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Narayaniyam Dashaka 59 (नारायणीयं दशक 59)

नारायणीयं दशक 59 (Narayaniyam Dashaka 59)
त्वद्वपुर्नवकलायकोमलं प्रेमदोहनमशेषमोहनम् ।
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रियः ॥1॥
मन्मथोन्मथितमानसाः क्रमात्त्वद्विलोकनरतास्ततस्ततः ।
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥2॥
निर्गते भवति दत्तदृष्टयस्त्वद्गतेन मनसा मृगेक्षणाः ।
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥3॥
काननांतमितवान् भवानपि स्निग्धपादपतले मनोरमे ।
व्यत्ययाकलितपादमास्थितः प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥4॥
मारबाणधुतखेचरीकुलं निर्विकारपशुपक्षिमंडलम् ।
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥5॥
वेणुरंध्रतरलांगुलीदलं तालसंचलितपादपल्लवम् ।
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिंत्य मुमुहुर्व्रजांगनाः ॥6॥
निर्विशंकभवदंगदर्शिनीः खेचरीः खगमृगान् पशूनपि ।
त्वत्पदप्रणयि काननं च ताः धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥7॥
आपिबेयमधरामृतं कदा वेणुभुक्तरसशेषमेकदा ।
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमाः समामुहन् ॥8॥
प्रत्यहं च पुनरित्थमंगनाश्चित्तयोनिजनितादनुग्रहात् ।
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥9॥
रागस्तावज्जायते हि स्वभावा-
न्मोक्षोपायो यत्नतः स्यान्न वा स्यात् ।
तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत्
भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥10॥

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The Spiritual Journey: Pilgrimage Sites in India

1.

🕉️ Introduction: The Spiritual Essence of Pilgrimage in India

India, a land of ancient traditions and diverse cultures, has always been a beacon of spirituality. For centuries, people from across the world have traveled to this sacred land seeking inner peace, enlightenment, and divine blessings. At the heart of this spiritual quest lies the tradition of pilgrimage, an age-old practice that transcends religions and regions. From the snow-clad peaks of Kedarnath to the tranquil shores of Rameshwaram, India is home to countless holy sites that hold deep religious and cultural significance. But a pilgrimage in India is more than just a journey to a sacred place—it's a transformative experience that brings devotees closer to the divine. Many of these sites come alive during festivals, drawing millions of pilgrims who gather to celebrate faith, culture, and community. Whether it's the grand Kumbh Mela at Prayagraj, the vibrant Ratha Yatra at Puri Jagannath, or the serene prayers at the Golden Temple in Amritsar, each pilgrimage site offers a unique glimpse into India’s spiritual soul. Here, we’ll take you on a journey across some of the most famous pilgrimage sites in India and explore the festivals that make them truly special. Let’s dive deep into the spiritual essence of India and discover how these sacred destinations continue to inspire millions around the world. 2.

