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हिन्दू धर्म में कितने देवता हैं ? 33 प्रकार के, 33 करोड़, 33,33,333 या फिर 33,333? इन सब गणनाओं का स्रोत क्या है?

यह एक विवादित प्रश्न है जिसके बारे में ज्ञान का सर्वथा अभाव पिछले कुछ वर्षो तक था। वर्तमान काल में समाज में कुछ ज्ञान प्रचारित हुआ है। परंतु उसके स्रोत की जानकारी और सही ज्ञान अभी भी स्पष्ट नहीं है । केवल यही प्रचारित किया जाता है कि कोटि का अर्थ करोड़ नहीं प्रकार है और इस तरह हिन्दू धर्म में 33 प्रकार के देवता हैं।
हिन्दू मानते हैं कि उनके 33 करोड़ देवता हैं यह असत्य मुख्य तौर पर अज्ञानियों, मलेच्छों या अंग्रेज़ी अनुवादकों के द्वारा प्रचारित किया गया है। जिन्होंने ऋग्वेद के मात्र एक श्लोक के आधार पर यह भ्रामकता फैलाई की हिन्दू धर्म के शास्त्र मानते है की हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हैं परंतु उसी ऋग्वेद के अन्य श्लोकों का या अथर्ववेद या बृहदारणयकोपनिषद के श्लोकों का विश्लेषण करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी।
ऋग्वेद संहिता मंडल 1 सूक्त 45 का श्लोक 2 इस प्रकार है:
श्रु॒ष्टी॒वानो॒ हि दा॒शुषे॑ दे॒वा अ॑ग्ने॒ विचे॑तसः ।
तान्रो॑हिदश्व गिर्वण॒स्त्रय॑स्त्रिंशत॒मा व॑ह ॥
अर्थात :- हे अग्निदेव ! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हवि दाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाले (रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव ! उन तैन्तीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञ स्थल पर ले कर आएँ ।
जबकि मंडल 1 के ही सूक्त 34 का श्लोक 11 इस प्रकार है:
आ ना॑सत्या त्रि॒भिरे॑काद॒शैरि॒ह दे॒वेभि॑र्यातं मधु॒पेय॑मश्विना ।
प्रायु॒स्तारि॑ष्टं॒ नी रपां॑सि मृक्षतं॒ सेध॑तं॒ द्वेषो॒ भव॑तं सचा॒भुवा॑ ॥
अर्थात :- हे अश्विनी कुमारों! आप दोनो, तैन्तीस देवताओं के सहित इस यज्ञ में मधुपान के लिए पधारें। हमारी आयु बढ़ायें और हमारे पापों को भली भाँति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यों में सहायक बने।
इसी प्रकार अथर्वेवेद संहिता के कांड 11 सूक्त 5 (ओदन सूक्त) के श्लोक 3 में कहा गया है
“एतस्माद वा ओदनात त्रयस्त्रिंशंत लोकन निर्मीमीत प्रजापति: ।।”
अर्थात :- प्रजापति ने इस महिमाशाली ओदन से तैन्तीस देवों या लोकों को रचना की।
और अथर्वेवेद संहिता के ही कांड 10 सूक्त 7 के श्लोक 13 में कहा गया है
“यस्य त्रयस्त्रिंशंद अंगे सर्वे समाहिता:। स्कम्भ तं बरुहि कतम: सिव्देव स:।।”
अर्थात :-जिस स्कम्भ के अंग में समस्त तैन्तीस देव स्थिर हैं, उसे बताएँ ।
इस प्रकार केवल एक श्लोक के एक शब्द “स्त्रय॑स्त्रिंशत॒मा” के अर्थ का अनर्थ बता कर यह साबित करने की कोशिश की गयी की हिन्दू वेद 33 करोड़ देवताओं की मान्यता को स्वीकार करते हैं। जबकि “स्त्रय॑स्त्रिंशत॒मा” का अर्थ निकलता है 33 कोटि। ‘कोटि’ मतलब ‘करोड़’ भी होता है और ‘श्रेणी’ या ‘प्रकार’ भी परन्तु ऊपर परन्तु ऊपर वर्णित सभी श्लोकों का समान अर्थ निकालने से 33 कोटि का अर्थ केवल ‘ 33 श्रेणी या प्रकार’ की निकाला जा सकता है ’33 करोड़’ नहीं।
उपरोक्त से यह तो स्पष्ट हो गया की हिन्दू धर्म में 33 प्रकार के देवता है । अब प्रश्न यह है कि वेदों में वर्णित 33 देवता कौन हैं?
इस प्रश्न का उत्तर बृहदारणयकोपनिषद के तीसरे अध्याय नवे ब्राह्मण संवाद में मिलता है। शकल्य विदग्ध अत्यंत अभिमानी थे और उन्होंने अभिमान में भर कर याज्ञवल्क से प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। शकल्य के देवगणो के बारे में पूछने पर याज्ञ ने उनकी संख्या 3303 बतायी और देवताओं के बारे में पूछने पर 33 प्रकार। पुनः प्रश्न पूछने पर याज्ञवल्क्य के कहा 3303 देवगण हैं परंतु देवता केवल 33 हैं । याज्ञवल्क्य ने 33 प्रकार के देवताओं की गणना इस प्रकार बतायी:
8 वसु – सूर्य , चन्द्रमा , नक्षत्र , पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ।
11 रूद्र – दस प्राण , ग्यारहवाँ जीवात्मा।
12 आदित्य – 12 महीने।
1 देवराज इंद्र और
1 प्रजापति या ब्रह्माजी
अग्नि पुराण में 33 प्रकार के देवताओं की व्याख्या इस प्रकार है :
8 वसु- आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
11 रूद्र – हर, बहुरुप, त्रयँबक,अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।
12 आदित्य- विष्णु, शक्र, तव्षटा, धाता, आर्यमा, पूषा, विवसान, सविता, मित्र, वरुण, भग और अंशु
1 देवराज इंद्र और
1 प्रजापति या ब्रह्माजी
इस प्रकार 8+11+12+1+1=33 श्रेणी या प्रकार के देवता हुए।
श्री विष्णु पुराण में भी स्पष्ट कहा गया है – 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, प्रजापति और वषटाकार ये तैन्तीस वेदोक्त्त देवता अपनी इच्छा अनुसार जन्म लें वाले हैं। ( प्रथम अंश, अध्याय 15, श्लोक 137)
अब प्रश्न यह है की 33,333 की संख्या का स्त्रोत क्या है ?
इसका वर्णन श्री विष्णु पुराण के इस श्लोक में मिलता है :
त्रय स्त्रिंशत्सहस्त्रनी त्रयस्त्रिंश्च्चतानी च।
त्रय स्त्रिं शत्त्था देवा पिबंती क्षणदाकरम।।
तैन्तीस हज़ार, तैन्तीस सौ तैन्तीस देवगण चंद्रस्थ अमृत का पान करते है। ध्यान देने योग्य यह है की यहाँ ‘देवता’ का नहीं ‘देवगण’ शब्द का प्रयोग हुआ है । गण का अर्थ है ‘ अनुचर’ या ‘सहायक’ और इसका संदर्भ 33 प्रकार के देवताओं के 33, 333, अनुचरों या गणो के रूप में लिया जा सकता है। जैसे भगवान शिव के प्रमुख गण नन्दी महाराज हैं, विष्णु भगवान के जय और विजय हैं। 33,33,333 की संख्या पूर्णत: कपोल कल्पित है और हिन्दू वेद, पुराण या धर्म शास्त्र इस संख्या को अनुमोदित नहीं करते।
सार रूप में यही कहा जा सकता है की हिन्दू धर्म में 33 श्रेणी या प्रकार के देवता है और 33,333 देवगण या देवताओं के अनुचर हैं परंतु श्री भगवान केवल एक ही शक्ति हैं जो विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

