गोत्रमिंद्राणि! मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चंडिके । पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ 40 ॥ पंथानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा । राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ॥ 41 ॥ रक्षाहीनं तु यत्-स्थानं वर्जितं कवचेन तु । तत्सर्वं रक्ष मे देवि! जयंती पापनाशिनी ॥ 42 ॥ पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः । कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ 43 ॥ तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः । यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ 44 ॥ परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् । निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः ॥ 45 ॥ त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् । इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ॥ 46 ॥ यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसंध्यं श्रद्धयान्वितः । दैवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः । 47 ॥ जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः । नश्यंति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ॥ 48 ॥ स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् । अभिचाराणि सर्वाणि मंत्रयंत्राणि भूतले ॥ 49 ॥ भूचराः खेचराश्चैव जुलजाश्चोपदेशिकाः । सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ॥ 50 ॥ अंतरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः । ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगंधर्वराक्षसाः ॥ 51 ॥ ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्मांडा भैरवादयः । नश्यंति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते ॥ 52 ॥ मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् । यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमंडितभूतले ॥ 53 ॥ जपेत्सप्तशतीं चंडीं कृत्वा तु कवचं पुरा । यावद्भूमंडलं धत्ते सशैलवनकाननम् ॥ 54 ॥ तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी । देहांते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ॥ 55 ॥ प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः । लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ 56 ॥ ॥ इति वाराहपुराणे हरिहरब्रह्म विरचितं देव्याः कवचं संपूर्णम् ॥

    Shri Krishna Kavacham (Trilokya Mangal Kavacham) श्री कृष्ण कवचं (त्रैलोक्य मङ्गल कवचम्)

    श्री कृष्ण कवचं (त्रैलोक्य मङ्गल कवचम्) [Shri Krishna Kavacham (Trilokya Mangal Kavacham)] श्री नारद उवाच – भगवन्सर्वधर्मज्ञ कवचं यत्प्रकाशितम् । त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कृपया कथय प्रभो ॥ 1 ॥ सनत्कुमार उवाच – शृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परमाद्भुतम् । नारायणेन कथितं कृपया ब्रह्मणे पुरा ॥ 2 ॥ ब्रह्मणा कथितं मह्यं परं स्नेहाद्वदामि ते । अति गुह्यतरं तत्त्वं ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम् ॥ 3 ॥ यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मा सृष्टिं वितनुते ध्रुवम् । यद्धृत्वा पठनात्पाति महालक्ष्मीर्जगत्त्रयम् ॥ 