ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५ ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता- इन्द्र । छंद- गायत्री आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र गायत । सखायः स्तोमवाहसः ॥१॥ हे याज्ञिक मित्रो ! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिये प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और हर प्रकार से उनकी स्तुति करो ॥१॥ पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥२॥ (हे याजक मित्रो ! सोम के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर संयुक्तरूप से सोमयज्ञ में शत्रुओं को पराजित करने वाले ऐश्वर्य के स्वामी इन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो ॥२॥ स घा नो योग आ भुवत्स राये स पुरंध्याम् । गमद्वाजेभिरा स नः ॥३॥ वे इन्द्रदेव हमारे पुरुषार्थ को प्रखर बनाने में सहायक हों, धन-धान्य से हमें परिपूर्ण करें तथा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुये पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ॥३॥ यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः । तस्मा इन्द्राय गायत ॥४॥ (हे याजको !} संग्राम में जिनके अश्वों से युक्त रथों के सम्मुख शत्रु टिक नहीं सकते, उन इन्द्रदेव के गुणों का आप गान करें ॥४॥ सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये । सोमासो दध्याशिरः ॥५॥ यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हो॥५॥ त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ॥६॥ हे उत्तम कर्मवाले इन्द्रदेव! आप सोमरस पीने के लिये देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने के लिये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते हैं॥६॥ आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः । शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! तीनों सवनों में व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक समृद्ध करे ॥७॥ त्वां स्तोमा अवीवृधन्त्वामुक्था शतक्रतो । त्वां वर्धन्तु नो गिरः ॥८॥ हे सैकड़ों यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव ! स्तोत्र आपकी वृद्धि करें । यह उक्थ (स्तोत्र) वचने और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढ़ायें ॥८॥ अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम् । यस्मिन्विश्वानि पौंस्या ॥९॥ रक्षणीय की सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल-पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपों में विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करें ॥९॥ मा नो मर्ता अभि द्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः । ईशानो यवया वधम् ॥१०॥ हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! हमारे शरीर को कोई भी शत्रु क्षति न पहुँचाये । हमें कोई भी हिसित न करे, आप हमारे संरक्षक रहें ॥१०॥

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