MahaMantra Collection

    Shri Hanuman Mahamantra (श्री हनुमान महामंत्र)

    श्री हनुमान महामंत्र (Shri Hanuman Mahamantra) पहला मंत्र ओम गुरुजी को आदेश गुरजी को प्रणाम, धरती माता धरती पिता,धरती धरे ना धीरबाजे श्रींगी बाजे तुरतुरि आया गोरखनाथमीन का पुत्‌ मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा, शब्द सांचा पिंड काचास्फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा॥ दूसरा मंत्र बिस्तर के आस-पास। हवेली के आस-पास। छप्पन सौ यादव। लंका-सी कोट, समुद्र-सी खाई। राजा रामचंद्र की दुहाई। तीसरा मंत्र ॐ नमो बजर का कोठा, जिस पर पिंड हमारा पेठा। ईश्वर कुंजी ब्रह्म का ताला, हमारे आठो आमो का जती हनुमंत रखवाला। चौथा मंत्र ॐ हनुमान पहलवान पहलवान, बरस बारह का जबान, हाथ में लड्डू मुख में पान, खेल खेल गढ़ लंका के चौगान, अंजनी का पूत, राम का दूत, छिन में कलौ नौ खंड का भूत, जाग जाग हड़मान (हनुमान) हुंकाला, ताती लोहा लंकाला, शीश जटा डग डर उमर गाजे, वज्र की कोठडी ब्रज का ताला आगे अर्जुन पीछे भीम, चोर नार चंपे ने सीण, अजरा झरे भरया भरे, ई घट पिंड की रक्षा राजा रामचंद्र जी लक्ष्मण कुंवर हड़मान (हनुमान) करें। पांचवां मंत्र ॐ पीर बजरंगी, राम-लखन के संगी, जहां-जहां जाय, विजय के डंके बजाय, दुहाई माता अंजनी की आन। अढाईआ मंत्र ॥ ॐ नमो आदेश गुरु को, सोने का कड़ा, तांबे का कड़ा हनुमान वन्गारेय सजे मोंढे आन खड़ा ॥ कार्य सिद्धि हनुमान मंत्र ॐ पीर बजरंगी राम लक्ष्मण के संगी जहां जहां जाय फतेह के डंके बजाय माता अंजनी की आन | "ओम पीर बजरंगी राम लक्ष्मण के संगी जहां जहां जाए फतेह के धनके बजय दुहाई माता अंजनी की आन।" ॐ हनुमान पहलवान ॐ हनुमान पहलवान । वर्ष बारह का जवान ॥ हाथ में लड्डू मुख में पान | आओ-आओ बाबा हनुमान ॥ न आओ तो दुहाई महादेव- गौरा पार्वती की ॥ शब्द सांचा पिण्ड कांचा । फुरे मन्त्र ईश्वरो गुप्त हनुमान मंत्र ॐ हनुमान पहलवान । वर्ष बारह का जवान ॥ हाथ में लड्डू मुख में पान|आओ-आओ बाबा हनुमान ॥ न आओ तो दुहाई महादेव- गौरा पार्वती की ॥ शब्द सांचा पिण्ड कांचा । फुरे मन्त्र ईश्वरो वाचा ॥ This sheet Contain all kind of Hanuman MahaMantra Sankatmochan Hanuman

    Shri Kali Mahamantra (श्री काली महामंत्र)

    श्री काली महामंत्र (Shri Kali Mahamantra) एकाक्षरी काली मंत्र: ॐ क्रीं यह माँ काली का एकाक्षरी मंत्र है। इसे माँ के सभी स्वरूपों की आराधना, उपासना और साधना में जपा जा सकता है। माँ काली का यह एकाक्षरी मंत्र माँ चिंतामणि काली का विशेष मंत्र भी माना जाता है। त्रयाक्षरी काली मंत्रः ॐ क्रीं हूं ह्रीं ॥ माँ काली की साधना और उनके प्रचंड रूपों की आराधना के लिए यह त्रयाक्षरी मंत्र विशेष है। एकाक्षरी और त्रयाक्षरी मंत्रों को तांत्रिक साधना के मंत्रों के पहले और बाद में संपुट की तरह भी जोड़ा जा सकता है। पंचाक्षरी काली मंत्रः ॐ क्रीं हूं हीं हूँ फट् ॥ माना जाता है कि इस पंचाक्षरी मंत्र का प्रतिदिन प्रातःकाल १०८ बार जाप करने से माँ काली साधक के सभी दुखों का निवारण करके उसके यहाँ धन-धान्य की वृद्धि करती हैं। पारिवारिक शांति के लिए भी इस मंत्र का जाप किया जाता है। षडाक्षरी काली मंत्रः ॐ क्रीं कालिके स्वाहा ॥ इस षडाक्षरी मंत्र का जाप सम्मोहन और अन्य तांत्रिक सिद्धियों के लिए किया जाता है। इसे अत्यंत शक्तिशाली माना जाता है, जो तीनों लोकों को मोहित करने की क्षमता रखता है। यह मंत्र तांत्रिक साधकों के बीच विशेष रूप से प्रतिष्ठित है, और इसका प्रभाव अद्वितीय है। सप्ताक्षरी काली मंत्रः ॐ हूँ ह्रीं हूँ फट् स्वाहा॥ इस मंत्र को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अत्यंत कारगर माना जाता है। यह साधकों को जीवन के चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होता है। श्री दक्षिण काली के २२ अक्षरी मंत्रः ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा ॥ इस मंत्र के माध्यम से दक्षिण काली का आह्वान किया जाता है, विशेष रूप से शत्रुओं के विनाश के लिए। साधक इस मंत्र का जाप करके माँ काली की साधना करते हैं और सिद्धि प्राप्त करते हैं। तंत्र विद्या में माँ काली की साधना के लिए यह मंत्र अत्यंत लोकप्रिय है। इस मंत्र का तात्पर्य यह है कि परमेश्वरी स्वरूप, जगत जननी, महाकाली महामाया माँ, मेरे दुखों को दूर करें, शत्रुओं का नाश करें और अज्ञानता का अंधकार मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाएँ। माँ काली ज्ञान, मोक्ष और शत्रु नाश की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनकी कृपा से समस्त दुर्भाग्य दूर हो जाते हैं, और साधक को जीवन में शांति और समृद्धि प्राप्त होती है। महाकाली मंत्रः "सात पुनम कालका, बारह बरस क्कांर। एको देवि जानिए, चौदह भुवन द्वार।। द्वि-पक्षे निर्मलिए, तेरह देवन देव। अष्टभुजी परमेश्वरी, ग्यारह रूद्र सेव ।। सोलह कला सम्पुर्णी, तीन नयन भरपुर। दशों द्वारी तू ही माँ, पांचों बाजे नूर ।। नव-निधि षट्-दर्शनी, पंद्रह तिथि जान। चारों युग मे काल का कर काली कल्याण।।" अघोर काली मंत्र ओम गांब के पछिम पीपर के गाछ, ताहि चढि काली करे हाँक । नगन में पूजे चक्र, महा-मांस भखै । आपन जियाबे, पराया खाय । एनैकर दीठ, ओने कर पीठ । बायें चारों काली । सत्य छोड असत्य भाखै, असिया कोट नरक में परइ। सत्य प्रत्यख्य ।। भद्रकाली मंत्र ॐ सिंहो दत्तो बिकोवा धडित धडधडात ध्यायमान भवानी दैत्यानाम देह-नाशनम तोड़यन्ति, सिरांसी रक्ता पिबन्ति, घुटत घुट-घुटात घुटेयन्ति, पिशाचा त्रिहाप-त्रिहाप हसंती, खदत-खद - खदात त्रिरोष मम भद्रकाली ९ नाथ ८४ सिद्धन के बीच में बैठ कर, काली भद्रकाली रूद्र काली मंत्र हुम् स्वाहा ॥ भद्रकाली मंत्र ॐ ह्रौं काली महाकाली किलिकिले फट् स्वाहा ॥ श्मशान काली मंत्र ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं ॥

    Shri Durga Mahamantra (श्री दुर्गा महामंत्र)

    श्री दुर्गा महामंत्र (Shri Durga Mahamantra) डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि ! तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तंग, तिलक मागर मस्तंग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल माल, जय जय जयन्त। जय आदि शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ओम् ओम् ओम् ।।।

    Shri Hanuman Bahuk Path (श्री हनुमान बाहुक पाठ )

    श्री हनुमान बाहुक पाठ (Shri Hanuman Bahuk Path) श्री गणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीमद्‌-गोस्वामी-तुलसीदास-कृत छप्पय सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु । भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ॥ गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव । जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ।। कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट । गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट ।१।। स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन । उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज बज्र-तन ॥। पिग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन । कपिस केस, करकस लंगूर, खल-दल बल भानन ॥। कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट । संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ।॥२॥। झूलना पंचमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो । बकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ।। जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो । दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ।।३॥। घनाक्षरी भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन- अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो । पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो ।। कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो। बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।४।। भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो । कल्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥। बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हते घाटि नभतल भो । नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥ गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो । द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।। संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो । साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ॥।६ कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो । जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥ कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो । भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।७ दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो । सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।। दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो । ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।८| दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को । पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।। लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को । राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।९॥। महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को । कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।। दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को । सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ।।१०।। रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो । धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो ।। खल~दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो । आरत की आरति निवारिबे को तिहूं पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥। सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकरूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को । देवी देव दानव दयावने ह्वै जोर हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ।। जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को । सब दिन रुरो पर पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥। सानुग सगौरि सानुकरूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी । लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥। केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की । बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हांक हनुमान की ।।१३।। करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद- महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ । बामदेव-रुप भूप राम के सनेही, नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ।। आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ । मन की बचन की करम की तिहूं प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।॥१४।। मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैँ । देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैँ । बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैँ । बिगरी संवार अंजनी कुमार कीजे मोहि, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ।॥९५।। सवैया जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहार । कारो बिगारो मैँ काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहार ॥। साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो । दोष सुनाये ते आगेहूँ को होशियार हैं हों मन तौ हिय हारो ।।१६॥ तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले । तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥। संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फट मकरी के से जाले । बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ।।१७॥। सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैँ लंक से बंक मवा से । तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुजर छैल छवा से ॥। तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से । बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।१८॥ अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो । बारिदनाद अकंपन कुभकरन्न-से कुजर केहरि-बारो ॥ राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो । पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहूँ सो रखवारो ।।१९।। घनाक्षरी जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये । सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।। अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरे जो ताहि माहुर न मारिये । साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥॥२०॥। बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये । रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये ।। बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये | केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौ पारि मारिये ।।२२१॥। उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संभारिये | राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।। साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये । पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यौ पकरि कै बदन बिदारिये ॥॥२२॥ राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये । मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ।। कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पव्बयते, सुथल सुबेल भालू बैठि कैः बिचारिये । महाबीर बाँकुरे बराक बाँह-पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये ।॥२३।। लोक-परलोकटूं तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये । कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा विचारिये ॥। खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये | बात तरुमूल बँहुसूल कपिकच्छरु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये ।॥२४।। करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बकभगिनी काहू ते कहा डरैगी । बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कदि, बहुबल बालक छबीले छोटे छरैगी ।। आई है बनाइ बेष आप ही विचारि देख, पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी । पूतना पिसाचिनी ज्यौ कपिकान्ह तुलसी की, बोँहपीर महाबीर तेरे मारे मरगी ।॥२५॥ भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन विषम पाप ताप छल छाँह की । करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन मांह की ॥। पैटहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नह की । आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥॥२६।। सिंहिका संहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है । लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ।। तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है । भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ।।२७।। तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की । तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहू की ॥ साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की । आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८।। टूकनि को घर-घर डोलत केगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है । कीन्ही है संभार सार अंजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैँ न मेरेहू भरोसो है ॥। इतनो परेखो सब भोति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है । सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है ।॥२९॥ आपने ही पाप तें त्रिपात ते कि साप तें, बढ़ी है बाह बेदन कही न सहि जाति है । ओषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।। करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है | चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कल्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०॥ दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को । बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को ॥ एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को । थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ।।३१।। देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैँ । पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैँ ।। घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाडत निकेत हैँ । क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ।॥३२॥। तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के । तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥ तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के । तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ।।३३॥। पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हरिये । भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये ।। अबु तू हौ अँबुचर, अबु तू हों डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये । बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ।।३४॥। घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौ, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है । बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।। करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हंसि होकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है । खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ।।३५॥ सवैया राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो । पाल्यो हौ बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।। बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनंद भूलो । श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौ दरबार परो लटि लूलो ।।३६।। घनाक्षरी काल की करालता करम कठिनाई कर्थ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे। बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ।। लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहूं तावरे । भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ।॥३७।। पँय पीर पेट पीर बह पीर मुंह पीर, जरजर सकल पीर मई है । देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।। हौ तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है । कुँभज के कंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ।।३८॥। बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं । राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं ।। सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं । तुलसी संभारि ताडका संहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं ।॥३९।। बालपने सूथे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हां । परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौ ॥। खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौ । तुलसी गुसाँई भयो भोँडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ।॥४०।। असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को । तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥। नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को | ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ।।४२१।। जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को । तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥ मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को । भारी पीर दुसह सरीर ते बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सके दूर करि को ।४२॥। सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै । मानस बचन काय सरन तिहारे पाय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ।। व्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै । कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कैः ।।४३।। कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये । हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ।। माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये । तुम्ह तँ कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौ हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये ।।४४।।

