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Narayaniyam Dashaka 52 (नारायणीयं दशक 52)
नारायणीयं दशक 52 (Narayaniyam Dashaka 52)
अन्यावतारनिकरेष्वनिरीक्षितं ते
भूमातिरेकमभिवीक्ष्य तदाघमोक्षे ।
ब्रह्मा परीक्षितुमनाः स परोक्षभावं
निन्येऽथ वत्सकगणान् प्रवितत्य मायाम् ॥1॥
वत्सानवीक्ष्य विवशे पशुपोत्करे ता-
नानेतुकाम इव धातृमतानुवर्ती ।
त्वं सामिभुक्तकबलो गतवांस्तदानीं
भुक्तांस्तिरोऽधित सरोजभवः कुमारान् ॥2॥
वत्सायितस्तदनु गोपगणायितस्त्वं
शिक्यादिभांडमुरलीगवलादिरूपः ।
प्राग्वद्विहृत्य विपिनेषु चिराय सायं
त्वं माययाऽथ बहुधा व्रजमाययाथ ॥3॥
त्वामेव शिक्यगवलादिमयं दधानो
भूयस्त्वमेव पशुवत्सकबालरूपः ।
गोरूपिणीभिरपि गोपवधूमयीभि-
रासादितोऽसि जननीभिरतिप्रहर्षात् ॥4॥
जीवं हि कंचिदभिमानवशात्स्वकीयं
मत्वा तनूज इति रागभरं वहंत्यः ।
आत्मानमेव तु भवंतमवाप्य सूनुं
प्रीतिं ययुर्न कियतीं वनिताश्च गावः ॥5॥
एवं प्रतिक्षणविजृंभितहर्षभार-
निश्शेषगोपगणलालितभूरिमूर्तिम् ।
त्वामग्रजोऽपि बुबुधे किल वत्सरांते
ब्रह्मात्मनोरपि महान् युवयोर्विशेषः ॥6॥
वर्षावधौ नवपुरातनवत्सपालान्
दृष्ट्वा विवेकमसृणे द्रुहिणे विमूढे ।
प्रादीदृशः प्रतिनवान् मकुटांगदादि
भूषांश्चतुर्भुजयुजः सजलांबुदाभान् ॥7॥
प्रत्येकमेव कमलापरिलालितांगान्
भोगींद्रभोगशयनान् नयनाभिरामान् ।
लीलानिमीलितदृशः सनकादियोगि-
व्यासेवितान् कमलभूर्भवतो ददर्श ॥8॥
नारायणाकृतिमसंख्यतमां निरीक्ष्य
सर्वत्र सेवकमपि स्वमवेक्ष्य धाता ।
मायानिमग्नहृदयो विमुमोह याव-
देको बभूविथ तदा कबलार्धपाणिः ॥9॥
नश्यन्मदे तदनु विश्वपतिं मुहुस्त्वां
नत्वा च नूतवति धातरि धाम याते ।
पोतैः समं प्रमुदितैः प्रविशन् निकेतं
वातालयाधिप विभो परिपाहि रोगात् ॥10॥
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