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Narayaniyam Dashaka 27 (नारायणीयं दशक 27)
नारायणीयं दशक 27 (Narayaniyam Dashaka 27)
दर्वासास्सुरवनिताप्तदिव्यमाल्यं
शक्राय स्वयमुपदाय तत्र भूयः ।
नागेंद्रप्रतिमृदिते शशाप शक्रं
का क्षांतिस्त्वदितरदेवतांशजानाम् ॥1॥
शापेन प्रथितजरेऽथ निर्जरेंद्रे
देवेष्वप्यसुरजितेषु निष्प्रभेषु ।
शर्वाद्याः कमलजमेत्य सर्वदेवा
निर्वाणप्रभव समं भवंतमापुः ॥2॥
ब्रह्माद्यैः स्तुतमहिमा चिरं तदानीं
प्रादुष्षन् वरद पुरः परेण धाम्ना ।
हे देवा दितिजकुलैर्विधाय संधिं
पीयूषं परिमथतेति पर्यशास्त्वम् ॥3॥
संधानं कृतवति दानवैः सुरौघे
मंथानं नयति मदेन मंदराद्रिम् ।
भ्रष्टेऽस्मिन् बदरमिवोद्वहन् खगेंद्रे
सद्यस्त्वं विनिहितवान् पयःपयोधौ ॥4॥
आधाय द्रुतमथ वासुकिं वरत्रां
पाथोधौ विनिहितसर्वबीजजाले ।
प्रारब्धे मथनविधौ सुरासुरैस्तै-
र्व्याजात्त्वं भुजगमुखेऽकरोस्सुरारीन् ॥5॥
क्षुब्धाद्रौ क्षुभितजलोदरे तदानीं
दुग्धाब्धौ गुरुतरभारतो निमग्ने ।
देवेषु व्यथिततमेषु तत्प्रियैषी
प्राणैषीः कमठतनुं कठोरपृष्ठाम् ॥6॥
वज्रातिस्थिरतरकर्परेण विष्णो
विस्तारात्परिगतलक्षयोजनेन ।
अंभोधेः कुहरगतेन वर्ष्मणा त्वं
निर्मग्नं क्षितिधरनाथमुन्निनेथ ॥7॥
उन्मग्ने झटिति तदा धराधरेंद्रे
निर्मेथुर्दृढमिह सम्मदेन सर्वे ।
आविश्य द्वितयगणेऽपि सर्पराजे
वैवश्यं परिशमयन्नवीवृधस्तान् ॥8॥
उद्दामभ्रमणजवोन्नमद्गिरींद्र-
न्यस्तैकस्थिरतरहस्तपंकजं त्वाम् ।
अभ्रांते विधिगिरिशादयः प्रमोदा-
दुद्भ्रांता नुनुवुरुपात्तपुष्पवर्षाः ॥9॥
दैत्यौघे भुजगमुखानिलेन तप्ते
तेनैव त्रिदशकुलेऽपि किंचिदार्ते ।
कारुण्यात्तव किल देव वारिवाहाः
प्रावर्षन्नमरगणान्न दैत्यसंघान् ॥10॥
उद्भ्राम्यद्बहुतिमिनक्रचक्रवाले
तत्राब्धौ चिरमथितेऽपि निर्विकारे ।
एकस्त्वं करयुगकृष्टसर्पराजः
संराजन् पवनपुरेश पाहि रोगात् ॥11॥
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