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Narayaniyam Dashaka 26 (नारायणीयं दशक 26)
नारायणीयं दशक 26 (Narayaniyam Dashaka 26)
इंद्रद्युम्नः पांड्यखंडाधिराज-
स्त्वद्भक्तात्मा चंदनाद्रौ कदाचित् ।
त्वत् सेवायां मग्नधीरालुलोके
नैवागस्त्यं प्राप्तमातिथ्यकामम् ॥1॥
कुंभोद्भूतिः संभृतक्रोधभारः
स्तब्धात्मा त्वं हस्तिभूयं भजेति ।
शप्त्वाऽथैनं प्रत्यगात् सोऽपि लेभे
हस्तींद्रत्वं त्वत्स्मृतिव्यक्तिधन्यम् ॥2॥
दग्धांभोधेर्मध्यभाजि त्रिकूटे
क्रीडंछैले यूथपोऽयं वशाभिः ।
सर्वान् जंतूनत्यवर्तिष्ट शक्त्या
त्वद्भक्तानां कुत्र नोत्कर्षलाभः ॥3॥
स्वेन स्थेम्ना दिव्यदेशत्वशक्त्या
सोऽयं खेदानप्रजानन् कदाचित् ।
शैलप्रांते घर्मतांतः सरस्यां
यूथैस्सार्धं त्वत्प्रणुन्नोऽभिरेमे ॥4॥
हूहूस्तावद्देवलस्यापि शापात्
ग्राहीभूतस्तज्जले बर्तमानः ।
जग्राहैनं हस्तिनं पाददेशे
शांत्यर्थं हि श्रांतिदोऽसि स्वकानाम् ॥5॥
त्वत्सेवाया वैभवात् दुर्निरोधं
युध्यंतं तं वत्सराणां सहस्रम् ।
प्राप्ते काले त्वत्पदैकाग्र्यसिध्यै
नक्राक्रांतं हस्तिवर्यं व्यधास्त्वम् ॥6॥
आर्तिव्यक्तप्राक्तनज्ञानभक्तिः
शुंडोत्क्षिप्तैः पुंडरीकैः समर्चन् ।
पूर्वाभ्यस्तं निर्विशेषात्मनिष्ठं
स्तोत्रं श्रेष्ठं सोऽन्वगादीत् परात्मन् ॥7॥
श्रुत्वा स्तोत्रं निर्गुणस्थं समस्तं
ब्रह्मेशाद्यैर्नाहमित्यप्रयाते ।
सर्वात्मा त्वं भूरिकारुण्यवेगात्
तार्क्ष्यारूढः प्रेक्षितोऽभूः पुरस्तात् ॥8॥
हस्तींद्रं तं हस्तपद्मेन धृत्वा
चक्रेण त्वं नक्रवर्यं व्यदारीः ।
गंधर्वेऽस्मिन् मुक्तशापे स हस्ती
त्वत्सारूप्यं प्राप्य देदीप्यते स्म ॥9॥
एतद्वृत्तं त्वां च मां च प्रगे यो
गायेत्सोऽयं भूयसे श्रेयसे स्यात् ।
इत्युक्त्वैनं तेन सार्धं गतस्त्वं
धिष्ण्यं विष्णो पाहि वातालयेश ॥10॥
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