No festivals today or in the next 14 days. 🎉

संत पंचमी पर मां सरस्वती की प्रतिमा स्थापना के शुभ नियम और विधि: पाएं मां शारदा का पूर्ण आशीर्वाद

Basant Panchami 2025: बसंत पंचमी के दिन Goddess Saraswati की पूजा का विशेष महत्व है। इस दिन मां Saraswati की प्रतिमा को घर में स्थापित करते समय Vastu Shastra के कुछ नियमों का पालन करना चाहिए।
मां Saraswati की प्रतिमा स्थापित करने का महत्व
मां Saraswati wisdom, music और arts की देवी हैं। इनकी पूजा करने से intelligence में वृद्धि होती है और जीवन में success मिलती है। Vastu Shastra के अनुसार, मां Saraswati की प्रतिमा को सही direction में स्थापित करने से घर में positive energy का संचार होता है और व्यक्ति को auspicious results प्राप्त होते हैं।
मां Saraswati की प्रतिमा कहाँ स्थापित करें?
मां Saraswati की प्रतिमा को घर में तीन directions में स्थापित किया जा सकता है:
1. East Direction: East direction सूर्योदय की दिशा होती है। Sun को knowledge और energy का स्रोत माना जाता है। East direction में मां Saraswati की प्रतिमा स्थापित करने से व्यक्ति के knowledge में वृद्धि होती है। अगर इस direction में students मुख करके study करते हैं, तो उन्हें हमेशा success मिलती है।
N2. orth Direction: North direction को peace, knowledge और prosperity की Goddess Lakshmi का स्थान माना जाता है। North direction में मां Saraswati की प्रतिमा स्थापित करने से व्यक्ति के जीवन में prosperity आती है।
3. North-East Direction: North-East direction को Vastu Shastra में wisdom, intelligence और creativity का केंद्र माना जाता है। इस दिशा में मां Saraswati की प्रतिमा स्थापित करने से students को studies में success मिलती है।
इन वास्तु नियमों का पालन करके Goddess Saraswati की प्रतिमा स्थापना करें और उनके blessings से जीवन में positivity, success और prosperity प्राप्त करें।
मां Saraswati की प्रतिमा स्थापित करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
1. White Color: Goddess Saraswati को white color बहुत प्रिय है। इसलिए उनकी प्रतिमा white color की होनी चाहिए, जो purity और knowledge का प्रतीक है।
2. Musical Instrument: मां Saraswati के हाथ में वीणा होती है। आप उनकी प्रतिमा के पास Veena या कोई अन्य musical instrument रख सकते हैं। यह उनकी creativity और harmony का प्रतीक है।
3. Books: Goddess Saraswati ज्ञान की देवी हैं। इसलिए उनकी प्रतिमा के पास books रखना शुभ माना जाता है। यह wisdom और learning का प्रतीक है।
4. Cleanliness: मां Saraswati की प्रतिमा को हमेशा clean रखें। यह purity और positivity को बढ़ाता है।
5. Lamp (Diya): प्रतिदिन शाम को मां Saraswati के सामने ghee का diya जलाएं। यह positivity और divine blessings का स्रोत है।
मां Saraswati की प्रतिमा को सही direction (East, North या North-East) में स्थापित करने से घर में positive energy का संचार होता है और व्यक्ति को auspicious results प्राप्त होते हैं। Basant Panchami के दिन मां Saraswati की पूजा करने से life में happiness, prosperity और success प्राप्त होती है।

Related Blogs

Shri Shani Chalisha (1) (श्री शनि चालीसा )

शनि चालीसा एक भक्ति गीत है जो भगवान शनिदेव पर आधारित है। शनि चालीसा एक लोकप्रिय प्रार्थना है जो 40 छन्दों से बनी है। कई लोग शनि जयन्ती पर और शनिवार, जो दिन भगवान शनि की पूजा करने के लिए समर्पित है, के दिन भी शनि चालीसा का पाठ करते हैं। Shani Chalisa का नियमित जाप protection from negative energy और spiritual peace प्राप्त करने का एक प्रभावी तरीका है। यह विशेष रूप से karma removal और blessings के लिए उपयोगी है।
Chalisa

Bhagavad Gita Tenth Chapter (भगवद गीता दसवाँ अध्याय)

भगवद गीता दसवाँ अध्याय "विभूति योग" कहलाता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि वे सृष्टि के हर उत्तम गुण, सत्य, और शक्ति के आधार हैं। यह अध्याय "ईश्वर की महानता", "दिव्य शक्तियों", और "ईश्वर के प्रति भक्ति" को विस्तार से समझाता है।
Bhagwat-Gita

Shri Surya Shatakam (श्री सूर्य शतकम्)