4 ॥ पठनाद्धारणाच्छम्भुः संहर्ता सर्वमन्त्रवित् । त्रैलोक्यजननी दुर्गा महिषादिमहासुरान् ॥ 5 ॥ वरतृप्तान् जघानैव पठनाद्धारणाद्यतः । एवमिन्द्रादयः सर्वे सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः ॥ 6 ॥ इदं कवचमत्यन्तगुप्तं कुत्रापि नो वदेत् । शिष्याय भक्तियुक्ताय साधकाय प्रकाशयेत् ॥ 7 ॥ शठाय परशिष्याय दत्वा मृत्युमवाप्नुयात् । त्रैलोक्यमङ्गलस्याऽस्य कवचस्य प्रजापतिः ॥ 8 ॥ ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो नारायणस्स्वयम् । धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ 9 ॥ प्रणवो मे शिरः पातु नमो नारायणाय च । फालं मे नेत्रयुगलमष्टार्णो भुक्तिमुक्तिदः ॥ 10 ॥ क्लीं पायाच्छ्रोत्रयुग्मं चैकाक्षरः सर्वमोहनः । क्लीं कृष्णाय सदा घ्राणं गोविन्दायेति जिह्विकाम् ॥ 11 ॥ गोपीजनपदवल्लभाय स्वाहाऽननं मम । अष्टादशाक्षरो मन्त्रः कण्ठं पातु दशाक्षरः ॥ 12 ॥ गोपीजनपदवल्लभाय स्वाहा भुजद्वयम् । क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलाङ्गाय नमः स्कन्धौ रक्षाक्षरः ॥ 13 ॥ क्लीं कृष्णः क्लीं करौ पायात् क्लीं कृष्णायां गतोऽवतु । हृदयं भुवनेशानः क्लीं कृष्णः क्लीं स्तनौ मम ॥ 14 ॥ गोपालायाग्निजायातं कुक्षियुग्मं सदाऽवतु । क्लीं कृष्णाय सदा पातु पार्श्वयुग्ममनुत्तमः ॥ 15 ॥ कृष्ण गोविन्दकौ पातु स्मराद्यौजेयुतौ मनुः । अष्टाक्षरः पातु नाभिं कृष्णेति द्व्यक्षरोऽवतु ॥ 16 ॥ पृष्ठं क्लीं कृष्णकं गल्ल क्लीं कृष्णाय द्विरान्तकः । सक्थिनी सततं पातु श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णठद्वयम् ॥ 17 ॥ ऊरू सप्ताक्षरं पायात् त्रयोदशाक्षरोऽवतु । श्रीं ह्रीं क्लीं पदतो गोपीजनवल्लभपदं ततः ॥ 18 ॥ श्रिया स्वाहेति पायू वै क्लीं ह्रीं श्रीं सदशार्णकः । जानुनी च सदा पातु क्लीं ह्रीं श्रीं च दशाक्षरः ॥ 19 ॥ त्रयोदशाक्षरः पातु जङ्घे चक्राद्युदायुधः । अष्टादशाक्षरो ह्रीं श्रीं पूर्वको विंशदर्णकः ॥ 20 ॥ सर्वाङ्गं मे सदा पातु द्वारकानायको बली । नमो भगवते पश्चाद्वासुदेवाय तत्परम् ॥ 21 ॥ ताराद्यो द्वादशार्णोऽयं प्राच्यां मां सर्वदाऽवतु । श्रीं ह्रीं क्लीं च दशार्णस्तु क्लीं ह्रीं श्रीं षोडशार्णकः ॥ 22 ॥ गदाद्युदायुधो विष्णुर्मामग्नेर्दिशि रक्षतु । ह्रीं श्रीं दशाक्षरो मन्त्रो दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ 23 ॥ तारो नमो भगवते रुक्मिणीवल्लभाय च । स्वाहेति षोडशार्णोऽयं नैरृत्यां दिशि रक्षतु ॥ 24 ॥ क्लीं हृषीकेश वंशाय नमो मां वारुणोऽवतु । अष्टादशार्णः कामान्तो वायव्ये मां सदाऽवतु ॥ 25 ॥ श्रीं मायाकामतृष्णाय गोविन्दाय द्विको मनुः । द्वादशार्णात्मको विष्णुरुत्तरे मां सदाऽवतु ॥ 26 ॥ वाग्भवं कामकृष्णाय ह्रीं गोविन्दाय तत्परम् । श्रीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा हस्तौ ततः परम् ॥ 27 ॥ द्वाविंशत्यक्षरो मन्त्रो मामैशान्ये सदाऽवतु । कालीयस्य फणामध्ये दिव्यं नृत्यं करोति तम् ॥ 28 ॥ नमामि देवकीपुत्रं नृत्यराजानमच्युतम् । द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रोऽप्यधो मां सर्वदाऽवतु ॥ 29 ॥ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि । तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयादेषा मां पातुचोर्ध्वतः ॥ 30 ॥ इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम् । त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम् ॥ 31 ॥ ब्रह्मणा कथितं पूर्वं नारायणमुखाच्छ्रुतम् । तव स्नेहान्मयाऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ 32 ॥ गुरुं प्रणम्य विधिवत्कवचं प्रपठेत्ततः । सकृद्द्विस्त्रिर्यथाज्ञानं स हि सर्वतपोमयः ॥ 33 ॥ मन्त्रेषु सकलेष्वेव देशिको नात्र संशयः । शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्या विधिस्स्मृतः ॥ 34 ॥ हवनादीन्दशांशेन कृत्वा तत्साधयेद्ध्रुवम् । यदि स्यात्सिद्धकवचो विष्णुरेव भवेत्स्वयम् ॥ 35 ॥ मन्त्रसिद्धिर्भवेत्तस्य पुरश्चर्या विधानतः । स्पर्धामुद्धूय सततं लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ 36 ॥ पुष्पाञ्जल्यष्टकं दत्वा मूलेनैव पठेत्सकृत् । दशवर्षसहस्राणि पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ 37 ॥ भूर्जे विलिख्य गुलिकां स्वर्णस्थां धारयेद्यदि । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ 38 ॥ अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च । महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ॥ 39 ॥ कलां नार्हन्ति तान्येव सकृदुच्चारणात्ततः । कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ 40 ॥ त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव त्रैलोक्यविजयी स हि । इदं कवचमज्ञात्वा यजेद्यः पुरुषोत्तमम् । शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रस्तस्य सिद्ध्यति ॥ 41 ॥ इति श्री नारदपाञ्चरात्रे ज्ञानामृतसारे त्रैलोक्यमङ्गलकवचम् ।

    Aditya Kavacha (आदित्य कवचम्)

    आदित्य कवचम् (Aditya Kavacha) अस्य श्री आदित्यकवचस्तोत्रमहामन्त्रस्य अगस्त्यो भगवानृषिः अनुष्टुप्छन्दः आदित्यो देवता श्रीं बीजं णीं शक्तिः सूं कीलकं मम आदित्यप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । ध्यानं जपाकुसुमसङ्काशं द्विभुजं पद्महस्तकम् सिन्दूराम्बरमाल्यं च रक्तगन्धानुलेपनम् । माणिक्यरत्नखचित-सर्वाभरणभूषितम् सप्ताश्वरथवाहं तु मेरुं चैव प्रदक्षिणम् ॥ देवासुरवरैर्वन्द्यं घृणिभिः परिसेवितम् । ध्यायेत्पठेत्सुवर्णाभं सूर्यस्य कवचं मुदा ॥ कवचं घृणिः पातु शिरोदेशे सूर्यः पातु ललाटकम् । आदित्यो लोचने पातु श्रुती पातु दिवाकरः ॥ घ्राणं पातु सदा भानुः मुखं पातु सदारविः । जिह्वां पातु जगन्नेत्रः कण्ठं पातु विभावसुः ॥ स्कन्धौ ग्रहपतिः पातु भुजौ पातु प्रभाकरः । करावब्जकरः पातु हृदयं पातु नभोमणिः ॥ द्वादशात्मा कटिं पातु सविता पातु सक्थिनी । ऊरू पातु सुरश्रेष्टो जानुनी पातु भास्करः ॥ जङ्घे मे पातु मार्ताण्डो गुल्फौ पातु त्विषाम्पतिः । पादौ दिनमणिः पातु पातु मित्रोऽखिलं वपुः ॥ आदित्यकवचं पुण्यमभेद्यं वज्रसन्निभम् । सर्वरोगभयादिभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ संवत्सरमुपासित्वा साम्राज्यपदवीं लभेत् । अशेषरोगशान्त्यर्थं ध्यायेदादित्यमण्डलम् । आदित्य मण्डल स्तुतिः – अनेकरत्नसंयुक्तं स्वर्णमाणिक्यभूषणम् । कल्पवृक्षसमाकीर्णं कदम्बकुसुमप्रियम् ॥ सिन्दूरवर्णाय सुमण्डलाय सुवर्णरत्नाभरणाय तुभ्यम् । पद्मादिनेत्रे च सुपङ्कजाय ब्रह्मेन्द्र-नारायण-शङ्कराय ॥ संरक्तचूर्णं ससुवर्णतोयं सकुङ्कुमाभं सकुशं सपुष्पम् । प्रदत्तमादाय च हेमपात्रे प्रशस्तनादं भगवन् प्रसीद ॥ इति आदित्यकवचम् ।