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Narayaniyam Dashaka 12 (नारायणीयं दशक 12)
नारायणीयं दशक 12 (Narayaniyam Dashaka 12)
स्वायंभुवो मनुरथो जनसर्गशीलो
दृष्ट्वा महीमसमये सलिले निमग्नाम् ।
स्रष्टारमाप शरणं भवदंघ्रिसेवा-
तुष्टाशयं मुनिजनैः सह सत्यलोके ॥1॥
कष्टं प्रजाः सृजति मय्यवनिर्निमग्ना
स्थानं सरोजभव कल्पय तत् प्रजानाम् ।
इत्येवमेष कथितो मनुना स्वयंभूः -
रंभोरुहाक्ष तव पादयुगं व्यचिंतीत् ॥ 2 ॥
हा हा विभो जलमहं न्यपिबं पुरस्ता-
दद्यापि मज्जति मही किमहं करोमि ।
इत्थं त्वदंघ्रियुगलं शरणं यतोऽस्य
नासापुटात् समभवः शिशुकोलरूपी ।3॥
अंगुष्ठमात्रवपुरुत्पतितः पुरस्तात्
भोयोऽथ कुंभिसदृशः समजृंभथास्त्वम् ।
अभ्रे तथाविधमुदीक्ष्य भवंतमुच्चै -
र्विस्मेरतां विधिरगात् सह सूनुभिः स्वैः ॥4॥
कोऽसावचिंत्यमहिमा किटिरुत्थितो मे
नासापुटात् किमु भवेदजितस्य माया ।
इत्थं विचिंतयति धातरि शैलमात्रः
सद्यो भवन् किल जगर्जिथ घोरघोरम् ॥5॥
तं ते निनादमुपकर्ण्य जनस्तपःस्थाः
सत्यस्थिताश्च मुनयो नुनुवुर्भवंतम् ।
तत्स्तोत्रहर्षुलमनाः परिणद्य भूय-
स्तोयाशयं विपुलमूर्तिरवातरस्त्वम् ॥6॥
ऊर्ध्वप्रसारिपरिधूम्रविधूतरोमा
प्रोत्क्षिप्तवालधिरवाङ्मुखघोरघोणः ।
तूर्णप्रदीर्णजलदः परिघूर्णदक्ष्णा
स्तोतृन् मुनीन् शिशिरयन्नवतेरिथ त्वम् ॥7॥
अंतर्जलं तदनुसंकुलनक्रचक्रं
भ्राम्यत्तिमिंगिलकुलं कलुषोर्मिमालम् ।
आविश्य भीषणरवेण रसातलस्था -
नाकंपयन् वसुमतीमगवेषयस्त्वम् ॥8॥
दृष्ट्वाऽथ दैत्यहतकेन रसातलांते
संवेशितां झटिति कूटकिटिर्विभो त्वम् ।
आपातुकानविगणय्य सुरारिखेटान्
दंष्ट्रांकुरेण वसुधामदधाः सलीलम् ॥9॥
अभ्युद्धरन्नथ धरां दशनाग्रलग्न
मुस्तांकुरांकित इवाधिकपीवरात्मा ।
उद्धूतघोरसलिलाज्जलधेरुदंचन्
क्रीडावराहवपुरीश्वर पाहि रोगात् ॥10॥
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