श्री सूर्य शतकम् (Shri Surya Shatakam) ॥ सूर्यशतकम् ॥ महाकविश्रीमयूरप्रणीतम् ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ जम्भारातीभकुम्भोद्भवमिव दधतः सान्द्रसिन्दूररेणुं रक्ताः सिक्ता इवौघैरुदयगिरितटीधातुधाराद्रवस्य । वर् सक्तैः आयान्त्या तुल्यकालं कमलवनरुचेवारुणा वो विभूत्यै भूयासुर्भासयन्तो भुवनमभिनवा भानवो भानवीयाः ॥ 1 ॥ भक्तिप्रह्वाय दातुं मुकुलपुटकुटीकोटरक्रोडलीनां लक्ष्मीमाक्रष्टुकामा इव कमलवनोद्धाटनं कुर्वते ये । कालाकारान्धकाराननपतितजगत्साध्वसध्वंसकल्याः कल्याणं वः क्रियासुः किसलयरुचयस्ते करा भास्करस्य ॥ 2 ॥ गर्भेष्वम्भोरुहाणां शिखरिषु च शिताग्रेषु तुल्यं पतन्तः प्रारम्भे वासरस्य व्युपरतिसमये चैकरूपास्तथैव । निष्पर्यायं प्रवृत्तास्त्रिभुवनभवनप्राङ्गणे पान्तु युष्मा- नूष्माणं सन्तताध्वश्रमजमिव भृशं बिभ्रतो ब्रध्नपादाः ॥ 3 ॥ प्रभ्रश्यत्युत्तरीयत्विषि तमसि समुद्दीक्ष्य वीतावृतीन्प्रा- ग्जन्तूंस्तन्तून्यथा यानतनु वितनुते तिग्मरोचिर्मरीचीन् । ते सान्द्रीभूय सद्यः क्रमविशददशाशादशालीविशालं शश्वत्सम्पादयन्तोऽम्बरममलमलं मङ्गलं वो दिशन्तु ॥ 4 ॥ न्यक्कुर्वन्नोषधीशे मुषितरुचि शुचेवौषधीः प्रोषिताभा भास्वद्ग्रावोद्गतेन प्रथममिव कृताभ्युद्गतिः पावकेन । पक्षच्छेदव्रणासृक्स्रुत इव दृषदो दर्शयन्प्रातरद्रे- राताम्रस्तीव्रभानोरनभिमतनुदे स्ताद्गभस्त्युद्गमो वः ॥ 5 ॥ शीर्णघ्राणाङ्घ्रिपाणीन्व्रणिभिरपघनैर्घर्घराव्यक्तघोषान् दीर्घाघ्रातानघौघै पुनरपि घटयत्येक उल्लाघयन् यः । घर्मांशोस्तस्य वोऽन्तर्द्विगुणघनघृणानिघ्ननिर्विघ्नवृत्ते- र्दत्तार्घाः सिद्धसङ्घैर्विदधतु घृणयः शीघ्रमंहोविधातम् ॥ 6 ॥ बिभ्राणा वामनत्वं प्रथममथ तथैवांशवः प्रांशवो वः क्रान्ताकाशान्तरालास्तदनु दशदिशः पूरयन्तस्ततोऽपि । ध्वान्तादाच्छिद्य देवद्विष इव बलितो विश्वमाश्वश्नुवानाः वर् देवद्रुह कृच्छ्राण्युच्छ्रायहेलोपहसितहरयो हारिदश्वा हरन्तु ॥ 7 ॥ उद्गाढेनारुणिम्ना विदधति बहुलं येऽरुणस्यारुणत्वं मूर्धोद्धूतौ खलीनक्षतरुधिररुचो ये रथाश्वाननेषु । शैलानां शेखरत्वं श्रितशिखरिशिखास्तन्वते ये दिशन्तु वर् शिखरशिखाः प्रेङ्खन्तः खे खरांशोः खचितदिनमुखास्ते मयूखाः सुखं वः ॥ 8 ॥ दत्तानन्दाः प्रजानां समुचितसमयाकृष्टसृष्टैः पयोभिः वर् अक्लिष्टसृष्टैः पूर्वाह्णे विप्रकीर्णा दिशि दिशि विरमत्यह्नि संहारभाजः । दीप्तांशोर्दीर्घदुःखप्रभवभवभयोदन्वदुत्तारनावो गावो वः पावनानां परमपरिमितां प्रीतिमुत्पादयन्तु ॥ 9 ॥ बन्धध्वंसैकहेतुं शिरसि नतिरसाबद्धसन्ध्याञ्जलीनां लोकानां ये प्रबोधं विदधति विपुलाम्भोजखण्डाशयेव । युष्माकं ते स्वचित्तप्रथितपृथुतरप्रार्थनाकल्पवृक्षाः वर् प्रथिम कल्पन्तां निर्विकल्पं दिनकरकिरणाः केतवः कल्मषस्य ॥ 10 ॥ धारा रायो धनायापदि सपदि करालम्बभूताः प्रपाते तत्त्वालोकैकदीपास्त्रिदशपतिपुरप्रस्थितौ वीथ्य एव । निर्वाणोद्योगियोगिप्रगमनिजतनुद्वारि वेत्रायमाणा- स्त्रायन्तां तीव्रभानोर्दिवसमुखसुखा रश्मयः कल्मषाद्वः ॥ 11 ॥ वर् तीव्रभासः वर् कश्मलाद्वः प्राचि प्रागाचरन्त्योऽनतिचिरमचले चारुचूडामणित्वं मुञ्चन्त्यो रोचनाम्भः प्रचुरमिव दिशामुच्चकैश्चर्चनाय । चाटूत्कैश्चक्रनाम्नां चतुरमविचलैर्लोचनैरर्च्यमाना- वर् सुचिरं श्चेष्टन्तां चिन्तितानामुचितमचरमाश्चण्डरोचीरुचो वः ॥ 12 ॥ एकं ज्योतिर्दृशौ द्वे त्रिजगति गदितान्यब्जजास्यैश्चतुर्भि- र्भूतानां पञ्चमं यान्यलमृतुषु तथा षट्सु नानाविधानि । युष्माकं तानि सप्तत्रिदशमुनिनुतान्यष्टदिग्भाञ्जि भानो- र्यान्ति प्राह्णे नवत्वं दश दधतु शिवं दीधितीनां शतानि ॥ 13 ॥ वर् ददतु आवृत्तिभ्रान्तविश्वाः श्रममिव दधतः शोषिणः स्वोष्मणेव ग्रीष्मे दावाग्नितप्ता इव रसमसकृद्ये धरित्र्या धयन्ति । ते प्रावृष्यात्तपानातिशयरुज इवोद्वान्ततोया हिमर्तौ मार्तण्डस्याप्रचण्डाश्चिरमशुभभिदेऽभीषवो वो भवन्तु ॥ 14 ॥ तन्वाना दिग्वधूनां समधिकमधुरालोकरम्यामवस्था- मारुढप्रौढिलेशोत्कलितकपिलिमालङ्कृतिः केवलैव । उज्जृम्भाम्भोजनेत्रद्युतिनि दिनमुखे किञ्चिदुद्भिद्यमाना श्मश्रुश्रेणीव भासां दिशतु दशशती शर्म घर्मत्विषो वः ॥ 15 ॥ मौलीन्दोर्मैष मोषीद्द्युतिमिति वृषभाङ्केन यः शङ्किनेव प्रत्यग्रोद्घाटिताम्भोरुहकुहरगुहासुस्थितेनेव धात्रा । कृष्णेन ध्वान्तकृष्णस्वतनुपरिभवत्रस्नुनेव स्तुतोऽलं त्राणाय स्तात्तनीयानपि तिमिररिपोः स त्विषामुद्गमो वः ॥ 16 ॥ विस्तीर्णं व्योम दीर्घाः सपदि दश दिशो व्यस्तवेलाम्भसोऽब्धीन् कुर्वद्भिर्दृश्यनानानगनगरनगाभोगपृथ्वीं च पृथ्वीम् । पद्मिन्युच्छ्वास्यते यैरुषसि जगदपि ध्वंसयित्वा तमिस्रा- मुस्रा विस्रंसयन्तु द्रुतमनभिमतं ते सहस्रत्विषो वः ॥ 17 ॥ वर् विस्रावयन्तु अस्तव्यस्तत्वशून्यो निजरुचिरनिशानश्वरः कर्तुमीशो विश्वं वेश्मेव दीपः प्रतिहततिमिरं यः प्रदेशस्थितोऽपि । दिक्कालापेक्षयासौ त्रिभुवनमटतस्तिग्मभानोर्नवाख्यां यातः शातक्रतव्यां दिशि दिशतु शिवं सोऽर्चिषामुद्गमो वः ॥ 18 ॥ मागान्म्लानिं मृणाली मृदुरिति दययेवाप्रविष्टोऽहिलोकं लोकालोकस्य पार्श्वं प्रतपति न परं यस्तदाख्यार्थमेव । ऊर्ध्वं ब्रह्माण्डखण्डस्फुटनभयपरित्यक्तदैर्घ्यो द्युसीम्नि स्वेछावश्यावकाशावधिरवतु स वस्तापनो रोचिरोघः ॥ 19 ॥ अश्यामः काल एको न भवति भुवनान्तोऽपि वीतेऽन्धकारे वर् वीतान्धकारः सद्यः प्रालेयपादो न विलयमचलश्चन्द्रमा अप्युपैति । बन्धः सिद्धाञ्जलीनां न हि कुमुदवनस्यापि यत्रोज्जिहाने तत्प्रातः प्रेक्षणीयं दिशतु दिनपतेर्धाम कामाधिकं वः ॥ 20 ॥ यत्कान्तिं पङ्कजानां न हरति कुरुते प्रत्युताधिक्यरम्यां वर् प्रत्युतातीव रम्यां नो धत्ते तारकाभां तिरयति नितरामाशु यन्नित्यमेव । वर् नाधत्ते कर्तुं नालं निमेषं दिवसमपि परं यत्तदेकं त्रिलोक्या- श्चक्षुः सामान्यचक्षुर्विसदृशमघभिद्भास्वतस्तान्महो वः ॥ 