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नर्मदा नदी की उल्टी धारा का रहस्य: वैज्ञानिक कारण और पौराणिक कथा

Scientific Reason behind Reverse Flow of Narmada River:- Narmada River, जिसे 'Rewa River' के नाम से भी जाना जाता है, India's major rivers में से एक है। यह Madhya Pradesh and Gujarat states के लिए lifeline है, जो लाखों लोगों को water and livelihood प्रदान करती है। Narmada River Religious Significance भी बहुत अधिक है, इसे Ganga River के समान पवित्र माना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह नदी अन्य नदियों के विपरीत, reverse direction में क्यों बहती है?
Scientific Reason: Effect of Rift Valley
Narmada River Reverse Flow का मुख्य कारण Rift Valley Geographical Structure है। Rift Valley एक crack-like valley होती है, जो tectonic plate movements के कारण बनती है। इस घाटी के कारण नदी का बहाव opposite slope direction में होता है।
Mythological Story: A Love Legend
Narmada River Reverse Flow Mystery के पीछे एक mythological story भी है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, Narmada River का विवाह Sonbhadra River के साथ तय हुआ था। लेकिन Narmada’s friend Johila को Sonbhadra पसंद आ गया और Sonbhadra River Love Story में बदल गया। जब इस बात का पता Narmada को लगा, तो इससे दुखी होकर उन्होंने आजीवन remain unmarried रहने का निर्णय लिया और flow in opposite direction में बहने लगी।
Narmada River Significance
Narmada River न केवल अपने reverse flow के लिए जानी जाती है, बल्कि यह biodiversity hotspot भी है। इस नदी के किनारे कई wildlife sanctuaries और national parks स्थित हैं, जो विभिन्न प्रकार के flora and fauna का घर हैं।
Narmada River Reverse Flow निश्चित ही एक interesting and mysterious phenomenon है। इसके पीछे scientific and mythological reasons दोनों बताए जाते हैं। चाहे कारण जो भी हो, Narmada River India’s Sacred Rivers में से एक है, जो लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करती है।

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महा सरस्वती स्तवम् (Maha Saraswati Stavam) अश्वतर उवाच । जगद्धात्रीमहं देवीमारिराधयिषुः शुभाम् । स्तोष्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम् ॥ 1 ॥ सदसद्देवि यत्किञ्चिन्मोक्षवच्चार्थवत्पदम् । तत्सर्वं त्वय्यसंयोगं योगवद्देवि संस्थितम् ॥ 2 ॥ त्वमक्षरं परं देवि यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् । अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत् ॥ 3 ॥ अक्षरं परमं ब्रह्म विश्वञ्चैतत्क्षरात्मकम् । दारुण्यवस्थितो वह्निर्भौमाश्च परमाणवः ॥ 4 ॥ तथा त्वयि स्थितं ब्रह्म जगच्चेदमशेषतः । ओङ्काराक्षरसंस्थानं यत्तु देवि स्थिरास्थिरम् ॥ 5 ॥ तत्र मात्रात्रयं सर्वमस्ति यद्देवि नास्ति च । त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रैविद्यं पावकत्रयम् ॥ 6 ॥ त्रीणि ज्योतींषि वर्णाश्च त्रयो धर्मागमास्तथा । त्रयो गुणास्त्रयः शब्दस्त्रयो वेदास्तथाश्रमाः ॥ 7 ॥ त्रयः कालास्तथावस्थाः पितरोऽहर्निशादयः । एतन्मात्रात्रयं देवि तव रूपं सरस्वति ॥ 8 ॥ विभिन्नदर्शिनामाद्या ब्रह्मणो हि सनातनाः । सोमसंस्था हविः संस्थाः पाकसंस्थाश्च सप्त याः ॥ 9 ॥ तास्त्वदुच्चारणाद्देवि क्रियन्ते ब्रह्मवादिभिः । अनिर्देश्यं तथा चान्यदर्धमात्रान्वितं परम् ॥ 10 ॥ अविकार्यक्षयं दिव्यं परिणामविवर्जितम् । तवैतत्परमं रूपं यन्न शक्यं मयोदितुम् ॥ 11 ॥ न चास्येन च तज्जिह्वा ताम्रोष्ठादिभिरुच्यते । इन्द्रोऽपि वसवो ब्रह्मा चन्द्रार्कौ ज्योतिरेव च ॥ 12 ॥ विश्वावासं विश्वरूपं विश्वेशं परमेश्वरम् । साङ्ख्यवेदान्तवादोक्तं बहुशाखास्थिरीकृतम् ॥ 13 ॥ अनादिमध्यनिधनं सदसन्न सदेव यत् । एकन्त्वनेकं नाप्येकं भवभेदसमाश्रितम् ॥ 14 ॥ अनाख्यं षड्गुणाख्यञ्च वर्गाख्यं त्रिगुणाश्रयम् । नानाशक्तिमतामेकं शक्तिवैभविकं परम् ॥ 15 ॥ सुखासुखं महासौख्यरूपं त्वयि विभाव्यते । एवं देवि त्वया व्याप्तं सकलं निष्कलञ्च यत् । अद्वैतावस्थितं ब्रह्म यच्च द्वैते व्यवस्थितम् ॥ 16 ॥ येऽर्था नित्या ये विनश्यन्ति चान्ये ये वा स्थूला ये च सूक्ष्मातिसूक्ष्माः । ये वा भूमौ येऽन्तरीक्षेऽन्यतो वा तेषां तेषां त्वत्त एवोपलब्धिः ॥ 17 ॥ यच्चामूर्तं यच्च मूर्तं समस्तं यद्वा भूतेष्वेकमेकञ्च किञ्चित् । यद्दिव्यस्ति क्ष्मातले खेऽन्यतो वा त्वत्सम्बन्धं त्वत्स्वरैर्व्यञ्जनैश्च ॥ 18 ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे त्रयोविंशोऽध्याये अश्वतर प्रोक्त महासरस्वती स्तवम् ।
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Chalisa

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