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Narayaniyam Dashaka 49 (नारायणीयं दशक 49)
नारायणीयं दशक 49 (Narayaniyam Dashaka 49)
भवत्प्रभावाविदुरा हि गोपास्तरुप्रपातादिकमत्र गोष्ठे ।
अहेतुमुत्पातगणं विशंक्य प्रयातुमन्यत्र मनो वितेनुः ॥1॥
तत्रोपनंदाभिधगोपवर्यो जगौ भवत्प्रेरणयैव नूनम् ।
इतः प्रतीच्यां विपिनं मनोज्ञं वृंदावनं नाम विराजतीति ॥2॥
बृहद्वनं तत् खलु नंदमुख्या विधाय गौष्ठीनमथ क्षणेन ।
त्वदन्वितत्वज्जननीनिविष्टगरिष्ठयानानुगता विचेलुः ॥3॥
अनोमनोज्ञध्वनिधेनुपालीखुरप्रणादांतरतो वधूभिः ।
भवद्विनोदालपिताक्षराणि प्रपीय नाज्ञायत मार्गदैर्घ्यम् ॥4॥
निरीक्ष्य वृंदावनमीश नंदत्प्रसूनकुंदप्रमुखद्रुमौघम् ।
अमोदथाः शाद्वलसांद्रलक्ष्म्या हरिन्मणीकुट्टिमपुष्टशोभम् ॥5॥
नवाकनिर्व्यूढनिवासभेदेष्वशेषगोपेषु सुखासितेषु ।
वनश्रियं गोपकिशोरपालीविमिश्रितः पर्यगलोकथास्त्वम् ॥6॥
अरालमार्गागतनिर्मलापां मरालकूजाकृतनर्मलापाम् ।
निरंतरस्मेरसरोजवक्त्रां कलिंदकन्यां समलोकयस्त्वम् ॥7॥
मयूरकेकाशतलोभनीयं मयूखमालाशबलं मणीनाम् ।
विरिंचलोकस्पृशमुच्चशृंगैर्गिरिं च गोवर्धनमैक्षथास्त्वम् ॥8॥
समं ततो गोपकुमारकैस्त्वं समंततो यत्र वनांतमागाः ।
ततस्ततस्तां कुटिलामपश्यः कलिंदजां रागवतीमिवैकाम् ॥9॥
तथाविधेऽस्मिन् विपिने पशव्ये समुत्सुको वत्सगणप्रचारे ।
चरन् सरामोऽथ कुमारकैस्त्वं समीरगेहाधिप पाहि रोगात् ॥10॥
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