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Narayaniyam Dashaka 34 (नारायणीयं दशक 34)
नारायणीयं दशक 34 (Narayaniyam Dashaka 34)
गीर्वाणैरर्थ्यमानो दशमुखनिधनं कोसलेष्वृश्यशृंगे
पुत्रीयामिष्टिमिष्ट्वा ददुषि दशरथक्ष्माभृते पायसाग्र्यम् ।
तद्भुक्त्या तत्पुरंध्रीष्वपि तिसृषु समं जातगर्भासु जातो
रामस्त्वं लक्ष्मणेन स्वयमथ भरतेनापि शत्रुघ्ननाम्ना ॥1॥
कोदंडी कौशिकस्य क्रतुवरमवितुं लक्ष्मणेनानुयातो
यातोऽभूस्तातवाचा मुनिकथितमनुद्वंद्वशांताध्वखेदः ।
नृणां त्राणाय बाणैर्मुनिवचनबलात्ताटकां पाटयित्वा
लब्ध्वास्मादस्त्रजालं मुनिवनमगमो देव सिद्धाश्रमाख्यम् ॥2॥
मारीचं द्रावयित्वा मखशिरसि शरैरन्यरक्षांसि निघ्नन्
कल्यां कुर्वन्नहल्यां पथि पदरजसा प्राप्य वैदेहगेहम् ।
भिंदानश्चांद्रचूडं धनुरवनिसुतामिंदिरामेव लब्ध्वा
राज्यं प्रातिष्ठथास्त्वं त्रिभिरपि च समं भ्रातृवीरैस्सदारैः ॥3॥
आरुंधाने रुषांधे भृगुकुल तिलके संक्रमय्य स्वतेजो
याते यातोऽस्ययोध्यां सुखमिह निवसन् कांतया कांतमूर्ते ।
शत्रुघ्नेनैकदाथो गतवति भरते मातुलस्याधिवासं
तातारब्धोऽभिषेकस्तव किल विहतः केकयाधीशपुत्र्या ॥4॥
तातोक्त्या यातुकामो वनमनुजवधूसंयुतश्चापधारः
पौरानारुध्य मार्गे गुहनिलयगतस्त्वं जटाचीरधारी।
नावा संतीर्य गंगामधिपदवि पुनस्तं भरद्वाजमारा-
न्नत्वा तद्वाक्यहेतोरतिसुखमवसश्चित्रकूटे गिरींद्रे ॥5॥
श्रुत्वा पुत्रार्तिखिन्नं खलु भरतमुखात् स्वर्गयातं स्वतातं
तप्तो दत्वाऽंबु तस्मै निदधिथ भरते पादुकां मेदिनीं च
अत्रिं नत्वाऽथ गत्वा वनमतिविपुलं दंडकं चंडकायं
हत्वा दैत्यं विराधं सुगतिमकलयश्चारु भोः शारभंगीम् ॥6॥
नत्वाऽगस्त्यं समस्ताशरनिकरसपत्राकृतिं तापसेभ्यः
प्रत्यश्रौषीः प्रियैषी तदनु च मुनिना वैष्णवे दिव्यचापे ।
ब्रह्मास्त्रे चापि दत्ते पथि पितृसुहृदं वीक्ष्य भूयो जटायुं
मोदात् गोदातटांते परिरमसि पुरा पंचवट्यां वधूट्या ॥7॥
प्राप्तायाः शूर्पणख्या मदनचलधृतेरर्थनैर्निस्सहात्मा
तां सौमित्रौ विसृज्य प्रबलतमरुषा तेन निर्लूननासाम् ।
दृष्ट्वैनां रुष्टचित्तं खरमभिपतितं दूषणं च त्रिमूर्धं
व्याहिंसीराशरानप्ययुतसमधिकांस्तत्क्षणादक्षतोष्मा ॥8॥
सोदर्याप्रोक्तवार्ताविवशदशमुखादिष्टमारीचमाया-
सारंग सारसाक्ष्या स्पृहितमनुगतः प्रावधीर्बाणघातम् ।
तन्मायाक्रंदनिर्यापितभवदनुजां रावणस्तामहार्षी-
त्तेनार्तोऽपि त्वमंतः किमपि मुदमधास्तद्वधोपायलाभात् ॥9॥
भूयस्तन्वीं विचिन्वन्नहृत दशमुखस्त्वद्वधूं मद्वधेने-
त्युक्त्वा याते जटायौ दिवमथ सुहृदः प्रातनोः प्रेतकार्यम् ।
गृह्णानं तं कबंधं जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य पंपातटे त्वं
संप्राप्तो वातसूनुं भृशमुदितमनाः पाहि वातालयेश ॥10॥
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