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Narayaniyam Dashaka 64 (नारायणीयं दशक 64)
नारायणीयं दशक 64 (Narayaniyam Dashaka 64)
आलोक्य शैलोद्धरणादिरूपं प्रभावमुच्चैस्तव गोपलोकाः ।
विश्वेश्वरं त्वामभिमत्य विश्वे नंदं भवज्जातकमन्वपृच्छन् ॥1॥
गर्गोदितो निर्गदितो निजाय वर्गाय तातेन तव प्रभावः ।
पूर्वाधिकस्त्वय्यनुराग एषामैधिष्ट तावत् बहुमानभारः ॥2॥
ततोऽवमानोदिततत्त्वबोधः सुराधिराजः सह दिव्यगव्या।
उपेत्य तुष्टाव स नष्टगर्वः स्पृष्ट्वा पदाब्जं मणिमौलिना ते ॥3॥
स्नेहस्नुतैस्त्वां सुरभिः पयोभिर्गोविंदनामांकितमभ्यषिंचत् ।
ऐरावतोपाहृतदिव्यगंगापाथोभिरिंद्रोऽपि च जातहर्षः ॥4॥
जगत्त्रयेशे त्वयि गोकुलेशे तथाऽभिषिक्ते सति गोपवाटः ।
नाकेऽपि वैकुंठपदेऽप्यलभ्यां श्रियं प्रपेदे भवतः प्रभावात् ॥5॥
कदाचिदंतर्यमुनं प्रभाते स्नायन् पिता वारुणपूरुषेण ।
नीतस्तमानेतुमगाः पुरीं त्वं तां वारुणीं कारणमर्त्यरूपः ॥6॥
ससंभ्रमं तेन जलाधिपेन प्रपूजितस्त्वं प्रतिगृह्य तातम् ।
उपागतस्तत्क्षणमात्मगेहं पिताऽवदत्तच्चरितं निजेभ्यः ॥7॥
हरिं विनिश्चित्य भवंतमेतान् भवत्पदालोकनबद्धतृष्णान् ॥
निरीक्ष्य विष्णो परमं पदं तद्दुरापमन्यैस्त्वमदीदृशस्तान् ॥8॥
स्फुरत्परानंदरसप्रवाहप्रपूर्णकैवल्यमहापयोधौ ।
चिरं निमग्नाः खलु गोपसंघास्त्वयैव भूमन् पुनरुद्धृतास्ते ॥9॥
करबदरवदेवं देव कुत्रावतारे
निजपदमनवाप्यं दर्शितं भक्तिभाजाम् ।
तदिह पशुपरूपी त्वं हि साक्षात् परात्मा
पवनपुरनिवासिन् पाहि मामामयेभ्यः ॥10॥
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