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Shri Ram Kavacham || श्री राम कवचम् : Invoke the Grace of Lord Shri Ram with Shri Ram Kavacham
Shri Ram Kavacham (श्री राम कवचम्)
Shri Ram Kavacham भगवान श्री राम की "Divine Protection" और "Supreme Strength" का आह्वान करता है, जो "Ruler of Dharma" और "Lord of Justice" के रूप में पूजित हैं। यह कवच विशेष रूप से रक्षात्मक शक्तियों और "Victory over Evil" के रूप में प्रभावी है। Shri Ram Kavacha जीवन में हर बाधा और संकट को दूर करने के लिए एक "Divine Shield" का काम करता है। Shri Ram Kavacha का पाठ "Lord Ram Prayer" और "Divine Protection Mantra" के रूप में किया जाता है। इसके नियमित जाप से भक्तों को "Inner Peace" और "Spiritual Strength" प्राप्त होती है। यह स्तोत्र "Victory Prayer" और "Blessings of Lord Ram" के रूप में अत्यधिक प्रभावी है। इसका पाठ करने से जीवन में "Positive Energy" का प्रवाह होता है और व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है। Shri Ram Kavacha को "Divine Protection Chant" और "Blessings for Prosperity" के रूप में पढ़ने से जीवन में समृद्धि और सुख मिलता है। भगवान श्री राम की कृपा से भक्तों को शारीरिक और मानसिक सुरक्षा मिलती है।॥ श्री राम कवचम् ॥
(Shri Ram Kavacham)
॥ अगस्तिरुवाच ॥
आजानुबाहुमरविन्ददळायताक्षाजन्म
शुद्धरस हास मुखप्रसादम् ।
श्यामं गृहीत शरचाप मुदाररूपम् ।
रामं सराम मभिराम मनुस्मरामि ॥ १॥
श्रुणु वक्ष्याम्यहं सर्वं सुत्तिक्ष्ण मुनिसत्तम ।
श्रीरामकवचं पुण्यं सर्वकाम प्रदायकम् ॥ २॥
अद्वैतानन्द चैतन्य शुद्ध सत्वैक लक्षणः ।
बहिरन्तः सुतीक्ष्णात्र रामचन्द्रः प्रकाशते ॥ ३॥
तत्व विद्यार्थिनो नित्यं रमन्ते चित्सुखात्मनि ।
इति रामपदे नासौ परब्रह्माभिधीयते ॥ ४॥
जयरामेति यन्नाम कीर्तयन् नाभिवर्णयेत् ।
सर्वपापैर्विनिर्मुक्तो याति विष्णोः परं पदम् ॥ ५॥
श्रीरामेति परं मन्त्रं तदेव परमं पदम् ।
तदेव तारकं विद्धि जन्म मृत्यु भयापहम् ॥ ६॥
श्री रामेति वदन् ब्रह्मभावमाप्नो त्यसंशयम् ॥ ७॥
ॐ अस्य श्री रामकवचस्य,
अगस्त्य ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः ।
सीतालक्ष्मणोपेतः श्रीरामचन्द्रो देवता ।
श्री रामचन्द्र प्रसाद सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥
अथध्यानं प्रवक्ष्यामि सर्वाभीष्ट फलप्रदम् ।
नीलजीमूत सङ्काशं विद्युद् वर्णाम्बरावृतम् ॥ १॥
कोमलाङ्गं विशालाक्षं युवानमतिसुन्दरम् ।
सीतासौमित्रि सहितं जटामकुट धारिणम् ॥ २॥
सासितूरण धनुर्बाण पाणिं दानव मर्दनम् ।
यदाचोरभये राजभये शत्रुभये तथा ॥ ३॥
ध्यात्वा रघुपतिं कृद्धं कालानल समप्रभम् ।
चीरकृष्णाजिनधरं भस्मोद्धूळित विग्रहम् ॥ ४॥
आकर्णाकृष्ट सशर कोदण्ड भुजमण्डितम् ।
रणे रिपून् रावणादीन् तीक्ष्णमार्गण वृष्टिभिः ॥ ५॥
संहरन्तं महावीरं उग्रं ऐन्द्र रथस्थितम् ।
लक्ष्मणाद्यैर्महावीरैर्वृतं हनुमदादिभिः ॥ ६॥
सुग्रीवद्यैर् माहावीरैः शैल वृक्ष करोद्यतैः ।
वेगात् करालहुङ्कारैः भुभुक्कार महारवैः ॥ ७॥
नदद्भिः परिवादद्भिः समरे रावणं प्रति ।
श्रीराम शत्रुसङ्घान् मे हन मर्दय घातय ॥ ८॥
भूतप्रेत पिशाचादीन् श्रीरामशु विनाशय ।
एवं ध्यात्वा जपेत् राम कवचं सिद्धि दायकम् ॥ ९॥
सुतीक्ष्ण वज्रकवचं श्रुणुवक्ष्याम्यहं शुभम् ।
श्रीरामः पातु मे मूर्ध्नि पूर्वे च रघुवंशजः ॥ १०॥
दक्षिणे मे रघुवरः पश्चिमे पातु पावनः ।
उत्तरे मे रघुपतिः भालं दशरथात्मजः ॥ ११॥
भृवोर् दूर्वादळश्यामः तयोर्मध्ये जनार्दनः ।
श्रोत्रं मे पातु राजेन्द्रो दृशौ राजीवलोचनः ॥ १२॥
घ्राणं मे पातु राजर्षिः कण्ठं मे जानकीपतिः ।
कर्णमूले ख्रध्वंसी भालं मे रघुवल्लभः ॥ १३॥
जिह्वां मे वाक्पतिः पातु दन्तवल्यौ रघूत्तमः ।
ओष्ठौ श्रीरामचन्द्रो मे मुखं पातु परात्परः ॥ १४॥
कण्ठं पातु जगत् वन्द्यः स्कन्धौ मे रावणान्तकः ।
धनुर्बाणधरः पातु भुजौ मे वालिमर्दनः ॥ १५॥
सर्वाण्यङ्गुळि पर्वाणि हस्तौ मे राक्षसान्तकः ।
वक्षो मे पातु काकुत्स्थः पातु मे हृदयं हरिः ॥ १६॥
स्तनौ सीतापतिः पातु पार्श्वे मे जगदीश्वरः ।
मध्यं मे पातु लक्ष्मीशो नभिं मे रघुनायकः ॥ १७॥
कौसल्येयः कटिं पातु पृष्टं दुर्गति नाशनः ।
गुह्यं पातु हृषीकेशः सक्थिनी सत्यविक्रमः ॥ १८॥
ऊरू शार्ङ्गधरः पातु जानुनी हनुमत्प्रियः ।
जङ्घे पातु जगद्व्यापी पादौ मे ताटिकान्तकः ॥ १९॥
सर्वाङ्गं पातु मे विष्णुः सर्वसन्धीननामयः ।
ज्ञानेन्द्रियाणि प्राणादीन् पातु मे मधुसूदनः ॥ २०॥
पातु श्रीरामभद्रो मे शब्दादीन् विषयानपि ।
द्विपदादीनि भूतानि मत्सम्बन्धीनि यानि च ॥ २१॥
जामतग्न्य महादर्पदळनः पातु तानि मे ।
सौमित्रि पूर्वजः पातु वागादीनीन्द्रियाणि च ॥ २२॥
रोमाङ्कुराण्यशेषाणि पातु सुग्रीव राज्यदः ।
वाङ्मनो बुद्ध्यहङ्कारैः ज्ञानाज्ञान कृतानि च ॥ २३॥
जन्मान्तर कृतानीह पापानि विविधानि च ।
तानि सर्वाणि दग्ध्वाशु हरकोदण्डखण्डनः ॥ २४॥
पातु मां सर्वतो रामः शार्ङ्ग बाणधर: सदा ।
इति श्रीरामचन्द्रस्य कवचं वज्रसंमितम् ॥ २५॥
गुह्यात् गुह्यतमं दिव्यं सुतीक्ष्ण मुनिसत्तमः ।
यः पठेत् श्रुणुयाद्वापि श्रावयेद् वा समाहितः ॥ २६॥
स याति परमं स्थानं रामचन्द्र प्रसादतः ।
महापातकयुक्तो वा गोघ्नो वा भॄणहातथा ॥ २७॥
श्रीरमचन्द्र कवच पठनात् सुद्धि माप्नुयात् ।
ब्रह्महत्यादिभिः पापैः मुच्यते नात्र संशयः ॥ २८॥
॥ इति श्री रामकवचं सम्पूर्णम् ॥
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महिदेव गवासा ॥ सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा ॥ दो. जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। सन्त हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ 6 ॥ अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥ काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकि भलाई ॥ सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीम् ॥ खलु करहिं भल पाइ सुसङ्गू। मिटि न मलिन सुभाउ अभङ्गू ॥ लखि सुबेष जग बञ्चक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥ उधरहिं अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू ॥ किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू ॥ हानि कुसङ्ग सुसङ्गति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥ गगन चढ़इ रज पवन प्रसङ्गा। कीचहिं मिलि नीच जल सङ्गा ॥ साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी ॥ धूम कुसङ्गति कारिख होई। लिखिअ पुरान मञ्जु मसि सोई ॥ सोइ जल अनल अनिल सङ्घाता। होइ जलद जग जीवन दाता ॥ दो. ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ 7(क) ॥ सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह। ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ 7(ख) ॥ जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बन्दुँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ 7(ग) ॥ देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब। बन्दुँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ 7(घ) ॥ आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी ॥ सीय राममय सब जग जानी। करुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ जानि कृपाकर किङ्कर मोहू। सब मिलि करहु छाड़इ छल छोहू ॥ निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करुँ सब पाही ॥ करन चहुँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥ सूझ न एकु अङ्ग उप्AU। मन मति रङ्क मनोरथ र्AU ॥ मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरि न छाछी ॥ छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥ जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥ हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी ॥ निज कवित केहि लाग न नीका। सरस हौ अथवा अति फीका ॥ जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीम् ॥ जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़इ बढ़हिं जल पाई ॥ सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥ दो. भाग छोट अभिलाषु बड़ करुँ एक बिस्वास। पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास ॥ 8 ॥ खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकण्ठ कठोरा ॥ हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥ कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥ भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ॥ प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी ॥ हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की ॥ राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥ कबि न हौँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू ॥ आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना ॥ भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥ कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहुँ लिखि कागद कोरे ॥ दो. भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक। सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक ॥ 9 ॥ एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥ मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥ बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी ॥ सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अङ्कित जानी ॥ सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही ॥ जदपि कबित रस एकु नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीम् ॥ सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसङ्ग बडप्पनु पावा ॥ धूमु तजि सहज करुआई। अगरु प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई ॥ भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मङ्गल करनी ॥ छं. मङ्गल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ॥ गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥ प्रभु सुजस सङ्गति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ॥ भव अङ्ग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥ दो. प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग। दारु बिचारु कि करि कौ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग ॥ 10(क) ॥ स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ 10(ख) ॥ मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥ नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥ तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीम् ॥ भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई ॥ राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥ कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥ कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥ हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥ जौं बरषि बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥ दो. जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग। पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ 11 ॥ जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला ॥ चलत कुपन्थ बेद मग छाँड़ए। कपट कलेवर कलि मल भाँड़एम् ॥ बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के ॥ तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरमध्वज धन्धक धोरी ॥ जौं अपने अवगुन सब कहूँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहूँ ॥ ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥ समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कौ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥ एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रङ्का ॥ कबि न हौँ नहिं चतुर कहावुँ। मति अनुरूप राम गुन गावुँ ॥ कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥ जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़आहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीम् ॥ समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई ॥ दो. सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान ॥ 12 ॥ सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥ तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥ एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा ॥ ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥ सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥ जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥ गी बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू ॥ बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी ॥ तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहुँ नाइ राम पद माथा ॥ मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥ दो. अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढि पिपीलिकु परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिम् ॥ 13 ॥ एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहुँ रघुपति कथा सुहाई ॥ ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥ चरन कमल बन्दुँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥ कलि के कबिन्ह करुँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥ जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥ भे जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवुँ सबहिं कपट सब त्यागेम् ॥ होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू ॥ जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीम् ॥ कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥ राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा ॥ तुम्हरी कृपा सुलभ सौ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥ दो. सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान। सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥ 14(क) ॥ सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर। करहु कृपा हरि जस कहुँ पुनि पुनि करुँ निहोर ॥ 14(ख) ॥ कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल। बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल ॥ 14(ग) ॥ सो. बन्दुँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयु। सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित ॥ 14(घ) ॥ बन्दुँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस। जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ 14(ङ) ॥ बन्दुँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ। सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ 14(च) ॥ दो. बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बन्दि कहुँ कर जोरि। होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मञ्जु मनोरथ मोरि ॥ 14(छ) ॥ पुनि बन्दुँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥ मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥ गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवुँ दीनबन्धु दिन दानी ॥ सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥ कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥ अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥ सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला ॥ सुमिरि सिवा सिव पाइ पस्AU। बरनुँ रामचरित चित च्AU ॥ भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥ जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥ होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी ॥ दो. सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ। तौ फुर हौ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ 15 ॥ बन्दुँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥ प्रनवुँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥ सिय निन्दक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥ बन्दुँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची ॥ प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥ दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमङ्गल मूरति मानी ॥ करुँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥ जिन्हहि बिरचि बड़ भयु बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता ॥ सो. बन्दुँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ 16 ॥ प्रनवुँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥ जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥ प्रनवुँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥ राम चरन पङ्कज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजि न पासू ॥ बन्दुँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥ रघुपति कीरति बिमल पताका। दण्ड समान भयु जस जाका ॥ सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर ॥ रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी ॥ महावीर बिनवुँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना ॥ सो. प्रनवुँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ 17 ॥ कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा ॥ बन्दुँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥ रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते ॥ बन्दुँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे ॥ सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥ प्रनवुँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥ जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की ॥ ताके जुग पद कमल मनावुँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावुँ ॥ पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दुँ सब लायक ॥ राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुख दायक ॥ दो. गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। बदुँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ 18 ॥ बन्दुँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥ बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥ महामन्त्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥ महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभ्AU ॥ जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयु सुद्ध करि उलटा जापू ॥ सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय सङ्ग भवानी ॥ हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को ॥ नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ दो. बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास ॥ राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥ 19 ॥ आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥ सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू ॥ कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥ बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥ नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन । स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥ जन मन मञ्जु कञ्ज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से ॥ दो. एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जौ। तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दौ ॥ 20 ॥ समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥ नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥ को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ॥ देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ॥ रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानेम् ॥ सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषेम् ॥ नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी ॥ अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥ दो. राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥ 21 ॥ नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरञ्चि प्रपञ्च बियोगी ॥ ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा ॥ जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥ साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ॥ जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसङ्कट होहिं सुखारी ॥ राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥ चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥ चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभ्AU। कलि बिसेषि नहिं आन उप्AU ॥ दो. सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥ 22 ॥ अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥ मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतेम् ॥ प्रोढ़इ सुजन जनि जानहिं जन की। कहुँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥ एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥ उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तेम् ॥ ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी ॥ अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी ॥ नाम निरूपन नाम जतन तें। सौ प्रगटत जिमि मोल रतन तेम् ॥ दो. निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार। कहुँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ 23 ॥ राम भगत हित नर तनु धारी। सहि सङ्कट किए साधु सुखारी ॥ नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मङ्गल बासा ॥ राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥ रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी ॥ सहित दोष दुख दास दुरासा। दलि नामु जिमि रबि निसि नासा ॥ भञ्जेउ राम आपु भव चापू। भव भय भञ्जन नाम प्रतापू ॥ दण्डक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन ॥ । निसिचर निकर दले रघुनन्दन। नामु सकल कलि कलुष निकन्दन ॥ दो. सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ। नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥ 24 ॥ राम सुकण्ठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥ नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे ॥ राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ॥ नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीम् ॥ राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा ॥ राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी ॥ सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ॥ फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनेम् ॥ दो. ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि। रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥ 25 ॥ मासपारायण, पहला विश्राम नाम प्रसाद सम्भु अबिनासी। साजु अमङ्गल मङ्गल रासी ॥ सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥ नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥ नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥ ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि न्AUँ। पायु अचल अनूपम ठ्AUँ ॥ सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू ॥ अपतु अजामिलु गजु गनिक्AU। भे मुकुत हरि नाम प्रभ्AU ॥ कहौं कहाँ लगि नाम बड़आई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥ दो. नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु। जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ 26 ॥ चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भे नाम जपि जीव बिसोका ॥ बेद पुरान सन्त मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥ ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजेम् ॥ कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥ नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला ॥ राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता ॥ नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलम्बन एकू ॥ कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥ दो. राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल। जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ 27 ॥ भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ ॥ सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करुँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥ मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥ राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥ लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥ गनी गरीब ग्रामनर नागर। पण्डित मूढ़ मलीन उजागर ॥ सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी ॥ साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला ॥ सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥ यह प्राकृत महिपाल सुभ्AU। जान सिरोमनि कोसलर्AU ॥ रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मन्द मलिनमति मोतेम् ॥ दो. सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु। उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ 28(क) ॥ हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास। साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ 28(ख) ॥ अति बड़इ मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥ समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनेम् ॥ सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥ कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की ॥ रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की ॥ जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकण्ठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥ सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥ ते भरतहि भेण्टत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥ दो. प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥ तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ 29(क) ॥ राम निकाईं रावरी है सबही को नीक। जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ 29(ख) ॥ एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ। बरनुँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ 29(ग) ॥ जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥ कहिहुँ सोइ सम्बाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥ सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥ सोइ सिव कागभुसुण्डिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥ तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥ ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥ जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना ॥ औरु जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥ दो. मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत। समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ 30(क) ॥ श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़। किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ 30(ख) तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥ भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥ जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहुँ हियँ हरि के प्रेरेम् ॥ निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करुँ कथा भव सरिता तरनी ॥ बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि ॥ रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥ रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥ सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि ॥ असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि ॥ सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥ जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥ रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥ सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी ॥ सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥ दो. राम कथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु। तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ 31 ॥ राम चरित चिन्तामनि चारू। सन्त सुमति तिय सुभग सिङ्गारू ॥ जग मङ्गल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥ सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥ जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥ समन पाप सन्ताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के ॥ सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुम्भज लोभ उदधि अपार के ॥ काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के ॥ अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के ॥ मन्त्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअङ्क भाल के ॥ हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से ॥ अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥ सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से ॥ सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥ सेवक मन मानस मराल से। पावक गङ्ग तंरग माल से ॥ दो. कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दम्भ पाषण्ड। दहन राम गुन ग्राम जिमि इन्धन अनल प्रचण्ड ॥ 32(क) ॥ रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु। सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ 32(ख) ॥ कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि सङ्कर कहा बखानी ॥ सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबन्ध बिचित्र बनाई ॥ जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥ कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥ रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीम् ॥ नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा ॥ कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥ करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥ दो. राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार। सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ 33 ॥ एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पङ्कज धूरी ॥ पुनि सबही बिनवुँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥ सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनुँ बिसद राम गुन गाथा ॥ सम्बत सोरह सै एकतीसा। करुँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥ नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥ जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिम् ॥ असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥ जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना ॥ दो. मज्जहि सज्जन बृन्द बहु पावन सरजू नीर। जपहिं राम धरि ध्यान उर सुन्दर स्याम सरीर ॥ 34 ॥ दरस परस मज्जन अरु पाना। हरि पाप कह बेद पुराना ॥ नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकि सारद बिमलमति ॥ राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥ चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा ॥ सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मङ्गल खानी ॥ बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा ॥ रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥ मन करि विषय अनल बन जरी। होइ सुखी जौ एहिं सर परी ॥ रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ सम्भु सुहावन पावन ॥ त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥ रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमु सिवा सन भाषा ॥ तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥ कहुँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥ दो. जस मानस जेहि बिधि भयु जग प्रचार जेहि हेतु। अब सोइ कहुँ प्रसङ्ग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ 35 ॥ सम्भु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी ॥ करि मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥ सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू ॥ बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी ॥ लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करि मल हानी ॥ प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥ सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई ॥ मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥ भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥ दो. सुठि सुन्दर सम्बाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि। तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ 36 ॥ सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना ॥ रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥ राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥ पुरिनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मञ्जु मनि सीप सुहाई ॥ छन्द सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहुरङ्ग कमल कुल सोहा ॥ अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरन्द सुबासा ॥ सुकृत पुञ्ज मञ्जुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला ॥ धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥ अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥ नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़आगा ॥ सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥ सन्तसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसन्त सम गाई ॥ भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना ॥ सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना ॥ औरु कथा अनेक प्रसङ्गा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहङ्गा ॥ दो. पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहङ्ग बिहारु। माली सुमन सनेह जल सीञ्चत लोचन चारु ॥ 37 ॥ जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥ सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥ अति खल जे बिषी बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥ सम्बुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥ तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे ॥ आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥ कठिन कुसङ्ग कुपन्थ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥ गृह कारज नाना जञ्जाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥ बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयङ्कर नाना ॥ दो. जे श्रद्धा सम्बल रहित नहि सन्तन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ 38 ॥ जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीन्द जुड़आई होई ॥ जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गेहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥ करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवि समेत अभिमाना ॥ जौं बहोरि कौ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा ॥ सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥ सोइ सादर सर मज्जनु करी। महा घोर त्रयताप न जरी ॥ ते नर यह सर तजहिं न क्AU। जिन्ह के राम चरन भल भ्AU ॥ जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करु मन लाई ॥ अस मानस मानस चख चाही। भि कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥ भयु हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥ चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो ॥ सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला ॥ नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि ॥ दो. श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल। सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल ॥ 39 ॥ रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥ सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥ जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥ त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिन्धु समुहानी ॥ मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही ॥ बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥ उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥ रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई ॥ दो. बालचरित चहु बन्धु के बनज बिपुल बहुरङ्ग। नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहङ्ग ॥ 40 ॥ सीय स्वयम्बर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥ नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका ॥ सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई ॥ घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥ सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥ कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीम् ॥ राम तिलक हित मङ्गल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा ॥ काई कुमति केकी केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी ॥ दो. समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग। कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ 41 ॥ कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी ॥ हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥ बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू ॥ ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू ॥ बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी ॥ राम राज सुख बिनय बड़आई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥ सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥ भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई ॥ दो. अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास। भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास ॥ 42 ॥ आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥ अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी ॥ राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥ भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥ काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़आवन ॥ सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तेम् ॥ जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए ॥ तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥ दो. मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ। सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ 43(क) ॥ अब रघुपति पद पङ्करुह हियँ धरि पाइ प्रसाद । कहुँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग सम्बाद ॥ 43(ख) ॥ भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥ तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना ॥ माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥ देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीम् ॥ पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥ भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥ तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥ दो. ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग। कहहिं भगति भगवन्त कै सञ्जुत ग्यान बिराग ॥ 44 ॥ एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीम् ॥ प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृन्दा ॥ एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥ जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी ॥ सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे ॥ करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥ नाथ एक संसु बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरेम् ॥ कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहुँ बड़ होइ अकाजा ॥ दो. सन्त कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव। होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ 45 ॥ अस बिचारि प्रगटुँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥ रास नाम कर अमित प्रभावा। सन्त पुरान उपनिषद गावा ॥ सन्तत जपत सम्भु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥ आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीम् ॥ सोऽपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया ॥ रामु कवन प्रभु पूछुँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥ एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥ नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥ दो. प्रभु सोइ राम कि अपर कौ जाहि जपत त्रिपुरारि। सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ 46 ॥ जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥ जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥ राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥ चाहहु सुनै राम गुन गूढ़आ। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़आ ॥ तात सुनहु सादर मनु लाई। कहुँ राम कै कथा सुहाई ॥ महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला ॥ रामकथा ससि किरन समाना। सन्त चकोर करहिं जेहि पाना ॥ ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी ॥ दो. कहुँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद। भयु समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ 47 ॥ एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गे कुम्भज रिषि पाहीम् ॥ सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥ रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी ॥ रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई ॥ कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥ मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥ तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥ पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी ॥ दो. ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ। गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गेँ जान सबु कोइ ॥ 48(क) ॥ सो. सङ्कर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥ तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ 48(ख) ॥ रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥ जौं नहिं जाउँ रहि पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा ॥ एहि बिधि भे सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा ॥ लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा। भयु तुरत सोइ कपट कुरङ्गा ॥ करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥ मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥ बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दौ भाई ॥ कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकेम् ॥ दो. अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमन्द बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ 49 ॥ सम्भु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥ भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥ जय सच्चिदानन्द जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥ चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥ सतीं सो दसा सम्भु कै देखी। उर उपजा सन्देहु बिसेषी ॥ सङ्करु जगतबन्द्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥ तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानन्द परधामा ॥ भे मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥ दो. ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ 50 ॥ बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सौ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥ खोजि सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥ सम्भुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥ अस संसय मन भयु अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥ जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अन्तरजामी सब जानी ॥ सुनहि सती तव नारि सुभ्AU। संसय अस न धरिअ उर क्AU ॥ जासु कथा कुभञ्ज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥ सौ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥ छं. मुनि धीर जोगी सिद्ध सन्तत बिमल मन जेहि ध्यावहीं। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीम् ॥ सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनि ॥ सो. लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु। बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ 51 ॥ जौं तुम्हरें मन अति सन्देहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥ तब लगि बैठ अहुँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥ जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥ चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई ॥ इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥ मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधी बिपरीत भलाई नाहीम् ॥ होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़आवै साखा ॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गी सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥ दो. पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप। आगें होइ चलि पन्थ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ 52 ॥ लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भे भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥ कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥ सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी ॥ सुमिरत जाहि मिटि अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥ सती कीन्ह चह तहँहुँ दुर्AU। देखहु नारि सुभाव प्रभ्AU ॥ निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥ जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥ दो. राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति सङ्कोचु। सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ 53 ॥ मैं सङ्कर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना ॥ जाइ उतरु अब देहुँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा ॥ जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥ सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥ फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बन्धु सिय सुन्दर वेषा ॥ जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥ देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका ॥ बन्दत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा ॥ दो. सती बिधात्री इन्दिरा देखीं अमित अनूप। जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ 54 ॥ देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥ जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा ॥ पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा ॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे ॥ सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भी सभीता ॥ हृदय कम्प तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीम् ॥ बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥ पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥ दो. गी समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ 55 ॥ मासपारायण, दूसरा विश्राम सतीं समुझि रघुबीर प्रभ्AU। भय बस सिव सन कीन्ह दुर्AU ॥ कछु न परीछा लीन्हि गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥ जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥ तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥ बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥ हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत सम्भु सुजाना ॥ सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयु बिषाद बिसेषा ॥ जौं अब करुँ सती सन प्रीती। मिटि भगति पथु होइ अनीती ॥ दो. परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु। प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु ॥ 56 ॥ तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥ एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीम् ॥ अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥ चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़आई ॥ अस पन तुम्ह बिनु करि को आना। रामभगत समरथ भगवाना ॥ सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥ कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥ जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥ दो. सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य। कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ 57क ॥ हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहि बरनी ॥ कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥ सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपि अवाँ इव उर अधिकाई ॥ सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू ॥ बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥ तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन ॥ सङ्कर सहज सरुप संहारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा ॥ दो. सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं। मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिम् ॥ 58 ॥ नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहुँ दुख सागर पारा ॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥ सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥ अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही। सङ्कर बिमुख जिआवसि मोही ॥ कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥ जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरती हरन बेद जसु गावा ॥ तौ मैं बिनय करुँ कर जोरी। छूटु बेगि देह यह मोरी ॥ जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥ दो. तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करु सो बेगि उपाइ। होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ 59 ॥ सो. जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि। बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ 57ख ॥ एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥ बीतें सम्बत सहस सतासी। तजी समाधि सम्भु अबिनासी ॥ राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥ जाइ सम्भु पद बन्दनु कीन्ही। सनमुख सङ्कर आसनु दीन्हा ॥ लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भे तेहि काला ॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥ बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥ नहिं कौ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीम् ॥ दो. दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग। नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ 60 ॥ किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥ बिष्नु बिरञ्चि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई ॥ सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना ॥ सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥ पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥ जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीम् ॥ पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहि न निज अपराध बिचारी ॥ बोली सती मनोहर बानी। भय सङ्कोच प्रेम रस सानी ॥ दो. पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ 61 ॥ कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हु बिसराई ॥ ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥ जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहि न सीलु सनेहु न कानी ॥ जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥ तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गेँ कल्यानु न होई ॥ भाँति अनेक सम्भु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥ दो. कहि देखा हर जतन बहु रहि न दच्छकुमारि। दिए मुख्य गन सङ्ग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ 62 ॥ पिता भवन जब गी भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥ सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥ दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥ सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख सम्भु कर भागा ॥ तब चित चढ़एउ जो सङ्कर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥ पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयु महा परितापा ॥ जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना ॥ समुझि सो सतिहि भयु अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥ दो. सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध। सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ 63 ॥ सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा ॥ सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥ सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥ काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥ जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी ॥ पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही ॥ तजिहुँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयु सकल मख हाहाकारा ॥ दो. सती मरनु सुनि सम्भु गन लगे करन मख खीस। जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ 64 ॥ समाचार सब सङ्कर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥ जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥ भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु सम्भु बिमुख कै होई ॥ यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं सञ्छेप बखानी ॥ सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥ तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई ॥ जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि सम्पति तहँ छाई ॥ जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥ दो. सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति। प्रगटीं सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ 65 ॥ सरिता सब पुनित जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीम् ॥ सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥ सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥ नित नूतन मङ्गल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥ नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥ सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥ नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिञ्चावा ॥ निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥ दो. त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥ कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ 66 ॥ कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥ सुन्दर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अम्बिका भवानी ॥ सब लच्छन सम्पन्न कुमारी। होइहि सन्तत पियहि पिआरी ॥ सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥ होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीम् ॥ एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥ सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥ अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना ॥ दो. जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष ॥ अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ 67 ॥ सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी ॥ नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना ॥ सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना ॥ होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥ उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू ॥ जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥ झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दम्पति सखीं सयानी ॥ उर धरि धीर कहि गिरिर्AU। कहहु नाथ का करिअ उप्AU ॥ दो. कह मुनीस हिमवन्त सुनु जो बिधि लिखा लिलार। देव दनुज नर नाग मुनि कौ न मेटनिहार ॥ 68 ॥ तदपि एक मैं कहुँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई ॥ जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीम् ॥ जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥ जौं बिबाहु सङ्कर सन होई। दोषु गुन सम कह सबु कोई ॥ जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीम् ॥ भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मन्द कहत कौ नाहीम् ॥ सुभ अरु असुभ सलिल सब बही। सुरसरि कौ अपुनीत न कही ॥ समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई ॥ दो. जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़इ बिबेक अभिमान। परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ 69 ॥ सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना ॥ सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसेम् ॥ सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥ दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥ जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥ जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीम् ॥ बर दायक प्रनतारति भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक मन रञ्जन ॥ इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधेम् ॥ दो. अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस। होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ 70 ॥ कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयू। आगिल चरित सुनहु जस भयू ॥ पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥ जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥ न त कन्या बरु रहु कुआरी। कन्त उमा मम प्रानपिआरी ॥ जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥ सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥ अस कहि परि चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा ॥ बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीम् ॥ दो. प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान। पारबतिहि निरमयु जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ 71 ॥ अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥ करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥ नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब गुन निधि बृषकेतू ॥ अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का। सबहि भाँति सङ्करु अकलङ्का ॥ सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गी तुरत उठि गिरिजा पाहीम् ॥ उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी ॥ बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कण्ठ न कछु कहि जाई ॥ जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥ दो. सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावुँ तोहि। सुन्दर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ 72 ॥ करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥ मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥ तपबल रचि प्रपञ्च बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥ तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तपबल सेषु धरि महिभारा ॥ तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥ सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायु गिरिहि हँकारी ॥ मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई ॥ प्रिय परिवार पिता अरु माता। भे बिकल मुख आव न बाता ॥ दो. बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥ पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ 73 ॥ उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥ अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥ नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥ सम्बत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥ कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥ बेल पाती महि परि सुखाई। तीनि सहस सम्बत सोई खाई ॥ पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयु अपरना ॥ देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥ दो. भयु मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि। परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ 74 ॥ अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भु अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥ अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा सन्तत सुचि जानी ॥ आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीम् ॥ मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥ सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥ उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा ॥ जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें सिव मन भयु बिरागा ॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥ दो. चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम। बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ 75 ॥ कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥ एहि बिधि गयु कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती ॥ नैमु प्रेमु सङ्कर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥ प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला ॥ बहु प्रकार सङ्करहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥ बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा ॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥ दो. अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु। जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ 76 ॥ कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीम् ॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥ प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥ अन्तरधान भे अस भाषी। सङ्कर सोइ मूरति उर राखी ॥ तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥ दो. पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु। गिरिहि प्रेरि पठेहु भवन दूरि करेहु सन्देहु ॥ 77 ॥ रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमन्त तपस्या जैसी ॥ बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी ॥ केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥ कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥ मनु हठ परा न सुनि सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा ॥ नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पङ्खन्ह हम चहहिं उड़आना ॥ देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ दो. सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तब देह। नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ 78 ॥ दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥ चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥ मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥ तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥ निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली ॥ कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥ पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥ दो. अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं। सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिम् ॥ 79 ॥ अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥ अति सुन्दर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला ॥ दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुण्ठ निवासी ॥ अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥ सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥ कनकु पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥ नारद बचन न मैं परिहरूँ। बसु भवनु उजरु नहिं डरूँ ॥ गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥ दो. महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम। जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ 80 ॥ जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥ अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा ॥ जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥ तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीम् ॥ जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरुँ सम्भु न त रहुँ कुआरी ॥ तजुँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू ॥ मैं पा परुँ कहि जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयु बिलम्बा ॥ देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी ॥ दो. तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु। नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ 81 ॥ जाइ मुनिन्ह हिमवन्तु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥ बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई ॥ भे मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥ मनु थिर करि तब सम्भु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना ॥ तारकु असुर भयु तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥ तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भे देव सुख सम्पति रीते ॥ अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई ॥ तब बिरञ्चि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे ॥ दो. सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ। सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीति रन सोइ ॥ 82 ॥ मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥ सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥ तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥ जदपि अहि असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥ पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीम् ॥ तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई ॥ एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहि सबु कोई ॥ अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥ दो. सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार। सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ 83 ॥ तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥ पर हित लागि तजि जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही ॥ अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥ चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥ तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥ कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥ ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥ सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥ छं. भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे। सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥ होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा। दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोऽपि कर धनु सरु धरा ॥ दो. जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम। ते निज निज मरजाद तजि भे सकल बस काम ॥ 84 ॥ सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥ नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाई। सङ्गम करहिं तलाव तलाई ॥ जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकि सचेतन करनी ॥ पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भे कामबस समय बिसारी ॥ मदन अन्ध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥ देव दनुज नर किन्नर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥ इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी ॥ सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भे बियोगी ॥ छं. भे कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै। देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥ अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं। दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयम् ॥ सो. धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे। जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ 85 ॥ उभय घरी अस कौतुक भयू। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयू ॥ सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयु जथाथिति सबु संसारू ॥ भे तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गेँ मतवारे ॥ रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥ फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥ प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥ बन उपबन बापिका तड़आगा। परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥ जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥ छं. जागि मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही। सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही ॥ बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा। कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥ दो. सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत। चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ 86 ॥ देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़एउ मदनु मन माखा ॥ सुमन चाप निज सर सन्धाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥ छाड़ए बिषम बिसिख उर लागे। छुटि समाधि सम्भु तब जागे ॥ भयु ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥ सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयु कोपु कम्पेउ त्रैलोका ॥ तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयु जरि छारा ॥ हाहाकार भयु जग भारी। डरपे सुर भे असुर सुखारी ॥ समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भे अकण्टक साधक जोगी ॥ छं. जोगि अकण्टक भे पति गति सुनत रति मुरुछित भी। रोदति बदति बहु भाँति करुना करति सङ्कर पहिं गी। अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही। प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥ दो. अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनङ्गु। बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसङ्गु ॥ 87 ॥ जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा ॥ कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥ रति गवनी सुनि सङ्कर बानी। कथा अपर अब कहुँ बखानी ॥ देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुण्ठ सिधाए ॥ सब सुर बिष्नु बिरञ्चि समेता। गे जहाँ सिव कृपानिकेता ॥ पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भे प्रसन्न चन्द्र अवतंसा ॥ बोले कृपासिन्धु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू ॥ कह बिधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी। तदपि भगति बस बिनवुँ स्वामी ॥ दो. सकल सुरन्ह के हृदयँ अस सङ्कर परम उछाहु। निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ 88 ॥ यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन। कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा ॥ सासति करि पुनि करहिं पस्AU। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभ्AU ॥ पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अङ्गीकारा ॥ सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ हौ कहा सुखु मानी ॥ तब देवन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥ अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥ प्रथम गे जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी ॥ दो. कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस। अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ 89 ॥ मासपारायण,तीसरा विश्राम सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥ तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि सम्भु रहे सबिकारा ॥ हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥ जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥ तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥ तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥ तात अनल कर सहज सुभ्AU। हिम तेहि निकट जाइ नहिं क्AU ॥ गेँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई ॥ दो. हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ॥ चले भवानिहि नाइ सिर गे हिमाचल पास ॥ 90 ॥ सबु प्रसङ्गु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥ बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवन्त बहुत सुखु माना ॥ हृदयँ बिचारि सम्भु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥ सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥ पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥ जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥ लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥ सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मङ्गल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥ दो. लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान। होहि सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ 91 ॥ सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥ कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला ॥ ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा ॥ गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥ कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़इ बाजहिं बाजा ॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीम् ॥ बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढ़इ चढ़इ बाहन चले बराता ॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥ दो. बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज। बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ 92 ॥ बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने ॥ मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिङ्ग्य बचन नहिं जाहीम् ॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृङ्गिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥ सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥ नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा ॥ कौ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कौ बहु पद बाहू ॥ बिपुल नयन कौ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कौ अति तनखीना ॥ छं. तन खीन कौ अति पीन पावन कौ अपावन गति धरें। भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरेम् ॥ खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै। बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥ सो. नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ 93 ॥ जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥ इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥ सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीम् ॥ बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥ कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी ॥ गे सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा ॥ प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागि लघु बिरञ्चि निपुनाई ॥ छं. लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही। बन बाग कूप तड़आग सरिता सुभग सब सक को कही ॥ मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीम् ॥ बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीम् ॥ दो. जगदम्बा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ। रिद्धि सिद्धि सम्पत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ 94 ॥ नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥ करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना ॥ हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भे सुखारी ॥ सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे ॥ धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने ॥ गेँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कम्पित गाता ॥ कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता ॥ बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥ छं. तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयङ्करा। सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥ जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही। देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥ दो. समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं। बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिम् ॥ 95 ॥ लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए ॥ मैनाँ सुभ आरती सँवारी। सङ्ग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥ कञ्चन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी ॥ बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयु बिसेषा ॥ भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गे महेसु जहाँ जनवासा ॥ मैना हृदयँ भयु दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥ अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥ जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥ छं. कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुन्दरता दी। जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागी ॥ तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौम् ॥ घरु जाउ अपजसु हौ जग जीवत बिबाहु न हौं करौम् ॥ दो. भी बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि। करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ 96 ॥ नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥ अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा ॥ साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया ॥ पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥ जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥ अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरि जो रचि बिधाता ॥ करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥ तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अङ्का। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलङ्का ॥ छं. जनि लेहु मातु कलङ्कु करुना परिहरहु अवसर नहीं। दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीम् ॥ सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीम् ॥ बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीम् ॥ दो. तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ 97 ॥ तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसङ्गु सुनावा ॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी ॥ अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा सम्भु अरधङ्ग निवासिनि ॥ जग सम्भव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥ जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुन्दर तनु पाई ॥ तहँहुँ सती सङ्करहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीम् ॥ एक बार आवत सिव सङ्गा। देखेउ रघुकुल कमल पतङ्गा ॥ भयु मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥ छं. सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध सङ्कर परिहरीं। हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीम् ॥ अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया। अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्कर प्रिया ॥ दो. सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद। छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद ॥ 98 ॥ तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे ॥ नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने ॥ लगे होन पुर मङ्गलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना ॥ भाँति अनेक भी जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥ सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥ सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती ॥ बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा ॥ नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥ छं. गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं। भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीम् ॥ जेवँत जो बढ़यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥ दो. बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठे देव बोलाइ ॥ 99 ॥ बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥ बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥ सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा ॥ बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥ बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिङ्गारु सखीं लै आई ॥ देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है ॥ जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥ सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥ छं. कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसी कहा ॥ छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मण्डप सिव जहाँ ॥ अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥ दो. मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि। कौ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥ 100 ॥ जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥ गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी ॥ पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥ बेद मन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीम् ॥ बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥ हर गिरिजा कर भयु बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥ दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥ अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥ छं. दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो ॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो। पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥ दो. नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु। छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ 101 ॥ बहु बिधि सम्भु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥ जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही ॥ करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥ बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥ कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीम् ॥ भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥ पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥ सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥ छं. जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दीं। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गी ॥ जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥ दो. चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु। बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ 102 ॥ तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई ॥ आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥ जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥ जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेही सिङ्गारु न कहुँ बखानी ॥ करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥ हर गिरिजा बिहार नित नयू। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयू ॥ तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥ छं. जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा ॥ यह उमा सङ्गु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीम् ॥ दो. चरित सिन्धु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमन्द गवाँरु ॥ 103 ॥ सम्भु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥ बहु लालसा कथा पर बाढ़ई। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ई ॥ प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥ अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥ सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीम् ॥ बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू ॥ सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥ पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ दो. प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ 104 ॥ मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहुँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥ सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरेम् ॥ राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥ तदपि जथाश्रुत कहुँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥ सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अन्तरजामी ॥ जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥ प्रनवुँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनुँ बिसद तासु गुन गाथा ॥ परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥ दो. सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किन्नर मुनिबृन्द। बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकन्द ॥ 105 ॥ हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीम् ॥ तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला ॥ त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥ एक बार तेहि तर प्रभु गयू। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयू ॥ निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं सम्भु कृपाला ॥ कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा ॥ तरुन अरुन अम्बुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चन्द छबि हारी ॥ दो. जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल। नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ 106 ॥ बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसेम् ॥ पारबती भल अवसरु जानी। गी सम्भु पहिं मातु भवानी ॥ जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥ बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई ॥ पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥ कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥ बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥ चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा ॥ दो. प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥ जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ 107 ॥ जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥ तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥ जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥ ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥ प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥ सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती ॥ रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई ॥ दो. जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि। देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ 108 ॥ जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥ अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥ मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥ तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा ॥ अजहूँ कछु संसु मन मोरे। करहु कृपा बिनवुँ कर जोरेम् ॥ प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥ तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीम् ॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ दो. बन्दु पद धरि धरनि सिरु बिनय करुँ कर जोरि। बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि ॥ 109 ॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥ गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिम् ॥ अति आरति पूछुँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥ प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥ कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीम् ॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु सङ्कर सुखलीला ॥ दो. बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम। प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ 110 ॥ पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥ औरु राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥ जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सौ दयाल राखहु जनि गोई ॥ तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना ॥ प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥ हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥ श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानन्द अमित सुख पावा ॥ दो. मगन ध्यानरस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह। रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ 111 ॥ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानेम् ॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥ बन्दुँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥ मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवु सो दसरथ अजिर बिहारी ॥ करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥ धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कौ उपकारी ॥ पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा ॥ तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥ दो. रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं। सोक मोह सन्देह भ्रम मम बिचार कछु नाहिम् ॥ 112 ॥ तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई ॥ जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना ॥ नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा। लोचन मोरपङ्ख कर लेखा ॥ ते सिर कटु तुम्बरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥ जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥ जो नहिं करि राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना ॥ कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥ गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥ दो. रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि। सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ 113 ॥ रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी ॥ रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥ राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥ जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना ॥ तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहुँ देखि प्रीति अति तोरी ॥ उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई ॥ एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥ तुम जो कहा राम कौ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥ दो. कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ 114 ॥ अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी ॥ लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी ॥ कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥ मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना ॥ जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥ हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीम् ॥ बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥ जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना ॥ सो. अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद। सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ 115 ॥ सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥ अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसेम् ॥ जासु नाम भ्रम तिमिर पतङ्गा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसङ्गा ॥ राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥ सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥ हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥ राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना ॥ दो. पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥ रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायु माथ ॥ 116 ॥ निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥ जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥ चितव जो लोचन अङ्गुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥ उमा राम बिषिक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥ बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता ॥ सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ॥ जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥ जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया ॥ दो. रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकि कौ टारि ॥ 117 ॥ एहि बिधि जग हरि आश्रित रही। जदपि असत्य देत दुख अही ॥ जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥ जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥ आदि अन्त कौ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा ॥ बिनु पद चलि सुनि बिनु काना। कर बिनु करम करि बिधि नाना ॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥ तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहि घ्रान बिनु बास असेषा ॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ दो. जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥ सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥ 118 ॥ कासीं मरत जन्तु अवलोकी। जासु नाम बल करुँ बिसोकी ॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अन्तरजामी ॥ बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीम् ॥ सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीम् ॥ राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥ अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीम् ॥ सुनि सिव के भ्रम भञ्जन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥ भि रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असम्भावना बीती ॥ दो. पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि। बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ 119 ॥ ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी ॥ तुम्ह कृपाल सबु संसु हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥ नाथ कृपाँ अब गयु बिषादा। सुखी भयुँ प्रभु चरन प्रसादा ॥ अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी ॥ प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥ राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥ नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥ उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥ दो. हिँयँ हरषे कामारि तब सङ्कर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥ 120(क) ॥ नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम सो. सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल। कहा भुसुण्डि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ 120(ख) ॥ सो सम्बाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब। सुनहु राम अवतार चरित परम सुन्दर अनघ ॥ 120(ग) ॥ हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित। मैं निज मति अनुसार कहुँ उमा सादर सुनहु ॥ 120(घ ॥ सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥ हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥ राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी ॥ तदपि सन्त मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥ तस मैं सुमुखि सुनावुँ तोही। समुझि परि जस कारन मोही ॥ जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥ दो. असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु। जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ 121 ॥ सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिन्धु जन हित तनु धरहीम् ॥ राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका ॥ जनम एक दुइ कहुँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी ॥ द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥ बिप्र श्राप तें दूनु भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥ कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥ बिजी समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता ॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥ दो. भे निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान। कुम्भकरन रावण सुभट सुर बिजी जग जान ॥ 122 । मुकुत न भे हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥ एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥ कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥ एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा ॥ एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलन्धर सन सब हारे ॥ सम्भु कीन्ह सङ्ग्राम अपारा। दनुज महाबल मरि न मारा ॥ परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥ दो. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥ जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥ 123 ॥ तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥ तहाँ जलन्धर रावन भयू। रन हति राम परम पद दयू ॥ एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥ नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥ गिरिजा चकित भी सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥ कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा ॥ यह प्रसङ्ग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी ॥ दो. बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ। जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ 124(क) ॥ सो. कहुँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। भव भञ्जन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ 124(ख) ॥ हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा ॥ निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयु रमापति पद अनुरागा ॥ सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी ॥ मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥ सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥ जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीम् ॥ दो. सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज। छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ 125 ॥ तेहि आश्रमहिं मदन जब गयू। निज मायाँ बसन्त निरमयू ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहि भृङ्गा ॥ चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़आवनिहारी ॥ रम्भादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना ॥ करहिं गान बहु तान तरङ्गा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतङ्गा ॥ देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपञ्च बिधि नाना ॥ काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥ सीम कि चाँपि सकि कौ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू ॥ दो. सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन। गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ 126 ॥ भयु न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥ नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयु मदन तब सहित सहाई ॥ मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥ सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥ तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीम् ॥ मार चरित सङ्करहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥ बार बार बिनवुँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीम् ॥ तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसङ्ग दुराएडु तबहूँ ॥ दो. सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान। भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ 127 ॥ राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए ॥ एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥ छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥ हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता ॥ बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥ काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥ अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया ॥ दो. रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ 128 ॥ सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करि मनोभव पीरा ॥ नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अङ्कुरेउ गरब तरु भारी ॥ बेगि सो मै डारिहुँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी ॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई ॥ तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥ दो. बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार। श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ 129 ॥ बसहिं नगर सुन्दर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥ तेहिं पुर बसि सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा ॥ सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा ॥ बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥ सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥ करि स्वयम्बर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला ॥ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयू। पुरबासिंह सब पूछत भयू ॥ सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥ दो. आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ 130 ॥ देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ई बार लगि रहे निहारी ॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥ जो एहि बरि अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥ सेवहिं सकल चराचर ताही। बरि सीलनिधि कन्या जाही ॥ लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीम् ॥ करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलि कवन बिधि बाला ॥ दो. एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल। जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ 131 ॥ हरि सन मागौं सुन्दरताई। होइहि जात गहरु अति भाई ॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥ बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़आने। होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥ अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई ॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥ जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥ निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥ दो. जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ 132 ॥ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयू। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयू ॥ माया बिबस भे मुनि मूढ़आ। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़आ ॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई ॥ निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरेम् ॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥ दो. रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ 133 ॥ जेंहि समाज बैण्ठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखि न कोऊ ॥ करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई ॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥ मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परि बुद्धि भ्रम सानी ॥ काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥ मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥ दो. सखीं सङ्ग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल। देखत फिरि महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ 134 ॥ जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीम् ॥ धरि नृपतनु तहँ गयु कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयु निरासा ॥ मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गी छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥ अस कहि दौ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़आ। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़आ ॥ दो. होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दौ। हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कौ ॥ 135 ॥ पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीम् ॥ देहुँ श्राप कि मरिहुँ जाई। जगत मोर उपहास कराई ॥ बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी ॥ बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईम् ॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा ॥ पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥ मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥ दो. असुर सुरा बिष सङ्करहि आपु रमा मनि चारु। स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ 136 ॥ परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई। भावि मनहि करहु तुम्ह सोई ॥ भलेहि मन्द मन्देहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥ डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असङ्क मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥ भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥ बञ्चेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ दो. श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि। निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ 137 ॥ जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥ मृषा हौ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला ॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥ जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरन्त बिश्रामा ॥ कौ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरेम् ॥ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई ॥ दो. बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भे अन्तरधान ॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ 138 ॥ हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥ अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए ॥ हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला ॥ निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ। समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भे निसाचर कालहि पाई ॥ दो. एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुर रञ्जन सज्जन सुखद हरि भञ्जन भुबि भार ॥ 139 ॥ एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुन्दर सुखद बिचित्र घनेरे ॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीम् ॥ तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबन्ध बनाई ॥ बिबिध प्रसङ्ग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥ हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब सन्ता ॥ रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥ यह प्रसङ्ग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥ सो. सुर नर मुनि कौ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥ अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ 140 ॥ अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहुँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयु कोसलपुर भूपा ॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बन्धु समेत धरें मुनिबेषा ॥ जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी ॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहुँ मति अनुसारा ॥ भरद्वाज सुनि सङ्कर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयु जेहि हेतू ॥ दो. सो मैं तुम्ह सन कहुँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥ राम कथा कलि मल हरनि मङ्गल करनि सुहाइ ॥ 141 ॥ स्वायम्भू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दम्पति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥ नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयु सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥ देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥ साङ्ख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥ सो. होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयु हरिभगति बिनु ॥ 142 ॥ बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पन्थ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरन्धर नृपरिषि जानी ॥ जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना । दो. द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग ॥ 143 ॥ करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे ॥ उर अभिलाष निंरन्तर होई। देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी ॥ नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा ॥ सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥ ऐसेउ प्रभु सेवक बस अही। भगत हेतु लीलातनु गही ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥ दो. एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार। सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार ॥ 144 ॥ बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़ए रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा ॥ मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥ प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी ॥ मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रन्ध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भे सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥ दो. श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात। बोले मनु करि दण्डवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ 145 ॥ सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बन्दित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक ॥ जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीम् ॥ जो भुसुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥ दम्पति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥ दो. नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ 146 ॥ सरद मयङ्क बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुन्दर नासा। बिधु कर निकर बिनिन्दक हासा ॥ नव अबुञ्ज अम्बक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥ कुण्डल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला ॥ केहरि कन्धर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुन्दर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदण्डा। कटि निषङ्ग कर सर कोदण्डा ॥ दो. तडित बिनिन्दक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ 147 ॥ पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीम् ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥ जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई ॥ छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥ हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दण्ड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कञ्जा। तुरत उठाए करुनापुञ्जा ॥ दो. बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ 148 ॥ सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे ॥ एक लालसा बड़इ उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीम् ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईम् ॥ जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु सम्पति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई ॥ सो तुम्ह जानहु अन्तरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥ दो. दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहुँ सतिभाउ ॥ चाहुँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ 149 ॥ देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई ॥ सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥ प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अन्तरजामी ॥ अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीम् ॥ दो. सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ 150 ॥ सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिन्धु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीम् ॥ मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरेम् । बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥ सुत बिषिक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥ अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥ सो. तहँ करि भोग बिसाल तात गुँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ 151 ॥ इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहुँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहुँ चरित भगत सुखदाता ॥ जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सौ अवतरिहि मोरि यह माया ॥ पुरुब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अन्तरधान भे भगवाना ॥ दम्पति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥ दो. यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ 152 ॥ मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति सम्भु बखानी ॥ बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसि नरेसू ॥ धरम धुरन्धर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना ॥ तेहि कें भे जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा ॥ राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही ॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल सङ्ग्रामा ॥ भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥ जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥ दो. जब प्रतापरबि भयु नृप फिरी दोहाई देस। प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ 153 ॥ नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥ सचिव सयान बन्धु बलबीरा। आपु प्रतापपुञ्ज रनधीरा ॥ सेन सङ्ग चतुरङ्ग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा ॥ सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना ॥ बिजय हेतु कटकी बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥ जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई ॥ सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दण्ड छाड़इ नृप दीन्हेम् ॥ सकल अवनि मण्डल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला ॥ दो. स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु। अरथ धरम कामादि सुख सेवि समयँ नरेसु ॥ 154 ॥ भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुन्दर नर नारी ॥ सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥ गुर सुर सन्त पितर महिदेवा। करि सदा नृप सब कै सेवा ॥ भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करि सादर सुख माने ॥ दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥ नाना बापीं कूप तड़आगा। सुमन बाटिका सुन्दर बागा ॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥ दो. जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग। बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग ॥ 155 ॥ हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना ॥ करि जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥ चढ़इ बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा ॥ बिन्ध्याचल गभीर बन गयू। मृग पुनीत बहु मारत भयू ॥ फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥ बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीम् ॥ कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥ घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥ दो. नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु। चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ 156 ॥ आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥ तुरत कीन्ह नृप सर सन्धाना। महि मिलि गयु बिलोकत बाना ॥ तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा ॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सङ्ग लागा ॥ गयु दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥ अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजि नरेसू ॥ कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥ अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥ दो. खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत। खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयु अचेत ॥ 157 ॥ फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥ जासु देस नृप लीन्ह छड़आई। समर सेन तजि गयु पराई ॥ समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी ॥ गयु न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥ रिस उर मारि रङ्क जिमि राजा। बिपिन बसि तापस कें साजा ॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥ राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना ॥ उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥ दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ। मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ 158 ॥ गै श्रम सकल सुखी नृप भयू। निज आश्रम तापस लै गयू ॥ आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुन्दर जुबा जीव परहेलेम् ॥ चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरेम् ॥ नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखुँ पद आई ॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥ कह मुनि तात भयु अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥ दो. निसा घोर गम्भीर बन पन्थ न सुनहु सुजान। बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ 159(क) ॥ तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलि सहाइ। आपुनु आवि ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ 159(ख) ॥ भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥ नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बन्दि निज भाग्य सराही ॥ पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करुँ ढिठाई ॥ मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥ तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहि निज काजा ॥ समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगि छाती ॥ सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥ दो. कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत। नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥ 160 ॥ कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥ सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥ तेहि तें कहहि सन्त श्रुति टेरें। परम अकिञ्चन प्रिय हरि केरेम् ॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरञ्चि सिवहि सन्देहा ॥ जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥ सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥ सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥ सुनु सतिभाउ कहुँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला ॥ दो. अब लगि मोहि न मिलेउ कौ मैं न जनावुँ काहु। लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ 161(क) ॥ सो. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुन्दर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ 161(ख) तातें गुपुत रहुँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीम् ॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरेम् ॥ अब जौं तात दुरावुँ तोही। दारुन दोष घटि अति मोही ॥ जिमि जिमि तापसु कथि उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥ देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी ॥ नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥ कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी ॥ दो. आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि। नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ 162 ॥ जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीम् ॥ तपबल तें जग सृजि बिधाता। तपबल बिष्नु भे परित्राता ॥ तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तप तें अगम न कछु संसारा ॥ भयु नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ करम धरम इतिहास अनेका। करि निरूपन बिरति बिबेका ॥ उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी ॥ सुनि महिप तापस बस भयू। आपन नाम कहत तब लयू ॥ कह तापस नृप जानुँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥ सो. सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप। मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ 163 ॥ नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥ गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥ देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥ उपजि परि ममता मन मोरें। कहुँ कथा निज पूछे तोरेम् ॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीम् ॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥ कृपासिन्धु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरेम् ॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर हौँ असोकी ॥ दो. जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कौ। एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत हौ ॥ 164 ॥ कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥ कालु तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़इ महीसा ॥ तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कौ रखवारा ॥ जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥ चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहुँ दौ भुजा उठाई ॥ बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥ हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू ॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥ दो. एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि। मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ 165 ॥ तातें मै तोहि बरजुँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा ॥ छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥ यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥ आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीम् ॥ सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥ राखि गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कौ जग त्राता ॥ जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। हौ नास नहिं सोच हमारेम् ॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥ दो. होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सौ। तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखुँ कौँ ॥ 166 ॥ सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीम् ॥ अहि एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई ॥ मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई ॥ आजु लगें अरु जब तें भयूँ। काहू के गृह ग्राम न गयूँ ॥ जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमञ्जस आजू ॥ सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी ॥ बड़ए सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीम् ॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू। सन्तत धरनि धरत सिर रेनू ॥ दो. अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल। मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ 167 ॥ जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना ॥ सत्य कहुँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥ अवसि काज मैं करिहुँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥ जोग जुगुति तप मन्त्र प्रभ्AU। फलि तबहिं जब करिअ दुर्AU ॥ जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करी। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरी ॥ पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू। सम्बत भरि सङ्कलप करेहू ॥ दो. नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार। मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिंइब जेवनार ॥ 168 ॥ एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरेम् ॥ करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा ॥ और एक तोहि कहूँ लख्AU। मैं एहि बेष न आउब क्AU ॥ तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया ॥ तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहुँ इहाँ बरष परवाना ॥ मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥ गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे ॥ मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहुँ सोवतहि निकेता ॥ दो. मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि। जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ 169 ॥ सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥ कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥ परम मित्र तापस नृप केरा। जानि सो अति कपट घनेरा ॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई ॥ प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे ॥ तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा ॥ जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उप्AU। भावी बस न जान कछु र्AU ॥ दो. रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥ 170 ॥ तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयु सुखारी ॥ मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई ॥ अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥ परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥ कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥ तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी ॥ भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥ नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥ दो. राजा के उपरोहितहि हरि लै गयु बहोरि। लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥ 171 ॥ आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥ जागेउ नृप अनभेँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना ॥ मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥ कानन गयु बाजि चढ़इ तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीम् ॥ गेँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा ॥ उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥ जुग सम नृपहि गे दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥ समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥ दो. नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत। बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुम्ब समेत ॥ 172 ॥ उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥ मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिञ्जन बहु गनि सकि न कोई ॥ बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥ भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए ॥ परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला ॥ बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बड़इ हानि अन्न जनि खाहू ॥ भयु रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥ भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी ॥ दो. बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार। जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ 173 ॥ छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई ॥ ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा ॥ सम्बत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥ नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥ बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥ चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयु जहँ भोजन खानी ॥ तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥ सब प्रसङ्ग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥ दो. भूपति भावी मिटि नहिं जदपि न दूषन तोर। किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥ 174 ॥ अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥ सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीम् ॥ उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई ॥ तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥ घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई ॥ जूझे सकल सुभट करि करनी। बन्धु समेत परेउ नृप धरनी ॥ सत्यकेतु कुल कौ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥ रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई ॥ दो. भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम। धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥ ।175 ॥ काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयु निसाचर सहित समाजा ॥ दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा। रावन नाम बीर बरिबण्डा ॥ भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयु सो कुम्भकरन बलधामा ॥ सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयु बिमात्र बन्धु लघु तासू ॥ नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥ रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भे निसाचर घोर घनेरे ॥ कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयङ्कर बिगत बिबेका ॥ कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥ दो. उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप। तदपि महीसुर श्राप बस भे सकल अघरूप ॥ 176 ॥ कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥ गयु निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥ करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥ हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारेम् ॥ एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥ पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयू। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयू ॥ जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू ॥ सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी ॥ दो. गे बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु। तेहिं मागेउ भगवन्त पद कमल अमल अनुरागु ॥ 177 ॥ तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए ॥ मय तनुजा मन्दोदरि नामा। परम सुन्दरी नारि ललामा ॥ सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी ॥ हरषित भयु नारि भलि पाई। पुनि दौ बन्धु बिआहेसि जाई ॥ गिरि त्रिकूट एक सिन्धु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥ सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा ॥ भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥ तिन्ह तें अधिक रम्य अति बङ्का। जग बिख्यात नाम तेहि लङ्का ॥ दो. खाईं सिन्धु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव। कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ 178(क) ॥ हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ। सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥ 178(ख) ॥ रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर सङ्घारे ॥ अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥ दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥ देखि बिकट भट बड़इ कटकाई। जच्छ जीव लै गे पराई ॥ फिरि सब नगर दसानन देखा। गयु सोच सुख भयु बिसेषा ॥ सुन्दर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥ जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥ एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा ॥ दो. कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ। मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥ 179 ॥ सुख सम्पति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़आई ॥ नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥ अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥ करि पान सोवि षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥ जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥ समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥ बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥ जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई ॥ दो. कुमुख अकम्पन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय। एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ 180 ॥ कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥ दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा ॥ सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती ॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी ॥ सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥ ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥ तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहुँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥ द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥ दो. छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ। तब मारिहुँ कि छाड़इहुँ भली भाँति अपनाइ ॥ 181 ॥ मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़आवा ॥ जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥ तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥ एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥ चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥ रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए ॥ पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥ रन मद मत्त फिरि जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥ रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥ किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा ॥ ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥ आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥ दो. भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कौ न सुतन्त्र। मण्डलीक मनि रावन राज करि निज मन्त्र ॥ 182(ख) ॥ देव जच्छ गन्धर्व नर किन्नर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुन्दर बर नारि ॥ 182ख ॥ इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥ प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥ देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी ॥ करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया ॥ जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥ जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिम् ॥ सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥ छं. जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनि दससीसा। आपुनु उठि धावि रहै न पावि धरि सब घालि खीसा ॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना। तेहि बहुबिधि त्रासि देस निकासि जो कह बेद पुराना ॥ सो. बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं। हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ 183 ॥ मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़ए खल बहु चोर जुआरा। जे लम्पट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी ॥ गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखि बिपरीता। कहि न सकि रावन भय भीता ॥ धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गी तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज सन्ताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई ॥ छं. सुर मुनि गन्धर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरञ्चि के लोका। सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥ सो. धरनि धरहि मन धीर कह बिरञ्चि हरिपद सुमिरु। जानत जन की पीर प्रभु भञ्जिहि दारुन बिपति ॥ 184 ॥ बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुण्ठ जान कह कोई। कौ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीम् ॥ अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटि जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ दो. सुनि बिरञ्चि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ 185 ॥ छं. जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता। गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कन्ता ॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानि कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करु अनुग्रह सोई ॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानन्दा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुन्दा ॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृन्दा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानन्दा ॥ जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई सङ्ग सहाय न दूजा। सो करु अघारी चिन्त हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥ जो भव भय भञ्जन मुनि मन रञ्जन गञ्जन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़इ सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥ सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कौ नहि जाना। जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवु सो श्रीभगवाना ॥ भव बारिधि मन्दर सब बिधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपुञ्जा। मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कञ्जा ॥ दो. जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गम्भीर भि हरनि सोक सन्देह ॥ 186 ॥ जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहुँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहुँ दिनकर बंस उदारा ॥ कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ तिन्ह के गृह अवतरिहुँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहुँ। परम सक्ति समेत अवतरिहुँ ॥ हरिहुँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़आना ॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भी भरोस जियँ आवा ॥ दो. निज लोकहि बिरञ्चि गे देवन्ह इहि सिखाइ। बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ 187 ॥ गे देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलम्ब न कीन्हा ॥ बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीम् ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ अवधपुरीं रघुकुलमनि र्AU। बेद बिदित तेहि दसरथ न्AUँ ॥ धरम धुरन्धर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ दो. कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत। पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ 188 ॥ एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीम् ॥ गुर गृह गयु तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ निज दुख सुख सब गुरहि सुनायु। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायु ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ सृङ्गी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हेम् ॥ जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ दो. तब अदृस्य भे पावक सकल सभहि समुझाइ ॥ परमानन्द मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ 189 ॥ तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥ कैकेई कहँ नृप सो दयू। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयू ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भीं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख सम्पति छाए ॥ मन्दिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीम् ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयू। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयू ॥ दो. जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भे अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ 190 ॥ नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा ॥ सीतल मन्द सुरभि बह ब्AU। हरषित सुर सन्तन मन च्AU ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥ सो अवसर बिरञ्चि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना ॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गन्धर्ब बरूथा ॥ बरषहिं सुमन सुअञ्जलि साजी। गहगहि गगन दुन्दुभी बाजी ॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥ दो. सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम। जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ 191 ॥ छं. भे प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी ॥ कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनन्ता। माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनन्ता ॥ करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति सन्ता। सो मम हित लागी जन अनुरागी भयु प्रगट श्रीकन्ता ॥ ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ दो. बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ 192 ॥ सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आई सब रानी ॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी ॥ दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानन्द समाना ॥ परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा ॥ जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥ परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥ गुर बसिष्ठ कहँ गयु हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥ अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥ दो. नन्दीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह। हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ 193 ॥ ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥ सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानन्द मगन सब लोई ॥ बृन्द बृन्द मिलि चलीं लोगाई। सहज सङ्गार किएँ उठि धाई ॥ कनक कलस मङ्गल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥ करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीम् ॥ मागध सूत बन्दिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥ सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥ मृगमद चन्दन कुङ्कुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥ दो. गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द। हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द ॥ 194 ॥ कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ ॥ वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकि सारद अहिराजा ॥ अवधपुरी सोहि एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी ॥ अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥ मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा ॥ भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥ कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना ॥ दो. मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानि कोइ। रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ 195 ॥ यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना ॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा ॥ औरु एक कहुँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥ काक भुसुण्डि सङ्ग हम दोऊ। मनुजरूप जानि नहिं कोऊ ॥ परमानन्द प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥ यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई ॥ तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥ दो. मन सन्तोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस। सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ 196 ॥ कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती ॥ नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठे मुनि ग्यानी ॥ करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥ इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥ जो आनन्द सिन्धु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥ सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥ बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई ॥ जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥ दो. लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार। गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ 197 ॥ धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्त्व नृप तव सुत चारी ॥ मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना ॥ बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी ॥ भरत सत्रुहन दूनु भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़आई ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥ चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥ हृदयँ अनुग्रह इन्दु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा ॥ कबहुँ उछङ्ग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारि कहि प्रिय ललना ॥ दो. ब्यापक ब्रह्म निरञ्जन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ 198 ॥ काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कञ्ज बारिद गम्भीरा ॥ अरुन चरन पकञ्ज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥ रेख कुलिस धवज अङ्कुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥ कटि किङ्किनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥ भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥ उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥ कम्बु कण्ठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई ॥ दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे ॥ सुन्दर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥ चिक्कन कच कुञ्चित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥ पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानि सपनेहुँ जेहि देखा ॥ दो. सुख सन्दोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत। दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ 199 ॥ एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिंह सुखदाता ॥ जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥ रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकि भव बन्धन छोरी ॥ जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥ भृकुटि बिलास नचावि ताही। अस प्रभु छाड़इ भजिअ कहु काही ॥ मन क्रम बचन छाड़इ चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥ एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिंह सुख दीन्हा ॥ लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥ दो. प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान। सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ 200 ॥ एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिङ्गार पलनाँ पौढ़आए ॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥ करि पूजा नैबेद्य चढ़आवा। आपु गी जहँ पाक बनावा ॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई ॥ गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कम्प मन धीर न होई ॥ इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥ देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥ दो. देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखण्ड। रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड ॥ 201 ॥ अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन ॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभ्AU। सौ देखा जो सुना न क्AU ॥ देखी माया सब बिधि गाढ़ई। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ई ॥ देखा जीव नचावि जाही। देखी भगति जो छोरि ताही ॥ तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥ बिसमयवन्त देखि महतारी। भे बहुरि सिसुरूप खरारी ॥ अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥ हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥ दो. बार बार कौसल्या बिनय करि कर जोरि ॥ अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ 202 ॥ बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा ॥ कछुक काल बीतें सब भाई। बड़ए भे परिजन सुखदाई ॥ चूड़आकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥ परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥ मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥ भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥ कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥ निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा ॥ धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥ दो. भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ। भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ 203 ॥ बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए ॥ जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता ॥ भे कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥ गुरगृहँ गे पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई ॥ जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥ बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥ करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा ॥ जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥ दो. कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ 204 ॥ बन्धु सखा सङ्ग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥ पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥ जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीम् ॥ जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ सञ्जोगा ॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥ प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषि मन राजा ॥ दो. ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ 205 ॥ यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥ बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥ जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीम् ॥ देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिम् ॥ गाधितनय मन चिन्ता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥ एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दौ भाई ॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥ दो. बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। करि मज्जन सरू जल गे भूप दरबार ॥ 206 ॥ मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयू लै बिप्र समाजा ॥ करि दण्डवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥ चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥ पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी ॥ भे मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥ तब मन हरषि बचन कह र्AU। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु क्AU ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावुँ बारा ॥ असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयुँ नृप तोही ॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥ दो. देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान। धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ 207 ॥ सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी ॥ चौथेम्पन पायुँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥ मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥ देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सौ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥ सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनि गोसाई ॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा ॥ सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥ तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा ॥ अति आदर दौ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥ दो. सौम्पे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस। जननी भवन गे प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ 208(क) ॥ सो. पुरुषसिंह दौ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥ कृपासिन्धु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ 208(ख) अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला ॥ कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥ प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥ चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥ तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥ जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥ दो. आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि। कन्द मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ 209 ॥ प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥ होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा ॥ पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥ मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥ धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जन्तु तहँ नाहीम् ॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ दो. गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ 210 ॥ छं. परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भी तपपुञ्ज सही। देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥ अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवि बचन कही। अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥ धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥ मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहि लाभ सङ्कर जाना ॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागुँ बर आना। पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥ जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भी सिव सीस धरी। सोइ पद पङ्कज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनन्द भरी ॥ दो. अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल। तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़इ कपट जञ्जाल ॥ 211 ॥ मासपारायण, सातवाँ विश्राम चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गे जहाँ जग पावनि गङ्गा ॥ गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥ तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥ हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया ॥ पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥ बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥ गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा ॥ बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥ दो. सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास। फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ 212 ॥ बनि न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥ चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥ धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥ चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई ॥ मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरेम् ॥ पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता ॥ अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥ होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥ दो. धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति। सिय निवास सुन्दर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ 213 ॥ सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा ॥ बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ सङ्कुल सब काला ॥ सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥ पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥ देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥ कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥ भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृन्द समेता ॥ बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए ॥ दो. सङ्ग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति। चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ 214 ॥ कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥ बिप्रबृन्द सब सादर बन्दे। जानि भाग्य बड़ राउ अनन्दे ॥ कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥ तेहि अवसर आए दौ भाई। गे रहे देखन फुलवाई ॥ स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥ उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥ भे सब सुखी देखि दौ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥ मूरति मधुर मनोहर देखी। भयु बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥ दो. प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ 215 ॥ कहहु नाथ सुन्दर दौ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥ सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चन्द चकोरा ॥ ताते प्रभु पूछुँ सतिभ्AU। कहहु नाथ जनि करहु दुर्AU ॥ इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥ कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥ ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥ रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए ॥ दो. रामु लखनु दौ बन्धुबर रूप सील बल धाम। मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम ॥ 216 ॥ मुनि तव चरन देखि कह र्AU। कहि न सकुँ निज पुन्य प्राभ्AU ॥ सुन्दर स्याम गौर दौ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता ॥ इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥ सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥ पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥ म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥ सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥ करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयु राउ गृह बिदा कराई ॥ दो. रिषय सङ्ग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु। बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ 217 ॥ लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥ प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीम् ॥ राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई ॥ नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीम् ॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥ सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥ धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥ दो. जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दौ भाइ। करहु सुफल सब के नयन सुन्दर बदन देखाइ ॥ 218 ॥ मासपारायण, आठवाँ विश्राम नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम मुनि पद कमल बन्दि दौ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता ॥ बालक बृन्दि देखि अति सोभा। लगे सङ्ग लोचन मनु लोभा ॥ पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा ॥ तन अनुहरत सुचन्दन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥ केहरि कन्धर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला ॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयङ्क तापत्रय मोचन ॥ कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीम् ॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥ दो. रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस। नख सिख सुन्दर बन्धु दौ सोभा सकल सुदेस ॥ 219 ॥ देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिंह पाए ॥ धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रङ्क निधि लूटन लागी ॥ निरखि सहज सुन्दर दौ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥ जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीम् ॥ कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥ सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीम् ॥ बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी ॥ अपर देउ अस कौ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥ दो. बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम । अङ्ग अङ्ग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ 220 ॥ कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी ॥ कौ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥ ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥ मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥ स्याम गात कल कञ्ज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥ कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी ॥ गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछेम् ॥ लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥ दो. बिप्रकाजु करि बन्धु दौ मग मुनिबधू उधारि। आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ 221 ॥ देखि राम छबि कौ एक कही। जोगु जानकिहि यह बरु अही ॥ जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करि बिबाहू ॥ कौ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने ॥ सखि परन्तु पनु राउ न तजी। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजी ॥ कौ कह जौं भल अहि बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥ तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू ॥ जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥ सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातेम् ॥ दो. नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि। यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ 222 ॥ बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥ कौ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ सबु असमञ्जस अहि सयानी। यह सुनि अपर कहि मृदु बानी ॥ सखि इन्ह कहँ कौ कौ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीम् ॥ परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥ सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरेम् ॥ जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥ तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ हौ कहहिं मुदु बानी ॥ दो. हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द। जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दौ तहँ तहँ परमानन्द ॥ 223 ॥ पुर पूरब दिसि गे दौ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥ अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥ चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥ तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा ॥ कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥ तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए ॥ जहँ बैण्ठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥ पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥ दो. सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात। तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दौ भ्रात ॥ 224 ॥ सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने ॥ निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दौ भाई ॥ राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥ लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचि जासु अनुसासन माया ॥ भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला ॥ कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलम्बु त्रास मन माहीम् ॥ जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥ कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई ॥ दो. सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दौ भाइ। गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ 225 ॥ निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा ॥ कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥ मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दौ भाई ॥ जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥ तेइ दौ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥ बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥ चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥ पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़ए धरि उर पद जलजाता ॥ दो. उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥ गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ 226 ॥ सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥ समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दौ भाई ॥ भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई ॥ लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना ॥ नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए ॥ चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥ मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥ बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा ॥ दो. बागु तड़आगु बिलोकि प्रभु हरषे बन्धु समेत। परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ 227 ॥ चहुँ दिसि चिति पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥ तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥ सङ्ग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी ॥ सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥ मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गी मुदित मन गौरि निकेता ॥ पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥ एक सखी सिय सङ्गु बिहाई। गी रही देखन फुलवाई ॥ तेहि दौ बन्धु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥ दो. तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन। कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥ 228 ॥ देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥ स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥ सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकण्ठा जानी ॥ एक कहि नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली ॥ जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥ बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥ तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने ॥ चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखि न कोई ॥ दो. सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥ चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ 229 ॥ कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥ मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥ अस कहि फिरि चिते तेहि ओरा। सिय मुख ससि भे नयन चकोरा ॥ भे बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल ॥ देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥ जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥ सुन्दरता कहुँ सुन्दर करी। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरी ॥ सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥ दो. सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ 230 ॥ तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥ पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरि फुलवाई ॥ जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥ सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अङ्ग सुनु भ्राता ॥ रघुबंसिंह कर सहज सुभ्AU। मनु कुपन्थ पगु धरि न क्AU ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥ जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥ मङ्गन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीम् ॥ दो. करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान। मुख सरोज मकरन्द छबि करि मधुप इव पान ॥ 231 ॥ चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गे नृपकिसोर मनु चिन्ता ॥ जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥ लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥ देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥ थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषेम् ॥ अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥ जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥ दो. लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दौ भाइ। निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ 232 ॥ सोभा सीवँ सुभग दौ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा ॥ मोरपङ्ख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥ भाल तिलक श्रमबिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥ बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे ॥ चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला ॥ मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीम् ॥ उर मनि माल कम्बु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥ सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥ दो. केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान। देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ 233 ॥ धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी ॥ बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥ सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दौ रघुसिङ्घ निहारे ॥ नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥ परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयु गहरु सब कहहि सभीता ॥ पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली ॥ गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयु बिलम्बु मातु भय मानी ॥ धरि बड़इ धीर रामु उर आने। फिरि अपनपु पितुबस जाने ॥ दो. देखन मिस मृग बिहग तरु फिरि बहोरि बहोरि। निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ 234 ॥ जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति ॥ प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥ परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ॥ गी भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी ॥ जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी ॥ जय गज बदन षड़आनन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥ नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥ भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥ दो. पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ 235 ॥ सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी ॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥ मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही केम् ॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीम् ॥ बिनय प्रेम बस भी भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी ॥ सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥ सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥ नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥ छं. मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥ एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली। तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥ सो. जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मञ्जुल मङ्गल मूल बाम अङ्ग फरकन लगे ॥ 236 ॥ हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दौ भाई ॥ राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीम् ॥ सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥ सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भे सुखारे ॥ करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥ बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। सन्ध्या करन चले दौ भाई ॥ प्राची दिसि ससि उयु सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥ बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीम् ॥ दो. जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क। सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क ॥ 237 ॥ घटि बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसि राहु निज सन्धिहिं पाई ॥ कोक सिकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही ॥ बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ॥ सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़इ जानी ॥ करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥ बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे ॥ उदु अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता ॥ बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥ दो. अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन। जिमि तुम्हार आगमन सुनि भे नृपति बलहीन ॥ 238 ॥ नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥ कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना ॥ ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥ उयु भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥ रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥ तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥ बन्धु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥ नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥ सतानन्दु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥ जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दौ भाई ॥ दो. सतानन्दअ बन्दि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ। चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ 239 ॥ सीय स्वयम्बरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़आई ॥ लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई ॥ हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥ पुनि मुनिबृन्द समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला ॥ रङ्गभूमि आए दौ भाई। असि सुधि सब पुरबासिंह पाई ॥ चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी ॥ देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू ॥ दो. कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि। उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ 240 ॥ राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥ गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर स्यामल गौर सरीरा ॥ राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥ देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥ रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥ पुरबासिंह देखे दौ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई ॥ दो. नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप। जनु सोहत सिङ्गार धरि मूरति परम अनूप ॥ 241 ॥ बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसेम् ॥ सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा। सान्त सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥ हरिभगतन्ह देखे दौ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥ उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भ्AU। तेहिं तस देखेउ कोसलर्AU ॥ दो. राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर। सुन्दर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ 242 ॥ सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद चन्द निन्दक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के ॥ चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥ कल कपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला ॥ कुमुदबन्धु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीम् ॥ पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईम् ॥ रेखें रुचिर कम्बु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥ दो. कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल। बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ 243 ॥ कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए ॥ देखि लोग सब भे सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे जनकु देखि दौ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥ करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥ निज निज रुख रामहि सबु देखा। कौ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥ दो. सब मञ्चन्ह ते मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल। मुनि समेत दौ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल ॥ 244 ॥ प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भेँ तारे ॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीम् ॥ बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला ॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥ बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी ॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥ एक बार कालु किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने ॥ सो. सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥ जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ 245 ॥ ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता ॥ जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥ सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दौ बन्धु सम्भु उर बासी ॥ सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥ अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे ॥ देखहिं सुर नभ चढ़ए बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥ दो. जानि सुअवसरु सीय तब पठी जनक बोलाई। चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं लवाईम् ॥ 246 ॥ सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी ॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीम् ॥ सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥ जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥ गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥ बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥ जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई ॥ सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू ॥ दो. एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल। तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ 247 ॥ चलिं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी ॥ सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥ भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए ॥ रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी ॥ हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥ पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चिते सकल भुआला ॥ सीय चकित चित रामहि चाहा। भे मोहबस सब नरनाहा ॥ मुनि समीप देखे दौ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥ दो. गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥ लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ 248 ॥ राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषेम् ॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीम् ॥ हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई ॥ बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू ॥ जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अन्तहुँ उर दाहू ॥ एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू ॥ तब बन्दीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए ॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥ दो. बोले बन्दी बचन बर सुनहु सकल महिपाल। पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ 249 ॥ नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥ रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥ सोइ पुरारि कोदण्डु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा ॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरि हठि तेही ॥ सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे ॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥ तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठि न कोटि भाँति बलु करहीम् ॥ जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीम् ॥ दो. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठि न चलहिं लजाइ। मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ 250 ॥ भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरि न टारा ॥ डगि न सम्भु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसेम् ॥ सब नृप भे जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी ॥ कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी ॥ श्रीहत भे हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा ॥ नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने ॥ दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥ देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा ॥ दो. कुअँरि मनोहर बिजय बड़इ कीरति अति कमनीय। पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ 251 ॥ कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढ़आवा ॥ रहु चढ़आउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़आई ॥ अब जनि कौ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी ॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥ सुकृत जाइ जौं पनु परिहरूँ। कुअँरि कुआरि रहु का करूँ ॥ जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥ जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भे दुखारी ॥ माखे लखनु कुटिल भिँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहेम् ॥ दो. कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान। नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ 252 ॥ रघुबंसिंह महुँ जहँ कौ होई। तेहिं समाज अस कहि न कोई ॥ कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥ सुनहु भानुकुल पङ्कज भानू। कहुँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥ जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौम् ॥ काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकुँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥ तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना ॥ नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥ कमल नाल जिमि चाफ चढ़आवौं। जोजन सत प्रमान लै धावौम् ॥ दो. तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ। जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ 253 ॥ लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥ सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥ गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भे पुनि पुनि पुलकाहीम् ॥ सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे ॥ बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी ॥ उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा ॥ सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥ ठाढ़ए भे उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥ दो. उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग। बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग ॥ 254 ॥ नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी ॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ॥ भे बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥ गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥ सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी ॥ चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भे सुखारी ॥ बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥ तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईम् ॥ दो. रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ। सीता मातु सनेह बस बचन कहि बिलखाइ ॥ 255 ॥ सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे ॥ कौ न बुझाइ कहि गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीम् ॥ रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा ॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीम् ॥ भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी ॥ कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥ रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥ दो. मन्त्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब। महामत्त गजराज कहुँ बस कर अङ्कुस खर्ब ॥ 256 ॥ काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥ देबि तजिअ संसु अस जानी। भञ्जब धनुष रामु सुनु रानी ॥ सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ई अति प्रीती ॥ तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥ मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥ करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥ गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥ बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥ दो. देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ 257 ॥ नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥ अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥ सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥ बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥ सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि सम्भुचाप गति तोरी ॥ निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥ अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीम् ॥ दो. प्रभुहि चिति पुनि चितव महि राजत लोचन लोल। खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल ॥ 258 ॥ गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥ लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना ॥ सकुची ब्याकुलता बड़इ जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥ तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥ तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलि न कछु संहेहू ॥ प्रभु तन चिति प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना ॥ सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥ दो. लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु। पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु ॥ 259 ॥ दिसकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥ रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥ चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥ सब कर संसु अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू ॥ भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥ सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥ सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई ॥ राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहि कौ कड़हारू ॥ दो. राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि। चिती सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ 260 ॥ देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही ॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करि का सुधा तड़आगा ॥ का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानेम् ॥ अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥ गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥ दमकेउ दामिनि जिमि जब लयू। पुनि नभ धनु मण्डल सम भयू ॥ लेत चढ़आवत खैञ्चत गाढ़एं। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़एम् ॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥ छं. भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदण्ड खण्डेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥ सो. सङ्कर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु। बूड़ सो सकल समाजु चढ़आ जो प्रथमहिं मोह बस ॥ 261 ॥ प्रभु दौ चापखण्ड महि डारे। देखि लोग सब भे सुखारे ॥ कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥ रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥ बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना ॥ ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥ बरिसहिं सुमन रङ्ग बहु माला। गावहिं किन्नर गीत रसाला ॥ रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभङ्ग धुनि जात न जानी ॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भञ्जेउ राम सम्भुधनु भारी ॥ दो. बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर। करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ 262 ॥ झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई ॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए ॥ सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई ॥ श्रीहत भे भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥ रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसेम् ॥ सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥ दो. सङ्ग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मङ्गलचार। गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार ॥ 263 ॥ सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसेम् ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥ तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परि न काहू ॥ जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥ चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥ सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली ॥ सो. रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ 264 ॥ पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भे मलिन साधु सब राजे ॥ सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥ नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीम् ॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरदावलि उच्चरहीम् ॥ महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा ॥ करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥ सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी ॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता ॥ दो. गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि। मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ 265 ॥ तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥ लेहु छड़आइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरी। जीवत हमहि कुअँरि को बरी ॥ जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दौ भाई ॥ साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी ॥ बलु प्रतापु बीरता बड़आई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥ दो. देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु। लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ 266 ॥ बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही ॥ लोभी लोलुप कल कीरति चही। अकलङ्कता कि कामी लही ॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥ कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गीं जहँ रानी ॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीम् ॥ रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीम् ॥ दो. अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप। मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप ॥ 267 ॥ खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीम् ॥ तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भङ्गा। आयसु भृगुकुल कमल पतङ्गा ॥ देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा ॥ सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥ बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधेम् ॥ दो. सान्त बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप। धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयु जहँ सब भूप ॥ 268 ॥ देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दण्ड प्रनामा ॥ जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानि जनु आइ खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥ आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गी सयानीम् ॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दौ भाई ॥ रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥ रामहि चिति रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन ॥ दो. बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ 269 ॥ समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए ॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखण्ड महि डारे ॥ अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटुँ महि जहँ लहि तव राजू ॥ अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीम् ॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥ मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता ॥ दो. सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु। हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ 270 ॥ मासपारायण, नवाँ विश्राम नाथ सम्भुधनु भञ्जनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥ आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥ सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई ॥ सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा ॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने ॥ बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईम् ॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥ दो. रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥ धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ 271 ॥ लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना ॥ का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरेम् ॥ छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू । बोले चिति परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥ बालकु बोलि बधुँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही ॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥ दो. मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर। गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ 272 ॥ बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी ॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़आवन फूँकि पहारू ॥ इहाँ कुम्हड़बतिया कौ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीम् ॥ देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥ भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहुँ रिस रोकी ॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई ॥ बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारेम् ॥ कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥ दो. जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर ॥ 273 ॥ कौसिक सुनहु मन्द यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु ॥ भानु बंस राकेस कलङ्कू। निपट निरङ्कुस अबुध असङ्कू ॥ काल कवलु होइहि छन माहीं। कहुँ पुकारि खोरि मोहि नाहीम् ॥ तुम्ह हटकु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥ लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा ॥ अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी ॥ नहिं सन्तोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥ बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा ॥ दो. सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु। बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥ 274 ॥ तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा ॥ सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥ अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू ॥ बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥ कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥ खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥ उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारेम् ॥ न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरेम् ॥ दो. गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरि सूझ। अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ 275 ॥ कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा ॥ माता पितहि उरिन भे नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकेम् ॥ सो जनु हमरेहि माथे काढ़आ। दिन चलि गे ब्याज बड़ बाढ़आ ॥ अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥ सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा ॥ भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचुँ नृपद्रोही ॥ मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़ए। द्विज देवता घरहि के बाढ़ए ॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥ दो. लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु। बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ 276 ॥ नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥ जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना ॥ जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीम् ॥ करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ॥ राम बचन सुनि कछुक जुड़आने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने ॥ हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी ॥ गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीम् ॥ सहज टेढ़ अनुहरि न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीम् ॥ दो. लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥ 277 ॥ मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया ॥ टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने ॥ जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कौ बड़ गुनी बोलाई ॥ बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीम् ॥ थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरि होइ बल हानी ॥ बोले रामहि देइ निहोरा। बचुँ बिचारि बन्धु लघु तोरा ॥ मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैम् ॥ दो. सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम। गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ॥ 278 ॥ अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी ॥ सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना ॥ बररै बालक एकु सुभ्AU। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं क्AU ॥ तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥ कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई ॥ कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई ॥ कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसेम् ॥ एहि के कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा ॥ दो. गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। परसु अछत देखुँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ 279 ॥ बहि न हाथु दहि रिस छाती। भा कुठारु कुण्ठित नृपघाती ॥ भयु बाम बिधि फिरेउ सुभ्AU। मोरे हृदयँ कृपा कसि क्AU ॥ आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा ॥ बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला ॥ जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भेँ तनु राख बिधाता ॥ देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥ बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा ॥ बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कौ नाहीम् ॥ दो. परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु। सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥ 280 ॥ बन्धु कहि कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरेम् ॥ करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ॥ छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारुँ तोही ॥ भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ ॥ गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥ टेढ़ जानि सब बन्दि काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसि न राहू ॥ राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा ॥ जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी ॥ दो. प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु। बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥ 281 ॥ देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥ नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥ जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईम् ॥ छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥ हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥ राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥ देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारेम् ॥ सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥ दो. बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम। बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धु सम बाम ॥ 282 ॥ निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावुँ तोही ॥ चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु ॥ समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भे पसु आई ॥ मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥ मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरेम् ॥ भञ्जेउ चापु दापु बड़ बाढ़आ। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़आ ॥ राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़इ लघु चूक हमारी ॥ छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥ दो. जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ। तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥ 283 ॥ देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक हौ बलवाना ॥ जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥ छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलङ्कु तेहिं पावँर आना ॥ कहुँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥ बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥ सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के ॥ राम रमापति कर धनु लेहू। खैञ्चहु मिटै मोर सन्देहू ॥ देत चापु आपुहिं चलि गयू। परसुराम मन बिसमय भयू ॥ दो. जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥ 284 ॥ जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥ जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥ बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर ॥ सेवक सुखद सुभग सब अङ्गा। जय सरीर छबि कोटि अनङ्गा ॥ करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा ॥ अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामन्दिर दौ भ्राता ॥ कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गे बनहि तप हेतू ॥ अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥ दो. देवन्ह दीन्हीं दुन्दुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल। हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥ 285 ॥ अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मङ्गल साजे ॥ जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥ सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥ गत त्रास भि सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥ जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भञ्जेउ रामा ॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥ कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना ॥ टूटतहीं धनु भयु बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥ दो. तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु। बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ 286 ॥ दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥ मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठे दूत बोलि तेहि काला ॥ बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥ हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥ हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥ रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥ पठे बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥ बिधिहि बन्दि तिन्ह कीन्ह अरम्भा। बिरचे कनक कदलि के खम्भा ॥ दो. हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल। रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरञ्चि कर भूल ॥ 287 ॥ बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥ कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परि सपरन सुहाई ॥ तेहि के रचि पचि बन्ध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥ मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥ किए भृङ्ग बहुरङ्ग बिहङ्गा। गुञ्जहिं कूजहिं पवन प्रसङ्गा ॥ सुर प्रतिमा खम्भन गढ़ई काढ़ई। मङ्गल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ई ॥ चौङ्कें भाँति अनेक पुराईं। सिन्धुर मनिमय सहज सुहाई ॥ दो. सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥ हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥ 288 ॥ रचे रुचिर बर बन्दनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे ॥ मङ्गल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥ दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥ जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही ॥ दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥ जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥ जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥ जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥ दो. बसि नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥ तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥ 289 ॥ पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥ भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥ करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥ बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती ॥ रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गे कहत न खाटी मीठी ॥ पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची ॥ खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई ॥ पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई ॥ दो. कुसल प्रानप्रिय बन्धु दौ अहहिं कहहु केहिं देस। सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ 290 ॥ सुनि पाती पुलके दौ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता ॥ प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥ तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे ॥ भैया कहहु कुसल दौ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥ स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥ पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभ्AU। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह र्AU ॥ जा दिन तें मुनि गे लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥ कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥ दो. सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कौ। रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दौ ॥ 291 ॥ पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिङ्घ तिहु पुर उजिआरे ॥ जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥ तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥ सीय स्वयम्बर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका ॥ सम्भु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा ॥ तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति सम्भु धनु भानी ॥ सकि उठाइ सरासुर मेरू। सौ हियँ हारि गयु करि फेरू ॥ जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सौ तेहि सभाँ पराभु पावा ॥ दो. तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल। भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल ॥ 292 ॥ सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥ देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥ राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसेम् ॥ कम्पहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकेम् ॥ देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥ दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥ सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥ कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥ दो. तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥ 293 ॥ सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥ जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीम् ॥ तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥ तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥ सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयु न है कौ होनेउ नाहीम् ॥ तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकेम् ॥ बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी ॥ तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना ॥ दो. चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥ 294 ॥ राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥ सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीम् ॥ प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥ मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनन्द मगन महतारीम् ॥ लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़आवहिं छाती ॥ राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी ॥ मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥ दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता ॥ सो. जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि। चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥ 295 ॥ कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना ॥ समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए ॥ भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥ सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥ जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मङ्गलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई ॥ ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू ॥ कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला ॥ दो. मङ्गलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ। बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ 296 ॥ जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥ बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥ गावहिं मङ्गल मञ्जुल बानीं। सुनिकल रव कलकण्ठि लजानीम् ॥ भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥ मङ्गल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना ॥ कतहुँ बिरिद बन्दी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीम् ॥ गावहिं सुन्दरि मङ्गल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता ॥ बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥ दो. सोभा दसरथ भवन कि को कबि बरनै पार। जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥ 297 ॥ भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यन्दन साजहु जाई ॥ चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दौ भ्राता ॥ भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥ रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥ सुभग सकल सुठि चञ्चल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी ॥ नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़आने ॥ तिन्ह सब छयल भे असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा ॥ सब सुन्दर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी ॥ दो. छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन। जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥ 298 ॥ बाँधे बिरद बीर रन गाढ़ए। निकसि भे पुर बाहेर ठाढ़ए ॥ फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥ रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥ चवँर चारु किङ्किन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीम् ॥ सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥ सुन्दर सकल अलङ्कृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥ जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥ अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥ दो. चढ़इ चढ़इ रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात। होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ 299 ॥ कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीम् ॥ चले मत्तगज घण्ट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥ बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥ तिन्ह चढ़इ चले बिप्रबर वृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छन्दा ॥ मागध सूत बन्दि गुनगायक। चले जान चढ़इ जो जेहि लायक ॥ बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥ कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥ चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई ॥ दो. सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दौ बीर ॥ 300 ॥ गरजहिं गज घण्टा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा ॥ निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥ महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारेम् ॥ चढ़ई अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मङ्गल थारी ॥ गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनन्दु न जाइ बखाना ॥ तब सुमन्त्र दुइ स्पन्दन साजी। जोते रबि हय निन्दक बाजी ॥ दौ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥ राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुञ्ज अति भ्राजा ॥ दो. तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़आइ नरेसु। आपु चढ़एउ स्पन्दन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥ 301 ॥ सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर सङ्ग पुरन्दर जैसेम् ॥ करि कुल रीति बेद बिधि र्AU। देखि सबहि सब भाँति बन्AU ॥ सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति सङ्ख बजाई ॥ हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमङ्गल दाता ॥ भयु कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे ॥ सुर नर नारि सुमङ्गल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ घण्ट घण्टि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीम् ॥ करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना । दो. तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदङ्ग निसान ॥ नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥ 302 ॥ बनि न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुन्दर सुभदाता ॥ चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मङ्गल कहि देई ॥ दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी ॥ लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मङ्गल गन जनु दीन्हि देखाई ॥ छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥ सनमुख आयु दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥ दो. मङ्गलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार। जनु सब साचे होन हित भे सगुन एक बार ॥ 303 ॥ मङ्गल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकेम् ॥ राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥ सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरञ्चि हम साँचे ॥ एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना ॥ आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥ बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस सम्पदा छाए ॥ असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए ॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मन्दिर भूले ॥ दो. आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान। सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥ 304 ॥ मासपारायण,दसवाँ विश्राम कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥ भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥ फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेण्ट हित भूप पठाईम् ॥ भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥ मङ्गल सगुन सुगन्ध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥ दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥ अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनन्दु पुलक भर गाता ॥ देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥ दो. हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनन्द समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥ 305 ॥ बरषि सुमन सुर सुन्दरि गावहिं। मुदित देव दुन्दुभीं बजावहिम् ॥ बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागेम् ॥ प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥ करि पूजा मान्यता बड़आई। जनवासे कहुँ चले लवाई ॥ बसन बिचित्र पाँवड़ए परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीम् ॥ अति सुन्दर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥ जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥ हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनी करन पठाई ॥ दो. सिधि सब सिय आयसु अकनि गीं जहाँ जनवास। लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥ 306 ॥ निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥ बिभव भेद कछु कौ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना ॥ सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥ पितु आगमनु सुनत दौ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई ॥ सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीम् ॥ बिस्वामित्र बिनय बड़इ देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी ॥ हरषि बन्धु दौ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए ॥ चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥ दो. भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत ॥ 307 ॥ मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा ॥ कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई ॥ पुनि दण्डवत करत दौ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥ सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे ॥ पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥ बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईम् ॥ भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥ हरषे लखन देखि दौ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥ दो. पुरजन परिजन जातिजन जाचक मन्त्री मीत। मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ 308 ॥ रामहि देखि बरात जुड़आनी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥ नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥ सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥ सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥ सतानन्द अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बन्दीजन ॥ सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना ॥ प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥ ब्रह्मानन्दु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीम् ॥ दो. रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दौ राज। जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥ ।309 ॥ जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥ इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥ इन्ह सम कौ न भयु जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीम् ॥ हम सब सकल सुकृत कै रासी। भे जग जनमि जनकपुर बासी ॥ जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥ पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥ कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीम् ॥ बड़एं भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दौ भाई ॥ दो. बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय। लेन आइहहिं बन्धु दौ कोटि काम कमनीय ॥ 310 ॥ बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥ तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥ सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग दुइ ढोटा ॥ स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए ॥ कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे ॥ भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥ लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा ॥ मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कौ नाहीम् ॥ छं. उपमा न कौ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैम् ॥ पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीम् ॥ ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीम् ॥ सो. कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन। सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दौ ॥ 311 ॥ एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीम् ॥ जे नृप सीय स्वयम्बर आए। देखि बन्धु सब तिन्ह सुख पाए ॥ कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गे महिपाला ॥ गे बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥ मङ्गल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥ ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥ पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥ सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥ दो. धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल। बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥ 312 ॥ उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा ॥ सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए ॥ सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे ॥ सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥ लेन चले सादर एहि भाँती। गे जहाँ जनवास बराती ॥ कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥ भयु समु अब धारिअ प्AU। यह सुनि परा निसानहिं घ्AU ॥ गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा ॥ दो. भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥ 313 ॥ सुरन्ह सुमङ्गल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥ सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़ए बिमानन्हि नाना जूथा ॥ प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू ॥ देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥ चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना ॥ नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥ तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भे नखत जनु बिधु उजिआरीम् ॥ बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥ दो. सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥ 314 ॥ जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमङ्गल मूल नसाहीम् ॥ करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥ एहि बिधि सम्भु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा ॥ देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता ॥ साधु समाज सङ्ग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥ सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥ मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥ पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥ दो. राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥ 315 ॥ केकि कण्ठ दुति स्यामल अङ्गा। तड़इत बिनिन्दक बसन सुरङ्गा ॥ ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मङ्गल सब सब भाँति सुहाए ॥ सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन ॥ सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥ बन्धु मनोहर सोहहिं सङ्गा। जात नचावत चपल तुरङ्गा ॥ राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिम् ॥ जेहि तुरङ्ग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥ कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥ छं. जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोही। आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोही ॥ जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किङ्किनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥ दो. प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गन तड़इत घनु जनु बर बरहि नचाव ॥ 316 ॥ जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदु न बरनै पारा ॥ सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे ॥ हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे ॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठि नयन जानि पछिताने ॥ सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥ रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना ॥ देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कौ नाहीम् ॥ मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥ छं. अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी। बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥ एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीम् ॥ दो. सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि। चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ 317 ॥ बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥ पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥ सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ ॥ कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिम् ॥ बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा ॥ सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥ कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥ करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥ छं. को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली। कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥ आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भी ॥ अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छी ॥ दो. जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु। सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥ 318 ॥ नयन नीरु हटि मङ्गल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥ बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥ पञ्च सबद धुनि मङ्गल गाना। पट पाँवड़ए परहिं बिधि नाना ॥ करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मण्डप तब कीन्हा ॥ दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥ समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सान्ति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥ नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनि न कोई ॥ एहि बिधि रामु मण्डपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए ॥ छं. बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीम् ॥ मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मङ्गल गावहीम् ॥ ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीम् ॥ दो. न्AU बारी भाट नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ 319 ॥ मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीम् ॥ मिलत महा दौ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥ लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥ सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥ जगु बिरञ्चि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तेम् ॥ सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू ॥ देव गिरा सुनि सुन्दर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥ देत पाँवड़ए अरघु सुहाए। सादर जनकु मण्डपहिं ल्याए ॥ छं. मण्डपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥ निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिङ्घासन धरे ॥ कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥ दो. बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस। दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥ 320 ॥ बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥ कीन्ह जोरि कर बिनय बड़आई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥ पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती ॥ आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू ॥ सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी ॥ बिधि हरि हरु दिसिपति दिनर्AU। जे जानहिं रघुबीर प्रभ्AU ॥ कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥ पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानेम् ॥ छं. पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भी। आनन्द कन्दु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मी ॥ सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दे। अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भे ॥ दो. रामचन्द्र मुख चन्द्र छबि लोचन चारु चकोर। करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर ॥ 321 ॥ समु बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानन्दु सुनि आए ॥ बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई ॥ रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी ॥ बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमङ्गल गाईम् ॥ नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा ॥ तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीम् ॥ बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी ॥ सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मण्डपहिं चलीं लवाई ॥ छं. चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमङ्गल भामिनीं। नवसप्त साजें सुन्दरी सब मत्त कुञ्जर गामिनीम् ॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मञ्जीर नूपुर कलित कङ्कन ताल गती बर बाजहीम् ॥ दो. सोहति बनिता बृन्द महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ 322 ॥ सिय सुन्दरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई ॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥ सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भे पूरनकामा ॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥ सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मङ्गल मूला ॥ गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥ एहि बिधि सीय मण्डपहिं आई। प्रमुदित सान्ति पढ़हिं मुनिराई ॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥ छं. आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं। सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीम् ॥ मधुपर्क मङ्गल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं। भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैम् ॥ 1 ॥ कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो। एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिङ्घासनु दियो ॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ 2 ॥ दो. होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं। बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिम् ॥ 323 ॥ जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥ सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई ॥ समु जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥ जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनि जनु मयना ॥ कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुङ्गध मङ्गल जल पूरे ॥ निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी ॥ पढ़हिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥ बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे ॥ छं. लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली। नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं। जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीम् ॥ 1 ॥ जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमी। मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनी ॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं। ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ 2 ॥ बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दौ कुलगुर करैं। भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैम् ॥ सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो। करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ 3 ॥ हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दी। तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नी ॥ क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी। करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ 4 ॥ दो. जय धुनि बन्दी बेद धुनि मङ्गल गान निसान। सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ 324 ॥ कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीम् ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीम् ॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥ राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन माहीम् । मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा ॥ दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥ भे मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे ॥ प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीम् ॥ राम सीय सिर सेन्दुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीम् ॥ अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी केम् ॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥ छं. बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भे। तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल ने ॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मङ्गलु महा ॥ 1 ॥ तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लीं हँकारि के ॥ कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामी। सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दी ॥ 2 ॥ जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दरि सिरोमनि जानि कै। सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥ जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी। सो दी रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ 3 ॥ अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं। सब मुदित सुन्दरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीम् ॥ सुन्दरी सुन्दर बरन्ह सह सब एक मण्डप राजहीं। जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीम् ॥ 4 ॥ दो. मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि। जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ 325 ॥ जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥ कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी ॥ कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥ गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी ॥ बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥ लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥ दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥ तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी ॥ छं. सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़आइ कै। प्रमुदित महा मुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लड़आइ कै ॥ सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ। सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ ॥ 1 ॥ कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों। बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सोम् ॥ सम्बन्ध राजन रावरें हम बड़ए अब सब बिधि भे। एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ ले ॥ 2 ॥ ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नी। अपराधु छमिबो बोलि पठे बहुत हौं ढीट्यो की ॥ पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए। कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ 3 ॥ बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले। दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥ तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ 4 ॥ दो. पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न। हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ 326 ॥ मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन ॥ जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥ पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥ कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर ॥ पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥ सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे ॥ पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥ नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निधाना ॥ सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥ सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे ॥ छं. गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं। पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीम् ॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहिं। सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीम् ॥ 1 ॥ कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै। अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै ॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं। रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैम् ॥ 2 ॥ निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥ कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं। बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीम् ॥ 3 ॥ तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा। चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी। चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ 4 ॥ दो. सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास। सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ 327 ॥ पुनि जेवनार भी बहु भाँती। पठे जनक बोलाइ बराती ॥ परत पाँवड़ए बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥ सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥ धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥ बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥ तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी ॥ आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥ सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे ॥ दो. सूपोदन सुरभी सरपि सुन्दर स्वादु पुनीत। छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ 328 ॥ पञ्च कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥ भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥ परुसन लगे सुआर सुजाना। बिञ्जन बिबिध नाम को जाना ॥ चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई ॥ छरस रुचिर बिञ्जन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती ॥ जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥ समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥ एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥ दो. देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज। जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ 329 ॥ नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीम् ॥ बड़ए भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे ॥ देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीम् ॥ करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥ तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयुँ आजु मैं पूरनकाजा ॥ अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥ सुनि गुर करि महिपाल बड़आई। पुनि पठे मुनि बृन्द बोलाई ॥ दो. बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि। आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ 330 ॥ दण्ड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥ चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई ॥ सब बिधि सकल अलङ्कृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीम् ॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥ पाइ असीस महीसु अनन्दा। लिए बोलि पुनि जाचक बृन्दा ॥ कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनन्दन ॥ चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥ एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकि न बरनि सहस मुख जाहू ॥ दो. बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ। यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ 331 ॥ जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥ नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥ नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥ बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥ कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥ अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़इ न सकहु सनेहू ॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥ दो. अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ। भे प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ 332 ॥ पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता ॥ सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥ जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना ॥ भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठी जनक अनेक सुसारा ॥ तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥ मत्त सहस दस सिन्धुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुञ्जर लाजे ॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥ दो. दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि। जो अवलोकत लोकपति लोक सम्पदा थोरि ॥ 333 ॥ सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥ चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीम् ॥ पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीम् ॥ होएहु सन्तत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी ॥ सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥ अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥ सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई ॥ बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरञ्चि रचीं कत नारीम् ॥ दो. तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु। चले जनक मन्दिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ 334 ॥ चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए ॥ कौ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥ लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥ को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥ मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥ पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥ निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥ एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गे कुअँर सब राज निकेता ॥ दो. रूप सिन्धु सब बन्धु लखि हरषि उठा रनिवासु। करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ 335 ॥ देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीम् ॥ रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥ भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥ बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी ॥ राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥ मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू ॥ सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥ हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौम्पि बिनती अति कीन्ही ॥ छं. करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै। बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥ परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी। तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किङ्करी करि मानिबी ॥ सो. तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ 336 ॥ अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पङ्क जनु गिरा समानी ॥ सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥ राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥ पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥ मञ्जु मधुर मूरति उर आनी। भी सनेह सिथिल सब रानी ॥ पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीम् ॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ई परस्पर प्रीति न थोरी ॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥ दो. प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु। मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥ 337 ॥ सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढ़आए ॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरि न केही ॥ भे बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥ बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥ सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी ॥ लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की ॥ समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥ बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुन्दर पालकीं मगाई ॥ दो. प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस। कुँअरि चढ़आई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥ 338 ॥ बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥ दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥ सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मङ्गल रासी ॥ भूसुर सचिव समेत समाजा। सङ्ग चले पहुँचावन राजा ॥ समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥ दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे ॥ चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा ॥ सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मङ्गलमूल सगुन भे नाना ॥ दो. सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥ 339 ॥ नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे ॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़ए सब कीन्हे ॥ बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी ॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीम् ॥ पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़इ आए ॥ राउ बहोरि उतरि भे ठाढ़ए। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़ए ॥ तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥ करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़आई ॥ दो. कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति। मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥ 340 ॥ मुनि मण्डलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा ॥ सादर पुनि भेण्टे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥ जोरि पङ्करुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥ राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा ॥ करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥ ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानन्दु निरगुन गुनरासी ॥ मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥ महिमा निगमु नेति कहि कही। जो तिहुँ काल एकरस रही ॥ दो. नयन बिषय मो कहुँ भयु सो समस्त सुख मूल। सबि लाभु जग जीव कहँ भेँ ईसु अनुकुल ॥ 341 ॥ सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़आई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥ होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥ मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥ मै कछु कहुँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरेम् ॥ बार बार मागुँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरेम् ॥ सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे ॥ करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥ बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥ दो. मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस। भे परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥ 342 ॥ बार बार करि बिनय बड़आई। रघुपति चले सङ्ग सब भाई ॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥ सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरेम् ॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीम् ॥ सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई ॥ चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई ॥ रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी ॥ दो. बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत। अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥ 343 ॥ हने निसान पनव बर बाजे। भेरि सङ्ख धुनि हय गय गाजे ॥ झाँझि बिरव डिण्डमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई ॥ पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥ निज निज सुन्दर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे ॥ गलीं सकल अरगजाँ सिञ्चाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई ॥ बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना ॥ सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदम्ब तमाला ॥ लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी ॥ दो. बिबिध भाँति मङ्गल कलस गृह गृह रचे सँवारि। सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥ 344 ॥ भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा ॥ मङ्गल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख सम्पदा सुहाई ॥ जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥ देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही ॥ जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि ॥ सकल सुमङ्गल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥ भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समु सुखु सोई ॥ कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीम् ॥ दो. दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी। प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥ 345 ॥ मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भे गाता ॥ राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीम् ॥ बिबिध बिधान बाजने बाजे। मङ्गल मुदित सुमित्राँ साजे ॥ हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मङ्गल मूला ॥ अच्छत अङ्कुर लोचन लाजा। मञ्जुल मञ्जरि तुलसि बिराजा ॥ छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥ सगुन सुङ्गध न जाहिं बखानी। मङ्गल सकल सजहिं सब रानी ॥ रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मङ्गल गाना ॥ दो. कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात। चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥ 346 ॥ धूप धूम नभु मेचक भयू। सावन घन घमण्डु जनु ठयू ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिम् ॥ मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥ प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥ दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा ॥ सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥ समु जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥ सुमिरि सम्भु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा ॥ दो. होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दुभीं बजाइ। बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ ॥ 347 ॥ मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥ जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी ॥ बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥ बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीम् ॥ पुरबासिंह तब राय जोहारे। देखत रामहि भे सुखारे ॥ करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥ आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी ॥ सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥ दो. एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर। मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥ 348 ॥ करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥ भूषन मनि पट नाना जाती ॥ करही निछावरि अगनित भाँती ॥ बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी ॥ पुनि पुनि सीय राम छबि देखी ॥ मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥ सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही ॥ बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥ देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीम् ॥ देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीम् ॥ दो. निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़ए देत। बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥ 349 ॥ चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥ तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे ॥ धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गलनिधि ॥ बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीम् ॥ बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीम् ॥ पावा परम तत्त्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु सन्तत रोगीम् ॥ जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा ॥ मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई ॥ दो. एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनन्दु ॥ भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचन्दु ॥ 350(क) ॥ लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं। मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिम् ॥ 350(ख) ॥ देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की ॥ सबहिं बन्दि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥ अन्तरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अञ्चल भरि लेंहीम् ॥ भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥ आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गे सब निज निज धामहि ॥ पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए ॥ जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥ सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना ॥ दो. देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ। तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥ 351 ॥ जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही ॥ भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी ॥ पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए ॥ आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे ॥ बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥ कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी ॥ भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू ॥ पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी ॥ दो. बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बन्दत गुर चरन देत असीस मुनीसु ॥ 352 ॥ बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत सम्पदा राखि सब आगेम् ॥ नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा ॥ उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ॥ बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई ॥ बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीम् ॥ नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीम् ॥ प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने ॥ देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू ॥ दो. चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ। कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ 353 ॥ सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू ॥ जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे ॥ लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकि भयु सुखु जेता ॥ बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीम् ॥ देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनन्द कियो बासू ॥ कहेउ भूप जिमि भयु बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू ॥ जनक राज गुन सीलु बड़आई। प्रीति रीति सम्पदा सुहाई ॥ बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी ॥ दो. सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति। भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पञ्च गि राति ॥ 354 ॥ मङ्गलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि ॥ अँचि पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगन्ध भूषित छबि छाए ॥ रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई ॥ प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़आई। समु समाजु मनोहरताई ॥ कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरञ्चि महेस गनेसू ॥ सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरि कि धरनी ॥ नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी ॥ बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई ॥ दो. लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ। अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ ॥ 355 ॥ भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए ॥ सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना ॥ उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीम् ॥ रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनि जान जेहिं जोवा ॥ सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़आए ॥ अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही ॥ देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता ॥ मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी ॥ दो. घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु ॥ मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ॥ 356 ॥ मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी ॥ मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई ॥ मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी ॥ कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा ॥ बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई ॥ सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे ॥ आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा ॥ जे दिन गे तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरञ्चि जनि पारहिं लेखेम् ॥ दो. राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन। सुमिरि सम्भु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन ॥ 357 ॥ नीदुँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना ॥ घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मङ्गल गारीम् ॥ पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी ॥ सुन्दर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई ॥ प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥ बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए ॥ बन्दि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता ॥ जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति सङ्ग द्वार पगु धारे ॥ दो. कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ ॥ 358 ॥ नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई ॥ देखि रामु सब सभा जुड़आनी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी ॥ पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए ॥ सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दौ गुर अनुरागे ॥ कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा ॥ मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी ॥ बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची ॥ सुनि आनन्दु भयु सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू ॥ दो. मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति। उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति ॥ 359 ॥ सुदिन सोधि कल कङ्कन छौरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे ॥ नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीम् ॥ बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीम् ॥ दिन दिन सयगुन भूपति भ्AU। देखि सराह महामुनिर्AU ॥ मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे ॥ नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी ॥ करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू ॥ अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी ॥ दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती ॥ रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई ॥ दो. राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु। जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु ॥ 360 ॥ बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी ॥ सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन र्AU। बरनत आपन पुन्य प्रभ्AU ॥ बहुरे लोग रजायसु भयू। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयू ॥ जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा ॥ आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसि अनन्द अवध सब तब तेम् ॥ प्रभु बिबाहँ जस भयु उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू ॥ कबिकुल जीवनु पावन जानी ॥ राम सीय जसु मङ्गल खानी ॥ तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी ॥ छं. निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो। रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो ॥ उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीम् ॥ सो. सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मङ्गलायतन राम जसु ॥ 361 ॥ मासपारायण, बारहवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः। (बालकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) किष्किन्धाकाण्ड(Kishkindhakanda)
श्री राम चरित मानस(Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - किष्किन्धाकाण्ड श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान (किष्किन्धाकाण्ड) कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ। मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥ 1 ॥ ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा। संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ॥ 2 ॥ सो. मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर जहँ बस सम्भु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥ जरत सकल सुर बृन्द बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मन्द को कृपाल सङ्कर सरिस ॥ आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक परवत निअराया ॥ तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा ॥ अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ॥ धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ॥ पठे बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला ॥ बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयू। माथ नाइ पूछत अस भयू ॥ को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥ कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ॥ मृदुल मनोहर सुन्दर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥ की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ ॥ दो. जग कारन तारन भव भञ्जन धरनी भार। की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥ 1 ॥ कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ॥ नाम राम लछिमन दू भाई। सङ्ग नारि सुकुमारि सुहाई ॥ इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ॥ आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ॥ प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा नहिं बरना ॥ पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना ॥ पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ॥ मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईम् ॥ तव माया बस फिरुँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥ दो. एकु मैं मन्द मोहबस कुटिल हृदय अग्यान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबन्धु भगवान ॥ 2 ॥ जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरेम् ॥ नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरि तुम्हारेहिं छोहा ॥ ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानुँ नहिं कछु भजन उपाई ॥ सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहि असोच बनि प्रभु पोसेम् ॥ अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥ तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सीञ्चि जुड़आवा ॥ सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥ समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥ दो. सो अनन्य जाकें असि मति न टरि हनुमन्त। मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ॥ 3 ॥ देखि पवन सुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला ॥ नाथ सैल पर कपिपति रही। सो सुग्रीव दास तव अही ॥ तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे ॥ सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥ एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़आई ॥ जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ॥ सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भैण्टेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥ कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ॥ दो. तब हनुमन्त उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ॥ पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़आइ ॥ 4 ॥ कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा। लछमिन राम चरित सब भाषा ॥ कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥ मन्त्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥ गगन पन्थ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता ॥ राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥ मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥ सब प्रकार करिहुँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥ दो. सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव। कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥ 5 ॥ नात बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥ मय सुत मायावी तेहि न्AUँ। आवा सो प्रभु हमरें ग्AUँ ॥ अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा ॥ धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयुँ बन्धु सँग लागा ॥ गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥ परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥ मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥ बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥ मन्त्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ॥ बालि ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़आवा ॥ रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ॥ ताकें भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥ इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहुँ मन माहीँ ॥ सुनि सेवक दुख दीनदयाला। फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥ दो. सुनु सुग्रीव मारिहुँ बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गेँ न उबरिहिं प्रान ॥ 6 ॥ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥ निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥ जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई ॥ कुपथ निवारि सुपन्थ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥ देत लेत मन सङ्क न धरी। बल अनुमान सदा हित करी ॥ बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा ॥ आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥ जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥ सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी ॥ सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरेम् ॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा ॥ दुन्दुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥ देखि अमित बल बाढ़ई प्रीती। बालि बधब इन्ह भि परतीती ॥ बार बार नावि पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥ उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयु अलोला ॥ सुख सम्पति परिवार बड़आई। सब परिहरि करिहुँ सेवकाई ॥ ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं सन्त तब पद अवराधक ॥ सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीम् ॥ बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥ सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई ॥ अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥ सुनि बिराग सञ्जुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥ जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई ॥ नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत ॥ लै सुग्रीव सङ्ग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा ॥ तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥ सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा ॥ सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बन्धु तेज बल सींवा ॥ कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं सङ्ग्रामा ॥ दो. कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ। जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि हौँ सनाथ ॥ 7 ॥ अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी ॥ भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ॥ तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ॥ मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बन्धु न होइ मोर यह काला ॥ एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ॥ कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गी सब पीरा ॥ मेली कण्ठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला ॥ पुनि नाना बिधि भी लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई ॥ दो. बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ॥ 8 ॥ परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगेम् ॥ स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़आएँ ॥ पुनि पुनि चिति चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ॥ हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चिति राम की ओरा ॥ धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥ मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥ अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥ इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकि जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई ॥ मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना ॥ मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी ॥ दो. सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि। प्रभु अजहूँ मैं पापी अन्तकाल गति तोरि ॥ 9 ॥ सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी ॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥ जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीम् ॥ जासु नाम बल सङ्कर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी ॥ मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥ छं. सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं। जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीम् ॥ मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही। अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ॥ 1 ॥ अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागूँ। जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागूँ ॥ यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ। गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अङ्गद कीजिऐ ॥ 2 ॥ दो. राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग। सुमन माल जिमि कण्ठ ते गिरत न जानि नाग ॥ 10 ॥ राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥ नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥ तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥ छिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा ॥ प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥ उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥ उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥ तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥ राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥ रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥ दो. लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज। राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अङ्गद कहँ जुबराज ॥ 11 ॥ उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बन्धु प्रभु नाहीम् ॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥ बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिन्ताँ जर छाती ॥ सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिर्AU। अति कृपाल रघुबीर सुभ्AU ॥ जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीम् ॥ पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥ कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥ गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहुँ निकट सैल पर छाई ॥ अङ्गद सहित करहु तुम्ह राजू। सन्तत हृदय धरेहु मम काजू ॥ जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥ दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ। राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिङ्गे आइ ॥ 12 ॥ सुन्दर बन कुसुमित अति सोभा। गुञ्जत मधुप निकर मधु लोभा ॥ कन्द मूल फल पत्र सुहाए। भे बहुत जब ते प्रभु आए ॥ देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥ मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥ मङ्गलरुप भयु बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥ फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥ कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥ बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥ दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ 13 ॥ घन घमण्ड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥ दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीम् ॥ बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥ बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसेम् । खल के बचन सन्त सह जैसेम् ॥ छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥ समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥ सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥ दो. हरित भूमि तृन सङ्कुल समुझि परहिं नहिं पन्थ। जिमि पाखण्ड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रन्थ ॥ 14 ॥ दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥ नव पल्लव भे बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥ अर्क जबास पात बिनु भयू। जस सुराज खल उद्यम गयू ॥ खोजत कतहुँ मिलि नहिं धूरी। करि क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥ ससि सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै सम्पति जैसी ॥ निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा ॥ महाबृष्टि चलि फूटि किआरीम् । जिमि सुतन्त्र भेँ बिगरहिं नारीम् ॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥ देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीम् ॥ ऊषर बरषि तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥ बिबिध जन्तु सङ्कुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना ॥ दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिम् ॥ 15(क) ॥ कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतङ्ग। बिनसि उपजि ग्यान जिमि पाइ कुसङ्ग सुसङ्ग ॥ 15(ख) ॥ बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़आई ॥ उदित अगस्ति पन्थ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषि सन्तोषा ॥ सरिता सर निर्मल जल सोहा। सन्त हृदय जस गत मद मोहा ॥ रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥ जानि सरद रितु खञ्जन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥ पङ्क न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥ जल सङ्कोच बिकल भिँ मीना। अबुध कुटुम्बी जिमि धनहीना ॥ बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥ कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कौ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥ दो. चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि। जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ 16 ॥ सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकु बाधा ॥ फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भेँ जैसा ॥ गुञ्जत मधुकर मुखर अनूपा। सुन्दर खग रव नाना रूपा ॥ चक्रबाक मन दुख निसि पैखी। जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ॥ चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहि न सङ्करद्रोही ॥ सरदातप निसि ससि अपहरी। सन्त दरस जिमि पातक टरी ॥ देखि इन्दु चकोर समुदाई। चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥ मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ॥ दो. भूमि जीव सङ्कुल रहे गे सरद रितु पाइ। सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ॥ 17 ॥ बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई ॥ एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालहु जीत निमिष महुँ आनौम् ॥ कतहुँ रहु जौं जीवति होई। तात जतन करि आनेउँ सोई ॥ सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी ॥ जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥ जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥ जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥ लछिमन क्रोधवन्त प्रभु जाना। धनुष चढ़आइ गहे कर बाना ॥ दो. तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ॥ भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ॥ 18 ॥ इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥ निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥ सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥ अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥ कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई ॥ तब हनुमन्त बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता ॥ भय अरु प्रीति नीति देखाई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥ एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥ दो. धनुष चढ़आइ कहा तब जारि करुँ पुर छार। ब्याकुल नगर देखि तब आयु बालिकुमार ॥ 19 ॥ चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ॥ क्रोधवन्त लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना ॥ सुनु हनुमन्त सङ्ग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा ॥ तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बन्दि प्रभु सुजस बखाना ॥ करि बिनती मन्दिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए ॥ तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कण्ठ लगावा ॥ नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करि छन माहीम् ॥ सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ॥ पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गे दूत समुदाई ॥ दो. हरषि चले सुग्रीव तब अङ्गदादि कपि साथ। रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ॥ 20 ॥ नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ॥ अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटि राम करहु जौं दाया ॥ बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी ॥ नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा ॥ लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया ॥ यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥ तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ॥ अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ॥ दो. एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ। नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ॥ 21 ॥ बानर कटक उमा में देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा ॥ आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ॥ अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीम् ॥ यह कछु नहिं प्रभु कि अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ॥ ठाढ़ए जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई ॥ राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ॥ जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई ॥ अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवि बनिहि सो मोहि मराएँ ॥ दो. बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरन्त । तब सुग्रीवँ बोलाए अङ्गद नल हनुमन्त ॥ 22 ॥ सुनहु नील अङ्गद हनुमाना। जामवन्त मतिधीर सुजाना ॥ सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ॥ मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचन्द्र कर काजु सँवारेहु ॥ भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ॥ तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भव सम्भव सोका ॥ देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई ॥ सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी ॥ आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई ॥ पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा ॥ परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ॥ बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ॥ हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ॥ जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता ॥ दो. चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ॥ 23 ॥ कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा ॥ बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कौ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिम् ॥ लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलि न जल घन गहन भुलाने ॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥ चढ़इ गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥ चक्रबाक बक हंस उड़आहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीम् ॥ गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥ आगें कै हनुमन्तहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलम्बु न कीन्हा ॥ दो. दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कञ्ज। मन्दिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुञ्ज ॥ 24 ॥ दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तान्त सुनावा ॥ तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुन्दर फल नाना ॥ मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥ तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥ मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥ नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़ए सकल सिन्धु कें तीरा ॥ सो पुनि गी जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥ नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ॥ दो. बदरीबन कहुँ सो गी प्रभु अग्या धरि सीस । उर धरि राम चरन जुग जे बन्दत अज ईस ॥ 25 ॥ इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीम् ॥ सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लेँ करब का भ्राता ॥ कह अङ्गद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भि मृत्यु हमारी ॥ इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गेँ मारिहि कपिराई ॥ पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही ॥ पुनि पुनि अङ्गद कह सब पाहीं। मरन भयु कछु संसय नाहीम् ॥ अङ्गद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥ छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भे ॥ हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥ अस कहि लवन सिन्धु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥ जामवन्त अङ्गद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥ तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥ दो. निज इच्छा प्रभु अवतरि सुर महि गो द्विज लागि। सगुन उपासक सङ्ग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ 26 ॥ एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कन्दराँ सुनी सम्पाती ॥ बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥ आजु सबहि कहँ भच्छन करूँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरूँ ॥ कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥ डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना ॥ कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवन्त मन सोच बिसेषी ॥ कह अङ्गद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कौ नाहीम् ॥ राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयु परम बड़ भागी ॥ सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥ तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥ सुनि सम्पाति बन्धु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥ दो. मोहि लै जाहु सिन्धुतट देउँ तिलाञ्जलि ताहि । बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ 27 ॥ अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥ हम द्वौ बन्धु प्रथम तरुनाई । गगन गे रबि निकट उडाई ॥ तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ॥ जरे पङ्ख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥ मुनि एक नाम चन्द्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही ॥ बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़आवा ॥ त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥ तासु खोज पठिहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥ जमिहहिं पङ्ख करसि जनि चिन्ता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥ मुनि कि गिरा सत्य भि आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥ गिरि त्रिकूट ऊपर बस लङ्का । तहँ रह रावन सहज असङ्का ॥ तहँ असोक उपबन जहँ रही ॥ सीता बैठि सोच रत अही ॥ दो. मैं देखुँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ॥ बूढ भयुँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ॥ 28 ॥ जो नाघि सत जोजन सागर । करि सो राम काज मति आगर ॥ मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयु सरीरा ॥ पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीम् ॥ तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई ॥ अस कहि गरुड़ गीध जब गयू। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयू ॥ निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा ॥ जरठ भयुँ अब कहि रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ॥ जबहिं त्रिबिक्रम भे खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ॥ दो. बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई। उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ॥ 29 ॥ अङ्गद कहि जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥ जामवन्त कह तुम्ह सब लायक। पठिअ किमि सब ही कर नायक ॥ कहि रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥ कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीम् ॥ राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयु पर्वताकारा ॥ कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ॥ सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषुँ जलनिधि खारा ॥ सहित सहाय रावनहि मारी। आनुँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥ जामवन्त मैं पूँछुँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥ एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥ तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि सङ्ग कपि सेना ॥ छं. -कपि सेन सङ्ग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैम् ॥ जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावी। रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावी ॥ दो. भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि। तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ॥ 30(क) ॥ सो. नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक। सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥ 30(ख) ॥ मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः। (किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Rama Chandra Ashtakam (श्री रामचन्द्र अष्टकम्)
रामचरित मानस के अनुसार भगवान श्रीराम जी को सर्वशक्ति शाली माना जाता है। श्री रामचंद्रा अष्टकम भगवान श्रीराम जी को समर्पित है भगवान श्रीराम जी को भगवान श्री विष्णु जी के अवतार है। रामनवमी के दिन श्री रामचंद्र अष्टकम का पाठ किया जाए तो मनुष्य के जीवन में बुराइयों का विनाश होता है और शत्रुओ से विजय प्राप्त कराता है। श्री रामचंद्रा अष्टकम का पाठ नियमित रूप से करने से साधक के जीवन में सभी प्रकार की बाधाओं, दुःख,कष्टो, बीमारियां व भय से मुक्ति प्राप्त होती है और मनोवांछित कामना भी पूर्ण होने लगती हैI इस पाठ को करने से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होने लगता है। भगवान श्रीराम का आशिर्वाद व उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते है तो प्रतिदिन नियमित रूप से श्री रामचंद्रा अष्टकम का पाठ अवश्य करें। याद रखे इस पाठ को करने से पूर्व अपना पवित्रता बनाये रखेI इससे मनुष्य को जीवन में बहुत अधिक लाभ प्राप्त होता है।Ashtakam
Shri Ramachandrastuti (श्रीरामचन्द्रस्तुतिः)
Ram Stuti भगवान श्री राम जी को समर्पित है। नियमित रूप से Ram Stuti का पाठ करने से साधक के घर, ऑफिस और व्यवसाय के सभी कार्यों में सफलता मिलती है। इसे करने से भगवान Shri Hanuman Ji को धन्यवाद देना भी बहुत सरल हो जाता है। इसलिए, जब भी भगवान Hanuman Ji की पूजा से पहले भगवान राम की स्तुति की जाती है, तो Shri Hanuman Ji का आशीर्वाद प्राप्त होता है। strong>Ram Stuti शब्दों और अक्षरों का एक अनूठा संयोजन है, जिसमें छुपी हुई शक्तिशाली और रहस्यमयी ऊर्जा होती है, जो इसे एक विशेष विधि से जपने पर वांछित परिणाम प्रदान करती है। श्री राम नवमी, विजय दशमी, सुंदरकांड, रामचरितमानस कथा, श्री हनुमान जन्मोत्सव और अखंड रामायण के पाठ में प्रमुखता से वाचन किया जाने वाली वंदना।Stuti
Ram Vandana (राम वन्दना)
राम वंदना भगवान राम (Lord Rama), जिन्हें "Maryada Purushottam" और "embodiment of dharma" कहा जाता है, की महिमा का वर्णन करती है। यह वंदना उनके "ideal character," "divine leadership," और "symbol of righteousness" को उजागर करती है। श्रीराम भक्तों को "spiritual guidance," "inner peace," और "moral strength" प्रदान करते हैं। राम वंदना का पाठ जीवन में "harmony," "prosperity," और "divine blessings" लाने का मार्ग है।Vandana
Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) लङ्काकाण्ड(Lankakanda)
श्री राम चरित मानस(Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - लङ्काकाण्ड श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान (लङ्काकाण्ड) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्। मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ 1 ॥ शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्। काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ 2 ॥ यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ 3 ॥ दो. लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड। भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड ॥ सो. सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥ सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़इ भव सागर तरिहिम् ॥ यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥ तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयु तेहिं खारा ॥ सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥ जामवन्त बोले दौ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥ राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीम् ॥ बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥ राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू ॥ धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥ सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥ दो. अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ 1 ॥ सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीम् ॥ देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥ परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥ करिहुँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना ॥ सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥ लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥ सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥ दो. सङ्कर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ 2 ॥ जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिम् ॥ जो गङ्गाजलु आनि चढ़आइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥ होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि ॥ मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥ राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥ गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥ बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयु उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भे उपल बोहित सम तेई ॥ महिमा यह न जलधि कि बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कि करनी ॥ दो0=श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान। ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ 3 ॥ बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥ सेतुबन्ध ढिग चढ़इ रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई ॥ देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भे सब जलचर बृन्दा ॥ मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला ॥ ऐसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीम् ॥ प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भे सुखारे ॥ तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भे हरि रूप निहारी ॥ चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥ दो. सेतुबन्ध भि भीर अति कपि नभ पन्थ उड़आहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़इ चढ़इ पारहि जाहिम् ॥ 4 ॥ अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥ सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥ सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥ खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिम् ॥ जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिम् ॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥ जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥ दो. बान्ध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस। सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस ॥ 5 ॥ निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयु ग्रह करि भय भोरी ॥ मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥ कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी ॥ चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥ नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सोम् ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥ अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे ॥ जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥ तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा ॥ दो. रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ। सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ 6 ॥ नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघु सनमुख गेँ न खाई ॥ चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥ सन्त कहहिं असि नीति दसानन। चौथेम्पन जाइहि नृप कानन ॥ तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता ॥ सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥ सोइ कोसलधीस रघुराया। आयु करन तोहि पर दाया ॥ जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥ दो. अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ 7 ॥ तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥ सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ॥ बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरेम् ॥ नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥ मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना ॥ सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥ कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥ कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा ॥ दो. सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिन्न्ह मति अति थोरि ॥ 8 ॥ कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥ बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥ छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥ सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥ जेहिं बारीस बँधायु हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥ सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥ तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥ प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीम् ॥ बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥ प्रथम बसीठ पठु सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥ दो. नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़आइअ रारि। नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ 9 ॥ यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥ सुत सन कह दसकण्ठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥ अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा ॥ हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसेम् ॥ सन्ध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेही मन्दिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन ॥ बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥ दो. सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करि बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ 10 ॥ इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा ॥ सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥ ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा ॥ दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना ॥ बड़भागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना ॥ प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन ॥ दो. एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ 11(क) ॥ पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक। कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क ॥ 11(ख) ॥ पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी ॥ मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी ॥ बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा ॥ कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई ॥ कह सुग़ईव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥ मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई ॥ कौ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥ छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीम् ॥ प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥ बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी ॥ दो. कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास। तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ 12(क) ॥ नवान्हपारायण ॥ सातवाँ विश्राम पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ 12(ख) ॥ देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घम्मड दामिनि बिलासा ॥ मधुर मधुर गरजि घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥ कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़इत न बारिद माला ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकङ्घर देख अखारा ॥ छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥ मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का ॥ बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥ प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़आइ बान सन्धाना ॥ दो. छत्र मुकुट ताटङ्क तब हते एकहीं बान। सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ 13(क) ॥ अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषङ्ग। रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग ॥ 13(ख) ॥ कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥ सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयु भयङ्कर भारी ॥ दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥ सिरु गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही ॥ सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई ॥ मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥ सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥ कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥ दो. बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अङ्ग अङ्ग प्रति जासु ॥ 14 ॥ पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥ भृकुटि बिलास भयङ्कर काला। नयन दिवाकर कच घन माला ॥ जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥ श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी ॥ अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला ॥ आनन अनल अम्बुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा ॥ रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥ उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥ दो. अहङ्कार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान। मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ 15 क ॥ अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ। प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ 15 ख ॥ बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना ॥ नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीम् ॥ साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया ॥ रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥ सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरेम् ॥ जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥ तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥ मन्दोदरि मन महुँ अस ठयू। पियहि काल बस मतिभ्रम भयू ॥ दो. एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध। सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयु मद अन्ध ॥ 16(क) ॥ सो. फूलह फरि न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद। मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम ॥ 16(ख) ॥ इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥ कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई ॥ सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥ मन्त्र कहुँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥ नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना ॥ बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा ॥ बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहूँ। परम चतुर मैं जानत अहूँ ॥ काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥ सो. प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ। सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥ 17(क) ॥ स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियु। अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियु ॥ 17(ख) ॥ बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥ प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का ॥ पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैण्टा ॥ बातहिं बात करष बढ़इ आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥ तेहि अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥ निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥ एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीम् ॥ भयु कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहीं जारी ॥ अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥ बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥ दो. गयु सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कञ्ज। सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुञ्ज ॥ 18 ॥ तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा ॥ सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥ आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुञ्जरहि बोलि लै आए ॥ अङ्गद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसेम् ॥ भुजा बिटप सिर सृङ्ग समाना। रोमावली लता जनु नाना ॥ मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कन्दरा खोह अनुमाना ॥ गयु सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥ उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥ दो. जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ। राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥ 19 ॥ कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर ॥ मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयुँ भाई ॥ उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरञ्चि पूजेहु बहु भाँती ॥ बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥ नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा ॥ अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥ दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी ॥ सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागेम् ॥ दो. प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि। आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ 20 ॥ रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥ कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई ॥ अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भी ही भेटा ॥ अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना ॥ अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥ गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु ॥ अब कहु कुसल बालि कहँ अही। बिहँसि बचन तब अङ्गद कही ॥ दिन दस गेँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥ राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥ सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकेम् ॥ दो. हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस। अन्धु बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥ 21। सिव बिरञ्चि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई ॥ तासु दूत होइ हम कुल बोरा। ऐसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥ सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी ॥ खल तव कठिन बचन सब सहूँ। नीति धर्म मैं जानत अहूँ ॥ कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥ देखी नयन दूत रखवारी। बूड़इ न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥ कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥ धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥ दो. जनि जल्पसि जड़ जन्तु कपि सठ बिलोकु मम बाहु। लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ 22(क) ॥ पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास। सोभत भयु मराल इव सम्भु सहित कैलास ॥ 22(ख) ॥ तुम्हरे कटक माझ सुनु अङ्गद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥ तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥ तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥ जामवन्त मन्त्री अति बूढ़आ। सो कि होइ अब समरारूढ़आ ॥ सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला ॥ आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥ सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥ रावन नगर अल्प कपि दही। सुनि अस बचन सत्य को कही ॥ जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥ चलि बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई ॥ दो. सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ। फिरि न गयु सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ 23(क) ॥ सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह। कौ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ 23(ख) ॥ प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। जौं मृगपति बध मेड़उकन्हि भल कि कहि कौ ताहि ॥ 23(ग) ॥ जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष। तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ 23(घ) ॥ बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस। प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ 23(ङ) ॥ हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। जो प्रतिपालि तासु हित करि उपाय अनेक ॥ 23(छ) ॥ धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचि परिहरि लाजा ॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करि धर्म निपुनाई ॥ अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥ मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करुँ नहिं काना ॥ कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥ सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई ॥ देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥ जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥ पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥ बालि बिमल जस भाजन जानी। हतुँ न तोहि अधम अभिमानी ॥ कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥ बलिहि जितन एक गयु पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥ खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़आई ॥ एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़आवा ॥ दो. एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख। इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ 24 ॥ सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥ जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़आई ॥ सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥ भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥ जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरुँ जाइ बरिआई ॥ जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे ॥ जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥ दो. तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान। रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ 25 ॥ सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥ सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़ए नृप अगनित बहु बारा ॥ तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा ॥ राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा ॥ पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥ बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन ॥ सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा ॥ दो. सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥ कस रे सठ हनुमान कपि गयु जो तव सुत मारि ॥ 26 ॥ सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिन्धु रघुराई ॥ जौ खल भेसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥ मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला ॥ तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागेम् ॥ ते तव सिर कन्दुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥ जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥ तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा ॥ सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा ॥ दो. कुम्भकरन अस बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ 27 ॥ सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिन्धु इहि प्रभुताई ॥ नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥ मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़ए बहु सुर नर सूरा ॥ बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा ॥ दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥ जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥ तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥ हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥ दो. सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस। हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ 28 ॥ जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला ॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥ सौ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरेम् ॥ आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥ कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कौ नाहीम् ॥ लाजवन्त तव सहज सुभ्AU। निज मुख निज गुन कहसि न क्AU ॥ सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही ॥ सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥ सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा ॥ इन्द्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटि निज कर सकल सरीरा ॥ दो. जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द। ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द ॥ 29 ॥ अब जनि बतबढ़आव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही ॥ दसमुख मैं न बसीठीं आयुँ। अस बिचारि रघुबीष पठायुँ ॥ बार बार अस कहि कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥ मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥ नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी ॥ तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥ जौं न राम अपमानहि डरुँ। तोहि देखत अस कौतुक करूँ ॥ दो. तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ। तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ 30 ॥ जौ अस करौं तदपि न बड़आई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥ कौल कामबस कृपिन बिमूढ़आ। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़आ ॥ सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति सन्त बिरोधी ॥ तनु पोषक निन्दक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥ अस बिचारि खल बधुँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥ सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥ रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़इ कहसी ॥ कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकेम् ॥ दो. अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास। सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ 31(क) ॥ जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि ऐसे मनुज अनेक। खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ 31(ख) ॥ जब तेहिं कीन्ह राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयु कपिन्दा ॥ हरि हर निन्दा सुनि जो काना। होइ पाप गोघात समाना ॥ कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी ॥ डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥ गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर ॥ कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे ॥ आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥ की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए ॥ कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥ ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे ॥ दो. तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास। कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ 32(क) ॥ उहाँ सकोऽपि दसानन सब सन कहत रिसाइ। धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अङ्गद मुसुकाइ ॥ 32(ख) ॥ एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥ मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥ पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा ॥ मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥ रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मन्दमति कामी ॥ सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भेसि कालबस खल मनुजादा ॥ याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागेम् ॥ रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥ गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीम् ॥ सो. सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर। बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ 33(क) ॥ तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर। तजुँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ 33(ख) ॥ मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥ असि रिस होति दसु मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौम् ॥ गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का ॥ मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥ जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥ बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भेसि लबारा ॥ साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥ समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा ॥ जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥ सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥ इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥ झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरि बैठहिं सिरु नाई ॥ पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरि न कीस चरन एहि भाँती ॥ पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥ दो. कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ। झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ 34(क) ॥ भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥ कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ 34(ख) ॥ कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे ॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा ॥ गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥ भयु तेजहत श्री सब गी। मध्य दिवस जिमि ससि सोही ॥ सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई ॥ जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥ उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावि नासा ॥ तृन ते कुलिस कुलिस तृन करी। तासु दूत पन कहु किमि टरी ॥ पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना ॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥ हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़आई ॥ प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयु दुखारा ॥ जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भे बिसेषी ॥ दो. रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुञ्ज। पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कञ्ज ॥ 35(क) ॥ साँझ जानि दसकन्धर भवन गयु बिलखाइ। मन्दोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ (ख) ॥ कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥ रामानुज लघु रेख खचाई। सौ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥ पिय तुम्ह ताहि जितब सङ्ग्रामा। जाके दूत केर यह कामा ॥ कौतुक सिन्धु नाघी तव लङ्का। आयु कपि केहरी असङ्का ॥ रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥ अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥ पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥ बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥ जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हु बल अतुल बिसाला ॥ भञ्जि धनुष जानकी बिआही। तब सङ्ग्राम जितेहु किन ताही ॥ सुरपति सुत जानि बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥ सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥ दो. बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबन्ध। बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकन्ध ॥ 36 ॥ जेहिं जलनाथ बँधायु हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायु तव हित हेतू ॥ सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥ अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥ तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू ॥ अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा ॥ काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरि धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईम् ॥ दो. दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु। कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ 37 ॥ नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयु उठि होत बिहाना ॥ बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली ॥ इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥ बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछुँ तोही ॥ । रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥ तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥ सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥ साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥ दो. धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस। तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥ 38(((क) ॥ परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ 38(ख) ॥ रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए ॥ लङ्का बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥ तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥ करि बिचार तिन्ह मन्त्र दृढ़आवा। चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥ जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥ प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिङ्घनाद करि धाए ॥ हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिम् ॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥ जानत परम दुर्ग अति लङ्का। प्रभु प्रताप कपि चले असङ्का ॥ घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥ दो. जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। गर्जहिं सिङ्घनाद कपि भालु महा बल सींव ॥ 39 ॥ लङ्काँ भयु कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी ॥ देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥ आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे ॥ अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥ सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥ उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥ चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी ॥ तोमर मुग्दर परसु प्रचण्डा। सुल कृपान परिघ गिरिखण्डा ॥ जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥ चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥ दो. नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। कोट कँगूरन्हि चढ़इ गे कोटि कोटि रनधीर ॥ 40 ॥ कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे ॥ बाजहिं ढोल निसान जुझ्AU। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन च्AU ॥ बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥ देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥ धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥ कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिम् ॥ उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई ॥ निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिम् ॥ दो. धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीम् ॥ अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़इ चढ़इ गे। कपि भालु चढ़इ मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भे ॥ दो. एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ 41 ॥ राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥ चढ़ए दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥ चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥ हाहाकार भयु पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी ॥ सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥ निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लङ्केस रिसाना ॥ जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना ॥ सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भे बल्लभ प्राना ॥ उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥ सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥ दो. बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि। ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ 42 ॥ भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥ कौ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता। कहँ नल नील दुबिद बलवन्ता ॥ निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥ मेघनाद तहँ करि लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई ॥ पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥ कूदि लङ्क गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥ भञ्जेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥ दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यन्दन घालि तुरत गृह आना ॥ दो. अङ्गद सुना पवनसुत गढ़ पर गयु अकेल। रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़एउ कपि खेल ॥ 43 ॥ जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बन्दर। राम प्रताप सुमिरि उर अन्तर ॥ रावन भवन चढ़ए द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई ॥ कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा ॥ नारि बृन्द कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती ॥ कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिम् ॥ पुनि कर गहि कञ्चन के खम्भा। कहेन्हि करिअ उतपात अरम्भा ॥ गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी ॥ काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥ दो. एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड। रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड ॥ 44 ॥ महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिम् ॥ कहि बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥ खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥ देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी ॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी ॥ अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥ लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहि सिन्धु दुइ मन्दर जैसेम् ॥ दो. भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त। कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त ॥ 45 ॥ प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भे बिगतश्रम परम सुखारे ॥ गे जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई ॥ निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥ द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥ महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे ॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥ प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥ अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥ भयु निमिष महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥ दो. देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयु खभार। एकहि एक न देखी जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ 46 ॥ सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अङ्गद हनुमाना ॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोऽपि कपिकुञ्जर धाए ॥ पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़आवा। पावक सायक सपदि चलावा ॥ भयु प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीम् ॥ भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥ हनूमान अङ्गद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥ भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥ गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीम् ॥ दो. कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़ए पराइ। गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ 47 ॥ निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी ॥ राम कृपा करि चितवा सबही। भे बिगतश्रम बानर तबही ॥ उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥ आधा कटकु कपिन्ह सङ्घारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥ माल्यवन्त अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मन्त्री बर ॥ बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥ जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥ बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥ दो. हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान। जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिन्धु भगवान ॥ 48(क) ॥ मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध। सिव बिरञ्चि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ 48(ख) ॥ परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥ ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥ बूढ़ भेसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही ॥ तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥ सो उठि गयु कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा ॥ कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहुँ बहुत कहौं का थोरा ॥ सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अङ्क बैठावा ॥ करत बिचार भयु भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥ कोऽपि कपिन्ह दुर्घट गढ़उ घेरा। नगर कोलाहलु भयु घनेरा ॥ बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥ छं. ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले। घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥ मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भे। गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हे ॥ दो. मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़उ पुनि छेङ्का आइ। उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ 49 ॥ कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥ कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अङ्गद हनूमन्त बल सींवा ॥ कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारुँ ओही ॥ अस कहि कठिन बान सन्धाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥ सर समुह सो छाड़ऐ लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥ जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥ जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥ सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥ दो. दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर। सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ 50 ॥ देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवन्त जनु धायु काला ॥ महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा ॥ आवत देखि गयु नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई ॥ बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना ॥ रघुपति निकट गयु घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥ अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥ देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना ॥ जिमि कौ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥ दो. जासु प्रबल माया बल सिव बिरञ्चि बड़ छोट। ताहि दिखावि निसिचर निज माया मति खोट ॥ 51 ॥ नभ चढ़इ बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥ नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥ बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़आ। बरषि कबहुँ उपल बहु छाड़आ ॥ बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा ॥ कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखेम् ॥ कौतुक देखि राम मुसुकाने। भे सभीत सकल कपि जाने ॥ एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥ कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भे प्रबल रन रहहिं न रोके ॥ दो. आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ 52 ॥ छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥ इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥ भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी ॥ भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥ मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिम् ॥ मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥ असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा ॥ देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा ॥ दो. रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़आइ। जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ 53 ॥ घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥ लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥ एकहि एक सकि नहिं जीती। निसिचर छल बल करि अनीती ॥ क्रोधवन्त तब भयु अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता ॥ नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयु प्रान अवसेषा ॥ रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयु हरिहि मम प्राना ॥ बीरघातिनी छाड़इसि साँगी। तेज पुञ्ज लछिमन उर लागी ॥ मुरुछा भी सक्ति के लागें। तब चलि गयु निकट भय त्यागेम् ॥ दो. मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ 54 ॥ सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारि भुवन चारिदस आसू ॥ सक सङ्ग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥ यह कौतूहल जानि सोई। जा पर कृपा राम कै होई ॥ सन्ध्या भि फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी ॥ ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥ तब लगि लै आयु हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥ जामवन्त कह बैद सुषेना। लङ्काँ रहि को पठी लेना ॥ धरि लघु रूप गयु हनुमन्ता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता ॥ दो. राम पदारबिन्द सिर नायु आइ सुषेन। कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ 55 ॥ राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभञ्जन सुत बल भाषी ॥ उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा ॥ दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥ देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पन्थ को रोकन पारा ॥ भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥ नील कञ्ज तनु सुन्दर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥ मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू ॥ काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥ दो. सुनि दसकण्ठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार। राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ 56 ॥ अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मन्दिर बर बाग बनाया ॥ मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥ राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा ॥ जाइ पवनसुत नायु माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥ होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिम् ॥ इहाँ भेँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥ मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥ सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥ दो. सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़इ जान ॥ 57 ॥ कपि तव दरस भिउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥ मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥ अस कहि गी अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयु कपि तबहीम् ॥ कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मन्त्र तुम्ह देहू ॥ सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥ राम राम कहि छाड़एसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥ देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥ गहि गिरि निसि नभ धावत भयू। अवधपुरी उपर कपि गयू ॥ दो. देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ 58 ॥ परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक ॥ सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए ॥ बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥ मुख मलीन मन भे दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी ॥ जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥ जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया ॥ तौ कपि हौ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥ सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥ सो. लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ 59 ॥ तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥ कपि सब चरित समास बखाने। भे दुखी मन महुँ पछिताने ॥ अहह दैव मैं कत जग जायुँ। प्रभु के एकहु काज न आयुँ ॥ जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥ तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥ चढ़उ मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥ सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥ राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी ॥ दो. तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहुँ नाथ तुरन्त। अस कहि आयसु पाइ पद बन्दि चलेउ हनुमन्त ॥ 60(क) ॥ भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ 60(ख) ॥ उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥ अर्ध राति गि कपि नहिं आयु। राम उठाइ अनुज उर लायु ॥ सकहु न दुखित देखि मोहि क्AU। बन्धु सदा तव मृदुल सुभ्AU ॥ मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥ सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥ जौं जनतेउँ बन बन्धु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥ सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥ अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलि न जगत सहोदर भ्राता ॥ जथा पङ्ख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥ अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥ जैहुँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीम् ॥ अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥ सौम्पेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥ उतरु काह दैहुँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥ बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥ उमा एक अखण्ड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥ सो. प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भे बानर निकर। आइ गयु हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ 61 ॥ हरषि राम भेण्टेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥ तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥ हृदयँ लाइ प्रभु भेण्टेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥ कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लि आवा ॥ यह बृत्तान्त दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥ ब्याकुल कुम्भकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥ जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥ कुम्भकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ॥ कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा सङ्घारे ॥ दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकम्पन भारी ॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ॥ दो. सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान। जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ 62 ॥ भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना ॥ हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक ॥ अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥ कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक ॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥ अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥ स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥ दो. राम रूप गुन सुमिरत मगन भयु छन एक। रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ 63 ॥ महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना ॥ कुम्भकरन दुर्मद रन रङ्गा। चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा ॥ देखि बिभीषनु आगें आयु। परेउ चरन निज नाम सुनायु ॥ अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥ तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मन्त्र बिचारा ॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयुँ। देखि दीन प्रभु के मन भायुँ ॥ सुनु सुत भयु कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन ॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥ बन्धु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥ दो. बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। जाहु न निज पर सूझ मोहि भयुँ कालबस बीर। 64 ॥ बन्धु बचन सुनि चला बिभीषन। आयु जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥ नाथ भूधराकार सरीरा। कुम्भकरन आवत रनधीरा ॥ एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना ॥ लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥ कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥ मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥ तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥ पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमन्ता। घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता ॥ पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥ चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कौ समुहाई ॥ दो. अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ 65 ॥ उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥ भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहि ऐसि लराई ॥ जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिम् ॥ मुरुछा गि मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥ सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयु तेहि मृतक प्रतीती ॥ काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलु तेहिं जाना ॥ गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥ पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना ॥ नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भि मन ग्लानी ॥ सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥ दो. जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। एकहि बार तासु पर छाड़एन्हि गिरि तरु जूह ॥ 66 ॥ कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥ कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ई गिरि गुहाँ समाई ॥ कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥ मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥ रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥ मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥ कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी ॥ देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥ दो. सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। मैं देखुँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ 67 ॥ कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥ प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयु सुनि सोरा ॥ सत्यसन्ध छाँड़ए सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥ जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥ कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा ॥ घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीम् ॥ लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिम् ॥ रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिम् ॥ दो. छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। पुनि रघुबीर निषङ्ग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ 68 ॥ कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी ॥ भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥ कोऽपि महीधर लेइ उपारी। डारि जहँ मर्कट भट भारी ॥ आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ । पुनि धनु तानि कोऽपि रघुनायक। छाँड़ए अति कराल बहु सायक ॥ तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीम् ॥ सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥ बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥ दो. महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। महि पटकि गजराज इव सपथ करि दससीस ॥ 69 ॥ भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥ चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी ॥ यह निसिचर दुकाल सम अही। कपिकुल देस परन अब चही ॥ कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥ सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना ॥ राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली ॥ खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने ॥ लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा ॥ लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥ धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सौ भुजा काटि महि पारी ॥ काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा ॥ उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥ दो. करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ 70 ॥ सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजन्त सरासनु तान्यो ॥ बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥ सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥ तब प्रभु कोऽपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥ सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयु जिमि फनि मनि त्यागेम् ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खण्डा ॥ परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना ॥ सुर दुन्दुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिम् ॥ करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए ॥ गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥ बेगि हतहु खल कहि मुनि गे। राम समर महि सोभत भे ॥ छं. सङ्ग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। श्रम बिन्दु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥ भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने। कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥ दो. निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ 71 ॥ दिन कें अन्त फिरीं दौ अनी। समर भी सुभटन्ह श्रम घनी ॥ राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़आ। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़आ ॥ छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥ बहु बिलाप दसकन्धर करी। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरी ॥ रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥ मेघनाद तेहि अवसर आयु। कहि बहु कथा पिता समुझायु ॥ देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़आई ॥ इष्टदेव सैं बल रथ पायुँ। सो बल तात न तोहि देखायुँ ॥ एहि बिधि जल्पत भयु बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥ इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा ॥ लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥ दो. मेघनाद मायामय रथ चढ़इ गयु अकास ॥ गर्जेउ अट्टहास करि भि कपि कटकहि त्रास ॥ 72 ॥ सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥ डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥ दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥ धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारि तेहि कौ न जाना ॥ गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिम् ॥ अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर ॥ जाहिं कहाँ ब्याकुल भे बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर ॥ मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥ पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥ पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥ ब्याल पास बस भे खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी ॥ नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना ॥ रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो ॥ दो. गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। सो कि बन्ध तर आवि ब्यापक बिस्व निवास ॥ 73 ॥ चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥ अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥ ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहि दुर्बादा ॥ जामवन्त कह खल रहु ठाढ़आ। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़आ ॥ बूढ़ जानि सठ छाँड़एउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही ॥ अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो ॥ मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥ पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो ॥ बर प्रसाद सो मरि न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा ॥ इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो ॥ दो. खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ। माया बिगत भे सब हरषे बानर जूथ। 74(क) ॥ गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़ए पराइ ॥ 74(ख) ॥ मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥ तुरत गयु गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा ॥ इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥ मेघनाद मख करि अपावन। खल मायावी देव सतावन ॥ जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥ सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना ॥ लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥ तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥ मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥ जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥ जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन ॥ प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥ जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौम् ॥ जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतुँ रघुबीर दोहाई ॥ दो. रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त। अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त ॥ 