Swetasvatara Upanishad Chapter 5 (श्वेताश्वतरोपनिषद) पांचवां अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः ॥ पांचवां अध्याय द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे । क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥ १॥ जिस ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ छिपे हुए असीम और परम अक्षर परमात्मा में विद्या और अविद्या दोनों स्थित हैं वही ब्रह्म है। यहाँ विनाशशील जडवर्ग को अविद्या नामसे कहा गया है और अविनाशी जीवसमुदाय को विद्या नाम से कहा गया है। तथा जो उपर्युक्त विद्या और अविद्यापर शासन करता है, वह इन दोनों से भिन्न सर्वथा विलक्षण है। ॥१॥ यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः । ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥२॥ जो एक अकेला ही प्रत्येक योनि पर (इस जगत में देव, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, पेड़, गुल्म इत्यादि आदि जितनी भी योनियाँ हैं), समस्त रूपों पर और समस्त कारणों पर आधिपत्य रखता है। जो पहले उत्पन्न हुए कपिल ऋषि को, हिरण्यगर्भ को, सभी प्रकार के ज्ञानों से पुष्ट करता है। तथा उस कपिल (ब्रह्मा) को सबसे पहले उत्पन्न होते देखा था ही सर्वशक्तिमान् सर्वाधार सबके स्वामी परब्रह्म पुरुषोत्तम हैं। ॥२॥ एकैक जालं बहुधा विकुर्वन्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः। भूयः सृष्ट्वा पतयस्तथेशः सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥३॥ यह परमदेव परमेश्वर इस जगत क्षेत्र में सृष्टि के समय एक-एक जाल को बुद्धि आकाशादि तत्त्वों को बहुत प्रकार से विभक्त करके उनका प्रलयकाल में संहार कर देता है। वह महामना परमेश्वर पुनः सृष्टिकाल में पहले की भाँति ही समस्त लोकों की और उनके अधिपतियों की रचना करके स्वयं उन सबके अधिष्ठाता बनकर उन सबपर शासन करते हैं। ॥३॥ सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् । एवं स देवो भगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥४॥ जिस प्रकार यह सूर्य समस्त दिशाओंको ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर, सब ओर से प्रकाशित करता हुआ देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार वह ससर्वाधिक ऐश्वर्य से सम्पन्न, सबके द्वारा भजन करने योग्य परमदेव परमेश्वर अकेले ही समस्त कारणरूप अपनी भिन्न-भिन्न शक्तियों के अधिष्ठाता होकर उन सबका संचालन करता है। ॥४॥ यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः । सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥५॥ जो सबका परम कारण है और समस्त तत्त्वों की शक्तिरूप स्वभाव को अपने संकल्प रूप तप से पकाता है। तथा जो समस्त पकाये जाने वाले पदार्थो को नाना रूपों में परिवर्तित करता है और जो अकेला ही समस्त गुणों का जीवों के साथ यथायोग्य संयोग कराता है तथा इस समस्त विश्व का शासन करता है, वह ही पूर्व मन्त्र मे बताया हुए सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमेश्वर है। ॥५॥ तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् । ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥ ६॥ वह वेदों के रहस्यभूत उपनिषदों में छिपा हुआ है। वेदों के प्राकट्य स्थान उस परमात्मा को ब्रह्मा जानता है। जो पुरातन देवता और ऋषिलोग उसको जानते थे। वह अवश्य ही उसमें तन्मय होकर अमृतरूप हो गये। अर्थात उनके स्वरूपका वर्णन उपनिषदोंमे गुप्तरूपसे किया गया है। वेद निकले भी उन्हीसे हैं, उन्हीं के निःश्वासरूप हैं-'यस्य नि.श्वसित वेदाः। जिन पूर्ववर्ती देवताओं और ऋषियोंने उनको जाना था, वे सब के सब उन्हींमें तन्मय होकर आनन्दवरूप हो गये। अतः मनुष्यको चाहिये कि उन सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सबके अधीश्वर परमात्माको उक्त प्रकारसे मानकर उन्हें जानने और पानेके लिये तत्पर हो जाय । ॥६॥ गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ताकृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता । स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्मा प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥७॥ जो गुणों से बँधा हुआ है वह फल के उद्देश्यसे कर्म करनेवाला जीवात्मा ही उस अपने किये हुए कर्म के फल का उपभोग करनेवाला, विभिन्न रूपोंमें प्रकट होनेवाला, तीन गुणों से युक्त और कर्मानुसार तीन मार्गों 16 से गमन करनेवाला है। वह प्राणों का अधिपति जीवात्मा, अपने कर्मों से प्रेरित होकर अनेकों योनियों में विचरता है ॥७॥ अङ्‌गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः । बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥८॥ जो अंगूठे के आकार के परिमाणवाला, सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप तथा संकल्प और अहङ्कारसे युक्त है, बुद्धि के गुणों के कारण और अपने गुणों के कारण ही आरे की नोक के जैसे सूक्ष्म आकारवाला है, ऐसा अपर अर्थात् परमात्मासे भिन्न जीवात्मा भी निःसंदेह ज्ञानियों द्वारा देखा गया है ॥८॥ बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ ९॥ बाल की नोक के सौवें भाग के पुनः सौ भागों में कल्पना किये जाने पर जो एक भाग होता है, वही उसी के बराबर जीवात्मा का स्वरूप समझना चाहिये और वह असीम भाव वाला होने में समर्थ है। अर्थात् बाल की नोक के दस हजार भाग करने पर उसमें से एक भाग जितना सूक्ष्म हो सकता है, उसके समान जीवात्मा का सरूप समझना चाहिये। ॥ ९॥ नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः । यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥१०॥ यह जीवात्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है और न ही यह नपुंसक ही है। वह जिस-जिस शरीर को ग्रहण करता है, उसमें संबद्ध हो जाता है। ॥ १०॥ सङ्कल्पन स्पर्शनदृष्टिमोहैर्यासाम्बुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म । कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥११॥ संकल्प, स्पर्श, दृष्टि और मोह से तथा भोजन, जलपान और वर्षा के द्वारा प्राणियों के सजीव शरीर की वृद्धि और जन्म होते हैं। यह जीवात्मा भिन्न-भिन्न लोकों में कर्मानुसार मिलनेवाले भिन्न-भिन्न शरीरों को क्रम से बार बार प्राप्त होता रहता है। ॥११॥ स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति । क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥१२॥ जीवात्मा अपने कमों के संस्कार रूप गुणों से तथा शरीर के गुणों से युक्त होने के कारण ममता आदि अपने गुणों के वशीभूत होकर स्थूल और सूक्ष्म बहुत-से रूपों (आकृतियों, शरीरों) को स्वीकार करता है। उनके संयोग का कारण दूसरा भी देखा गया है अर्थात् शरीरके धर्मों में ममता आदि उत्पन्न हो जाने के कारण नाना प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म रूपों को स्वीकार करता है - अपने कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेता है। परन्तु इस प्रकार जन्म लेने में यह स्वतंत्र नहीं है, इसके संकल्प और कर्मों के अनुसार उन-उन योनियों से इसका सम्बन्ध जोड़नेवाला कोई दूसरा ही है। वे हैं पूर्वोक्त परमेश्वर, जिन्हें तत्त्वज्ञानी महापुरुषोंने देखा है। ॥१२॥ अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ १३॥ कलिल (दुर्गम संसार) के भीतर व्याप्त आदि-अन्तसे रहित, समस्त जगत की रचना करने वाले, अनेकरूप धारी तथा समस्त जगत को सब ओर से घेरे हुए एक अद्वितीय परमदेव परमेश्वरको ज्ञात्वा- जानकर मनुष्य समस्त बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। ॥ १३॥ भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् । कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥१४॥ श्रद्धा और भक्ति के भाव से प्राप्त होने योग्य, आश्रय रहित कहे जानेवाले तथा जगत की उत्पत्ति और संहार करने वाले कल्याणस्वरूप तथा सोलह कलाओं की रचना करनेवाले परमदेव परमेश्वर को जो साधक जान लेते हैं, वह शरीर को सदा के लिये त्याग देते हैं। अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए छूट जाते हैं। ॥१४॥ ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ॥ पञ्चम अध्याय समाप्त ॥

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