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Narayaniyam Dashaka 63 (नारायणीयं दशक 63)
नारायणीयं दशक 63 (Narayaniyam Dashaka 63)
ददृशिरे किल तत्क्षणमक्षत-
स्तनितजृंभितकंपितदिक्तटाः ।
सुषमया भवदंगतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥1॥
विपुलकरकमिश्रैस्तोयधारानिपातै-
र्दिशिदिशि पशुपानां मंडले दंड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्नः पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणीः ॥2॥
कुल इह खलु गोत्रो दैवतं गोत्रशत्रो-
र्विहतिमिह स रुंध्यात् को नु वः संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥3॥
तदनु गिरिवरस्य प्रोद्धृतस्यास्य तावत्
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥4॥
भवति विधृतशैले बालिकाभिर्वयस्यै-
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कंडू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषंत सर्वे ॥5॥
अतिमहान् गिरिरेष तु वामके
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकैः ॥6॥
अहह धार्ष्ट्यममुष्य वटोर्गिरिं
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥7॥
अचलति त्वयि देव पदात् पदं
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशंकितधीः समुपाद्रवत् ॥8॥
शममुपेयुषि वर्षभरे तदा
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधरः
प्रमुदितैः पशुपैः परिरेभिषे ॥9॥
धरणिमेव पुरा धृतवानसि
क्षितिधरोद्धरणे तव कः श्रमः ।
इति नुतस्त्रिदशैः कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥10॥
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