Atharvavarvedic Mantrasudha (अथर्ववर्वेदीय मन्त्रसुधा)

अथर्ववर्वेदीय मन्त्रसुधा (Atharvavarvedic Mantrasudha) जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्। ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥ अथर्ववेद १।३४।२ मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य, मेरे हृदय तक पहुँचो। मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्। वाचा वदामि मधुमद् भूयास मधुसंदृशः ॥ अथर्ववेद १।३४।३ मेरा जाना माधुर्यमय हो। मेरा आना माधुर्यमय हो। मैं मधुर वाणी बोलूं और मैं मधुर आकृतिवाला हो जाऊँ। प्राणो है सत्यवादिनमुत्तमे लोक आ दधत् ॥ अथर्ववेद ११।४।११ प्राण सत्य बोलनेवाले को श्रेष्ठ लोक में प्रतिष्ठित करता है। सुश्रुतौ कण भद्रश्रुतौ कण भद्रं श्लोकं श्रूयासम् ॥ अथर्ववेद १६।२।४ शुभ और शिव-वचन सुननेवाले कानों से युक्त मैं केवल कल्याणकारी वचनों को ही सुनूँ। ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः। अन्यो अन्यस्मै वलगु वदन्त एत सधीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ॥ अथर्ववेद ३।३०।५ वृद्धों का सम्मान करने वाले, विचारशील, एकमत वाले कार्यसिद्धि में संलग्न, समान धुर वाले होकर विचरण करते हुए तुम विलग मत होओ। परस्पर मधुर सम्भाषण करते हुए आओ। मैं तुम्हें एक गति और एक मत वाला करता हूँ। सुध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोम्येक श्श्रुष्टीन्संवननेन सर्वान्। देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु ॥ अथर्ववेद ३।३०।७ समानगति और उत्तम मन से युक्त आप सबको मैं उत्तम भाव से समान खान-पानवाला करता हूँ। अमृत की रक्षा करने वाले देवों के समान आपका प्रातः और सांय कल्याण हो। शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यः शिवा। शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा ने इहैधि ॥ अथर्ववेद ३।२८।३ हे नववधू! पुरुषों के लिये, गायों के लिये और अश्वों के लिये कल्याणकारी हो। सब स्थानों के लिये कल्याण करनेवाली हो तथा हमारे लिये भी कल्याणमय होती हुई यहाँ आओ। अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः। जाया पत्ये मधुमतीं वाचे वदतु शन्तिवाम् ॥ अथर्ववेद ३।३०।२ पुत्र पिताके अनुकूल उद्देश्यवाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुर और शान्ति प्रदान करनेवाली वाणी बोले। मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचे वदत भद्रया। अथर्ववेद ३।३०।३ भाई-भाईके साथ द्वेष न करे। बहन-बहनसे विद्वेष न करे। समान गति और समान नियमवाले होकर कल्याणमयी वाणी बोलो। यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा। एवा त्वं सम्राज्ञेयेधि पत्युरस्तं परेत्य ॥ अथर्ववेद १४।१।४३ जिस प्रकार समर्थ सागर ने नदियों का साम्राज्य उत्पन्न किया है, उसी प्रकार पति के घर जाकर तुम भी सम्राज्ञी बनो। सम्राज्येधि श्वशुरेषु सम्राझ्युत देवृषु। ननान्दुः सम्राज्येधि सम्राज्युत श्वश्वाः ॥ अथर्ववेद १४।१।४४ ससुर की सम्राज्ञी बनो, देवरों के मध्य भी सम्राज्ञी बनकर रहो, ननद और सास की भी सम्राज्ञी बनो। सर्वो वा एषोऽजग्धपाप्मा यस्यान्नं नाश्नन्ति अथर्ववेद ९।६।२६ जिसके अन्नमें अन्य व्यक्ति भाग नहीं लेते, वह सब पापों से मुक्त नहीं होता। हिरण्यगयं मणिः श्रद्धां यज्ञं महो दधत्। गृहे वसतु नोऽतिथिः ॥ अथर्ववेद १०।६।