    Durga Saptashati Siddha Samput Mantra (दुर्गा सप्तशती सिद्ध सम्पुट मंत्र) विश्वव्यापी विपत्तियौं के नाश के लिये मंत्र

    || दुर्गा सप्तशती सिद्ध सम्पुट मंत्र || (Durga Saptashati Siddha Samput Mantra) (विश्वव्यापी विपत्तियौं के नाश के लिये मंत्र) सामूहिक कल्याण के लिये मंत्र देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूरर्या । तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपू्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये मंत्र - यस्याः प्रभावमतुल तुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च । सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ विश्व की रक्षा के लिये मंत्र या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हदयेषु बुद्धिः । श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्‌ ॥ विश्व के अभ्युदय के लिये मंत्र विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं विश्वासिका धारयसीति विश्वम्‌ । विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ विश्वव्यापी विपत्तियौं के नाश के लिये मंत्र

    Durga Saptashati Siddha Samput Mantra (दुर्गा सप्तशती सिद्ध सम्पुट मंत्र)

    || दुर्गा सप्तशती सिद्ध सम्पुट मंत्र || (Durga Saptashati Siddha Samput Mantra) सामूहिक कल्याण के लिये मंत्र देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्‍‌र्या । तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ विश्‍व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये मंत्र – यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्‍च न हि वक्तुमलं बलं च । सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ विश्‍व की रक्षा के लिये मंत्र या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः । श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्‍वम् ॥ विश्‍व के अभ्युदय के लिये मंत्र विश्‍वेश्‍वरि त्वं परिपासि विश्‍वं विश्‍वात्मिका धारयसीति विश्‍वम् । विश्‍वेशवन्द्या भवती भवन्ति विश्‍वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ विश्‍वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये मंत्र देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य । प्रसीद विश्‍वेश्‍वरि पाहि विश्‍वं त्वमीश्‍वरी देवि चराचरस्य ॥ विश्‍व के पाप-ताप-निवारण के लिये मंत्र देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः । पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्‍च महोपसर्गान् ॥ विपत्ति-नाश के लिये मंत्र शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये मंत्र करोतु सा नः शुभहेतुरीश्‍वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः । भय-नाश के लिये मंत्र सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् । पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् । त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ पाप-नाश के लिये मंत्र [10] हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् । सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ॥ रोग-नाश के लिये मंत्र रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ महामारी-नाश के लिये मंत्र जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये मंत्र देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ बाधा-शान्ति के लिये मंत्र सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्‍वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ सर्वविध अभ्युदय के लिये मंत्र ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः । धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥ दारिद्र्यदुःखादिनाश के लिये मंत्र दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता ॥ रक्षा पाने के लिये मंत्र शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके । घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये मंत्र – विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु । त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥ सब प्रकार के कल्याण के लिये मंत्र [20] सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ शक्ति-प्राप्ति के लिये मंत्र सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि । गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये मंत्र प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्‍वार्तिहारिणि । त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥ विविध उपद्रवों से बचने के लिये मंत्र रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्‍च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र । दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्‍वम् ॥ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये मंत्र सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये मंत्र विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् । रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये मंत्र नतेभ्यः सर्वदा भक्त्‍‌या चण्डिके दुरितापहे । रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये मंत्र सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी । त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥ स्वर्ग और मुक्ति के लिये मंत्र सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य हृदि संस्थिते । स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ मोक्ष की प्राप्ति के लिये मंत्र त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्‍वस्य बीजं परमासि माया । सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥ स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये मंत्र दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके । मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय ॥ दुर्गा सप्तशती के 30 सिद्ध सम्पुट मंत्र।

    Navratri Navdurga Mantra (नवरात्रि पूजा मंत्र)

    ।।नवरात्रि पूजा मंत्र।। (Navratri Navdurga Mantra) माता शैलपुत्री ह्रीं शिवायै नम:। पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता दुर्गा का प्रथम रूप है. इनकी आराधना से कई सिद्धियां प्राप्त होती हैं I प्रतिपदा को मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्ये नम:’ की माला दुर्गा जी के चित्र के सामने यशाशक्ति जप कर घृत से हवन करें । माता ब्रह्मचारिणी ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:। माता दुर्गा का दूसरा स्वरूप पार्वती जी का तप करते हुए हैं. इनकी साधना से सदाचार-संयम तथा सर्वत्र विजय प्राप्त होती है. चैत्र नवरात्रि के दूसरे दिन पर इनकी साधना की जाती है। द्वितिया को मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ब्रह्मचारिण्यै नम:’, की माला दुर्गा जी के चित्र के सामने यशाशक्ति जप कर घृत से हवन करें। माता चन्द्रघण्टा ऐं श्रीं शक्तयै नम:। माता दुर्गा का यह तृतीय रूप है. समस्त कष्टों से मुक्ति हेतु इनकी साधना की जाती है. तृतीया को मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघंटायै नम:’ की एक माला जप कर घृत से हवन करें । माता कूष्मांडा ऐं ह्री देव्यै नम:। यह मां दुर्गा का चतुर्थ रूप है. चतुर्थी इनकी तिथि है. आयु वृद्धि, यश-बल को बढ़ाने के लिए इनकी साधना की जाती है । चतुर्थी को मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै नम:’ की एक माला जप कर घृत से हवन करें । माता स्कंदमाता ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:। दुर्गा जी के पांचवे रूप की साधना पंचमी को की जाती है. सुख-शांति एवं मोक्ष को देने वाली हैं । पांचवें दिन मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं स्कंदमातायै नम:’ की एक माला जप कर घृत से हवन करें । माता कात्यायनी क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:। मां दुर्गा के छठे रूप की साधना षष्ठी तिथि को की जाती है. रोग, शोक, संताप दूर कर अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष को भी देती हैं I छठे दिन मंत्र– ‘ॐ क्रीं कात्यायनी क्रीं नम:’ की एक माला जप कर घृत से हवन करें. माता कालरात्रि क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:। सप्तमी को पूजित मां दुर्गा जी का सातवां रूप है. वे दूसरों के द्वारा किए गए प्रयोगों को नष्ट करती हैं । सातवें दिन मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कालरात्र्यै नम:’ की एक माला जप कर घृत से हवन करें । माता महागौरी श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:। मां दुर्गा के आठवें रूप की पूजा अष्टमी को की जाती है. समस्त कष्टों को दूर कर असंभव कार्य सिद्ध करती हैं । आठवें दिन मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महागौर्ये नम:’ की एक माला जप कर घृत या खीर से हवन करें. माता सिद्धिदात्री ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:। मां दुर्गा के इस रूप की अर्चना नवमी को की जाती है. अगम्य को सुगम बनाना इनका कार्य है । नौवें दिन मंत्र– ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सिद्धिदात्र्यै नम:’ की एक माला जप कर जौ, तिल और घृत से हवन करें ।

    Shri Durga Sapta Shloki (श्री दुर्गा सप्त श्लोकी)

    श्री दुर्गा सप्त श्लोकी (Shri Durga Sapta Shloki) शिव उवाच । देवी त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनि । कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ॥ देव्युवाच । शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् । मया तवैव स्नेहेनाप्यंबास्तुतिः प्रकाश्यते ॥ अस्य श्री दुर्गा सप्तश्लोकी स्तोत्रमंत्रस्य नारायण ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, श्री दुर्गा प्रीत्यर्थं सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः । ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ 1 ॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजंतोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःख भयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ता ॥ 2 ॥ सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ 3 ॥ शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ 4 ॥ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ 5 ॥ रोगानशेषानपहंसि तुष्टा- रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयांति ॥ 6 ॥ सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ॥ 7 ॥ इति श्री दुर्गा सप्तश्लोकी ।

    Nitya Sandhya Vandanam (नित्य संध्या वंदनम्)

