Yoga Kundalini Upanishad Chapter 1 (योगकुण्डलिनी उपनिषद) प्रथम अध्याय
॥ श्री हरि ॥ ॥अथ योगकुण्डलिन्युपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ योगकुण्डल्युपनिषद्योगसिद्धिहृदासनम् । निर्विशेषब्रह्मतत्त्वं स्वमात्रमिति चिन्तये ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ योगकुण्डलिन्युपनिषत् ॥ योगकुण्डलिनी उपनिषद प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय हरिः ॐ ॥ हेतुद्वयं हि चित्तस्य वासना च समीरणः । तयोर्विनष्ट एकस्मिंस्तद्द्वावपि विनश्यतः ॥ १॥ चित्त (की चंचलता) के दो कारण हैं, वासना अर्थात् पूर्वार्जित संस्कार एवं वायु अर्थात् प्राण; इन दोनों में से एक का भी निरोध हो जाने पर दोनों समाप्त (निरुद्ध) हो जाते हैं॥१॥ तयोरादौ समीरस्य जयं कुर्यान्नरः सदा । मिताहारश्चासनं च शक्तिश्चालस्तृतीयकः ॥ २॥ दोनों में सबसे पहले वायु अर्थात् प्राण पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। प्राणों पर विजय प्राप्त करने के तीन साधन हैं- मिताहार, आसन एवं शक्तिचालिनी मुद्रा का अभ्यास ॥२॥ एतेषां लक्षणं वक्ष्ये शृणु गौतम सादरम् । सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः ॥ ३॥ भुज्यते शिवसम्प्रीत्यै मिताहारः स उच्यते । आसनं द्विविधं प्रोक्तं पद्म वज्रासनं तथा ॥ ४॥ हे गौतम! अब तुम्हें इनका (मिताहार का) लक्षण कहता हूँ, सादर (ध्यानपूर्वक) सुनो। सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह स्निग्ध एवं मधुर भोजन (आधा पेट) करे, (उसका आधा भाग पानी) एवं चौथाई भाग (हवा के लिए) खाली रखे। इस तरह से शिव (कल्याण) के निमित्त भोजन करने को मिताहार कहते हैं। (प्राणजय के लिए प्रमुख) आसन दो कहे गये हैं-पहला है पद्मासन, दूसरा है वज्रासन ॥३-४॥ ऊर्वोरुपरि चेद्धत्ते उभे पादतले यथा । पद्मासनं भवेदेतत्सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ५॥ दोनों पैरों की जंघाओं पर एक दूसरे के ऊपर तलवों को सीधा (ऊपर की ओर) करके रखने से सभी पापों का विनाश करने वाला पद्मासन होता है॥५॥ वामाङ्ङ्घमूलकन्दाधो ह्यन्यं तदुपरि क्षिपेत् । समग्रीवशिरःकायो वज्रासनमितीरितम् ॥ ६ ॥ गर्दन, सिर एवं शरीर को एक सीध में रखकर बायें पैर की एड़ी को सीवन (योनि) स्थान में तथा दायें पैर की एड़ी उसके ऊपर लगाकर बैठने को वज्रासन कहा जाता है॥६॥ कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सञ्चालयेद्बुधः । स्व वस्थानादानुवोर्मध्यं शक्तिचालनमुच्यते ॥ ७॥ प्रमुख शक्ति कुण्डलिनी कही गई है, बुद्धिमान् साधक उसे चालन क्रिया के द्वारा नीचे से ऊपर दोनों भृकुटियों के मध्य ले जाता है, इसी क्रिया को शक्तिचालिनी कहते हैं॥७॥ तत्साधने द्वयं मुख्यं सरस्वत्यास्तु चालनम् । प्राणरोधमथाभ्यासादृज्वी कुण्डलिनी भवेत् ॥ ८॥ मुख्य रूप से कुण्डलिनी चलाने (जगाने) के दो साधन कहे गये हैं, सरस्वती चालन एवं प्राणरोध (प्राणायाम) । प्राणों के निरोध के अभ्यास से लिपटी हुई कुण्डलिनी सीधी हो जाती है॥८॥ तयोरादौ सरस्वत्याश्चालनं कथयामि ते । अरुन्धत्येव कथिता पुराविद्भिः सरस्वती ॥ ९॥ इस प्रकार पहले तुमको 'सरस्वती चालन' के बारे में बताता हूँ। प्राचीन काल के विद्वान् इस सरस्वती को अरुंधती भी कहते थे॥९॥ यस्याः सञ्चालनेनैव स्वयं चलति कुण्डली । इडायां वहति प्राणे बद्ध्वा पद्मासनं दृढम् ॥ १०॥ जिस समय इड़ा नाड़ी चल रही हो, उस समय दृढ़तापूर्वक पद्मासन लगाकर इसके (सरस्वती के) भली प्रकार संचालन करने से कुण्डलिनी स्वयं चलने (जाग्रत् होने) लगती है। फिर उस नाड़ी को द्वादश अंगुल लम्बे और चार अंगुल चौड़े अम्बर (वस्त्र) के टुकड़े से लपेटे ॥१०-११॥ द्वादशाङ्गुलदैर्ध्य च अम्बरं चतुरङ्गुलम् । विस्तीर्य तेन तन्नाडीं वेष्टयित्वा ततः सुधीः ॥ ११॥ अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां तु हस्ताभ्यां धारयेद्धृढम् । स्वशक्त्या चालयेद्वामे दक्षिणेन पुनःपुनः ॥ १२॥ तब दृढ़तापूर्वक दोनों नासा छिद्रों को अङ्गुष्ठ एवं तर्जनी से पकड़कर अपनी (इच्छा) शक्ति से पहले बायें, फिर दायें नासिका के छिद्र से बार-बार रेचक और पूरक करे ॥१२॥ मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निर्भयाच्चालयेत्सुधीः । ऊर्ध्वमाकर्षयेत्किञ्चित्सुषुम्नां कुण्डलीगताम् ॥ १३॥ तेन कुण्डलिनी तस्याः सुषुम्नाया मुखं व्रजेत् । जहाति तस्मात्प्राणोऽयं सुषुम्नां व्रजति स्वतः ॥ १४॥ इस तरह निर्भय होकर दो मुहूर्त (= ४ घटी = ९६ मिनट) तक इसको चलाना चाहिए, साथ ही कुण्डलिनी में स्थित सुषुम्ना नाड़ी को किंचित् मात्र ऊपर खींचे ॥ इस तरह से (सरस्वती चालन क्रिया से) कुण्डलिनी सुषुम्ना नाड़ी के मुख में प्रवेश करके ऊर्ध्वगामी हो जाती है। इसके साथ ही प्राण अपना स्थान छोड़कर सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगता है॥१३-१४॥ तुन्दे तु तानं कुर्याच्च कण्ठसङ्कोचने कृते । सरस्वत्यां चालनेन वक्षसश्चोर्ध्वगो मरुत् ॥ १५॥ कण्ठ संकोचन के सहित पेट को ऊपर की ओर खींचकर इस सरस्वती चालन से वायु ऊर्ध्वगामी होकर वक्षस्थल से भी ऊपर चला जाता है॥१५॥ सूर्येण रेचयेद्वायुं सरस्वत्यास्तु चालने । कण्ठसङ्कोचनं कृत्वा वक्षसश्चोर्ध्वगो मरुत् ॥ १६॥ तस्मात्सञ्चालयेन्नित्यं शब्दगर्भा सरस्वतीम् । यस्याः सञ्चालनेनैव योगी रोगैः प्रमुच्यते ॥ १७॥ करते हुए कण्ठ संकोचन करने से (अधोगत) वायु वक्षस्थल से ऊपर की ओर गमन कर जाता है। इसलिए नियमित रूप से शब्दगर्भा (शब्दमयी) सरस्वती संचालन करना चाहिए अर्थात् उक्त 'सरस्वती चालन' क्रिया करनी चाहिए। इसका संचालन करने वाला योगी सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है॥१६-१७॥ गुल्मं जलोदरः प्लीहा ये चान्ये तुन्दमध्यगाः । सर्वे ते शक्तिचालेन रोगा नश्यन्ति निश्चयम् ॥ १८ ॥ इस शक्तिचालन क्रिया से जलोदर, गुल्म, प्लीहा एवं पेट के समस्त रोग निश्चित ही समाप्त हो जाते हैं॥१८॥ प्राणरोधमथेदानीं प्रवक्ष्यामि समासतः । प्राणश्च दहनो वायुरायामः कुम्भकः स्मृतः ॥ १९॥ अब प्राणों का निरोध अर्थात् प्राणायाम करने की विधि बतलाते हैं। शरीर में संचरण करने वाली वायु को प्राण कहा जाता है, उसे जब (प्राणायाम के द्वारा) स्थिर किया जाता है, तब उसे कुम्भक कहते हैं॥१९॥ स एव द्विविधः प्रोक्तः सहितः केवलस्तथा । यावत्केवलसिद्धिः स्यात्तावत्सहितमभ्यसेत् ॥ २०॥ यह कुम्भक दो प्रकार का बताया गया है- १. सहित तथा २. केवल । सहित कुम्भक का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिए, जब तक केवल कुम्भक की सिद्धि न हो जाये ॥२०॥ सूर्योज्जायी शीतली च भस्त्री चैव चतुर्थिका । भेदैरेव समं कुम्भो यः स्यात्सहितकुम्भकः ॥ २१॥ सूर्यभेदन, उज्जायी, शीतली और भस्त्रिका-ये चार कुम्भक के भेद सहित कुम्भक' कहलाते हैं॥२१॥ पवित्रे निर्जने देशे शर्करादिविवर्जिते । धनुःप्रमाणपर्यन्ते शीताग्निजलवर्जिते ॥ २२॥ पवित्रे नात्युच्चनीचे ह्यासने सुखदे सुखे । बद्धपद्मासनं कृत्वा सरस्वत्यास्तु चालनम् ॥ २३॥ जहाँ पर कंकड़-पत्थर आदि न हो, आस-पास घास, अग्नि, जल और शीत आदि न हो, पवित्र एवं एकान्त स्थान हो, वहाँ पर न अति नीचा, न अति ऊँचा, सुख देने वाला आसन बिछाकर बद्ध पद्मासन लगाकर सरस्वती चालन क्रिया करनी चाहिए ॥ २२-२३॥ दक्षनाड्या समाकृष्य बहिष्ठं पवनं शनैः । यथेष्टं पूरयेद्वायुं रेचयेदिडया ततः ॥ २४॥ श्वास द्वारा धीरे-धीरे दाहिनी नासिका से बाहरी वायु को खींचकर पर्याप्त मात्रा में उदर में भरे, तत्पश्चात् बायीं नासिक-इड़ा से रेचन करना चाहिए ॥२४॥ कपालशोधने वापि रेचयेत्पवनं शनैः । चतुष्कं वातदोषं तु कृमिदोषं निहन्ति च ॥ २५॥ कपालशोधन क्रिया में भी धीरे-धीरे वायु का रेचन करना चाहिए। इस प्रकार करने से चारों तरह के वातदोष तथा कृमिदोष नष्ट हो जाते हैं॥२५॥ पुनः पुनरिदं कार्यं सूर्यभेदमुदाहृतम् । मुखं संयम्य नाडिभ्यामाकृष्य पवनं शनैः ॥ २६॥ यथा लगति कण्ठात्तु हृदयावधि सस्वनम् । पूर्ववत्कुम्भयेत्प्राणं रेचयेदिडया ततः ॥ २७॥ शीर्षोदितानलहरं गलश्लेष्महरं परम् । सर्वरोगहरं पुण्यं देहानलविवर्धनम् ॥ २८ ॥ नाडीजलोदरं धातुगतदोषविनाशनम् । गच्छतस्तिष्ठतः कार्यमुज्जाय्याख्यं तु कुम्भकम् ॥ २९॥ इस क्रिया का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए, सूर्यभेदन इसी क्रिया का नाम है। (उज्जायी प्राणायाम का का वर्णन) मुँह बंद रखते हुए दोनों नासा छिद्रों से वायु को धीरे-धीरे इस प्रकार खींचना चाहिए कि प्रवेश के साथ श्वास से ध्वनि होती रहे। इस प्रकार हृदय एवं कण्ठ तक वायु को भरे । पुनः पहले की तरह कुम्भक करके बायें नासा छिद्र से रेचन करना चाहिए, इसके करने से सिर की गर्मी, गले का कफ दूर हो जाता है, जठराग्नि बढ़ती है, नाड़ी जलोदर तथा धातुरोग भी समाप्त हो जाते हैं। उज्जायी नामक इस कुम्भक को स्थिर रहते अथवा चलते-फिरते कभी भी करते रहना चाहिए॥ २६-२९॥ जिह्वया वायुमाकृष्य पूर्ववत्कुम्भकादनु । शनैस्तु घ्राणरन्ध्राभ्यां रेचयेदनिलं सुधीः ॥ ३०॥ गुल्मप्लीहादिकान्दोषान्क्षयं पित्तं ज्वरं तृषाम् । विषाणि शीतली नाम कुम्भकोऽयं निहन्ति च ॥ ३१॥ शीतली प्राणायाम में जिह्वा के द्वारा वायु को खींचकर पहले की तरह कुम्भक करके नासिका से वायु को धीरे-धीरे निकाले । इसके करने से प्लीहा, गुल्म, पित्त, ज्वर, तृषा आदि रोगों का शमन होता है॥३०- ३१॥ ततः पद्मासनं बद्ध्वा समग्रीवोदरः सुधीः । मुखं संयम्य यत्नेन प्राणं घ्राणेन रेचयेत् ॥ ३२॥ यथा लगति कण्ठात्तु कपाले सस्वनं ततः । वेगेन पूरयेत्किञ्चिधृत्पद्मावधि मारुतम् ॥ ३३॥ पुनर्विरचयेत्तद्वत्पूरयेच्च पुनः पुनः । यथैव लोहकाराणां भस्त्रा वेगेन चाल्यते ॥ ३४॥ तथैव स्वशरीरस्थं चालयेत्पवनं शनैः । यथा श्रमो भवेद्देहे तथा सूर्येण पूरयेत् ॥ ३५॥ यथोदरं भवेत्पूर्ण पवनेन तथा लघु । धारयन्नासिकामध्यं तर्जनीभ्यां विना दृढम् ॥ ३६॥ कुम्भकं पूर्ववत्कृत्वा रेचेयेदिडयानिलम् । कण्ठोत्थितानलहरं शरीराग्निविवर्धनम् ॥ ३७॥ कुण्डलीबोधकं पुण्यं पापघ्नं शुभदं सुखम् । ब्रह्मनाडीमुखान्तस्थकफाद्यर्गलनाशनम् ॥ ३८ ॥ गुणत्रयसमुद्भूतग्रन्थित्रयविभेदकम् । विशेषेणैव कर्तव्यं भस्त्राख्यं कुम्भकं त्विदम् ॥ ३९॥ भस्त्रिका प्राणायाम के लिए पद्मासन में बैठकर शरीर को गर्दन सहित सीधा करके सर्वप्रथम मुख को बन्द करके नासिका के द्वारा वायु को बाहर निकाले । पुनः इस तरह तीव्रता के साथ वायु को खींचे कि वायु का स्पर्श कण्ठ, तालु, सिर एवं हृदय को मालूम पड़े। फिर उसका रेचन करके पुनः पूरक करे, इस तरह बार-बार वेगपूर्वक लुहार की धौंकनी की तरह वायु को खींचे एवं निकाले। इस प्रकार शरीरस्थ वायु को सावधानी के साथ चलाना चाहिए। जब थकान मालूम पड़े, तब दाहिने (सूर्य) स्वर से वायु को खींचकर तर्जनी को छोड़कर नासिका को कसकर पकड़कर वायु का कुम्भक करे, फिर बायें नासा (इड़ा) छिद्र से निकाल देना चाहिए। इस प्रकार के अभ्यास से कण्ठ की जलन मिटती है एवं जठराग्नि की वृद्धि होती है। यह प्राणायाम सुख देने वाला, पुण्यकारी, पापनाशक तथा कुण्डलिनी को जगाने वाला है। सुषुम्ना नाड़ी के मुख पर जो (बाधक) कफ आदि रहता है, इसके अभ्यास से वह सब नष्ट हो जाता है तथा सत, रज, तम इन तीनों गुणों से उत्पन्न तीनों ग्रंथियों का भेदन करता है। इसलिए विशेष रूप से इस भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए॥३२-३९॥ चतुर्णामपि भेदानां कुम्भके समुपस्थिते । बन्धत्रयमिदं कार्यं योगिभिर्वीतकल्मषैः ॥ ४० ॥ निष्पाप योगी को इन चारों प्रकार के प्राणायामों के कुम्भक के समय तीन प्रकार के बन्ध (मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध एवं जालन्धर बन्ध) भी लगाने चाहिए ॥४०॥ प्रथमो मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयणाभिधः । जालन्धरस्तृतीयस्तु तेषां लक्षणमुच्यते ॥ ४१॥ प्रथम को मूलबन्ध, द्वितीय को उड्डियान बन्ध और तीसरे को जालन्धर बन्ध कहते हैं। अब उनके लक्षण अर्थात् साधना की विधि कहते हैं॥४१॥ अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् । आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते ॥ ४२॥ शरीर के अधोभाग में विचरण करने वाले अपान वायु को, गुदा को संकुचित करके बलपूर्वक ऊपर उठाने की प्रक्रिया को मूलबन्ध कहते हैं ॥४२॥ अपाने चोर्ध्वगे याते सम्प्राप्ते वह्निमण्डले । ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुनाऽऽहता ॥ ४३॥ ततो यातौ वन्यपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् । तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा ॥ ४४॥ तेन कुण्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सम्प्रबुध्यते । दण्डाहतभुजङ्गीव निःश्वस्य ऋजुतां व्रजेत् ॥ ४५॥ बिलप्रवेशतो यत्र ब्रह्मनाड्यन्तरं व्रजेत् । तस्मान्नित्यं मूलबन्धः कर्तव्यो योगिभिः सदा ॥ ४६॥ अपान वायु ऊर्ध्वगमन करके जब वह्निमण्डल से योग करता है, उस समय वायु से आहत होकर अग्नि बहुत तेज हो जाती है। तत्पश्चात् उष्ण स्वरूप वाले प्राण में अग्नि और अपान के मिल जाने पर, उसके प्रभाव से देहजन्य विकार जल जाते हैं। (इसके बाद) उस अग्नि से तप्त होकर सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत् होकर प्रताड़ित की हुई सर्पिणी के समान हुंकारती हुई सीधी हो जाती है। उस समय यह अग्नि (कुण्डलिनी) विवर में प्रवेश करने की तरह सुषुम्ना नाड़ी के भीतर प्रवेश कर जाती है, इसलिए इस मूलबन्ध का अभ्यास योगियों को सदैव करते रहना चाहिए ॥ ॥४३-४६॥ कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियाणकः । बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः ॥ ४७॥ तस्मादुड्डीयणाख्योऽयं योगिभिः समुदाहृतः । सति वज्रासने पादौ कराभ्यां धारयेदृढम् ॥ ४८॥ गुल्फदेशसमीपे च कन्दं तत्र प्रपीडयेत् । पश्चिमं तानमुदरे धारयेद्-हृदये गले ॥ ४९ ॥ शनैः शनैर्यदा प्राणस्तुन्दसन्धिं निगच्छति । तुन्ददोषं विनिर्धूय कर्तव्यं सततं शनैः ॥ ५०॥ कुम्भक करके जब रेचक करते हैं, उससे पहले उड्डियान बन्ध किया जाता है, जिसके करने से यह प्राण सुषुम्ना नाड़ी के भीतर ऊर्ध्वगमन करता है, इसीलिए योगीजनों द्वारा यह 'उड्डीयाण' कहलाता है। इसके लिए वज्रासन में बैठकर पैरों पर दोनों हाथों को दृढ़ता पूर्वक रखे। जहाँ गुल्फ (टखना) रखा जाता है, उसके समीपस्थ कन्द को दबाते हुए, पेट को ऊपर की ओर खींचते हुए, गला एवं हृदय को भी तनाव देते हुए खींचना चाहिए, इस प्रकार प्राण धीरे-धीरे पेट की सन्धियों में प्रवेश कर जाता है, इससे पेट के समस्त विकार दूर हो जाते हैं। इसलिए इस क्रिया को निरन्तर करते रहना चाहिए ॥४७- ५०॥ पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिधः । कण्ठसङ्कोचरूपोऽसौ वायुमार्गनिरोधकः ॥ ५१॥ पूरक के अन्त में वायु को रोकने के लिए कण्ठ संकोचन क्रिया करते हैं, जिसे जालन्धर बन्ध कहते हैं॥५१॥ अधस्तात्कुञ्चनेनाशु कण्ठसङ्कोचने कृते । मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः ॥ ५२॥ मूलबन्ध के द्वारा अधोभाग में गुदा का संकोचन करके कण्ठ संकोचन अर्थात् जालन्धर बन्ध करे, बीच में (पेट में) उड्डियान बन्ध के द्वारा प्राण वायु को खींचना चाहिए। इस तरह प्राण को सब ओर से रोकने से वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके ऊर्ध्वगामी होता है॥५२॥ पूर्वोक्तेन क्रमेणैव सम्यगासनमास्थितः । चालनं तु सरस्वत्याः कृत्वा प्राणं निरोधयेत् ॥ ५३॥ पूर्व में बतायी गयी विधि से ठीक तरह से आसन पर बैठकर 'सरस्वती चालन' के द्वारा प्राणों का निरोध करना चाहिए ॥५३॥ प्रथमे दिवसे कार्य कुम्भकानां चतुष्टयम् । प्रत्येकं दशसङ्ख्याकं द्वितीये पञ्चभिस्तथा ॥ ५४॥ विशत्यलं तृतीयेऽह्नि पञ्चवृद्धया दिने दिने । कर्तव्यः कुम्भको नित्यं बन्धत्रयसमन्वितः ॥ ५५॥ चारों प्रकार के कुम्भक को पहले दिन दस-दस बार किया जाता है, दूसरे दिन पन्द्रह-पन्द्रह बार कुम्भक करे। प्राणायाम के क्रम में तीसरे दिन बीस-बीस बोर अभ्यास करे। इस प्रकार प्रतिदिन पाँच- पाँच संख्या में बढ़ाता चले। कुम्भक का अभ्यास तीनों बन्धों के साथ प्रतिदिन करना चाहिए॥५४-५५॥ दिवा सुप्तिर्निशायां तु जागरादतिमैथुनात् । बहुसङ्क्रमणं नित्यं रोधान्मूत्रपुरीषयोः ॥ ५६॥ विषमाशनदोषाच्च प्रयासप्राणचिन्तनात् । शीघ्रमुत्पद्यते रोगः स्तम्भयेद्यदि संयमी ॥ ५७॥ दिन में सोना, रात्रि का जागरण, अतिमैथुन, मल एवं मूत्र के वेग को रोकना, ज्यादा चलना, आसनों का उचित ढंग से अभ्यास न करना, प्राणायाम की क्रिया में बहुत शक्ति लगाना तथा चिन्तित रहना-इन दोषों के कारण साधक शीघ्र रोगी हो जाता है॥५६-५७॥ योगाभ्यासेन मे रोग उत्पन्न इति कथ्यते । ततोऽभ्यासं त्यजेदेवं प्रथमं विघ्न उच्यते ॥ ५८॥ द्वितीयं संशयाख्यं च तृतीयं च प्रमत्तता । आलस्याख्यं चतुर्थं च निद्रारूपं तु पञ्चमम् ॥ ५९॥ षष्ठं तु विरतिर्भान्तिः सप्तमं परिकीर्तितम् । विषमं चाष्टमं चैव अनाख्यं नवमं स्मृतम् ॥ ६०॥ अलब्धिर्योगतत्त्वस्य दशमं प्रोच्यते बुधैः । इत्येतद्विघ्नदशकं विचारेण त्यजेद्द्बुधः ॥ ६१॥ मुझे योगाभ्यास के द्वारा रोग हो गया है, यदि कोई साधक यह कहकर अभ्यास बन्द कर दे, तो समझना चाहिए कि योगाभ्यास का यह पहला विघ्न है। दूसरा विघ् साधना पर शंका करना अर्थात् विश्वास न होना, तीसरा विघ्न प्रमत्तता है, चौथा विघ्न आलस्य करना, पाँचवाँ विघ् ज्यादा नींद लेना, छठवाँ विघ्न साधना से प्रेम न होना, सातवाँ विघ्न भ्रान्ति, आठवाँ विघ्न विषय-वासना में अनुरक्ति, नवाँ अनाख्य (अप्रसिद्धि या अनाम) और योग तत्त्व को प्राप्त न होना दसवाँ विघ्न है, इस प्रकार ये दस विघ्न हैं, इन पर विचार करके बुद्धिमान् साधक को इनका त्याग कर देना चाहिए ॥५८-६१॥ प्राणाभ्यासस्ततः कार्यो नित्यं सत्त्वस्थया धिया । सुषुम्ना लीयते चित्तं तथा वायुः प्रधावति ॥ ६२॥ इसलिए नियमित रूप से सत्त्वमयी बुद्धि से विचार कर प्राणायाम करना चाहिए। इस प्रकार के चिन्तन से चित्त सुषुम्ना नाड़ी में लीन रहता है, जिसके कारण उसमें प्राणों का प्रवाह चलने लगता है॥६२॥ शुष्के मले तु योगी च स्याद्गतिश्चलिता ततः । अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् ॥ ६३॥ मल शोधन होने के बाद जब प्राण प्रवाहित (गतिशील) होने लगे, तभी बलपूर्वक अपान को ऊर्ध्वगामी बनाना चाहिए, उससे पहले नहीं ॥६३॥ आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते । अपानश्चोर्ध्वगो भूत्वा वह्निना सह गच्छति ॥ ६४॥ प्राण को ऊर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया के लिए गुदा के आकुंचन की क्रिया को मूलबन्ध कहते हैं। इस क्रिया से अपान ऊर्ध्वगामी होकर अग्नि के साथ संयुक्त होकर ऊपर की ओर चल देता है॥६४॥ प्राणस्थानं ततो वह्निः प्राणापानौ च सत्वरम् । मिलित्वा कुण्डलीं याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः ॥ ६५॥ तेनाग्निना च सन्तप्ता पवनेनैव चालिता । प्रसार्य स्वशरीरं तु सुषुम्ना वदनान्तरे ॥ ६६॥ प्राण के स्थान में जब वह अग्नि पहुँचती है और प्राण तथा अपान दोनों मिलकर कुण्डलिनी में मिलते हैं, उस समय उसकी गर्मी से तप्त होकर एवं वायु के बारम्बार दबाव से कुण्डलिनी सीधी होकर सुषुम्ना के मुँह में प्रवेश कर जाती है॥६५-६६॥ ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्त्वा रजोगुणसमुद्भवम् । सुषुम्ना वदने शीघ्रं विद्युल्लेखेव संस्फुरेत् ॥ ६७॥ विष्णुग्रन्थिं प्रयात्युच्चैः सत्वरं हृदि संस्थिता । ऊर्ध्वं गच्छति यच्चास्ते रुद्रग्रन्थिं तदुद्भवम् ॥ ६८॥ ध्रुवोर्मध्ये तु संभिद्य याति शीतांशुमण्डलम् । अनाहताख्यं यच्चक्रं दलैः षोडशभिर्युतम् ॥ ६९॥ तब यह कुण्डलिनी शक्ति रजोगुण से उत्पादित ब्रह्मग्रन्थि का भेदन करके विद्युत् शिखा की भाँति सुषुम्ना के मुख में ऊर्ध्वगमन करती है-प्रवेश करती है। (वहाँ से) शीघ्र ही हृदयचक्र में स्थित विष्णुग्रन्थि का भेदन कर उसके भी ऊपर रुद्रग्रन्थि (आज्ञा चक्र) में पहुँच जाती है॥ भृकुटियों के मध्य (आज्ञाचक्र) का भेदन करके यह चन्द्र स्थान में पहुँच जाती है, जहाँ पर षोडश दल वाला अनाहतचक्र स्थित है॥॥६७-६९॥ तत्र शीतांशुसज्जातं द्रवं शोषयति स्वयम् । चलिते प्राणवेगेन रक्तं पीतं रवेर्ग्रहात् ॥ ७०॥ यातेन्दुचक्रं यत्रास्ते शुद्धश्लेष्मद्रवात्मकम् । तत्र सिक्तं ग्रसत्युष्णं कथं शीतस्वभावकम् ॥ ७१॥ यह (कुण्डलिनी शक्ति) वहाँ पर चन्द्रमा के द्वारा निःसृत द्रव को सुखाकर प्राणवायु के वेग से गतिशील होकर, सूर्य से मिलकर, रक्त और पित्त को ग्रहण कर लेती है। वहाँ चन्द्र स्थान में जाकर जहाँ शुद्ध श्रेष्मा द्रवस्वरूप रहता है, उस रस पदार्थ को सोखकर उसे गर्म कर देती है, इस तरह वहाँ शीतलता नहीं रह जाती ॥७०-७१॥ तथैव रभसा शुक्लं चन्द्ररूपं हि तप्यते । ऊर्ध्वं प्रवहति क्षुब्धा तदैवं भ्रमतेतराम् ॥ ७२॥ तब यह शुक्ल रूप चन्द्रमा को शीघ्रता से तपा देती है तथा क्षुब्ध होकर ऊर्ध्वगामी हो जाती है॥७२॥ तस्यास्वादवशाच्चित्तं बहिष्ठं विषयेषु यत् । तदेव परमं भुक्त्वा स्वस्थः स्वात्मरतो युवा ॥ ७३॥ उस स्थिति में उसे अमृतरस का स्वाद मिल जाता है, इसलिए जो मन पहले बाहरी विषयों में भोगरत रहता था, वह अब अन्तर्मुखी होकर स्वयं में स्थित स्वकीय आत्मा में आनन्द की अनुभूति करने लगता है॥७३॥ प्रकृत्यष्टकरूपं च स्थानं गच्छति कुण्डली । क्रोडीकृत्य शिवं याति क्रोडीकृत्य विलीयते ॥ ७४॥ इस तरह से यह कुण्डलिनी शक्ति अष्टधा प्रकृति (पंच तत्त्व, मन, बुद्धि, अहंकार) से गमन करते हुए शिव से एकाकार होती है और उन्हीं में विलीन हो जाती है ॥७४॥ इत्यधोर्ध्वरजः शुक्लं शिवे तदनु मारुतः । प्राणापानौ समौ याति सदा जातौ तथैव च ॥ ७५॥ इस प्रकार अधोभाग स्थित रज व ऊर्ध्व स्थित शुक्ल (शुक्र), वायु के वेग से शिव में मिल जाते हैं तथा प्राण व अपान भी शिव में विलीन हो जाते हैं; क्योंकि उन्हें समान रूप से उत्पन्न होने वाला कहा गया है॥७५॥ भूतेऽल्पे चाप्यनल्पे वा वाचके त्वतिवर्धते । धवयत्यखिला वाता अग्निमूषाहिरण्यवत् ॥ ७६॥ जिस प्रकार अग्नि की गर्मी से स्वर्ण गलकर फैल जाता है, ठीक उसी प्रकार यह भौतिक शरीर चाहे छोटा हो या बड़ा (कुण्डलिनी की) उष्णता पाकर वह दिव्यशक्ति पूरे शरीर में फैल जाती है॥