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Shri Ram Apaduddharaka Stotram || श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम् : Full Lyrics in Sanskrit
Shri Ram Apaduddharaka Stotram (श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम्)
श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम् (Shri Ram Apaduddharaka Stotram) भगवान श्री राम (Lord Ram) की कृपा प्राप्त करने और कठिन परिस्थितियों (difficult situations) से मुक्ति पाने का एक शक्तिशाली स्तोत्र है। यह नकारात्मक ऊर्जा (negative energy) और असुर शक्तियों (evil forces) को दूर करता है, जिससे भक्तों को संरक्षण और शांति (protection and peace) मिलती है। राघव, जानकीनाथ, दशरथनंदन (Raghava, Janakinath, Dasharathanandan) जैसे पवित्र नामों का स्मरण करने से पापों से मुक्ति (freedom from sins) और आध्यात्मिक उन्नति (spiritual growth) होती है। यह स्तोत्रम् जीवन में सफलता, समृद्धि और सुख (success, prosperity, and happiness) प्रदान करने वाला है। श्री हरि विष्णु (Shri Hari Vishnu) के अवतार श्री राम की आराधना से भक्त कलियुग के दोषों (Kali Yuga Dosha) से बचते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं।श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम्
(Shri Ram Apaduddharaka Stotram)
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥
नमः कोदंडहस्ताय संधीकृतशराय च ।
दंडिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 1 ॥
आपन्नजनरक्षैकदीक्षायामिततेजसे ।
नमोऽस्तु विष्णवे तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ 2 ॥
पदांभोजरजस्स्पर्शपवित्रमुनियोषिते ।
नमोऽस्तु सीतापतये रामायापन्निवारिणे ॥ 3 ॥
दानवेंद्रमहामत्तगजपंचास्यरूपिणे ।
नमोऽस्तु रघुनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ 4 ॥
महिजाकुचसंलग्नकुंकुमारुणवक्षसे ।
नमः कल्याणरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 5 ॥
पद्मसंभव भूतेश मुनिसंस्तुतकीर्तये ।
नमो मार्तांडवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 6 ॥
हरत्यार्तिं च लोकानां यो वा मधुनिषूदनः ।
नमोऽस्तु हरये तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ 7 ॥
तापकारणसंसारगजसिंहस्वरूपिणे ।
नमो वेदांतवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 8 ॥
रंगत्तरंगजलधिगर्वहृच्छरधारिणे ।
नमः प्रतापरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 9 ॥
दारोपहितचंद्रावतंसध्यातस्वमूर्तये ।
नमः सत्यस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 10 ॥
तारानायकसंकाशवदनाय महौजसे ।
नमोऽस्तु ताटकाहंत्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 11 ॥
रम्यसानुलसच्चित्रकूटाश्रमविहारिणे ।
नमः सौमित्रिसेव्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 12 ॥
सर्वदेवहितासक्त दशाननविनाशिने ।
नमोऽस्तु दुःखध्वंसाय रामायापन्निवारिणे ॥ 13 ॥
रत्नसानुनिवासैक वंद्यपादांबुजाय च ।
नमस्त्रैलोक्यनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ 14 ॥
संसारबंधमोक्षैकहेतुधामप्रकाशिने ।
नमः कलुषसंहर्त्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 15 ॥
पवनाशुग संक्षिप्त मारीचादि सुरारये ।
नमो मखपरित्रात्रे रामायापन्निवारिणे ॥ 16 ॥
दांभिकेतरभक्तौघमहदानंददायिने ।
नमः कमलनेत्राय रामायापन्निवारिणे ॥ 17 ॥
लोकत्रयोद्वेगकर कुंभकर्णशिरश्छिदे ।
नमो नीरददेहाय रामायापन्निवारिणे ॥ 18 ॥
काकासुरैकनयनहरल्लीलास्त्रधारिणे ।
नमो भक्तैकवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 19 ॥
भिक्षुरूपसमाक्रांत बलिसर्वैकसंपदे ।
नमो वामनरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 20 ॥
राजीवनेत्रसुस्पंद रुचिरांगसुरोचिषे ।
नमः कैवल्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 21 ॥
मंदमारुतसंवीत मंदारद्रुमवासिने ।
नमः पल्लवपादाय रामायापन्निवारिणे ॥ 22 ॥
श्रीकंठचापदलनधुरीणबलबाहवे ।
नमः सीतानुषक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 23 ॥
राजराजसुहृद्योषार्चित मंगलमूर्तये ।
नम इक्ष्वाकुवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ 24 ॥
मंजुलादर्शविप्रेक्षणोत्सुकैकविलासिने ।
नमः पालितभक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 25 ॥
भूरिभूधर कोदंडमूर्ति ध्येयस्वरूपिणे ।
नमोऽस्तु तेजोनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 26 ॥
योगींद्रहृत्सरोजातमधुपाय महात्मने ।
नमो राजाधिराजाय रामायापन्निवारिणे ॥ 27 ॥
भूवराहस्वरूपाय नमो भूरिप्रदायिने ।
नमो हिरण्यगर्भाय रामायापन्निवारिणे ॥ 28 ॥
योषांजलिविनिर्मुक्त लाजांचितवपुष्मते ।
नमः सौंदर्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ 29 ॥
नखकोटिविनिर्भिन्नदैत्याधिपतिवक्षसे ।
नमो नृसिंहरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 30 ॥
मायामानुषदेहाय वेदोद्धरणहेतवे ।
नमोऽस्तु मत्स्यरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 31 ॥
मितिशून्य महादिव्यमहिम्ने मानितात्मने ।
नमो ब्रह्मस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 32 ॥
अहंकारेतरजन स्वांतसौधविहारिणे ।
नमोऽस्तु चित्स्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ 33 ॥
सीतालक्ष्मणसंशोभिपार्श्वाय परमात्मने ।
नमः पट्टाभिषिक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ 34 ॥
अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ ।
आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ॥ 35 ॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
तिष्ठन्ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ 36 ॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥
फलश्रुति
इमं स्तवं भगवतः पठेद्यः प्रीतमानसः ।
प्रभाते वा प्रदोषे वा रामस्य परमात्मनः ॥ 1 ॥
स तु तीर्त्वा भवांबोधिमापदस्सकलानपि ।
रामसायुज्यमाप्नोति देवदेवप्रसादतः ॥ 2 ॥
कारागृहादिबाधासु संप्राप्ते बहुसंकटे ।
आपन्निवारकस्तोत्रं पठेद्यस्तु यथाविधिः ॥ 3 ॥
संयोज्यानुष्टुभं मंत्रमनुश्लोकं स्मरन्विभुम् ।
सप्ताहात्सर्वबाधाभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ 4 ॥
द्वात्रिंशद्वारजपतः प्रत्यहं तु दृढव्रतः ।
वैशाखे भानुमालोक्य प्रत्यहं शतसंख्यया ॥ 5 ॥
धनवान् धनदप्रख्यस्स भवेन्नात्र संशयः ।
बहुनात्र किमुक्तेन यं यं कामयते नरः ॥ 6 ॥
तं तं काममवाप्नोति स्तोत्रेणानेन मानवः ।
यंत्रपूजाविधानेन जपहोमादितर्पणैः ॥ 7 ॥
यस्तु कुर्वीत सहसा सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।
इह लोके सुखी भूत्वा परे मुक्तो भविष्यति ॥ 8 ॥
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Shri Ramachandrastuti (श्रीरामचन्द्रस्तुतिः)
Ram Stuti भगवान श्री राम जी को समर्पित है। नियमित रूप से Ram Stuti का पाठ करने से साधक के घर, ऑफिस और व्यवसाय के सभी कार्यों में सफलता मिलती है। इसे करने से भगवान Shri Hanuman Ji को धन्यवाद देना भी बहुत सरल हो जाता है। इसलिए, जब भी भगवान Hanuman Ji की पूजा से पहले भगवान राम की स्तुति की जाती है, तो Shri Hanuman Ji का आशीर्वाद प्राप्त होता है। strong>Ram Stuti शब्दों और अक्षरों का एक अनूठा संयोजन है, जिसमें छुपी हुई शक्तिशाली और रहस्यमयी ऊर्जा होती है, जो इसे एक विशेष विधि से जपने पर वांछित परिणाम प्रदान करती है। श्री राम नवमी, विजय दशमी, सुंदरकांड, रामचरितमानस कथा, श्री हनुमान जन्मोत्सव और अखंड रामायण के पाठ में प्रमुखता से वाचन किया जाने वाली वंदना।Stuti
Ram Vandana (राम वन्दना)
राम वंदना भगवान राम (Lord Rama), जिन्हें "Maryada Purushottam" और "embodiment of dharma" कहा जाता है, की महिमा का वर्णन करती है। यह वंदना उनके "ideal character," "divine leadership," और "symbol of righteousness" को उजागर करती है। श्रीराम भक्तों को "spiritual guidance," "inner peace," और "moral strength" प्रदान करते हैं। राम वंदना का पाठ जीवन में "harmony," "prosperity," और "divine blessings" लाने का मार्ग है।Vandana
Dasaratha Shatakam (दाशरथी शतकम्)
दाशरथी शतकम् भगवान राम, राजा दशरथ के पुत्र को समर्पित एक भक्तिपूर्ण स्तोत्र है। इस स्तोत्र का जाप करने से दिव्य सुरक्षा, शक्ति और आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त होता है।Shatakam
Shri Rama Pancharatna Stotram (श्री राम पञ्चरत्न स्तोत्रम्)
Shri Rama Pancharatna Stotram भगवान Lord Rama की पांच रत्नों जैसी स्तुति है, जो उनके Divine Qualities और Heroic Actions का बखान करती है। इस Sacred Stotra का Recitation करने से भक्तों को Spiritual Blessings, Protection, और Divine Grace प्राप्त होती है। Lord Rama Worship से जीवन में Peace, Prosperity, और Inner Strength आती है। यह Hindu Devotional Hymn व्यक्ति को Positive Energy और Spiritual Growth प्रदान करता है। Rama Bhakti के द्वारा भक्तों के पाप समाप्त होते हैं और Moksha की प्राप्ति होती है। Shri Rama Pancharatna Stotra का पाठ जीवन को एक नई दिशा और Divine Blessings देता है।Stotra
Shri Ramcharit Manas (श्री राम चरित मानस) बालकाण्ड(Baalakaand)
श्री राम चरित मानस(Shri Ramcharit Manas) श्री राम चरित मानस - बालकाण्ड ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरित मानस प्रथम सोपान (बालकाण्ड) वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ 1 ॥ भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥ 2 ॥ वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥ 3 ॥ सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ। वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ ॥ 4 ॥ उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥ 5 ॥ यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः। यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥ 6 ॥ नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि। स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥ 7 ॥ सो. जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन। करु अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥ 1 ॥ मूक होइ बाचाल पङ्गु चढि गिरिबर गहन। जासु कृपाँ सो दयाल द्रवु सकल कलि मल दहन ॥ 2 ॥ नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन। करु सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ 3 ॥ कुन्द इन्दु सम देह उमा रमन करुना अयन। जाहि दीन पर नेह करु कृपा मर्दन मयन ॥ 4 ॥ बन्दु गुरु पद कञ्ज कृपा सिन्धु नररूप हरि। महामोह तम पुञ्ज जासु बचन रबि कर निकर ॥ 5 ॥ बन्दु गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥ अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ॥ सुकृति सम्भु तन बिमल बिभूती। मञ्जुल मङ्गल मोद प्रसूती ॥ जन मन मञ्जु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥ श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती ॥ दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़ए भाग उर आवि जासू ॥ उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥ दो. जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ 1 ॥ गुरु पद रज मृदु मञ्जुल अञ्जन। नयन अमिअ दृग दोष बिभञ्जन ॥ तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनुँ राम चरित भव मोचन ॥ बन्दुँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना ॥ सुजन समाज सकल गुन खानी। करुँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥ साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥ जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहिं जग जस पावा ॥ मुद मङ्गलमय सन्त समाजू। जो जग जङ्गम तीरथराजू ॥ राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसि ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥ बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनन्दनि बरनी ॥ हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मङ्गल देनी ॥ बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा ॥ सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा ॥ अकथ अलौकिक तीरथर्AU। देइ सद्य फल प्रगट प्रभ्AU ॥ दो. सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ 2 ॥ मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकु मराला ॥ सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसङ्गति महिमा नहिं गोई ॥ बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी ॥ जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥ मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥ सो जानब सतसङ्ग प्रभ्AU। लोकहुँ बेद न आन उप्AU ॥ बिनु सतसङ्ग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥ सतसङ्गत मुद मङ्गल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई। पारस परस कुधात सुहाई ॥ बिधि बस सुजन कुसङ्गत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीम् ॥ बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी ॥ सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसेम् ॥ दो. बन्दुँ सन्त समान चित हित अनहित नहिं कोइ। अञ्जलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगन्ध कर दोइ ॥ 3(क) ॥ सन्त सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ 3(ख) ॥ बहुरि बन्दि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥ पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरेम् ॥ हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से ॥ जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ॥ तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥ उदय केत सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके ॥ पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीम् ॥ बन्दुँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनि पर दोषा ॥ पुनि प्रनवुँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनि सहस दस काना ॥ बहुरि सक्र सम बिनवुँ तेही। सन्तत सुरानीक हित जेही ॥ बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा ॥ दो. उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति। जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करि सप्रीति ॥ 4 ॥ मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥ बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥ बन्दुँ सन्त असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥ बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीम् ॥ उपजहिं एक सङ्ग जग माहीं। जलज जोङ्क जिमि गुन बिलगाहीम् ॥ सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू ॥ भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥ सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥ गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥ दो. भलो भलाइहि पै लहि लहि निचाइहि नीचु। सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥ 5 ॥ खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा ॥ तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। सङ्ग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥ भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥ कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपञ्चु गुन अवगुन साना ॥ दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥ दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥ माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रङ्क अवनीसा ॥ कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा ॥ सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥ दो. जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। सन्त हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ 6 ॥ अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥ काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकि भलाई ॥ सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीम् ॥ खलु करहिं भल पाइ सुसङ्गू। मिटि न मलिन सुभाउ अभङ्गू ॥ लखि सुबेष जग बञ्चक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥ उधरहिं अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू ॥ किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू ॥ हानि कुसङ्ग सुसङ्गति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥ गगन चढ़इ रज पवन प्रसङ्गा। कीचहिं मिलि नीच जल सङ्गा ॥ साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी ॥ धूम कुसङ्गति कारिख होई। लिखिअ पुरान मञ्जु मसि सोई ॥ सोइ जल अनल अनिल सङ्घाता। होइ जलद जग जीवन दाता ॥ दो. ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ 7(क) ॥ सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह। ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ 7(ख) ॥ जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बन्दुँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ 7(ग) ॥ देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब। बन्दुँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ 7(घ) ॥ आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी ॥ सीय राममय सब जग जानी। करुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ जानि कृपाकर किङ्कर मोहू। सब मिलि करहु छाड़इ छल छोहू ॥ निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करुँ सब पाही ॥ करन चहुँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥ सूझ न एकु अङ्ग उप्AU। मन मति रङ्क मनोरथ र्AU ॥ मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरि न छाछी ॥ छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥ जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥ हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी ॥ निज कवित केहि लाग न नीका। सरस हौ अथवा अति फीका ॥ जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीम् ॥ जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़इ बढ़हिं जल पाई ॥ सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥ दो. भाग छोट अभिलाषु बड़ करुँ एक बिस्वास। पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास ॥ 8 ॥ खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकण्ठ कठोरा ॥ हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥ कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥ भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ॥ प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी ॥ हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की ॥ राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥ कबि न हौँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू ॥ आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना ॥ भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥ कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहुँ लिखि कागद कोरे ॥ दो. भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक। सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक ॥ 9 ॥ एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥ मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥ बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी ॥ सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अङ्कित जानी ॥ सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही ॥ जदपि कबित रस एकु नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीम् ॥ सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसङ्ग बडप्पनु पावा ॥ धूमु तजि सहज करुआई। अगरु प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई ॥ भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मङ्गल करनी ॥ छं. मङ्गल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ॥ गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥ प्रभु सुजस सङ्गति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ॥ भव अङ्ग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥ दो. प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग। दारु बिचारु कि करि कौ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग ॥ 10(क) ॥ स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ 10(ख) ॥ मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥ नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥ तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीम् ॥ भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई ॥ राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥ कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥ कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥ हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥ जौं बरषि बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥ दो. जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ 11 ॥ जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला ॥ चलत कुपन्थ बेद मग छाँड़ए। कपट कलेवर कलि मल भाँड़एम् ॥ बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के ॥ तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरमध्वज धन्धक धोरी ॥ जौं अपने अवगुन सब कहूँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहूँ ॥ ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कौ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥ एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रङ्का ॥ कबि न हौँ नहिं चतुर कहावुँ। मति अनुरूप राम गुन गावुँ ॥ कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥ जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़आहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीम् ॥ समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई ॥ दो. सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान ॥ 12 ॥ सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥ तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥ एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा ॥ ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥ सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥ जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥ गी बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू ॥ बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी ॥ तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहुँ नाइ राम पद माथा ॥ मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥ दो. अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढि पिपीलिकु परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिम् ॥ 13 ॥ एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहुँ रघुपति कथा सुहाई ॥ ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥ चरन कमल बन्दुँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥ कलि के कबिन्ह करुँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥ जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥ भे जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवुँ सबहिं कपट सब त्यागेम् ॥ होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू ॥ जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीम् ॥ कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥ राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा ॥ तुम्हरी कृपा सुलभ सौ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥ दो. सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान। सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥ 14(क) ॥ सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर। करहु कृपा हरि जस कहुँ पुनि पुनि करुँ निहोर ॥ 14(ख) ॥ कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल। बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल ॥ 14(ग) ॥ सो. बन्दुँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयु। सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित ॥ 14(घ) ॥ बन्दुँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस। जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ 14(ङ) ॥ बन्दुँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ। सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ 14(च) ॥ दो. बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बन्दि कहुँ कर जोरि। होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मञ्जु मनोरथ मोरि ॥ 14(छ) ॥ पुनि बन्दुँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥ मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥ गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवुँ दीनबन्धु दिन दानी ॥ सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥ कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥ अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥ सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला ॥ सुमिरि सिवा सिव पाइ पस्AU। बरनुँ रामचरित चित च्AU ॥ भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥ जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥ होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी ॥ दो. सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ। तौ फुर हौ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ 15 ॥ बन्दुँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥ प्रनवुँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥ सिय निन्दक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥ बन्दुँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची ॥ प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥ दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमङ्गल मूरति मानी ॥ करुँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥ जिन्हहि बिरचि बड़ भयु बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता ॥ सो. बन्दुँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ 16 ॥ प्रनवुँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥ जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥ प्रनवुँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥ राम चरन पङ्कज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजि न पासू ॥ बन्दुँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥ रघुपति कीरति बिमल पताका। दण्ड समान भयु जस जाका ॥ सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर ॥ रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी ॥ महावीर बिनवुँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना ॥ सो. प्रनवुँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ 17 ॥ कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा ॥ बन्दुँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥ रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते ॥ बन्दुँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे ॥ सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥ प्रनवुँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥ जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की ॥ ताके जुग पद कमल मनावुँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावुँ ॥ पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दुँ सब लायक ॥ राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुख दायक ॥ दो. गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। बदुँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ 18 ॥ बन्दुँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥ बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥ महामन्त्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥ महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभ्AU ॥ जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयु सुद्ध करि उलटा जापू ॥ सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय सङ्ग भवानी ॥ हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को ॥ नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ दो. बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास ॥ राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥ 19 ॥ आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥ सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू ॥ कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥ बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥ नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन । स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥ जन मन मञ्जु कञ्ज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से ॥ दो. एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जौ। तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दौ ॥ 20 ॥ समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥ नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥ को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ॥ देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ॥ रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानेम् ॥ सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषेम् ॥ नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी ॥ अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥ दो. राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥ 21 ॥ नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरञ्चि प्रपञ्च बियोगी ॥ ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा ॥ जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥ साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ॥ जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसङ्कट होहिं सुखारी ॥ राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥ चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥ चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभ्AU। कलि बिसेषि नहिं आन उप्AU ॥ दो. सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥ 22 ॥ अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥ मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतेम् ॥ प्रोढ़इ सुजन जनि जानहिं जन की। कहुँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥ एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥ उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तेम् ॥ ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी ॥ अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी ॥ नाम निरूपन नाम जतन तें। सौ प्रगटत जिमि मोल रतन तेम् ॥ दो. निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार। कहुँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ 23 ॥ राम भगत हित नर तनु धारी। सहि सङ्कट किए साधु सुखारी ॥ नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मङ्गल बासा ॥ राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥ रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी ॥ सहित दोष दुख दास दुरासा। दलि नामु जिमि रबि निसि नासा ॥ भञ्जेउ राम आपु भव चापू। भव भय भञ्जन नाम प्रतापू ॥ दण्डक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन ॥ । निसिचर निकर दले रघुनन्दन। नामु सकल कलि कलुष निकन्दन ॥ दो. सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ। नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥ 24 ॥ राम सुकण्ठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥ नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे ॥ राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ॥ नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीम् ॥ राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा ॥ राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी ॥ सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ॥ फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनेम् ॥ दो. ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि। रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥ 25 ॥ मासपारायण, पहला विश्राम नाम प्रसाद सम्भु अबिनासी। साजु अमङ्गल मङ्गल रासी ॥ सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥ नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥ नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥ ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि न्AUँ। पायु अचल अनूपम ठ्AUँ ॥ सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू ॥ अपतु अजामिलु गजु गनिक्AU। भे मुकुत हरि नाम प्रभ्AU ॥ कहौं कहाँ लगि नाम बड़आई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥ दो. नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु। जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ 26 ॥ चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भे नाम जपि जीव बिसोका ॥ बेद पुरान सन्त मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥ ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजेम् ॥ कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥ नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला ॥ राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता ॥ नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलम्बन एकू ॥ कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥ दो. राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल। जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ 27 ॥ भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ ॥ सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करुँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥ मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥ राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥ लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥ गनी गरीब ग्रामनर नागर। पण्डित मूढ़ मलीन उजागर ॥ सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी ॥ साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला ॥ सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥ यह प्राकृत महिपाल सुभ्AU। जान सिरोमनि कोसलर्AU ॥ रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मन्द मलिनमति मोतेम् ॥ दो. सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु। उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ 28(क) ॥ हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास। साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ 28(ख) ॥ अति बड़इ मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥ समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनेम् ॥ सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥ कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की ॥ रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की ॥ जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकण्ठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥ सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥ ते भरतहि भेण्टत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥ दो. प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥ तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ 29(क) ॥ राम निकाईं रावरी है सबही को नीक। जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ 29(ख) ॥ एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ। बरनुँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ 29(ग) ॥ जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥ कहिहुँ सोइ सम्बाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥ सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥ सोइ सिव कागभुसुण्डिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥ तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥ ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥ जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना ॥ औरु जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥ दो. मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ 30(क) ॥ श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़। किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ 30(ख) तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥ भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥ जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहुँ हियँ हरि के प्रेरेम् ॥ निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करुँ कथा भव सरिता तरनी ॥ बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि ॥ रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥ रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥ सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि ॥ असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि ॥ सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥ जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥ रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥ सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी ॥ सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥ दो. राम कथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु। तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ 31 ॥ राम चरित चिन्तामनि चारू। सन्त सुमति तिय सुभग सिङ्गारू ॥ जग मङ्गल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥ सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥ जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥ समन पाप सन्ताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के ॥ सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुम्भज लोभ उदधि अपार के ॥ काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के ॥ अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के ॥ मन्त्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअङ्क भाल के ॥ हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से ॥ अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥ सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से ॥ सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥ सेवक मन मानस मराल से। पावक गङ्ग तंरग माल से ॥ दो. कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दम्भ पाषण्ड। दहन राम गुन ग्राम जिमि इन्धन अनल प्रचण्ड ॥ 32(क) ॥ रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु। सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ 32(ख) ॥ कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि सङ्कर कहा बखानी ॥ सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबन्ध बिचित्र बनाई ॥ जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥ कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥ रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीम् ॥ नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा ॥ कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥ करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥ दो. राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार। सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ 33 ॥ एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पङ्कज धूरी ॥ पुनि सबही बिनवुँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥ सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनुँ बिसद राम गुन गाथा ॥ सम्बत सोरह सै एकतीसा। करुँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥ नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥ जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिम् ॥ असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥ जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना ॥ दो. मज्जहि सज्जन बृन्द बहु पावन सरजू नीर। जपहिं राम धरि ध्यान उर सुन्दर स्याम सरीर ॥ 34 ॥ दरस परस मज्जन अरु पाना। हरि पाप कह बेद पुराना ॥ नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकि सारद बिमलमति ॥ राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥ चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा ॥ सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मङ्गल खानी ॥ बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा ॥ रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥ मन करि विषय अनल बन जरी। होइ सुखी जौ एहिं सर परी ॥ रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ सम्भु सुहावन पावन ॥ त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥ रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमु सिवा सन भाषा ॥ तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥ कहुँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥ दो. जस मानस जेहि बिधि भयु जग प्रचार जेहि हेतु। अब सोइ कहुँ प्रसङ्ग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ 35 ॥ सम्भु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी ॥ करि मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥ सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू ॥ बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी ॥ लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करि मल हानी ॥ प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥ सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई ॥ मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥ भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥ दो. सुठि सुन्दर सम्बाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि। तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ 36 ॥ सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना ॥ रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥ राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥ पुरिनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मञ्जु मनि सीप सुहाई ॥ छन्द सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहुरङ्ग कमल कुल सोहा ॥ अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरन्द सुबासा ॥ सुकृत पुञ्ज मञ्जुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला ॥ धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥ अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥ नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़आगा ॥ सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥ सन्तसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसन्त सम गाई ॥ भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना ॥ सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना ॥ औरु कथा अनेक प्रसङ्गा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहङ्गा ॥ दो. पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहङ्ग बिहारु। माली सुमन सनेह जल सीञ्चत लोचन चारु ॥ 37 ॥ जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥ सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥ अति खल जे बिषी बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥ सम्बुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥ तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे ॥ आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥ कठिन कुसङ्ग कुपन्थ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥ गृह कारज नाना जञ्जाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥ बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयङ्कर नाना ॥ दो. जे श्रद्धा सम्बल रहित नहि सन्तन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ 38 ॥ जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीन्द जुड़आई होई ॥ जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गेहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥ करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवि समेत अभिमाना ॥ जौं बहोरि कौ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा ॥ सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥ सोइ सादर सर मज्जनु करी। महा घोर त्रयताप न जरी ॥ ते नर यह सर तजहिं न क्AU। जिन्ह के राम चरन भल भ्AU ॥ जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करु मन लाई ॥ अस मानस मानस चख चाही। भि कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥ भयु हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥ चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो ॥ सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला ॥ नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि ॥ दो. श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल। सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल ॥ 39 ॥ रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥ सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥ जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥ त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिन्धु समुहानी ॥ मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही ॥ बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥ उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥ रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई ॥ दो. बालचरित चहु बन्धु के बनज बिपुल बहुरङ्ग। नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहङ्ग ॥ 40 ॥ सीय स्वयम्बर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥ नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका ॥ सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई ॥ घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥ सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥ कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीम् ॥ राम तिलक हित मङ्गल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा ॥ काई कुमति केकी केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी ॥ दो. समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग। कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ 41 ॥ कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी ॥ हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥ बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू ॥ ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू ॥ बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी ॥ राम राज सुख बिनय बड़आई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥ सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥ भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई ॥ दो. अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास। भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास ॥ 42 ॥ आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥ अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी ॥ राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥ भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥ काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़आवन ॥ सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तेम् ॥ जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए ॥ तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥ दो. मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ। सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ 43(क) ॥ अब रघुपति पद पङ्करुह हियँ धरि पाइ प्रसाद । कहुँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग सम्बाद ॥ 43(ख) ॥ भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥ तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना ॥ माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥ देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीम् ॥ पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥ भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥ तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥ दो. ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग। कहहिं भगति भगवन्त कै सञ्जुत ग्यान बिराग ॥ 44 ॥ एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीम् ॥ प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृन्दा ॥ एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥ जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी ॥ सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे ॥ करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥ नाथ एक संसु बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरेम् ॥ कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहुँ बड़ होइ अकाजा ॥ दो. सन्त कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव। होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ 45 ॥ अस बिचारि प्रगटुँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥ रास नाम कर अमित प्रभावा। सन्त पुरान उपनिषद गावा ॥ सन्तत जपत सम्भु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥ आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीम् ॥ सोऽपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया ॥ रामु कवन प्रभु पूछुँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥ एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥ नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥ दो. प्रभु सोइ राम कि अपर कौ जाहि जपत त्रिपुरारि। सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ 46 ॥ जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥ जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥ राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥ चाहहु सुनै राम गुन गूढ़आ। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़आ ॥ तात सुनहु सादर मनु लाई। कहुँ राम कै कथा सुहाई ॥ महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला ॥ रामकथा ससि किरन समाना। सन्त चकोर करहिं जेहि पाना ॥ ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी ॥ दो. कहुँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद। भयु समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ 47 ॥ एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गे कुम्भज रिषि पाहीम् ॥ सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥ रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी ॥ रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई ॥ कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥ मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥ तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥ पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी ॥ दो. ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ। गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गेँ जान सबु कोइ ॥ 48(क) ॥ सो. सङ्कर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥ तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ 48(ख) ॥ रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥ जौं नहिं जाउँ रहि पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा ॥ एहि बिधि भे सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा ॥ लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा। भयु तुरत सोइ कपट कुरङ्गा ॥ करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥ मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥ बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दौ भाई ॥ कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकेम् ॥ दो. अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमन्द बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ 49 ॥ सम्भु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥ भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥ जय सच्चिदानन्द जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥ चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥ सतीं सो दसा सम्भु कै देखी। उर उपजा सन्देहु बिसेषी ॥ सङ्करु जगतबन्द्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥ तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानन्द परधामा ॥ भे मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥ दो. ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ 50 ॥ बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सौ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥ खोजि सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥ सम्भुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥ अस संसय मन भयु अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥ जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अन्तरजामी सब जानी ॥ सुनहि सती तव नारि सुभ्AU। संसय अस न धरिअ उर क्AU ॥ जासु कथा कुभञ्ज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥ सौ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥ छं. मुनि धीर जोगी सिद्ध सन्तत बिमल मन जेहि ध्यावहीं। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीम् ॥ सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनि ॥ सो. लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु। बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ 51 ॥ जौं तुम्हरें मन अति सन्देहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥ तब लगि बैठ अहुँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥ जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥ चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई ॥ इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥ मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधी बिपरीत भलाई नाहीम् ॥ होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़आवै साखा ॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गी सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥ दो. पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप। आगें होइ चलि पन्थ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ 52 ॥ लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भे भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥ कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥ सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी ॥ सुमिरत जाहि मिटि अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥ सती कीन्ह चह तहँहुँ दुर्AU। देखहु नारि सुभाव प्रभ्AU ॥ निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥ जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥ दो. राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति सङ्कोचु। सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ 53 ॥ मैं सङ्कर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना ॥ जाइ उतरु अब देहुँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा ॥ जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥ सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥ फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बन्धु सिय सुन्दर वेषा ॥ जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥ देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका ॥ बन्दत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा ॥ दो. सती बिधात्री इन्दिरा देखीं अमित अनूप। जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ 54 ॥ देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥ जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा ॥ पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा ॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे ॥ सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भी सभीता ॥ हृदय कम्प तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीम् ॥ बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥ पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥ दो. गी समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ 55 ॥ मासपारायण, दूसरा विश्राम सतीं समुझि रघुबीर प्रभ्AU। भय बस सिव सन कीन्ह दुर्AU ॥ कछु न परीछा लीन्हि गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥ जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥ तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥ बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥ हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत सम्भु सुजाना ॥ सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयु बिषाद बिसेषा ॥ जौं अब करुँ सती सन प्रीती। मिटि भगति पथु होइ अनीती ॥ दो. परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु। प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु ॥ 56 ॥ तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥ एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीम् ॥ अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥ चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़आई ॥ अस पन तुम्ह बिनु करि को आना। रामभगत समरथ भगवाना ॥ सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥ कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥ जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥ दो. सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य। कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ 57क ॥ हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहि बरनी ॥ कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥ सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपि अवाँ इव उर अधिकाई ॥ सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू ॥ बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥ तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन ॥ सङ्कर सहज सरुप संहारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा ॥ दो. सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं। मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिम् ॥ 58 ॥ नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहुँ दुख सागर पारा ॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥ सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥ अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही। सङ्कर बिमुख जिआवसि मोही ॥ कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥ जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरती हरन बेद जसु गावा ॥ तौ मैं बिनय करुँ कर जोरी। छूटु बेगि देह यह मोरी ॥ जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥ दो. तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करु सो बेगि उपाइ। होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ 59 ॥ सो. जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि। बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ 57ख ॥ एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥ बीतें सम्बत सहस सतासी। तजी समाधि सम्भु अबिनासी ॥ राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥ जाइ सम्भु पद बन्दनु कीन्ही। सनमुख सङ्कर आसनु दीन्हा ॥ लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भे तेहि काला ॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥ बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥ नहिं कौ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीम् ॥ दो. दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ 60 ॥ किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥ बिष्नु बिरञ्चि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई ॥ सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना ॥ सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥ पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥ जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीम् ॥ पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहि न निज अपराध बिचारी ॥ बोली सती मनोहर बानी। भय सङ्कोच प्रेम रस सानी ॥ दो. पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ 61 ॥ कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हु बिसराई ॥ ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥ जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहि न सीलु सनेहु न कानी ॥ जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥ तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गेँ कल्यानु न होई ॥ भाँति अनेक सम्भु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥ दो. कहि देखा हर जतन बहु रहि न दच्छकुमारि। दिए मुख्य गन सङ्ग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ 62 ॥ पिता भवन जब गी भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥ सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥ दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥ सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख सम्भु कर भागा ॥ तब चित चढ़एउ जो सङ्कर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥ पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयु महा परितापा ॥ जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना ॥ समुझि सो सतिहि भयु अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥ दो. सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध। सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ 63 ॥ सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा ॥ सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥ सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥ काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥ जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी ॥ पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही ॥ तजिहुँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयु सकल मख हाहाकारा ॥ दो. सती मरनु सुनि सम्भु गन लगे करन मख खीस। जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ 64 ॥ समाचार सब सङ्कर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥ जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥ भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु सम्भु बिमुख कै होई ॥ यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं सञ्छेप बखानी ॥ सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥ तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई ॥ जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि सम्पति तहँ छाई ॥ जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥ दो. सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति। प्रगटीं सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ 65 ॥ सरिता सब पुनित जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीम् ॥ सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥ सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥ नित नूतन मङ्गल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥ नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥ सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥ नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिञ्चावा ॥ निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥ दो. त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥ कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ 66 ॥ कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥ सुन्दर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अम्बिका भवानी ॥ सब लच्छन सम्पन्न कुमारी। होइहि सन्तत पियहि पिआरी ॥ सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥ होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीम् ॥ एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥ सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥ अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना ॥ दो. जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष ॥ अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ 67 ॥ सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी ॥ नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना ॥ सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना ॥ होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥ उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू ॥ जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥ झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दम्पति सखीं सयानी ॥ उर धरि धीर कहि गिरिर्AU। कहहु नाथ का करिअ उप्AU ॥ दो. कह मुनीस हिमवन्त सुनु जो बिधि लिखा लिलार। देव दनुज नर नाग मुनि कौ न मेटनिहार ॥ 68 ॥ तदपि एक मैं कहुँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई ॥ जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीम् ॥ जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥ जौं बिबाहु सङ्कर सन होई। दोषु गुन सम कह सबु कोई ॥ जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीम् ॥ भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मन्द कहत कौ नाहीम् ॥ सुभ अरु असुभ सलिल सब बही। सुरसरि कौ अपुनीत न कही ॥ समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई ॥ दो. जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़इ बिबेक अभिमान। परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ 69 ॥ सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना ॥ सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसेम् ॥ सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥ दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥ जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥ जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीम् ॥ बर दायक प्रनतारति भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक मन रञ्जन ॥ इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधेम् ॥ दो. अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस। होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ 70 ॥ कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयू। आगिल चरित सुनहु जस भयू ॥ पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥ जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥ न त कन्या बरु रहु कुआरी। कन्त उमा मम प्रानपिआरी ॥ जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥ सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥ अस कहि परि चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा ॥ बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीम् ॥ दो. प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान। पारबतिहि निरमयु जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ 71 ॥ अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥ करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥ नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब गुन निधि बृषकेतू ॥ अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का। सबहि भाँति सङ्करु अकलङ्का ॥ सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गी तुरत उठि गिरिजा पाहीम् ॥ उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी ॥ बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कण्ठ न कछु कहि जाई ॥ जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥ दो. सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावुँ तोहि। सुन्दर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ 72 ॥ करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥ मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥ तपबल रचि प्रपञ्च बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥ तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तपबल सेषु धरि महिभारा ॥ तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥ सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायु गिरिहि हँकारी ॥ मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई ॥ प्रिय परिवार पिता अरु माता। भे बिकल मुख आव न बाता ॥ दो. बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥ पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ 73 ॥ उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥ अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥ नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥ सम्बत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥ कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥ बेल पाती महि परि सुखाई। तीनि सहस सम्बत सोई खाई ॥ पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयु अपरना ॥ देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥ दो. भयु मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि। परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ 74 ॥ अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भु अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥ अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा सन्तत सुचि जानी ॥ आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीम् ॥ मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥ सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥ उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा ॥ जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें सिव मन भयु बिरागा ॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥ दो. चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम। बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ 75 ॥ कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥ एहि बिधि गयु कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती ॥ नैमु प्रेमु सङ्कर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥ प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला ॥ बहु प्रकार सङ्करहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥ बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा ॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥ दो. अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु। जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ 76 ॥ कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीम् ॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥ प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥ अन्तरधान भे अस भाषी। सङ्कर सोइ मूरति उर राखी ॥ तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥ दो. पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु। गिरिहि प्रेरि पठेहु भवन दूरि करेहु सन्देहु ॥ 77 ॥ रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमन्त तपस्या जैसी ॥ बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी ॥ केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥ कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥ मनु हठ परा न सुनि सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा ॥ नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पङ्खन्ह हम चहहिं उड़आना ॥ देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ दो. सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तब देह। नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ 78 ॥ दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥ चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥ मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥ तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥ निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली ॥ कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥ पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥ दो. अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं। सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिम् ॥ 79 ॥ अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥ अति सुन्दर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला ॥ दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुण्ठ निवासी ॥ अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥ सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥ कनकु पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥ नारद बचन न मैं परिहरूँ। बसु भवनु उजरु नहिं डरूँ ॥ गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥ दो. महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ 80 ॥ जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥ अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा ॥ जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥ तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीम् ॥ जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरुँ सम्भु न त रहुँ कुआरी ॥ तजुँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू ॥ मैं पा परुँ कहि जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयु बिलम्बा ॥ देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी ॥ दो. तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु। नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ 81 ॥ जाइ मुनिन्ह हिमवन्तु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥ बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई ॥ भे मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥ मनु थिर करि तब सम्भु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना ॥ तारकु असुर भयु तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥ तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भे देव सुख सम्पति रीते ॥ अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई ॥ तब बिरञ्चि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे ॥ दो. सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ। सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीति रन सोइ ॥ 82 ॥ मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥ सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥ तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥ जदपि अहि असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥ पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीम् ॥ तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई ॥ एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहि सबु कोई ॥ अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥ दो. सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार। सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ 83 ॥ तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥ पर हित लागि तजि जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही ॥ अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥ चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥ तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥ कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥ ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥ सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥ छं. भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे। सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥ होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा। दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोऽपि कर धनु सरु धरा ॥ दो. जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम। ते निज निज मरजाद तजि भे सकल बस काम ॥ 84 ॥ सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥ नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाई। सङ्गम करहिं तलाव तलाई ॥ जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकि सचेतन करनी ॥ पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भे कामबस समय बिसारी ॥ मदन अन्ध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥ देव दनुज नर किन्नर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥ इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी ॥ सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भे बियोगी ॥ छं. भे कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै। देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥ अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं। दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयम् ॥ सो. धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे। जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ 85 ॥ उभय घरी अस कौतुक भयू। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयू ॥ सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयु जथाथिति सबु संसारू ॥ भे तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गेँ मतवारे ॥ रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥ फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥ प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥ बन उपबन बापिका तड़आगा। परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥ जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥ छं. जागि मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही। सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही ॥ बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा। कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥ दो. सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत। चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ 86 ॥ देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़एउ मदनु मन माखा ॥ सुमन चाप निज सर सन्धाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥ छाड़ए बिषम बिसिख उर लागे। छुटि समाधि सम्भु तब जागे ॥ भयु ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥ सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयु कोपु कम्पेउ त्रैलोका ॥ तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयु जरि छारा ॥ हाहाकार भयु जग भारी। डरपे सुर भे असुर सुखारी ॥ समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भे अकण्टक साधक जोगी ॥ छं. जोगि अकण्टक भे पति गति सुनत रति मुरुछित भी। रोदति बदति बहु भाँति करुना करति सङ्कर पहिं गी। अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही। प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥ दो. अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनङ्गु। बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसङ्गु ॥ 87 ॥ जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा ॥ कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥ रति गवनी सुनि सङ्कर बानी। कथा अपर अब कहुँ बखानी ॥ देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुण्ठ सिधाए ॥ सब सुर बिष्नु बिरञ्चि समेता। गे जहाँ सिव कृपानिकेता ॥ पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भे प्रसन्न चन्द्र अवतंसा ॥ बोले कृपासिन्धु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू ॥ कह बिधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी। तदपि भगति बस बिनवुँ स्वामी ॥ दो. सकल सुरन्ह के हृदयँ अस सङ्कर परम उछाहु। निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ 88 ॥ यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन। कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा ॥ सासति करि पुनि करहिं पस्AU। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभ्AU ॥ पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अङ्गीकारा ॥ सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ हौ कहा सुखु मानी ॥ तब देवन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥ अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥ प्रथम गे जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी ॥ दो. कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस। अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ 89 ॥ मासपारायण,तीसरा विश्राम सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥ तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि सम्भु रहे सबिकारा ॥ हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥ जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥ तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥ तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥ तात अनल कर सहज सुभ्AU। हिम तेहि निकट जाइ नहिं क्AU ॥ गेँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई ॥ दो. हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ॥ चले भवानिहि नाइ सिर गे हिमाचल पास ॥ 90 ॥ सबु प्रसङ्गु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥ बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवन्त बहुत सुखु माना ॥ हृदयँ बिचारि सम्भु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥ सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥ पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥ जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥ लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥ सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मङ्गल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥ दो. लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान। होहि सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ 91 ॥ सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥ कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला ॥ ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा ॥ गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥ कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़इ बाजहिं बाजा ॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीम् ॥ बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढ़इ चढ़इ बाहन चले बराता ॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥ दो. बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज। बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ 92 ॥ बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने ॥ मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिङ्ग्य बचन नहिं जाहीम् ॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृङ्गिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥ सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥ नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा ॥ कौ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कौ बहु पद बाहू ॥ बिपुल नयन कौ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कौ अति तनखीना ॥ छं. तन खीन कौ अति पीन पावन कौ अपावन गति धरें। भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरेम् ॥ खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै। बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥ सो. नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ 93 ॥ जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥ इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥ सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीम् ॥ बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥ कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी ॥ गे सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा ॥ प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागि लघु बिरञ्चि निपुनाई ॥ छं. लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही। बन बाग कूप तड़आग सरिता सुभग सब सक को कही ॥ मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीम् ॥ बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीम् ॥ दो. जगदम्बा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ। रिद्धि सिद्धि सम्पत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ 94 ॥ नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥ करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना ॥ हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भे सुखारी ॥ सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे ॥ धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने ॥ गेँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कम्पित गाता ॥ कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता ॥ बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥ छं. तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयङ्करा। सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥ जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही। देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥ दो. समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं। बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिम् ॥ 95 ॥ लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए ॥ मैनाँ सुभ आरती सँवारी। सङ्ग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥ कञ्चन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी ॥ बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयु बिसेषा ॥ भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गे महेसु जहाँ जनवासा ॥ मैना हृदयँ भयु दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥ अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥ जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥ छं. कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुन्दरता दी। जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागी ॥ तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौम् ॥ घरु जाउ अपजसु हौ जग जीवत बिबाहु न हौं करौम् ॥ दो. भी बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि। करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ 96 ॥ नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥ अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा ॥ साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया ॥ पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥ जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥ अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरि जो रचि बिधाता ॥ करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥ तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अङ्का। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलङ्का ॥ छं. जनि लेहु मातु कलङ्कु करुना परिहरहु अवसर नहीं। दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीम् ॥ सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीम् ॥ बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीम् ॥ दो. तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ 97 ॥ तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसङ्गु सुनावा ॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी ॥ अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा सम्भु अरधङ्ग निवासिनि ॥ जग सम्भव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥ जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुन्दर तनु पाई ॥ तहँहुँ सती सङ्करहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीम् ॥ एक बार आवत सिव सङ्गा। देखेउ रघुकुल कमल पतङ्गा ॥ भयु मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥ छं. सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध सङ्कर परिहरीं। हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीम् ॥ अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया। अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्कर प्रिया ॥ दो. सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद। छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद ॥ 98 ॥ तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे ॥ नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने ॥ लगे होन पुर मङ्गलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना ॥ भाँति अनेक भी जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥ सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥ सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती ॥ बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा ॥ नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥ छं. गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं। भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीम् ॥ जेवँत जो बढ़यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥ दो. बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठे देव बोलाइ ॥ 99 ॥ बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥ बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥ सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा ॥ बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥ बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिङ्गारु सखीं लै आई ॥ देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है ॥ जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥ सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥ छं. कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसी कहा ॥ छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मण्डप सिव जहाँ ॥ अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥ दो. मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि। कौ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥ 100 ॥ जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥ गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी ॥ पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥ बेद मन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीम् ॥ बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥ हर गिरिजा कर भयु बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ छं. दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो ॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो। पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥ दो. नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु। छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ 101 ॥ बहु बिधि सम्भु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥ जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही ॥ करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥ बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥ कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीम् ॥ भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥ पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥ छं. जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दीं। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गी ॥ जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥ दो. चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु। बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ 102 ॥ तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई ॥ आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥ जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥ जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेही सिङ्गारु न कहुँ बखानी ॥ करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥ हर गिरिजा बिहार नित नयू। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयू ॥ तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥ छं. जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा ॥ यह उमा सङ्गु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीम् ॥ दो. चरित सिन्धु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमन्द गवाँरु ॥ 103 ॥ सम्भु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥ बहु लालसा कथा पर बाढ़ई। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ई ॥ प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥ अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥ सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीम् ॥ बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू ॥ सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥ पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ दो. प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ 104 ॥ मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहुँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥ सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरेम् ॥ राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥ तदपि जथाश्रुत कहुँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥ सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अन्तरजामी ॥ जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥ प्रनवुँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनुँ बिसद तासु गुन गाथा ॥ परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥ दो. सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किन्नर मुनिबृन्द। बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकन्द ॥ 105 ॥ हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीम् ॥ तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला ॥ त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयू। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयू ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं सम्भु कृपाला ॥ कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा ॥ तरुन अरुन अम्बुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चन्द छबि हारी ॥ दो. जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ 106 ॥ बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसेम् ॥ पारबती भल अवसरु जानी। गी सम्भु पहिं मातु भवानी ॥ जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥ बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई ॥ पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥ कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥ बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥ चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा ॥ दो. प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥ जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ 107 ॥ जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥ तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥ जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥ ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥ प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥ सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती ॥ रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई ॥ दो. जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ 108 ॥ जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥ अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥ मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥ तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा ॥ अजहूँ कछु संसु मन मोरे। करहु कृपा बिनवुँ कर जोरेम् ॥ प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥ तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीम् ॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ दो. बन्दु पद धरि धरनि सिरु बिनय करुँ कर जोरि। बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि ॥ 109 ॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥ गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिम् ॥ अति आरति पूछुँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥ प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥ कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीम् ॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु सङ्कर सुखलीला ॥ दो. बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ 110 ॥ पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥ औरु राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥ जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सौ दयाल राखहु जनि गोई ॥ तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना ॥ प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥ हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥ श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानन्द अमित सुख पावा ॥ दो. मगन ध्यानरस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ 111 ॥ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानेम् ॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥ बन्दुँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥ मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवु सो दसरथ अजिर बिहारी ॥ करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥ धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कौ उपकारी ॥ पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा ॥ तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥ दो. रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। सोक मोह सन्देह भ्रम मम बिचार कछु नाहिम् ॥ 112 ॥ तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई ॥ जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना ॥ नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा। लोचन मोरपङ्ख कर लेखा ॥ ते सिर कटु तुम्बरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥ जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥ जो नहिं करि राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना ॥ कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥ गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥ दो. रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ 113 ॥ रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी ॥ रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥ राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥ जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना ॥ तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहुँ देखि प्रीति अति तोरी ॥ उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई ॥ एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥ तुम जो कहा राम कौ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥ दो. कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ 114 ॥ अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी ॥ लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी ॥ कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥ मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना ॥ जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥ हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीम् ॥ बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥ जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना ॥ सो. अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ 115 ॥ सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥ अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसेम् ॥ जासु नाम भ्रम तिमिर पतङ्गा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसङ्गा ॥ राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥ सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥ हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥ राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना ॥ दो. पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥ रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायु माथ ॥ 116 ॥ निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥ जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥ चितव जो लोचन अङ्गुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥ उमा राम बिषिक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥ बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता ॥ सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ॥ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥ जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया ॥ दो. रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकि कौ टारि ॥ 117 ॥ एहि बिधि जग हरि आश्रित रही। जदपि असत्य देत दुख अही ॥ जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥ जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥ आदि अन्त कौ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा ॥ बिनु पद चलि सुनि बिनु काना। कर बिनु करम करि बिधि नाना ॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहि घ्रान बिनु बास असेषा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ दो. जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥ सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥ 118 ॥ कासीं मरत जन्तु अवलोकी। जासु नाम बल करुँ बिसोकी ॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अन्तरजामी ॥ बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीम् ॥ सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीम् ॥ राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥ अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीम् ॥ सुनि सिव के भ्रम भञ्जन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥ भि रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असम्भावना बीती ॥ दो. पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि। बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ 119 ॥ ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी ॥ तुम्ह कृपाल सबु संसु हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥ नाथ कृपाँ अब गयु बिषादा। सुखी भयुँ प्रभु चरन प्रसादा ॥ अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी ॥ प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥ राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥ नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥ उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥ दो. हिँयँ हरषे कामारि तब सङ्कर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥ 120(क) ॥ नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम सो. सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। कहा भुसुण्डि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ 120(ख) ॥ सो सम्बाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। सुनहु राम अवतार चरित परम सुन्दर अनघ ॥ 120(ग) ॥ हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। मैं निज मति अनुसार कहुँ उमा सादर सुनहु ॥ 120(घ ॥ सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥ हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥ राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी ॥ तदपि सन्त मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥ तस मैं सुमुखि सुनावुँ तोही। समुझि परि जस कारन मोही ॥ जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥ दो. असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ 121 ॥ सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिन्धु जन हित तनु धरहीम् ॥ राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका ॥ जनम एक दुइ कहुँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी ॥ द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥ बिप्र श्राप तें दूनु भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥ कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥ बिजी समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता ॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥ दो. भे निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। कुम्भकरन रावण सुभट सुर बिजी जग जान ॥ 122 । मुकुत न भे हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥ एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥ कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥ एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा ॥ एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलन्धर सन सब हारे ॥ सम्भु कीन्ह सङ्ग्राम अपारा। दनुज महाबल मरि न मारा ॥ परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥ दो. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥ जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥ 123 ॥ तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥ तहाँ जलन्धर रावन भयू। रन हति राम परम पद दयू ॥ एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥ नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥ गिरिजा चकित भी सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥ कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा ॥ यह प्रसङ्ग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी ॥ दो. बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ 124(क) ॥ सो. कहुँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। भव भञ्जन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ 124(ख) ॥ हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा ॥ निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयु रमापति पद अनुरागा ॥ सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी ॥ मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥ सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥ जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीम् ॥ दो. सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ 125 ॥ तेहि आश्रमहिं मदन जब गयू। निज मायाँ बसन्त निरमयू ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहि भृङ्गा ॥ चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़आवनिहारी ॥ रम्भादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना ॥ करहिं गान बहु तान तरङ्गा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतङ्गा ॥ देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपञ्च बिधि नाना ॥ काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥ सीम कि चाँपि सकि कौ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू ॥ दो. सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ 126 ॥ भयु न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥ नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयु मदन तब सहित सहाई ॥ मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥ सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥ तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीम् ॥ मार चरित सङ्करहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥ बार बार बिनवुँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीम् ॥ तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसङ्ग दुराएडु तबहूँ ॥ दो. सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ 127 ॥ राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए ॥ एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥ छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥ हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता ॥ बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥ काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥ अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया ॥ दो. रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ 128 ॥ सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करि मनोभव पीरा ॥ नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अङ्कुरेउ गरब तरु भारी ॥ बेगि सो मै डारिहुँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी ॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई ॥ तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥ दो. बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ 129 ॥ बसहिं नगर सुन्दर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥ तेहिं पुर बसि सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा ॥ सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा ॥ बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥ सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥ करि स्वयम्बर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला ॥ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयू। पुरबासिंह सब पूछत भयू ॥ सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥ दो. आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ 130 ॥ देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ई बार लगि रहे निहारी ॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥ जो एहि बरि अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥ सेवहिं सकल चराचर ताही। बरि सीलनिधि कन्या जाही ॥ लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीम् ॥ करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलि कवन बिधि बाला ॥ दो. एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ 131 ॥ हरि सन मागौं सुन्दरताई। होइहि जात गहरु अति भाई ॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥ बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़आने। होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥ अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई ॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥ जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥ निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥ दो. जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ 132 ॥ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयू। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयू ॥ माया बिबस भे मुनि मूढ़आ। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़आ ॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई ॥ निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरेम् ॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥ दो. रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ 133 ॥ जेंहि समाज बैण्ठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखि न कोऊ ॥ करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई ॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥ मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परि बुद्धि भ्रम सानी ॥ काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥ मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥ दो. सखीं सङ्ग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। देखत फिरि महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ 134 ॥ जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीम् ॥ धरि नृपतनु तहँ गयु कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयु निरासा ॥ मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गी छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥ अस कहि दौ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़आ। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़आ ॥ दो. होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दौ। हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कौ ॥ 135 ॥ पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीम् ॥ देहुँ श्राप कि मरिहुँ जाई। जगत मोर उपहास कराई ॥ बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी ॥ बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईम् ॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा ॥ पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥ मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥ दो. असुर सुरा बिष सङ्करहि आपु रमा मनि चारु। स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ 136 ॥ परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई। भावि मनहि करहु तुम्ह सोई ॥ भलेहि मन्द मन्देहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥ डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असङ्क मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥ भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥ बञ्चेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ दो. श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ 137 ॥ जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥ मृषा हौ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला ॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥ जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरन्त बिश्रामा ॥ कौ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरेम् ॥ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई ॥ दो. बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भे अन्तरधान ॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ 138 ॥ हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥ अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए ॥ हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला ॥ निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भे निसाचर कालहि पाई ॥ दो. एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुर रञ्जन सज्जन सुखद हरि भञ्जन भुबि भार ॥ 139 ॥ एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुन्दर सुखद बिचित्र घनेरे ॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीम् ॥ तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबन्ध बनाई ॥ बिबिध प्रसङ्ग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥ हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब सन्ता ॥ रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥ यह प्रसङ्ग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥ सो. सुर नर मुनि कौ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥ अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ 140 ॥ अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहुँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयु कोसलपुर भूपा ॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बन्धु समेत धरें मुनिबेषा ॥ जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी ॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहुँ मति अनुसारा ॥ भरद्वाज सुनि सङ्कर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयु जेहि हेतू ॥ दो. सो मैं तुम्ह सन कहुँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥ राम कथा कलि मल हरनि मङ्गल करनि सुहाइ ॥ 141 ॥ स्वायम्भू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दम्पति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥ नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयु सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥ देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥ साङ्ख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥ सो. होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयु हरिभगति बिनु ॥ 142 ॥ बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पन्थ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरन्धर नृपरिषि जानी ॥ जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । दो. द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग ॥ 143 ॥ करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे ॥ उर अभिलाष निंरन्तर होई। देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी ॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा ॥ सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥ ऐसेउ प्रभु सेवक बस अही। भगत हेतु लीलातनु गही ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥ दो. एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार। सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार ॥ 144 ॥ बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़ए रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा ॥ मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥ प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी ॥ मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रन्ध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भे सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥ दो. श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। बोले मनु करि दण्डवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ 145 ॥ सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बन्दित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक ॥ जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीम् ॥ जो भुसुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥ दम्पति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥ दो. नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ 146 ॥ सरद मयङ्क बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुन्दर नासा। बिधु कर निकर बिनिन्दक हासा ॥ नव अबुञ्ज अम्बक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥ कुण्डल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला ॥ केहरि कन्धर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुन्दर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदण्डा। कटि निषङ्ग कर सर कोदण्डा ॥ दो. तडित बिनिन्दक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ 147 ॥ पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीम् ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥ जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई ॥ छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥ हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दण्ड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कञ्जा। तुरत उठाए करुनापुञ्जा ॥ दो. बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ 148 ॥ सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे ॥ एक लालसा बड़इ उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीम् ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईम् ॥ जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु सम्पति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई ॥ सो तुम्ह जानहु अन्तरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥ दो. दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहुँ सतिभाउ ॥ चाहुँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ 149 ॥ देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई ॥ सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥ प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अन्तरजामी ॥ अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीम् ॥ दो. सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ 150 ॥ सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिन्धु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीम् ॥ मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरेम् । बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥ सुत बिषिक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥ अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥ सो. तहँ करि भोग बिसाल तात गुँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ 151 ॥ इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहुँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहुँ चरित भगत सुखदाता ॥ जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सौ अवतरिहि मोरि यह माया ॥ पुरुब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अन्तरधान भे भगवाना ॥ दम्पति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥ दो. यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ 152 ॥ मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति सम्भु बखानी ॥ बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसि नरेसू ॥ धरम धुरन्धर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना ॥ तेहि कें भे जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा ॥ राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही ॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल सङ्ग्रामा ॥ भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥ जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥ दो. जब प्रतापरबि भयु नृप फिरी दोहाई देस। प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ 153 ॥ नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥ सचिव सयान बन्धु बलबीरा। आपु प्रतापपुञ्ज रनधीरा ॥ सेन सङ्ग चतुरङ्ग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा ॥ सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना ॥ बिजय हेतु कटकी बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥ जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई ॥ सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दण्ड छाड़इ नृप दीन्हेम् ॥ सकल अवनि मण्डल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला ॥ दो. स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। अरथ धरम कामादि सुख सेवि समयँ नरेसु ॥ 154 ॥ भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुन्दर नर नारी ॥ सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥ गुर सुर सन्त पितर महिदेवा। करि सदा नृप सब कै सेवा ॥ भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करि सादर सुख माने ॥ दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥ नाना बापीं कूप तड़आगा। सुमन बाटिका सुन्दर बागा ॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥ दो. जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग ॥ 155 ॥ हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना ॥ करि जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥ चढ़इ बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा ॥ बिन्ध्याचल गभीर बन गयू। मृग पुनीत बहु मारत भयू ॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥ बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीम् ॥ कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥ घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥ दो. नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ 156 ॥ आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥ तुरत कीन्ह नृप सर सन्धाना। महि मिलि गयु बिलोकत बाना ॥ तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा ॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सङ्ग लागा ॥ गयु दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥ अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजि नरेसू ॥ कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥ अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥ दो. खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयु अचेत ॥ 157 ॥ फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥ जासु देस नृप लीन्ह छड़आई। समर सेन तजि गयु पराई ॥ समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी ॥ गयु न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥ रिस उर मारि रङ्क जिमि राजा। बिपिन बसि तापस कें साजा ॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥ राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना ॥ उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥ दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ। मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ 158 ॥ गै श्रम सकल सुखी नृप भयू। निज आश्रम तापस लै गयू ॥ आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुन्दर जुबा जीव परहेलेम् ॥ चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरेम् ॥ नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखुँ पद आई ॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥ कह मुनि तात भयु अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥ दो. निसा घोर गम्भीर बन पन्थ न सुनहु सुजान। बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ 159(क) ॥ तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलि सहाइ। आपुनु आवि ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ 159(ख) ॥ भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥ नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बन्दि निज भाग्य सराही ॥ पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करुँ ढिठाई ॥ मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥ तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहि निज काजा ॥ समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगि छाती ॥ सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥ दो. कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत। नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥ 160 ॥ कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥ सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥ तेहि तें कहहि सन्त श्रुति टेरें। परम अकिञ्चन प्रिय हरि केरेम् ॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरञ्चि सिवहि सन्देहा ॥ जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥ सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥ सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥ सुनु सतिभाउ कहुँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला ॥ दो. अब लगि मोहि न मिलेउ कौ मैं न जनावुँ काहु। लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ 161(क) ॥ सो. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुन्दर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ 161(ख) तातें गुपुत रहुँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीम् ॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरेम् ॥ अब जौं तात दुरावुँ तोही। दारुन दोष घटि अति मोही ॥ जिमि जिमि तापसु कथि उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥ देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी ॥ नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥ कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी ॥ दो. आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ 162 ॥ जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीम् ॥ तपबल तें जग सृजि बिधाता। तपबल बिष्नु भे परित्राता ॥ तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तप तें अगम न कछु संसारा ॥ भयु नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ करम धरम इतिहास अनेका। करि निरूपन बिरति बिबेका ॥ उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी ॥ सुनि महिप तापस बस भयू। आपन नाम कहत तब लयू ॥ कह तापस नृप जानुँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥ सो. सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ 163 ॥ नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥ गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥ देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥ उपजि परि ममता मन मोरें। कहुँ कथा निज पूछे तोरेम् ॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीम् ॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥ कृपासिन्धु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरेम् ॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर हौँ असोकी ॥ दो. जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कौ। एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत हौ ॥ 164 ॥ कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥ कालु तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़इ महीसा ॥ तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कौ रखवारा ॥ जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥ चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहुँ दौ भुजा उठाई ॥ बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥ हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू ॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥ दो. एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि। मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ 165 ॥ तातें मै तोहि बरजुँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा ॥ छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥ यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥ आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीम् ॥ सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥ राखि गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कौ जग त्राता ॥ जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। हौ नास नहिं सोच हमारेम् ॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥ दो. होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सौ। तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखुँ कौँ ॥ 166 ॥ सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीम् ॥ अहि एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई ॥ मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई ॥ आजु लगें अरु जब तें भयूँ। काहू के गृह ग्राम न गयूँ ॥ जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमञ्जस आजू ॥ सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी ॥ बड़ए सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीम् ॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू। सन्तत धरनि धरत सिर रेनू ॥ दो. अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ 167 ॥ जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना ॥ सत्य कहुँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥ अवसि काज मैं करिहुँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥ जोग जुगुति तप मन्त्र प्रभ्AU। फलि तबहिं जब करिअ दुर्AU ॥ जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करी। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरी ॥ पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू। सम्बत भरि सङ्कलप करेहू ॥ दो. नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार। मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिंइब जेवनार ॥ 168 ॥ एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरेम् ॥ करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा ॥ और एक तोहि कहूँ लख्AU। मैं एहि बेष न आउब क्AU ॥ तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया ॥ तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहुँ इहाँ बरष परवाना ॥ मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥ गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे ॥ मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहुँ सोवतहि निकेता ॥ दो. मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ 169 ॥ सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥ कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥ परम मित्र तापस नृप केरा। जानि सो अति कपट घनेरा ॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई ॥ प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे ॥ तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा ॥ जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उप्AU। भावी बस न जान कछु र्AU ॥ दो. रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥ 170 ॥ तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयु सुखारी ॥ मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई ॥ अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥ परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥ कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥ तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी ॥ भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥ नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥ दो. राजा के उपरोहितहि हरि लै गयु बहोरि। लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥ 171 ॥ आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥ जागेउ नृप अनभेँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना ॥ मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥ कानन गयु बाजि चढ़इ तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीम् ॥ गेँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा ॥ उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥ जुग सम नृपहि गे दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥ समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥ दो. नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत। बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुम्ब समेत ॥ 172 ॥ उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥ मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिञ्जन बहु गनि सकि न कोई ॥ बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥ भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए ॥ परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला ॥ बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बड़इ हानि अन्न जनि खाहू ॥ भयु रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥ भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी ॥ दो. बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ 173 ॥ छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई ॥ ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा ॥ सम्बत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥ नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥ बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥ चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयु जहँ भोजन खानी ॥ तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥ सब प्रसङ्ग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥ दो. भूपति भावी मिटि नहिं जदपि न दूषन तोर। किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥ 174 ॥ अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥ सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीम् ॥ उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई ॥ तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥ घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई ॥ जूझे सकल सुभट करि करनी। बन्धु समेत परेउ नृप धरनी ॥ सत्यकेतु कुल कौ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥ रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई ॥ दो. भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम। धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥ ।175 ॥ काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयु निसाचर सहित समाजा ॥ दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा। रावन नाम बीर बरिबण्डा ॥ भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयु सो कुम्भकरन बलधामा ॥ सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयु बिमात्र बन्धु लघु तासू ॥ नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥ रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भे निसाचर घोर घनेरे ॥ कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयङ्कर बिगत बिबेका ॥ कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥ दो. उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस भे सकल अघरूप ॥ 176 ॥ कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥ गयु निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥ करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥ हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारेम् ॥ एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥ पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयू। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयू ॥ जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू ॥ सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी ॥ दो. गे बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु। तेहिं मागेउ भगवन्त पद कमल अमल अनुरागु ॥ 177 ॥ तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए ॥ मय तनुजा मन्दोदरि नामा। परम सुन्दरी नारि ललामा ॥ सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी ॥ हरषित भयु नारि भलि पाई। पुनि दौ बन्धु बिआहेसि जाई ॥ गिरि त्रिकूट एक सिन्धु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥ सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा ॥ भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥ तिन्ह तें अधिक रम्य अति बङ्का। जग बिख्यात नाम तेहि लङ्का ॥ दो. खाईं सिन्धु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव। कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ 178(क) ॥ हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥ 178(ख) ॥ रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर सङ्घारे ॥ अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥ दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥ देखि बिकट भट बड़इ कटकाई। जच्छ जीव लै गे पराई ॥ फिरि सब नगर दसानन देखा। गयु सोच सुख भयु बिसेषा ॥ सुन्दर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥ जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥ एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा ॥ दो. कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ। मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥ 179 ॥ सुख सम्पति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़आई ॥ नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥ अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥ करि पान सोवि षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥ जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥ समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥ बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥ जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई ॥ दो. कुमुख अकम्पन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ 180 ॥ कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥ दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा ॥ सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती ॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी ॥ सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥ ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥ तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहुँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥ द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥ दो. छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। तब मारिहुँ कि छाड़इहुँ भली भाँति अपनाइ ॥ 181 ॥ मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़आवा ॥ जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥ तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥ एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥ चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥ रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए ॥ पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥ रन मद मत्त फिरि जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥ रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥ किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा ॥ ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥ आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥ दो. भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कौ न सुतन्त्र। मण्डलीक मनि रावन राज करि निज मन्त्र ॥ 182(ख) ॥ देव जच्छ गन्धर्व नर किन्नर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुन्दर बर नारि ॥ 182ख ॥ इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥ प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥ देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी ॥ करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया ॥ जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥ जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिम् ॥ सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥ छं. जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनि दससीसा। आपुनु उठि धावि रहै न पावि धरि सब घालि खीसा ॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना। तेहि बहुबिधि त्रासि देस निकासि जो कह बेद पुराना ॥ सो. बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ 183 ॥ मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़ए खल बहु चोर जुआरा। जे लम्पट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी ॥ गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखि बिपरीता। कहि न सकि रावन भय भीता ॥ धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गी तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज सन्ताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई ॥ छं. सुर मुनि गन्धर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरञ्चि के लोका। सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥ सो. धरनि धरहि मन धीर कह बिरञ्चि हरिपद सुमिरु। जानत जन की पीर प्रभु भञ्जिहि दारुन बिपति ॥ 184 ॥ बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुण्ठ जान कह कोई। कौ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीम् ॥ अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटि जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ दो. सुनि बिरञ्चि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ 185 ॥ छं. जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता। गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कन्ता ॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानि कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करु अनुग्रह सोई ॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानन्दा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुन्दा ॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृन्दा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानन्दा ॥ जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई सङ्ग सहाय न दूजा। सो करु अघारी चिन्त हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥ जो भव भय भञ्जन मुनि मन रञ्जन गञ्जन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़इ सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥ सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कौ नहि जाना। जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवु सो श्रीभगवाना ॥ भव बारिधि मन्दर सब बिधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपुञ्जा। मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कञ्जा ॥ दो. जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गम्भीर भि हरनि सोक सन्देह ॥ 186 ॥ जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहुँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहुँ दिनकर बंस उदारा ॥ कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ तिन्ह के गृह अवतरिहुँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहुँ। परम सक्ति समेत अवतरिहुँ ॥ हरिहुँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़आना ॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भी भरोस जियँ आवा ॥ दो. निज लोकहि बिरञ्चि गे देवन्ह इहि सिखाइ। बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ 187 ॥ गे देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलम्ब न कीन्हा ॥ बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीम् ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ अवधपुरीं रघुकुलमनि र्AU। बेद बिदित तेहि दसरथ न्AUँ ॥ धरम धुरन्धर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ दो. कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत। पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ 188 ॥ एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीम् ॥ गुर गृह गयु तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ निज दुख सुख सब गुरहि सुनायु। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायु ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ सृङ्गी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हेम् ॥ जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ दो. तब अदृस्य भे पावक सकल सभहि समुझाइ ॥ परमानन्द मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ 189 ॥ तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥ कैकेई कहँ नृप सो दयू। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयू ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भीं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख सम्पति छाए ॥ मन्दिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीम् ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयू। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयू ॥ दो. जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भे अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ 190 ॥ नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा ॥ सीतल मन्द सुरभि बह ब्AU। हरषित सुर सन्तन मन च्AU ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥ सो अवसर बिरञ्चि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना ॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गन्धर्ब बरूथा ॥ बरषहिं सुमन सुअञ्जलि साजी। गहगहि गगन दुन्दुभी बाजी ॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥ दो. सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम। जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ 191 ॥ छं. भे प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ॥ कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनन्ता। माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनन्ता ॥ करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति सन्ता। सो मम हित लागी जन अनुरागी भयु प्रगट श्रीकन्ता ॥ ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ दो. बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ 192 ॥ सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आई सब रानी ॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी ॥ दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानन्द समाना ॥ परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा ॥ जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥ परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥ गुर बसिष्ठ कहँ गयु हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥ अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥ दो. नन्दीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह। हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ 193 ॥ ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥ सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानन्द मगन सब लोई ॥ बृन्द बृन्द मिलि चलीं लोगाई। सहज सङ्गार किएँ उठि धाई ॥ कनक कलस मङ्गल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥ करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीम् ॥ मागध सूत बन्दिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥ सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥ मृगमद चन्दन कुङ्कुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥ दो. गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द। हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द ॥ 194 ॥ कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ ॥ वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकि सारद अहिराजा ॥ अवधपुरी सोहि एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी ॥ अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥ मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा ॥ भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥ कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना ॥ दो. मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानि कोइ। रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ 195 ॥ यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना ॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा ॥ औरु एक कहुँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥ काक भुसुण्डि सङ्ग हम दोऊ। मनुजरूप जानि नहिं कोऊ ॥ परमानन्द प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥ यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई ॥ तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥ दो. मन सन्तोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस। सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ 196 ॥ कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती ॥ नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठे मुनि ग्यानी ॥ करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥ इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥ जो आनन्द सिन्धु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥ सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥ बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई ॥ जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥ दो. लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार। गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ 197 ॥ धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्त्व नृप तव सुत चारी ॥ मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना ॥ बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी ॥ भरत सत्रुहन दूनु भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़आई ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥ चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥ हृदयँ अनुग्रह इन्दु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा ॥ कबहुँ उछङ्ग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारि कहि प्रिय ललना ॥ दो. ब्यापक ब्रह्म निरञ्जन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ 198 ॥ काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कञ्ज बारिद गम्भीरा ॥ अरुन चरन पकञ्ज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥ रेख कुलिस धवज अङ्कुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥ कटि किङ्किनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥ भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥ उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥ कम्बु कण्ठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई ॥ दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे ॥ सुन्दर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥ चिक्कन कच कुञ्चित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥ पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानि सपनेहुँ जेहि देखा ॥ दो. सुख सन्दोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत। दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ 199 ॥ एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिंह सुखदाता ॥ जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥ रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकि भव बन्धन छोरी ॥ जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥ भृकुटि बिलास नचावि ताही। अस प्रभु छाड़इ भजिअ कहु काही ॥ मन क्रम बचन छाड़इ चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥ एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिंह सुख दीन्हा ॥ लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥ दो. प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान। सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ 200 ॥ एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिङ्गार पलनाँ पौढ़आए ॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥ करि पूजा नैबेद्य चढ़आवा। आपु गी जहँ पाक बनावा ॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई ॥ गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कम्प मन धीर न होई ॥ इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥ देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥ दो. देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखण्ड। रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड ॥ 201 ॥ अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन ॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभ्AU। सौ देखा जो सुना न क्AU ॥ देखी माया सब बिधि गाढ़ई। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ई ॥ देखा जीव नचावि जाही। देखी भगति जो छोरि ताही ॥ तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥ बिसमयवन्त देखि महतारी। भे बहुरि सिसुरूप खरारी ॥ अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥ हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥ दो. बार बार कौसल्या बिनय करि कर जोरि ॥ अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ 202 ॥ बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा ॥ कछुक काल बीतें सब भाई। बड़ए भे परिजन सुखदाई ॥ चूड़आकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥ परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥ मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥ भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥ कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥ निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा ॥ धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥ दो. भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ। भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ 203 ॥ बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए ॥ जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता ॥ भे कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥ गुरगृहँ गे पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई ॥ जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥ बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥ करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा ॥ जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥ दो. कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ 204 ॥ बन्धु सखा सङ्ग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥ पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥ जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीम् ॥ जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ सञ्जोगा ॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥ प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषि मन राजा ॥ दो. ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ 205 ॥ यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥ बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥ जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीम् ॥ देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिम् ॥ गाधितनय मन चिन्ता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥ एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दौ भाई ॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥ दो. बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। करि मज्जन सरू जल गे भूप दरबार ॥ 206 ॥ मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयू लै बिप्र समाजा ॥ करि दण्डवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥ चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥ पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी ॥ भे मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥ तब मन हरषि बचन कह र्AU। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु क्AU ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावुँ बारा ॥ असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयुँ नृप तोही ॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥ दो. देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान। धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ 207 ॥ सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी ॥ चौथेम्पन पायुँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥ मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥ देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सौ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥ सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनि गोसाई ॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा ॥ सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥ तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा ॥ अति आदर दौ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥ दो. सौम्पे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस। जननी भवन गे प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ 208(क) ॥ सो. पुरुषसिंह दौ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥ कृपासिन्धु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ 208(ख) अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला ॥ कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥ प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥ चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥ तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥ जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥ दो. आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि। कन्द मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ 209 ॥ प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥ होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा ॥ पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥ मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥ धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जन्तु तहँ नाहीम् ॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ दो. गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ 210 ॥ छं. परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भी तपपुञ्ज सही। देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥ अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवि बचन कही। अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥ धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥ मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहि लाभ सङ्कर जाना ॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागुँ बर आना। पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥ जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भी सिव सीस धरी। सोइ पद पङ्कज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनन्द भरी ॥ दो. अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल। तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़इ कपट जञ्जाल ॥ 211 ॥ मासपारायण, सातवाँ विश्राम चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गे जहाँ जग पावनि गङ्गा ॥ गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥ तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥ हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया ॥ पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥ बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥ गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा ॥ बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥ दो. सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास। फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ 212 ॥ बनि न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥ चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥ धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥ चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई ॥ मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरेम् ॥ पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता ॥ अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥ होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥ दो. धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति। सिय निवास सुन्दर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ 213 ॥ सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा ॥ बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ सङ्कुल सब काला ॥ सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥ पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥ देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥ कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥ भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृन्द समेता ॥ बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए ॥ दो. सङ्ग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति। चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ 214 ॥ कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥ बिप्रबृन्द सब सादर बन्दे। जानि भाग्य बड़ राउ अनन्दे ॥ कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥ तेहि अवसर आए दौ भाई। गे रहे देखन फुलवाई ॥ स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥ उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥ भे सब सुखी देखि दौ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥ मूरति मधुर मनोहर देखी। भयु बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥ दो. प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ 215 ॥ कहहु नाथ सुन्दर दौ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥ सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चन्द चकोरा ॥ ताते प्रभु पूछुँ सतिभ्AU। कहहु नाथ जनि करहु दुर्AU ॥ इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥ कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥ ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥ रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए ॥ दो. रामु लखनु दौ बन्धुबर रूप सील बल धाम। मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम ॥ 216 ॥ मुनि तव चरन देखि कह र्AU। कहि न सकुँ निज पुन्य प्राभ्AU ॥ सुन्दर स्याम गौर दौ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता ॥ इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥ सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥ पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥ म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥ सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥ करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयु राउ गृह बिदा कराई ॥ दो. रिषय सङ्ग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु। बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ 217 ॥ लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥ प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीम् ॥ राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई ॥ नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीम् ॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥ सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥ धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥ दो. जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दौ भाइ। करहु सुफल सब के नयन सुन्दर बदन देखाइ ॥ 218 ॥ मासपारायण, आठवाँ विश्राम नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम मुनि पद कमल बन्दि दौ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता ॥ बालक बृन्दि देखि अति सोभा। लगे सङ्ग लोचन मनु लोभा ॥ पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा ॥ तन अनुहरत सुचन्दन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥ केहरि कन्धर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला ॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयङ्क तापत्रय मोचन ॥ कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीम् ॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥ दो. रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस। नख सिख सुन्दर बन्धु दौ सोभा सकल सुदेस ॥ 219 ॥ देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिंह पाए ॥ धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रङ्क निधि लूटन लागी ॥ निरखि सहज सुन्दर दौ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥ जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीम् ॥ कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥ सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीम् ॥ बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी ॥ अपर देउ अस कौ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥ दो. बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम । अङ्ग अङ्ग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ 220 ॥ कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी ॥ कौ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥ ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥ मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥ स्याम गात कल कञ्ज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥ कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी ॥ गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछेम् ॥ लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥ दो. बिप्रकाजु करि बन्धु दौ मग मुनिबधू उधारि। आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ 221 ॥ देखि राम छबि कौ एक कही। जोगु जानकिहि यह बरु अही ॥ जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करि बिबाहू ॥ कौ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने ॥ सखि परन्तु पनु राउ न तजी। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजी ॥ कौ कह जौं भल अहि बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥ तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू ॥ जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥ सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातेम् ॥ दो. नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि। यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ 222 ॥ बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥ कौ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ सबु असमञ्जस अहि सयानी। यह सुनि अपर कहि मृदु बानी ॥ सखि इन्ह कहँ कौ कौ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीम् ॥ परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥ सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरेम् ॥ जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥ तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ हौ कहहिं मुदु बानी ॥ दो. हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द। जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दौ तहँ तहँ परमानन्द ॥ 223 ॥ पुर पूरब दिसि गे दौ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥ अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥ चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥ तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा ॥ कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥ तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए ॥ जहँ बैण्ठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥ पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥ दो. सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात। तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दौ भ्रात ॥ 224 ॥ सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने ॥ निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दौ भाई ॥ राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥ लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचि जासु अनुसासन माया ॥ भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला ॥ कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलम्बु त्रास मन माहीम् ॥ जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥ कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई ॥ दो. सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दौ भाइ। गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ 225 ॥ निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा ॥ कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥ मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दौ भाई ॥ जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥ तेइ दौ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥ बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥ चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥ पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़ए धरि उर पद जलजाता ॥ दो. उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥ गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ 226 ॥ सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥ समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दौ भाई ॥ भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई ॥ लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना ॥ नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए ॥ चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥ मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥ बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा ॥ दो. बागु तड़आगु बिलोकि प्रभु हरषे बन्धु समेत। परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ 227 ॥ चहुँ दिसि चिति पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥ तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥ सङ्ग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी ॥ सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥ मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गी मुदित मन गौरि निकेता ॥ पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥ एक सखी सिय सङ्गु बिहाई। गी रही देखन फुलवाई ॥ तेहि दौ बन्धु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥ दो. तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन। कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥ 228 ॥ देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥ स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥ सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकण्ठा जानी ॥ एक कहि नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली ॥ जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥ बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥ तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने ॥ चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखि न कोई ॥ दो. सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥ चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ 229 ॥ कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥ मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥ अस कहि फिरि चिते तेहि ओरा। सिय मुख ससि भे नयन चकोरा ॥ भे बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल ॥ देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥ जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥ सुन्दरता कहुँ सुन्दर करी। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरी ॥ सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥ दो. सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ 230 ॥ तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥ पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरि फुलवाई ॥ जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥ सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अङ्ग सुनु भ्राता ॥ रघुबंसिंह कर सहज सुभ्AU। मनु कुपन्थ पगु धरि न क्AU ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥ मङ्गन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीम् ॥ दो. करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान। मुख सरोज मकरन्द छबि करि मधुप इव पान ॥ 231 ॥ चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गे नृपकिसोर मनु चिन्ता ॥ जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥ लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥ देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥ थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषेम् ॥ अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥ जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥ दो. लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दौ भाइ। निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ 232 ॥ सोभा सीवँ सुभग दौ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा ॥ मोरपङ्ख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥ भाल तिलक श्रमबिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥ बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे ॥ चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला ॥ मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीम् ॥ उर मनि माल कम्बु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥ सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥ दो. केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान। देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ 233 ॥ धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी ॥ बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥ सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दौ रघुसिङ्घ निहारे ॥ नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥ परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयु गहरु सब कहहि सभीता ॥ पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली ॥ गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयु बिलम्बु मातु भय मानी ॥ धरि बड़इ धीर रामु उर आने। फिरि अपनपु पितुबस जाने ॥ दो. देखन मिस मृग बिहग तरु फिरि बहोरि बहोरि। निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ 234 ॥ जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति ॥ प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥ परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ॥ गी भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी ॥ जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी ॥ जय गज बदन षड़आनन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥ नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥ भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥ दो. पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ 235 ॥ सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी ॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥ मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही केम् ॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीम् ॥ बिनय प्रेम बस भी भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी ॥ सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥ सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥ नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥ छं. मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥ एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥ सो. जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मञ्जुल मङ्गल मूल बाम अङ्ग फरकन लगे ॥ 236 ॥ हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दौ भाई ॥ राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीम् ॥ सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥ सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भे सुखारे ॥ करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥ बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। सन्ध्या करन चले दौ भाई ॥ प्राची दिसि ससि उयु सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥ बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीम् ॥ दो. जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क। सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क ॥ 237 ॥ घटि बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसि राहु निज सन्धिहिं पाई ॥ कोक सिकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही ॥ बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ॥ सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़इ जानी ॥ करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥ बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे ॥ उदु अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता ॥ बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥ दो. अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन। जिमि तुम्हार आगमन सुनि भे नृपति बलहीन ॥ 238 ॥ नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥ कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना ॥ ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥ उयु भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥ रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥ तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥ बन्धु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥ नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥ सतानन्दु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥ जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दौ भाई ॥ दो. सतानन्दअ बन्दि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ। चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ 239 ॥ सीय स्वयम्बरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़आई ॥ लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई ॥ हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥ पुनि मुनिबृन्द समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला ॥ रङ्गभूमि आए दौ भाई। असि सुधि सब पुरबासिंह पाई ॥ चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी ॥ देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू ॥ दो. कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि। उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ 240 ॥ राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥ गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर स्यामल गौर सरीरा ॥ राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥ देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥ रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥ पुरबासिंह देखे दौ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई ॥ दो. नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप। जनु सोहत सिङ्गार धरि मूरति परम अनूप ॥ 241 ॥ बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसेम् ॥ सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा। सान्त सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥ हरिभगतन्ह देखे दौ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥ उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भ्AU। तेहिं तस देखेउ कोसलर्AU ॥ दो. राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर। सुन्दर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ 242 ॥ सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद चन्द निन्दक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के ॥ चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥ कल कपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला ॥ कुमुदबन्धु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीम् ॥ पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईम् ॥ रेखें रुचिर कम्बु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥ दो. कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल। बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ 243 ॥ कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए ॥ देखि लोग सब भे सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे जनकु देखि दौ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥ करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥ निज निज रुख रामहि सबु देखा। कौ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥ दो. सब मञ्चन्ह ते मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल। मुनि समेत दौ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल ॥ 244 ॥ प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भेँ तारे ॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीम् ॥ बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला ॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥ बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी ॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥ एक बार कालु किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने ॥ सो. सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥ जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ 245 ॥ ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता ॥ जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥ सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दौ बन्धु सम्भु उर बासी ॥ सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥ अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे ॥ देखहिं सुर नभ चढ़ए बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥ दो. जानि सुअवसरु सीय तब पठी जनक बोलाई। चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं लवाईम् ॥ 246 ॥ सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी ॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीम् ॥ सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥ जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥ गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥ बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥ जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई ॥ सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू ॥ दो. एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल। तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ 247 ॥ चलिं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी ॥ सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥ भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए ॥ रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी ॥ हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥ पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चिते सकल भुआला ॥ सीय चकित चित रामहि चाहा। भे मोहबस सब नरनाहा ॥ मुनि समीप देखे दौ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥ दो. गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥ लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ 248 ॥ राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषेम् ॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीम् ॥ हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई ॥ बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू ॥ जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अन्तहुँ उर दाहू ॥ एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू ॥ तब बन्दीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए ॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥ दो. बोले बन्दी बचन बर सुनहु सकल महिपाल। पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ 249 ॥ नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥ रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥ सोइ पुरारि कोदण्डु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा ॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरि हठि तेही ॥ सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे ॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥ तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठि न कोटि भाँति बलु करहीम् ॥ जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीम् ॥ दो. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठि न चलहिं लजाइ। मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ 250 ॥ भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरि न टारा ॥ डगि न सम्भु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसेम् ॥ सब नृप भे जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी ॥ कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी ॥ श्रीहत भे हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा ॥ नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने ॥ दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥ देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा ॥ दो. कुअँरि मनोहर बिजय बड़इ कीरति अति कमनीय। पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ 251 ॥ कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढ़आवा ॥ रहु चढ़आउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़आई ॥ अब जनि कौ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी ॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥ सुकृत जाइ जौं पनु परिहरूँ। कुअँरि कुआरि रहु का करूँ ॥ जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥ जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भे दुखारी ॥ माखे लखनु कुटिल भिँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहेम् ॥ दो. कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान। नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ 252 ॥ रघुबंसिंह महुँ जहँ कौ होई। तेहिं समाज अस कहि न कोई ॥ कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥ सुनहु भानुकुल पङ्कज भानू। कहुँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥ जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौम् ॥ काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकुँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥ तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना ॥ नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥ कमल नाल जिमि चाफ चढ़आवौं। जोजन सत प्रमान लै धावौम् ॥ दो. तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ। जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ 253 ॥ लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥ सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥ गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भे पुनि पुनि पुलकाहीम् ॥ सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे ॥ बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी ॥ उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा ॥ सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥ ठाढ़ए भे उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥ दो. उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग। बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग ॥ 254 ॥ नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी ॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ॥ भे बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥ गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥ सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी ॥ चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भे सुखारी ॥ बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥ तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईम् ॥ दो. रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ। सीता मातु सनेह बस बचन कहि बिलखाइ ॥ 255 ॥ सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे ॥ कौ न बुझाइ कहि गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीम् ॥ रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा ॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीम् ॥ भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी ॥ कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥ रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥ दो. मन्त्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब। महामत्त गजराज कहुँ बस कर अङ्कुस खर्ब ॥ 256 ॥ काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥ देबि तजिअ संसु अस जानी। भञ्जब धनुष रामु सुनु रानी ॥ सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ई अति प्रीती ॥ तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥ मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥ करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥ गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥ बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥ दो. देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ 257 ॥ नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥ अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥ सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥ सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि सम्भुचाप गति तोरी ॥ निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥ अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीम् ॥ दो. प्रभुहि चिति पुनि चितव महि राजत लोचन लोल। खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल ॥ 258 ॥ गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥ लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना ॥ सकुची ब्याकुलता बड़इ जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥ तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥ तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलि न कछु संहेहू ॥ प्रभु तन चिति प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना ॥ सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥ दो. लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु। पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु ॥ 259 ॥ दिसकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥ रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥ चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥ सब कर संसु अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू ॥ भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥ सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥ सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई ॥ राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहि कौ कड़हारू ॥ दो. राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि। चिती सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ 260 ॥ देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही ॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करि का सुधा तड़आगा ॥ का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानेम् ॥ अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥ गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥ दमकेउ दामिनि जिमि जब लयू। पुनि नभ धनु मण्डल सम भयू ॥ लेत चढ़आवत खैञ्चत गाढ़एं। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़एम् ॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥ छं. भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदण्ड खण्डेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥ सो. सङ्कर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु। बूड़ सो सकल समाजु चढ़आ जो प्रथमहिं मोह बस ॥ 261 ॥ प्रभु दौ चापखण्ड महि डारे। देखि लोग सब भे सुखारे ॥ कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥ रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥ बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना ॥ ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥ बरिसहिं सुमन रङ्ग बहु माला। गावहिं किन्नर गीत रसाला ॥ रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभङ्ग धुनि जात न जानी ॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भञ्जेउ राम सम्भुधनु भारी ॥ दो. बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर। करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ 262 ॥ झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई ॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए ॥ सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई ॥ श्रीहत भे भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥ रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसेम् ॥ सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥ दो. सङ्ग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मङ्गलचार। गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार ॥ 263 ॥ सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसेम् ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥ तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परि न काहू ॥ जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥ चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥ सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली ॥ सो. रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ 264 ॥ पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भे मलिन साधु सब राजे ॥ सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥ नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीम् ॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरदावलि उच्चरहीम् ॥ महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा ॥ करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥ सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी ॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता ॥ दो. गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि। मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ 265 ॥ तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥ लेहु छड़आइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरी। जीवत हमहि कुअँरि को बरी ॥ जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दौ भाई ॥ साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी ॥ बलु प्रतापु बीरता बड़आई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥ दो. देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु। लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ 266 ॥ बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही ॥ लोभी लोलुप कल कीरति चही। अकलङ्कता कि कामी लही ॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥ कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गीं जहँ रानी ॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीम् ॥ रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीम् ॥ दो. अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप। मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप ॥ 267 ॥ खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीम् ॥ तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भङ्गा। आयसु भृगुकुल कमल पतङ्गा ॥ देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा ॥ सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥ बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधेम् ॥ दो. सान्त बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप। धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयु जहँ सब भूप ॥ 268 ॥ देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दण्ड प्रनामा ॥ जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानि जनु आइ खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥ आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गी सयानीम् ॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दौ भाई ॥ रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥ रामहि चिति रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन ॥ दो. बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ 269 ॥ समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए ॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखण्ड महि डारे ॥ अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटुँ महि जहँ लहि तव राजू ॥ अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीम् ॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥ मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता ॥ दो. सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु। हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ 270 ॥ मासपारायण, नवाँ विश्राम नाथ सम्भुधनु भञ्जनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥ आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥ सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई ॥ सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा ॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने ॥ बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईम् ॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥ दो. रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥ धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ 271 ॥ लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना ॥ का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरेम् ॥ छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू । बोले चिति परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥ बालकु बोलि बधुँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही ॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥ दो. मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ 272 ॥ बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी ॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़आवन फूँकि पहारू ॥ इहाँ कुम्हड़बतिया कौ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीम् ॥ देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥ भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहुँ रिस रोकी ॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई ॥ बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारेम् ॥ कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥ दो. जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर ॥ 273 ॥ कौसिक सुनहु मन्द यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु ॥ भानु बंस राकेस कलङ्कू। निपट निरङ्कुस अबुध असङ्कू ॥ काल कवलु होइहि छन माहीं। कहुँ पुकारि खोरि मोहि नाहीम् ॥ तुम्ह हटकु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥ लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा ॥ अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी ॥ नहिं सन्तोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥ बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा ॥ दो. सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥ 274 ॥ तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा ॥ सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥ अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू ॥ बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥ कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥ खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥ उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारेम् ॥ न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरेम् ॥ दो. गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरि सूझ। अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ 275 ॥ कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा ॥ माता पितहि उरिन भे नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकेम् ॥ सो जनु हमरेहि माथे काढ़आ। दिन चलि गे ब्याज बड़ बाढ़आ ॥ अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥ सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा ॥ भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचुँ नृपद्रोही ॥ मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़ए। द्विज देवता घरहि के बाढ़ए ॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥ दो. लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु। बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ 276 ॥ नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥ जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना ॥ जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीम् ॥ करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ॥ राम बचन सुनि कछुक जुड़आने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने ॥ हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी ॥ गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीम् ॥ सहज टेढ़ अनुहरि न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीम् ॥ दो. लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥ 277 ॥ मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया ॥ टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने ॥ जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कौ बड़ गुनी बोलाई ॥ बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीम् ॥ थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरि होइ बल हानी ॥ बोले रामहि देइ निहोरा। बचुँ बिचारि बन्धु लघु तोरा ॥ मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैम् ॥ दो. सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम। गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ॥ 278 ॥ अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी ॥ सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना ॥ बररै बालक एकु सुभ्AU। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं क्AU ॥ तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥ कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई ॥ कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई ॥ कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसेम् ॥ एहि के कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा ॥ दो. गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। परसु अछत देखुँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ 279 ॥ बहि न हाथु दहि रिस छाती। भा कुठारु कुण्ठित नृपघाती ॥ भयु बाम बिधि फिरेउ सुभ्AU। मोरे हृदयँ कृपा कसि क्AU ॥ आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा ॥ बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला ॥ जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भेँ तनु राख बिधाता ॥ देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥ बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा ॥ बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कौ नाहीम् ॥ दो. परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु। सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥ 280 ॥ बन्धु कहि कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरेम् ॥ करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ॥ छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारुँ तोही ॥ भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ ॥ गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥ टेढ़ जानि सब बन्दि काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसि न राहू ॥ राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा ॥ जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी ॥ दो. प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु। बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥ 281 ॥ देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥ नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥ जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईम् ॥ छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥ हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥ राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥ देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारेम् ॥ सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥ दो. बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम। बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धु सम बाम ॥ 282 ॥ निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावुँ तोही ॥ चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु ॥ समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भे पसु आई ॥ मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥ मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरेम् ॥ भञ्जेउ चापु दापु बड़ बाढ़आ। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़आ ॥ राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़इ लघु चूक हमारी ॥ छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥ दो. जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ। तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥ 283 ॥ देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक हौ बलवाना ॥ जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥ छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलङ्कु तेहिं पावँर आना ॥ कहुँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥ बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥ सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के ॥ राम रमापति कर धनु लेहू। खैञ्चहु मिटै मोर सन्देहू ॥ देत चापु आपुहिं चलि गयू। परसुराम मन बिसमय भयू ॥ दो. जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥ 284 ॥ जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥ जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥ बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर ॥ सेवक सुखद सुभग सब अङ्गा। जय सरीर छबि कोटि अनङ्गा ॥ करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा ॥ अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामन्दिर दौ भ्राता ॥ कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गे बनहि तप हेतू ॥ अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥ दो. देवन्ह दीन्हीं दुन्दुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल। हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥ 285 ॥ अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मङ्गल साजे ॥ जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥ सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥ गत त्रास भि सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥ जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भञ्जेउ रामा ॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥ कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना ॥ टूटतहीं धनु भयु बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥ दो. तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु। बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ 286 ॥ दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥ मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठे दूत बोलि तेहि काला ॥ बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥ हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥ हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥ रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥ पठे बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥ बिधिहि बन्दि तिन्ह कीन्ह अरम्भा। बिरचे कनक कदलि के खम्भा ॥ दो. हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल। रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरञ्चि कर भूल ॥ 287 ॥ बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥ कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परि सपरन सुहाई ॥ तेहि के रचि पचि बन्ध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥ मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥ किए भृङ्ग बहुरङ्ग बिहङ्गा। गुञ्जहिं कूजहिं पवन प्रसङ्गा ॥ सुर प्रतिमा खम्भन गढ़ई काढ़ई। मङ्गल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ई ॥ चौङ्कें भाँति अनेक पुराईं। सिन्धुर मनिमय सहज सुहाई ॥ दो. सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥ हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥ 288 ॥ रचे रुचिर बर बन्दनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे ॥ मङ्गल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥ दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥ जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही ॥ दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥ जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥ जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥ जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥ दो. बसि नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥ तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥ 289 ॥ पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥ भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥ करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥ बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती ॥ रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गे कहत न खाटी मीठी ॥ पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची ॥ खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई ॥ पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई ॥ दो. कुसल प्रानप्रिय बन्धु दौ अहहिं कहहु केहिं देस। सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ 290 ॥ सुनि पाती पुलके दौ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता ॥ प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥ तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे ॥ भैया कहहु कुसल दौ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥ स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥ पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभ्AU। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह र्AU ॥ जा दिन तें मुनि गे लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥ कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥ दो. सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कौ। रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दौ ॥ 291 ॥ पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिङ्घ तिहु पुर उजिआरे ॥ जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥ तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥ सीय स्वयम्बर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका ॥ सम्भु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा ॥ तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति सम्भु धनु भानी ॥ सकि उठाइ सरासुर मेरू। सौ हियँ हारि गयु करि फेरू ॥ जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सौ तेहि सभाँ पराभु पावा ॥ दो. तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल। भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल ॥ 292 ॥ सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥ देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥ राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसेम् ॥ कम्पहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकेम् ॥ देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥ दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥ सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥ कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥ दो. तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥ 293 ॥ सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥ जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीम् ॥ तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥ तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥ सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयु न है कौ होनेउ नाहीम् ॥ तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकेम् ॥ बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी ॥ तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना ॥ दो. चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥ 294 ॥ राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥ सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीम् ॥ प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥ मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनन्द मगन महतारीम् ॥ लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़आवहिं छाती ॥ राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी ॥ मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥ दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता ॥ सो. जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि। चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥ 295 ॥ कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना ॥ समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए ॥ भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥ सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥ जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मङ्गलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई ॥ ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू ॥ कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला ॥ दो. मङ्गलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ। बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ 296 ॥ जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥ बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥ गावहिं मङ्गल मञ्जुल बानीं। सुनिकल रव कलकण्ठि लजानीम् ॥ भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥ मङ्गल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना ॥ कतहुँ बिरिद बन्दी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीम् ॥ गावहिं सुन्दरि मङ्गल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता ॥ बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥ दो. सोभा दसरथ भवन कि को कबि बरनै पार। जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥ 297 ॥ भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यन्दन साजहु जाई ॥ चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दौ भ्राता ॥ भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥ रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥ सुभग सकल सुठि चञ्चल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी ॥ नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़आने ॥ तिन्ह सब छयल भे असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा ॥ सब सुन्दर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी ॥ दो. छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन। जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥ 298 ॥ बाँधे बिरद बीर रन गाढ़ए। निकसि भे पुर बाहेर ठाढ़ए ॥ फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥ रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥ चवँर चारु किङ्किन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीम् ॥ सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥ सुन्दर सकल अलङ्कृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥ जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥ अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥ दो. चढ़इ चढ़इ रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात। होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ 299 ॥ कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीम् ॥ चले मत्तगज घण्ट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥ बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥ तिन्ह चढ़इ चले बिप्रबर वृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छन्दा ॥ मागध सूत बन्दि गुनगायक। चले जान चढ़इ जो जेहि लायक ॥ बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥ कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥ चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई ॥ दो. सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दौ बीर ॥ 300 ॥ गरजहिं गज घण्टा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा ॥ निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥ महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारेम् ॥ चढ़ई अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मङ्गल थारी ॥ गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनन्दु न जाइ बखाना ॥ तब सुमन्त्र दुइ स्पन्दन साजी। जोते रबि हय निन्दक बाजी ॥ दौ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥ राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुञ्ज अति भ्राजा ॥ दो. तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़आइ नरेसु। आपु चढ़एउ स्पन्दन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥ 301 ॥ सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर सङ्ग पुरन्दर जैसेम् ॥ करि कुल रीति बेद बिधि र्AU। देखि सबहि सब भाँति बन्AU ॥ सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति सङ्ख बजाई ॥ हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमङ्गल दाता ॥ भयु कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे ॥ सुर नर नारि सुमङ्गल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ घण्ट घण्टि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीम् ॥ करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना । दो. तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदङ्ग निसान ॥ नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥ 302 ॥ बनि न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुन्दर सुभदाता ॥ चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मङ्गल कहि देई ॥ दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी ॥ लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मङ्गल गन जनु दीन्हि देखाई ॥ छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥ सनमुख आयु दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥ दो. मङ्गलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार। जनु सब साचे होन हित भे सगुन एक बार ॥ 303 ॥ मङ्गल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकेम् ॥ राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥ सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरञ्चि हम साँचे ॥ एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना ॥ आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥ बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस सम्पदा छाए ॥ असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए ॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मन्दिर भूले ॥ दो. आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान। सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥ 304 ॥ मासपारायण,दसवाँ विश्राम कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥ भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥ फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेण्ट हित भूप पठाईम् ॥ भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥ मङ्गल सगुन सुगन्ध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥ दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥ अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनन्दु पुलक भर गाता ॥ देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥ दो. हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनन्द समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥ 305 ॥ बरषि सुमन सुर सुन्दरि गावहिं। मुदित देव दुन्दुभीं बजावहिम् ॥ बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागेम् ॥ प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥ करि पूजा मान्यता बड़आई। जनवासे कहुँ चले लवाई ॥ बसन बिचित्र पाँवड़ए परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीम् ॥ अति सुन्दर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥ जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥ हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनी करन पठाई ॥ दो. सिधि सब सिय आयसु अकनि गीं जहाँ जनवास। लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥ 306 ॥ निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥ बिभव भेद कछु कौ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना ॥ सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥ पितु आगमनु सुनत दौ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई ॥ सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीम् ॥ बिस्वामित्र बिनय बड़इ देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी ॥ हरषि बन्धु दौ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए ॥ चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥ दो. भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत ॥ 307 ॥ मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा ॥ कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई ॥ पुनि दण्डवत करत दौ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥ सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे ॥ पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥ बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईम् ॥ भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥ हरषे लखन देखि दौ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥ दो. पुरजन परिजन जातिजन जाचक मन्त्री मीत। मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ 308 ॥ रामहि देखि बरात जुड़आनी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥ नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥ सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥ सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥ सतानन्द अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बन्दीजन ॥ सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना ॥ प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥ ब्रह्मानन्दु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीम् ॥ दो. रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दौ राज। जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥ ।309 ॥ जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥ इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥ इन्ह सम कौ न भयु जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीम् ॥ हम सब सकल सुकृत कै रासी। भे जग जनमि जनकपुर बासी ॥ जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥ पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥ कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीम् ॥ बड़एं भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दौ भाई ॥ दो. बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय। लेन आइहहिं बन्धु दौ कोटि काम कमनीय ॥ 310 ॥ बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥ तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥ सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग दुइ ढोटा ॥ स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए ॥ कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे ॥ भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥ लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा ॥ मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कौ नाहीम् ॥ छं. उपमा न कौ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैम् ॥ पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीम् ॥ ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीम् ॥ सो. कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन। सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दौ ॥ 311 ॥ एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीम् ॥ जे नृप सीय स्वयम्बर आए। देखि बन्धु सब तिन्ह सुख पाए ॥ कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गे महिपाला ॥ गे बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥ मङ्गल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥ ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥ पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥ सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥ दो. धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल। बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥ 312 ॥ उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा ॥ सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए ॥ सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे ॥ सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥ लेन चले सादर एहि भाँती। गे जहाँ जनवास बराती ॥ कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥ भयु समु अब धारिअ प्AU। यह सुनि परा निसानहिं घ्AU ॥ गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा ॥ दो. भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥ 313 ॥ सुरन्ह सुमङ्गल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥ सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़ए बिमानन्हि नाना जूथा ॥ प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू ॥ देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥ चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना ॥ नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥ तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भे नखत जनु बिधु उजिआरीम् ॥ बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥ दो. सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥ 314 ॥ जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमङ्गल मूल नसाहीम् ॥ करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥ एहि बिधि सम्भु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा ॥ देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता ॥ साधु समाज सङ्ग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥ सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥ मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥ पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥ दो. राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥ 315 ॥ केकि कण्ठ दुति स्यामल अङ्गा। तड़इत बिनिन्दक बसन सुरङ्गा ॥ ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मङ्गल सब सब भाँति सुहाए ॥ सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन ॥ सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥ बन्धु मनोहर सोहहिं सङ्गा। जात नचावत चपल तुरङ्गा ॥ राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिम् ॥ जेहि तुरङ्ग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥ कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥ छं. जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोही। आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोही ॥ जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किङ्किनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥ दो. प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गन तड़इत घनु जनु बर बरहि नचाव ॥ 316 ॥ जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदु न बरनै पारा ॥ सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे ॥ हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे ॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठि नयन जानि पछिताने ॥ सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥ रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना ॥ देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कौ नाहीम् ॥ मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥ छं. अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी। बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥ एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीम् ॥ दो. सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि। चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ 317 ॥ बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥ पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥ सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ ॥ कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिम् ॥ बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा ॥ सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥ कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥ करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥ छं. को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली। कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥ आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भी ॥ अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छी ॥ दो. जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु। सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥ 318 ॥ नयन नीरु हटि मङ्गल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥ बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥ पञ्च सबद धुनि मङ्गल गाना। पट पाँवड़ए परहिं बिधि नाना ॥ करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मण्डप तब कीन्हा ॥ दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥ समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सान्ति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥ नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनि न कोई ॥ एहि बिधि रामु मण्डपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए ॥ छं. बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीम् ॥ मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मङ्गल गावहीम् ॥ ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीम् ॥ दो. न्AU बारी भाट नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ 319 ॥ मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीम् ॥ मिलत महा दौ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥ लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥ सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥ जगु बिरञ्चि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तेम् ॥ सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू ॥ देव गिरा सुनि सुन्दर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥ देत पाँवड़ए अरघु सुहाए। सादर जनकु मण्डपहिं ल्याए ॥ छं. मण्डपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥ निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिङ्घासन धरे ॥ कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥ दो. बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस। दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥ 320 ॥ बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥ कीन्ह जोरि कर बिनय बड़आई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥ पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती ॥ आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू ॥ सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी ॥ बिधि हरि हरु दिसिपति दिनर्AU। जे जानहिं रघुबीर प्रभ्AU ॥ कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥ पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानेम् ॥ छं. पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भी। आनन्द कन्दु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मी ॥ सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दे। अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भे ॥ दो. रामचन्द्र मुख चन्द्र छबि लोचन चारु चकोर। करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर ॥ 321 ॥ समु बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानन्दु सुनि आए ॥ बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई ॥ रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी ॥ बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमङ्गल गाईम् ॥ नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा ॥ तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीम् ॥ बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी ॥ सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मण्डपहिं चलीं लवाई ॥ छं. चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमङ्गल भामिनीं। नवसप्त साजें सुन्दरी सब मत्त कुञ्जर गामिनीम् ॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मञ्जीर नूपुर कलित कङ्कन ताल गती बर बाजहीम् ॥ दो. सोहति बनिता बृन्द महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ 322 ॥ सिय सुन्दरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई ॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥ सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भे पूरनकामा ॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥ सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मङ्गल मूला ॥ गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥ एहि बिधि सीय मण्डपहिं आई। प्रमुदित सान्ति पढ़हिं मुनिराई ॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥ छं. आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं। सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीम् ॥ मधुपर्क मङ्गल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं। भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैम् ॥ 1 ॥ कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो। एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिङ्घासनु दियो ॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ 2 ॥ दो. होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं। बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिम् ॥ 323 ॥ जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥ सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई ॥ समु जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥ जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनि जनु मयना ॥ कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुङ्गध मङ्गल जल पूरे ॥ निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी ॥ पढ़हिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥ बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे ॥ छं. लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली। नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं। जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीम् ॥ 1 ॥ जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमी। मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनी ॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं। ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ 2 ॥ बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दौ कुलगुर करैं। भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैम् ॥ सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो। करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ 3 ॥ हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दी। तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नी ॥ क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी। करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ 4 ॥ दो. जय धुनि बन्दी बेद धुनि मङ्गल गान निसान। सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ 324 ॥ कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीम् ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीम् ॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥ राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन माहीम् । मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा ॥ दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥ भे मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे ॥ प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीम् ॥ राम सीय सिर सेन्दुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीम् ॥ अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी केम् ॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥ छं. बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भे। तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल ने ॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मङ्गलु महा ॥ 1 ॥ तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लीं हँकारि के ॥ कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामी। सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दी ॥ 2 ॥ जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दरि सिरोमनि जानि कै। सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥ जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी। सो दी रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ 3 ॥ अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं। सब मुदित सुन्दरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीम् ॥ सुन्दरी सुन्दर बरन्ह सह सब एक मण्डप राजहीं। जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीम् ॥ 4 ॥ दो. मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि। जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ 325 ॥ जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥ कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी ॥ कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥ गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी ॥ बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥ लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥ दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥ तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी ॥ छं. सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़आइ कै। प्रमुदित महा मुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लड़आइ कै ॥ सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ। सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ ॥ 1 ॥ कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों। बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सोम् ॥ सम्बन्ध राजन रावरें हम बड़ए अब सब बिधि भे। एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ ले ॥ 2 ॥ ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नी। अपराधु छमिबो बोलि पठे बहुत हौं ढीट्यो की ॥ पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए। कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ 3 ॥ बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले। दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥ तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ 4 ॥ दो. पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न। हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ 326 ॥ मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन ॥ जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥ पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥ कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर ॥ पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥ सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे ॥ पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥ नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निधाना ॥ सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥ सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे ॥ छं. गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं। पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीम् ॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहिं। सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीम् ॥ 1 ॥ कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै। अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै ॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं। रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैम् ॥ 2 ॥ निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥ कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं। बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीम् ॥ 3 ॥ तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा। चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी। चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ 4 ॥ दो. सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास। सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ 327 ॥ पुनि जेवनार भी बहु भाँती। पठे जनक बोलाइ बराती ॥ परत पाँवड़ए बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥ सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥ धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥ बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥ तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी ॥ आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥ सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे ॥ दो. सूपोदन सुरभी सरपि सुन्दर स्वादु पुनीत। छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ 328 ॥ पञ्च कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥ भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥ परुसन लगे सुआर सुजाना। बिञ्जन बिबिध नाम को जाना ॥ चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई ॥ छरस रुचिर बिञ्जन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती ॥ जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥ समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥ एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥ दो. देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज। जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ 329 ॥ नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीम् ॥ बड़ए भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे ॥ देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीम् ॥ करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥ तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयुँ आजु मैं पूरनकाजा ॥ अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥ सुनि गुर करि महिपाल बड़आई। पुनि पठे मुनि बृन्द बोलाई ॥ दो. बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि। आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ 330 ॥ दण्ड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥ चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई ॥ सब बिधि सकल अलङ्कृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीम् ॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥ पाइ असीस महीसु अनन्दा। लिए बोलि पुनि जाचक बृन्दा ॥ कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनन्दन ॥ चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥ एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकि न बरनि सहस मुख जाहू ॥ दो. बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ। यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ 331 ॥ जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥ नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥ नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥ बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥ कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥ अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़इ न सकहु सनेहू ॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥ दो. अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ। भे प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ 332 ॥ पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता ॥ सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥ जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना ॥ भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठी जनक अनेक सुसारा ॥ तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥ मत्त सहस दस सिन्धुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुञ्जर लाजे ॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥ दो. दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि। जो अवलोकत लोकपति लोक सम्पदा थोरि ॥ 333 ॥ सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥ चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीम् ॥ पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीम् ॥ होएहु सन्तत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी ॥ सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥ अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥ सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई ॥ बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरञ्चि रचीं कत नारीम् ॥ दो. तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु। चले जनक मन्दिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ 334 ॥ चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए ॥ कौ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥ लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥ को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥ मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥ पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥ निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥ एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गे कुअँर सब राज निकेता ॥ दो. रूप सिन्धु सब बन्धु लखि हरषि उठा रनिवासु। करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ 335 ॥ देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीम् ॥ रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥ भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥ बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी ॥ राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥ मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू ॥ सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥ हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौम्पि बिनती अति कीन्ही ॥ छं. करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै। बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥ परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी। तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किङ्करी करि मानिबी ॥ सो. तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ 336 ॥ अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पङ्क जनु गिरा समानी ॥ सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥ राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥ पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥ मञ्जु मधुर मूरति उर आनी। भी सनेह सिथिल सब रानी ॥ पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीम् ॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ई परस्पर प्रीति न थोरी ॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥ दो. प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु। मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥ 337 ॥ सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढ़आए ॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरि न केही ॥ भे बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥ बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥ सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी ॥ लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की ॥ समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥ बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुन्दर पालकीं मगाई ॥ दो. प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस। कुँअरि चढ़आई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥ 338 ॥ बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥ दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥ सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मङ्गल रासी ॥ भूसुर सचिव समेत समाजा। सङ्ग चले पहुँचावन राजा ॥ समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥ दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे ॥ चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा ॥ सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मङ्गलमूल सगुन भे नाना ॥ दो. सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥ 339 ॥ नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे ॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़ए सब कीन्हे ॥ बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी ॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीम् ॥ पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़इ आए ॥ राउ बहोरि उतरि भे ठाढ़ए। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़ए ॥ तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥ करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़आई ॥ दो. कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति। मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥ 340 ॥ मुनि मण्डलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा ॥ सादर पुनि भेण्टे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥ जोरि पङ्करुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥ राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा ॥ करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥ ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानन्दु निरगुन गुनरासी ॥ मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥ महिमा निगमु नेति कहि कही। जो तिहुँ काल एकरस रही ॥ दो. नयन बिषय मो कहुँ भयु सो समस्त सुख मूल। सबि लाभु जग जीव कहँ भेँ ईसु अनुकुल ॥ 341 ॥ सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़आई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥ होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥ मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥ मै कछु कहुँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरेम् ॥ बार बार मागुँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरेम् ॥ सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे ॥ करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥ बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥ दो. मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस। भे परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥ 342 ॥ बार बार करि बिनय बड़आई। रघुपति चले सङ्ग सब भाई ॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥ सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरेम् ॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीम् ॥ सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई ॥ चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई ॥ रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी ॥ दो. बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत। अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥ 343 ॥ हने निसान पनव बर बाजे। भेरि सङ्ख धुनि हय गय गाजे ॥ झाँझि बिरव डिण्डमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥ निज निज सुन्दर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे ॥ गलीं सकल अरगजाँ सिञ्चाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई ॥ बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना ॥ सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदम्ब तमाला ॥ लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी ॥ दो. बिबिध भाँति मङ्गल कलस गृह गृह रचे सँवारि। सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥ 344 ॥ भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा ॥ मङ्गल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख सम्पदा सुहाई ॥ जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥ देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही ॥ जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि ॥ सकल सुमङ्गल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥ भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समु सुखु सोई ॥ कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीम् ॥ दो. दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी। प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥ 345 ॥ मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भे गाता ॥ राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीम् ॥ बिबिध बिधान बाजने बाजे। मङ्गल मुदित सुमित्राँ साजे ॥ हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मङ्गल मूला ॥ अच्छत अङ्कुर लोचन लाजा। मञ्जुल मञ्जरि तुलसि बिराजा ॥ छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥ सगुन सुङ्गध न जाहिं बखानी। मङ्गल सकल सजहिं सब रानी ॥ रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मङ्गल गाना ॥ दो. कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात। चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥ 346 ॥ धूप धूम नभु मेचक भयू। सावन घन घमण्डु जनु ठयू ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिम् ॥ मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥ प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥ दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा ॥ सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥ समु जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥ सुमिरि सम्भु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा ॥ दो. होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दुभीं बजाइ। बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ ॥ 347 ॥ मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥ जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी ॥ बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥ बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीम् ॥ पुरबासिंह तब राय जोहारे। देखत रामहि भे सुखारे ॥ करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥ आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी ॥ सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥ दो. एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर। मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥ 348 ॥ करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥ भूषन मनि पट नाना जाती ॥ करही निछावरि अगनित भाँती ॥ बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी ॥ पुनि पुनि सीय राम छबि देखी ॥ मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥ सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही ॥ बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥ देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीम् ॥ देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीम् ॥ दो. निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़ए देत। बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥ 349 ॥ चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥ तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे ॥ धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गलनिधि ॥ बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीम् ॥ बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीम् ॥ पावा परम तत्त्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु सन्तत रोगीम् ॥ जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा ॥ मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई ॥ दो. एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनन्दु ॥ भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचन्दु ॥ 350(क) ॥ लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं। मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिम् ॥ 350(ख) ॥ देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की ॥ सबहिं बन्दि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥ अन्तरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अञ्चल भरि लेंहीम् ॥ भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥ आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गे सब निज निज धामहि ॥ पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए ॥ जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥ सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना ॥ दो. देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ। तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥ 351 ॥ जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही ॥ भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी ॥ पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए ॥ आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे ॥ बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥ कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी ॥ भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू ॥ पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी ॥ दो. बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बन्दत गुर चरन देत असीस मुनीसु ॥ 352 ॥ बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत सम्पदा राखि सब आगेम् ॥ नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा ॥ उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ॥ बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई ॥ बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीम् ॥ नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीम् ॥ प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने ॥ देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू ॥ दो. चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ। कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ 353 ॥ सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू ॥ जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे ॥ लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकि भयु सुखु जेता ॥ बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीम् ॥ देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनन्द कियो बासू ॥ कहेउ भूप जिमि भयु बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू ॥ जनक राज गुन सीलु बड़आई। प्रीति रीति सम्पदा सुहाई ॥ बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी ॥ दो. सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति। भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पञ्च गि राति ॥ 354 ॥ मङ्गलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि ॥ अँचि पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगन्ध भूषित छबि छाए ॥ रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई ॥ प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़आई। समु समाजु मनोहरताई ॥ कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरञ्चि महेस गनेसू ॥ सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरि कि धरनी ॥ नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी ॥ बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई ॥ दो. लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ। अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ ॥ 355 ॥ भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए ॥ सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना ॥ उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीम् ॥ रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनि जान जेहिं जोवा ॥ सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़आए ॥ अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही ॥ देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता ॥ मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी ॥ दो. घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु ॥ मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ॥ 356 ॥ मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी ॥ मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई ॥ मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी ॥ कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा ॥ बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई ॥ सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे ॥ आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा ॥ जे दिन गे तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरञ्चि जनि पारहिं लेखेम् ॥ दो. राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन। सुमिरि सम्भु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन ॥ 357 ॥ नीदुँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना ॥ घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मङ्गल गारीम् ॥ पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी ॥ सुन्दर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई ॥ प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥ बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए ॥ बन्दि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता ॥ जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति सङ्ग द्वार पगु धारे ॥ दो. कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ ॥ 358 ॥ नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई ॥ देखि रामु सब सभा जुड़आनी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी ॥ पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए ॥ सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दौ गुर अनुरागे ॥ कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा ॥ मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी ॥ बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची ॥ सुनि आनन्दु भयु सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू ॥ दो. मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति। उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति ॥ 359 ॥ सुदिन सोधि कल कङ्कन छौरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे ॥ नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीम् ॥ बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीम् ॥ दिन दिन सयगुन भूपति भ्AU। देखि सराह महामुनिर्AU ॥ मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे ॥ नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी ॥ करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू ॥ अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी ॥ दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती ॥ रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई ॥ दो. राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु। जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु ॥ 360 ॥ बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी ॥ सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन र्AU। बरनत आपन पुन्य प्रभ्AU ॥ बहुरे लोग रजायसु भयू। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयू ॥ जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा ॥ आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसि अनन्द अवध सब तब तेम् ॥ प्रभु बिबाहँ जस भयु उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू ॥ कबिकुल जीवनु पावन जानी ॥ राम सीय जसु मङ्गल खानी ॥ तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी ॥ छं. निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो। रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो ॥ उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीम् ॥ सो. सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मङ्गलायतन राम जसु ॥ 361 ॥ मासपारायण, बारहवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः। (बालकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Ram Ashtakam (श्री राम अष्टकम्)
Shri Ram Ashtakam (श्री राम अष्टकम): श्री राम अष्टकम Lord Shri Ram को समर्पित है। Shri Ram Ashtakam की रचना Maharishi Vyasa ने की थी। इसमें Shri Vyasa Ji ने Lord Shri Ram का बहुत सुंदर वर्णन किया है। Shri Ram Ashtakam Sanskrit Language में लिखा गया है। यह Vyasa Muni की एक अद्भुत रचना है। Vyasa Muni इस Shri Ram Ashtakam में कहते हैं कि वे Lord Shri Ram की Worship करते हैं, क्योंकि Shri Ram अपने Devotees के सभी Sins को नष्ट कर देते हैं। Lord Ram हमेशा अपने Devotees को Blissful करते हैं। वे अपने Devotees' Fear को दूर करते हैं। वे True Knowledge के Giver हैं और हमेशा अपने Devotees को Blessings देते हैं। यह Shri Ram Ashtakam का संक्षिप्त अर्थ है। Shri Ram Lord Vishnu के Avatar हैं, जो Ravana के Destruction के लिए Earth पर आए थे। Hindu Tradition में, Lord Ram को Maryada Purushottam माना जाता है, जो Ideal Man हैं और जो Humanity's Perfection का Example प्रस्तुत करते हैं। Lord Krishna के साथ, वे Lord Vishnu के सबसे महत्वपूर्ण Avatars में से एक माने जाते हैं। Lord Vishnu को Dharma's Preserver और Hindu Trimurti का एक प्रमुख अंग माना जाता है। Rama-Centric Sects में, उन्हें Avatar के बजाय Supreme Being माना जाता है। वे Righteousness और Truthful Living के प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त, Lord Ram के दो अर्थ हैं – 1. वह जिन्होंने अपनी इच्छा से दशरथ पुत्र श्रीराम का मोहक रूप धारण किया। 2. Supreme Brahman, जो अनंत Blissful Spiritual Self हैं, जिनमें Yogis तल्लीन रहते हैं। Rishi Vyasa इस Shri Ram Ashtakam में कहते हैं कि वे Lord Ram की Worship करते हैं क्योंकि Shri Ram अपने Devotees' Sins को दूर कर देते हैं। Shri Ram हमेशा अपने Devotees को Happiness प्रदान करते हैं। वे अपने Devotees' Fear को नष्ट करते हैं। Lord Ram's Teachings हमें यह स्मरण कराती हैं कि Happiness and Sorrow, Fear and Anger, Gain and Loss, Life and Death – ये सभी Destiny के अधीन हैं। Shri Ram's Life and Journey हमें सिखाते हैं कि कैसे कठिनतम परिस्थितियों में भी Dharma का पालन करना चाहिए। वे Ideal Man और Perfect Human के रूप में चित्रित किए जाते हैं। Lord Ram ने अपने Gurus से अनेक Spiritual Practices (Sadhanas) सीखी थीं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि हमें अपने जीवन के हर क्षेत्र में Dharma और Guru का अनुसरण करना चाहिए।Ashtakam
Raghav Stuti (राघव स्तुति)
Shri Raghav Stuti (राघव स्तुति) भगवान Shri Ram की महिमा का गुणगान करने वाला एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। यह स्तुति श्रीराम के divine virtues, strength, compassion, और righteousness का वर्णन करती है। सनातन धर्म में श्रीराम को Maryada Purushottam कहा गया है, जो धर्म और आदर्शों के प्रतीक हैं। श्रीराम की भक्ति से peace, prosperity, और spiritual growth प्राप्त होती है। इस स्तुति का नियमित पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और मन को inner strength एवं devotion प्राप्त होती है। Shri Raghav Stuti का पाठ करने से भगवान श्रीराम की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-शांति बनी रहती है।Stuti
Shri Ram Mangalashsanam (श्री राम मङ्गलाशसनम्)
श्री राम मङ्गलाशसनम् भगवान राम की महिमा का गुणगान करता है और उनके आशीर्वाद की प्रार्थना करता है।MahaMantra