    नित्य संध्या वंदनम् (कृष्ण यजुर्वेदीय) (Nitya Sandhya Vandanam) शरीर शुद्धि अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां᳚ गतोऽपिवा । यः स्मरेत् पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर श्शुचिः ॥ पुंडरीकाक्ष ! पुंडरीकाक्ष ! पुंडरीकाक्षाय नमः । आचमनः ॐ आचम्य ॐ केशवाय स्वाहा ॐ नारायणाय स्वाहा ॐ माधवाय स्वाहा (इति त्रिराचम्य) ॐ गोविंदाय नमः (पाणी मार्जयित्वा) ॐ-विँष्णवे नमः ॐ मधुसूदनाय नमः (ओष्ठौ मार्जयित्वा) ॐ त्रिविक्रमाय नमः ॐ-वाँमनाय नमः (शिरसि जलं प्रोक्ष्य) ॐ श्रीधराय नमः ॐ हृषीकेशाय नमः (वामहस्तॆ जलं प्रोक्ष्य) ॐ पद्मनाभाय नमः (पादयोः जलं प्रोक्ष्य) ॐ दामोदराय नमः (शिरसि जलं प्रोक्ष्य) ॐ संकर्​षणाय नमः (अंगुलिभिश्चिबुकं जलं प्रोक्ष्य) ॐ-वाँसुदेवाय नमः ॐ प्रद्युम्नाय नमः (नासिकां स्पृष्ट्वा) ॐ अनिरुद्धाय नमः ॐ पुरुषोत्तमाय नमः ॐ अधोक्षजाय नमः ॐ नारसिंहाय नमः (नेत्रे श्रोत्रे च स्पृष्ट्वा) ॐ अच्युताय नमः (नाभिं स्पृष्ट्वा) ॐ जनार्धनाय नमः (हृदयं स्पृष्ट्वा) ॐ उपेंद्राय नमः (हस्तं शिरसि निक्षिप्य) ॐ हरये नमः ॐ श्रीकृष्णाय नमः (अंसौ स्पृष्ट्वा) ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः (एतान्युच्चार्य उप्यक्त प्रकारं कृते अंगानि शुद्धानि भवेयुः) भूतोच्चाटन उत्तिष्ठंतु । भूत पिशाचाः । ये ते भूमिभारकाः । ये तेषामविरोधेन । ब्रह्मकर्म समारभे । ॐ भूर्भुवस्सुवः । दैवी गायत्री चंदः प्राणायामे विनियोगः (प्राणायामं कृत्वा कुंभके इमं गायत्री मंत्रमुच्छरेत्) प्राणायामः ॐ भूः । ॐ भुवः । ओग्ं सुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ओग्ं स॒त्यम् । ॐ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ओमापो॒ ज्योती॒ रसो॒ऽमृतं॒ ब्रह्म॒ भू-र्भुव॒-स्सुव॒रोम् ॥ (तै. अर. 10-27) संकल्पः ममोपात्त, दुरित क्षयद्वारा, श्री परमेश्वर मुद्दिस्य, श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं, शुभे, शोभने, अभ्युदय मुहूर्ते, श्री महाविष्णो राज्ञया, प्रवर्त मानस्य, अद्य ब्रह्मणः, द्वितीय परार्थे, श्वेतवराह कल्पे, वैवश्वत मन्वंतरे, कलियुगे, प्रथम पादे, (भारत देशः - जंबू द्वीपे, भरत वर्​षे, भरत खंडे, मेरोः दक्षिण/उत्तर दिग्भागे; अमेरिका - क्रौंच द्वीपे, रमणक वर्​षे, ऐंद्रिक खंडे, सप्त समुद्रांतरे, कपिलारण्ये), शोभन गृहे, समस्त देवता ब्राह्मण, हरिहर गुरुचरण सन्निथौ, अस्मिन्, वर्तमान, व्यावहारिक, चांद्रमान, ... सं​वँत्सरे, ... अयने, ... ऋते, ... मासे, ... पक्षे, ... तिथौ, ... वासरे, ... शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ करण, एवंगुण, विशेषण, विशिष्ठायां, शुभ तिथौ, श्रीमान्, ... गोत्रः, ... नामधेयः, ... गोत्रस्य, ... नामधेयोहंः प्रातः/मध्याह्निक/सायं संध्यां उपासिष्ये ॥ मार्जनः ॐ आपो॒हिष्ठा म॑यो॒भुवः॑ । ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन । म॒हेरणा॑य॒ चक्ष॑से । यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रसः॑ । तस्य॑ भाजयते॒ ह नः॒ । उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ । तस्मा॒ अरं॑ग माम वः । यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ । आपो॑ ज॒नय॑था च नः । (तै. अर. 4-42) (इति शिरसि मार्जयेत्) (हस्तेन जलं गृहीत्वा) प्रातः काल मंत्राचमनः सूर्य श्च, मामन्यु श्च, मन्युपतय श्च, मन्यु॑कृते॒भ्यः । पापेभ्यो॑ रक्षं॒ताम् । यद्रात्र्या पाप॑ मका॒र्​षम् । मनसा वाचा॑ ह॒स्ताभ्याम् । पद्भ्या मुदरे॑ण शिं॒चा । रात्रि॒ स्तद॑वलुं॒पतु । यत्किंच॑ दुरि॒तं मयि॑ । इदमहं मा ममृ॑त यो॒ नौ । सूर्ये ज्योतिषि जुहो॑मि स्वा॒हा᳚ ॥ (तै. अर. 10. 24) मध्याह्न काल मंत्राचमनः आपः॑ पुनंतु पृथि॒वीं पृ॑थि॒वी पू॒ता पु॑नातु॒ माम् । पु॒नंतु॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒ र्ब्रह्मा॑ पू॒ता पु॑नातु॒ माम् । यदुच्छि॑ष्ट॒ मभो᳚ज्यं॒ यद्वा॑ दु॒श्चरि॑तं॒ मम॑ । सर्वं॑ पुनंतु॒ मा मापो॑ऽस॒तांच॑ प्रति॒ग्रह॒ग्ग्॒ स्वाहा᳚ ॥ (तै. अर. परिशिष्टः 10. 30) सायंकाल मंत्राचमनः अग्नि श्च मा मन्यु श्च मन्युपतय श्च मन्यु॑कृतेभ्यः । पापेभ्यो॑ रक्षं॒ताम् । यदह्ना पाप॑ मका॒र्​षम् । मनसा वाचा॑ हस्ता॒भ्याम् । पद्भ्या मुदरे॑ण शिं॒चा । अह स्तद॑वलुं॒पतु । य त्किंच॑ दुरि॒तं मयि॑ । इद महं मा ममृ॑त यो॒नौ । सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वा॒हा ॥ (तै. अर. 10. 24) (इति मंत्रेण जलं पिबेत्) आचम्य (ॐ केशवाय स्वाहा, ... श्री कृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः) द्वितीय मार्जनः द॒धि॒ क्राव्​ण्णो॑ अकारिषम् । जि॒ष्णो रश्व॑स्य वा॒जि॑नः । सु॒रभिनो॒ मुखा॑कर॒त्प्रण॒ आयूग्ं॑षि तारिषत् ॥ (सूर्यपक्षे लोकयात्रा निर्वाहक इत्यर्थः) ॐ आपो॒ हिष्ठा म॑यो॒भुवः॑ । ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन । म॒हेरणा॑य॒ चक्ष॑से । यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रसः॑ । तस्य॑ भाजयते॒ ह नः॒ । उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ । तस्मा॒ अरं॑ग माम वः । यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ । आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥ (तै. अर. 4. 42) पुनः मार्जनः हिर॑ण्यवर्णा॒ श्शुच॑यः पाव॒काः या सु॑जा॒तः क॒श्यपो॒ या स्विंद्रः॑ । अ॒ग्निं-याँ गर्भं॑दधि॒रे विरू॑पा॒ स्तान॒ आप॒श्शग्ग् स्यो॒ना भ॑वंतु । या सा॒ग्ं॒ राजा॒ वरु॑णो॒ याति॒ मध्ये॑ सत्यानृ॒ते अ॑व॒पश्यं॒ जना॑नाम् । म॒धु॒ श्चुत॒श्शुच॑यो॒ याः पा॑व॒का स्तान॒ आप॒श्शग्ग् स्यो॒ना भ॑वंतु । यासां᳚ दे॒वा दि॒वि कृ॒ण्वंति॑ भ॒क्षं-याँ अं॒तरि॑क्षे बहु॒था भवं॑ति । याः पृ॑थि॒वीं पय॑सों॒दंति॑ श्शु॒क्रास्तान॒ आप॒शग्ग् स्यो॒ना भ॑वंतु । याः शि॒वेन॑ मा॒ चक्षु॑षा पश्यतापश्शि॒वया॑ त॒नु वोप॑स्पृशत॒ त्वच॑ म्मे । सर्वाग्ं॑ अ॒ग्नीग्ं र॑प्सु॒षदो॑ हु॒वे वो॒ मयि॒ वर्चो॒ बल॒ मोजो॒ निध॑त्त ॥ (तै. सं. 5. 6. 1) (मार्जनं कुर्यात्) अघमर्​षण मंत्रः पापविमोचनं (हस्तेन जलमादाय निश्श्वस्य वामतो निक्षितपेत्) द्रु॒प॒दा दि॑व मुंचतु । द्रु॒प॒दा दि॒वे न्मु॑मुचा॒नः । स्वि॒न्न स्स्ना॒त्वी मला॑ दिवः । पू॒तं पवित्रे॑णे॒ वाज्यं᳚ आप॑ श्शुंदंतु॒ मैन॑सः ॥ (तै. ब्रा. 266) आचम्य (ॐ केशवाय स्वाहा, ... श्री कृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः) प्राणायामम्य लघुसंकल्पः पूर्वोक्त एवंगुण विशेषण विशिष्ठायां शुभतिथौ ममोपात्त दुरित क्षयद्वारा श्री परमेश्वर मुद्दिस्य श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं प्रातस्संध्यांग यथा कालोचित अर्घ्यप्रदानं करिष्ये ॥ प्रातः कालार्घ्य मंत्रं ॐ भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ 3 ॥ माध्याह्नार्घ्य मंत्रं ॐ ह॒ग्ं॒ सश्शु॑चि॒ष द्वसु॑रंतरिक्ष॒स द्दोता॑ वेदि॒षदति॑थि र्दुरोण॒सत् । नृ॒ष द्व॑र॒स दृ॑त॒स द्व्यो॑म॒ सद॒ब्जा गो॒जा ऋ॑त॒जा अ॑द्रि॒जा ऋ॒तम्-बृ॒हत् ॥ (तै. अर. 10. 4) सायं कालार्घ्य मंत्रं ॐ भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ॐ भूः । ॐ भुवः । ओग्ं सुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ओग्ं स॒त्यम् । ॐ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ओमापो॒ ज्योती॒ रसो॒ऽमृतं॒ ब्रह्म॒ भू-र्भुव॒-स्सुव॒रोम् ॥ (इत्यंजलित्रयं-विँसृजेत्) कालातिक्रमण प्रायश्चित्तं आचम्य... पूर्वोक्त एवंगुण विशेषण विशिष्ठायां शुभतिथौ ममोपात्त दुरित क्षयद्वारा श्री परमेश्वर मुद्दिस्य श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं कालातिक्रम दोषपरिहारार्थं चतुर्था अर्घ्यप्रदानं करिष्ये ॥ ॐ भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ॐ भूः । ॐ भुवः । ओग्ं सुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ओग्ं स॒त्यम् । ॐ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ओमापो॒ ज्योती॒ रसो॒ऽमृतं॒ ब्रह्म॒ भू-र्भुव॒-स्सुव॒रोम् ॥ (इति जलं-विँसृजेत्) सजल प्रदक्षिणं ॐ उ॒द्यंत॑मस्तं॒-यंँत॑-मादि॒त्य-म॑भिथ्या॒य-न्कु॒र्वन्ब्रा᳚ह्म॒णो वि॒द्वान्-थ्स॒कलं॑भ॒द्रम॑श्नुते॒ असावा॑दि॒त्यो ब्र॒ह्मेति॒ ॥ ब्रह्मै॒व सन्-ब्रह्मा॒प्येति॒ य ए॒वं-वेँद ॥ असावादित्यो ब्रह्म ॥ (तै. अर. 2. 2) (एवं अर्घ्यत्रयं दद्यात् कालातिक्रमणे पूर्ववत्) (पश्चात् हस्तेन जलमादाय प्रदक्षिणं कुर्यात्) (द्विराचम्य प्राणायाम त्रयं कृत्वा) आचम्य (ॐ केशवाय स्वाहा, ... श्री कृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः) संध्यांग तर्पणं प्रातःकाल तर्पणं संध्यां तर्पयामि, गायत्रीं तर्पयामि, ब्राह्मीं तर्पयामि, निमृजीं तर्पयामि ॥ मध्याह्न तर्पणं संध्यां तर्पयामि, सावित्रीं तर्पयामि, रौद्रीं तर्पयामि, निमृजीं तर्पयामि ॥ सायंकाल तर्पणं संध्यां तर्पयामि, सरस्वतीं तर्पयामि, वैष्णवीं तर्पयामि, निमृजीं तर्पयामि ॥ (पुनराचमनं कुर्यात्) गायत्री अवाहन ओमित्येकाक्ष॑रं ब्र॒ह्म । अग्निर्देवता ब्रह्म॑ इत्या॒र्​षम् । गायत्रं छंदं परमात्मं॑ सरू॒पम् । सायुज्यं-विँ॑नियो॒ग॒म् ॥ (तै. अर. 10. 33) आया॑तु॒ वर॑दा दे॒वी॒ अ॒क्षरं॑ ब्रह्म॒संमि॒तम् । गा॒य॒त्रीं᳚ छंद॑सां मा॒तेदं ब्र॑ह्म जु॒षस्व॑ मे । यदह्ना᳚-त्कुरु॑ते पा॒पं॒ तदह्ना᳚-त्प्रति॒मुच्य॑ते । यद्रात्रिया᳚-त्कुरु॑ते पा॒पं॒ तद्रात्रिया᳚-त्प्रति॒मुच्य॑ते । सर्व॑ व॒र्णे म॑हादे॒वि॒ सं॒ध्यावि॑द्ये स॒रस्व॑ति ॥ ओजो॑ऽसि॒ सहो॑ऽसि॒ बल॑मसि॒ भ्राजो॑ऽसि दे॒वानां॒ धाम॒नामा॑सि॒ विश्व॑मसि वि॒श्वायु॒-स्सर्व॑मसि स॒र्वायु-रभिभूरोम् । गायत्री-मावा॑हया॒मि॒ सावित्री-मावा॑हया॒मि॒ सरस्वती-मावा॑हया॒मि॒ छंदर्​षी-नावा॑हया॒मि॒ श्रिय-मावाह॑या॒मि॒ गायत्रिया गायत्री च्छंदो विश्वामित्रऋषि स्सविता देवताऽग्निर्मुखं ब्रह्मा शिरो विष्णुर्​हृदयग्ं रुद्र-श्शिखा पृथिवी योनिः प्राणापान व्यानोदान समाना सप्राणा श्वेतवर्णा सांख्यायन सगोत्रा गायत्री चतुर्विग्ं शत्यक्षरा त्रिपदा॑ षट्कु॒क्षिः॒ पंच-शीर्​षोपनयने वि॑नियो॒गः॒ । ॐ भूः । ॐ भुवः । ओग्ं सुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ओग्ं स॒त्यम् । ॐ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ ओमापो॒ ज्योती॒ रसो॒ऽमृतं॒ ब्रह्म॒ भू-र्भुव॒-स्सुव॒रोम् ॥ (महानारायण उपनिषत्) आचम्य (ॐ केशवाय स्वाहा, ... श्री कृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः) जपसंकल्पः पूर्वोक्त एवंगुण विशेषण विशिष्ठायां शुभतिथौ ममोपात्त दुरित क्षयद्वारा श्री परमेश्वर मुद्दिस्य श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं संध्यांग यथाशक्ति गायत्री महामंत्र जपं करिष्ये ॥ करन्यासः ॐ तथ्स॑वि॒तुः ब्रह्मात्मने अंगुष्टाभ्यां नमः । वरे᳚ण्यं॒ विष्णवात्मने तर्जनीभ्यां नमः । भर्गो॑ दे॒वस्य॑ रुद्रात्मने मध्यमाभ्यां नमः । धीमहि सत्यात्मने अनामिकाभ्यां नमः । धियो॒ यो नः॑ ज्ञानात्मने कनिष्टिकाभ्यां नमः । प्रचोदया᳚त् सर्वात्मने करतल करपृष्टाभ्यां नमः । अंगन्यासः ॐ तथ्स॑वि॒तुः ब्रह्मात्मने हृदयाय नमः । वरे᳚ण्यं॒ विष्णवात्मने शिरसे स्वाहा । भर्गो॑ दे॒वस्य॑ रुद्रात्मने शिखायै वषट् । धीमहि सत्यात्मने कवचाय हुम् । धियो॒ यो नः॑ ज्ञानात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् । प्रचोदया᳚त् सर्वात्मने अस्त्रायफट् । ॐ भूर्भुव॒स्सुव॒रोमिति दिग्भंधः । ध्यानम् मुक्ताविद्रुम हेमनील धवलच्चायै-र्मुखै-स्त्रीक्षणैः । युक्तामिंदुनि बद्ध-रत्न-मकुटां तत्वार्थ वर्णात्मिकाम् । गायत्रीं-वँरदाभयांकुश कशाश्शुभ्रंकपालंगदाम् । शंखंचक्र मधारविंद युगलं हस्तैर्वहंतीं भजे ॥ चतुर्विंशति मुद्रा प्रदर्​शनं सुमुखं संपुटिंचैव विततं-विँस्तृतं तथा । द्विमुखं त्रिमुखंचैव चतुः पंच मुखं तथा । षण्मुखोऽथो मुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा । शकटं-यँमपाशं च ग्रथितं सम्मुखोन्मुखम् । प्रलंबं मुष्टिकं चैव मत्स्यः कूर्मो वराहकम् । सिंहाक्रांतं महाक्रांतं मुद्गरं पल्लवं तथा । चतुर्विंशति मुद्रा वै गायत्र्यां सुप्रतिष्ठिताः । इतिमुद्रा न जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ॥ यो देव स्सविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचराः । प्रेरयेत्तस्य यद्भर्गस्त द्वरेण्य मुपास्महे ॥ गायत्री मंत्रं ॐ भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥ अष्टमुद्रा प्रदर्​शनं सुरभिर्ज्ञान चक्रे च योनिः कूर्मोऽथ पंकजम् । [सुरभिर्ज्ञान नेत्रं च] लिंगं निर्याण मुद्रा चेत्यष्ट मुद्राः प्रकीर्तिताः ॥ ॐ तत्सद्ब्रह्मार्पणमस्तु । आचम्य (ॐ केशवाय स्वाहा, ... श्री कृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः) द्विः परिमुज्य । सकृदुप स्पृश्य । यत्सव्यं पाणिम् । पादम् । प्रोक्षति शिरः । चक्षुषी । नासिके । श्रोत्रे । हृदयमालभ्य । प्रातःकाल सूर्योपस्थानं ॐ मि॒त्रस्य॑ च॒र्​षणी॒ धृत॒ श्रवो॑ दे॒वस्य॑ सान॒ सिम् । स॒त्यं चि॒त्रश्र॑ वस्तमम् । मि॒त्रो जनान्॑ यातयति प्रजा॒नन्-मि॒त्रो दा॑धार पृथि॒वी मु॒तद्याम् । मि॒त्रः कृ॒ष्टी रनि॑मिषा॒ऽभि च॑ष्टे स॒त्याय॑ ह॒व्यं घृ॒तव॑द्विधेम । प्रसमि॑त्त्र॒ मर्त्यो॑ अस्तु॒ प्रय॑स्वा॒ न्यस्त॑ आदित्य॒ शिक्ष॑ति व्र॒तेन॑ । न ह॑न्यते॒ न जी॑यते॒ त्वोतो॒नैन॒ मग्ंहो॑ अश्नो॒ त्यंति॑तो॒ न दू॒रात् ॥ (तै. सं. 3.4.11) मध्याह्न सूर्योपस्थानं ॐ आ स॒त्येन॒ रज॑सा॒ वर्त॑मानो निवे॒श॑य न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑च । हि॒रण्यये॑न सवि॒ता रथे॒नाऽदे॒वो या॑ति॒ भुव॑ना नि॒पश्यन्॑ ॥ उद्व॒य ंतम॑स॒ स्परि॒ पश्यं॑तो॒ ज्योति॒ रुत्त॑रम् । दे॒वंदे॑व॒त्रा सूर्य॒ मग॑न्म ज्योति॑ रुत्त॒मं ॥ उदु॒त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं-वँ॑हंति के॒तवः॑ । दृ॒शे विश्वा॑ य॒ सूर्य᳚म् ॥ चि॒त्रं दे॒वाना॒ मुद॑गा॒ दनी॑कं॒ चक्षु॑-र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑ण स्या॒ग्नेः । अप्रा॒ द्यावा॑ पृथि॒वी अंत॒रि॑क्ष॒ग्ं सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑त स्त॒स्थुष॑श्च ॥ तच्चक्षु॑-र्दे॒वहि॑तं पु॒रस्ता᳚च्चु॒क्र मु॒च्चर॑त् । पश्ये॑म श॒रद॑श्श॒तं जीवे॑म श॒रद॑श्श॒तं नंदा॑म श॒रद॑श्श॒तं मोदा॑म श॒रद॑श्श॒तं भवा॑म श॒रद॑श्श॒तग्ं शृ॒णवा॑म श॒रद॑श्श॒तं पब्र॑वाम श॒रद॑श्श॒तमजी॑तास्याम श॒रद॑श्श॒तं जोक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒षे ॥ य उद॑गान्मह॒तोऽर्णवा᳚ द्वि॒भ्राज॑मान स्सरि॒रस्य॒ मध्या॒थ्समा॑ वृष॒भो लो॑हिता॒क्षसूर्यो॑ विप॒श्चिन्मन॑सा पुनातु ॥ सायंकाल सूर्योपस्थानं ॐ इ॒मम्मे॑ वरुण शृधी॒ हव॑ म॒द्या च॑ मृडय । त्वा म॑व॒स्यु राच॑के ॥ तत्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वंद॑मान॒ स्त दाशा᳚स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑ । अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑श॒ग्ं॒ समा॑न॒ आयुः॒ प्रमो॑षीः ॥ यच्चि॒द्धिते॒ विशो॑यथा॒ प्रदे॑व वरुणव्र॒तम् । मि॒नी॒मसि॒द्य वि॑द्यवि । यत्किंचे॒दं-वँ॑रुण॒दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒ह-म्म॑नु॒ष्या᳚श्चरा॑मसि । अचि॑त्ती॒ यत्तव॒ धर्मा॑युयोपि॒-ममान॒-स्तस्मा॒ देन॑सो देवरीरिषः । कि॒त॒वासो॒ यद्रि॑रि॒पुर्नदी॒वि यद्वा॑घा स॒त्यमु॒तयन्न वि॒द्म । सर्वा॒ताविष्य॑ शिधि॒रेव॑दे॒वाऽथा॑तेस्याम वरुण प्रि॒यासः॑ ॥ (तै. सं. 1.1.1) दिग्देवता नमस्कारः (एतैर्नमस्कारं कुर्यात्) ॐ नमः॒ प्राच्यै॑ दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नमो दक्षि॑णायै दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नमः॒ प्रती᳚च्यै दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नम॒ उदी᳚च्यै दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नम॑ ऊ॒र्ध्वायै॑ दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नमोऽध॑रायै दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । ॐ नमो॑ऽवांत॒रायै॑ दि॒शे याश्च॑ दे॒वता॑ ए॒तस्यां॒ प्रति॑वसंत्ये॒ ताभ्य॑श्च॒ नमः॑ । मुनि नमस्कारः नमो गंगा यमुनयो-र्मध्ये ये॑ वसं॒ति॒ ते मे प्रसन्नात्मान श्चिरंजीवितं-वँ॑र्धयं॒ति॒ नमो गंगा यमुनयो-र्मुनि॑भ्यश्च॒ नमो नमो गंगा यमुनयो-र्मुनि॑भ्यश्च॒ न॑मः ॥ संध्यादेवता नमस्कारः संध्या॑यै॒ नमः॑ । सावि॑त्र्यै॒ नमः॑ । गाय॑त्र्यै॒ नमः॑ । सर॑स्वत्यै॒ नमः॑ । सर्वा॑भ्यो दे॒वता॑भ्यो॒ नमः॑ । दे॒वेभ्यो॒ नमः॑ । ऋषि॑भ्यो॒ नमः॑ । मुनि॑भ्यो॒ नमः॑ । गुरु॑भ्यो॒ नमः॑ । पितृ॑भ्यो॒ नमः॑ । कामोऽकार्​षी᳚ र्नमो॒ नमः । मन्यु रकार्​षी᳚ र्नमो॒ नमः । पृथिव्यापस्ते॒जो वायु॑राका॒शात् नमः ॥ (तै. अर. 2.18.52) ॐ नमो भगवते वासु॑देवा॒य । या॒ग्ं सदा॑ सर्वभूता॒नि॒ च॒राणि॑ स्थाव॒राणि॑ च । सा॒यं॒ प्रा॒त र्न॑मस्यं॒ति॒ सा॒ मा॒ संध्या॑ऽभिरक्षतु ॥ शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे । शिवस्य हृदयं-विँष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिवः ॥ यथा शिवमयो विष्णुरेवं-विँष्णुमयः शिवः । यथाऽंतरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च । जगद्धिताय कृष्णाय गोविंदाय नमो नमः ॥ गायत्री उद्वासन (प्रस्थानं) उ॒त्तमे॑ शिख॑रे जा॒ते॒ भू॒म्यां प॑र्वत॒मूर्थ॑नि । ब्रा॒ह्मणे᳚भ्योऽभ्य॑नुज्ञा॒ता॒ ग॒च्चदे॑वि य॒थासु॑खम् । स्तुतो मया वरदा वे॑दमा॒ता॒ प्रचोदयंती पवने᳚ द्विजा॒ता । आयुः पृथिव्यां द्रविणं ब्र॑ह्मव॒र्च॒सं॒ मह्यं दत्वा प्रजातुं ब्र॑ह्मलो॒कम् ॥ (महानारायण उपनिषत्) भगवन्नमस्कारः नमोऽस्त्वनंताय सहस्रमूर्तये सहस्र पादाक्षि शिरोरु बाहवे । सहस्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटी युग धारिणे नमः ॥ भूम्याकाशाभि वंदनं इ॒दं द्या॑वा पृथि॒वी स॒त्यम॑स्तु॒ । पित॒-र्मातर्यदि॒ होप॑ बृ॒वेवा᳚म् । भू॒तं दे॒वाना॑ मवमे अवो॑भिः । विद्या मे॒षं-वृँ॒जिनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥ आकाशात्पतितं तोयं-यँथा गच्छति सागरम् । सर्वदेव नमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥ श्री केशवं प्रतिगच्छत्योन्नम इति । सर्ववेदेषु यत्पुण्यम् । सर्वतीर्थेषु यत्फलम् । तत्फलं पुरुष आप्नोति स्तुत्वादेवं जनार्धनम् ॥ स्तुत्वादेवं जनार्धन ॐ नम इति ॥ वासना-द्वासुदेवस्य वासितं ते जगत्रयम् । सर्वभूत निवासोऽसि श्रीवासुदेव नमोऽस्तुते ॥ श्री वासुदेव नमोऽस्तुते ॐ नम इति । अभिवादः (प्रवर) चतुस्सागर पर्यंतं गो ब्राह्मणेभ्यः शुभं भवतु । ... प्रवरान्वित ... गोत्रः ... सूत्रः ... शाखाध्यायी ... अहं भो अभिवादये ॥ ईश्वरार्पणं कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वा प्रकृते स्स्वभावात् । करोमि यद्यत्सकलं परस्मै श्रीमन्नारायणायेति समर्पयामि ॥ हरिः ॐ तत्सत् । तत्सर्वं श्री परमेश्वरार्पणमस्तु ।

