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Narayaniyam Dashaka 7 (नारायणीयं दशक 7)
नारायणीयं दशक 7 (Narayaniyam Dashaka 7)
एवं देव चतुर्दशात्मकजगद्रूपेण जातः पुन-
स्तस्योर्ध्वं खलु सत्यलोकनिलये जातोऽसि धाता स्वयम् ।
यं शंसंति हिरण्यगर्भमखिलत्रैलोक्यजीवात्मकं
योऽभूत् स्फीतरजोविकारविकसन्नानासिसृक्षारसः ॥1॥
सोऽयं विश्वविसर्गदत्तहृदयः संपश्यमानः स्वयं
बोधं खल्वनवाप्य विश्वविषयं चिंताकुलस्तस्थिवान् ।
तावत्त्वं जगतां पते तप तपेत्येवं हि वैहायसीं
वाणीमेनमशिश्रवः श्रुतिसुखां कुर्वंस्तपःप्रेरणाम् ॥2॥
कोऽसौ मामवदत् पुमानिति जलापूर्णे जगन्मंडले
दिक्षूद्वीक्ष्य किमप्यनीक्षितवता वाक्यार्थमुत्पश्यता ।
दिव्यं वर्षसहस्रमात्ततपसा तेन त्वमाराधित -
स्तस्मै दर्शितवानसि स्वनिलयं वैकुंठमेकाद्भुतम् ॥3॥
माया यत्र कदापि नो विकुरुते भाते जगद्भ्यो बहिः
शोकक्रोधविमोहसाध्वसमुखा भावास्तु दूरं गताः ।
सांद्रानंदझरी च यत्र परमज्योतिःप्रकाशात्मके
तत्ते धाम विभावितं विजयते वैकुंठरूपं विभो ॥4॥
यस्मिन्नाम चतुर्भुजा हरिमणिश्यामावदातत्विषो
नानाभूषणरत्नदीपितदिशो राजद्विमानालयाः ।
भक्तिप्राप्ततथाविधोन्नतपदा दीव्यंति दिव्या जना-
तत्ते धाम निरस्तसर्वशमलं वैकुंठरूपं जयेत् ॥5॥
नानादिव्यवधूजनैरभिवृता विद्युल्लतातुल्यया
विश्वोन्मादनहृद्यगात्रलतया विद्योतिताशांतरा ।
त्वत्पादांबुजसौरभैककुतुकाल्लक्ष्मीः स्वयं लक्ष्यते
यस्मिन् विस्मयनीयदिव्यविभवं तत्ते पदं देहि मे ॥6॥
तत्रैवं प्रतिदर्शिते निजपदे रत्नासनाध्यासितं
भास्वत्कोटिलसत्किरीटकटकाद्याकल्पदीप्राकृति ।
श्रीवत्सांकितमात्तकौस्तुभमणिच्छायारुणं कारणं
विश्वेषां तव रूपमैक्षत विधिस्तत्ते विभो भातु मे ॥7॥
कालांभोदकलायकोमलरुचीचक्रेण चक्रं दिशा -
मावृण्वानमुदारमंदहसितस्यंदप्रसन्नाननम् ।
राजत्कंबुगदारिपंकजधरश्रीमद्भुजामंडलं
स्रष्टुस्तुष्टिकरं वपुस्तव विभो मद्रोगमुद्वासयेत् ॥8॥
दृष्ट्वा संभृतसंभ्रमः कमलभूस्त्वत्पादपाथोरुहे
हर्षावेशवशंवदो निपतितः प्रीत्या कृतार्थीभवन् ।
जानास्येव मनीषितं मम विभो ज्ञानं तदापादय
द्वैताद्वैतभवत्स्वरूपपरमित्याचष्ट तं त्वां भजे ॥9॥
आताम्रे चरणे विनम्रमथ तं हस्तेन हस्ते स्पृशन्
बोधस्ते भविता न सर्गविधिभिर्बंधोऽपि संजायते ।
इत्याभाष्य गिरं प्रतोष्य नितरां तच्चित्तगूढः स्वयं
सृष्टौ तं समुदैरयः स भगवन्नुल्लासयोल्लाघताम् ॥10॥
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