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द्योतमाना दहतु दिनपतेर्दुर्निमित्तं द्युतिर्वः ॥ 22 ॥ नो कल्पापायवायोरदयरयदलत्क्ष्माधरस्यापि गम्या वर् शम्या गाढोद्गीर्णोज्ज्वलश्रीरहनि न रहिता नो तमःकज्जलेन । प्राप्तोत्पत्तिः पतङ्गान्न पुनरुपगता मोषमुष्णत्विषो वो वर्तिः सैवान्यरूपा सुखयतु निखिलद्वीपदीपस्य दीप्तिः ॥ 23 ॥ निःशेषाशावपूरप्रवणगुरुगुणश्लाघनीयस्वरूपा पर्याप्तं नोदयादौ दिनगमसमयोपप्लवेऽप्युन्नतैव । अत्यन्तं यानभिज्ञा क्षणमपि तमसा साकमेकत्र वस्तुं ब्रध्नस्येद्धा रुचिर्वो रुचिरिव रुचितस्याप्तये वस्तुनोस्तु ॥ 24 ॥ वर् चिरुरस्य, रुचिरस्य विभ्राणः शक्तिमाशु प्रशमितबलवत्तारकौर्जित्यगुर्वीं कुर्वाणो लीलयाधः शिखिनमपि लसच्चन्द्रकान्तावभासम् । आदध्यादन्धकारे रतिमतिशयिनीमावहन्वीक्षणानां वर् आदेयादीक्षणानां बालो लक्ष्मीमपारामपर इव गुहोऽहर्पतेरातपो वः ॥ 25 ॥ ज्योत्स्नांशाकर्षपाण्डुद्युति तिमिरमषीशेषकल्माषमीष- ज्जृम्भोद्भूतेन पिङ्गं सरसिजरजसा सन्ध्यया शोणशोचिः । प्रातःप्रारम्भकाले सकलमपि जगच्चित्रमुन्मीलयन्ती कान्तिस्तीक्ष्णत्विषोऽक्ष्णां मुदमुपनयतात्तूलिकेवातुलां वः ॥ 26 ॥ आयान्ती किं सुमेरोः सरणिररुणिता पाद्मरागैः परागै- राहोस्वित्स्वस्य माहारजनविरचिता वैजयन्ती रथस्य । माञ्जिष्ठी प्रष्ठवाहावलिविधुतशिरश्चामराली नु लोकै- वर् चामरालीव राशङ्क्यालोकितैवं सवितुरघनुदे स्तात्प्रभातप्रभा वः ॥ 27 ॥ ध्वान्तध्वंसं विधत्ते न तपति रुचिमन्नातिरूपं व्यनक्ति न्यक्त्वं नीत्वापि नक्तं न वितरतितरां तावदह्नस्त्विषं यः । वर् न्यक्तामह्नि स प्रातर्मा विरंसीदसकलपटिमा पूरयन्युष्मदाशा- माशाकाशावकाशावतरणतरुणप्रक्रमोऽर्कप्रकाशः ॥ 28 ॥ तीव्रं निर्वाणहेतुर्यदपि च विपुलं यत्प्रकर्षेण चाणु प्रत्यक्षं यत्परोक्षं यदिह यदपरं नश्वरं शाश्वतं च । यत्सर्वस्य प्रसिद्धं जगति कतिपये योगिनो यद्विदन्ति ज्योतिस्तद्द्विप्रकारं सवितुरवतु वो बाह्यमाभ्यन्तरं च ॥ 29 ॥ रत्नानां मण्डनाय प्रभवति नियतोद्देशलब्धावकाशं वह्नेर्दार्वादि दग्धुं निजजडिमतया कर्तुमानन्दमिन्दोः । यच्च त्रैलोक्यभूषाविधिरघदहनं ह्लादि वृष्ट्याशु तद्वो वर् यत्तु बाहुल्योत्पाद्यकार्याधिकतरमवतादेकमेवार्कतेजः ॥ 30 ॥ मीलच्चक्षुर्विजिह्मश्रुति जडरसनं निघ्नितघ्राणवृत्ति स्वव्यापाराक्षमत्वक्परिमुषितमनः श्वासमात्रावशेषम् । विस्रस्ताङ्गं पतित्वा स्वपदपहरतादश्रियं वोऽर्कजन्मा वर् अप्रियं कालव्यालावलीढं जगदगद इवोत्थापयन्प्राक्प्रतापः ॥ 31 ॥ निःशेषं नैशमम्भः प्रसभमपनुदन्नश्रुलेशानुकारि स्तोकस्तोकापनीतारुणरुचिरचिरादस्तदोषानुषङ्गः । दाता दृष्टिं प्रसन्नां त्रिभुवननयनस्याशु युष्मद्विरुद्धं वध्याद्ब्रध्नस्य सिद्धाञ्जनविधिरपरः प्राक्तनोऽर्चिःप्रचारः ॥ 32 ॥ भूत्वा जम्भस्य भेत्तुः ककुभि परिभवारम्भभूः शुभ्रभानो- वर् स्थित्वा र्बिभ्राणा बभ्रुभावं प्रसभमभिनवाम्भोजजृम्भाप्रगल्भा । भूषा भूयिष्ठशोभा त्रिभुवनभवनस्यास्य वैभाकरी प्राग्- विभ्रान्ता भ्राजमाना विभवतु विभवोद्भूतये सा विभा वः ॥ 33 ॥ वर् निर्भान्ति, विभ्रान्ति संसक्तं सिक्तमूलादभिनवभुवनोद्यानकौतूहलिन्या यामिन्या कन्ययेवामृतकरकलशावर्जितेनामृतेन । अर्कालोकः क्रियाद्वो मुदमुदयशिरश्चक्रवालालवाला- दुद्यन्बालप्रवालप्रतिमरुचिरहःपादपप्राक्प्ररोहः ॥ 34 ॥ भिन्नं भासारुणस्य क्वचिदभिनवया विद्रुमाणां त्विषेव त्वङ्न्नक्षत्ररत्नद्युतिनिकरकरालान्तरालं क्वचिच्च । नान्तर्निःशेषकृष्णश्रियमुदधिमिव ध्वान्तराशिं पिबन्स्ता- दौर्वः पूर्वोऽप्यपूर्वोऽग्निरिव भवदघप्लुष्टयेऽर्कावभासः ॥ 35 ॥ गन्धर्वैर्गद्यपद्यव्यतिकरितवचोहृद्यमातोद्यवाद्यै- राद्यैर्यो नारदाद्यैर्मुनिभिरभिनुतो वेदवेद्यैर्विभिद्य । वर् वीतवेद्यैर्विविद्य, वेदविद्भिर्विभिद्य आसाद्यापद्यते यं पुनरपि च जगद्यौवनं सद्य उद्य- न्नुद्द्योतो द्योतितद्यौर्द्यतु दिवसकृतोऽसाववद्यानि वोऽद्य ॥ 36 ॥ आवानैश्चन्द्रकान्तैश्च्युततिमिरतया तानवात्तारकाणा- वर् आवान्तैः मेणाङ्कालोकलोपादुपहतमहसामोषधीनां लयेन । आरादुत्प्रेक्ष्यमाणा क्षणमुदयतटान्तर्हितस्याहिमांशो- राभा प्राभातिकी वोऽवतु न तु नितरां तावदाविर्भवन्ती ॥ 37 ॥ सानौ सा नौदये नारुणितदलपुनर्यौवनानां वनाना- वर् लसद्यौवनानां मालीमालीढपूर्वा परिहृतकुहरोपान्तनिम्ना तनिम्ना । भा वोऽभावोपशान्तिं दिशतु दिनपतेर्भासमाना समाना- राजी राजीवरेणोः समसमयमुदेतीव यस्या वयस्या ॥ 38 ॥ उज्जृम्भाम्भोरुहाणां प्रभवति पयसां या श्रिये नोष्णतायै पुष्णात्यालोकमात्रं न तु दिशति दृशां दृश्यमाना विधातम् । पूर्वाद्रेरेव पूर्वं दिवमनु च पुनः पावनी दिङ्मुखाना- वर् ततः मेनांस्यैनी विभासौ नुदतु नुतिपदैकास्पदं प्राक्तनी वः ॥ 39 ॥ वाचां वाचस्पतेरप्यचलभिदुचिताचार्यकाणां प्रपञ्चै- र्वैरञ्चानां तथोच्चारितचतुरृचां चाननानां चतुर्णाम् । वर् रुचिर उच्येतार्चासु वाच्यच्युतिशुचिचरितं यस्य नोच्चैर्विविच्य वर् अर्चास्ववाच्य प्राच्यं वर्चश्चकासच्चिरमुपचिनुतात्तस्य चण्डार्चिषो वः ॥ 40 ॥ वर् श्रियं मूर्ध्न्यद्रेर्धातुरागस्तरुषु किसलयो विद्रुमौघः समुद्रे वर् – किसलयाद्विद्रुमौघात्समुद्रे दिङ्मातङ्गोत्तमाङ्गेष्वभिनवनिहितः सान्द्रसिन्दूररेणुः । वर् विहितः, निहितात्सन्द्रसिन्दूररेणोः सीम्नि व्योम्नश्च हेम्नः सुरशिखरिभुवो जायते यः प्रकाशः शोणिम्नासौ खरांशोरुषसि दिशतु वः शर्म शोभैकदेशः ॥ 41 ॥ अस्ताद्रीशोत्तमाङ्गे श्रितशशिनि तमःकालकूटे निपीते याति व्यक्तिं पुरस्तादरुणकिसलये प्रत्युषःपारिजाते । उद्यन्त्यारक्तपीताम्बरविशदतरोद्वीक्षिता तीक्ष्णभानो- वर् रुचिरतरोद्वीक्षिता वर् तीव्रभासः र्लक्ष्मीर्लक्ष्मीरिवास्तु स्फुटकमलपुटापाश्रया श्रेयसे वः ॥ 42 ॥ वर् पुटोपाश्रय नोदन्वाञ्जन्मभूमिर्न तदुदरभुवो बान्धवाः कौस्तुभाद्या यस्याः पद्मं न पाणौ न च नरकरिपूरःस्थली वासवेश्म । तेजोरूपापरैव त्रिषु भुवनतलेष्वादधाना व्यवस्थां वर् त्रिभुवनभवने सा श्रीः श्रेयांसि दिश्यादशिशिरमहसो मण्डलाग्रोद्गता वः ॥ 43 ॥ ॥ इति द्युतिवर्णनम् ॥ वर् तेजोवर्णनम् ॥ अथ अश्ववर्णनम् ॥ रक्षन्त्वक्षुण्णहेमोपलपटलमलं लाघवादुत्पतन्तः पातङ्गाः पङ्ग्ववज्ञाजितपवनजवा वाजिनस्ते जगन्ति । येषां वीतान्यचिह्नोन्नयमपि वहतां मार्गमाख्याति मेरा- वुद्यन्नुद्दामदीप्तिर्द्युमणिमणिशिलावेदिकाजातवेदाः ॥ 44 ॥ प्लुष्टाः पृष्ठेंऽशुपातैरतिनिकटतया दत्तदाहातिरेकै- रेकाहाक्रान्तकृत्स्नत्रिदिवपथपृथुश्वासशोषाः श्रमेण । तीव्रोदन्यास्त्वरन्तामहितविहतये सप्तयः सप्तसप्ते- रभ्याशाकाशगङ्गाजलसरलगलावाङ्नताग्रानना वः ॥ 45 ॥ वर् गलवर्जिताग्राननाः मत्वान्यान्पार्श्वतोऽश्वान् स्फटिकतटदृषद्दृष्टदेहा द्रवन्ती व्यस्तेऽहन्यस्तसन्ध्येयमिति मृदुपदा पद्मरागोपलेषु । सादृश्यादृश्यमूर्तिर्मरकतकटके क्लिष्टसूता सुमेरो- र्मूर्धन्यावृत्तिलब्धध्रुवगतिरवतु ब्रध्नवाहावलिर्वः ॥ 46 ॥ वर् द्रुत हेलालोलं वहन्ती विषधरदमनस्याग्रजेनावकृष्टा स्वर्वाहिन्याः सुदूरं जनितजवजया स्यन्दनस्य स्यदेन । निर्व्याजं तायमाने हरितिमनि निजे स्फीतफेनाहितश्री- वर् स्फीतफेनास्मितश्रीः रश्रेयांस्यश्वपङ्क्तिः शमयतु यमुनेवापरा तापनी वः ॥ 47 ॥ मार्गोपान्ते सुमेरोर्नुवति कृतनतौ नाकधाम्नां निकाये वीक्ष्य व्रीडानतानां प्रतिकुहरमुखं किन्नरीणां मुखानि । सूतेऽसूयत्यपीषज्जडगति वहतां कन्धरार्धैर्वलद्भि- वर् कन्धराग्रैः र्वाहानां व्यस्यताद्वः सममसमहरेर्हेषितं कल्मषाणि ॥ 48 ॥ धुन्वन्तो नीरदालीर्निजरुचिहरिताः पार्श्वयोः पक्षतुल्या- स्तालूत्तानैः खलीनैः खचितमुखरुचश्च्योतता लोहितेन । उड्डीयेव व्रजन्तो वियति गतिवशादर्कवाहाः क्रियासुः क्षेमं हेमाद्रिहृद्यद्रुमशिखरशिरःश्रेणिशाखाशुका वः ॥ 49 ॥ ॥ इत्यश्ववर्णनम् ॥ ॥ अथ अरुणवर्णनम् ॥ प्रातः शैलाग्ररङ्गे रजनिजवनिकापायसंलक्ष्यलक्ष्मी- र्विक्षिप्तापूर्वपुष्पाञ्जलिमुडुनिकरं सूत्रधारायमाणः । यामेष्वङ्केष्विवाह्नः कृतरुचिषु चतुर्ष्वेव जातप्रतिष्ठा- वर् यातः प्रतिष्ठां मव्यात्प्रस्तावयन्वो जगदटनमहानाटिकां सूर्यसूतः ॥ 50 ॥ आक्रान्त्या वाह्यमानं पशुमिव हरिणा वाहकोऽग्र्यो हरीणां भ्राम्यन्तं पक्षपाताज्जगति समरुचिः सर्वकर्मैकसाक्षी । शत्रुं नेत्रश्रुतीनामवजयति वयोज्येष्ठभावे समेऽपि स्थाम्नां धाम्नां निधिर्यः स भवदघनुदे नूतनः स्तादनूरुः ॥ 51 ॥ दत्तार्घैर्दूरनम्रैर्वियति विनयतो वीक्षितः सिद्धसार्थैः वर् सिद्धसाध्यैः सानाथ्यं सारथिर्वः स दशशतरुचेः सातिरेकं करोतु । आपीय प्रातरेव प्रततहिमपयःस्यन्दिनीरिन्दुभासो यः काष्ठादीपनोऽग्रे जडित इव भृशं सेवते पृष्ठतोऽर्कम् ॥ 52 ॥ मुञ्चन्रश्मीन्दिनादौ दिनगमसमये संहरंश्च स्वतन्त्र- स्तोत्रप्रख्यातवीर्योऽविरतहरिपदाक्रान्तिबद्धाभियोगः । वर् वितत कालोत्कर्षाल्लघुत्वं प्रसभमधिपतौ योजयन्यो द्विजानां सेवाप्रीतेन पूष्णात्मसम इव कृतस्त्रायतां सोऽरुणो वः ॥ 53 ॥ वर् स्वसम शातः श्यामालतायाः परशुरिव तमोऽरण्यवह्नेरिवार्चिः वर् दाहे दवाभः प्राच्येवाग्रे ग्रहीतुं ग्रहकुमुदवनं प्रागुदस्तोऽग्रहस्तः । वर् प्राचीवाग्रे, ग्रहकुमुदरुचिं ऐक्यं भिन्दन्द्युभूम्योरवधिरिव विधातेव विश्वप्रबोधे वाहानां वो विनेता व्यपनयतु विपन्नाम धामाधिपस्य ॥ 