    Saraswati Praarthan Ghanapathah (सरस्वती प्रार्थन घनपाठः)

    सरस्वती प्रार्थन घनपाठः (saraswati praarthan ghanapathah) प्रणो नः प्रप्रणो देवी देवी नः प्रप्रणो देवी । नो देवी देवी नो नो देवी सरस्वती सरस्वती देवी नो नो देवी सरस्वती ॥ देवी सरस्वती सरस्वती देवी देवी सरस्वती वाजेभि वाजेभि सरस्वती देवी देवी सरस्वती देवी सरस्वती वाजेभिः ॥ सरस्वती वाजेभि वाजेभि सरस्वती सरस्वती वाजेभि वाजिनीवती वाहिनीवती वाजेभि सरस्वती सरस्वती वाजेभि वाजिनीवती ॥ वाजेभिर्वाजिनीवती वाजिनीवती वाजेभिर्वाजेभिर्वाजिनीवती । वाजिनीवतीति वाजिनीवती ॥ धीनामवित्र्यवित्री धीनां धीनामवित्र्यवतु वत्ववित्र्य धीनां धीनामवित्र्यवतु । अवित्र्यवत्वव त्ववित्र्यवित्री अवतु । अवत्वित्यवतु ॥

    Shri Rudra Laghunyasam (श्री रुद्रं लघुन्यासम्)

    श्री रुद्रं लघुन्यासम् (Shri Rudra Laghunyasam) ॐ अथात्मानग्ं शिवात्मानं श्री रुद्ररूपं ध्यायेत् ॥ शुद्धस्फटिक संकाशं त्रिनेत्रं पंच वक्त्रकम् । गंगाधरं दशभुजं सर्वाभरण भूषितम् ॥ नीलग्रीवं शशांकांकं नाग यज्ञोप वीतिनम् । व्याघ्र चर्मोत्तरीयं च वरेण्यमभय प्रदम् ॥ कमंडल्-वक्ष सूत्राणां धारिणं शूलपाणिनम् । ज्वलंतं पिंगलजटा शिखा मुद्द्योत धारिणम् ॥ वृष स्कंध समारूढं उमा देहार्थ धारिणम् । अमृतेनाप्लुतं शांतं दिव्यभोग समन्वितम् ॥ दिग्देवता समायुक्तं सुरासुर नमस्कृतम् । नित्यं च शाश्वतं शुद्धं ध्रुव-मक्षर-मव्ययम् । सर्व व्यापिन-मीशानं रुद्रं-वैँ विश्वरूपिणम् । एवं ध्यात्वा द्विजः सम्यक् ततो यजनमारभेत् ॥ अथातो रुद्र स्नानार्चनाभिषेक विधिं-व्याँ᳚क्ष्यास्यामः । आदित एव तीर्थे स्नात्वा, उदेत्य शुचिः प्रयतो ब्रह्मचारी शुक्लवासा देवाभिमुखः स्थित्वा, आत्मनि देवताः स्थापयेत् ॥ प्रजनने ब्रह्मा तिष्ठतु । पादयोर्विष्णुस्तिष्ठतु । हस्तयोर्​हरस्तिष्ठतु । बाह्वोरिंद्रस्तिष्टतु । जठरेऽअग्निस्तिष्ठतु । हृद॑ये शिवस्तिष्ठतु । कंठे वसवस्तिष्ठंतु । वक्त्रे सरस्वती तिष्ठतु । नासिकयो-र्वायुस्तिष्ठतु । नयनयो-श्चंद्रादित्यौ तिष्टेताम् । कर्णयोरश्विनौ तिष्टेताम् । ललाटे रुद्रास्तिष्ठंतु । मूर्थ्न्यादित्यास्तिष्ठंतु । शिरसि महादेवस्तिष्ठतु । शिखायां-वाँमदेवास्तिष्ठतु । पृष्ठे पिनाकी तिष्ठतु । पुरतः शूली तिष्ठतु । पार्​श्वयोः शिवाशंकरौ तिष्ठेताम् । सर्वतो वायुस्तिष्ठतु । ततो बहिः सर्वतोऽग्निर्ज्वालामाला-परिवृतस्तिष्ठतु । सर्वेष्वंगेषु सर्वा देवता यथास्थानं तिष्ठंतु । माग्ं रक्षंतु । अ॒ग्निर्मे॑ वा॒चि श्रि॒तः । वाघृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । वा॒युर्मे᳚ प्रा॒णे श्रि॒तः । प्रा॒णो हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । सूर्यो॑ मे॒ चक्षुषि श्रि॒तः । चक्षु॒र्​हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । चं॒द्रमा॑ मे॒ मन॑सि श्रि॒तः । मनो॒ हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । दिशो॑ मे॒ श्रोत्रे᳚ श्रि॒ताः । श्रोत्र॒ग्ं॒ हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । आपोमे॒ रेतसि श्रि॒ताः । रेतो हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । पृ॒थि॒वी मे॒ शरी॑रे श्रि॒ता । शरी॑र॒ग्ं॒ हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । ओ॒ष॒धि॒ व॒न॒स्पतयो॑ मे॒ लोम॑सु श्रि॒ताः । लोमा॑नि॒ हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । इंद्रो॑ मे॒ बले᳚ श्रि॒तः । बल॒ग्ं॒ हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । प॒र्जन्यो॑ मे॒ मू॒र्द्नि श्रि॒तः । मू॒र्धा हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । ईशा॑नो मे॒ म॒न्यौ श्रि॒तः । म॒न्युर्​हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । आ॒त्मा म॑ आ॒त्मनि॑ श्रि॒तः । आ॒त्मा हृद॑ये । हृद॑यं॒ मयि॑ । अ॒हम॒मृते᳚ । अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि । पुन॑र्म आ॒त्मा पुन॒रायु॒ रागा᳚त् । पुनः॑ प्रा॒णः पुन॒राकू॑त॒मागा᳚त् । वै॒श्वा॒न॒रो र॒श्मिभि॑र्वावृधा॒नः । अं॒तस्ति॑ष्ठ॒त्वमृत॑स्य गो॒पाः ॥ अस्य श्री रुद्राध्याय प्रश्न महामंत्रस्य, अघोर ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, संकर्​षण मूर्ति स्वरूपो योऽसावादित्यः परमपुरुषः स एष रुद्रो देवता । नमः शिवायेति बीजम् । शिवतरायेति शक्तिः । महादेवायेति कीलकम् । श्री सांब सदाशिव प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥ ॐ अग्निहोत्रात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । दर्​शपूर्ण मासात्मने तर्जनीभ्यां नमः । चातुर्मास्यात्मने मध्यमाभ्यां नमः । निरूढ पशुबंधात्मने अनामिकाभ्यां नमः । ज्योतिष्टोमात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः । सर्वक्रत्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥ अग्निहोत्रात्मने हृदयाय नमः । दर्​शपूर्ण मासात्मने शिरसे स्वाहा । चातुर्मास्यात्मने शिखायै वषट् । निरूढ पशुबंधात्मने कवचाय हुम् । ज्योतिष्टोमात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् । सर्वक्रत्वात्मने अस्त्रायफट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बंधः ॥ ध्यानं आपाताल-नभःस्थलांत-भुवन-ब्रह्मांड-माविस्फुरत्- ज्योतिः स्फाटिक-लिंग-मौलि-विलसत्-पूर्णेंदु-वांतामृतैः । अस्तोकाप्लुत-मेक-मीश-मनिशं रुद्रानु-वाकांजपन् ध्याये-दीप्सित-सिद्धये ध्रुवपदं-विँप्रोऽभिषिंचे-च्चिवम् ॥ ब्रह्मांड व्याप्तदेहा भसित हिमरुचा भासमाना भुजंगैः कंठे कालाः कपर्दाः कलित-शशिकला-श्चंड कोदंड हस्ताः । त्र्यक्षा रुद्राक्षमालाः प्रकटितविभवाः शांभवा मूर्तिभेदाः रुद्राः श्रीरुद्रसूक्त-प्रकटितविभवा नः प्रयच्चंतु सौख्यम् ॥ ॐ गणानां त्वा गणपतिग्ं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् । ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पद आ नः शृण्वन्नूतिभिस्सीद सादनम् ॥ महागणपतये नमः ॥ शं च मे मयश्च मे प्रियं च मेऽनुकामश्च मे कामश्च मे सौमनसश्च मे भद्रं च मे श्रेयश्च मे वस्यश्च मे यशश्च मे भगश्च मे द्रविणं च मे यंता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे धृतिश्च मे विश्वं च मे महश्च मे संविंच्च मे ज्ञात्रं च मे सूश्च मे प्रसूश्च मे सीरं च मे लयश्च म ऋतं च मे अमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुगं च मे शयनं च मे सूषा च मे सुदिनं च मे ॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥

    Shri Rudram Chamakaprashnah (श्री रुद्रं - चमकप्रश्नः)

    श्री रुद्रं - चमकप्रश्नः (Shri Rudram Chamakaprashnah) ॐ अग्ना विष्णो सजोषसेमा वर्धन्तु वाङ्गिरः। द्युन्नैर् वाजेभिर् आगतम्। वाजश् च मे प्रसवश् च मे प्रयतिश् च मे प्रसितिश् च मे धीतिश् च मे क्रतश् च मे स्वरश् च मे श्लोकश् च मे श्रावश् च मे श्रुतिश् च मे ज्योतिश् च मे सुवश् च मे प्राणश् च मे-ऽपानश् च मे व्यानश् च मे-ऽसुस् च मे चित्तं च मे आधीतं च मे वाक् च मे मनश् च मे चक्षुश् च मे श्रोत्रं च मे दक्षश् च मे बलं च मे ओजश् च मे सहश् च मे आयुश् च मे जरा च मे आत्मा च मे तनूश् च मे शर्म च मे वर्म च मे अङ्गानि च मे-ऽस्थानि च मे परूक्षं च मे शरीरणि च मे॥ 1॥ जैष्ठ्यं च मे आधिपत्यं च मे मन्युश् च मे भामश् च मे-अमश् च मे-अम्भश् च मे जेमाश् च मे महिमाश् च मे वरिमाश् च मे प्रथिमाश् च मे वर्ष्माश् च मे द्राघुयाश् च मे वृद्धं च मे वृद्धिश् च मे सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगश् च मे धनं च मे वशश् च मे त्विषिश् च मे क्रीडा च मे मोदश् च मे जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच्च मे सुकं च मे सुपथं च म ऋद्धं च म ऋद्धिश् च मे कृतं च मे कृतिश् च मे मतिश् च मे सुमतिश् च मे॥ 2॥ शं च मे मयश् च मे प्रियं च मे-अनुकामश् च मे कामश् च मे सौमनसश् च मे भद्रं च मे श्रेयश् च मे वस्यश् च मे यशश् च मे भगश् च मे द्रविणं च मे यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश् च मे धृतिश् च मे विश्वं च मे महश् च मे सं विन्निश् च मे ज्ञात्रं च मे सूश् च मे प्रसूश् च मे सीरं च मे लयश् च म ऋतं च मे-अमृतं च मे-अयक्ष्मं च मे-अनामयश् च मे जीवातुश् च मे दीर्घायुत्वं च मे-अनमित्रं च मे-अभयं च मे सुकं च मे शयनं च मे सूषा च मे सुदिनं च मे॥ 3॥ ऊर्क् च मे सूनृता च मे पयश् च मे रसं च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश् च मे सपीतिश् च मे कृषिश् च मे वृष्टिश् च मे जैत्रं च म औद्भिद्यं च मे रयिश् च मे रायश् च मे पुष्टिं च मे पुष्टिश् च मे विभु च मे प्रभु च मे बहु च मे भूयश् च मे पूर्णं च मे पूर्णतरं च मे-अक्षितिश् च मे कूयवाश् च मे-अन्नं च मे-अक्षुश् च मे व्रीहयश् च मे यवाश् च मे माषाश् च मे तिलाश् च मे मुद्गाश् च मे खल्वाश् च मे गोधूमाश् च मे मसुराश् च मे प्रियङ्गवश् च मे-अणवश् च मे श्यामाकाश् च मे नीवाराश् च मे॥ 4॥ अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश् च मे पर्वताश् च मे सिकताश् च मे वनस्पतयश् च मे हिरण्यं च मे-अयश् च मे सीसं च मे त्रपुश् च मे श्यामं च मे लोहं च मे-अग्निश् च म आपश् च मे वीरुधश् च म ओषधयश् च मे कृष्टपच्यं च मे-अकृष्टपच्यं च मे ग्राम्याश् च मे पशवो आरण्याश् च यज्ञेन कल्पन्तां-वित्तं च मे वित्तिश् च मे भूतं च मे भूतिश् च मे वसु च मे वसतिश् च मे कर्म च मे शक्ति श्च मे-अर्थश् च म एमश् च म इति श्च मे गतिश् च मे॥ 5॥ अग्निश् च म इन्द्रश् च मे सोमश् च म इन्द्रश् च मे सविता च म इन्द्रश् च मे सरस्वती च म इन्द्रश् च मे पूषा च म इन्द्रश् च मे बृहस्पतिश् च म इन्द्रश् च मे मित्रश् च म इन्द्रश् च मे वरुणश् च म इन्द्रश् च मे त्वष्ठा च म इन्द्रश् च मे धाता च म इन्द्रश् च मे विष्णुश् च म इन्द्रश् च मे-अश्विनौ च म इन्द्रश् च मे मरुतश् च म इन्द्रश् च मे विश्वे च मे देवा इन्द्रश् च मे पृथिवी च म इन्द्रश् च मे-अन्तरिक्षं च म इन्द्रश् च मे द्यौश् च म इन्द्रश् च मे दिशश् च म इन्द्रश् च मे मूर्धा च म इन्द्रश् च मे प्रजापतिश् च म इन्द्रश् च मे॥ 6॥ अंशुश् च मे रश्मिश् च मे-अदाभ्यश् च मे-अधिपतिश् च म उपांशुश् च मे-अन्तर्यामश् च म ऐन्द्रवायवश् च मे मैत्रावरुणश् च म आश्विनश् च मे प्रतिप्रस्थानश् च मे शुक्रम् च मे मन्थी च म आग्रयणश् च मे वैश्वदेवश् च मे ध्रुवश् च मे वैश्वानरश् च म ऋतुग्रहाश् च मे-अतिग्राह्याश् च म ऐन्द्राग्नश् च मे वैश्वदेवश् च मे मरुत्वतीयाश् च मे माहेन्द्रश् च म आदित्यश् च मे सावित्रश् च मे सारस्वतश् च मे पौष्णश् च मे पात्नीवतश् च मे हारियोजनश् च मे॥ 7॥ इध्मश् च मे बर्हिश् च मे वेदिश् च मे दिष्णियाश् च मे स्रुचश् च मे चमसाश् च मे ग्रावाणश् च मे स्वरवश् च म उपरवाश् च मे-अधिषवणे च मे द्रोणकलशश् च मे वायव्यानि च मे पूतभृच्च म आधवनीयश् च म आग्नीध्रं च मे हविर्धानं च मे गृहाश् च मे सदश् च मे पुरोडाशाश् च मे पचताश् च मे-अवभृथश् च मे स्वगाकारश् च मे॥ 8॥ अग्निश् च म घर्मश् च म-अर्कश् च म सूर्यश् च मे प्राणश् च म-अश्वमेधश् च मे पृथिवी च मे अदितिश् च मे दितिश् च मे द्यौश् च मे शक्वरीरङ्गुलयो दिशश् च मे यज्ञेन कल्पन्तामृक् च मे साम च मे स्तोमश् च मे यजुश् च मे दीक्षा च मे तपश् च म ऋतश् च मे व्रतं च मे-अहोरा त्रयोर्वृष्ट्या बृहद्रथन्तरे च मे यज्ञेन कल्पेताम्॥ 9॥ गर्भाश् च मे वत्साश् च मे त्र्यविश्च मे त्र्यवी च मे दित्यवाट् च मे दित्यौही च मे पञ्चाविश् च मे पञ्चावी च मे त्रिवत्सश् च मे त्रिवत्सा च मे तुर्यवाट् च मे तुर्यौही च मे पष्ठवाट् च मे पष्ठौही च म उक्षा च मे वशा च म ऋषभश् च मे वेहच् च मे-अनड्वाञ्च मे धेनुश् च म आयुर्यज्ञेन कल्पता-म्प्राणो यज्ञेन कल्पतामपानो यज्ञेन कल्पतां-व्यानो यज्ञेन कल्पता-ञ्चक्षुर्यज्ञेन कल्पताश्रोत्रं-यज्ञेन कल्पताम्मनो यज्ञेन कल्पतांवाग्यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पतां-यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्॥ 10॥ एका च मे तिस्रश् च मे पञ्च च मे सप्त च मे नव च म एका दश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे नवदश च म एकविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे पञ्चविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च म एकत्रिंशच्च मे त्रयस्त्रिंशच्च मे चतस्रश्च मे-ऽष्टौ च मे द्वादश च मे षोडश च मे विंशतिश्च मे चतुर्विंशतिश्च मे-ऽष्टाविंशतिश्च मे द्वात्रिंशच्च मे षट्त्रिंशच्च मे चत्वारिंशच्च मे चतुश्चत्वारिंशच्च मे-ऽष्टाचत्वारिंशच्च मे वाजश्च प्रसवश्चापिजश्च क्रतुश्च सुवश्च मूर्धा च व्यश्नियश्चान्त्यायनश्चान्त्यश्च भौवनश्च भुवनश्चाधिपतिश्च॥ 11॥ ॐ इडा देवहूर्मनुर्यज्ञनीर्बृहस्पतिरुक्थामदानि शग्सिषद्विश्वे देवास्सूक्तवाचः पृथिविमातर्मा मा हिग्सीर्मधु मनिष्येमधु जनिष्येमधु वक्ष्यामि मधु वदिष्यामि मधुमती-न्देवेभ्यो वाचमुद्यासग्शुश्रूषेण्याम्मनुष्येभ्यस्तम्मा देवा अवन्तु शोभायै पितरो-ऽनुमदन्तु॥ ॐ शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः॥

