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Narayaniyam Dashaka 71 (नारायणीयं दशक 71)
नारायणीयं दशक 71 (Narayaniyam Dashaka 71)
यत्नेषु सर्वेष्वपि नावकेशी केशी स भोजेशितुरिष्टबंधुः ।
त्वां सिंधुजावाप्य इतीव मत्वा संप्राप्तवान् सिंधुजवाजिरूपः ॥1॥
गंधर्वतामेष गतोऽपि रूक्षैर्नादैः समुद्वेजितसर्वलोकः ।
भवद्विलोकावधि गोपवाटीं प्रमर्द्य पापः पुनरापतत्त्वाम् ॥2॥
तार्क्ष्यार्पितांघ्रेस्तव तार्क्ष्य एष चिक्षेप वक्षोभुवि नाम पादम् ।
भृगोः पदाघातकथां निशम्य स्वेनापि शक्यं तदितीव मोहात् ॥3॥
प्रवंचयन्नस्य खुरांचलं द्रागमुंच चिक्षेपिथ दूरदूरम्
सम्मूर्च्छितोऽपि ह्यतिमूर्च्छितेन क्रोधोष्मणा खादितुमाद्रुतस्त्वाम् ॥4॥
त्वं वाहदंडे कृतधीश्च वाहादंडं न्यधास्तस्य मुखे तदानीम् ।
तद् वृद्धिरुद्धश्वसनो गतासुः सप्तीभवन्नप्ययमैक्यमागात् ॥5॥
आलंभमात्रेण पशोः सुराणां प्रसादके नूत्न इवाश्वमेधे ।
कृते त्वया हर्षवशात् सुरेंद्रास्त्वां तुष्टुवुः केशवनामधेयम् ॥6॥
कंसाय ते शौरिसुतत्वमुक्त्वा तं तद्वधोत्कं प्रतिरुध्य वाचा।
प्राप्तेन केशिक्षपणावसाने श्रीनारदेन त्वमभिष्टुतोऽभूः ॥7॥
कदापि गोपैः सह काननांते निलायनक्रीडनलोलुपं त्वाम् ।
मयात्मजः प्राप दुरंतमायो व्योमाभिधो व्योमचरोपरोधी ॥8॥
स चोरपालायितवल्लवेषु चोरायितो गोपशिशून् पशूंश्च
गुहासु कृत्वा पिदधे शिलाभिस्त्वया च बुद्ध्वा परिमर्दितोऽभूत् ॥9॥
एवं विधैश्चाद्भुतकेलिभेदैरानंदमूर्च्छामतुलां व्रजस्य ।
पदे पदे नूतनयन्नसीमां परात्मरूपिन् पवनेश पायाः ॥10॥
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