The Connection Between Pilgrimage and Festivals

in India, pilgrimage and festivals are deeply intertwined. Many of the country’s most sacred sites are not just places of worship but also the epicenters of grand religious festivals that attract millions of devotees every year. These festivals infuse life into pilgrimage destinations, turning them into vibrant hubs of spirituality, culture, and tradition. During these festivals, pilgrims undertake long journeys to seek blessings from their deities, participate in rituals, and celebrate their faith with devotion and enthusiasm. Let’s explore some of the major pilgrimage sites and the festivals that bring them to life. 🛕 2.1 Kumbh Mela and the Sacred Rivers One of the most iconic examples of the connection between pilgrimage and festivals is the Kumbh Mela, the largest spiritual gathering in the world. Held every 12 years at four sacred sites — Prayagraj (Allahabad), Haridwar, Nashik, and Ujjain — the Kumbh Mela attracts millions of pilgrims who come to take a holy dip in the sacred rivers. Significance of Kumbh Mela: The festival is based on the legend of the churning of the ocean (Samudra Manthan), during which drops of amrit (nectar of immortality) fell at these four locations. Pilgrims believe that bathing in these rivers during the Kumbh Mela washes away sins and brings them closer to salvation. Key Pilgrimage Sites for Kumbh Mela: Prayagraj (Allahabad) – Confluence of the Ganga, Yamuna, and Saraswati rivers. Haridwar – On the banks of the holy Ganga. Nashik – On the Godavari River. Ujjain – On the Shipra River. 🎡 2.2 Puri Jagannath Temple and Ratha Yatra The Puri Jagannath Temple in Odisha is one of the most important pilgrimage sites for Vaishnavites (devotees of Lord Vishnu). The temple is famous for its annual Ratha Yatra (Chariot Festival), which draws millions of devotees from across the world. During the Ratha Yatra, the idols of Lord Jagannath, Balabhadra, and Subhadra are placed on giant wooden chariots and taken in a grand procession through the streets of Puri. Pilgrims believe that pulling the chariots or even touching the ropes brings divine blessings. Significance of the Ratha Yatra: The festival symbolizes Lord Jagannath’s annual visit to his devotees outside the temple. It also represents the idea of equality and inclusivity, as people from all walks of life participate in pulling the chariots. Key Pilgrimage Site: Puri Jagannath Temple, Odisha. 🕉️ 2.3 Vaishno Devi and Navratri The Vaishno Devi Shrine in Jammu and Kashmir is one of the most revered pilgrimage sites in India, attracting millions of devotees every year. The shrine is especially crowded during Navratri, a nine-day festival dedicated to Goddess Durga. Significance of Navratri at Vaishno Devi: Navratri is considered the most auspicious time to visit the shrine. Pilgrims undertake the 13-kilometer trek to the holy cave to seek blessings from Mata Vaishno Devi, who is believed to fulfill the wishes of her devotees. Key Pilgrimage Site: Vaishno Devi Shrine, Jammu and Kashmir. 🌸 2.4 Rameshwaram and Maha Shivaratri Rameshwaram, located in Tamil Nadu, is one of the four Char Dham pilgrimage sites and is associated with Lord Shiva. The temple sees a surge of pilgrims during Maha Shivaratri, a festival dedicated to the worship of Lord Shiva. Significance of Maha Shivaratri: On this day, devotees observe fasting and night-long prayers, believing that it helps overcome darkness and ignorance. Pilgrims also take a dip in the Agni Theertham (sacred water body) before offering prayers at the temple. Key Pilgrimage Site: Ramanathaswamy Temple, Rameshwaram. 🧡 2.5 Amritsar’s Golden Temple and Guru Nanak Jayanti

भगवान शिवजी को ‘पशुपति’ और ‘त्रिपुरारि’ क्यों कहा जाता है?