७६॥ आधिभौतिकदेहं तु आधिदैविकविग्रहे । देहोऽतिविमलं याति चातिवाहिकतामियात् ॥ ७७॥ जाड्यभावविनिर्मुक्तममलं चिन्मयात्मकम् । तस्यातिवाहिकं मुख्यं सर्वेषां तु मदात्मकम् ॥ ७८॥ इस दिव्यशक्ति (कुण्डलिनी) के प्रभाव से यह आधिभौतिक शरीर आधिदैविक शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा शरीर अत्यन्त पवित्र होकर सूक्ष्म शरीर की तरह हो जाता है। वह जड़ता भाव को छोड़कर विशुद्ध चिन्मय स्वरूप हो जाता है, जबकि शेष मनुष्य अज्ञानग्रस्त ही बने रहते हैं॥७७-७८॥ जायाभवविनिर्मुक्तिः कालरूपस्य विभ्रमः । इति तं स्वस्वरूपा हि मती रज्जुभुजङ्गवत् ॥ ७९ ॥ मृषैवोदेति सकलं मृषैव प्रविलीयते । रौप्यबुद्धिः शुक्तिकायां स्त्रीपुंसोभ्रमतो यथा ॥ ८०॥ उस साधक को अपने 'स्व' रूप की जानकारी हो जाती है, तब वह भव-बन्धन अर्थात् आवागमन से मुक्त हो जाता है, वह काल के पाश से मुक्त हो जाता है, रस्सी में सर्प, सीपी में चाँदी एवं स्त्री में पुरुष के भ्रम की तरह अपने स्वरूप का ज्ञान होने पर साधक को अपने शरीर की नश्वरता का बोध हो जाता है॥७९-८०॥ पिण्डब्रह्माण्डयोरैक्यं लिङ्गसूत्रात्मनोरपि । स्वापाव्याकृतयोरैक्यं स्वप्रकाशचिदात्मनोः ॥ ८१॥ इस प्रकार पिण्ड और ब्रह्माण्ड तथा सूक्ष्म शरीर एवं सूत्रात्मा के एकाकार होने पर अपनी आत्मा और परम चैतन्य स्वप्रकाशित परमात्मा की एकता का ज्ञान हो जाता है॥८१॥ शक्तिः कुण्डलिनी नाम बिसतन्तुनिभा शुभा । मूलकन्दं फणाग्रेण दृष्ट्वा कमलकन्दवत् ॥ ८२॥ मुखेन पुच्छं संगृह्य ब्रह्मरन्ध्रसमन्विता । पद्मासनगतः स्वस्थो गुदमाकुञ्य साधकः ॥ ८३॥ वायुमूर्ध्वगतं कुर्वन्कुम्भकाविष्टमानसः । वाय्वाघातवशादग्निः स्वाधिष्ठानगतो ज्वलन् ॥ ८४॥ कमल के नाल की तरह कुण्डलिनी शक्ति होती है तथा कमलकन्द की तरह ही मूलकन्द को फणाग्र से देखकर, मुँह में अपने पुच्छ भाग को डालकर ब्रह्मरंध्र (सुषुम्ना नाड़ी) के द्वार को ढककर वह सुप्त पड़ी रहती है। इसके जागरण के लिए पद्मासन में बैठकर गुदा को ऊपर की ओर खींचकर कुम्भक करते हुए वायु को ऊपर की ओर ले जाकर वायु के आघात से स्वाधिष्ठानचक्र में स्थित अग्नि को प्रज्वलित करना चाहिए॥८२-८४॥ ज्वलनाघातपवनाघातोरून्निद्रितोऽहिराट् । ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्त्वा विष्णुग्रन्थिं भिनत्त्यतः ॥ ८५॥ रुद्रग्रन्थिं च भित्त्वैव कमलानि भिनत्ति षट् । सहस्रकमले शक्तिः शिवेन सह मोदते ॥ ८६॥ सैवावस्था परा ज्ञेया सैव निर्वृतिकारिणी इति ॥ ऐसा करने से अग्नि और वायु के प्रहार से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत् होकर ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ग्रन्थियों को भेदन करके षट्चक्र को भेदन करती हुई सहस्रार कमल में पहुँच जाती है तथा यहाँ वह शक्ति के रूप में शिव में मिलकर आनन्द प्राप्त करती है। यह अवस्था परमानन्ददायी मुक्तिरूप होती है॥८५-८७॥ ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ ॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