54 ॥ पौरस्त्यस्तोयदर्तोः पवन इव पतत्पावकस्येव धूमो वर् पतन् विश्वस्येवादिसर्गः प्रणव इव परं पावनो वेदराशेः सन्ध्यानृत्योत्सवेच्छोरिव मदनरिपोर्नन्दिनान्दीनिनादः सौरस्याग्रे सुखं वो वितरतु विनतानन्दनः स्यन्दनस्य ॥ 55 ॥ वर् स्यन्दनो वः पर्याप्तं तप्तचामीकरकटकतटे श्लिष्टशीतेतरांशा- वासीदत्स्यन्दनाश्वानुकृतिमरकते पद्मरागायमाणः । वर् अश्वानुकृतमरकते यः सोत्कर्षां विभूषां कुरुत इव कुलक्ष्माभृदीशस्य मेरो- रेनांस्यह्नाय दूरं गमयतु स गुरुः काद्रवेयद्विषो वः ॥ 56 ॥ नीत्वाश्वान्सप्त कक्षा इव नियमवशं वेत्रकल्पप्रतोद- वर् कक्ष्या स्तूर्णं ध्वान्तस्य राशावितरजन इवोत्सारिते दूरभाजि । पूर्वं प्रष्ठो रथस्य क्षितिभृदधिपतीन्दर्शयंस्त्रायतां व- स्त्रैलोक्यास्थानदानोद्यतदिवसपतेः प्राक्प्रतीहारपालः ॥ 57 ॥ वज्रिञ्जातं विकासीक्षणकमलवनं भासि नाभासि वह्ने! वर् नो भासि तातं नत्वाश्वपार्श्वान्नय यम! महिषं राक्षसा वीक्षिताः स्थ । सप्तीन्सिञ्च प्रचेतः! पवन! भज जवं वित्तपावेदितस्त्वं वन्दे शर्वेति जल्पन्प्रतिदिशमधिपान्पातु पूष्णोऽग्रणीर्वः ॥ 58 ॥ पाशानाशान्तपालादरुण वरुणतो मा ग्रहीः प्रग्रहार्थं तृष्णां कृष्णस्य चक्रे जहिहि नहि रथो याति मे नैकचक्रः । योक्तुं युग्यं किमुच्चैःश्रवसमभिलषस्यष्टमं वृत्रशत्रो- वर् त्वाष्ट्रशत्रोः स्त्यक्तान्यापेक्षविश्वोपकृतिरिव रविः शास्ति यं सोऽवताद्वः ॥ 59 ॥ नो मूर्च्छाच्छिन्नवाञ्छः श्रमविवशवपुर्नैव नाप्यास्यशोषी पान्थः पथ्येतराणि क्षपयतु भवतां भास्वतोऽग्रेसरः सः । यः संश्रित्य त्रिलोकीमटति पटुतरैस्ताप्यमानो मयूखै- रारादारामलेखामिव हरितमणिश्यामलामश्वपङ्क्तिम् ॥ 60 ॥ वर् हरिततृण सीदन्तोऽन्तर्निमज्जज्जडखुरमुसलाः सैकते नाकनद्याः स्कन्दन्तः कन्दरालीः कनकशिखरिणो मेखलासु स्खलन्तः । दूरं दूर्वास्थलोत्का मरकतदृषदि स्थास्नवो यन्न याताः पूष्णोऽश्वाः पूरयंस्तैस्तदवतु जवनैर्हुङ्कृतेनाग्रगो वः ॥ 61 ॥ वर् प्रेरयन् हुङ्कृतैरग्रणीः ॥ इत्यरुणवर्णनम् ॥ वर् सूतवर्णनम् ॥ अथ रथवर्णनम् ॥ पीनोरःप्रेरिताभ्रैश्चरमखुरपुटाग्रस्थितैः प्रातरद्रा- वादीर्घाङ्गैरुदस्तो हरिभिरपगतासङ्गनिःशब्दचक्रः । उत्तानानूरुमूर्धावनतिहठभवद्विप्रतीपप्रणामः प्राह्णे श्रेयो विधत्तां सवितुरवतरन्व्योमवीथीं रथो वः ॥ 62 ॥ वर् प्रेयो ध्वान्तौघध्वंसदीक्षाविधिपटु वहता प्राक्सहस्रं कराणा- वर् विधिगुरु द्राक्सहस्रं मर्यम्णा यो गरिम्णः पदमतुलमुपानीयताध्यासनेन । स श्रान्तानां नितान्तं भरमिव मरुतामक्षमाणां विसोढुं स्कन्धात्स्कन्धं व्रजन्वो वृजिनविजितये भास्वतः स्यन्दनोऽस्तु ॥ 63 ॥ योक्त्रीभूतान्युगस्य ग्रसितुमिव पुरो दन्दशूकान्दधानो द्वेधाव्यस्ताम्बुवाहावलिविहितबृहत्पक्षविक्षेपशोभः । सावित्रः स्यन्दनोऽसौ निरतिशयरयप्रीणितानूरुरेनः- क्षेपीयो वो गरुत्मानिव हरतु हरीच्छाविधेयप्रचारः ॥ 64 ॥ एकाहेनैव दीर्घां त्रिभुवनपदवीं लङ्घयन् यो लघिष्ठः वर् कृस्त्नां पृष्ठे मेरोर्गरीयान् दलितमणिदृषत्त्विंषि पिंषञ्शिरांसि । सर्वस्यैवोपरिष्टादथ च पुनरधस्तादिवास्ताद्रिमूर्न्धि ब्रध्नस्याव्यात्स एवं दुरधिगमपरिस्पन्दनः स्यन्दनो वः ॥ 65 ॥ धूर्ध्वस्ताग्र्यग्रहाणि ध्वजपटपवनान्दोलितेन्दूनि दूरं वर् दूरात् राहौ ग्रासाभिलाषादनुसरति पुनर्दत्तचक्रव्यथानि । श्रान्ताश्वश्वासहेलाधुतविबुधधुनीनिर्झराम्भांसि भद्रं देयासुर्वो दवीयो दिवि दिवसपतेः स्यन्दनप्रस्थितानि ॥ 66 ॥ अक्षे रक्षां निबध्य प्रतिसरवलयैर्योजयन्त्यो युगाग्रं धूःस्तम्भे दग्धधूपाः प्रहितसुमनसो गोचरे कूबरस्य । चर्चाश्चक्रे चरन्त्यो मलयजपयसा सिद्धवध्वस्त्रिसन्ध्यं वर् चर्चां वन्दन्ते यं द्युमार्गे स नुदतु दुरितान्यंशुमत्स्यन्दनो वः ॥ 67 ॥ उत्कीर्णस्वर्णरेणुद्रुतखुरदलिता पार्श्वयोः शश्वदश्वै- वर् रेणुर्द्रुत रश्रान्तभ्रान्तचक्रक्रमनिखिलमिलन्नेमिनिम्ना भरेण । मेरोर्मूर्धन्यघं वो विघटयतु रवेरेकवीथी रथस्य स्वोष्मोदक्ताम्बुरिक्तप्रकटितपुलिनोद्धूसरा स्वर्धुनीव ॥ 68 ॥ वर् स्वोष्मोदस्ताम्बु नन्तुं नाकालयानामनिशमनुयतां पद्धतिः पङ्क्तिरेव वर् उपयतां क्षोदो नक्षत्रराशेरदयरयमिलच्चक्रपिष्टस्य धूलिः । हेषह्लादो हरीणां सुरशिखरिदरीः पूरयन्नेमिनादो वर् नादो यस्याव्यात्तीव्रभानोः स दिवि भुवि यथा व्यक्तचिह्नो रथो वः ॥ 69 ॥ निःस्पन्दानां विमानावलिविततदिवां देववृन्दारकाणां वर् वलितदिशा वृन्दैरानन्दसान्द्रोद्यममपि वहतां विन्दतां वन्दितुं नो । मन्दाकिन्याममन्दः पुलिनभृति मृदुर्मन्दरे मन्दिराभे वर् मन्दराभे मन्दारैर्मण्डितारं दधदरि दिनकृत्स्यन्दनः स्तान्मुदे वः ॥ 70 ॥ चक्री चक्रारपङ्क्तिं हरिरपि च हरीन् धूर्जटिर्धूर्ध्वजान्ता- नक्षं नक्षत्रनाथोऽरुणमपि वरुणः कूबराग्रं कुबेरः । रंहः सङ्घः सुराणां जगदुपकृतये नित्ययुक्तस्य यस्य स्तौति प्रीतिप्रसन्नोऽन्वहमहिमरुचेः सोऽवतात्स्यन्दनो वः ॥ 71 ॥ वर् रुच नेत्राहीनेन मूले विहितपरिकरः सिद्धसाध्यैर्मरुद्भिः पादोपान्ते स्तुतोऽलं बलिहरिरभसाकर्षणाबद्धवेगः । भ्राम्यन्व्योमाम्बुराशावशिशिरकिरणस्यन्दनः सन्ततं वो दिश्याल्लक्ष्मीमपारामतुलितमहिमेवापरो मन्दराद्रिः ॥ 72 ॥ वर् अतुल्यां ॥ इति रथवर्णनम् ॥ ॥ अथ मण्डलवर्णनम् ॥ यज्ज्यायो बीजमह्नामपहततिमिरं चक्षुषामञ्जनं य- वर् ज्यायो यद्बीजमह्नामपहृत द्द्वारं यन्मुक्तिभाजां यदखिलभुवनज्योतिषामेकमोकः । यद्वृष्ट्यम्भोनिधानं धरणिरससुधापानपात्रं महद्य- द्दिश्यादीशस्य भासां तदधीकलमलं मङ्गलं मण्डलं वः ॥ 73 ॥ वर् देवस्य भानोः तदधिकममलं मण्डलं मङ्गलं वेलावर्धिष्णु सिन्धोः पय इव खमिवार्धोद्गताग्य्रग्रहोडु स्तोकोद्भिन्नस्वचिह्नप्रसवमिव मधोरास्यमस्यन्मनांसि । वर् महांसि प्रातः पूष्णोऽशुभानि प्रशमयतु शिरःशेखरीभूतमद्रेः पौरस्त्यस्योद्गभस्तिस्तिमिततमतमःखण्डनं मण्डलं वः ॥ 74 ॥ प्रत्युप्तस्तप्तहेमोज्ज्वलरुचिरचलः पद्मरागेण येन ज्यायः किञ्जल्कपुञ्जो यदलिकुलशितेरम्बरेन्दीवरस्य । कालव्यालस्य चिह्नं महिततममहोमूर्न्धि रत्नं महद्य- द्दीप्तांशोः प्रातरव्यात्तदविकलजगन्मण्डनं मण्डलं वः ॥ 75 ॥ कस्त्राता तारकाणां पतति तनुरवश्यायबिन्दुर्यथेन्दु- र्विद्राणा दृक्स्मरारेरुरसि मुररिपोः कौस्तुभो नोद्गभस्तिः । वह्नेः सापह्नवेव द्युतिरुदयगते यत्र तन्मण्डलं वो मार्तण्डीयं पुनीताद्दिवि भुवि च तमांसीव मृष्णन्महांसि ॥ 76 ॥ यत्प्राच्यां प्राक्चकास्ति प्रभवति च यतः प्राच्यसावुज्जिहाना- दिद्धं मध्ये यदह्नो भवति ततरुचा येन चोत्पाद्यतेऽहः । यत्पर्यायेण लोकानवति च जगतां जीवितं यच्च तद्वो विश्वानुग्राहि विश्वं सृजदपि च रवेर्मण्डलं मुक्तयेऽस्तु ॥ 77 ॥ शुष्यन्त्यूढानुकारा मकरवसतयो मारवीणां स्थलीनां येनोत्तप्ताः स्फुटन्तस्तडिति तिलतुलां यान्त्यगेन्द्रा युगान्ते । वर् चटिति तच्चण्डांशोरकाण्डत्रिभुवनदहनाशङ्कया धाम कृच्छात् वर् कृत्स्नं संहृत्यालोकमात्रं प्रलघु विदधतः स्तान्मुदे मण्डलं वः ॥ 78 ॥ वर् आहृत्यालोकमात्रं प्रतनु उद्यद्द्यूद्यानवाप्यां बहुलतमतमःपङ्कपूरं विदार्य वर् बहल प्रोद्भिन्नं पत्रपार्श्वेष्वविरलमरुणच्छायया विस्फुरन्त्या । कल्याणानि क्रियाद्वः कमलमिव महन्मण्डलं चण्डभानो- वर् चण्डरश्मेः रन्वीतं तृप्तिहेतोरसकृदलिकुलाकारिणा राहुणा यत् ॥ 79 ॥ चक्षुर्दक्षद्विषो यन्न तु दहति पुरः पूरयत्येव कामं वर् न दहति नितरां पुनः नास्तं जुष्टं मरुद्भिर्यदिह नियमिनां यानपात्रं भवाब्धौ । यद्वीतश्रान्ति शश्वद्भ्रमदपि जगतां भ्रान्तिमभ्रान्ति हन्ति ब्रध्नस्याख्याद्विरुद्धक्रियमथ च हिताधायि तन्मण्डलं वः ॥ 80 ॥ ॥ इति मण्डलवर्णनम् ॥ ॥ अथ सूर्यवर्णनम् । सिद्धैः सिद्धान्तमिश्रं श्रितविधि विबुधैश्चारणैश्चाटुगर्भं गीत्या गन्धर्वमुख्यैर्मुहुरहिपतिभिर्यातुधानैर्यतात्म । सार्धं साध्यैर्मुनीन्द्रैर्मुदितमतमनो मोक्षिभिः पक्षपाता- वर् मोक्षुभिः त्प्रातः प्रारभ्यमाणस्तुतिरवतु रविर्विश्ववन्द्योदयो वः ॥ 81 ॥ भासामासन्नभावादधिकतरपटोश्चक्रवालस्य तापा- च्छेदादच्छिन्नगच्छत्तुरगखुरपुटन्यासनिःशङ्कटङ्कैः । वर् न्यस्त निःसङ्गस्यन्दनाङ्गभ्रमणनिकषणात्पातु वस्त्रिप्रकारं वर् त्रिप्रकारैः तप्तांशुस्तत्परीक्षापर इव परितः पर्यटन्हाटकाद्रिम् ॥ 82 ॥ नो शुष्कं नाकनद्या विकसितकनकाम्भोजया भ्राजितं तु वर् कनकाम्भोरुहा प्लुष्टा नैवोपभोग्या भवति भृशतरं नन्दनोद्यानलक्ष्मीः । नो शृङ्गाणि द्रुतानि द्रुतममरगिरेः कालधौतानि धौता- नीद्धं धाम द्युमार्गे म्रदयति दयया यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 83 ॥ ध्वान्तस्यैवान्तहेतुर्न भवति मलिनैकात्मनः पाप्मनोऽपि प्राक्पादोपान्तभाजां जनयति न परं पङ्कजानां प्रबोधम् । कर्ता निःश्रेयसानामपि न तु खलु यः केवलं वासराणां सोऽव्यादेकोद्यमेच्छाविहितबहुबृहद्विश्वकार्योऽर्यमा वः ॥ 84 ॥ लोटँल्लोष्टाविचेष्टः श्रितशयनतलो निःसहीभूतदेहः सन्देही प्राणितव्ये सपदि दश दिशः प्रेक्षमाणोऽन्धकाराः । निःश्वासायासनिष्ठः परमपरवशो जायते जीवलोकः वर् चिरतरवशो शोकेनेवान्यलोकानुदयकृति गते यत्र सोऽर्कोऽवताद्वः ॥ 