जब शिवनंदन श्री कार्तिकेय स्वामी जिन्हें स्कन्द भी कहा जाता है ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके तीनों पुत्र तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलाकाक्ष ने उत्तम भोगों का परित्याग करके मेरूपर्वत की कन्दराओं में ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए परम उग्र तपस्या आरम्भ की। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उनको वर देने के लिए प्रकट हुए। ब्रह्म जी को साक्षात देखकर उन तीनों ने ब्रह्मा जी की स्तुति के पश्चात उनसे अजर अमर होने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा की अमरत्व सबको नहीं मिल सकता, इस भूतल पर जो भी प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा वह अजर अमर नहीं हो सकता परंतु मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ , तुम अपने बल का आश्रय ले कर अपने मरण में किसी हेतु को माँग लो जिससे तुम्हारी मृत्यु से रक्षा हो जाए। ऐसा सुन कर उन तीनों ने ब्रह्मा जी से कहा की अत्यंत बलशाली होने पर भी हमारे पास कोई ऐसा नगर या घर नहीं है, जहाँ हम शत्रुओं से सुरक्षित रह कर सुख पूर्वक निवास कर सकें, इसलिए आप हमारे लिए ऐसे तीन नगरों या ‘पुरों’ का निर्माण करवा दीजिए जो अत्यंत अद्भुत वैभव से सम्पन्न हो और देवता भी जिसका भेदन ना कर सकें। तारकाक्ष ने अपने लिए स्वर्णमय पुर को माँगा विद्युनमालि ने चाँदी के बने हुए पुर की इच्छा की और कमलाकक्ष ने अपने लिए कठोर लोहे बना हुआ बड़ा पुर माँगा। उन तीनों के ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मा जी ने महामायावी मय को तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलकाक्ष के लिए क्रमशः सोने, चाँदी और लोहे के उत्तम दुर्ग तैयार किए और इन तीनों को उनके हवाले करके स्वयं भी उन्ही में प्रवेश कर गया। असुरों के हित में तत्पर रहने वाले मय ने अत्यंत सुंदर वैभव से परिपूर्ण नगरों का निर्माण किया और उनमे सिद्धरस रूपी अमृत के कुओं की भी स्थापना कर दी। उन तीनों पुरों मे प्रवेश करके वो तीनों तारकासुर पुत्र तीनों लोकों को बाधित करने लगे। उन्होंने इंद्र सही सभी देवताओं को परास्त कर दिया और तीनों लोकों और मुनिश्वरों को अपने अधीन कर सारे जगत को उत्पीडित करने लगे। तारक पुत्रों के ताप से दग्ध हुए इंद्र सहित सभी देवता महादेव की शरण में आए और उनसे त्रिपुरा निवासी दैत्यों से जगत की सुरक्षा करने की प्रार्थना की । महादेव ने सभी देवताओं से कहा कि त्रिपुराधीष और त्रिपुरा निवासी पूजा, तप आदि से महान पुण्य कार्यों में लगे हुए हैं और ऐसा नियम है की पुण्यात्माओं पर विद्वानो को प्रहार नहीं करना चाहिए, मैं देवताओं के कष्ट को जानता हूँ परन्तु वो दैत्य भी पुण्यकर्मों से अत्यंत बलशाली हैं। जब तक तारक पुत्र वेदिक धर्म के आश्रित हैं, सब देवता मिलकर भी उनका वध नहीं कर सकते इसलिए तुम सब विष्णु की शरण में जाओ। श्री विष्णु भगवान की माया से समस्त दैत्य वेदिक धर्म से विमुख हो गए, सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष धर्म का विनाश होने के साथ ही तीनों पुरों में दुराचार और अधर्म का विस्तार हो गया। तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलकाक्ष ने भी समस्त धर्मों का परित्याग कर दिया। तत्पश्चात, भगवान शिव ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा कर उन तीनों पुरों पर छोड़ दिया। उनके उस बाण से सूर्यमंडल से निकलने वाली किरणो के समान अन्य बहुत से बाण निकले जिनसे उन पुरों का दिखना बंद हो गया और समस्त पुरवासी और पुराधीष भी निशप्राण हो कर गिर गए। सभी पुर वासियों और तारकक्ष, विद्युनमालि और कमलाकक्ष को मृत देख कर मय ने उन सब दैत्यों को उठा कर अमृत के कुओं में डाल दिया। अमृत स्पर्श होते ही सभी असुरों का शरीर अत्यंत तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया और महादेव और असुरों में पुनः भयंकर युद्ध छिड़ गया। यह देख कर भगवान विष्णु ने गौ का रूप धारण किया, ब्रह्मा जी बछड़ा बने और अन्य देवताओं ने पशुओं का रूप बना कर महादेव जी की उपासना करके उनको नमस्कार किया तथा तीनों पुरों में जाकर उस सिद्धरस के कुएँ का सारा अमृत पी गए। इसके बाद श्री विष्णु भगवान ने अपनी समस्त शक्तियों द्वारा भगवान शंकर के युद्ध की सामग्री तैयार की। धर्म से रथ, ज्ञान से सारथी, वैराग्य से ध्वजा, तपस्या से धनुष, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और अपनी समस्त शक्तियों से अन्य वस्तुओं का निर्माण किया। भगवान शंकर ने उस दिव्य रथ पर सवार हो कर धनुष बाण धारण किया तथा अभिजीत मुहूर्त में बाण चला कर उन तीनों दुर्भेध पुरों को भस्म कर दिया। उन तीनों पुरों के भस्म होते ही स्वर्ग में दुंदुभियाँ बजने लगी और देवता, ऋषि, पितर और सिध्देश्वर आनंद से जय जय कार करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। क्योंकि पशु रूप में समस्त देवताओं ने अपने अधिपति के रूप में शिवजी की उपासना की इसलिए महादेव को ‘पशुपति’ भी कहा जाता है और उन तीनों पुरों को भस्म करने के कारण स्वरूप भगवान शंकर ‘त्रिपुरारि’ भी कहलाये। “ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु शशि भूमि सुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्रः शनि राहु केतवः सर्वे ग्रहाः शान्ति करा भवन्तु।” ।। ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।। (संदर्भ – शिवपुराण तथा श्री मदभागवत महापुराण)

Ekadashi Vrat Katha:

Ekadashi Vrat Katha: The Story Behind Ekadashi

The Ekadashi Vrat Katha, a legend narrated by Lord Krishna to Yudhishthira in the Mahabharata, is a tale that highlights the spiritual significance of Ekadashi fasting. As per the story, once upon a time, there lived a demon named Mura who terrorized both heaven and earth. Even the Devas, celestial beings, were helpless against him, as Mura grew stronger by the day, plunging the world into darkness and chaos. To save the universe from Mura's tyranny, Lord Vishnu, the protector, intervened. A fierce battle erupted between Vishnu and Mura. Exhausted from the continuous fighting, Lord Vishnu sought rest in a cave. Taking advantage of this, Mura tried to attack him in his slumber. However, in that moment, a radiant, divine energy emanated from Lord Vishnu and took the form of a goddess, named Ekadashi. She fought Mura valiantly, ultimately defeating and slaying him. When Lord Vishnu awoke, he was overjoyed to see Mura defeated and praised Ekadashi for her bravery. Impressed by her dedication, Lord Vishnu blessed her, declaring that those who observed a fast on Ekadashi Tithi, in devotion to her, would be rid of their sins and receive his divine blessings. Thus, the practice of Ekadashi fasting began, symbolizing the triumph of good over evil and leading devotees on a path to Moksha (salvation).

Ekadashi Aarti

Devotees sing the Ekadashi Aarti with devotion to express their love and reverence for Lord Vishnu on Ekadashi. The following is a traditional aarti dedicated to Lord Vishnu, often recited during Ekadashi Vrat: Shri Hari Aarti Om Jai Jagdish Hare, Swami Jai Jagdish Hare, Bhakta jano ke sankat, daas jano ke sankat, kshan mein door kare॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Jo dhyave phal paave, dukh binse man ka, Swami dukh binse man ka, sukh sampatti ghar aave॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Mata pita tum mere, sharan gahu main kiski, Swami sharan gahu main kiski, tum bin aur na dooja॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Tum Puran Parmaatma, tum Antaryami, Swami tum Antaryami, Parbrahm Parameshwar॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Tum Karuna ke sagar, tum paalan karta, Swami tum paalan karta, main sevak tum swami॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Din bandhu dukh harta, tum rakshak mere, Swami tum rakshak mere, aape raksha karna॥ Om Jai Jagdish Hare॥ Vishva ka paalanhara, tum sab ke swami, Swami tum sab ke swami, namra hoke prarthna॥ Om Jai Jagdish Hare॥

Embracing Ekadashi as a Pathway to Moksha

Ekadashi is more than just fasting; it is a sacred observance that harmonizes mind, body, and soul with the divine. By fasting and engaging in Ekadashi rituals, individuals can transcend worldly desires, clear past karma, and align themselves with the path toward Moksha. This holy occasion allows devotees to rid themselves of material attachments and progress on a spiritual journey. Observing Ekadashi Vrat can become a regular ritual for those devoted to spiritual growth, drawing them closer to peace, fulfillment, and ultimately, salvation.

Ekadashi Vrat 2025: Significance, Benefits, and Rituals

In Hinduism, Ekadashi Vrat is a revered fast dedicated to Lord Vishnu. It is believed that observing the Ekadashi fast purifies the soul, and it is thought to bring prosperity, peace, and ultimately pave the way for Moksha (salvation). The Mahabharata even references Ekadashi as a special fast, where Lord Krishna advised Yudhishthira on its divine power. Devotees observe Ekadashi with devotion to counteract negative influences from planetary movements, attain blessings from ancestors, and ensure success in all endeavors.

The Spiritual and Scientific Benefits of Ekadashi Fasting

Fasting on Ekadashi has both spiritual and physical benefits, making it a unique practice that cleanses the body and mind. Here are some key benefits: 1. Spiritual Cleansing: Fasting on Ekadashi helps cleanse one's consciousness, offering an opportunity for deep reflection and spiritual growth. It’s a time to connect with the divine and attain mental peace. 2. Detoxification: By abstaining from certain foods, devotees allow their digestive systems to rest, aiding in detoxification and improving metabolism. 3. Elimination of Sins: It is believed that those who observe the Ekadashi Vrat with dedication are absolved of past sins and gain divine favor, bringing positive energy and happiness into their lives. 4. Improved Willpower: The Ekadashi fast enhances self-control and mental discipline, which are crucial for personal and spiritual growth. 5. Health Benefits: Apart from spiritual advantages, fasting impacts metabolism and promotes cellular repair, which has been supported by modern scientific studies on fasting practices.

