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Uddhava Gita - Chapter 1 (उद्धवगीता - प्रथमोऽध्यायः)
उद्धवगीता - प्रथमोऽध्यायः (Uddhava Gita - Chapter 1)
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ।
श्रीमद्भागवतपुराणम् ।
एकादशः स्कंधः । उद्धव गीता ।
अथ प्रथमोऽध्यायः ।
श्रीबादरायणिः उवाच ।
कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरमः यदुभिः वृतः ।
भुवः अवतारवत् भारं जविष्ठन् जनयन् कलिम् ॥ 1॥
ये कोपिताः सुबहु पांडुसुताः सपत्नैः
दुर्द्यूतहेलनकचग्रहण आदिभिः तान् ।
कृत्वा निमित्तं इतर इतरतः समेतान्
हत्वा नृपान् निरहरत् क्षितिभारं ईशः ॥ 2॥
भूभारराजपृतना यदुभिः निरस्य
गुप्तैः स्वबाहुभिः अचिंतयत् अप्रमेयः ।
मन्ये अवनेः ननु गतः अपि अगतं हि भारम्
यत् यादवं कुलं अहो हि अविषह्यं आस्ते ॥ 3॥
न एव अन्यतः परिभवः अस्य भवेत् कथंचित्
मत् संश्रयस्य विभव उन्नहन् अस्य नित्यम् ।
अंतःकलिं यदुकुलस्य विध्हाय वेणुः
तंबस्य वह्निं इव शांतिं उपैमि धाम ॥ 4॥
एवं व्यवसितः राजन् सत्यसंकल्पः ईश्वरः ।
शापव्याजेन विप्राणां संजह्वे स्वकुलं विभुः ॥ 5॥
स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम् ।
गीर्भिः ताः स्मरतां चित्तं पदैः तान् ईक्षतां क्रिया ॥ 6॥
आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य हि अंजसा नु कौ ।
तमः अनया तरिष्यंति इति अगात् स्वं पदं ईश्वरः ॥ 7॥
राजा उवाच ।
ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धौपसेविनाम् ।
विप्रशापः कथं अभूत् वृष्णीनां कृष्णचेतसाम् ॥ 8॥
यत् निमित्तः सः वै शापः यादृशः द्विजसत्तम ।
कथं एकात्मनां भेदः एतत् सर्वं वदस्व मे ॥ 9॥
श्रीशुकः उवाच ।
बिभ्रत् वपुः सकलसुंदरसंनिवेशम्
कर्माचरन् भुवि सुमंगलं आप्तकामः ।
आस्थाय धाम रममाणः उदारकीर्तिः
संहर्तुं ऐच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः ॥ 10॥
कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमंगलानि
गायत् जगत् कलिमलापहराणि कृत्वा ।
काल आत्मना निवसता यदुदेवगेहे
पिंडारकं समगमन् मुनयः निसृष्टाः ॥ 11॥
विश्वामित्रः असितः कण्वः दुर्वासाः भृगुः अंगिराः ।
कश्यपः वामदेवः अत्रिः वसिष्ठः नारद आदयः ॥ 12॥
क्रीडंतः तान् उपव्रज्य कुमाराः यदुनंदनाः ।
उपसंगृह्य पप्रच्छुः अविनीता विनीतवत् ॥ 13॥
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः सांबं जांबवतीसुतम् ।
एषा पृच्छति वः विप्राः अंतर्वत् न्यसित ईक्षणा ॥ 14॥
प्रष्टुं विलज्जति साक्षात् प्रब्रूत अमोघदर्शनाः ।
प्रसोष्यंति पुत्रकामा किंस्वित् संजनयिष्यति ॥ 15॥
एवं प्रलब्ध्वा मुनयः तान् ऊचुः कुपिता नृप ।
जनयिष्यति वः मंदाः मुसलं कुलनाशनम् ॥ 16॥
तत् शऋत्वा ते अतिसंत्रस्ताः विमुच्य सहसोदरम् ।
सांबस्य ददृशुः तस्मिन् मुसलं खलु अयस्मयम् ॥ 17॥
किं कृतं मंदभाग्यैः किं वदिष्यंति नः जनाः ।
इति विह्वलिताः गेहान् आदाय मुसलं ययुः ॥ 18॥
तत् च उपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः ।
राज्ञः आवेदयान् चक्रुः सर्वयादवसंनिधौ ॥ 19॥
श्रुत्वा अमोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप ।
विस्मिताः भयसंत्रस्ताः बभूवुः द्वारकौकसः ॥ 20॥
तत् चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः सः आहुकः ।
समुद्रसलिले प्रास्यत् लोहं च अस्य अवशेषितम् ॥ 21॥
कश्चित् मत्स्यः अग्रसीत् लोहं चूर्णानि तरलैः ततः ।
उह्यमानानि वेलायां लग्नानि आसन् किल ऐरिकाः ॥ 22॥
मत्स्यः गृहीतः मत्स्यघ्नैः जालेन अन्यैः सह अर्णवे ।
तस्य उदरगतं लोहं सः शल्ये लुब्धकः अकरोत् ॥ 23॥
भगवान् ज्ञातसर्वार्थः ईश्वरः अपि तदन्यथा ।
कर्तुं न ऐच्छत् विप्रशापं कालरूपी अन्वमोदत ॥ 24॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामेकादशस्कंधे विप्रशापो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
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