र्वैददक दीक्षान्त

र्वैददक दीक्षान्त उपदेश वेदमनूच्याचार्योऽ न्तेवासिनमनुशास्ति । वेद विद्या पढ़ा देनेके पश्चात् आचार्य शिष्यको उपदेश करता है, दीक्षान्त-भाषण देता हुआ कहता है सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । तुम सत्य बोलना। धर्माचरण करना। स्वाध्याय से प्रमाद न करना। आचार्यको जो प्रिय हो, उसे दक्षिणा रूप में देकर गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करना और संतति के सूत्र को न तोड़ना। सत्य बोलने से प्रमाद न करना। धर्मपालन में प्रमाद न करना। जिससे तुम्हारा कल्याण होता हो, उसमें प्रमाद न करना। अपना वैभव बढ़ाने में प्रमाद न करना। स्वाध्याय और प्रवचन द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाते रहना, देवों और पितरों के प्रति तुम्हारा जो कर्तव्य है, उसे सदा ध्यानमें रखना। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। यान्यस्माकसुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि। ये के चास्मच्छेयासो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयादेयम्। श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भिया देयम्। संविदा देयम् ।। बुद्धि रखना। हमारे जो कर्म अनिन्दित हैं, उन्हीं का स्मरण रखना, दूसरों का नहीं। जो हमारे सदाचार हैं, उन्हींकी उपासना करना, दूसरों की नहीं। हमसे श्रेष्ठ विद्वान् जहाँ बैठे हों, उनके प्रवचनको ध्यानसे सुनना, उनका यथेष्ट आदर करना। दूसरों की जो भी सहायता करना, वह श्रद्धापूर्वक करना, किसी को वस्तु अश्रद्धा से न देना। प्रसन्नता के साथ देना, नम्रता पूर्वक देना, भय से भी देना तो प्रेमपूर्वक देना। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन्। तथा तत्र वर्तथाः। ऐसा करते हुए भी यदि तुम्हें कर्तव्य और अकर्तव्य में संशय पैदा हो जाय, यह समझ में न आये कि धर्माचार क्या हैं तो विचारवान् तपस्वी, कर्तव्यपरायण, शान्त और सरस स्वभाव वाले जो विद्वान् हों, उनके पास जाकर अपना समाधान कर लेना और जैसा वे बर्ताव करते हों, वैसा बर्ताव करना। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा तेषु वर्तेथाः। किसी दोष से लांछित मनुष्यों के साथ बर्ताव करने में जो वहाँ उत्तम विचारवाले, परामर्श देने में कुशल, सब प्रकार से यथायोग्य सत्कर्म और सदाचार में लगे हुए, रूखे पनसे रहित धर्म के अभिलाषी विद्वान् हों, वे जिस प्रकार उनके साथ बर्ताव करें, करें, उनके साथ तुम भी वैसा ही व्यवहार करना। एष आदेशः। एष उपदेशः। एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम् । एवमु चैतदुपास्यम् । यही आदेश हैं। यहीं उपदेश है। यही वेद और उपनिषद का सार है। यही हमारी शिक्षा है। इसके अनुसार ही अपने जीवनमें आचरण करना।

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