Mundaka Upanishad Third Mundaka (मुण्डकोपनिषद) तृतीय मुण्डक

॥ श्री हरि ॥ ॥ मुण्डकोपनिषद ॥ ॥ तृतीय मुण्डके प्रथमः खण्डः ॥ तृतीय मुण्डक प्रथम खण्ड द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥१॥ एक साथ रहनेवाले तथा परस्पर समभाव रखने वाले दो पक्षी जीवात्मा और परमात्मा एक ही वृक्ष (शरीर) या आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोनों में से एक तो उस वृक्ष के कर्मरूप फलों का स्वाद ले- लेकर उपभोग करता है, किंतु दूसरा न खाता हुआ केवल देखता रहता है। ॥१॥ समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनिशया शोचति मुह्यमानः । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥२॥ पूर्वोक्त शरीर रूपी समान वृक्षपर रहनेवाला जीवात्मा शरीर की गहरी आसक्ति में डूबा हुआ है। असमर्थता रूप दीनता का अनुभव करता हुआ, मोहित होकर शोक करता रहता है। जब कभी भगवान की अहेतु की दया से भक्तों द्वारा नित्य सेवित तथा अपने से भिन्न, परमेश्वर को और उनकी महिमा को यह प्रत्यक्ष कर लेता है, तब सर्वथा शोक रहित हो जाता है। ॥२॥ यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् । तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥३॥ जब यह द्रष्टा जीवात्मा सबके शासक ब्रह्मा के भी आदि कारण, सम्पूर्ण जगत के रचयिता, दिव्य प्रकाश स्वरूप परमपुरुष को प्रत्यक्ष कर लेता है। उस समय पुण्य-पाप दोनों को भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महात्मा सर्वोत्तम समता को प्राप्त कर लेता है। ॥३॥ प्रणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन् विद्वान् भवते नातिवादी । आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥४॥ यह परमेश्वर ही प्राण है, जो सब प्राणियों के द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इसको जाननेवाला ज्ञानी अभिमान पूर्वक बढ-चढकर बातें करनेवाला नहीं होता। किंतु वह यथायोग्य भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करता हुआ सबके आत्मरूप अन्तर्यामी परमेश्वर में क्रीडा करता रहता है और सबके आत्मा अन्तर्यामी परमेश्वर में ही रमण करता रहता है। यह ज्ञानी भक्त ब्रह्मवेत्ताओं में भी श्रेष्ठ है। ॥४॥ सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्म सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥५॥ यह शरीर के भीतर ही हृदय में विराजमान प्रकाश स्वरूप और परम विशुद्ध परमात्मा निस्संदेह सत्य भाषण तप और ब्रह्मचर्य पूर्वक, यथार्थ ज्ञान से ही सदा प्राप्त होनेवाला है। जिसे सब प्रकार के दोषों से रहित हुए यत्नशील साधक ही देख पाते हैं। ॥५॥ सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः । येनाऽऽक्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥६॥ सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्य से परिपूर्ण है। जिसमें पूर्ण काम ऋषि लोग वहाँ गमन करते हैं। जहाँ वह सत्य स्वरूप परब्रह्म परमात्मा उत्कृष्ट धाम है। ॥६॥ बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति । दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥ वह परब्रह्म महान दिव्य और अचिन्त्यत्वरूप है तथा वह सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्मरूप से प्रकाशित होता है। तथा वहा दूर से भी अत्यंत दूर है और इस शरीर में रहकर अत्यंत समीप भी है। यहाँ देखने वालों के भीतर ही उसकी हृदय रुपी गुफा में स्थित है। ॥७॥ न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा । ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥ वह परमात्मा न तो नेत्रों से, न वाणी से और न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण करने में आता है। तथा तप से अथवा कर्मों से ही वह ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अवयवरहित परमात्मा को तो विशुद्ध अन्तःकरण वाला साधक उस विशुद्ध अन्तःकरण से निरन्तर उसका ध्यान करता हुआ ही ज्ञान की निर्मलता से देख पाता है। ॥ ८॥ एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश । प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ॥९॥ जिसमे पाँच भेदोवाला प्राण भली भाँति प्रविष्ट है उसी शरीर में रहनेवाला यह सूक्ष्म आत्मा मन से जानने योग्य है। प्राणियों का वह सम्पूर्ण चित्त प्राणों से व्याप्त है। जिस अन्तःकरण के विशुद्ध होने पर यह आत्मा सब प्रकारसे समर्थ होता है ॥ ९ ॥ यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् । तं तं लोकं जयते तांश्च कामांस्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेत् भूतिकामः ॥१०॥ विशुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य जिस-जिस लोक को मन से चिन्तन करता है। तथा जिन भोगों की कामना करता है, उन-उन लोकों को जीत लेता है और उन इच्छित भोगों को भी प्राप्त कर लेता है। इसीलिये ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जाननेवाले महात्मा का सत्कार करे। ॥१०॥ ॥ इति मुण्डकोपनिषदि तृतीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥ ॥ प्रथम खण्ड समाप्त ॥१॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ मुण्डकोपनिषद ॥ ॥ तृतीय मुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥ द्वितीय खण्ड स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् । उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः ॥ १॥ वह निष्काम भाव वाला पुरुष इस परम विशुद्ध प्रकाशमान ब्रह्मधाम को जान लेता है। जिसमें सम्पूर्ण जगत् स्थित हुआ प्रतीत होता है। जो भी कोई निष्काम साधक परम पुरुष की उपासना करते हैं, वह बुद्धिमान रजोवीर्यमय इस जगत को अतिक्रमण कर जाते हैं। ॥१॥ कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र । पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥ २॥ जो भोगों को आदर देनेवाला मानव उनकी कामना करता है। वह उन कामनाओं के कारण उन-उन स्थानों में उत्पन्न होता है जहाँ वह उपलब्ध हो सकें। परन्तु जो पूर्णकाम हो चुका है, उस विशुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुष की सम्पूर्ण कामनाएँ यहीं सर्वथा विलीन हो जाती हैं। ॥२॥ नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ ३॥ यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्वि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसको स्वीकार कर लेता है। उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यह आत्मा परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है। ॥३॥ नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् । एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥ ४॥ यह परमात्मा बलहीन मनुष्य द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता तथा प्रमाद से अथवा लक्षणरहित तप से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु जो बुद्धिमान साधक इन उपायों द्वारा प्रयत्न करता है, उसका यह आत्मा ब्रह्म धाम में प्रविष्ट हो जाता है। ॥४॥ सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥ ५॥ सर्वथा आसक्ति रहित और विशुद्ध अन्तः करण वाले ऋषिलोग इस परमात्मा को पूर्णतया प्राप्त होकर ज्ञान तृप्त एवं परम शांत हो जाते है। अपने-आप को परमात्मा मे संयुक्त कर देने वाले वह ज्ञानीजन सर्वव्यापी परमात्मा को सब ओर से प्राप्त करके सर्वरूप परमात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। ॥५॥ वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ ६॥ जिन्होंने वेदान्त-उपनिषद् शास्त्र के विज्ञान द्वारा उसके अर्थभूत परमात्मा को पूर्ण निश्चयपूर्वक जान लिया है तथा कर्मफल और आसक्ति के त्यागरूप योग से जिनका अंत:करण शुद्ध हो गया है। वह समस्त प्रयत्नशील साधक गण मरणकाल में शरीर त्यागकर ब्रह्म लोक मे जाते हैं और वहाँ परम अमृतस्वरुप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। ॥६॥ गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु । कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्वे एकीभवन्ति ॥ ७॥ पंद्रह कलाएँ और सम्पूर्ण देवता अर्थात् इन्द्रियाँ अपने अपने अभिमानी देवताओं में जाकर स्थित हो जाते हैं। फिर समस्त कर्म और विज्ञानमय जीवात्मा, यह सभी परम अविनाशी परब्रह्म में एक हो जाते हैं।॥ ७॥ यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ ८॥ जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी महात्मा, नाम रूप से विमुक्त होकर उत्तम-से-उत्तम दिव्य परमपुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। ॥८॥ स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति । तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ ९॥ निश्चय ही जो कोई भी उस परम ब्रह्म परमात्मा को जान लेता है। वह महात्मा ब्रह्म ही हो जाता है, उसके कुल में ब्रह्म को न जाननेवाला नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, पाप समुदाय से तर जाता है और हृदय की गाँठो से सर्वथा छूटकर अमर हो जाता है। ॥९॥ तदेतदृचाऽभ्युक्तम् । क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जुह्वत एकर्षि श्रद्धयन्तः । तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद् यैस्तु चीर्णम् ॥ १०॥ उस ब्रह्मविद्या के विषय में यह बात ऋचा द्वारा कही गयी है, जो निष्काम भाव से कर्म करने वाले वेद के अर्थ के ज्ञाता तथा ब्रह्म के उपासक हैं और श्रद्धा रखते हुए स्वयं 'एकर्षि' नामवाले प्रज्वलित अग्नि में नियमानुसार हवन करते हैं। तथा जिन्होंने विधिपूर्वक सर्वश्रेष्ठ व्रत का पालन किया है, उन्हीं को यह ब्रह्मविद्या बतानी चाहिये। ॥१०॥ तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ११॥ उसी सत्यको अर्थात् यथार्थ विद्या को पहले अंगिरा ऋषि ने उवाच कहा था। जिसने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं किया है, वह इसे नहीं पढ़ सकता अर्थात् इसका गूढ अभिप्राय नहीं समझ सकता। परम ऋषियों को नमस्कार है, परम ऋषियोको नमस्कार है॥ ११ ॥ ॥ इति मुण्डकोपनिषदि तृतीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥ ॥ द्वितीय खण्ड समाप्त ॥२॥ ॥ तृतीय मुण्डक समाप्त ॥३॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाभद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स् वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ इत्यथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ अथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषद समात ॥

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