ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७ ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता- इन्द्र । छंद- गायत्री इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः । इन्द्रं वाणीरनूषत ॥१॥ सामगान के साधकों ने गाये जाने योग्य बृहत्साम की स्तुतियों (गाथा) से देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया है। इसी तरह याज्ञिकों ने भी मन्त्रोच्चारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की है ॥१॥ इन्द्र इद्धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा । इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥२॥ संयुक्त करने की क्षमता वाले, वज्रधारी, स्वर्ण-मण्डित इन्द्रदेव, वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वाले अश्वों के साथ हैं॥२॥ इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि । वि गोभिरद्रिमैरयत् ॥३॥ (देवशक्तियों के संगठक) इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकाशित करने के महान् उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश में स्थापित किया, जिनने अपनी किरणों से पर्वत आदि समस्त विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया ॥३॥ इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरूतिभिः ॥४॥ हे वीर इन्द्रदेव ! आप सहस्रों प्रकार के धन लाभ वाले छोटे-बड़े संग्रामों में वीरतापूर्वक हमारी रक्षा करें ॥४॥ इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे । युजं वृत्रेषु वज्रिणम् ॥५॥ हम छोटे-बड़े सभी (जीवन) संग्रामों में वृत्रासुर के संहारके, वज्रपाणि इन्द्रदेव को सहायतार्थ बुलाते हैं॥५॥ स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि । अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥६॥ सतत दानशील, सदैव अपराजित हे इन्द्रदेव ! आप हमारे लिये मेघ से जल की वृष्टि करें ॥६॥ तुज्जेतुज्ने य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः । न विन्धे अस्य सुष्टुतिम् ॥७॥ प्रत्येक दान के समय, वज्रधारी इन्द्रदेव के सदृश दान की (दानी की) उपमा कहीं अन्यत्र नहीं मिलती। इन्द्रदेव की इससे अधिक उत्तम स्तुति करने में हम समर्थ नहीं हैं॥७॥ वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुतः ॥८॥ सबके स्वामी, हमारे विरुद्ध कार्य न करने वाले, शक्तिमान् इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अनुदान बाँटने के लिये मनुष्यों के पास उसी प्रकार जाते हैं, जैसे वृषभ गायों के समूह में जाता है॥८॥ य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति । इन्द्रः पञ्च क्षितीनाम् ॥९॥ इन्द्रदेव पाँचों श्रेणियों के मनुष्यों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) और सब ऐश्वर्यो- सम्पदाओं के अद्वितीय स्वामी हैं॥९॥ इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः । अस्माकमस्तु केवलः ॥१०॥ हे ऋत्विजों ! हे यजमानों! सभी लोगों में उत्तम, इन्द्रदेव को, आप सब के कल्याण के लिये हमें आमंत्रित करते हैं, वे हमारे ऊपर विशेष कृपा करें ॥१०॥

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