How to Observe Ekadashi Vrat: Rituals and Guidelines

Observing Ekadashi requires following a few key rules and practices to maximize its benefits. Here is a step-by-step guide to observing Ekadashi Vrat: 1. Preparation on Dashami: Start the preparation a day before Ekadashi, known as Dashami. Avoid foods such as onions, garlic, lentils, meat, and any food considered tamasic (dull or impure). This day is also ideal for introspection and calming the mind. 2. The Day of Ekadashi: Abstinence and Fasting: On Ekadashi, many devotees choose Nirjala (without water) fasting, though others consume fruits, milk, or water depending on their strength and health. Ensure you have a clear intention for the fast and remain focused on spiritual pursuits. Temple Visit and Prayers: After a morning bath, visit a temple and recite the Gita or chant “Om Namo Bhagavate Vasudevaya.” Worship Lord Vishnu with dedication, and avoid any physical or mental impurities. Charity and Helping Others: Ekadashi is a day for charity; donating food, clothes, or money to the needy is highly auspicious. 3. Breaking the Fast on Dwadashi: The day following Ekadashi is called Dwadashi. On this day, worship Lord Vishnu, offer food and dakshina to Brahmins, and break your fast with a simple meal before the Trayodashi Tithi begins.

Foods to Eat and Avoid During Ekadashi Vrat

During Ekadashi, some devotees follow a strict water-only fast, while others consume fruits, milk, and nuts. Avoid grains, pulses, rice, meat, and onions. Fasting food includes: Fruits, milk, and nuts for a light, nutritious option Sabudana (tapioca), potatoes, and other light snacks if required

What Not to Do on Ekadashi

To maintain the purity of the fast, there are a few guidelines to follow: Avoid Plucking Leaves: Plucking leaves is prohibited. If needed, only use leaves that have naturally fallen. Refrain from Anger and Negativity: Keep a peaceful mind and avoid conflicts. Celibacy: Brahmacharya (celibacy) should be followed strictly during the fast. Avoid Housework That Might Harm Living Beings: Refrain from sweeping floors to avoid harming insects, as even unintentionally killing life on Ekadashi is discouraged.

Ekadashi Dates and Muhurat in 2025

Each Ekadashi Tithi has its own significance and is associated with various legends. Here are some notable Ekadashi dates and their significance in 2025:These dates are indicative of specific fasts, each celebrated with its unique customs and rituals, highlighting different aspects of spiritual devotion. Observing Ekadashi Vrat on these dates according to the Indian Standard Time Muhurat amplifies its benefits. Pausha Putrada Ekadashi: January 10, 2025 (Friday) Shattila Ekadashi: January 25, 2025 (Saturday) Jaya Ekadashi: February 8, 2025 (Saturday) Vijaya Ekadashi: February 24, 2025 (Monday) Amalaki Ekadashi: March 10, 2025 (Monday) Papmochani Ekadashi: March 25, 2025 (Tuesday) Vaishnava Papmochani Ekadashi: March 26, 2025 (Wednesday) Kamada Ekadashi: April 8, 2025 (Tuesday) Varuthini Ekadashi: April 24, 2025 (Thursday) Mohini Ekadashi: May 8, 2025 (Thursday) Apara Ekadashi: May 23, 2025 (Friday) Nirjala Ekadashi: June 6, 2025 (Friday) Vaishnava Nirjala Ekadashi: June 7, 2025 (Saturday) Yogini Ekadashi: June 21, 2025 (Saturday) Vaishnava Yogini Ekadashi: June 22, 2025 (Sunday) Devshayani Ekadashi: July 6, 2025 (Sunday) Kamika Ekadashi: July 21, 2025 (Monday) Shravana Putrada Ekadashi: August 5, 2025 (Tuesday) Aja Ekadashi: August 19, 2025 (Tuesday) Parsva Ekadashi: September 3, 2025 (Wednesday) Indira Ekadashi: September 17, 2025 (Wednesday) Papankusha Ekadashi: October 3, 2025 (Friday) Rama Ekadashi: October 17, 2025 (Friday) Devutthana Ekadashi: November 1, 2025 (Saturday) Vaishnava Devutthana Ekadashi: November 2, 2025 (Sunday) Utpanna Ekadashi: November 15, 2025 (Saturday) Mokshada Ekadashi: December 1, 2025 (Monday) Saphala Ekadashi: December 15, 2025 (Monday) Pausha Putrada Ekadashi: December 30, 2025 (Tuesday) Vaishnava Pausha Putrada Ekadashi: December 31, 2025 (Wednesday)

श्रीमदभागवत गीता को सम्पूर्ण ग्रन्थ क्यों कहा जाता है ?

