Shri Vishnu Smriti Chapter 2 (श्री विष्णु स्मृतिः दूसरा अध्याय)

द्वितीयोऽध्यायः दूसरा अध्याय अतः परं प्रवक्ष्यामि गृहिणां धर्ममुत्तमम् ।। प्राजापत्यपदस्थानं सम्यककृत्यं निबोधत ॥ १ ॥ अब मैं इसके आगे गृहस्थियों के उत्तम धर्म को कहता हूँ, ब्रह्मलोक के स्थान के दाता इस धर्म को भलीभांति सुनें ॥१॥ सर्वः कल्ये समुत्थाय कृतशौचः समाहितः ॥ स्नात्वा संध्यामुपासीत सर्वकालमतंद्रितः ॥२॥ प्रातःकाल ही उठकर शौचादि कार्य से निश्चिन्त होकर सदा आलस्यरहित स्नानकर संध्योपासन करे ॥२॥ अज्ञानाद्यदि वा मोहाद्रात्रौ यद्यरितं कृतम् ॥ प्रातःस्नानेन तत्सर्व शोधयंति द्विजोत्तमाः ॥ ३ ॥ मोह से अथवा अज्ञान से जो पाप रात्रि में कियाहै उसको प्रातःकाल स्नान करने से ब्राह्मणों में उत्तम मनुष्य दूर करते हैं ॥३॥ प्रविश्याथाग्निहोत्रं तु हुत्वाग्नि विधिवत्ततः ॥ शुचौ देशे समासीनः स्वाध्यायं शक्तितोऽभ्यसेत् ॥ ४ ॥ फिर अग्निशाला में जाकर विधिसहित अग्निहोत्र कर शुद्ध देश में बैठकर शक्ति के अनुसार वेद को पढना चाहिए ॥४॥ स्वाध्यायान्ते समुत्थाय स्नानं कृत्वा तु मंत्रवत् ॥ दे वानृषीन्पितश्चापि तर्पयेत्तिलवारिणा ॥ ५ ॥ वेद के पाठ कर चुकने के पीछे वेद का पढनेवाला ब्राह्मण स्नान करके तिल और जल से देवता ऋषि पितर इनका तर्पण करै ॥५॥ मध्याह्ने त्वथ संप्राप्ते शिष्टं भुजीत वाग्यतः ॥ भुक्तोपविष्टो विश्रांतो ब्रह्म किंचिद्विचारयेत् ॥६॥ फिर मध्याह्न समयके आने पर शिष्ट अर्थात बलिवैश्वदेव से बचा हुए अन्न को मौन धारण कर भोजन करे, भोजन करने के उपरान्त कुछ विश्राम करके ब्रह्म का विचार करना चाहिए ॥६॥ इतिहासं प्रयुंजीत त्रिकालसमये गृही ॥ काले चतुर्थे संप्राप्ते गृहे वा यदि वा वहिः ॥ ७ ॥ दिन के तीसरे भाग में इतिहास अर्थात महाभारत आदि का भी विचार करे, और संध्या होने पर घरमें अथवा बाहर ॥७॥ आसीनः पश्चिमा संध्यां गायत्रीं शतो जपेत् । हुत्वा चा थाग्निहोत्रं तु कृत्वा चाग्निपरिक्रियाम् ॥ ८॥ पश्चिम दिशाके सन्मुख बैठकर संध्योपासन करे; और यथा शक्ति गायत्री का जप करे, इसके पश्च्यात अग्निहोत्र और अग्नि की प्रदक्षिणा करनी चाहिए ॥ ८॥ बलिं च विधिवद्दत्त्वा भुंजीत विधिपूर्वकम् ॥ दिवा वा यदि वा रात्रौ अतिथिस्त्वाबजेद्यदि ॥ ९ ॥ और विधि सहित वलिवैश्वदेव करके विधिपूर्वक भोजन करन चाहिए, यदि दिन के समय अथवा रात्रि के समय कोई अतिथि आ जाय तो ॥९॥ तृणभूपारिवाग्भिस्तु पूजयेत्तं यथाविधि ॥ कथाभिः प्रीतिमाहृत्य विद्यादीनि विचारयेत् ॥ १० ॥ आसन भूमि, जल, वाणीसे उसका भली भाँति से आदर सत्कार कर के, आने जाने की कथा से उसको सन्तुष्ट करके विद्याआदि का विचार करना चाहिए ॥१०॥ संनिवेश्याथ विप्रं तु संविशेत्तदनुज्ञया ॥ यदि योगी तु संप्राप्तो भिक्षार्थी समुपस्थितः ॥