21 ॥ क्ष्मां क्षेपीयः क्षपाम्भःशिशिरतरजलस्पर्शतर्षादृतेव द्रागाशा नेतुमाशाद्विरदकरसरःपुष्कराणीव बोधम् । प्रातः प्रोल्लङ्घ्य विष्णोः पदमपि घृणयेवातिवेगाद्दवीय- स्युद्दाम द्योतमाना दहतु दिनपतेर्दुर्निमित्तं द्युतिर्वः ॥ 22 ॥ नो कल्पापायवायोरदयरयदलत्क्ष्माधरस्यापि गम्या वर् शम्या गाढोद्गीर्णोज्ज्वलश्रीरहनि न रहिता नो तमःकज्जलेन । प्राप्तोत्पत्तिः पतङ्गान्न पुनरुपगता मोषमुष्णत्विषो वो वर्तिः सैवान्यरूपा सुखयतु निखिलद्वीपदीपस्य दीप्तिः ॥ 23 ॥ निःशेषाशावपूरप्रवणगुरुगुणश्लाघनीयस्वरूपा पर्याप्तं नोदयादौ दिनगमसमयोपप्लवेऽप्युन्नतैव । अत्यन्तं यानभिज्ञा क्षणमपि तमसा साकमेकत्र वस्तुं ब्रध्नस्येद्धा रुचिर्वो रुचिरिव रुचितस्याप्तये वस्तुनोस्तु ॥ 24 ॥ वर् चिरुरस्य, रुचिरस्य विभ्राणः शक्तिमाशु प्रशमितबलवत्तारकौर्जित्यगुर्वीं कुर्वाणो लीलयाधः शिखिनमपि लसच्चन्द्रकान्तावभासम् । आदध्यादन्धकारे रतिमतिशयिनीमावहन्वीक्षणानां वर् आदेयादीक्षणानां बालो लक्ष्मीमपारामपर इव गुहोऽहर्पतेरातपो वः ॥ 25 ॥ ज्योत्स्नांशाकर्षपाण्डुद्युति तिमिरमषीशेषकल्माषमीष- ज्जृम्भोद्भूतेन पिङ्गं सरसिजरजसा सन्ध्यया शोणशोचिः । प्रातःप्रारम्भकाले सकलमपि जगच्चित्रमुन्मीलयन्ती कान्तिस्तीक्ष्णत्विषोऽक्ष्णां मुदमुपनयतात्तूलिकेवातुलां वः ॥ 26 ॥ आयान्ती किं सुमेरोः सरणिररुणिता पाद्मरागैः परागै- राहोस्वित्स्वस्य माहारजनविरचिता वैजयन्ती रथस्य । माञ्जिष्ठी प्रष्ठवाहावलिविधुतशिरश्चामराली नु लोकै- वर् चामरालीव राशङ्क्यालोकितैवं सवितुरघनुदे स्तात्प्रभातप्रभा वः ॥ 27 ॥ ध्वान्तध्वंसं विधत्ते न तपति रुचिमन्नातिरूपं व्यनक्ति न्यक्त्वं नीत्वापि नक्तं न वितरतितरां तावदह्नस्त्विषं यः । वर् न्यक्तामह्नि स प्रातर्मा विरंसीदसकलपटिमा पूरयन्युष्मदाशा- माशाकाशावकाशावतरणतरुणप्रक्रमोऽर्कप्रकाशः ॥ 28 ॥ तीव्रं निर्वाणहेतुर्यदपि च विपुलं यत्प्रकर्षेण चाणु प्रत्यक्षं यत्परोक्षं यदिह यदपरं नश्वरं शाश्वतं च । यत्सर्वस्य प्रसिद्धं जगति कतिपये योगिनो यद्विदन्ति ज्योतिस्तद्द्विप्रकारं सवितुरवतु वो बाह्यमाभ्यन्तरं च ॥ 29 ॥ रत्नानां मण्डनाय प्रभवति नियतोद्देशलब्धावकाशं वह्नेर्दार्वादि दग्धुं निजजडिमतया कर्तुमानन्दमिन्दोः । यच्च त्रैलोक्यभूषाविधिरघदहनं ह्लादि वृष्ट्याशु तद्वो वर् यत्तु बाहुल्योत्पाद्यकार्याधिकतरमवतादेकमेवार्कतेजः ॥ 30 ॥ मीलच्चक्षुर्विजिह्मश्रुति जडरसनं निघ्नितघ्राणवृत्ति स्वव्यापाराक्षमत्वक्परिमुषितमनः श्वासमात्रावशेषम् । विस्रस्ताङ्गं पतित्वा स्वपदपहरतादश्रियं वोऽर्कजन्मा वर् अप्रियं कालव्यालावलीढं जगदगद इवोत्थापयन्प्राक्प्रतापः ॥ 31 ॥ निःशेषं नैशमम्भः प्रसभमपनुदन्नश्रुलेशानुकारि स्तोकस्तोकापनीतारुणरुचिरचिरादस्तदोषानुषङ्गः । दाता दृष्टिं प्रसन्नां त्रिभुवननयनस्याशु युष्मद्विरुद्धं वध्याद्ब्रध्नस्य सिद्धाञ्जनविधिरपरः प्राक्तनोऽर्चिःप्रचारः ॥ 32 ॥ भूत्वा जम्भस्य भेत्तुः ककुभि परिभवारम्भभूः शुभ्रभानो- वर् स्थित्वा र्बिभ्राणा बभ्रुभावं प्रसभमभिनवाम्भोजजृम्भाप्रगल्भा । भूषा भूयिष्ठशोभा त्रिभुवनभवनस्यास्य वैभाकरी प्राग्- विभ्रान्ता भ्राजमाना विभवतु विभवोद्भूतये सा विभा वः ॥ 33 ॥ वर् निर्भान्ति, विभ्रान्ति संसक्तं सिक्तमूलादभिनवभुवनोद्यानकौतूहलिन्या यामिन्या कन्ययेवामृतकरकलशावर्जितेनामृतेन । अर्कालोकः क्रियाद्वो मुदमुदयशिरश्चक्रवालालवाला- दुद्यन्बालप्रवालप्रतिमरुचिरहःपादपप्राक्प्ररोहः ॥ 34 ॥ भिन्नं भासारुणस्य क्वचिदभिनवया विद्रुमाणां त्विषेव त्वङ्न्नक्षत्ररत्नद्युतिनिकरकरालान्तरालं क्वचिच्च । नान्तर्निःशेषकृष्णश्रियमुदधिमिव ध्वान्तराशिं पिबन्स्ता- दौर्वः पूर्वोऽप्यपूर्वोऽग्निरिव भवदघप्लुष्टयेऽर्कावभासः ॥ 35 ॥ गन्धर्वैर्गद्यपद्यव्यतिकरितवचोहृद्यमातोद्यवाद्यै- राद्यैर्यो नारदाद्यैर्मुनिभिरभिनुतो वेदवेद्यैर्विभिद्य । वर् वीतवेद्यैर्विविद्य, वेदविद्भिर्विभिद्य आसाद्यापद्यते यं पुनरपि च जगद्यौवनं सद्य उद्य- न्नुद्द्योतो द्योतितद्यौर्द्यतु दिवसकृतोऽसाववद्यानि वोऽद्य ॥ 36 ॥ आवानैश्चन्द्रकान्तैश्च्युततिमिरतया तानवात्तारकाणा- वर् आवान्तैः मेणाङ्कालोकलोपादुपहतमहसामोषधीनां लयेन । आरादुत्प्रेक्ष्यमाणा क्षणमुदयतटान्तर्हितस्याहिमांशो- राभा प्राभातिकी वोऽवतु न तु नितरां तावदाविर्भवन्ती ॥ 37 ॥ सानौ सा नौदये नारुणितदलपुनर्यौवनानां वनाना- वर् लसद्यौवनानां मालीमालीढपूर्वा परिहृतकुहरोपान्तनिम्ना तनिम्ना । भा वोऽभावोपशान्तिं दिशतु दिनपतेर्भासमाना समाना- राजी राजीवरेणोः समसमयमुदेतीव यस्या वयस्या ॥ 38 ॥ उज्जृम्भाम्भोरुहाणां प्रभवति पयसां या श्रिये नोष्णतायै पुष्णात्यालोकमात्रं न तु दिशति दृशां दृश्यमाना विधातम् । पूर्वाद्रेरेव पूर्वं दिवमनु च पुनः पावनी दिङ्मुखाना- वर् ततः मेनांस्यैनी विभासौ नुदतु नुतिपदैकास्पदं प्राक्तनी वः ॥ 39 ॥ वाचां वाचस्पतेरप्यचलभिदुचिताचार्यकाणां प्रपञ्चै- र्वैरञ्चानां तथोच्चारितचतुरृचां चाननानां चतुर्णाम् । वर् रुचिर उच्येतार्चासु वाच्यच्युतिशुचिचरितं यस्य नोच्चैर्विविच्य वर् अर्चास्ववाच्य प्राच्यं वर्चश्चकासच्चिरमुपचिनुतात्तस्य चण्डार्चिषो वः ॥ 40 ॥ वर् श्रियं मूर्ध्न्यद्रेर्धातुरागस्तरुषु किसलयो विद्रुमौघः समुद्रे वर् – किसलयाद्विद्रुमौघात्समुद्रे दिङ्मातङ्गोत्तमाङ्गेष्वभिनवनिहितः सान्द्रसिन्दूररेणुः । वर् विहितः, निहितात्सन्द्रसिन्दूररेणोः सीम्नि व्योम्नश्च हेम्नः सुरशिखरिभुवो जायते यः प्रकाशः शोणिम्नासौ खरांशोरुषसि दिशतु वः शर्म शोभैकदेशः ॥ 41 ॥ अस्ताद्रीशोत्तमाङ्गे श्रितशशिनि तमःकालकूटे निपीते याति व्यक्तिं पुरस्तादरुणकिसलये प्रत्युषःपारिजाते । उद्यन्त्यारक्तपीताम्बरविशदतरोद्वीक्षिता तीक्ष्णभानो- वर् रुचिरतरोद्वीक्षिता वर् तीव्रभासः र्लक्ष्मीर्लक्ष्मीरिवास्तु स्फुटकमलपुटापाश्रया श्रेयसे वः ॥ 42 ॥ वर् पुटोपाश्रय नोदन्वाञ्जन्मभूमिर्न तदुदरभुवो बान्धवाः कौस्तुभाद्या यस्याः पद्मं न पाणौ न च नरकरिपूरःस्थली वासवेश्म । तेजोरूपापरैव त्रिषु भुवनतलेष्वादधाना व्यवस्थां वर् त्रिभुवनभवने सा श्रीः श्रेयांसि दिश्यादशिशिरमहसो मण्डलाग्रोद्गता वः ॥ 43 ॥ ॥ इति द्युतिवर्णनम् ॥ वर् तेजोवर्णनम् ॥ अथ अश्ववर्णनम् ॥ रक्षन्त्वक्षुण्णहेमोपलपटलमलं लाघवादुत्पतन्तः पातङ्गाः पङ्ग्ववज्ञाजितपवनजवा वाजिनस्ते जगन्ति । येषां वीतान्यचिह्नोन्नयमपि वहतां मार्गमाख्याति मेरा- वुद्यन्नुद्दामदीप्तिर्द्युमणिमणिशिलावेदिकाजातवेदाः ॥ 44 ॥ प्लुष्टाः पृष्ठेंऽशुपातैरतिनिकटतया दत्तदाहातिरेकै- रेकाहाक्रान्तकृत्स्नत्रिदिवपथपृथुश्वासशोषाः श्रमेण । तीव्रोदन्यास्त्वरन्तामहितविहतये सप्तयः सप्तसप्ते- रभ्याशाकाशगङ्गाजलसरलगलावाङ्नताग्रानना वः ॥ 45 ॥ वर् गलवर्जिताग्राननाः मत्वान्यान्पार्श्वतोऽश्वान् स्फटिकतटदृषद्दृष्टदेहा द्रवन्ती व्यस्तेऽहन्यस्तसन्ध्येयमिति मृदुपदा पद्मरागोपलेषु । सादृश्यादृश्यमूर्तिर्मरकतकटके क्लिष्टसूता सुमेरो- र्मूर्धन्यावृत्तिलब्धध्रुवगतिरवतु ब्रध्नवाहावलिर्वः ॥ 46 ॥ वर् द्रुत हेलालोलं वहन्ती विषधरदमनस्याग्रजेनावकृष्टा स्वर्वाहिन्याः सुदूरं जनितजवजया स्यन्दनस्य स्यदेन । निर्व्याजं तायमाने हरितिमनि निजे स्फीतफेनाहितश्री- वर् स्फीतफेनास्मितश्रीः रश्रेयांस्यश्वपङ्क्तिः शमयतु यमुनेवापरा तापनी वः ॥ 47 ॥ मार्गोपान्ते सुमेरोर्नुवति कृतनतौ नाकधाम्नां निकाये वीक्ष्य व्रीडानतानां प्रतिकुहरमुखं किन्नरीणां मुखानि । सूतेऽसूयत्यपीषज्जडगति वहतां कन्धरार्धैर्वलद्भि- वर् कन्धराग्रैः र्वाहानां व्यस्यताद्वः सममसमहरेर्हेषितं कल्मषाणि ॥ 48 ॥ धुन्वन्तो नीरदालीर्निजरुचिहरिताः पार्श्वयोः पक्षतुल्या- स्तालूत्तानैः खलीनैः खचितमुखरुचश्च्योतता लोहितेन । उड्डीयेव व्रजन्तो वियति गतिवशादर्कवाहाः क्रियासुः क्षेमं हेमाद्रिहृद्यद्रुमशिखरशिरःश्रेणिशाखाशुका वः ॥ 49 ॥ ॥ इत्यश्ववर्णनम् ॥ ॥ अथ अरुणवर्णनम् ॥ प्रातः शैलाग्ररङ्गे रजनिजवनिकापायसंलक्ष्यलक्ष्मी- र्विक्षिप्तापूर्वपुष्पाञ्जलिमुडुनिकरं सूत्रधारायमाणः । यामेष्वङ्केष्विवाह्नः कृतरुचिषु चतुर्ष्वेव जातप्रतिष्ठा- वर् यातः प्रतिष्ठां मव्यात्प्रस्तावयन्वो जगदटनमहानाटिकां सूर्यसूतः ॥ 50 ॥ आक्रान्त्या वाह्यमानं पशुमिव हरिणा वाहकोऽग्र्यो हरीणां भ्राम्यन्तं पक्षपाताज्जगति समरुचिः सर्वकर्मैकसाक्षी । शत्रुं नेत्रश्रुतीनामवजयति वयोज्येष्ठभावे समेऽपि स्थाम्नां धाम्नां निधिर्यः स भवदघनुदे नूतनः स्तादनूरुः ॥ 51 ॥ दत्तार्घैर्दूरनम्रैर्वियति विनयतो वीक्षितः सिद्धसार्थैः वर् सिद्धसाध्यैः सानाथ्यं सारथिर्वः स दशशतरुचेः सातिरेकं करोतु । आपीय प्रातरेव प्रततहिमपयःस्यन्दिनीरिन्दुभासो यः काष्ठादीपनोऽग्रे जडित इव भृशं सेवते पृष्ठतोऽर्कम् ॥ 52 ॥ मुञ्चन्रश्मीन्दिनादौ दिनगमसमये संहरंश्च स्वतन्त्र- स्तोत्रप्रख्यातवीर्योऽविरतहरिपदाक्रान्तिबद्धाभियोगः । वर् वितत कालोत्कर्षाल्लघुत्वं प्रसभमधिपतौ योजयन्यो द्विजानां सेवाप्रीतेन पूष्णात्मसम इव कृतस्त्रायतां सोऽरुणो वः ॥ 53 ॥ वर् स्वसम शातः श्यामालतायाः परशुरिव तमोऽरण्यवह्नेरिवार्चिः वर् दाहे दवाभः प्राच्येवाग्रे ग्रहीतुं ग्रहकुमुदवनं प्रागुदस्तोऽग्रहस्तः । वर् प्राचीवाग्रे, ग्रहकुमुदरुचिं ऐक्यं भिन्दन्द्युभूम्योरवधिरिव विधातेव विश्वप्रबोधे वाहानां वो विनेता व्यपनयतु विपन्नाम धामाधिपस्य ॥ 54 ॥ पौरस्त्यस्तोयदर्तोः पवन इव पतत्पावकस्येव धूमो वर् पतन् विश्वस्येवादिसर्गः प्रणव इव परं पावनो वेदराशेः सन्ध्यानृत्योत्सवेच्छोरिव मदनरिपोर्नन्दिनान्दीनिनादः सौरस्याग्रे सुखं वो वितरतु विनतानन्दनः स्यन्दनस्य ॥ 55 ॥ वर् स्यन्दनो वः पर्याप्तं तप्तचामीकरकटकतटे श्लिष्टशीतेतरांशा- वासीदत्स्यन्दनाश्वानुकृतिमरकते पद्मरागायमाणः । वर् अश्वानुकृतमरकते यः सोत्कर्षां विभूषां कुरुत इव कुलक्ष्माभृदीशस्य मेरो- रेनांस्यह्नाय दूरं गमयतु स गुरुः काद्रवेयद्विषो वः ॥ 56 ॥ नीत्वाश्वान्सप्त कक्षा इव नियमवशं वेत्रकल्पप्रतोद- वर् कक्ष्या स्तूर्णं ध्वान्तस्य राशावितरजन इवोत्सारिते दूरभाजि । पूर्वं प्रष्ठो रथस्य क्षितिभृदधिपतीन्दर्शयंस्त्रायतां व- स्त्रैलोक्यास्थानदानोद्यतदिवसपतेः प्राक्प्रतीहारपालः ॥ 57 ॥ वज्रिञ्जातं विकासीक्षणकमलवनं भासि नाभासि वह्ने! वर् नो भासि तातं नत्वाश्वपार्श्वान्नय यम! महिषं राक्षसा वीक्षिताः स्थ । सप्तीन्सिञ्च प्रचेतः! पवन! भज जवं वित्तपावेदितस्त्वं वन्दे शर्वेति जल्पन्प्रतिदिशमधिपान्पातु पूष्णोऽग्रणीर्वः ॥ 58 ॥ पाशानाशान्तपालादरुण वरुणतो मा ग्रहीः प्रग्रहार्थं तृष्णां कृष्णस्य चक्रे जहिहि नहि रथो याति मे नैकचक्रः । योक्तुं युग्यं किमुच्चैःश्रवसमभिलषस्यष्टमं वृत्रशत्रो- वर् त्वाष्ट्रशत्रोः स्त्यक्तान्यापेक्षविश्वोपकृतिरिव रविः शास्ति यं सोऽवताद्वः ॥ 59 ॥ नो मूर्च्छाच्छिन्नवाञ्छः श्रमविवशवपुर्नैव नाप्यास्यशोषी पान्थः पथ्येतराणि क्षपयतु भवतां भास्वतोऽग्रेसरः सः । यः संश्रित्य त्रिलोकीमटति पटुतरैस्ताप्यमानो मयूखै- रारादारामलेखामिव हरितमणिश्यामलामश्वपङ्क्तिम् ॥ 60 ॥ वर् हरिततृण सीदन्तोऽन्तर्निमज्जज्जडखुरमुसलाः सैकते नाकनद्याः स्कन्दन्तः कन्दरालीः कनकशिखरिणो मेखलासु स्खलन्तः । दूरं दूर्वास्थलोत्का मरकतदृषदि स्थास्नवो यन्न याताः पूष्णोऽश्वाः पूरयंस्तैस्तदवतु जवनैर्हुङ्कृतेनाग्रगो वः ॥ 61 ॥ वर् प्रेरयन् हुङ्कृतैरग्रणीः ॥ इत्यरुणवर्णनम् ॥ वर् सूतवर्णनम् ॥ अथ रथवर्णनम् ॥ पीनोरःप्रेरिताभ्रैश्चरमखुरपुटाग्रस्थितैः प्रातरद्रा- वादीर्घाङ्गैरुदस्तो हरिभिरपगतासङ्गनिःशब्दचक्रः । उत्तानानूरुमूर्धावनतिहठभवद्विप्रतीपप्रणामः प्राह्णे श्रेयो विधत्तां सवितुरवतरन्व्योमवीथीं रथो वः ॥ 62 ॥ वर् प्रेयो ध्वान्तौघध्वंसदीक्षाविधिपटु वहता प्राक्सहस्रं कराणा- वर् विधिगुरु द्राक्सहस्रं मर्यम्णा यो गरिम्णः पदमतुलमुपानीयताध्यासनेन । स श्रान्तानां नितान्तं भरमिव मरुतामक्षमाणां विसोढुं स्कन्धात्स्कन्धं व्रजन्वो वृजिनविजितये भास्वतः स्यन्दनोऽस्तु ॥ 63 ॥ योक्त्रीभूतान्युगस्य ग्रसितुमिव पुरो दन्दशूकान्दधानो द्वेधाव्यस्ताम्बुवाहावलिविहितबृहत्पक्षविक्षेपशोभः । सावित्रः स्यन्दनोऽसौ निरतिशयरयप्रीणितानूरुरेनः- क्षेपीयो वो गरुत्मानिव हरतु हरीच्छाविधेयप्रचारः ॥ 64 ॥ एकाहेनैव दीर्घां त्रिभुवनपदवीं लङ्घयन् यो लघिष्ठः वर् कृस्त्नां पृष्ठे मेरोर्गरीयान् दलितमणिदृषत्त्विंषि पिंषञ्शिरांसि । सर्वस्यैवोपरिष्टादथ च पुनरधस्तादिवास्ताद्रिमूर्न्धि ब्रध्नस्याव्यात्स एवं दुरधिगमपरिस्पन्दनः स्यन्दनो वः ॥ 65 ॥ धूर्ध्वस्ताग्र्यग्रहाणि ध्वजपटपवनान्दोलितेन्दूनि दूरं वर् दूरात् राहौ ग्रासाभिलाषादनुसरति पुनर्दत्तचक्रव्यथानि । श्रान्ताश्वश्वासहेलाधुतविबुधधुनीनिर्झराम्भांसि भद्रं देयासुर्वो दवीयो दिवि दिवसपतेः स्यन्दनप्रस्थितानि ॥ 66 ॥ अक्षे रक्षां निबध्य प्रतिसरवलयैर्योजयन्त्यो युगाग्रं धूःस्तम्भे दग्धधूपाः प्रहितसुमनसो गोचरे कूबरस्य । चर्चाश्चक्रे चरन्त्यो मलयजपयसा सिद्धवध्वस्त्रिसन्ध्यं वर् चर्चां वन्दन्ते यं द्युमार्गे स नुदतु दुरितान्यंशुमत्स्यन्दनो वः ॥ 67 ॥ उत्कीर्णस्वर्णरेणुद्रुतखुरदलिता पार्श्वयोः शश्वदश्वै- वर् रेणुर्द्रुत रश्रान्तभ्रान्तचक्रक्रमनिखिलमिलन्नेमिनिम्ना भरेण । मेरोर्मूर्धन्यघं वो विघटयतु रवेरेकवीथी रथस्य स्वोष्मोदक्ताम्बुरिक्तप्रकटितपुलिनोद्धूसरा स्वर्धुनीव ॥ 68 ॥ वर् स्वोष्मोदस्ताम्बु नन्तुं नाकालयानामनिशमनुयतां पद्धतिः पङ्क्तिरेव वर् उपयतां क्षोदो नक्षत्रराशेरदयरयमिलच्चक्रपिष्टस्य धूलिः । हेषह्लादो हरीणां सुरशिखरिदरीः पूरयन्नेमिनादो वर् नादो यस्याव्यात्तीव्रभानोः स दिवि भुवि यथा व्यक्तचिह्नो रथो वः ॥ 69 ॥ निःस्पन्दानां विमानावलिविततदिवां देववृन्दारकाणां वर् वलितदिशा वृन्दैरानन्दसान्द्रोद्यममपि वहतां विन्दतां वन्दितुं नो । मन्दाकिन्याममन्दः पुलिनभृति मृदुर्मन्दरे मन्दिराभे वर् मन्दराभे मन्दारैर्मण्डितारं दधदरि दिनकृत्स्यन्दनः स्तान्मुदे वः ॥ 70 ॥ चक्री चक्रारपङ्क्तिं हरिरपि च हरीन् धूर्जटिर्धूर्ध्वजान्ता- नक्षं नक्षत्रनाथोऽरुणमपि वरुणः कूबराग्रं कुबेरः । रंहः सङ्घः सुराणां जगदुपकृतये नित्ययुक्तस्य यस्य स्तौति प्रीतिप्रसन्नोऽन्वहमहिमरुचेः सोऽवतात्स्यन्दनो वः ॥ 71 ॥ वर् रुच नेत्राहीनेन मूले विहितपरिकरः सिद्धसाध्यैर्मरुद्भिः पादोपान्ते स्तुतोऽलं बलिहरिरभसाकर्षणाबद्धवेगः । भ्राम्यन्व्योमाम्बुराशावशिशिरकिरणस्यन्दनः सन्ततं वो दिश्याल्लक्ष्मीमपारामतुलितमहिमेवापरो मन्दराद्रिः ॥ 72 ॥ वर् अतुल्यां ॥ इति रथवर्णनम् ॥ ॥ अथ मण्डलवर्णनम् ॥ यज्ज्यायो बीजमह्नामपहततिमिरं चक्षुषामञ्जनं य- वर् ज्यायो यद्बीजमह्नामपहृत द्द्वारं यन्मुक्तिभाजां यदखिलभुवनज्योतिषामेकमोकः । यद्वृष्ट्यम्भोनिधानं धरणिरससुधापानपात्रं महद्य- द्दिश्यादीशस्य भासां तदधीकलमलं मङ्गलं मण्डलं वः ॥ 73 ॥ वर् देवस्य भानोः तदधिकममलं मण्डलं मङ्गलं वेलावर्धिष्णु सिन्धोः पय इव खमिवार्धोद्गताग्य्रग्रहोडु स्तोकोद्भिन्नस्वचिह्नप्रसवमिव मधोरास्यमस्यन्मनांसि । वर् महांसि प्रातः पूष्णोऽशुभानि प्रशमयतु शिरःशेखरीभूतमद्रेः पौरस्त्यस्योद्गभस्तिस्तिमिततमतमःखण्डनं मण्डलं वः ॥ 74 ॥ प्रत्युप्तस्तप्तहेमोज्ज्वलरुचिरचलः पद्मरागेण येन ज्यायः किञ्जल्कपुञ्जो यदलिकुलशितेरम्बरेन्दीवरस्य । कालव्यालस्य चिह्नं महिततममहोमूर्न्धि रत्नं महद्य- द्दीप्तांशोः प्रातरव्यात्तदविकलजगन्मण्डनं मण्डलं वः ॥ 75 ॥ कस्त्राता तारकाणां पतति तनुरवश्यायबिन्दुर्यथेन्दु- र्विद्राणा दृक्स्मरारेरुरसि मुररिपोः कौस्तुभो नोद्गभस्तिः । वह्नेः सापह्नवेव द्युतिरुदयगते यत्र तन्मण्डलं वो मार्तण्डीयं पुनीताद्दिवि भुवि च तमांसीव मृष्णन्महांसि ॥ 76 ॥ यत्प्राच्यां प्राक्चकास्ति प्रभवति च यतः प्राच्यसावुज्जिहाना- दिद्धं मध्ये यदह्नो भवति ततरुचा येन चोत्पाद्यतेऽहः । यत्पर्यायेण लोकानवति च जगतां जीवितं यच्च तद्वो विश्वानुग्राहि विश्वं सृजदपि च रवेर्मण्डलं मुक्तयेऽस्तु ॥ 77 ॥ शुष्यन्त्यूढानुकारा मकरवसतयो मारवीणां स्थलीनां येनोत्तप्ताः स्फुटन्तस्तडिति तिलतुलां यान्त्यगेन्द्रा युगान्ते । वर् चटिति तच्चण्डांशोरकाण्डत्रिभुवनदहनाशङ्कया धाम कृच्छात् वर् कृत्स्नं संहृत्यालोकमात्रं प्रलघु विदधतः स्तान्मुदे मण्डलं वः ॥ 78 ॥ वर् आहृत्यालोकमात्रं प्रतनु उद्यद्द्यूद्यानवाप्यां बहुलतमतमःपङ्कपूरं विदार्य वर् बहल प्रोद्भिन्नं पत्रपार्श्वेष्वविरलमरुणच्छायया विस्फुरन्त्या । कल्याणानि क्रियाद्वः कमलमिव महन्मण्डलं चण्डभानो- वर् चण्डरश्मेः रन्वीतं तृप्तिहेतोरसकृदलिकुलाकारिणा राहुणा यत् ॥ 79 ॥ चक्षुर्दक्षद्विषो यन्न तु दहति पुरः पूरयत्येव कामं वर् न दहति नितरां पुनः नास्तं जुष्टं मरुद्भिर्यदिह नियमिनां यानपात्रं भवाब्धौ । यद्वीतश्रान्ति शश्वद्भ्रमदपि जगतां भ्रान्तिमभ्रान्ति हन्ति ब्रध्नस्याख्याद्विरुद्धक्रियमथ च हिताधायि तन्मण्डलं वः ॥ 80 ॥ ॥ इति मण्डलवर्णनम् ॥ ॥ अथ सूर्यवर्णनम् । सिद्धैः सिद्धान्तमिश्रं श्रितविधि विबुधैश्चारणैश्चाटुगर्भं गीत्या गन्धर्वमुख्यैर्मुहुरहिपतिभिर्यातुधानैर्यतात्म । सार्धं साध्यैर्मुनीन्द्रैर्मुदितमतमनो मोक्षिभिः पक्षपाता- वर् मोक्षुभिः त्प्रातः प्रारभ्यमाणस्तुतिरवतु रविर्विश्ववन्द्योदयो वः ॥ 