Swetasvatara Upanishad Chapter 1 (श्वेताश्वतरोपनिषद) प्रथम अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ अथ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः ॥ प्रथम अध्याय हरिः ॐ ॥ ब्रह्मवादिनो वदन्ति । हरि ॐ, इस प्रकार परमात्मा के परम पवित्र नाम का उच्चारण करके, उन परम पिता परमेश्वर का स्मरण करते हुए इस उपनिषद का प्रारम्भ करते हैं। किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा । अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥१॥ ब्रह्म विषयक चर्चा करने वाले कुछ जिज्ञासु आपस में चर्चा करते हुए हैं। हे वेदज्ञ महर्षि ! इस जगत का मुख कारण कौन है? हम लोग किससे उत्पन्न हुए हैं ? किसके सहारे जी रहे हैं? हमारे जीवन का क्या आधार हैं? हमारी स्थिति सम्यक प्रकार से किसके सहारे से बनी हुई है? किसके अधीन रहकर हम लोग सुख और दुखों में निश्चित व्यवस्था के अनुसारभोग रहे हैं? ॥१॥ कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥२॥ काल, स्वभाव, निश्चित फल देने वाला कर्म, आकस्मिक घटना, पाँचों महाभूत तथा जीवात्मा कारण है। इन पर विचार करना चाहिए। इन काल आदि का समुदाय भी इस जगत का कारण नहीं हो सकता। क्योंकि यह सब चेतन आत्मा के अधीन हैं अर्थात जड़ होने के कारण स्वतंत्र नहीं हैं। परन्तु जीवात्मा नही इस जगत का कारण नहीं हो सकता क्योंकि जीवात्मा भी सुखों और दुखों के कारण भाग्य के अधीन है। अतः कारण कुछ और ही हैं। ॥२॥ ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् । यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥३॥ उन्होंने ध्यानयोग में स्थित होकर, अपने गुणों से ढकी हुई उन परमात्मा देव की स्वल्प भूत अचिन्त्य शक्ति का साक्षात्कार किया। वह परमात्मादेव अकेला ही काल से लेकर आत्मा आदि सम्पूर्ण कारणों पर शासन करता है। अर्थात समस्त कारक जिनकी आज्ञा और प्रेरणा पाकर अथवा उनका अंश धारण करके अपना कार्य करने में सक्षम होते हैं, वह सर्व शक्तिमान परमेश्वर ही इस जगत के वास्तविक कारण हैं, कोई अन्य नहीं है। ॥३॥ तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः । अष्टकैः ष‌ड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥४॥ उस एक नेमीवाले, बीस सहायक अरों से तथा छः अष्टकों से युक्त, अनेक रूपों वाले एक ही पाश से युक्त, मार्ग मे तीन भेदों वाले तथा दो निमित्त और मोह रुपी एक नाभि वाले', उस विश्व चक्र को उन्होंने देखा। ॥४॥ पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रांपञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम् । पञ्चावर्ता पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः ॥५॥ पांच स्रोतों से आने वाले विषय रुप जल से युक्त, पांच स्थानों से उत्पन्न होकर, भयानक और टेढ़ी मेढ़ी चाल से चलने वाली, पांच प्राण रूप तरंगों वाली, पांच प्रकार के ज्ञान आदि का मूल कारण मन ही है। पांच भवरों वाली, पांच दुःखरूप प्रवाह के वेग से युक्त, पांच पर्वों वाली और पचास भेदों वाली 14 नदी को हम लोग जानते हैं। ॥५॥ सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे । पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥६॥ सबके जीविका रूप, सबके आश्रयभूत विस्तृत ब्रह्मचक्र मे जीवात्मा को घुमाया जाता है। अपने आप को सबके प्रेरक परमात्मा को अलग अलग जानकर और उसके पश्च्यात उस परमात्मा से स्वीकृत होकर अमृत भाव को प्राप्त हो जाता है। ॥६॥ उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च । अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ॥ ७॥ यह वेद वर्णित परब्रह्म ही सर्वश्रेष्ठ आश्रय और अविनाशी है। उसमे तीनों लोक स्थित हैं। वेद के तत्व को जानने वाले महापुरुष, हृदय में अंतर्यामी रूप से थित उस ब्रह्म को जानकार, उसी के परायण हो, उस परब्रह्म मे लीन होकर, सदा के लिए जन्म- मृत्यु से मुक्त हो गए। ॥७॥ संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः । अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ ८॥ विनाशशील जड़ वर्ग तथा अविनाशी जीवात्मा इन दोनों के संयुक्त रूप, व्यक्त और अव्यक्त रूप, इस विश्व का परमेश्वर ही धारण और पोषण करता है। तथा जीवात्मा इस जगत के विषयों का भोक्ता बने रहने के कारण, प्रकृति के अधीन हो इसमें बंध जाता है और उस परमदेव परमेश्वर को जानकार सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। ॥८॥ ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता । अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ॥ ९॥ सर्वज्ञ और अज्ञानी, सर्वसमर्थ और असमर्थ, यह दो अजन्मा आत्मा है तथा भोगनेवाले जीवात्मा के लिए उपयुक्त भोगी सामग्री से युक्त अनादी प्रकृति एक अन्य तीसरी शक्ति है। यह परमात्मा अनंत, सम्पूर्ण रूपों वाला और कर्तापन के अभिमान से रहित है। जो मनुष्य इस प्रकार ईश्वर, जीव और प्रकृति, इन तीनो को ब्रह्मरूप से जान लेता है, वह सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। ॥९॥ क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः । तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥ १०॥ प्रक्रति तो विनाशशील है, इसको भोगने वाला आत्मा अमृत स्वरुप अविनाशी है, इन विनाशशील जड़ तत्व और चेतन आत्मा दोनों को एक ईश्वर अपने शासन मे रखता है। इस प्रकार परमात्मा को जान कर, उसका निरंतर ध्यान करने से, मन को उसमे लगाये रखने से तथा उसी में तल्लीन जो जाने से, अंत में उस परमेश्वर परमात्मा को प्राप्त कर समस्त माया की निर्वृति हो जाती है अर्थात मोक्ष प्राप्त हो जाता है। ॥११॥ ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः । तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वेश्वर्यं केवल आप्तकामः ॥ ११॥ उस परमदेव का निरंतर ध्यान करने से, उस प्रकाशमय परमात्मा को जान लेने पर, समस्त बन्धनों का नाश हो जाता है। क्योंकि दुःख- क्लेशों का नाश जो जाने के कारण, जन्म-मृत्यु का सर्वथा अभाव हो जाता है। अतः शरीर का नाश होने पर, तीसरे लोक (स्वर्ग) तक के समस्त ऐश्वर्य का त्याग करके सर्वथा विशुद्ध पूर्ण काम हो जाता है। ॥१२॥ एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् । भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ १२॥ अपने ही भीतर स्थित इस ब्रह्म को सर्वदा जानना चाहिए क्योंकि इससे बढ़कर जानने योग्य तत्व दूसरा कुछ भी नहीं है। भोक्ता- जीवात्मा, भोग्य -जड़ वर्ग और इन तीनो के प्रेरक ईश्वर को जान कर, मनुष्य सब कुछ जान लेता है। इस प्रकार इन तीन भेदों में बताया हुआ ब्रह्म ही है। अर्थात जड़- प्रकृति, चेतन- आत्मा और इन दोनों के आधार परमात्मा - यह तीनो ब्रह्म के ही रूप हैं। ॥१२॥ वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः । स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे ॥ १३॥ जिस प्रकार योनि अर्थात आश्रयभूत काष्ठ मे विद्यमान अग्नि का रूप दिखाई नहीं देता और उसके चिन्ह उसकी सत्ता का नाश भी नहीं होता क्योंकि वह चेष्टा करने पर अवश्य ही अपनी योनि मे ग्रहण किया जा सकता है, उसी प्रकार वह दोनों जीवात्मा तथा परमात्मा शरीर में ही ओंकार के द्वारा साधना करने पर ग्रहण किये जा सकते हैं। अर्थ यह है की जिस प्रकार अग्नि छुपा हुआ होने पर भी अरणि का मंथन करने पर भी उदित हो जाता है। उसी प्रकार परमात्मा के प्रत्यक्ष न होने पर भी ओंकार के जप द्वारा साधना करने पर उनका साक्षात्कार अपने हृदय में किया जा सकता है। ॥१३॥ स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् । ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्येन्निगूढवत् ॥ १४॥ अपने शरीर को नीचे की अरणि और ओंकार (प्रणव) को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान के द्वारा निरंतर मंथन करते रहने से, साधक छिपी हुई अग्नि की भांति परम देव परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। ॥१४॥ तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिरापः स्रोतः स्वरणीषु चाग्निः । एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौसत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति ॥ १५॥ तिलों मे तेल, दही में घी, सोतों मे जल और अरणियों मे जल जिस प्रकार छिपे रहते हैं। उसी प्रकार वह परमात्मा हृदय मे छुपा हुआ है। जो कोई साधक इसको सत्य के द्वारा और सत्य रूप तप से उसका चिंतन करता है। उसके द्वारा वह परमात्मा ग्रहण किया जा सकता है। ॥१५॥ सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् । आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् ॥ १६॥ दूध मे विद्यमान घी की भांति सर्वत्र विद्यमान, आत्मविद्या तथा तप से प्राप्त होने वाले परमात्मा को जो साधक जान लेता है। वही उपनिषदों मे बताया हुआ परम तत्व ब्रह्म है। यही उपनिषदों मे बताया हुआ परम तत्व ब्रह्म है। ॥१६॥ ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥

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