    Shri Venkateswara Prapatti (श्री वेङ्कटेश्वर प्रपत्ति)

    श्री वेङ्कटेश्वर प्रपत्ति (Shri Venkateswara Prapatti) ईशानां जगतोऽस्य वेङ्कटपते र्विष्णोः परां प्रेयसीं तद्वक्षःस्थल नित्यवासरसिकां तत्-क्षान्ति संवर्धिनीम् । पद्मालङ्कृत पाणिपल्लवयुगां पद्मासनस्थां श्रियं वात्सल्यादि गुणोज्ज्वलां भगवतीं वन्दे जगन्मातरम् ॥ श्रीमन् कृपाजलनिधे कृतसर्वलोक सर्वज्ञ शक्त नतवत्सल सर्वशेषिन् । स्वामिन् सुशील सुल भाश्रित पारिजात श्रीवेङ्कटेशचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ आनूपुरार्चित सुजात सुगन्धि पुष्प सौरभ्य सौरभकरौ समसन्निवेशौ । सौम्यौ सदानुभनेऽपि नवानुभाव्यौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 3 ॥ सद्योविकासि समुदित्त्वर सान्द्रराग सौरभ्यनिर्भर सरोरुह साम्यवार्ताम् । सम्यक्षु साहसपदेषु विलेखयन्तौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 4 ॥ रेखामय ध्वज सुधाकलशातपत्र वज्राङ्कुशाम्बुरुह कल्पक शङ्खचक्रैः । भव्यैरलङ्कृततलौ परतत्त्व चिह्नैः श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 5 ॥ ताम्रोदरद्युति पराजित पद्मरागौ बाह्यैर्-महोभि रभिभूत महेन्द्रनीलौ । उद्य न्नखांशुभि रुदस्त शशाङ्क भासौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 6 ॥ स प्रेमभीति कमलाकर पल्लवाभ्यां संवाहनेऽपि सपदि क्लम माधधानौ । कान्ता नवाङ्मानस गोचर सौकुमार्यौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 7 ॥ लक्ष्मी मही तदनुरूप निजानुभाव नीलादि दिव्य महिषी करपल्लवानाम् । आरुण्य सङ्क्रमणतः किल सान्द्ररागौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 8 ॥ नित्यानमद्विधि शिवादि किरीटकोटि प्रत्युप्त दीप्त नवरत्नमहः प्ररोहैः । नीराजनाविधि मुदार मुपादधानौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 9 ॥ "विष्णोः पदे परम" इत्युदित प्रशंसौ यौ "मध्व उत्स" इति भोग्य तयाऽप्युपात्तौ । भूयस्तथेति तव पाणितल प्रदिष्टौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 10 ॥ पार्थाय तत्-सदृश सारधिना त्वयैव यौ दर्शितौ स्वचरणौ शरणं व्रजेति । भूयोऽपि मह्य मिह तौ करदर्शितौ ते श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 11 ॥ मन्मूर्थ्नि कालियफने विकटाटवीषु श्रीवेङ्कटाद्रि शिखरे शिरसि श्रुतीनाम् । चित्तेऽप्यनन्य मनसां सममाहितौ ते श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 12 ॥ अम्लान हृष्य दवनीतल कीर्णपुष्पौ श्रीवेङ्कटाद्रि शिखराभरणाय-मानौ । आनन्दिताखिल मनो नयनौ तवै तौ श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 13 ॥ प्रायः प्रपन्न जनता प्रथमावगाह्यौ मातुः स्तनाविव शिशो रमृतायमाणौ । प्राप्तौ परस्पर तुला मतुलान्तरौ ते श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 14 ॥ सत्त्वोत्तरैः सतत सेव्यपदाम्बुजेन संसार तारक दयार्द्र दृगञ्चलेन । सौम्योपयन्तृ मुनिना मम दर्शितौ ते श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 15 ॥ श्रीश श्रिया घटिकया त्वदुपाय भावे प्राप्येत्वयि स्वयमुपेय तया स्फुरन्त्या । नित्याश्रिताय निरवद्य गुणाय तुभ्यं स्यां किङ्करो वृषगिरीश न जातु मह्यम् ॥ 16 ॥ इति श्रीवेङ्कटेश प्रपत्तिः

    Shri Ram Mangalashsanam (श्री राम मङ्गलाशसनम्)

    श्री राम मङ्गलाशसनम् (प्रपत्ति ऽ मङ्गलम्) (Shri Ram Mangalashsanam) मङ्गलं कौसलेन्द्राय महनीय गुणात्मने । चक्रवर्ति तनूजाय सार्वभौमाय मङ्गलम् ॥ 1 ॥ वेदवेदान्त वेद्याय मेघश्यामल मूर्तये । पुंसां मोहन रूपाय पुण्यश्लोकाय मङ्गलम् ॥ 2 ॥ विश्वामित्रान्तरङ्गाय मिथिला नगरी पते । भाग्यानां परिपाकाय भव्यरूपाय मङ्गलम् ॥ 3 ॥ पितृभक्ताय सततं भातृभिः सह सीतया । नन्दिताखिल लोकाय रामभद्राय मङ्गलम् ॥ 4 ॥ त्यक्त साकेत वासाय चित्रकूट विहारिणे । सेव्याय सर्वयमिनां धीरोदात्ताय मङ्गलम् ॥ 5 ॥ सौमित्रिणाच जानक्याचाप बाणासि धारिणे । संसेव्याय सदा भक्त्या स्वामिने मम मङ्गलम् ॥ 6 ॥ दण्डकारण्य वासाय खरदूषण शत्रवे । गृध्रराजाय भक्ताय मुक्ति दायास्तु मङ्गलम् ॥ 7 ॥ सादरं शबरी दत्त फलमूल भिलाषिणे । सौलभ्य परिपूर्णाय सत्योद्रिक्ताय मङ्गलम् ॥ 8 ॥ हनुन्त्समवेताय हरीशाभीष्ट दायिने । वालि प्रमधनायास्तु महाधीराय मङ्गलम् ॥ 9 ॥ श्रीमते रघुवीराय सेतूल्लङ्घित सिन्धवे । जितराक्षस राजाय रणधीराय मङ्गलम् ॥ 10 ॥ विभीषणकृते प्रीत्या लङ्काभीष्ट प्रदायिने । सर्वलोक शरण्याय श्रीराघवाय मङ्गलम् ॥ 11 ॥ आगत्यनगरीं दिव्यामभिषिक्ताय सीतया । राजाधिराजराजाय रामभद्राय मङ्गलम् ॥ 12 ॥ ब्रह्मादि देवसेव्याय ब्रह्मण्याय महात्मने । जानकी प्राणनाथाय रघुनाथाय मङ्गलम् ॥ 13 ॥ श्रीसौम्य जामातृमुनेः कृपयास्मानु पेयुषे । महते मम नाथाय रघुनाथाय मङ्गलम् ॥ 14 ॥ मङ्गलाशासन परैर्मदाचार्य पुरोगमैः । सर्वैश्च पूर्वैराचार्र्यैः सत्कृतायास्तु मङ्गलम् ॥ 15 ॥ रम्यजा मातृ मुनिना मङ्गलाशासनं कृतम् । त्रैलोक्याधिपतिः श्रीमान् करोतु मङ्गलं सदा ॥

    Hanuman-Pancharatnam (हनुमत्-पञ्चरत्नम्)

    हनुमत्-पञ्चरत्नम् (Hanuman-Pancharatnam) वीताखिलविषयेच्छं जातानन्दाश्रुपुलकमत्यच्छम् सीतापति दूताद्यं वातात्मजमद्य भावये हृद्यम् ॥ 1 ॥ तरुणारुणमुखकमलं करुणारसपूरपूरितापाङ्गम् सञ्जीवनमाशासे मञ्जुलमहिमानमञ्जनाभाग्यम् ॥ 2 ॥ शम्बरवैरिशरातिगमम्बुजदल विपुललोचनोदारम् कम्बुगलमनिलदिष्टं बिम्बज्वलितोष्ठमेकमवलम्बे ॥ 3 ॥ दूरीकृतसीतार्तिः प्रकटीकृतरामवैभवस्फूर्तिः दारितदशमुखकीर्तिः पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्तिः ॥ 4 ॥ वानरनिकराध्यक्षं दानवकुलकुमुदरविकरसदृशम् दीनजनावनदीक्षं पवनतपः पाकपुञ्जमद्राक्षम् ॥ 5 ॥ एतत्पवनसुतस्य स्तोत्रं यः पठति पञ्चरत्नाख्यम् चिरमिह निखिलान्भोगान्भुङ्क्त्वा श्रीरामभक्तिभाग्भवति ॥ 6 ॥

    Hanuman Mala Mantra (हनुमान् माला मन्त्रम्)