85 ॥ वर् लोकाभ्युदय क्रामँल्लोलोऽपि लोकाँस्तदुपकृतिकृतावाश्रितः स्थैर्यकोटिं नॄणां दृष्टिं विजिह्मां विदधदपि करोत्यन्तरत्यन्तभद्राम् । यस्तापस्यापि हेतुर्भवति नियमिनामेकनिर्वाणदायी भूयात्स प्रागवस्थाधिकतरपरिणामोदयोऽर्कः श्रिये वः ॥ 86 ॥ व्यापन्नर्तुर्न कालो व्यभिचरति फलं नौषधीर्वृष्टिरिष्टा नैष्टैस्तृप्यन्ति देवा न हि वहति मरुन्निर्मलाभानि भानि । आशाः शान्ता न भिन्दन्त्यवधिमुदधयो बिभ्रति क्ष्माभृतः क्ष्मां यस्मिंस्त्रैलोक्यमेवं न चलति तपति स्तात्स सूर्यः श्रिये वः ॥ 87 ॥ कैलासे कृत्तिवासा विहरति विरहत्रासदेहोढकान्तः श्रान्तः शेते महाहावधिजलधि विना छद्मना पद्मनाभः । योगोद्योगैकतानो गमयति सकलं वासरं स्वं स्वयम्भू- र्भूरित्रैलोक्याचिन्ताभृति भुवनविभौ यत्र भास्वान्स वोऽव्यात् ॥ 88 ॥ एतद्यन्मण्डलं खे तपति दिनकृतस्ता ऋचोऽर्चींषि यानि द्योतन्ते तानि सामान्ययमपि पुरुषो मण्डलेऽणुर्यजूंषि । एवं यं वेद वेदत्रितयमयमयं वेदवेदी समग्रो वर्गः स्वर्गापवर्गप्रकृतिरविकृतिः सोऽस्तु सूर्यः श्रिये वः ॥ 89 ॥ नाकौकःप्रत्यनीकक्षतिपटुमहसां वासवाग्रेसराणां सर्वेषां साधु पातां जगदिदमदितेरात्मजत्वे समेऽपि । येनादित्याभिधानं निरतिशयगुणैरात्मनि न्यस्तमस्तु वर् गुणेनात्मनि स्तुत्यस्त्रैलोक्यवन्द्यैस्त्रिदशमुनिगणैः सोंऽशुमान् श्रेयसे वः ॥ 90 ॥ भूमिं धाम्नोऽभिवृष्ट्या जगति जलमयीं पावनीं संस्मृताव- वर् धाम्नोऽथ प्याग्नेयीं दाहशक्त्या मुहुरपि यजमानां यथाप्रार्थितार्थैः । वर् यजमानात्मिकां लीनामाकाश एवामृतकरघटितां ध्वान्तपक्षस्य पर्व- ण्वेवं सूर्योऽष्टभेदां भव इव भवतः पातु बिभ्रत्स्वमूर्तिम् ॥ 91 ॥ प्राक्कालोन्निद्रपद्माकरपरिमलनाविर्भवत्पादशोभो भक्त्या त्यक्तोरुखेदोद्गति दिवि विनतासूनुना नीयमानः । सप्ताश्वाप्तापरान्तान्यधिकमधरयन्यो जगन्ति स्तुतोऽलं देवैर्देवः स पायादपर इव मुरारातिरह्नां पतिर्वः ॥ 92 ॥ यः स्रष्टाऽपां पुरस्तादचलवरसमभ्युन्नतेर्हेतुरेको लोकानां यस्त्रयाणां स्थित उपरि परं दुर्विलङ्घ्येन धाम्ना । वर् च त्रयाणां सद्यः सिद्ध्यै प्रसन्नद्युतिशुभचतुराशामुखः स्ताद्विभक्तो वर् शुचि द्वेधा वेधा इवाविष्कृतकमलरुचिः सोऽर्चिषामाकरो वः ॥ 93 ॥ साद्रिद्यूर्वीनदीशा दिशति दश दिशो दर्शयन्प्राग्दृशो यः वर् द्राक् दृशो सादृश्यं दृश्यते नो सदशशतदृशि त्रैदशे यस्य देशे । दीप्तांशुर्वः स दिश्यादशिवयुगदशादर्शितद्वादशात्मा शं शास्त्यश्वांश्च यस्याशयविदतिशयाद्दन्दशूकाशनाद्यः ॥ 94 ॥ तीर्थानि व्यर्थकानि हृदनदसरसीनिर्झराम्भोजिनीनां नोदन्वन्तो नुदन्ति प्रतिभयमशुभश्वभ्रपातानुबन्धि । आपो नाकापगाया अपि कलुषमुषो मज्जतां नैव यत्र वर् स्वर्गापगायाः त्रातुं यातेऽन्यलोकान् स दिशतु दिवसस्यैकहेतुर्हितं वः ॥ 95 ॥ वर् लोकं एतत्पातालपङ्कप्लुतमिव तमसैवैकमुद्गाढमासी- दप्रज्ञाताप्रतर्क्यं निरवगति तथालक्षणं सुप्तमन्तः । यादृक्सृष्टेः पुरस्तान्निशि निशि सकलं जायते तादृगेव त्रैलोक्यं यद्वियोगादवतु रविरसौ सर्गतुल्योदयो वः ॥ 96 ॥ द्वीपे योऽस्ताचलोऽस्मिन्भवति खलु स एवापरत्रोदयाद्रि- र्या यामिन्युज्ज्वलेन्दुद्युतिरिह दिवसोऽन्यत्र तीव्रातपः सा । यद्वश्यौ देशकालाविति नियमयतो नो तु यं देशकाला- वर् नु वव्यात्स स्वप्रभुत्वाहितभुवनहितो हेतुरह्नामिनो वः ॥ 97 ॥ व्यग्रैरग्र्यग्रहेन्दुग्रसनगुरु भरैर्नो समग्रैरुदग्रैः वर् गुरुतरैः प्रत्यग्रैरीषदुग्रैरुदयगिरिगतो गोगणैर्गौरयन् गाम् । उद्गाढार्चिर्विलीनामरनगरनगग्रावगर्भामिवाह्ना- मग्रे श्रेयो विधत्ते ग्लपयतु गहनं स ग्रहग्रामणीर्वः ॥ 98 ॥ योनिः साम्नां विधाता मधुरिपुरजितो धूर्जटिः शङ्करोऽसौ मृत्युः कालोऽलकायाः पतिरपि धनदः पावको जातवेदाः । इत्थं सञ्ज्ञा डवित्थादिवदमृतभुजां या यदृच्छाप्रवृत्ता- स्तासामेकोऽभिधेयस्तदनुगुणगुणैर्यः स सूर्योऽवताद्वः ॥ 99 ॥ वर् गणैः देवः किं बान्धवः स्यात्प्रियसुहृदथवाऽऽचार्य आहोस्विदर्यो वर् आर्यः रक्षा चक्षुर्नु दीपो गुरुरुत जनको जीवितं बीजमोजः । एवं निर्णीयते यः क इव न जगतां सर्वथा सर्वदाऽसौ वर् सर्वदाः सर्वाकारोपकारी दिशतु दशशताभीषुरभ्यर्थितं वः ॥ 100 ॥ श्लोका लोकस्य भूत्यै शतमिति रचिताः श्रीमयूरेण भक्त्या युक्तश्चैतान्पठेद्यः सकृदपि पुरुषः सर्वपापैर्विमुक्तः । आरोग्यं सत्कवित्वं मतिमतुलबलं कान्तिमायुःप्रकर्षं विद्यामैश्वर्यमर्थं सुतमपि लभते सोऽत्र सूर्यप्रसादात् ॥ 101 ॥ इति श्रीमयूरकविप्रणीतं सूर्यशतकं समाप्तम् ।
Shatakam

