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Narayaniyam Dashaka 15 (नारायणीयं दशक 15)
नारायणीयं दशक 15 (Narayaniyam Dashaka 15)
मतिरिह गुणसक्ता बंधकृत्तेष्वसक्ता
त्वमृतकृदुपरुंधे भक्तियोगस्तु सक्तिम् ।
महदनुगमलभ्या भक्तिरेवात्र साध्या
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥1॥
प्रकृतिमहदहंकाराश्च मात्राश्च भूता-
न्यपि हृदपि दशाक्षी पूरुषः पंचविंशः ।
इति विदितविभागो मुच्यतेऽसौ प्रकृत्या
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥2॥
प्रकृतिगतगुणौघैर्नाज्यते पूरुषोऽयं
यदि तु सजति तस्यां तत् गुणास्तं भजेरन् ।
मदनुभजनतत्त्वालोचनैः साऽप्यपेयात्
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥3॥
विमलमतिरुपात्तैरासनाद्यैर्मदंगं
गरुडसमधिरूढं दिव्यभूषायुधांकम् ।
रुचितुलिततमालं शीलयेतानुवेलं
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥4॥
मम गुणगणलीलाकर्णनैः कीर्तनाद्यै-
र्मयि सुरसरिदोघप्रख्यचित्तानुवृत्तिः ।
भवति परमभक्तिः सा हि मृत्योर्विजेत्री
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥5॥
अहह बहुलहिंसासंचितार्थैः कुटुंबं
प्रतिदिनमनुपुष्णन् स्त्रीजितो बाललाली ।
विशति हि गृहसक्तो यातनां मय्यभक्तः
कपिलतनुरितित्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥6॥
युवतिजठरखिन्नो जातबोधोऽप्यकांडे
प्रसवगलितबोधः पीडयोल्लंघ्य बाल्यम् ।
पुनरपि बत मुह्यत्येव तारुण्यकाले
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥7॥
पितृसुरगणयाजी धार्मिको यो गृहस्थः
स च निपतति काले दक्षिणाध्वोपगामी ।
मयि निहितमकामं कर्म तूदक्पथार्थं
कपिल्तनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥8॥
इति सुविदितवेद्यां देव हे देवहूतिं
कृतनुतिमनुगृह्य त्वं गतो योगिसंघैः ।
विमलमतिरथाऽसौ भक्तियोगेन मुक्ता
त्वमपि जनहितार्थं वर्तसे प्रागुदीच्याम् ॥9॥
परम किमु बहूक्त्या त्वत्पदांभोजभक्तिं
सकलभयविनेत्रीं सर्वकामोपनेत्रीम् ।
वदसि खलु दृढं त्वं तद्विधूयामयान् मे
गुरुपवनपुरेश त्वय्युपाधत्स्व भक्तिम् ॥10॥
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