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Narayaniyam Dashaka 38 (नारायणीयं दशक 38)
नारायणीयं दशक 38 (Narayaniyam Dashaka 38)
आनंदरूप भगवन्नयि तेऽवतारे
प्राप्ते प्रदीप्तभवदंगनिरीयमाणैः ।
कांतिव्रजैरिव घनाघनमंडलैर्द्या-
मावृण्वती विरुरुचे किल वर्षवेला ॥1॥
आशासु शीतलतरासु पयोदतोयै-
राशासिताप्तिविवशेषु च सज्जनेषु ।
नैशाकरोदयविधौ निशि मध्यमायां
क्लेशापहस्त्रिजगतां त्वमिहाविरासीः ॥2॥
बाल्यस्पृशाऽपि वपुषा दधुषा विभूती-
रुद्यत्किरीटकटकांगदहारभासा ।
शंखारिवारिजगदापरिभासितेन
मेघासितेन परिलेसिथ सूतिगेहे ॥3॥
वक्षःस्थलीसुखनिलीनविलासिलक्ष्मी-
मंदाक्षलक्षितकटाक्षविमोक्षभेदैः ।
तन्मंदिरस्य खलकंसकृतामलक्ष्मी-
मुन्मार्जयन्निव विरेजिथ वासुदेव ॥4॥
शौरिस्तु धीरमुनिमंडलचेतसोऽपि
दूरस्थितं वपुरुदीक्ष्य निजेक्षणाभ्याम् ॥
आनंदवाष्पपुलकोद्गमगद्गदार्द्र-
स्तुष्टाव दृष्टिमकरंदरसं भवंतम् ॥5॥
देव प्रसीद परपूरुष तापवल्ली-
निर्लूनदात्रसमनेत्रकलाविलासिन् ।
खेदानपाकुरु कृपागुरुभिः कटाक्षै-
रित्यादि तेन मुदितेन चिरं नुतोऽभूः ॥6॥
मात्रा च नेत्रसलिलास्तृतगात्रवल्या
स्तोत्रैरभिष्टुतगुणः करुणालयस्त्वम् ।
प्राचीनजन्मयुगलं प्रतिबोध्य ताभ्यां
मातुर्गिरा दधिथ मानुषबालवेषम् ॥7॥
त्वत्प्रेरितस्तदनु नंदतनूजया ते
व्यत्यासमारचयितुं स हि शूरसूनुः ।
त्वां हस्तयोरधृत चित्तविधार्यमार्यै-
रंभोरुहस्थकलहंसकिशोररम्यम् ॥8॥
जाता तदा पशुपसद्मनि योगनिद्रा ।
निद्राविमुद्रितमथाकृत पौरलोकम् ।
त्वत्प्रेरणात् किमिव चित्रमचेतनैर्यद्-
द्वारैः स्वयं व्यघटि संघटितैः सुगाढम् ॥9॥
शेषेण भूरिफणवारितवारिणाऽथ
स्वैरं प्रदर्शितपथो मणिदीपितेन ।
त्वां धारयन् स खलु धन्यतमः प्रतस्थे
सोऽयं त्वमीश मम नाशय रोगवेगान् ॥10॥
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