गीता पूर्ण ज्ञान की गङ्गा है, गीता अमृतरस की ओजस धारा है। गीता इस दुष्कर संसार सागर से पार उतरनेके लिये अमोघ तरणी है। गीता भावुक भक्तों के लिये गम्भीर तरङ्गमय भावसमुद्र है। गीता, कर्मयोग परायण मनुष्य को सत्यलोकमें ले जाने के लिये दिव्य विमान रूप है । गीता ज्ञानयोगनिष्ठ मनुष्य को जीवन्मुक्त बनानेके लिये अमृत समुद्र रूपहै, गीतासंसार मरुभूमिमें जले हुए दु:खित जीवनके लिये मधुर जलसे पूर्ण मरू उद्यान है। जितना भी कहा जाये, शब्दों में गीता की अपूर्व गाथा का वर्णन हो ही नहीं सकता है। गीता एक पूर्ण ग्रन्थ है जिसमे सम्पूर्ण उपनिषदों का आध्यात्मिक ज्ञान सारतत्व में उदित हुआ है इसलिए गीता को गीतोउपनिषद (उपनिषद को गीत या गान के रूप में है) भी कहा गया है। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों के विज्ञानं का अंश और तीनों का सामजस्य गीता में प्रकट है। पूर्ण वस्तु वही है, जिसमें जीव की पूर्णता विधान करनेके लिये पूर्ण उपदेश किया गया हो। जीवकी पूर्णता त्रिभाव की पूर्णता के द्वारा ही हो सकती है। उसमे शरीर आधिभौतिक भाव है, मन अधिदैवभाव है और बुद्धि अभ्यात्मभाव है, इसलिये शरीर, मन और बुद्धि तीनों की पूर्णता से ही साधक पूर्ण ब्रह्म रूप को प्राप्त कर सकता है। शरीर की पूर्णता कर्म से, मन की पूर्णता उपासना से और बुद्धि की पूर्णता ज्ञान से होती है। इसलिये जिस पुस्तक में कर्म, उपासना और ज्ञान, तीनों का ही पूर्णतया वर्णन किया गया है, वही पूर्ण पुस्तक है। पूर्ण होने का एक और कारण भगवान का वाक्य है, क्योकि भगवान पूर्ण है। गीता में गीतामें समाधि-भाषा पूर्ण है, जिसमें समस्त उपदेशों का ज्ञान भरा हुआ है। इस प्रकार की ज्ञानमयी भाषा को पूर्ण ज्ञानी के सिवाय और कोई नही कह सकता है, क्योंकि समाधि भाषाके कहने वाले केवल पूर्ण समाधिस्थ पुरुष ही हो सकते हैं। वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड का जीवों के उद्धारके लिये पूर्ण वर्णन किया गया है, इसलिये वेद भगवान का वाक्य हैं , इसी प्रकार गीता में भी अठारह अध्यायों में कर्म, उपासना और ज्ञान का वर्णन किया गया है। इसके सब अध्यायो में सब तरह की बातें होने पर भी प्रधानतः पहले छ: अध्यायोंमें कर्म का, अगले छ: अध्यायों में उपासना का और अंत के छ: अध्यायों में ज्ञान का उपदेश किया गया है, इसलिये गीता पूर्ण है। पूर्णताका और एक लक्षण हैं साम्प्रदायिक का आभाव और निष्पक्ष उदार भाव की प्रधानता। ऋषियों की बुद्धि और साम्प्रदायिक पुरुषों की बुद्धि में इतना ही अन्तर है। ऋषियों की बुद्धि पूर्ण होने के कारण उसमें साम्प्रदायिक पक्षपात नही रहता एवं उसमें किसी एक भाव की प्रधानता मानकर दूसरे भावों की निन्दा नही की जाती। भगवान वेदव्यास ने पूर्ण ऋषि होनेसे भिन्न भिन्न पुराणोंमें सभी ज्ञानों का वर्णन किया है परन्तु किसी की भी निंदा नहीं की। साम्प्रदायिक पुरुषों बुद्धि इस प्रकारकी नहीं होती, वे एक ही भावको प्रधान मानकर औरों की निन्दा करते है। भारतवर्ष में जब से इस प्रकारके साम्प्रदायिक मतों का प्रचार हुआ है, तभी से भारतमें