81 ॥ भासामासन्नभावादधिकतरपटोश्चक्रवालस्य तापा- च्छेदादच्छिन्नगच्छत्तुरगखुरपुटन्यासनिःशङ्कटङ्कैः । वर् न्यस्त निःसङ्गस्यन्दनाङ्गभ्रमणनिकषणात्पातु वस्त्रिप्रकारं वर् त्रिप्रकारैः तप्तांशुस्तत्परीक्षापर इव परितः पर्यटन्हाटकाद्रिम् ॥ 82 ॥ नो शुष्कं नाकनद्या विकसितकनकाम्भोजया भ्राजितं तु वर् कनकाम्भोरुहा प्लुष्टा नैवोपभोग्या भवति भृशतरं नन्दनोद्यानलक्ष्मीः । नो शृङ्गाणि द्रुतानि द्रुतममरगिरेः कालधौतानि धौता- नीद्धं धाम द्युमार्गे म्रदयति दयया यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 83 ॥ ध्वान्तस्यैवान्तहेतुर्न भवति मलिनैकात्मनः पाप्मनोऽपि प्राक्पादोपान्तभाजां जनयति न परं पङ्कजानां प्रबोधम् । कर्ता निःश्रेयसानामपि न तु खलु यः केवलं वासराणां सोऽव्यादेकोद्यमेच्छाविहितबहुबृहद्विश्वकार्योऽर्यमा वः ॥ 84 ॥ लोटँल्लोष्टाविचेष्टः श्रितशयनतलो निःसहीभूतदेहः सन्देही प्राणितव्ये सपदि दश दिशः प्रेक्षमाणोऽन्धकाराः । निःश्वासायासनिष्ठः परमपरवशो जायते जीवलोकः वर् चिरतरवशो शोकेनेवान्यलोकानुदयकृति गते यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 85 ॥ वर् लोकाभ्युदय क्रामँल्लोलोऽपि लोकाँस्तदुपकृतिकृतावाश्रितः स्थैर्यकोटिं नॄणां दृष्टिं विजिह्मां विदधदपि करोत्यन्तरत्यन्तभद्राम् । यस्तापस्यापि हेतुर्भवति नियमिनामेकनिर्वाणदायी भूयात्स प्रागवस्थाधिकतरपरिणामोदयोऽर्कः श्रिये वः ॥ 86 ॥ व्यापन्नर्तुर्न कालो व्यभिचरति फलं नौषधीर्वृष्टिरिष्टा नैष्टैस्तृप्यन्ति देवा न हि वहति मरुन्निर्मलाभानि भानि । आशाः शान्ता न भिन्दन्त्यवधिमुदधयो बिभ्रति क्ष्माभृतः क्ष्मां यस्मिंस्त्रैलोक्यमेवं न चलति तपति स्तात्स सूर्यः श्रिये वः ॥ 87 ॥ कैलासे कृत्तिवासा विहरति विरहत्रासदेहोढकान्तः श्रान्तः शेते महाहावधिजलधि विना छद्मना पद्मनाभः । योगोद्योगैकतानो गमयति सकलं वासरं स्वं स्वयम्भू- र्भूरित्रैलोक्याचिन्ताभृति भुवनविभौ यत्र भास्वान्स वोऽव्यात् ॥ 88 ॥ एतद्यन्मण्डलं खे तपति दिनकृतस्ता ऋचोऽर्चींषि यानि द्योतन्ते तानि सामान्ययमपि पुरुषो मण्डलेऽणुर्यजूंषि । एवं यं वेद वेदत्रितयमयमयं वेदवेदी समग्रो वर्गः स्वर्गापवर्गप्रकृतिरविकृतिः सोऽस्तु सूर्यः श्रिये वः ॥ 89 ॥ नाकौकःप्रत्यनीकक्षतिपटुमहसां वासवाग्रेसराणां सर्वेषां साधु पातां जगदिदमदितेरात्मजत्वे समेऽपि । येनादित्याभिधानं निरतिशयगुणैरात्मनि न्यस्तमस्तु वर् गुणेनात्मनि स्तुत्यस्त्रैलोक्यवन्द्यैस्त्रिदशमुनिगणैः सोंऽशुमान् श्रेयसे वः ॥ 90 ॥ भूमिं धाम्नोऽभिवृष्ट्या जगति जलमयीं पावनीं संस्मृताव- वर् धाम्नोऽथ प्याग्नेयीं दाहशक्त्या मुहुरपि यजमानां यथाप्रार्थितार्थैः । वर् यजमानात्मिकां लीनामाकाश एवामृतकरघटितां ध्वान्तपक्षस्य पर्व- ण्वेवं सूर्योऽष्टभेदां भव इव भवतः पातु बिभ्रत्स्वमूर्तिम् ॥ 91 ॥ प्राक्कालोन्निद्रपद्माकरपरिमलनाविर्भवत्पादशोभो भक्त्या त्यक्तोरुखेदोद्गति दिवि विनतासूनुना नीयमानः । सप्ताश्वाप्तापरान्तान्यधिकमधरयन्यो जगन्ति स्तुतोऽलं देवैर्देवः स पायादपर इव मुरारातिरह्नां पतिर्वः ॥ 92 ॥ यः स्रष्टाऽपां पुरस्तादचलवरसमभ्युन्नतेर्हेतुरेको लोकानां यस्त्रयाणां स्थित उपरि परं दुर्विलङ्घ्येन धाम्ना । वर् च त्रयाणां सद्यः सिद्ध्यै प्रसन्नद्युतिशुभचतुराशामुखः स्ताद्विभक्तो वर् शुचि द्वेधा वेधा इवाविष्कृतकमलरुचिः सोऽर्चिषामाकरो वः ॥ 93 ॥ साद्रिद्यूर्वीनदीशा दिशति दश दिशो दर्शयन्प्राग्दृशो यः वर् द्राक् दृशो सादृश्यं दृश्यते नो सदशशतदृशि त्रैदशे यस्य देशे । दीप्तांशुर्वः स दिश्यादशिवयुगदशादर्शितद्वादशात्मा शं शास्त्यश्वांश्च यस्याशयविदतिशयाद्दन्दशूकाशनाद्यः ॥ 94 ॥ तीर्थानि व्यर्थकानि हृदनदसरसीनिर्झराम्भोजिनीनां नोदन्वन्तो नुदन्ति प्रतिभयमशुभश्वभ्रपातानुबन्धि । आपो नाकापगाया अपि कलुषमुषो मज्जतां नैव यत्र वर् स्वर्गापगायाः त्रातुं यातेऽन्यलोकान् स दिशतु दिवसस्यैकहेतुर्हितं वः ॥ 95 ॥ वर् लोकं एतत्पातालपङ्कप्लुतमिव तमसैवैकमुद्गाढमासी- दप्रज्ञाताप्रतर्क्यं निरवगति तथालक्षणं सुप्तमन्तः । यादृक्सृष्टेः पुरस्तान्निशि निशि सकलं जायते तादृगेव त्रैलोक्यं यद्वियोगादवतु रविरसौ सर्गतुल्योदयो वः ॥ 96 ॥ द्वीपे योऽस्ताचलोऽस्मिन्भवति खलु स एवापरत्रोदयाद्रि- र्या यामिन्युज्ज्वलेन्दुद्युतिरिह दिवसोऽन्यत्र तीव्रातपः सा । यद्वश्यौ देशकालाविति नियमयतो नो तु यं देशकाला- वर् नु वव्यात्स स्वप्रभुत्वाहितभुवनहितो हेतुरह्नामिनो वः ॥ 97 ॥ व्यग्रैरग्र्यग्रहेन्दुग्रसनगुरु भरैर्नो समग्रैरुदग्रैः वर् गुरुतरैः प्रत्यग्रैरीषदुग्रैरुदयगिरिगतो गोगणैर्गौरयन् गाम् । उद्गाढार्चिर्विलीनामरनगरनगग्रावगर्भामिवाह्ना- मग्रे श्रेयो विधत्ते ग्लपयतु गहनं स ग्रहग्रामणीर्वः ॥ 98 ॥ योनिः साम्नां विधाता मधुरिपुरजितो धूर्जटिः शङ्करोऽसौ मृत्युः कालोऽलकायाः पतिरपि धनदः पावको जातवेदाः । इत्थं सञ्ज्ञा डवित्थादिवदमृतभुजां या यदृच्छाप्रवृत्ता- स्तासामेकोऽभिधेयस्तदनुगुणगुणैर्यः स सूर्योऽवताद्वः ॥ 99 ॥ वर् गणैः देवः किं बान्धवः स्यात्प्रियसुहृदथवाऽऽचार्य आहोस्विदर्यो वर् आर्यः रक्षा चक्षुर्नु दीपो गुरुरुत जनको जीवितं बीजमोजः । एवं निर्णीयते यः क इव न जगतां सर्वथा सर्वदाऽसौ वर् सर्वदाः सर्वाकारोपकारी दिशतु दशशताभीषुरभ्यर्थितं वः ॥ 100 ॥ श्लोका लोकस्य भूत्यै शतमिति रचिताः श्रीमयूरेण भक्त्या युक्तश्चैतान्पठेद्यः सकृदपि पुरुषः सर्वपापैर्विमुक्तः । आरोग्यं सत्कवित्वं मतिमतुलबलं कान्तिमायुःप्रकर्षं विद्यामैश्वर्यमर्थं सुतमपि लभते सोऽत्र सूर्यप्रसादात् ॥ 101 ॥ इति श्रीमयूरकविप्रणीतं सूर्यशतकं समाप्तम् ।
Shatakam