४ स्वर्ण की माला पहननेवाला, मणिस्वरूप यह अतिथि श्रद्धा, यज्ञ और महनीयता को धारण करता हुआ हमारे घर में निवास करे। तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो राज्ञोऽतिथिगृहानागच्छेत्। श्रेयांसमेनमात्मनो मानयेत् ॥ अथर्ववेद १५।१०।१-२ ज्ञानी और व्रतशील अतिथि जिस राजा के घर आ जाय, उसे इसको अपना कल्याण समझना चाहिये। न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति। देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित्ताभिः सचते गोपतिः सह ॥ अथर्ववेद ४।२१।३ मनुष्य जिन वस्तुओं से देवताओं के हेतु यज्ञ करता है अथवा जिन पदार्थों को दान करता है, वह उनसे संयुक्त ही हो जाता है; क्योंकि न तो वे पदार्थ नष्ट होते हैं, न ही उन्हें चोर चुरा सकता है और न ही कोई शत्रु उन्हें बलपूर्वक छीन सकता है। स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः। विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो नो अ अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम् ॥ अथर्ववेद १।३१।४ हमारे माता-पिताका कल्याण हो। गायों, सम्पूर्ण संसार और सभी मनुष्योंका कल्याण हो। सभी कुछ सुदृढ़ सत्ता, शुभ ज्ञानसे युक्त हो तथा हम चिरन्तन कालतक सूर्यको देखें। परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परेहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मनः ॥ अथर्ववेद ६।४५।१ हे मेरे मन के पाप-समूह, दूर हो जाओ। अप्रशस्त की कामना क्यों करते हो? दूर हटो, मैं तुम्हारी कामना नहीं करता। वृक्षों तथा वनों के साथ रहो, मेरा मन घर और गायों में लगे। इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता। ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः ॥ अथर्ववेद १९।९।३ ब्रह्माद्वारा परिष्कृत यह परमेष्ठी को वाणीरूपी सरस्वती देवी, जिसके द्वारा भयंकर कार्य किये जाते हैं, वहीं हमें शान्ति प्रदान करनेवाली हो। इदं यत् परमेष्ठिनं मनो वां ब्रह्मसंशितम्। येनैव ससृजे घोरं तेनैव शान्तिरस्तु नः ॥ अथर्ववेद १९।९।४ परमेष्ठी ब्रह्मा द्वारा तीक्ष्ण किया गया यह आपका मन, जिसके द्वारा घोर पाप किये जाते हैं, वही हमें शान्ति प्रदान करें। इमानि यानि पञ्चेन्द्रियाणि मनःषष्ठानि मे हृदि ब्रह्मणा संशितानि। यैरेव ससृजे घोरं तैरेव शान्तिरस्तु नः ॥ अथर्ववेद १९।९।५ ब्रह्मा के द्वारा सुसंस्कृत ये जो पाँच इन्द्रियाँ और छठा मन, जिनके द्वारा घोर कर्म किये जाते हैं, उन्हीं के द्वारा हमें शान्ति मिले। शं नो मित्रः शं वरुणः शं विवस्वांछमन्तकः। उत्पाताः पार्थिवान्तरिक्षाः शं नो दिविचरा ग्रहाः ॥ अथर्ववेद १९।९।७ मित्र हमारा कल्याण करे; वरुण, सूर्य और यम हमारा कल्याण करें; पृथ्वी एवं आकाश में होनेवाले अनिष्ट हमें सुख देनेवाले हों तथा स्वर्ग में विचरण करनेवाले ग्रह भी हमारे लिये शान्ति प्रदान करनेवाले हों। पश्येम शरदः शतम् ॥ जीवेम शरदः शतम् ॥ बुध्येम शरदः शतम् ॥ रोहेम शरदः शतम् ॥ पूषेम शरदः शतम् ॥ भवेम शरदः शतम् ॥ भूयेम शरदः शतम् ॥ भूयसीः शरदः शतात् ॥ अथर्ववेद १९।६७।१-८ हम सौ वर्ष तक देखते रहें। सौ वर्ष तक जियें, सौ वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करते रहें, सौ वर्ष तक उन्नति करते रहें, सौं वर्ष तक हृष्ट-पुष्ट रहें, सौ वर्ष तक शोभा प्राप्त करते रहें और सौ वर्ष से भी अधिक आयु का जीवन जियें।

Recommendations