Kashi Panchakam Stotra (काशीपंचकम स्तोत्र)

काशी पंचकम स्तोत्र (Kashi Panchakam Stotra) भगवान शिव (Lord Shiva) को समर्पित एक दिव्य स्तोत्र (divine hymn) है, जो काशी (Kashi/Varanasi) की महिमा (glory) का वर्णन करता है। काशी को मोक्ष (salvation) का द्वार और आध्यात्मिक ऊर्जा (spiritual energy) का केंद्र माना गया है। इस स्तोत्र का पाठ (recitation) आत्मज्ञान (self-realization), शांति (peace), और ईश्वर की कृपा (divine blessings) प्राप्त करने के लिए किया जाता है। भगवान शिव, जिन्हें विश्वनाथ (Vishwanath) के नाम से भी जाना जाता है, काशी में सदा वास करते हैं। काशी पंचकम का जप व्यक्ति को पापों (sins) से मुक्त कर जीवन को दिव्यता (divinity) से परिपूर्ण करता है।
Devi-Stotra

Shri Shitalashtakam Stotram (श्री शीतला अष्टकम स्तोत्रम्)

श्री शीतलाष्टकम् स्तोत्रम् देवी Shitala Mata की स्तुति है, जो Hindu religion में disease healing और health goddess के रूप में पूजनीय हैं। इस स्तोत्र का पाठ smallpox और अन्य infectious diseases से protection पाने के लिए किया जाता है। इसे peace, prosperity और divine blessings प्राप्त करने का माध्यम माना गया है। Shitala Devi की पूजा से health, hygiene और spiritual energy का संचार होता है। यह स्तोत्र भक्तों को negativity से मुक्त कर सकारात्मकता प्रदान करता है।
Devi-Stotra