75 ॥ जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥ कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठि तब करहिं प्रसंसा ॥ तदपि न उठि धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई ॥ लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे ॥ आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥ कोऽपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥ प्रभु कहँ छाँड़एसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा ॥ उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोऽपि तेहि घाउ न बाजा ॥ फिरे बीर रिपु मरि न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा ॥ आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़ए बिसिख कराला ॥ देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयु खल अन्तरधाना ॥ बिबिध बेष धरि करि लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥ देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयु अहीसा ॥ लछिमन मन अस मन्त्र दृढ़आवा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥ सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा ॥ छाड़आ बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा ॥ दो. रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़एसि प्रान। धन्य धन्य तव जननी कह अङ्गद हनुमान ॥ 76 ॥ बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लङ्का द्वार राखि पुनि आयो ॥ तासु मरन सुनि सुर गन्धर्बा। चढ़इ बिमान आए नभ सर्बा ॥ बरषि सुमन दुन्दुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिम् ॥ जय अनन्त जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥ अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥ सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयु परेउ महि तबहीम् ॥ मन्दोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥ नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकन्धर पोचा ॥ दो. तब दसकण्ठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि। नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ 77 ॥ तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन ॥ पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥ निसा सिरानि भयु भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥ सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥ सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भेँ न भलाई ॥ निज भुज बल मैं बयरु बढ़आवा। देहुँ उतरु जो रिपु चढ़इ आवा ॥ अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझ्AU बाजा ॥ चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली ॥ असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनि न भुजबल गर्ब बिसाला ॥ छं. अति गर्ब गनि न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते। भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥ गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने। जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥ दो. ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ 78 ॥ चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा ॥ बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥ चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥ बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया ॥ अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी ॥ चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीम् ॥ उठी रेनु रबि गयु छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥ पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिम् ॥ भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई ॥ केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीम् ॥ कहि दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥ हौं मारिहुँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई ॥ यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई ॥ छं. धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। मानहुँ सपच्छ उड़आहिं भूधर बृन्द नाना बान ते ॥ नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं। जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीम् ॥ दो. दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि। भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ 79 ॥ रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयु अधीरा ॥ अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा ॥ नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥ सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यन्दन आना ॥ सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ॥ ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म सन्तोष कृपाना ॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्ड़आ। बर बिग्यान कठिन कोदण्डा ॥ अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥ सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकेम् ॥ दो. महा अजय संसार रिपु जीति सकि सो बीर। जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ 80(क) ॥ सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज। एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज ॥ 80(ख) ॥ उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान। लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ 80(ग) ॥ सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़ए बिमाना ॥ हमहू उमा रहे तेहि सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा ॥ सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते ॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिम् ॥ मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिम् ॥ उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिम् ॥ निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥ बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥ छं. क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं। मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीम् ॥ मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं। चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीम् ॥ धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीम् ॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥ दो. निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। रथ चढ़इ चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ 81 ॥ धायु परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर ॥ गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥ लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू ॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥ इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयु अति क्रोधा ॥ चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना ॥ पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई ॥ तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने ॥ छं. सन्धानि धनु सर निकर छाड़एसि उरग जिमि उड़इ लागहीं। रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीम् ॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे ॥ दो. निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ 82 ॥ रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़आवुँ छाती ॥ अस कहि छाड़एसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा ॥ कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥ पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा ॥ सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥ पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीम् ॥ उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़इसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥ छं. सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही। पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥ ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥ दो. देखि पवनसुत धायु बोलत बचन कठोर। आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ 83 ॥ जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥ मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥ धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥ अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो ॥ कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता ॥ सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गी गगन सो सकति कराला ॥ पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥ छं. आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो। गिर् यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥ सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो। रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥ दो. उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ 84 ॥ इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥ नाथ करि रावन एक जागा। सिद्ध भेँ नहिं मरिहि अभागा ॥ पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर ॥ प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए ॥ कौतुक कूदि चढ़ए कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का ॥ जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥ रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥ अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥ छं. नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीम् ॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारी। एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारी ॥ दो. जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ 85 ॥ चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उड़आइ सिरन्ह पर ॥ भयु कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥ चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा ॥ प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसेम् ॥ इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही ॥ देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना। जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥ अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥ कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा ॥ छं. सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे ॥ दो. सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ 86 ॥ एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी। देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥ बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमङ्कहिम् ॥ गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥ कपि लङ्गूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इन्द्रधनु उए सुहाए ॥ उठि धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुन्द भै बृष्टि अपारा ॥ दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥ रघुपति कोऽपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई ॥ लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीम् ॥ स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी ॥ छं. कादर भयङ्कर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। दौ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥ जल जन्तुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरङ्ग चर्म कमठ घने ॥ दो. बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ 87 ॥ मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला ॥ काक कङ्क लै भुजा उड़आहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीम् ॥ एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥ कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥ खैञ्चहिं गीध आँत तट भे। जनु बंसी खेलत चित दे ॥ बहु भट बहहिं चढ़ए खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीम् ॥ जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूत पिसाच बधू नभ नञ्चहिम् ॥ भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिम् ॥ जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिम् ॥ कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिम् ॥ छं. बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीम् ॥ बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भे। सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हे ॥ दो. रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ 88 ॥ देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा ॥ तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़ए कोसलपुर भूपा ॥ चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी ॥ रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥ सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी ॥ सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥ देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥ छं. बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥ निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी। माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥ दो. बहुरि राम सब तन चिति बोले बचन गँभीर। द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भे अति बीर ॥ 89 ॥ अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥ जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीम् ॥ रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना ॥ खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥ निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु ॥ आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीम् ॥ आजु करुँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले ॥ सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥ छं. जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥ एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलि केवल लागहीं। एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीम् ॥ दो. राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ 90 ॥ कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँड़ऐ सर ॥ नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥ पावक सर छाँड़एउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥ छाड़इसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई ॥ कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥ निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसेम् ॥ तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥ राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥ छं. भे क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥ मँदोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे। चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥ दो. तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़ए बिसिख कराल। राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ 91 ॥ चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥ रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका ॥ तुरत आन रथ चढ़इ खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़एसि बिधि नाना ॥ बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥ तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥ तुरग उठाइ कोऽपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँड़ए सायक ॥ रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥ दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गे चले रुधिर पनारे ॥ स्त्रवत रुधिर धायु बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना ॥ तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥ काटतहीं पुनि भे नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥ प्रभु बहु बार बाहु सिर हे। कटत झटिति पुनि नूतन भे ॥ पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥ रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥ छं. जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं। रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरन न पावहीम् ॥ एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। जनु कोऽपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीम् ॥ दो. जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ 92 ॥ दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ई। बिसरा मरन भी रिस गाढ़ई ॥ गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायु दसहु सरासन तानी ॥ समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥ दण्ड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥ हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोऽपि कारमुक लीन्हा ॥ सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥ काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिम् ॥ कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥ छं. कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥ सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं। करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीम् ॥ दो. पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँड़ई सक्ति प्रचण्ड। चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड ॥ 93 ॥ आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा ॥ तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥ लागि सक्ति मुरुछा कछु भी। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकली ॥ देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥ रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥ सादर सिव कहुँ सीस चढ़आए। एक एक के कोटिन्ह पाए ॥ तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥ राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥ छं. उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो। दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर् यो ॥ द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै। रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥ दो. उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ 94 ॥ देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायु हनूमान गिरि धारी ॥ रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥ ठाढ़ रहा अति कम्पित गाता। गयु बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥ पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥ गहिसि पूँछ कपि सहित उड़आना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥ लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥ सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीम् ॥ बुधि बल निसिचर परि न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु सम्भार् यो ॥ छं. सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥ हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले ॥ दो. तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचण्ड। कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषण्ड ॥ 95 ॥ अन्तरधान भयु छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥ देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥ भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥ दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥ डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई ॥ सब सुर जिते एक दसकन्धर। अब बहु भे तकहु गिरि कन्दर ॥ रहे बिरञ्चि सम्भु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥ छं. जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे। चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥ हनुमन्त अङ्गद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अङ्कुरे ॥ दो. सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। सजि सारङ्ग एक सर हते सकल दससीस ॥ 96 ॥ प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥ रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥ भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥ प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि सञ्जुग महि आए ॥ अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयुँ एक मैं इन्ह के लेखेम् ॥ सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोऽपि गगन पर धायल ॥ हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥ देखि बिकल सुर अङ्गद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥ छं. गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। सम्भारि उठि दसकण्ठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥ करि दाप चाप चढ़आइ दस सन्धानि सर बहु बरषी। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषी ॥ दो. तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। काटे बहुत बढ़ए पुनि जिमि तीरथ कर पाप। 97 ॥ सिर भुज बाढ़इ देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भी घनेरी ॥ मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोऽपि भालु भट कीसा ॥ बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ॥ बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥ एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥ तब नल नील सिरन्हि चढ़इ गयू। नखन्हि लिलार बिदारत भयू ॥ रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥ गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीम् ॥ कोऽपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥ पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥ हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर ॥ मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायु रनधीरा ॥ सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी ॥ भयु क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकि भट नाना ॥ देखि भालुपति निज दल घाता। कोऽपि माझ उर मारेसि लाता ॥ छं. उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा। गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥ मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ। निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥ दो. मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ 98 ॥ मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥ सिर भुज बाढ़इ सुनत रिपु केरी। सीता उर भि त्रास घनेरी ॥ मुख मलीन उपजी मन चिन्ता। त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥ होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥ रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरी। बिधि बिपरीत चरित सब करी ॥ मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही ॥ जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥ जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥ रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी ॥ ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥ बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की ॥ कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरि सुरारी ॥ प्रभु ताते उर हति न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥ छं. एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है। मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥ सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा। अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय महा ॥ दो. काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान। तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ 99 ॥ अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥ राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥ निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँती। जुग सम भी सिराति न राती ॥ करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥ जब अति भयु बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥ सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥ इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा ॥ सठ रनभूमि छड़आइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही ॥ तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भेँ रथ चढ़इ पुनि धावा ॥ सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयु घनेरा ॥ जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी ॥ छं. धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा ॥ बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो। चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो ॥ दो. देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार ॥ 100 ॥ छं. जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भे प्रगट जन्तु प्रचण्ड ॥ बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच ॥ 1 ॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल ॥ करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान ॥ 2 ॥ धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ॥ मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान ॥ 3 ॥ जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि ॥ भे बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु ॥ 4 ॥ जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस ॥ लछिमन कपीस समेत। भे सकल बीर अचेत ॥ 5 ॥ हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ ॥ एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि ॥ 6 ॥ प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान ॥ तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ॥ 7 ॥ मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ ॥ दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज ॥ 8 ॥ छं. तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही। जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही ॥ प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। रघुबीर एकहि तीर कोऽपि निमेष महुँ माया हरी ॥ 1 ॥ माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। सर निकर छाड़ए राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे ॥ श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं। सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीम् ॥ 2 ॥ दो. ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास। जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥ 101(क) ॥ काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लङ्केस। प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥ 101(ख) ॥ काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥ मरि न रिपु श्रम भयु बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा ॥ उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥ सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥ नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकेम् ॥ सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला ॥ असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥ बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भे नभ जहँ तहँ केतू ॥ दस दिसि दाह होन अति लागा। भयु परब बिनु रबि उपरागा ॥ मन्दोदरि उर कम्पति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥ छं. प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही। बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥ उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जे। सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भे ॥ दो. खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़ए सर एकतीस। रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ 102 ॥ सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥ लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा ॥ गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥ डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर ॥ धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढ़आई। चापि भालु मर्कट समुदाई ॥ मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥ प्रबिसे सब निषङ्ग महु जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई ॥ तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन ॥ जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा ॥ बरषहि सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा ॥ छं. जय कृपा कन्द मुकन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो। खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥ सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही। सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही ॥ सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर तड़इत पटल समेत उड़उगन भ्राजहीम् ॥ भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने। जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥ दो. कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृन्द। भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकन्द ॥ 103 ॥ पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥ जुबति बृन्द रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥ पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥ उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥ तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी ॥ सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥ बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥ भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईम् ॥ जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥ राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कौ कुल रोवनिहारा ॥ तव बस बिधि प्रपञ्च सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥ अब तव सिर भुज जम्बुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीम् ॥ काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥ छं. जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं। जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयम् ॥ आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं। तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयम् ॥ दो. अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु नहिं आन। जोगि बृन्द दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥ 104 ॥ मन्दोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥ अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी ॥ भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भे सुखारी ॥ रुदन करत देखीं सब नारी। गयु बिभीषनु मन दुख भारी ॥ बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥ लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥ कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥ कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥ दो. मन्दोदरी आदि सब देइ तिलाञ्जलि ताहि। भवन गी रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥ 105 ॥ आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो ॥ तुम्ह कपीस अङ्गद नल नीला। जामवन्त मारुति नयसीला ॥ सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥ पिता बचन मैं नगर न आवुँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावुँ ॥ तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥ सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥ जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥ तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥ छं. किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो। पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥ मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। संसार सिन्धु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैम् ॥ दो. प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज। बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज ॥ 106 ॥ पुनि प्रभु बोलि लियु हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना ॥ समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥ तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥ बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥ दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥ कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥ सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा ॥ अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥ छं. अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा। का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥ सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं। रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयम् ॥ दो. सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त। सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त ॥ 107 ॥ अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥ तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥ सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥ मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥ तुरतहिं सकल गे जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥ बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥ बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥ ता पर हरषि चढ़ई बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥ बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा ॥ देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोऽपि निवारन धाए ॥ कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु ॥ देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥ सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥ सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी ॥ दो. तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥ 108 ॥ प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥ लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥ सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥ लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥ देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥ पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥ जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीम् ॥ तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ हौ श्रीखण्ड समाना ॥ छं. श्रीखण्ड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली। जय कोसलेस महेस बन्दित चरन रति अति निर्मली ॥ प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचण्ड पावक महुँ जरे। प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥ 1 ॥ धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो। जिमि छीरसागर इन्दिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥ सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली। नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पङ्कज की कली ॥ 2 ॥ दो. बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान। गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढ़ईं बिमान ॥ 109(क) ॥ जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार। देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥ 109(ख) ॥ तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥ आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी ॥ दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥ बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयु कुमारगगामी ॥ तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी ॥ अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥ मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी ॥ जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हिँ नसायो ॥ यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही ॥ अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा ॥ हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥ भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥ दो. करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि। अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥ 110 ॥ छं. जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे ॥ भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥ तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी ॥ जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥ जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयम् ॥ अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनम् ॥ अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा ॥ रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥ गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजम् ॥ भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलम् ॥ बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितम् ॥ भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरम् ॥ सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरम् ॥ सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनम् ॥ अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो ॥ इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥ कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तवानन सादर ए ॥ धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥ अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥ जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥ खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा ॥ नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेम सदा सुभदम् ॥ दो. बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात। सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥ 111 ॥ तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥ अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥ तात सकल तव पुन्य प्रभ्AU। जीत्यों अजय निसाचर र्AU ॥ सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ई। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ई ॥ रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चिति पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥ ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो ॥ सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीम् ॥ बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गे सुरधामा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस। सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥ 112 ॥ छं. जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम ॥ धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप ॥ 1 ॥ जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि ॥ यह दुष्ट मारेउ नाथ। भे देव सकल सनाथ ॥ 2 ॥ जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार ॥ जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल ॥ 3 ॥ लङ्केस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गन्धर्ब ॥ मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पन्थ सब कें लाग ॥ 4 ॥ परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट ॥ अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल ॥ 5 ॥ मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कौ मोहि समान ॥ अब देखि प्रभु पद कञ्ज। गत मान प्रद दुख पुञ्ज ॥ 6 ॥ कौ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥ मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप ॥ 7 ॥ बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत ॥ मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास ॥ 8 ॥ दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं। सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकम् ॥ सुर बृन्द रञ्जन द्वन्द भञ्जन मनुज तनु अतुलितबलं। ब्रह्मादि सङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलम् ॥ दो. अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल। काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥ 113 ॥ सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥ मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥ सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़आई ॥ सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥ सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥ रामाकार भे तिन्ह के मन। मुक्त भे छूटे भव बन्धन ॥ सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥ राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥ खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥ दो. सुमन बरषि सब सुर चले चढ़इ चढ़इ रुचिर बिमान। देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयु सम्भु सुजान ॥ 114(क) ॥ परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि। पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥ 114(ख) ॥ छं. मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥ मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन ॥ 1 ॥ अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥ काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन ॥ 2 ॥ बिषय मनोरथ पुञ्ज कञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन ॥ भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर ॥ 3 ॥ स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन ॥ अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर ॥ 4 ॥ मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन ॥ 5 ॥ दो. नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार। कृपासिन्धु मैं आउब देखन चरित उदार ॥ 115 ॥ करि बिनती जब सम्भु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥ नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥ सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो ॥ दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥ अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥ देखि कोस मन्दिर सम्पदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥ सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥ सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भे द्वौ नयन बिसाला ॥ दो. तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात। भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ 116(क) ॥ तापस बेष गात कृस जपत निरन्तर मोहि। देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरुँ तोहि ॥ 116(ख) ॥ बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावुँ बीर। सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ 116(ग) ॥ करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं। पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ सन्त सब जाहिम् ॥ 116(घ) ॥ सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥ बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥ बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो ॥ लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिन्धु तब भाषा ॥ चढ़इ बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥ नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अम्बर सबही ॥ जोइ जोइ मन भावि सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीम् ॥ हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता ॥ दो. मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद। कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ 117(क) ॥ उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम। राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ 117(ख) ॥ भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥ नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥ चिति सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया ॥ तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो ॥ निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥ सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर ॥ प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥ दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥ सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीम् ॥ देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥ दो. प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि। हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ 118(क) ॥ कपिपति नील रीछपति अङ्गद नल हनुमान। सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ 118(ख) ॥ दो. कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि। सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ 118(ग) ॥ ऽ अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़आई ॥ मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥ चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहि सबु कोई ॥ सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥ राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृङ्ग जनु घन दामिनी ॥ रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥ परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी ॥ सगुन होहिं सुन्दर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥ कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥ हनूमान अङ्गद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे ॥ कुम्भकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥ दो. इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम। सीता सहित कृपानिधि सम्भुहि कीन्ह प्रनाम ॥ 119(क) ॥ जहँ जहँ कृपासिन्धु बन कीन्ह बास बिश्राम। सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ 119(ख) ॥ तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दण्डक बन जहँ परम सुहावा ॥ कुम्भजादि मुनिनायक नाना। गे रामु सब कें अस्थाना ॥ सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा ॥ तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥ बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥ पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता ॥ तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥ देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥ पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥ । दो. सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम। सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ 120(क) ॥ पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह। कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ 120(ख) ॥ प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥ भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥ तुरत पवनसुत गवनत भयु। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयू ॥ नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥ मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढ़इ बिमान प्रभु चले बहोरी ॥ इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥ सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥ तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥ दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा ॥ सुनत गुहा धायु प्रेमाकुल। आयु निकट परम सुख सङ्कुल ॥ प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥ प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥ छं. लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती। बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती। अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे। सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ 1 ॥ सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥ यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा। कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ 2 ॥ दो. समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ 121(क) ॥ यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार। श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ 121(ख) ॥ मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः। (लङ्काकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Ram Apaduddharaka Stotram (श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम्)
श्री राम आपदुद्धारक स्तोत्रम् (Shri Ram Apaduddharaka Stotram) भगवान श्री राम (Lord Ram) की कृपा प्राप्त करने और कठिन परिस्थितियों (difficult situations) से मुक्ति पाने का एक शक्तिशाली स्तोत्र है। यह नकारात्मक ऊर्जा (negative energy) और असुर शक्तियों (evil forces) को दूर करता है, जिससे भक्तों को संरक्षण और शांति (protection and peace) मिलती है। राघव, जानकीनाथ, दशरथनंदन (Raghava, Janakinath, Dasharathanandan) जैसे पवित्र नामों का स्मरण करने से पापों से मुक्ति (freedom from sins) और आध्यात्मिक उन्नति (spiritual growth) होती है। यह स्तोत्रम् जीवन में सफलता, समृद्धि और सुख (success, prosperity, and happiness) प्रदान करने वाला है। श्री हरि विष्णु (Shri Hari Vishnu) के अवतार श्री राम की आराधना से भक्त कलियुग के दोषों (Kali Yuga Dosha) से बचते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं।Stotra
Mrit Sanjeevani Kavach (मृत संजीवनी कवच)
मृतसंजीवनी स्त्रोत्र ऐसा माना जाता है कि इसे परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि वशिष्ठ ने लिखा था। 30 श्लोकों का यह स्त्रोत्र भगवान शिव को समर्पित है और उनके कई अनजाने पहलुओं पर प्रकाश डालता है। जो कोई भी इस स्त्रोत्र का पूर्ण चित्त से पाठ करता है, उसे जीवन में किसी भी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता।Kavacha