Shri Hanuman Ji Arti (श्री हनुमानजी)

श्री हनुमान जी की आरती भगवान हनुमान की भक्ति और शक्ति का प्रतीक है। यह आरती भक्तों को आध्यात्मिक बल, साहस, भय से मुक्ति, और संकटों का नाश करने की शक्ति प्रदान करती है। Hanuman Aarti, जिन्हें Sankat Mochan भी कहा जाता है, में उनके शौर्य और पराक्रम का वर्णन है। भक्त उनकी आरती गाकर अपने जीवन में धैर्य, आत्मबल, और भक्ति का अनुभव करते हैं।
Arti

Bhagavad Gita Twelveth Chapter (भगवद गीता बारहवाँ अध्याय)

भगवद गीता बारहवाँ अध्याय "भक्ति योग" के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण भक्ति को सबसे सरल और श्रेष्ठ मार्ग बताते हैं। वे कहते हैं कि जो भक्त पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के साथ उनकी आराधना करता है, वह उनका प्रिय होता है। यह अध्याय "भक्ति की महिमा", "ईश्वर के प्रति प्रेम", और "सच्चे भक्त के गुण" का वर्णन करता है।
Bhagwat-Gita

Shri Vishwakarma Chalisha (श्री विश्वकर्मा चालीसा)