Shri Mahakali Chalisa (श्री महाकाली चालीसा)

महाकाली चालीसा माँ महाकाली को समर्पित है। माँ काली को time goddess, Shyama, और Kapalini कहा जाता है। Kali mantra for protection जैसे "ॐ क्रीं कालिकायै नमः" का जाप करने से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है।
Chalisa

Shri Devi Ji Arti (2 ) (श्री देवीजी की आरती)

श्री देवी जी की आरती माँ दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के दिव्य स्वरूप की महिमा का गुणगान करती है। इसमें माँ को सृष्टि की आदिशक्ति और भक्तों की रक्षक के रूप में पूजा जाता है।
Arti

Raghav Stuti (राघव स्तुति)

Shri Raghav Stuti (राघव स्तुति) भगवान Shri Ram की महिमा का गुणगान करने वाला एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। यह स्तुति श्रीराम के divine virtues, strength, compassion, और righteousness का वर्णन करती है। सनातन धर्म में श्रीराम को Maryada Purushottam कहा गया है, जो धर्म और आदर्शों के प्रतीक हैं। श्रीराम की भक्ति से peace, prosperity, और spiritual growth प्राप्त होती है। इस स्तुति का नियमित पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और मन को inner strength एवं devotion प्राप्त होती है। Shri Raghav Stuti का पाठ करने से भगवान श्रीराम की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-शांति बनी रहती है।
Stuti

Krishna Raksha Kavacha (श्रीकृष्णरक्षाकवचम्)

श्री कृष्ण रक्षा कवचम् एक दिव्य protective shield है, जो भगवान Shri Krishna की कृपा से सभी संकटों से बचाव करता है। यह divine armor नकारात्मक ऊर्जा, शत्रुओं और बुरी शक्तियों से protection प्रदान करता है। इस कवच का पाठ करने से spiritual energy बढ़ती है और जीवन में positive vibrations आती हैं। श्रीकृष्ण के भक्त इसे अपनाकर divine blessings प्राप्त कर सकते हैं। यह sacred mantra जीवन की सभी बाधाओं को दूर करने में सहायक है।
Kavacha

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