११॥ पहले अतिथि को शयन कराकर और तत्श्च्यात उसकी आज्ञा लेकर अपने आप शयन करे यदि भिक्षा के लिये योगी आ जाए तो उसके सन्मुख बैठकर ॥११॥ योगिनं पूजयेन्नित्यम न्यथा किल्बिपी भवेत् ॥ पुरे वा यदि वा ग्रामे योगी सन्निहितो भवेत् ॥१२॥ योगी का नित्य पूजन करना चाहिए, ऐसा नहीं करने वाला पाप का भागी होता है, पुर में अथवा गाँव यदि योगी आ जाए ॥२॥ पूज्या नित्यं भवत्येव सर्वे चैव निवासिनः ॥ तस्मात्संपूजयेन्नित्यं योगिनं गृहभागतम् ॥ १३ ॥ तो उस योगी के आने से वहां के सभी निवासी पूजने योग्य होते हैं, इस कारण जो योगी घर में आए तो उसका नित्य पूजन करना चाहिए ॥१३ ॥ तस्मिन्प्रयुक्ता पूजा या साक्षयायोपकल्पते ।। गृहमेधिनां यत्प्रोक्तं स्वर्गसाधनमुत्तमम् ॥ १४ ॥ उसकी की हुई पूजा अविनाशी सुख देने वाली होती है, गृहस्थियों का उत्तम स्वर्ग का साधन जो कर्म है वह कर्म मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १४ ॥ ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय तत्सर्व सम्यगाचरेत् ॥ चतुःप्रकारं भियंते गृहिणो धर्मसाधकाः ॥१५॥ ब्राह्म मुहूर्त में उठकर उस पूर्वोक्त सम्पूर्ण कर्म का भली प्रकार से आचरण करे, धर्म के सिद्ध करनेवाले गृहस्थी चार प्रकारके भिन्न भिन्न होते हैं। ॥१५॥ वृत्तिभेदेन सततं ज्यायांस्तेषां परः परः ॥ कुसूलधान्यको वा स्याकुंभीधान्यक एव वा ॥१६॥ अपनी जीविका के भेद से उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होता है, पहला कुशूलधान्य अर्थात कोठे में तीन वर्ष तक निर्वाह हो जाए इतने अन्न को जो रक्खे, दूसरा कुंभीधान्यक अर्थात एक वर्ष तक निर्वाह होने के लिये कुंडों में जो अन्न को रक्खे ॥१६॥ त्रयहैहिको वापि भवेत्सद्यः प्रक्षालकोपि वा ॥ श्रोतं स्मात च यत्किंचिद्विधानं धर्मसाधनम् ॥ १७ ॥ तीसरा त्र्यहैहिक अर्थात जो तीन दिन तक निर्वाह के योग्य अन्न को रक्खें और चौथा सद्यः प्रक्षालक अर्थात जो केवल उसी दिन के उपभोग लायक अन्न एकत्रित करे। वेद अथवा स्मृतियों में कहा हुआ जो धर्म का साधन कर्म है ॥१७॥ गृहे तद्वसता कार्यमन्यथा दोषभाग्भवेत् । एवं विप्रो गृहस्थस्तु शांतः शुक्लांवरः शुचिः ॥ १८ ॥ घर में रहने वाले मनुष्य को वह समस्त करना चाहिये, कारण कि, न करनेवाला दोष का भागी होता है, इस प्रकार से शांत स्वभाव श्वेत वस्त्रों वाला शुद्ध, गृहस्थी ब्राझण ॥१८॥ प्रजापतेः परं स्थान सम्पामोति न संशयः ॥ १९ ॥ ब्रह्मा के उत्तम स्थान को प्राप्त होताहै; इसमें संदेह नहीं है ॥१९॥ इति वैष्णवधर्मशास्त्रे द्वितीयो ऽध्यायः ॥ २॥ वैष्णवधर्मशास्त्रे का द्वितीय अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

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