    हनुमान् माला मन्त्रम् (Hanuman Mala Mantra) ॐ ह्रौं क्ष्रौं ग्लौं हुं ह्सौं ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते प्रकट पराक्रमाक्रान्त सकलदिङ्मण्डलाय, निजकीर्ति स्फूर्तिधावल्य वितानायमान जगत्त्रितयाय, अतुलबलैश्वर्य रुद्रावताराय, मैरावण मदवारण गर्व निर्वापणोत्कण्ठ कण्ठीरवाय, ब्रह्मास्त्रगर्व सर्वङ्कषाय, वज्रशरीराय, लङ्कालङ्कारहारिणे, तृणीकृतार्णवलङ्घनाय, अक्षशिक्षण विचक्षणाय, दशग्रीव गर्वपर्वतोत्पाटनाय, लक्ष्मण प्राणदायिने, सीतामनोल्लासकराय, राममानस चकोरामृतकराय, मणिकुण्डलमण्डित गण्डस्थलाय, मन्दहासोज्ज्वलन्मुखारविन्दाय, मौञ्जी कौपीन विराजत्कटितटाय, कनकयज्ञोपवीताय, दुर्वार वारकीलित लम्बशिखाय, तटित्कोटि समुज्ज्वल पीताम्बरालङ्कृताय, तप्त जाम्बूनदप्रभाभासुर रम्य दिव्यमङ्गल विग्रहाय, मणिमयग्रैवेयाङ्गद हारकिङ्किणी किरीटोदारमूर्तये, रक्तपङ्केरुहाक्षाय, त्रिपञ्चनयन स्फुरत्पञ्चवक्त्र खट्वाङ्ग त्रिशूल खड्गोग्र पाशाङ्कुश क्ष्माधर भूरुह कौमोदकी कपाल हलभृद्दशभुजाटोपप्रताप भूषणाय, वानर नृसिंह तार्‍क्ष्य वराह हयग्रीवानन धराय, निरङ्कुश वाग्वैभवप्रदाय, तत्त्वज्ञानदायिने, सर्वोत्कृष्ट फलप्रदाय, सुकुमार ब्रह्मचारिणे, भरत प्राणसंरक्षणाय, गम्भीरशब्दशालिने, सर्वपापविनाशाय, राम सुग्रीव सन्धान चातुर्य प्रभावाय, सुग्रीवाह्लादकारिणे, वालि विनाशकारणाय, रुद्रतेजस्विने वायुनन्दनाय, अञ्जनागर्भरत्नाकरामृतकराय, निरन्तर रामचन्द्रपादारविन्द मकरन्द मत्त मधुरकरायमाण मानसाय, निजवाल वलयीकृत कपिसैन्य प्राकाराय, सकल जगन्मोदकोत्कृष्टकार्य निर्वाहकाय, केसरीनन्दनाय, कपिकुञ्जराय, भविष्यद्ब्रह्मणे, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते तेजोराशे एह्येहि देवभयं असुरभयं गन्धर्वभयं यक्षभयं ब्रह्मराक्षसभयं भूतभयं प्रेतभयं पिशाचभयं विद्रावय विद्रावय, राजभयं चोरभयं शत्रुभयं सर्पभयं वृश्चिकभयं मृगभयं पक्षिभयं क्रिमिभयं कीटकभयं खादय खादय, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते जगदाश्चर्यकर शौर्यशालिने एह्येहि श्रवणजभूतानां दृष्टिजभूतानां शाकिनी ढाकिनी कामिनी मोहिनीनां भेताल ब्रह्मराक्षस सकल कूश्माण्डानां विषयदुष्टानां विषमविशेषजानां भयं हर हर मथ मथ भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय प्रहारय प्रहारय, ठठठठ खखखख खेखे ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते शृङ्खलाबन्ध विमोचनाय उमामहेश्वर तेजो महिमावतार सर्वविषभेदन सर्वभयोत्पाटन सर्वज्वरच्छेदन सर्वभयभञ्जन, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते कबलीकृतार्कमण्डल भूतमण्डल प्रेतमण्डल पिशाचमण्डलान्निर्घाटय निर्घाटाय भूतज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर माहेश्वरज्वर भेतालज्वर ब्रह्मराक्षसज्वर ऐकाहिकज्वर द्व्याहिकज्वर त्र्याहिकज्वर चातुर्थिकज्वर पाञ्चरात्रिकज्वर विषमज्वर दोषज्वर ब्रह्मराक्षसज्वर भेतालपाश महानागकुलविषं निर्विषं कुरु कुरु झट झट दह दह, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते कालरुद्र रौद्रावतार सर्वग्रहानुच्चाटयोच्चाटय आह आह एहि एहि दशदिशो बन्ध बन्ध सर्वतो रक्ष रक्ष सर्वशत्रून् कम्पय कम्पय मारय मारय दाहय दाहय कबलय कबलय सर्वजनानावेशय आवेशय मोहय मोहय आकर्षय आकर्षय, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते जगद्गीतकीर्तये प्रत्यर्थिदर्प दलनाय परमन्त्रदर्प दलनाय परमन्त्रप्राणनाशाय आत्ममन्त्र परिरक्षणाय परबलं खादय खादय क्षोभय क्षोभय हारय हारय त्वद्भक्त मनोरथानि पूरय पूरय सकलसञ्जीविनीनायक वरं मे दापय दापय, ॐ नमो भगवते पञ्चवक्त्र हनूमते ॐ ह्रौं क्ष्रौं ग्लौं हुं ह्सौं श्रीं भ्रीं घ्रीं ॐ न्रूं क्लीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हुं फट् खे खे हुं फट् स्वाहा । इति श्री पञ्चमुख हनुमन्माला मन्त्रम् ॥

    Aditya Hridayam (आदित्य हृदयम्)

    आदित्य हृदयम् (Aditya Hridayam) ध्यानम् नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसे जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे विरिञ्चि नारायण शङ्करात्मने ततो युद्ध परिश्रान्तं समरे चिन्तयास्थितम् । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥ 1 ॥ दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपागम्याब्रवीद्रामं अगस्त्यो भगवान् ऋषिः ॥ 2 ॥ राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम् । येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ॥ 3 ॥ आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रु-विनाशनम् । जयावहं जपेन्नित्यं अक्षय्यं परमं शिवम् ॥ 4 ॥ सर्वमङ्गल-माङ्गल्यं सर्वपाप-प्रणाशनम् । चिन्ताशोक-प्रशमनं आयुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ 5 ॥ रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुर नमस्कृतम् । पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥ 6 ॥ सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः । एष देवासुर-गणान् लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥ 7 ॥ एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः । महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥ 8 ॥ पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः । वायुर्वह्निः प्रजाप्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥ 9 ॥ आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् । सुवर्णसदृशो भानुः हिरण्यरेता दिवाकरः ॥ 10 ॥ हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्ति-र्मरीचिमान् । तिमिरोन्मथनः शम्भुः त्वष्टा मार्ताण्डकोंऽशुमान् ॥ 11 ॥ हिरण्यगर्भः शिशिरः तपनो भास्करो रविः । अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः ॥ 12 ॥ व्योमनाथ-स्तमोभेदी ऋग्यजुःसाम-पारगः । घनावृष्टिरपां मित्रः विन्ध्यवीथी प्लवङ्गमः ॥ 13 ॥ आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः । कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ॥ 14 ॥ नक्षत्र ग्रह ताराणां अधिपो विश्वभावनः । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्म-न्नमोऽस्तु ते ॥ 15 ॥ नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥ 16 ॥ जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः । नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥ 17 ॥ नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः । नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः ॥ 18 ॥ ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्य-वर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥ 19 ॥ तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नाया मितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥ 20 ॥ तप्त चामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभि निघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे ॥ 21 ॥ नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥ 22 ॥ एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः । एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्नि होत्रिणाम् ॥ 23 ॥ वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ॥ 24 ॥ फलश्रुतिः एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावशीदति राघव ॥ 25 ॥ पूजयस्वैन मेकाग्रः देवदेवं जगत्पतिम् । एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥ 26 ॥ अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि । एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम् ॥ 27 ॥ एतच्छ्रुत्वा महातेजाः नष्टशोकोऽभवत्तदा । धारयामास सुप्रीतः राघवः प्रयतात्मवान् ॥ 28 ॥ आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥ 29 ॥ रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत् । सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत् ॥ 30 ॥ अध रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः । निशिचरपति सङ्क्षयं विदित्वा सुरगण मध्यगतो वचस्त्वरेति ॥ 31 ॥ इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मिकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चाधिक शततमः सर्गः ॥

    Maha Saraswati Stavam (महा सरस्वती स्तवम्)

    महा सरस्वती स्तवम् (Maha Saraswati Stavam) अश्वतर उवाच । जगद्धात्रीमहं देवीमारिराधयिषुः शुभाम् । स्तोष्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम् ॥ 1 ॥ सदसद्देवि यत्किञ्चिन्मोक्षवच्चार्थवत्पदम् । तत्सर्वं त्वय्यसंयोगं योगवद्देवि संस्थितम् ॥ 2 ॥ त्वमक्षरं परं देवि यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् । अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत् ॥ 3 ॥ अक्षरं परमं ब्रह्म विश्वञ्चैतत्क्षरात्मकम् । दारुण्यवस्थितो वह्निर्भौमाश्च परमाणवः ॥ 4 ॥ तथा त्वयि स्थितं ब्रह्म जगच्चेदमशेषतः । ओङ्काराक्षरसंस्थानं यत्तु देवि स्थिरास्थिरम् ॥ 5 ॥ तत्र मात्रात्रयं सर्वमस्ति यद्देवि नास्ति च । त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रैविद्यं पावकत्रयम् ॥ 6 ॥ त्रीणि ज्योतींषि वर्णाश्च त्रयो धर्मागमास्तथा । त्रयो गुणास्त्रयः शब्दस्त्रयो वेदास्तथाश्रमाः ॥ 7 ॥ त्रयः कालास्तथावस्थाः पितरोऽहर्निशादयः । एतन्मात्रात्रयं देवि तव रूपं सरस्वति ॥ 8 ॥ विभिन्नदर्शिनामाद्या ब्रह्मणो हि सनातनाः । सोमसंस्था हविः संस्थाः पाकसंस्थाश्च सप्त याः ॥ 9 ॥ तास्त्वदुच्चारणाद्देवि क्रियन्ते ब्रह्मवादिभिः । अनिर्देश्यं तथा चान्यदर्धमात्रान्वितं परम् ॥ 10 ॥ अविकार्यक्षयं दिव्यं परिणामविवर्जितम् । तवैतत्परमं रूपं यन्न शक्यं मयोदितुम् ॥ 11 ॥ न चास्येन च तज्जिह्वा ताम्रोष्ठादिभिरुच्यते । इन्द्रोऽपि वसवो ब्रह्मा चन्द्रार्कौ ज्योतिरेव च ॥ 12 ॥ विश्वावासं विश्वरूपं विश्वेशं परमेश्वरम् । साङ्ख्यवेदान्तवादोक्तं बहुशाखास्थिरीकृतम् ॥ 13 ॥ अनादिमध्यनिधनं सदसन्न सदेव यत् । एकन्त्वनेकं नाप्येकं भवभेदसमाश्रितम् ॥ 14 ॥ अनाख्यं षड्गुणाख्यञ्च वर्गाख्यं त्रिगुणाश्रयम् । नानाशक्तिमतामेकं शक्तिवैभविकं परम् ॥ 15 ॥ सुखासुखं महासौख्यरूपं त्वयि विभाव्यते । एवं देवि त्वया व्याप्तं सकलं निष्कलञ्च यत् । अद्वैतावस्थितं ब्रह्म यच्च द्वैते व्यवस्थितम् ॥ 16 ॥ येऽर्था नित्या ये विनश्यन्ति चान्ये ये वा स्थूला ये च सूक्ष्मातिसूक्ष्माः । ये वा भूमौ येऽन्तरीक्षेऽन्यतो वा तेषां तेषां त्वत्त एवोपलब्धिः ॥ 17 ॥ यच्चामूर्तं यच्च मूर्तं समस्तं यद्वा भूतेष्वेकमेकञ्च किञ्चित् । यद्दिव्यस्ति क्ष्मातले खेऽन्यतो वा त्वत्सम्बन्धं त्वत्स्वरैर्व्यञ्जनैश्च ॥ 18 ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे त्रयोविंशोऽध्याये अश्वतर प्रोक्त महासरस्वती स्तवम् ।