विश्वकर्मा चालीसा एक भक्ति गीत है जो भगवान विश्वकर्मा पर आधारित है। हिंदू धर्म में Lord Vishwakarma को सृजन और निर्माण का देवता माना जाता है। विश्वकर्मा चालीसा का पाठ करने से creativity और innovation में वृद्धि होती है। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो engineering, architecture, या अन्य तकनीकी क्षेत्रों में काम करते हैं।
Chalisa

Maha Lakshmyashtakam Strotra (महालक्ष्म्यष्टकम्)

महालक्ष्मी अष्टकम देवराज इन्द्र द्वारा रचित माता लक्ष्मी को समर्पित एक स्तोत्र है, इसका उल्लेख पद्म पुराण में हुआ है। इस स्तोत्र के नियमित पाठ से साधक महालक्ष्मी की कृपा से धन-धान्य संपन्न हो जाता है, उसके महान पातकों और शत्रुओं का नाश हो जाता है।
Stotra

Shri Vindheshwari Chalisa (श्री विंधेश्वरी चालीसा)

विन्ध्येश्वरी चालीसा एक भक्ति गीत है जो विन्ध्याचल माता पर आधारित है। माँ विन्ध्येश्वरी को Vindhyavasini Devi और Adishakti के रूप में भी पूजा जाता है। इस चालीसा का पाठ करने से obstacles removal और spiritual growth होती है।
Chalisa

Today Panchang

29 April 2025 (Tuesday)

Sunrise07:15 AM
Sunset05:43 PM
Moonrise03:00 PM
Moonset05:52 AM, Jan 12
Shaka Samvat1946 Krodhi
Vikram Samvat2081 Pingala