अशान्ति और मतद्वैधता फैल गई है, और एक दूसरे की निन्दा व ईर्षा फैला कर धर्म के नाम पर अधर्म होने लगा है। परन्तु गीता में इस प्रकार के विचार नहीं हैं, क्योंकि गीता भगवानके मुख से उच्चारित हुआ पूर्ण ग्रन्थ है, इसलिये गीता सम्पूर्ण मनुष्य जाति का सामान रूप से कल्याण करने वाली है । इसमें कर्मी के लिये निष्काम कर्म का उदारभाव, भक्तों के लिये भक्ति का मधुरभाव और ज्ञानीके लिये परम ज्ञान का गम्भीरभाव, सभी भाव सामजस्य से वर्णिंत किये गए हैं, जिससे गीता का पाठ करके सभी धर्म के लोग सन्तुष्ट होते हैं। गीता की एक और पूर्णता यह है कि, गीता में भक्ति के छ: अध्याय कर्म और ज्ञान के बीच में रखे गये है, क्योंकि भक्ति में मध्य में होने से कर्म मिश्रित, शुद्ध और ज्ञान मिश्रित यह तीनो प्रकार की भक्ति, सभी मनुष्यों का कल्याण कर सकती है। भक्ति सभी साधनों का प्राणरूप है, चाहे कर्मी हो, चाहे ज्ञानी हो, भक्ति मध्य में न होने से दोनों में बंधन की आशङ्का रहती है। भक्तिहीन कर्म अहंकार और कर्तृत्व उत्पन्न कर सकता है, परन्तु यदि कर्मी अपने को भगवान का निमित्तमात्र मानकर, जगत सेवा को भागवत सेवा समझकर, भक्ति के साथ कर्म करे तो, उस कर्म से अहंकार या बन्धन उत्पन्न नही होगा I उसी प्रकार भक्ति विहीन ज्ञान वाले मनुष्य में तर्कबुद्धि और अभिमान उत्पन्न होकर, ज्ञानमार्गी पुरुष को बंधन में डाल सकता है, परन्तु ज्ञान के मूल में भक्ति रहने से ज्ञानी भक्त पूर्ण बन जायगा, केवल तार्किक और अभिमानी नही रहेगा, जिससे उसको पूर्णज्ञान की प्राप्ति होगी। भगवान श्रीकृष्ण्द्र ने गीता में मध्य के अध्यायों में भक्ति को इसीलिए भी रखा है क्योंकि दो विरुद्ध पक्षों में विवाद के समय, मध्यस्थ शान्त पुरुष ही विवाद को मिटाता है और विवाद को आगे नहीं बढ़ने देता। कर्म और ज्ञान में सदा ही विवाद है । कर्म जो कुछ कहता है ज्ञान उससे उल्टा कहता है। कर्म के मत में जगत् सत्य है और ज्ञान के मतमें जगत् मिथ्या है । कर्म के मत में मनुष्य को कर्मी होना चाहिये और ज्ञान के मत में निष्कर्मी होना चाहिये । इसलिये श्रीभगवान श्रीकृष्ण ने दोनों के मध्य में भक्ति को रख कर कर्म और ज्ञान का विवाद मिटा दिया है । पूर्णता का और एक लक्षण यह है कि, गीता में परपस्पर दोनो विरुद्ध भावों में सामजस्य रखा गया है। पूर्ण पुरुष वही है जिनमें सुख दुःख आदि में सामान भाव रखने के शक्ति हो। उसके मन में सुख में हर्ष तथा दु:ख में विषाद का भाव नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि वह सुख दु:ख से परे आनन्दमय साम्यदशा को प्राप्त कर लेता है । पूर्णावतार में भी यही लक्षम पाया जाता है, क्योंकि, पूर्णज्ञानी होनेके कारण उनमें सकल प्रकार के विरुद्ध भावों का सामजस्य रहता है। भगवान श्रीकृष्ण में इसी प्रकार परस्पर विरुद्ध भावों का सामजस्य था, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, वे भगवानके पूर्णावतार थे और उन्ही पूर्णावतार के श्रीमुख से उच्चारित गीता सम्पूर्ण ग्रन्थ है। ।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।